‘सत्संगका प्रसाद’ श्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज
हे नाथ ! मेरे नाथ !! मैं आपको भूलूँ नहीं !
श्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज
मन-बुद्धि अपने नहीं
अपने स्वरूपमें स्थित होनेकी बात जहाँ आती है,वहाँ हम उन्हीं मन और बुद्धिसे स्थित होना चाहते हैं, जिनमें संसारके संस्कार पड़े हैं । वे मन और बुद्धि संसारकी तरफ ही दौड़ते हैं । हमारे पास मन और बुद्धि लगानेके अलावा कोई उपाय है नहीं । ऐसी स्थितिमें हम मन-बुद्धिसे कैसे अलग हों?
हम मन-बुद्धिको परमात्मामें लगाते हैं तो वे संसारकी तरफ जाते हैं । इसमें मुख्य बात यह है कि हमारे भीतरमें संसारका महत्त्व जँचा हुआ है । उत्पत्ति-विनाशशीलका जो महत्त्व अन्तःकरणमें बैठा हुआ है, उसको हमने बहुत ज्यादा आदर दे दिया है‒यह बाधा हुई है । इस बाधाको विचारके द्वारा निकाल दो तो यह ‘ज्ञानयोग’ हो जायगा । इससे पिण्ड छुड़ानेके लिये भगवान्की शरण लेकर पुकारो तो यह‘भक्तियोग’ हो जायगा । जितनी वस्तु अपने पास है, उसको व्यक्तिगत न मानकर दूसरोंकी सेवामें लगाओ और कर्तव्य-कर्म करो तो अपने लिये न करके केवल दूसरोंके हितके लिये करो तो यह ‘कर्मयोग’ हो जायगा । इन तीनोंमें जो आपको सुगम दीखे, वह शुरू कर दो । वस्तुओंको व्यक्तियोंकी सेवामें लगाओ । समाधि भी सेवामें लगा दो । अपने शरीरको,मनको, बुद्धिको सेवामें लगा दो । केवल दूसरोंको सुख पहुँचाना है और स्वयं बिलकुल अचाह होना है । जड़की कोई भी चाह रखोगे तो बन्धन रहेगा, इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । यह बात खास जँच जानी चाहिये कि संसारकी कोई भी चाह रखोगे तो दुःखसे, बन्धनसे कभी बच नहीं सकते; क्योंकि दूसरोंकी चाहना रखेंगे, दूसरोंसे सुख चाहेंगे तो पराधीन होना ही पड़ेगा और ‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं’ (मानस १ । १०२ । ३) । कुछ भी चाह मत रखो तो दुःख मिट जायगा ।
बुद्धि संसारमें जाती है तो उसको जाने दो । बुद्धि आपकी है कि आप बुद्धिके हो ? स्वयं विचार करो, सुन करके नहीं । आपकी बुद्धि संसारमें जाती है तो आप बुद्धिमें अपनापन मत रखो । बुद्धि तो आपकी वृत्ति है । उसको चाहे जहाँ नहीं लगा सको तो उससे विमुख हो जाओ कि मैं बुद्धिका द्रष्टा हूँ, बुद्धिसे बिलकुल अलग हूँ । स्वयं बुद्धिको जाननेवाला है । बुद्धि एक करण है और परमात्मतत्त्व करण-निरपेक्ष है । पढ़ाईके समय भी मेरी यह खोज रही है कि जीवका कल्याण कैसे हो ? मेरेको जब यह बात मिली कि परमात्मतत्त्व करण-निरपेक्ष है, तब मुझे बड़ा लाभ हुआ,बड़ी प्रसन्नता हुई । आप इस बातपर आरम्भमें ही ध्यान दो तो बड़ा अच्छा रहे ! तत्त्व वृत्तिके कब्जेमें नहीं आयेगा । प्रकृतिकी वृत्ति प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको कैसे पकड़ेगी ? अत: यह विचार आप पक्का कर लो कि तत्त्वकी प्राप्ति करण-निरपेक्ष है, करण-सापेक्ष नहीं है ।
परमात्मा सबके भीतर हैं‒यह बहुत ऊँचे दर्जेकी चीज है । उतना न समझ सको तो इतना समझ लो कि ‘सब परमात्माके हैं ।’ यह सुगमतासे समझमें आ जायगा कि ये जितने प्राणी हैं, सब परमात्माके हैं । परमात्माके हैं तो ऐसे क्यों हो गये ? कि ज्यादा लाड़-प्यार करनेसे बालक बिगड़ जाता है । ये परमात्माके लाड़ले बालक हैं, इसलिये बिगड़ गये । बिगड़नेपर भी हैं तो परमात्माके ही ! अत: उनको परमात्माके समझकर ही उनके साथ यथायोग्य बर्ताव करना है । जैसे हमारा कोई प्यारा-से-प्यारा भाई हो और उसको प्लेग हो जाय तो प्लेगसे परहेज रखते हैं और भाईकी सेवा करते हैं । जिसकी सेवा करते हैं, वह तो प्रिय है, पर रोग अप्रिय है । इसलिये खान-पानमें परहेज रखते हैं । ऐसे ही किसीका स्वभाव बिगड जाय तो यह बीमारी आयी है,विकृति आयी है । उसके साथ व्यवहार करनेमें जो फरक दीखता है, वह केवल ऊपर-ऊपरका है । भीतरमें तो उसके प्रति हितैषिता होनी चाहिये ।
भगवान् सबके सुहद् हैं‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५ । २९) । ऐसे ही सन्तोंके लिये आया है कि वे सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद् होते हैं‒‘सुहृद: सर्वदेहिनाम्’ (श्रीमद्भा॰ ३ । २५ । २१) । सुहृद् होनेका मतलब क्या ? कि दूसरा क्या करता है, कैसे करता है, हमारा कहना मानता है कि नहीं मानता, हमारे अनुकूल है कि प्रतिकूल‒इन बातोंको न देखकर यह भाव रखना कि अपनी तरफसे उसका हित कैसे हो ? उसकी सेवा कैसे हो ? हाँ, सेवा करनेके प्रकार अलग-अलग होते हैं । जैसे, कोई चोर है, डाकू है, उनकी मारपीट करना भी सेवा है । तात्पर्य है कि उनका सुधार हो जाय,उनका हित हो जाय, उनका उद्धार हो जाय । बच्चा जब कहना नहीं मानता तो क्या आप उसको थप्पड़ नहीं लगाते? उस समय क्या आपका उससे वैर होता है ? वास्तवमें आपका अधिक स्नेह होता है, तभी आप उसको थप्पड़ लगाते हैं । भगवान् भी ऐसा ही करते हैं । जैसे, बच्चे खेल रहे हैं और किसी माईका चित्त प्रसन्न हो जाय तो वह स्नेहवश सब बच्चोंको एक-एक लड्डू दे देती है । परन्तु वे उद्दण्डता करते हैं तो वह सबको थप्पड़ नहीं लगाती, केवल अपने बालकको ही लगाती है । ऐसे ही भगवान्का विधान हमारे प्रतिकूल हो तो वह उनके अधिक स्रेहका, अपनेपनका द्योतक है ।
दूसरेके साथ स्नेह रखते हुए बर्ताव तो यथायोग्य,अपने अधिकारके अनुसार करना चाहिये, पर दोष नहीं देखना चाहिये । किसीके दोष देखनेका हमारा अधिकार नहीं है । जैसे, नाटकमें एक मेघनाद बन गया और एक लक्ष्मण बन गया । दोनों एक ही कम्पनीके हैं । पर नाटकके समय कहते हैं‒अरे, तेरेको मार दूँगा । आ जा मेरे सामने खत्म कर दूँगा । वे शस्त्र-अस्त्र भी चलाते हैं । परन्तु भीतरसे उनमें वैर है क्या ? नाटकके बाद वे एक साथ रहते हैं, खाते-पीते हैं;क्यों ? उनके हृदयमें वैर है ही नहीं ।
‘सत्संगका प्रसाद’
हे नाथ ! मेरे नाथ !! मैं आपको भूलूँ नहीं !
श्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज
No comments:
Post a Comment