मुक्ति सहज है
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
एक बहुत ही बढ़िया, श्रेष्ठ बात है । इस ओर आप ध्यान दें तो विशेष लाभ होगा । बात यह है कि हम भगवत्प्राप्ति, जीवन्मुक्ति, तत्त्वज्ञान, परमप्रेम, कल्याण, उद्धार आदि जो कुछ (ऊँची-से-ऊँची बात) चाहते हैं, उसकी प्राप्ति स्वतःसिद्ध है । यह बहुत ही मूल्यवान् बात है । इसे आप मान लें । इसे समझानेमें मैं अपनेको असमर्थ समझता हूँ । लोगोंकी धारणा है कि माननेसे क्या होता है ? केवल मान लेनेसे क्या लाभ होगा ? इसलिये मेरी बातको सुनकर टाल देते हैं ।
अब आप ध्यान दें । गीतामें भगवान्ने कहा है‒‘प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ॥’ (१३।१९) ‘प्रकृति और पुरुष दोनोंको ही तू अनादि जान’ । और ‘क्षेत्रज्ञ चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।’ (१३।२) ‘हे अर्जुन ! तू सब क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा भी मुझे ही जान ।’ अभिप्राय यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों भिन्न-भिन्न हैं‒ऐसा मान लें । आप पुरुष हैं और प्रकृति आपसे भिन्न है । तात्पर्य यह निकला कि आप जिससे अलग अर्थात् मुक्त होना चाहते हैं, उस प्रकृतिसे आप स्वत: मुक्त हैं । केवल आपने अपनी इच्छासे प्रकृतिको पकड़ रखा है, उसे स्वीकार कर रखा है । प्रकृतिको पकड़नेसे ही दुःख और बन्धन हुआ है । इसे छोड़ दें तो आप ज्यों-के-त्यों (जीवन्मुक्त) ही हैं ।
आप निरन्तर रहनेवाले हैं और प्रकृति निरन्तर बदलनेवाली है । वह आपसे स्वाभाविक अलग है । प्रकृतिने आपको नहीं पकड़ा है अपितु आपने ही प्रकृतिको पकड़ा है और मैं-मेरेकी मान्यता की है । मैं-मेरेकी मान्यता करना ही भूल है । यह जो इन्द्रियोंसहित शरीर है, यह ‘मैं’ नहीं है और जो संसार है, वह ‘मेरा’ नहीं है । इस बातको मान लेना है और कुछ नहीं करना है । कारण कि वस्तुत: बात ऐसी ही है । आप निरन्तर रहनेवाले और संसार निरन्तर जानेवाला है‒इस ओर केवल दृष्टि करनी है, और कुछ नहीं करना है । यह करना-कराना सब प्रकृति संसारके राज्यमें है । जिस क्षण यह विचार हुआ कि हम संसारसे अलग हैं, उसी क्षण मुक्ति है ।
संसारसे सम्बन्ध माननेमें खास बात है‒उससे सुख लेनेकी इच्छा । यह सुख लेनेकी इच्छा ही सम्पूर्ण दुःखों, पापों, अनर्थों, दुराचारों, अन्यायों आदिकी जड़ है । जबतक सांसारिक पदार्थोंके संग्रह और सुख-भोगकी इच्छा रहेगी, तबतक चाहे कितनी ही बातें सुन लो, पढ़ लो, सीख लो और चाहे त्रिलोकीका राज्य प्राप्त कर लो, फिर भी दुःख मिटेगा नहीं‒यह पक्की बात है । संग्रह और सुख-भोगकी वृत्ति चेष्टा करनेसे नहीं मिटेगी । यहाँ चेष्टाकी बात ही नहीं है । आपने मैं-मेरेकी मान्यता की हुई है । मानी हुई बात न माननेसे ही मिटती है, चेष्टासे नहीं । विवाह होनेपर स्त्री पुरुषको अपना पति मान लेती है, तो इसमें (पति माननेमें) कौन-सी चेष्टा करनी पड़ती है ? बस, केवल मानना होता है ।
करणनिरपेक्ष साधन-शरणागतिप्रश्न‒‘मैं पतिकी हूँ’‒यह तो प्रत्यक्ष दिखायी देता है, पर ‘मैं भगवान्का हूँ’‒यह प्रत्यक्ष दिखायी नहीं देता, फिर इसको कैसे मानें ?
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