शिव संहिता
प्रथम पटल। लय
प्रकरण
एकं ज्ञानं
नित्यमाद्यंतशूल्यं
नान्यत
किचिद्वर्तते वस्तु सत्यम।
यदभेदोऽस्मिन्निन्द्रियोंपाधिना
वै
ज्ञानस्यायं
भासते नान्यथैव॥
अथ
भक्तानुरक्तोऽहं वक्ष्ये योगानुशासनम।
ईश्वरः
सर्वभूतानामात्ममुक्तिप्रदायकः॥
त्यक्त्वा विवादशीलानां
मतं दुर्ज्ञानहेतुकम।
आत्मज्ञानाय
भूतानामनन्यगतिचेतसाम॥
केवल एक
ज्ञान ही नित्य और आदि अन्त से रहित है। जगत में ज्ञान से भिन्न कोई
अन्य वस्तु विद्यमान नहीं है। इंद्रियों की उपाधि के द्वारा जो कुछ पृथक-पृथक
प्रतीत होता है, वह केवल ज्ञान की भिन्नता के कारण ही प्रतीत होता
है। भक्तों पर कृपा करने के उद्देश्य से मैंने यह योग का अनुशासन कहा है।
सब भूतों की आत्मा मुक्तिदायक है। यह इस शास्त्र का लक्ष्य है जो मत विवादमय
और दुर्ज्ञान के कारणरूप है, उनका त्याग करके आत्मज्ञान का आश्रय लें, यही
भूतों की अनन्य गति है।
सत्यं केचित
प्रशसन्ति तपः शौचं तथापरे।
क्षमां
केचित्प्रशसन्ति तथैव सममार्ज्जवम॥
केचिददानं
प्रशंसन्ति पितृकम तथापरे।
केचित कर्म
प्रशंसन्ति केचिद्वैराग्यमुत्तमम॥
कोई विद्वान
सत्य की प्रशंसा करते हैं तो कोई तपस्या की और कोई शुद्ध आचार
को ही श्रेष्ठ बताते हैं। कोई क्षमा को उचित मानते हैं तो कोई सब में समान
भाव रखना ही ठीक बताते हैं। कोई सरलता का अनुमोदन करते हैं तो कोई दान की
ही प्रशंसा किया करते हैं। कोई पितर कर्म (तर्पणादि) की महत्ता स्वीकार करते
हैं । कोई कर्म अर्थात सगुण उपासना को ही मान्यता देते हैं।
कुछों के मत में वैराग्य ही श्रेष्ठ है।
केचिदगृहस्थकर्माणि
प्रशंसन्ति विच्क्षणाः।
अग्निहात्रादिकं
कर्म तथा केचित्परं बिंदु॥
मंत्रयोग
प्रशंसन्ति केचित्तीर्थानुसेवनम।
एवं
बहूनुपायांस्तु प्रवदन्ति विमुक्तये॥
कोई विद्वान
पुरुष गृहस्थ धर्म को प्रशंसनीय कहते हैं तो कोई परमज्ञानी अग्निहोत्र
आदि कर्मों को ही प्रशस्त मानते हैं। किसी के मत में मंत्र योग ही
श्रेष्ठ है और किसी के विचार में तीर्थ यात्रा आदि करना या तीर्थसेवन करना
ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार अनेकानेक विद्वानों ने संसार सागर से मुक्त होने
के लिए अपनी-अपनी मति के अनुसार अनेक उपाय बताए हैं।
एवं व्यवस्थिता
लोके कृत्याकृत्यविदो जनाः।
व्यामोहवेव
गच्छतिः विमुक्ता पापकर्मभिः॥
एतन्मतावलंबी यो
लब्ध्वा दुरितपुण्यके।
भ्रमतीत्यवशः
सोऽत्र जन्ममृत्युपरंपराम॥
इस प्रकार
कृत्य और अकृत्य अर्थात विधि-निषेध कर्मों के ज्ञाता पुरुष पाप
कर्मों से विमुक्त रहकर भी व्यामोह में ही पड़े रहते हैं तथा पाप-पुण्य के
अनुष्ठान रूप उपयुक्त मतों के आश्रय में रहते हैं। परिणामस्वरूप अनुष्ठाता
को जन्म-मरण के चक्र में बार-बार घूमते रहना होता है। इसका तात्पर्य
यह है कि शुभ कर्मों के करने से चित्त की शुद्धि तो संभव है, परंतु
मुक्ति मिल जाना संभव नहीं है।
अन्यैर्मतिमतां
श्रेष्ठैर्गु प्तालोकनततपरैः।
आत्मानो बहवः
प्रोक्ता नित्याः सर्वगतास्तथा।।
यद्यत्प्रत्यक्षविषयं
तदन्यन्नास्ति चक्षते।
कुतः स्वर्गादयः
सन्तीत्यन्ये निश्चितमानसाः।।
ज्ञानप्रवाह
इत्यन्ते शून्य केचित्परं बिदुः।
द्वावेव तत्त्वं
मन्यतेअपरे प्रकृतिपूरुषौ।।
कुछ विद्वान
गोपनीय शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहना श्रेष्ठ बताते हैं।
अनेकों का कहना है कि आत्मा नित्य और
सर्वज्ञ गमन करने में समर्थ है। कुछ
भी सत्य नहीं हैं। वे अपने दृढ़ चित्त से यही कहते हैं कि स्वर्गादि लोक
हैं ही कहां? अर्थात स्वर्गादि लोक कहीं है ही नहीं। कुछ
विद्वानों का मत है कि जो कुछ भी है, वह
ज्ञान का प्रवाह ही है अर्थात संसार की सब दृश्यमान
वस्तुएं ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। किसी किसी का निश्चय है कि
जो कुछ है, वह शून्य ही है(यह शून्यवादियों का मत है) इसी
प्रकार कुछ लोगों के विचार में प्रकृति और पुरुष दो
ही तत्त्व हैं।
अत्यन्तभिन्नमतयः
परमार्थपराङमुखाः।
एवमन्ये तु
संचिन्त्य यथामति यथाश्रुतम्।।
निरोश्वरमिंद
प्राहुः सेश्वरं च तथापरे।
वदन्ति
विविधैर्भेदैः सुयुक्त्या स्थितिकातराः।।
जो परमार्थ
के विरुद्ध है उनकी मति तो और भी भिन्न है। इस प्रकार अपनी अपनी
मति के अनुसार मान्यता बनाए हुए लोग कर्मों में लगे रहते हैं। किन्हीं का
कहना है कि ईश्वर है ही नहीं और किन्हीं का कहना है कि यह जगत प्रपंच ईश्वरमय
ही है। इस भांति अनेक विद्वान अनेक भेदों का वर्णन करते हैं और अपने
मत में दृढ़ता पूर्वक तत्पर रहते हैं अर्थात वे किसी अन्य मत की कोई बात
भी सुनना चाहते ।
एते चान्ये च
मुनयः संज्ञाभेदाः पृथग्विधाः।
शास्त्रषु कथिता
ह्येते ल कव्यामोहकारकाः।।
एतद्विवादशीलानां
मतं वक्तुं न शक्यते।
भ्रमन्त्यस्मिन
जनाः सर्वे मुक्तिमार्गबहिष्कृताः।।
इस प्रकार
अनेक मनुष्यों ने विभिन्न नाम वाले और पृथक पृथक विधि विधान वाले
विविध मतों को लेकर शास्त्रों की रचना कर डाली है। परंतु ऐसे सभी शास्त्र
लोकों को व्यामोह में डालने वाले हैं। अर्थात उन भिन्न भिन्न मत के शास्त्रों
को पढ़ने से भ्रम उत्पन्न हो जाता है और
साधक कुछ निश्चय करने में
असमर्थ रहता है जिसके कारण जीवन समाप्त होने तक भी चित्त में भ्रांति बनी
रहती है। परंतु ऐसे विवादशील पुरुषों का मत कहने की शक्ति हममें नहीं है, जिससे
कि मनुष्य मुक्ति मार्ग को छोड़कर भवचक्र में ही भ्रमण करते रहते
हैं।
आलोक्य
सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुन पुनः।
इदमेकं
सुनिष्पन्न योगशास्त्रं पर मतम।।
यस्मिन् ज्ञाते
सर्वमिदं ज्ञातं भवति निश्चितम्।
तस्मिन्
परिश्रमः कार्यः किमन्यच्छास्त्रभाषितम्।।
सभी
शास्त्रों का अवलोकन करके उन पर पुनः पुनः विचार करके यही निश्चय होता
है कि एक मात्र यही योग शास्त्र परममत रूप एवं श्रेष्ठ है। इसकी ठीक प्रकार
से रचना हुई है। इसको जानने के लिए अवश्य ही परिश्रम करना चाहिए। क्योंकि
(जब अन्य शास्त्र निरर्थक ही हैं तब) उनका ज्ञान प्राप्त करने का प्रयोजन
ही क्या है?
योगशास्त्रमिदं
गोप्यमस्माभिः परिभाषितम्।
सुभक्ताय
प्रदातव्यं त्रैलोक्ये च महात्मने॥
शिव जी कहते
हैं कि मेरे द्वारा कहा गया यह योगशास्त्र गोपनीय है,इसलिए इसे
तीनों लोकों में से केवल उसी को देना चाहिए,जो कि महात्मा और श्रेष्ठ भक्त
हो।
कर्मकांड
ज्ञानकांडमिति वेदो द्विधा मतः।
भवति द्विविधो
भेदो ज्ञानकांडस्य कर्मणः।
द्विविधः
कर्मकांडः स्यान्निषेधविधिपूर्वकः।
निषिद्धकर्मकरणे
पापं भवति निश्चितम्।
विधिना कर्मकरणे
पुण्यं भवति निश्चितम्।
वेद के दो मत
हैं-कर्मकांड और ज्ञानकांड। उनमें कर्मकांड और ज्ञानकांड दोनों
के भी दो-दो भेद माने गए हैं। कर्मकांड के दो भागों को निषेध और विधि के
नाम से जाना जाता है। निषेध कर्म के करने से अवश्य ही पाप होता है और विधि
कर्म के कारण निश्चित रूप से पुण्य होता है।
त्रिविधो
विधिकूटः स्यान्नित्यनैमित्यकाम्यतः।
नित्येऽकृते
किल्बिषं स्यात्काम्ये नैमित्तिके फलम्।
विधि कर्म
नित्य,नैमित्तिक और सकाम के भेद से तीन प्रकार के होते
हैं। नित्यकर्म अर्थात देव-पूजन, संध्या
आदि इसके न करने से पाप होता है। सकाम कर्मफल की इच्छा से
किया जाता है और नैमित्तिक कर्म अर्थात पर्व काल में तीर्थ
आदि के पुण्यजलों में स्नान दान आदि है, जिसके करने से पुण्य अर्जित होता
है।
द्विविधं तु फलं
ज्ञेयं स्वर्ग नरकमेव च।
स्वर्गे
नावाविधं चैत्र नरके च तथा भवेत्।
पुण्यकर्मणि वै
स्वर्गो नरकं पापकर्मणि।
कर्मबंधमयी
सृष्टिर्नान्यथा भवति ध्रुवम।
दो प्रकार का
फल माना जाता है। स्वर्ग और नरक। स्वर्ग और नरक दोनों ही अनेक
प्रकार के होते हैं। पुण्य कर्म करने वाले को स्वर्ग और पाप कर्म करने वाले
को नरक की प्राप्ति होती है। यह सृष्टि निश्चय ही कर्मबंधन से युक्त है, इसे
अन्यथा नहीं समझना चाहिए। सृष्टि के कर्म बंधन का तात्पर्य यह है कि
संसार में आकर मनुष्य जो कुछ कर्म या अकर्म करता है,जब तक उनके फल का भोग
नहीं किया जाता और जब तक किंचित भी कर्म शेष रहता है,तब
तक संसार के बंधन से छुटकारा नहीं मिलता।
जंतुभिश्चानुभूयंते
स्वर्गे नानासुखानि च।
नाना विधानि
दुःखानि नरके दुःसहानि वै।
पापकर्मवशाद्दुःखं
पुण्यकर्मवशात्सुखम्।
तस्मात्सुखार्थी
विविधं पुण्यं प्रकुरुते धु्रुवम।
स्वर्ग में
जीव को अनेक प्रकार के सुखों का अनुभव प्राप्त होता है और इसी
प्रकार नरक में उसे अनेक प्रकार के दुःसहनीय दुखों को भोगना होता है। पाप
कर्मों के करने से दुःख की और पुण्य कर्मों का करने से सुख की प्राप्ति है, इसलिए
हमेशा पुण्य कर्म करने के लिए प्रयास करना चाहिए।
पापभोगावसाने तु
पुनर्ज्जन्म भवेत्खलु।
पुण्यभोगावसाने
तु नान्यथा भवति ध्रुवम्।
स्वर्गेऽपि
दुःखसंभोगः परस्त्रीदर्शनाद् ध्रुवम्।
ततो दुःखमिदं
सर्व भवेन्नास्त्यत्र संशयः।
जैसे पाप का
फल भोग लेने पर जीव को पुनः संसार में जन्म लेना होता है, वैसे
ही पुण्य का फल भोगने पर भी पुनर्जन्म ग्रहण करना होता है। ऐसा अवश्य होता
है, इसमें अन्यथा नहीं समझना चाहिए। स्वर्ग भी निश्चय
ही दुःख का स्थान है, क्यों कि वहां
परस्त्री का दर्शन (अप्सरा आदि का भोग) मिलता है, जिससे रागद्वेष
ईर्ष्या आदि एवं इच्छित स्त्री के न मिलने से मानसिक व्यथा उत्पन्न
होना स्वाभाविक है और यह सब दुःख रूप ही है,
इसमें कुछ भी संशय नहीं
है।
तत्कर्म कल्पकैः
प्रोक्तं पुण्यपापमिति द्विधा।
पुण्यपापमयो
बंधो देहिनां भवति क्रमात्॥
इहामुत्र
फलद्वेषी सकलं कर्मं संत्यजेत्।
नित्यनैमित्तिके
सङ्ग त्यक्तवा योगे प्रवर्तते॥
मेधावी जनों
ने पुण्य और पाप के रूप में दो प्रकार के कर्म कल्पित किए हैं।
उन्हीं पाप-पुण्य रूपी कर्मों से शरीर बंधा हुआ है, जिससे कि जीव को बार-बार
जन्म ग्रहण करना पड़ता है। इस लोक और परलोक के फल की कामना का और नित्य,नैमित्तिक
आदि सभी कर्मों के फलों की आकांक्षा का त्याग करके मुमुक्षु
पुरुष को योगाभ्यास में प्रवृत्त होना चाहिए।
कर्मकांडस्य
महात्म्यं ज्ञात्वा योगो त्येजेत्सुधीः।
पुण्यपापद्वयं
त्यक्तवा ज्ञानकांडं प्रवर्तते॥
आत्म वा रे च
श्रोतव्यो मंतव्य इति यच्छतिः।
सा सेव्या
तत्प्रयत्नेन मुक्तिदा हेतुदायिनी॥
योगी साधक के
लिए आवश्यक है कि वह कर्मकांड के महात्म्य को जान लेने के पश्चात
पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों को छोड़ कर ज्ञानकांड में प्रवृत्त
हो जाए। श्रुति का वचन है कि अरे, आत्मा ही सुनने के योग्य है, आत्मा
ही मनन करने के योग्य है। आत्मा ही मुक्ति को देने वाली और सभी को उत्पन्न
करने वाली है। इसलिए, प्रयत्नपूर्वक आत्मा का सेवन करें।
दुरितेषु च
पुण्येषु यो धोवृत्तिं प्रचोदयात्।
सोऽहं प्रवर्तते
मत्तो जगत्सर्व चराचरम्॥
सर्वं च दृष्यते
मनः सर्वं च मयि लीयते।
न
तद्भिन्नोऽहमस्मीति मद्भिन्नं न तु किंचन॥
जो
चित्तवृत्ति बुद्धि को पाप और पुण्य दोनों में ही समान रूप से पे्ररित
करती है, ‘वह मैं हूं’
मुझसे ही इस संपूर्ण चराचर रूप जगत की उत्पत्ति
होती है। यह संपूर्ण दृश्यमान प्रपंच मैं ही हूं, यह सब (मुझसे ही उत्पन्न
होना और) मुझमें ही लीन हो जाता है। न वह मुझसे भिन्न है और न मैं उससे
भिन्न हूं। इस प्रकार मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं है। अभिप्राय यह है कि संसार
की ऐसी मान्यता रखनी चाहिए।
जलपूर्णेष्वसंख्येषु
शरावेषु यथा भवेत्।
एकस्य भात्यसंख्यत्वं
तद्भेदोऽत्र न दृष्यते॥
उपाधिषु शरावेषु
या संख्या बतते परा।
सा संख्या भवति
यथा रवौ चात्मनि तत्तथा।
जिस प्रकार
जल से परिपूर्ण मृत्तिका पात्र में एक ही सूर्य के अनेक प्रतिबिंब
प्रतीत होते हैं,परंतु यथार्थ में वे अनेक नहीं होते,वरन्
उनमें अनेकता का प्रतीति होती है। वैसे ही यह जगत भी एक
ही परमसत्ता की अभिव्यक्ति है। एक सत्ता के अनेक रूपों
में अभिव्यक्त होने के कारण ही हमको विविधता का बोध होता
है। यह विविधता एक भ्रम है,सभी में एक ही प्रेरक शक्ति
विद्यमान है।
यथैक कल्पकः
स्वप्ने नानाविधतयेष्यते।
जागरेऽपि
तथाग्येकस्तथैब बहुधा जगत्॥
सर्वबुद्धियथा
रज्जौ शुक्तौ वा रजतभ्रमः।
तद्वदेवमिदं
विश्वं विवृत्तं परमात्मनः॥
जिस प्रकार
स्वप्नावस्था में एक से ही अनेक प्रकार की कल्पना होती है, परंतु
निद्रा के भंग होने पर कुछ भी दिखाई नहीं देता,
उसी प्रकार जगत के अनेक
रूपों की प्र्र्र्र्र्रतीति माया के आवरण से ही होती है।
फिर जब वह
माया दूर हो जाती है, तब जगत का अनेकत्व दूर होकर एकमात्र शुद्ध
ब्रह्म ही रह जाता है। जैसे रस्सी में सर्प की प्रतीति अथवा सीप में रजत
की भ्रांति होने लगती है,वैसे ही परमात्मा में माया के आवरण से इस विश्व
की भ्रांति होता है।
रज्जुज्ञानाद्यथा
सर्वो मिथ्यारूपो निवर्तते।
आत्मज्ञानत्तथा
याति मिथ्याभूतमिदं जगत््॥
रौण्यभ्रांतिरियं
याति शुक्तिज्ञानादू यथा खलु।
जगत्भ्रांतिरियं
याति चात्मज्ञानाद्यथा तथा॥
परंतु जब
रस्सी का ज्ञान हो जाता है, तब सर्प की मिथ्या बुद्धि नहीं रहती, वैसे
ही आत्मज्ञान होने पर यह मिथ्याभूत जगत भी नहीं रहता। इसी प्रकार जब
यह ज्ञान हो जाता यह सीप है, तभी उसके रजत होने का भ्रम दूर हो जाता
है, वैसे ही आत्मज्ञान के उत्पन्न होने पर जगत की
भ्रांति समाप्त हो जाती है।
यथा
रज्जूरगभ्रांतिर्भवेद्भेदवशाज्जगत्।।
तथा जगदिदं
भ्रांतिरध्यासकल्पनाजगत्।
आत्मज्ञानाद्यथा
नास्ति रज्जुज्ञानाद्भुजङ्गमः॥
जैसे रस्सी
में सर्प की भ्रांति होती है, वैसे ही जगत में भी भेद की प्रतीति
होती है, अर्थात् जगत की भिन्नता रूपी भ्रांति रज्जु में
सर्प भ्रांति के ही समान है- संसार की यह कल्पना
अभ्यास मात्र ही है, इसमें यथार्थता
किंचित् भी नहीं है। आत्मज्ञान होते ही मिथ्या संसार और विभिन्न प्रकार
के भेद तिरोहित हो जाते हैं।
यथा
दोषवशाच्छुक्लः पीतों भवति नान्यथा।
अज्ञानदोंषादात्मापि
जगद्भवति दुस्त्यजम्॥
दोषनाशे यथा
शुक्लो गृह्यते रोगिणा स्वयम्।
शुक्लज्ञानात्तथाज्ञाननाशादात्मा
तथा कृतः॥
जिस प्रकार
पित्तादि वे दूषित होने से पांडु रोग होकर निश्चय ही पीलापन प्रतीत
होता है, वैसे ही ज्ञान रूप दोष के कारण आत्मा भी मिथ्या
जगत के रूप से दिखाई देने लगता है। वह अज्ञान सरलता
से दूर नहीं हो पाता। परंतु जब वह
दूर हो जाता है, तब
(पित्तादि दोषों के दूर होने पर) रोगी का पीलापन मिट कर
शुक्ल रूप दिखाई देने के समान ही शुद्ध ब्रह्म का अनुभव होने लगता है। (इसीप्रकार
अज्ञान भी रोग के समान है, जो कि आत्मज्ञान रूपी औषध के द्वारा ही
नष्ट हो सकता है)।
कालत्रयेऽपि न
यथा रज्जुः सर्वो भवेदिति।
तथात्मा न
भवेद्विश्वं गुणातीतो निरञ्जनः॥
आगपाऽपायिनोऽनित्या
नाश्यत्वे नेश्वरादयः।
आत्मबोधेन
केनापि शास्त्रादेतद्विनिश्चितम्॥
जैसे कि
त्रिकाल में भी रस्सी सर्प नहीं बन सकती, वैसे ही गुणों से परे और
विशुद्ध आत्मा कभी भी विश्व नहीं बन सकता, यह निश्चित है। जिस शास्त्र में
आत्म-बोध विषयक उपदेश है, उसके अध्ययन से ही निश्चय होता है कि
ईश्वर कहे जाने वाले इंद्रादि देवगण भी अनित्य ही हैं, अर्थात
उनका भी आवागमन निश्चित है।
यथा
वातवशत्सिन्धावुत्पन्नाः फेनबुद्बुदाः।
तथात्मनि सुमुद्भूतं
संसारं क्षणभंगुरम्॥
अभेदो भासते
नित्यं वस्तुभेदो न भासते।
द्विधात्रिधादिभेदोऽयं
भ्रमत्वे पर्यवस्यति॥
जैसे कि वायु
क्षोभ से समुद्र में फेन और बुद्बुदे उत्पन्न होते और तुरंत
ही समुद्र में लीन हो जाते हैं, वैसे ही माया के प्रभाव से आत्मा के द्वारा
ही यह क्षणभंगुर संसार उत्पन्न होता और फिर आत्मा में ही लीन हो जाता
है। आत्मा का संसार से अथवा किसी भी वस्तु से भेद नहीं है और भेदों की प्रतीति,भ्रम
के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। भ्रम का नाश होते ही अनेकत्व के
बोध का भी नाश हो जाता है।
यद्भूतं यच्च
भाव्यं वै मूर्तामूर्त तथैव च।
सर्वमेव जगदिदं
विवृतं परमात्मनि॥
कल्पकैः कल्पिता
विद्या मिथ्या जाता मृषात्मिका।
एतन्मूल जगदिदं
कथं सत्यं भविष्यति॥
जो उत्पन्न
हो चुका है और जो भविष्य में उत्पन्न होगा अर्थात् जो कुछ मूर्तिमान
है और जो कुछ अमूर्त है, वह यह संपूर्ण जगत माया के आवरण से आत्मा
द्वारा ही प्रकट हुआ है। यह मिथ्या जगत अविद्या की कल्पना से कल्पित हुआ
है। इसकी जड़ ही मिथ्यात्व पर आधारित है, तब यह स्वयं ही कैसे सत्य हो सकता
है।
चैतन्यात्
सर्पमुत्पन्न जगदेतच्चराचरम्।
तस्मात् सर्व
परित्यज्य चैतन्यं तु समाश्रयेत्॥
घटस्याभ्यंतरे
बाह्य यथाकाशं प्रवर्तते।
तथात्माभ्यंतरे
बाह्य ब्रह्माण्डस्य प्रवर्तते॥
केवल चैतन्य
आत्मा से ही यह संपूर्ण चराचर विश्व उत्पन्न होता है, इसलिए
सब कुछ छोड़ कर एक चैतन्य आत्मा का आश्रय लेना ही श्रेयस्कर है। जैसे घट
के भीतर और बाहर आकाश प्रवृत्त रहता है, वैसे ही आत्मा भी ब्रह्मांड के भीतर-बाहर
पूर्ण रूप से व्याप्त रहती है।
सततं सर्वभूतेषू
यथाकाशं प्रवर्तते।
तथात्माभ्यंतरे
बाह्य ब्रह्मांडस्य प्रवर्तते॥
वर्तते
सर्वभूतेषू यथाकाशं समन्ततः।
तथाम्माभ्यंतरे
बाह्य कार्यवर्गेषु नित्यशः॥
जैसे सभी
भूतों में आकाश सदा व्याप्त रहता है, वैसे ही आत्मा भी ब्रह्मांड
के भीतर-बाहर रहती है। जिस प्रकार सभी भूतों से आकाश
समन्वित रहता है, वैसे ही आत्मा भी
संपूर्ण अर्थात उत्पन्न वस्तुओं में सदा निहित रहती
है।
यस्मात्प्रकाशको
नास्ति स्वप्रकाशो भवेत्ततः।
स्वप्रकाशो यतस्तस्मादात्मा
ज्योतिः स्वरूपकः॥
अवच्छिन्नो यतो
नास्ति देशकालस्वरूपतः।
आत्मन ः सर्वथा
तस्मादात्मा पूर्णे भवेत्खलु॥
उस आत्मा का
प्रकाशक कोई अन्य नहीं है, यह स्वयं ही प्रकाशमान रहती है और
स्वयं प्रकाशमान होने के कारण ही वह ज्योति स्वरूप है। देश-काल के प्रमाण से
वह अवच्छिन्न नहीं है। इसलिए आत्मा सदा सब प्रकार से परिपूर्ण है।
यस्मान्न
विद्यते नाशः पंचभूतैर्वृथात्मकैः।
तस्मादात्मा
भवेन्नित्यस्तन्नाशो न भवेत्खलु॥
यस्मात्तदन्यो
नास्तीह तस्मादेकोऽस्ति सर्वदा।
यस्मात्तदन्यो
मिथ्या स्यादात्मा सत्यो भवेत्खलु॥
नाशवान
पंचभूतों के नाश से इस (आत्मा) का नाश नहीं होता, क्योंकि आत्मा तो
सदा अविनाशी है उस का किसी प्रकार से नाश संभव नहीं है। जब अन्य कोई है नहीं
तो यह निश्चय है कि वह आत्मा ही सर्वत्र व्याप्त है। जब अन्य सब कुछ मिथ्या
है, तो वही शुद्ध आत्मा सत्य हो सकती है।
अविद्याभूतसंसारे
दुःखनाशे सुखं यतः।
ज्ञानादाद्यन्तशून्यं
स्यात्तस्मादात्मा भवेत्सुखम्॥
यस्मान्नाशिमज्ञानं
ज्ञानेन विश्वकारणम्।
तस्मादात्मा
भवेत् ज्ञानं-ज्ञानं तस्मात्सनातनम्॥
अविद्या से
उत्पन्न हुए इस संसार के दुख नष्ट होने पर सुख का उदय होता है,ऐसी
मान्यता है। परंतु ज्ञान से दुख का न तो आदि है और न अंत ही है। आत्मा
अवश्य ही सुख रूप है, जिसके द्वारा अज्ञान का नाश होता है। तब
यह समझ में आता है कि विश्व का कारण ज्ञान ही है।
इसलिए आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञान सनातन अर्थात् अनादि काल से चला आता
है।
कालतो विविधं विश्वं
यदा चैव भवेदिदम्।
तदेकोऽस्ति स
एवात्मा कल्पनापथर्विजतः॥
बाह्मानि
सर्वभूतानि विनाशं यान्ति कालतः।
यतो वाचो
निवर्त्तन्ते आत्मा द्वैतविवर्जितः॥
काल के
द्वारा विविध रूप वाला विश्व उत्पन्न होता है,
इसलिए वह एक आत्मा ही
है। इस प्रकार आत्मा के लिए कल्पना का कोई मार्ग खुला नहीं है अर्थात् आत्मा
कल्पित नहीं वरन सत्य है। जो आत्मा से बाहर अर्थात् भिन्न पदार्थ हैं वे
सब काल के प्राप्त हो जाने पर नष्ट हो जाते हैं। इसलिए आत्मा द्वैत रहित
अर्थात अद्वैत है, उसको वाणी से नहीं अभिव्यक्त नहीं किया जा
सकता।
न खं वायुर्न चाग्निश्च
न जलं पृथिवी न च।
नैतत्कार्य
नेश्वरादि पूर्णेकात्मा भवेत्खलु॥
आत्मानमात्मना
योगी पश्यत्यात्मनि निश्चितम्।
सर्वसंकल्पसंन्यासी
त्यक्तमिथ्याभवग्रहः॥
वह आकाश नहीं
है, इसलिए उसमें शब्द का अभाव है। वह वायु नहीं है, इसलिए स्पर्श
से परे हैं। वह अग्नि नहीं है, इसलिए रूप रहित है। वह जल नहीं है, इसलिए
रसहीन है। वह पृथ्वी नहीं है, अतः उसमें गंध भी नहीं है। वह कार्य नहीं
है, क्योंकि कारण से रहित है और न वह ब्रह्मादि ईश्वर
ही है। वह तो पूर्णकाम है अर्थात उसे किसी प्रकार की
कामना नहीं है। इस प्रकार आत्मा से, आत्मा को,आत्मा में ही देखने
वाला योगी सभी संकल्पों को और मिथ्या भवजाल को
त्याग कर संन्यास परायण रहता है।
आत्मानात्मनि
चात्मनं दृष्ट्वानन्तं सुखात्मकम्।
विस्मृतय विश्वं
रमते समाधस्तीव्रतस्तथ॥
मायैव विश्वजननी
नान्या तत्वधिया परा।
यदि नाशं
समायाति विश्वं नास्ति तदा खलु॥
वह योगी
आत्मा से, आत्मा को,आत्मा में ही देखता हुआ सुखात्मक होकर
संसार को भूल जाता है और आनंदरूपिणी समाधि में तीव्रता
से रम जाता है। माया ही विश्व की जननी है, क्योंकि
उसी से विश्व उत्पन्न होता है, किसी अन्य के द्वारा
नहीं होता। इसलिए आत्मज्ञान के द्वारा इस माया के नष्ट हो जाने पर निश्चय
ही इस विश्व प्रपंच का नाश हो जाता है।
हेयं सर्वमिदं
यस्य मायाविलप्तितं यतः।
ततो न
प्रीतिविषयस्तनुवित्तसुखात्मकः॥
अरिमित्रमुदासीनस्रिविधं
स्यादिदं जगत्।
व्यहारेपु नियतं
दृश्यते नान्यथा पुनः प्रियाप्रियादिभेदस्तु विष्तुषु नियतस्फुटम्॥
यह संपूर्ण
विश्व-प्रपंच माया की ही विलास है। इसलिए, इस शरीर को सुखात्मक
मानकर इससे प्रीति करना ठीक नहीं है। इस जगत में शत्रु, मित्र
और उदासीन के रूप में तीन प्रकार का व्यवहार दिखाई
देता है। प्रिय और अप्रिय के आधार पर होने वाले भेद से ही यह
संपूर्ण जगत बंधा हुआ है।
आत्मोपाधिवशादेवं भवेत् पुत्रादि नान्यथा।
मायाविलसितं
विश्वं ज्ञात्वैवं श्रुतियुक्तितः।
अध्यारोपापवादाभ्यां
लयं कुर्वन्ति योगिनः॥
कर्मजन्यं
विश्वमिदं न त्वकर्मणि वेदना।
निखिलोपाधिहीनो
वै यदा भवति पुरुषः।
तदा
विजयतेऽखण्डज्ञानरूपो निरञ्जनः॥
पुत्र आदि
कुटंबियों का सब नाता भी आत्मा की उपाधि से ही है। यह विश्व माया
से ही विलसित है,ऐसा श्रुति के प्रमाण से जानकार ही योगीजन आत्मा
में लीन रहते हैं। इस विश्व की उत्पत्ति-स्थिति कर्म
से है अर्थात दुखादि कर्म से ही होते हैं, कर्म
के न रहने पर कोई दुख नहीं रहता। जब आत्मा माया की उपाधि
को जीत लेती है, तब माया रहित होने पर अखंड ज्ञानरूप विशुद्ध, ब्रह्मा
की प्रतीति होती है।
स हि कामयते
पुरुषः सृजते च प्रजाः स्वयम्।
अविद्या भासते
यस्मात्तस्मान्मिथ्या स्वभावतः॥
शुद्धे ब्रह्मणि
संबद्धो विद्यया सहजो भवेत्।
ब्रह्मतेजोंशतो
याति तत आभासते नभः॥
तस्मात्प्रकाशते
वायुर्वायोरग्निस्ततो जलम्।
प्रकाशते ततः
पृथ्वीकल्पनेयं स्थिता सति॥
आकाशाद्वायुराकाशः
पवनादग्निसम्भवः।
खवाताग्नेजलं
व्योमवाताग्नेर्वारितो मही॥
आत्मा
स्वेच्छापूर्वक स्वयं ही प्रजाओं का सृजन करती है और इच्छा अविद्या
से उत्पन्न होती है, जो कि स्वभाव से मिथ्या है, इसलिए
मिथ्या माया से उत्पन्न हुई सृष्टि भी मिथ्या ही है।
शुद्ध ब्रह्म से विद्या का संबंध
स्वाभाविक है और उस ब्रह्म के ही तेजरूप
अंश से आकाश का प्राकट्य हुआ है।
उस आकाश से वायु और अग्नि प्रकट हुई।
अग्नि से जल और जल से पृथ्वी प्रकट
हुई। इस भांति आकाश से वायु और आकाश-वायु
के योग से अग्नि उत्पन्न हुई। आकाश,वायु और अग्नि के योग से जल की उत्पत्ति
हुई तथा आकाश ‘वायु’ अग्नि और जल
के संयोग से पृथ्वी उत्पन्न हुई।
खं शब्दलक्षणं
वायुश्चञ्चलः स्पर्शलक्षणम्।
स्याद्रू
पलक्षणं तेजः सलिलं रसलक्षणम्॥
गन्धलक्षणिका
पृथ्वी नान्यथा भवति धु्रवम्।
विषेशगुणा
स्फुरति यतः शास्त्रादिनिर्णयः॥
शब्दैकगुणाकाशं
द्विगुणो वायुरुच्यते।
तथैव त्रिगुणं
तेजो भवन्त्यापश्चतुर्गुणाः॥
शब्दः स्पशश्च
रूपं च रसो गन्धस्तथंव च।
एवत्पंचगुणा
पृथ्वी कल्पकैः कल्प्यतेऽधुना॥
आकाश का गुण
शब्द है। वायु के दो गुण हैं, चंचलता और स्पर्श। तेज अर्थात अग्नि
का गुण है। जल का का गुण रस होता है। पृथ्वी का लक्षण गंध है। इस प्रकार
आकाश में एक गुण,
वायु में दो गुण, अग्नि
में तीन और जल में चार होते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस
और गंध इन पांचों गुणों की विद्यमानता पृथ्वी में कल्पित
की गई है।
चक्षुषा गृह्यते
रूपं गंधो घ्राणेन गृह्यते॥
रसो रसनया
स्पर्शस्त्वचा संगृह्यते परम्॥
श्रोत्रेण
गृह्यते शब्दो नियतं भाति नान्यथा॥
नेत्रों के
द्वारा रूप को ग्रहण किया जाता है और नासिका के द्वारा गंध का
तथा जिह्वा के द्वारा रस ग्रहण किया जाता है। त्वचा से स्पर्श का और कानों
से शब्द ग्रहण होते हैं। यह निश्चित नियम हैं जिनको किसी भी प्रकार से
टाला नहीं जा सकता । ।
चैतन्यात्सर्वमुत्पन्न
जगदेतच्चराचरम्।
अस्ति
चेत्कल्पनेय स्यान्नास्ति चेदस्ति चिन्मयम्।।
पृथ्वी शीर्णा
जलेमग्ना जलंमग्नं च तेजति।
लीनं वायौ तथा
तेजो व्योम्नि वातो लयं ययौ।
अविद्यायां
महाकाशो लीयते परमे पदे।।
यह संपूर्ण
चराचर संसार एक ही चैतन्य से उत्पन्न हुआ है,
इस प्रकार कल्पना
से ही संसार सत्य प्रतीत होता है। परंतु संसार का अभाव होने पर उस एक
विशुद्ध चैतन्य आत्मा के अतिरिक्त कुछ और शेष नहीं रहता। पृथिवी जल
में लीन हो जाती है और जल अग्नि में लीन हो जाता है।
वैसे ही अग्नि का वायु में ओर वायु का आकाश में लीन होना निश्चित
है। तत्पश्चात आकाश अविद्या में
लीन हो जाता है और अविद्या स्वरूपिणी माया
परमपद में जाकर लयभाव को प्राप्त
हो जाती है। अर्थात प्रत्येक भूत अपने
अपने कारण में लीन हो जाता है और तब एक मात्र ब्रह्मरूप
परमपद ही शेष रहता है।
विक्षेपावरणाशक्तिर्दु
रंता दुःखरूपिणी।
जडरूपा महामाया
रजः सत्त्बतमोगुणा।।
स मायावरणशक्यावृता
विज्ञानरूपिणी।
दर्शयेज्जगदाकारं
तं विक्षेपस्वभावतः।।
परमात्मा की
यह दो शक्तियां विक्षेप और आवरण स्वरूप हैं।
ये अत्यंत
दुख देने वाली हैं, जिनका कि अंत ही नहीं हो पाता। वह महामाया त्रिगुणात्मिका
अर्थात सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से युक्त हैं। यह वन गुणों
का इच्छित रूप धारण करती रहती है यही मायामायी आवरण शक्ति जब ज्ञान का
आवरण ओढ़ लेती है तब स्वयं ही विज्ञानरूपिणी बन जाती है। फिर यही विक्षेप
स्वभाव वाली शक्ति जगत् के आकार को प्रदर्शित करती हैं।
तमोगुणात्मिका
विद्या या सा दुर्गा भवेत्स्वयम्।
ईश्वर तदुपहितं
चैतन्यं तदभूद्ध्र वम्॥
सत्त्वाधिका च
या विद्या लक्ष्मीः स्याद्दिव्यरूपिणी।
चैतन्यं
तदुपहितं विष्णुर्भवति नान्यथा॥
रजोगुणाधिका
विद्या ज्ञेया सा वै सरस्वती।
काश्चत्स्वरूपो
भवि ब्रह्मा तदुपधारकः॥
यही
महाविद्या तमोगुण से युक्त होती है, तब दुर्गास्वरूप धारण कर लेती है
और यही चैतन्य रूवरूप ईश्वर को आविर्भूत करती है, यह निःसंदेह सत्य है, जब
यह सत्त्वगुण की अधिकता को धारण कर लेती है,
तब दिव्य स्वरूप धारण करके विष्णुरूप
चैतन्य को उत्पन्न करती है और जब यह विद्या रजोगुण के बाहुल्य से युक्त
होती है, तब सरस्वती स्वरूपिणी होकर ब्रह्मारूप चैतन्य को
उत्पन्न करती है। तात्पर्य यह है कि तमोगुण की
अधिकता से यही शक्ति दुर्गारूपिणी
होकर संहारकर्त्ता शिव को प्रकट करती है, सत्त्वगुण
का अधिकता से विश्व-पालक विष्णु को प्रकट करती है तथा
रजोगुण की अधिकता से सरस्वती रूप
होकर सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा को उत्पन्न
करती है। इस प्रकार यह शक्ति ही
संसार को उत्पत्ति, स्थिति
और प्रलय में कारण हैं। अलग-अगल गुणों के धारण करने
से इसके स्वरूप में विभिन्नता दिखाई पड़ती है।
ईशाद्याः सकला
देवा दृश्यंते परमात्मनि।
शरीरादिजडं सर्व
सा विद्या तत्तथा तथा॥
एवंरूपेण
कल्पंते कल्पका विश्वसंभवम्।
तत्त्वात्तत्त्वं
भवंतीह कल्पनान्येनु नोदिता॥
जितने भी
देवता हैं, वे सब एक ही शक्ति की अभिव्यक्ति हैं। माया के
अधीन होने के कारण विभिन्नता दिखायी पड़ती है। इसीलिए, विज्ञजनों
ने सृष्टि की इस प्रकार कल्पना की है। सब कुछ आत्मा से
ही उत्पन्न हुआ है। अतः आत्मा से
भिन्न जो कुछ भी है वह सब कल्पना मात्र ही
है।
प्रमेयत्वादिरपेण
सर्व वस्तु प्रकाश्यते।
तथैव वस्तु
नास्त्येव भासको वर्तकः पर॥
स्वरपत्वेन रपेण
स्वरूप वस्तु भाष्यते।
विशेधशब्दोपादाने
भेदो भवत्ति नान्यथा॥
प्रमेयत्वादि
रूप अर्थात् संसार में जो कुछ भी दिखाई देता है, उन सबको प्रकाशित
करने वाली एक आत्मा ही है। यह जो भिन्न-भिन्न रूप दिखाई देते हैं वह
सब उपाधि के ही भेद है, यथार्थ में तो उसमें कुछ भेद नहीं है।
एकः
सत्तापूरितानंदरूपः
पूर्णो व्यापो
वर्तते नास्ति किंचित्।
एतज्ज्ञानं यः
करोत्येव नित्यं
मुक्तः स
स्यान्मृत्युसंसारदुःखात्॥
एक सत्ता से
परिपूर्ण हुई वह आत्मा ही सर्वत्र आनंदरूप से विद्यमान रहती है।
उसे भिन्न कहीं कोई नहीं है, जिसने ऐसा ज्ञान प्राप्त करके उसमें चित्त
को स्थित कर लिया है वही पुरुष जन्म-मरण रूपी सांसारिक दुःखों से मुक्त
हो गया। वह ज्ञानी समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है।
यस्यारोपापवादाभ्यां
यत्र सर्वे लयं गताः।
स एको वर्तते
नान्यत् तच्चित्तेनावद्यार्यते॥
ज्ञान का
प्रादुर्भाव होते ही सभी मिथ्या धारणाओं को उसमें विलोपन हो जाता
है। उस सतत् विद्यमान आत्मा में मन को लीन कर लेना
चाहिए। आत्मा में सभी उत्पन्न पदार्थों का लय हो जाता है, इसलिए
मन को केंद्रित कर आत्मा का ही चिंतन करना चाहिए।
पितुरन्नमयात्कोषाज्जायते
पूर्वकर्मणः।
शरीरं वै जडं़
दुःखं स्वप्राग्भोगाय सुंदरम्॥
मांमास्थिस्नायुमज्जादिनिर्मितं
भोगमंदिरम्।
केवलं दुःखभोगाय
नाडीसंततिगुम्फितम्॥
अपने पूर्व
कर्मों के अनुसार ही जीव माता-पिता के वीर्य-रज से अन्नमय कोष
धारण करता है। और पूर्व जन्म के कर्मा के अनुसार कर्मफल भोगता है। मांस, अस्थि
स्नायु और मज्जा आदि नाडि़यों के बंधन से बंधा हुआ शरीर भोग-मंदिर
रूप होकर दुःख का कारण होता है। अभिप्राय यह है कि यह शरीर ही दुःख
स्वरूप है, इसलिए इसमें आत्म भाव रखना व्यर्थ ही है।
पारमेष्ठ्यमिदं
गात्रं पञ्चभूतविनिर्मितम्।
ब्रह्माण्डसंज्ञकं
दुःखसुखभोगाय कल्पितम्॥
विन्दुः शिवो
रजः शक्तिरुभयोर्मिलनात् स्वयम्।
स्वप्नभूतानि
जायन्ते स्वशक्त्या जडरूपया॥
यह शरीर
परमेष्ठी अर्थात ब्रह्मा के द्वारा पंचभूतों से बनाया गया है तथा
ब्राह्मांड संज्ञक होकर सुख-दुख भोगने के लिए ही इसकी कल्पना की गई है। शिवरूप
बिंदु और शक्तिरूप रज के संयोग से ही यह शक्तिस्वरूपा जड़ माया अपने
ऐश्वर्य से ही स्वप्न के समान शरीरों को उत्पन्न करती है।
देहेऽस्मिन
वर्तते मेरूः सप्तदीपसमन्वितः।
सरितः सागराः
शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्रपालकाः।।
ऋषयो मुनयः
सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तथा।
पुण्यतीर्थानि
पीठानि वर्तन्ते पीठदेवतात॥
इस शरीर में
सप्तद्वीपों के सहित सुमेरु पर्वत विद्यमान है। सरिता, सागर, पर्वत, क्षेत्रपाल, ऋषि-मुनि
और सभी नक्षत्र ग्रह, पुण्य,
तीर्थक्षेत्र एवं पीठ और पीठासीन देवता
सभी की इस शरीर में विद्यमानता है।
अभिप्राय यह है कि इस शरीर में ही सब
पुण्य स्थान, तपोवन और देवालय आदि स्थित
हैं, इसलिए साधक को अपने शरीर में स्थित उन स्थानों को
जानकर वहीं पुण्य संचय करना चाहिए। उसे कहीं अन्यत्र
भटकने की आवश्यकता नहीं है।
सृष्टिसंहारकर्त्तारौ
भ्रमन्तौ शशिभास्करौ।
नभोवायुश्च
बह्निनश्च जलं पृथ्वी तथैव च॥
त्रैलयोक्ये
यानि भूतानि तानि सर्वाणि देहतः।
मेरूं सर्वेष्टय
सर्वत्र व्यवहारं प्रवर्तते।
जानाति यः
सर्वमिदं स योगी नात्र संशयः॥
सृष्टि और
संहार करने वाले चंद्र-सूर्य इस देह में ही भ्रमण करते रहते हैं
और आकाश, वायु, अग्नि,
जल तथा पृथ्वी, यह
पांचों तत्त्व भी देह में सदा विद्यमान रहते हैं। तीनों लोकों में जितने
भी भूत हैं, वे सभी शरीरस्थ सुमेरू
के आश्रय में रहते हुए अपने-अपने व्यवहार में प्रवृत्त रहते हैं। इस सबको
भले प्रकार से जानने वाला निःसंदेह योगी है।
ब्रहाण्डसंज्ञके
देहे यथादेशं व्यवस्थितः।
मेरुशृङ्गे
सुधारश्मिर्बहिरष्टकलायुतः॥
यह शरीर
ब्रह्मांड संज्ञक है अर्थात ब्रह्मांड में और इसमें कोई भेद नहीं
अथवा जो कुछ इस शरीर में है वहीं ब्रह्मांड में है। जैसे शरीर में सभी देश
और सुमेरू आदि पर्वत स्थित हैं, वैसे ही इस शरीर में सुमेर पर्वत विद्यमान
है और उसके शृंग के ऊपर अपनी आठ कलाओं के सहित चंद्रमा अवस्थित है।
वर्ततेऽहर्निशं
सोऽपि सुधां वर्षत्यधोमुखः।
ततोऽमृर्ते
द्विधाभूत याति सूक्ष्मं यथा च वै॥
इडा मार्घेण
पुष्टयर्थै याति मन्दानिनीजलम्।
पुष्पाति सकलं
देहमिडामार्गेण निश्चयम्॥
एष
पीयूषरश्मिमहिं वामपार्श्वे व्यवथितः॥
वह चंद्रमा
अधोमुख रहकर दिन-रात अमृत की वर्षा करता रहता है। उस अमृत के दो
भेद होते हैं-सूक्ष्म और स्थूल। शरीर की तुष्टि के लिए इड़ा नाड़ी के मार्ग
से जो पवित्र जल रूपी मंदाकिनी प्रवाहित है वह अवश्य ही शरीर की रक्षा और
पोषण करती है। वह अमृत रश्मियों से युक्त इड़ा नाड़ी (नासिका के) वाम
भाग में स्थित रहती है।
अपरः
शुद्धदुग्धाभो हठात्कर्षित मण्डलात्।
रन्ध्रमार्गे
सृष्टयर्थ मेरौ संयाति चंद्रमाः॥
मेरुमूले स्थितः
सूर्यः कलाद्वादशसंयुतः।
दक्षिणे पथि
रश्मिभिर्वपत्यूर्ध्व प्रजापतिः॥
वह शुद्ध
दुग्ध के समान आभा वाला चंद्रमा हर्षपूर्वक अपने मंडल में मेरु पर
आकर इड़ा के रंध्र मार्ग के द्वारा शरीर को पुष्ट करता है। मेरु (मेरुदंड)
के मूल में अर्थात नीचे की ओर अपनी बारह कलाओं से युक्त हुआ सूर्य
स्थित रहता है दक्षिण पथ अर्थात पिंगला नाड़ी के मार्गों से प्रजापति ऊर्घ्वगति
वाला होता है।
पीयूषरश्मिनिर्यासं
धातूंश्च ग्रसति धु्रवम्।
समीरमंडले
सूर्यो भ्रमते सवविग्रहे॥
एषा सूर्यपरा
मूर्तिर्निर्वाणं दक्षिणे पथि।
वहते लग्नयोगेन
सृष्टिसंहारकारकः॥
चंद्रमा से
स्रवते हुए उस अमृत को सूर्य अपनी रश्मियों के सामर्थ्य से अवश्य
ही ग्रास कर लेता है और वायुमंडल में मिलकर संपूर्ण शरीर में भ्रमण करता
रहता है। यह सूर्य परम निर्वाणमूर्ति दक्षिण पथ की ओर है अर्थात पिंगला
नाड़ी के दक्षिण भाग में स्थित है। वृष्टि-संहारक सूर्य लग्न योग से नाड़ी
के द्वारा प्रभावित रहता है।
सार्धलक्षत्रयं
नाड्यः संति देहांतरे नृणम्।
प्रधानभूता
नाड्यस्तु तासु मुख्याश्चतुर्दश॥
सुषुम्णेडा
पिंगला च गांधारी हस्तिजिहवका।
कुहू सरस्वती
पूषा शंखिनी च पयस्विनी॥
वारुणालंबुषा
चैव विश्वोदरी यशस्विनी।
एतासु तिस्रो
मुख्यः स्युः पिंगलेडा सुषुम्णिका।।
मानव शरीर
में साढ़े तीन लाख नाडि़यां उपस्थित हैं,उनमें 14 नाडि़यां प्रमुख
मानी गई हैं। वे हैं-सुषुम्णा, इड़ा, पिंगला, गांधारी, हस्तिजिह्वका, कुहू, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनी, वारुणा, अलंबुषा, विश्वादरी
और यशस्विनी। इन 14 नाडि़यों में भी पिंगला, इड़ा
और सुषुम्णा ये तीन नाडि़यां प्रमुख हैं।
तिसृष्वेका
सुषुम्णैव मुख्या सा योगिवल्लभा।
अन्यास्तदाश्रयं
कृत्वा नाड्यः सन्ति हि देहिनाम्॥
नाड्यस्तु ता
अधोवदनाः पद्मतन्तुतिभिः स्थिताः।
पृष्ठवंशं
समाश्रित्य सोमसूर्याग्निरूपिणी॥
तासां मध्ये गता
नाडी चित्रा सा मप वल्लभा।
ब्रह्मरंध्रं च
तत्रैव सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं शुभम्॥
पिंगला,इड़ा
और सुषुम्णा इन तीन नाडि़यों में से एक सुषुम्णा ही सर्वप्रमुख
है,क्योंकि यह योगियों के लिए अत्यंत प्रिय है,क्योंकि
यह उनके लिए परमपदरूप आश्रय को देने वाली है। अन्य
जितनी भी नाडि़यां हैं, वे सब भी देह
में ही स्थित रहती है। ये तीनों नाडि़यां कमल-तंतु के समान अधोमुख होकर
स्थित रहती हैं। ये तीनों चंद्र, सूर्य और अग्नि रूपिणी हैं तथा शरीर के
पृष्ठवंश अर्थात् मेरुदंड के आश्रय में अवस्थित हैं। उन नाडि़यों के बीच स्थित
चित्रा नाड़ी मुझे अत्यंत प्रिय है। वहीं पर सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर
श्रेष्ठ ब्रह्मरंध्र विद्यमान है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस परमपद
-प्राप्ति की बात योगी व भक्तजन करते रहते हैं,वह शरीर में उपस्थित है।
निरंतर साधना के जरिए हम शक्तियों को जगाकर परमपद की अनुभूति प्राप्त कर
सकते हैं।
पञ्चवर्णोज्ज्वला
शुद्धा सुषुम्णा मध्यरूपिणी।
देहस्थोपाधिरूपा
सा सुषुम्णा मध्यरूपिणी॥
दिव्यमार्गमिदं
प्रोक्तममृतानन्दककारकम्
ध्यानमात्रेण
योगींद्रो दुरितौघ विनाशयेत्॥
वह चित्रा
नाड़ी पंचवर्णा है, उज्ज्वल और शुद्ध भी है। सुषुम्णा के मध्य में
स्थित चित्रा नाड़ी शरीर की उपाधि की कारणभूत भी है।
यही वह दिव्य मार्ग है, जिसे मैंने अमृत और
आनंद के रूप में बनाया है। उसके ध्यान करने मात्र
से योगीजनों के पापों का नाश हो जाता है।
गुदात्तद्ध्
यड्.गुलादूर्ध्व मेढ़ात्तुद्ध्
यंगुलादधः।
चतुरड.
गुलविस्तारमाधारं वतंते समम्॥
तस्मिन्नाधारपद्मे
च कर्णिकायां सुशोभना।
त्रिकोणा
वर्त्ततेयोनिः सर्वतत्रेषु गोपिता॥
गुदास्थान से
दो अंगुल ऊपर और मेरू से दो अंगुल नीचे, चार अंगुल विस्तार का
एक आधार कमल समरूप से विद्यमान है। इसे मूलाधार चक्र कहते हैं। इस आधार कमल
की कर्णिका में त्रिकोणाकार योनि सुशोभित है,
जो सर्व प्रयत्नों द्वारा
गोपनीय है अर्थात इसे किसी अनधिकारी के समक्ष नहीं कहना चाहिए,किंतु अधिकारी
पुरुष से गोपनीय रखना व्यर्थ है।
तत्र
द्यिल्लताकारा कुंडली परदेवता।
सार्द्ध
त्रिकारा कुटिला सुषुम्णामार्गसंस्थिता॥
जगत्संसृष्टिरूपा
सा निर्माणे सततोद्यता।
वाचामवाच्या
वाग्देवी सदा देवैर्नमस्कृता॥
वही परमदेवता
स्वरूपा कुंडलिनी साढे़ तीन लपेटे लगाए हुए सुषुम्णा के मार्ग
में स्थित रहती है। वह कुटिला अर्थात टेढ़ी और विद्युत रेखा के आकार की
होती है। यह कुंडलिनी ही जगत् की सृष्टि स्वरूपा हैं। वही वाग्देवी वाच्य,अवाच्य
रूप तथा देवताओं के द्वारा भी नमस्कृत की हुई है।
इड़ापिंगलयोर्मध्ये
सुषुम्णा या भवेत् खलु।
षट्स्थानेषु च
षट्शक्तिं षट्पद्मं योगियो विदुः॥
पञ्चमस्थानं
सुषुम्णाया नामानि स्युर्बहूनि च।
प्रयोजनवशात्तानि
ज्ञातव्यानीह शास्त्रतः॥
इड़ा और
पिंगला नाडि़यों के मध्य में सुषुम्णा नाड़ी स्थित है। इस सुषुम्णा
नाड़ी के छह स्थानों में (डाकिनी, हाकिनी, काकिनी, राकिनी
और शाकिनी नाम की) छह शक्तियां रहती हैं, वहीं
छह कमल भी विद्यमान हैं अर्थात मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि
और आज्ञा। इन छह कमलों को छह चक्र भी कहते हैं। योग जानने वाले
विद्वान इनको जानते हैं। सुषुम्णा के पांच स्थान हैं, जिनके
अनेक स्थान हैं, जो कि प्रयोजन होने पर शास्त्रों के द्वारा
जाने जा सकते हैं।
अन्या
यास्त्वपरा नाड्यो मूलाधारात्समुत्थिताः।
रसनामेढ्रनयनं
पादाड.्गुष्ठे च श्रोत्रक्रम्॥
कुक्षिकक्षाड.्गुष्ठवर्ण
सर्वागपायुकुक्षिकम्।
लब्धांता वै
निर्वतंते यथादेशसमुद्भवांः॥
अन्यान्य नाडि़यां
मूलाधार से निकलकर जीभ, नेत्र,
पांवों के अंगूठे, कान, कुक्षि, कक्ष, हाथों
के अंगूठे, गुदा, उपस्थ आदि अंगों में आकर समाप्त हो
जाती हैं अर्थात सभी नाडि़यों का आश्रय मूलाधार ही है।
एताभ्य एवं
नाड़ीभ्य शाखोपशाखतः क्रमात्।
सार्ध लक्षत्रयं
जातं यथामार्ग व्यवस्थित्म॥
एता भोगवहा
नाड्यो वायुसञ्चारदक्षकाः
ओतप्रोताभिसंवयाप्य
तिष्ठन्त्यस्मिन कलेवरे।।
इन्हीं
नाडियों से इनकी शाखा-उपशाखाएं निकलकर क्रमशः साढे़ तीन लाख नाडि़यां
अपने-अपने स्थान में जाकर स्थित हो गई हैं। यह सभी नाडि़यां भोगवहा
अर्थात भुक्त पदार्थों को प्रवाहित करने वाली होती हैं। यह वायु के संचार
में अत्यंत दक्ष होती हैं पूरे शरीर में इन्हीं के जरिए प्राणवायु का संचार
होता है। यह वायु के संचार में अत्यंत दक्ष एवं संयोग-वियोग से ओत-प्रोत
होती हुई मनुष्य के कलेवर (देह) में विद्यमान रहती हैं।
सूर्यमंडलमध्मस्थः
कला द्वादशसंयुतः।
वस्तिदेशे
ज्वलद्वह्निर्वतते चान्नपाचक॥
वैश्वानराग्निरेषो
वै मम तेजोंशसंभव।
करोति विविध पाक
प्राणिनां देहमास्थित।।
बारह कलाओं
से युक्त सूर्यमंडल के मध्य में जो अग्नि प्रज्वलित रहती है उसके
द्वारा अन्न का पाचन होता है। वह वैश्वानर अग्नि मेरे ही तेज से प्रकट हुई
है। यह प्राणियों के देहों में विद्यमान रहकर विविध प्रकार के परिपाक में संलग्न
रहती है।
आयुः प्रदायको
वह्निर्बलं पुष्टि ददाति सः।
शरीरपाटवं चारि
ध्वस्तरोगसमुद्भवः॥
तस्माद्वैश्वानराग्ंिन
च प्रज्वाल्य विधिवत्सुधी।
प्रत्यहं
गुरुशिक्षया॥
वही वैश्वानर
अग्नि, आयु, बल और पुष्टि के देने वाली है, उसी
से शरीर कांतिमय होता है और जितने भी रोग हैं, उन
सबका नाश हो जाता है। इस वैश्वानर
अग्नि को विधिपूर्वक प्रज्वलित करना और
फिर उसमें अन्न की आहुति देनी चाहिए। अर्थात इस वैश्वानर अग्नि को
प्रज्वलित करने के लिए किसी सद्गुरु से शिक्षा लेनी चाहिए
और जब इसके ठीक प्रकार से प्रज्वलित करना आ जाए तब उसके अनुकूल
जो अन्न हो, उसका भोजन करें।
ब्रह्माण्डसंज्ञके
देहे स्थानानि स्युर्बहूनि च।
मयोक्तानि
प्रधानानि ज्ञातव्यानीह शास्त्रके॥
नानांप्रकार
नामानि स्थानानि विविधानि च।
वर्तन्ते
विग्रहे तानि कथिनुं नैव शक्यते॥
यह देह
ब्रह्मांड संज्ञक है। इसमें अनेक स्थान भरे पड़े हैं। मैंने यहां प्रधान-प्रधान
स्थान बताए हैं, जिन्हें शास्त्रों के अध्ययन से जाना जा सकता
है। इस देह में विद्यमान ऐसे स्थानों को कई नामों से पुकारा जाता है। यहां
जो बताया गया,उतना कहना ही बहुत है,उससे
अधिक कहना व्यर्थ ही है।
इत्थं
प्रकल्पिते देहे जीवो वसति सर्वगः।
नानादिवसनामालाऽलंकृतः
कर्मशृंखलः॥
नानाविधगुणोपेतः
सर्वव्यापारकारकः।
पूर्वार्जितानि
कर्माणि भुनक्ति विविधनि च॥
इस प्रकार
कल्पित हुए शरीर में बसा हुआ जीव अनादि काल से चली आ रही वासना
रूपी माला में घूमता हुआ कर्म की शृंखलाओं में बंधा रहता है। वह अनेक प्रकार
के गुणों को ग्रहण करता हुआ संसार के सभी व्यापारों को किया करता है
तथा पहले से उपार्जित शुभ-अशुभ विविध कर्मों के फलों को भोगता है।
यद्यत्पंद्दश्यते
लोके सर्वं तत्कर्मसम्भवम्।
सर्वः
कर्मानुसारेण जन्तुर्भोगान भुनक्ति वै॥
ये ये कामादयो
दोषाः सुखदुःखप्रदायकाः।
ते ते सर्वे
प्रवर्तन्ते जीवमर्मानुसारतः॥
संसार में
जितने भी शुभ-अशुभ कर्म दिखाई देते हैं, उन सभी का कारण एक मात्र
कर्म ही है। सभी प्राणी कर्मों के अनुसार भोगों को भोगते रहते हैं। जो-जो
सुख-दुःख के देने वाले कामादि दोष है, वे सभी जीव के कर्मानुसार ही प्रवृत्त
होते हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्य के लिए सुख-दुख की प्रवृत्ति कर्म
से ही हैं। शुभ कर्म से सुख और अशुभ कर्म से दुःख की प्राप्ति होती है।
पुण्योपरक्तचैतन्ये
प्राणान् प्रीणाति केवलम्।
बाह्येपुण्यतमं
प्राप्य भोज्यवस्तु स्वयं भवेत्॥
ततः
कर्मबलात्पुंसुः सुखं वा दुःखमेव च।
पापोरक्तचैतन्यं
नैव तिष्ठति निश्चितम्॥
पुण्य कर्मों
के करने से शरीरधारी को सुख प्राप्ति की होती है और पुण्य के
फलस्वरूप श्रेष्ठ भोज्य सामग्री अथवा अन्यान्य बाह्य वस्तुएं उसे स्वतः ही
उपलब्ध हो जाती हैं। यह जीव कर्मबल से सुख अथवा दुख भोगने के लिए विवश है।
वह जब पाप कर्म में आसक्त होता है तब उसे दुख ही मिलता है यदि सुख मिलता
भी है तो क्षणिक और वह भी पूर्व संचित पुण्य के फलस्वरूप ही।
न तद्भिन्नो
भवेत् सोऽपि तद्भिन्नो न तु किञ्चन।
मायोपहितचैतन्य
त्सर्व वस्तु प्रजायते॥
यथाकालेऽपि
भोगाय जन्तूनां विविधोद्भवः।
यथा
दोषवषाच्छुक्तौ रजतारोहणं भवेत्।
तथा
स्वकर्मदोषाद्वै ब्रह्माण्यारोप्यते जगत्॥
जीव को अपने
ही कर्म के फल को भोगना होता है,क्योंकि कर्म का फल ही दुख या
सुख है। इसलिए जो कर्त्ता है, वही भोक्ता है, इसमें
कोई संदेह नहीं अर्थात कर्त्ता से भोक्ता भिन्न नहीं हो
सकता। चैतन्य आत्मा के माया से उपहित होने पर ही संपूर्ण सृष्टि उत्पन्न
होती है। जिस जीव के भोग के लिए
जो काल निश्चित होता है, उसे
उसी काल में अपने कर्म फल का भोग प्राप्त करने के
लिए जन्म लेना होता है। जिस प्रकार नेत्र के दोष से शुक्ति में रजत का आरोप
होता है, उसी प्रकार जीव भी अपने ही कर्म दोष के प्रभाव से
ब्रह्म में इस मिथ्या संसार प्रपंच का आरोप कर लेता
है।
सवासनाभ्रमोत्पन्नोन्मूलनाति
समर्थनम्।
उत्पन्नं
चेदीदृशं स्याज्ज्ञानं मोक्षप्रसाधनम्॥
साक्षाद्वै
शेषदृष्टिस्तु साक्षात्कारिणि विम्रमे।
कारणं
नान्यथायुक्तया सत्यं सत्यं मयोदितम्॥
जीव को वासना
के कारण ही भ्रम उत्पन्न हो जाता है और जब तक वासना निर्मूल
नहीं होती, तब तक भ्रम भी नष्ट नहीं होता। इसी प्रकार जब
ज्ञान उत्पन्न होता है, तब कुछ भी शेष नहीं
रहता। इस कारण ज्ञान को ही मोक्ष का साधन समझना चाहिए।
जो कुछ भी विशेष दृष्टि से साक्षात दिखाई देता है, वही प्रत्यक्ष
भ्रम का कारण होता है। अर्थात विशेष रूप से प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले
दृश्यजाल में ही जीव फंस जाता है, वही उसके बंधन का कारण है। माया का परदा
बड़ा होने के कारण बुद्धि उस दृश्य प्रपंच से ऊपर नहीं उठती, इसलिए यथार्थ
ज्ञान नहीं हो पाता।
साक्षात्कारिभ्रमे
साक्षात् साक्षात्कारिण् िनाशयेत्।
स हि नास्तीति
संसारे भ्रमो नैव निवर्तते॥
मिथ्याज्ञाननिवृत्तिस्तु
विशेषदर्शनाद्भवेत्।
अन्यथा न
निवृत्तिः स्याद्दृश्यते रजतभ्रमेः॥
यावन्नोत्पद्यते
ज्ञानं साक्षात्कारे निरञ्जने।
तावत्सर्वाणि
भूतानि दृश्यंते विविधानि च॥
यह साक्षात्
दृश्यमान् पदार्थ का भ्रम तब तक नष्ट नहीं होता, तब तक कि ब्रह्म
का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो जाता और ब्रह्म का प्रत्यक्ष अनुभव तभी संभव
है, जबकि आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव हो जाए। आत्मा का
विशेष दर्शन होने पर ही संसार का मिथ्या ज्ञान मिट पाता है।
आत्म-साक्षात्कार के अतिरिक्त अन्य किसी भी उपाय से उस अज्ञान की निवृत्ति
नहीं हो सकती, जिस प्रकार की शुक्ति
में रजत का भ्रम शुक्ति के प्रत्यक्ष हुए बिना नहीं मिट सकता। क्योंकि
जब तक आत्मा को साक्षात्कार नहीं होता, तब तक जीव को सभी भूत विविध प्रकार
के दिखाई देते हैं॥
यदा कर्मार्जितं
देह निर्वाणे साधनं भवेत्।
तदा शरीरवहन
सफलं स्यान्न चान्यथा॥
जब तक कर्म
से अर्जित यह शरीर विद्यमान है, तब तक इसके निर्वाण का
साधन कर लेना चाहिए। अर्थात् इस शरीर के रहते हुए ही
आत्मज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न कर लेना चाहिए, क्योंकि
शरीर के छूटने पर तो कोई साधन हो नहीं सकता वरन्
कर्मानुसार पुनर्देह धारण करना ही होगा। अन्यथा मनुष्य शरीर में जन्म लेकर
शरीर को व्यर्थ भार ढोने से लाभ ही क्या हुआ?
अभिप्राय यह है कि आत्मज्ञान
की प्राप्ति का प्रयत्न न करके विषय-भोगो में पड़ा रहना पृथिवी के
लिए भारस्वरूप ही है।
विषयासक्तपुरषा
विषयेतु सुखेप्सवः।
वाचाभिरुद्धनिर्वाणा
वर्तंते पापकर्मणि॥
विषयों में
आसक्त रहने वाले पुरुष सदा ही विषय सुख में डूबे रहते हैं और उनकी
वाणी मोक्ष विषयक वार्तालाप में अवरुद्ध रहती हुई पाप कर्म में ही लगी
रहती है। तात्पर्य यह है कि विषयासक्त पुरुषों की चर्चा में ही लगी रहती
है। इस प्रकार वे मन, कर्म,
वचन से विषय को ही सुख मानते हुए उन्हीं में
लगे रहते हैं॥
आत्मानमात्मना
पश्यंत किंचिदिह पश्यति।
तदा
कर्मपरित्योग न दोषोऽस्ति मतं मम॥
कामादया
विलीयंते ज्ञानादेव न चान्यथा।
अभावे
सर्वत्वानां स्वयं तत्वं प्रकाशते॥
ज्ञानी पुरुष
जब आत्मा के द्वारा आत्मा को देखता हुआ अन्य किसी वस्तु को न
देखे अर्थात आत्मा के अतिरिक्त कोई अन्य वस्तु उसे दिखाई न दे, तब
मेरे मत से कर्म का परित्याग कर दे, तो
उसके लिए कोई दोष नहीं होता। कामादि सभी पदार्थ ज्ञान में
लीन हो जाते हैं। इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। जब सभी तत्त्वों
का अभाव हो जाता है, तब स्वयं तत्त्व अर्थात आत्म ज्ञान ही प्रकाशित
रहता है। तात्पर्य यह है कि काम-क्रोध आदि विकारों को छोड़कर आत्मज्ञान
की प्राप्ति का ही प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि आत्मज्ञान की उपलब्धि
होने पर कोई भी विकार शेष नहीं रहता॥
अनेन विधिना यो वै
ब्रह्माण्डं वेत्ति विग्रहम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तः
स याति परमां गतिम्॥
अधुना
कथयिष्यामि क्षिप्र योगस्य सिद्धये।
यज्ज्ञात्वा
नावसीदन्ति योगिनो योगसाधने॥
जो मनुष्य इस
शरीर को ब्रह्मांड जान लेता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर
परमगति को प्राप्त हो जाता है। अब मैं योगसिद्धि के विषय में कहता हूं।
इस विधि को जानने वाले योगी को योग के साधना में कष्ट प्रतीत नहीं होता।
अभिप्राय यह
है कि योग-साधन की विधि को जान लेने पर साधक को कष्ट नहीं होता
और विधि को जान कर साधक को कष्ट नहीं होता और विधि को न जान कर योग साधना
करना कष्टकारी प्रतीत होता है।
भवेद्वीर्यवती
विद्या गुरुवक्त्रासमुद्भवा।
अन्यथा फलहीना
स्यान्निर्वीर्याप्यतिदुःखदा॥
गुरुं सन्तोष्य
यत्नेन ये वै विद्यामुपासते।
अबलम्बेन
विद्यायास्तस्याः फलमवाप्नुयुः॥
गुरु के मुख
से सुनी हुई विद्या अवश्य ही वीर्यवती होती है। यदि गुरु के मुख
से सुने-समझे बिना ही उसका प्रयोग करें तो फलहीना तो होती ही है, साथ ही
निवीर्या और अत्यंत दुख दायिनी भी हो जाती है।
गुरु को सब
प्रकार से संतुष्ट करके जो विद्या प्राप्त की जाती है, वह विद्या
शीघ्र ही फल देने वाली होती है अर्थात गुरु प्रसन्न होकर विद्या के सब
रहस्य शिष्य को बता दे, तो उसकी सफलता में बिलंब नहीं लगता।
गुरुः पिता
गुरुर्माता गुरुर्देवो न संशयः।
कर्मणा मनसा
बाचा तस्मात् सर्वैः प्रसेव्यते॥
गुरुप्रसादतः
सर्वं लम्यते शुभमात्मनः।
तस्मात् सेव्यो
गुरुर्नित्यमन्यथा न शुभ भवेत्॥
गुरु ही पिता, गुरु
ही माता और गुरु ही देवता है, इसमें संदेह नहीं। इसलिए
कर्म, मन और वाणी से गुरु की भले प्रकार सेवा करनी
चाहिए। क्योंकि गुरु की सेवा नित्य तत्परता से साथ करनी
चाहिए, अन्य प्रकार से अर्थात अश्रद्धा
से गुरु-सेवा करना कभी भी शुभ नहीं हो सकती।
प्रदक्षिणात्रयं
कृत्वा स्पृष्ट्वा सव्येन पाणिना।
अष्टांगेन
नमस्कुर्याद्गुरुपादसरोरुहम्॥
श्रद्धायात्मवतां
पुंसां सिद्धिर्भंवति नान्यथा।
अन्येषं च न
सिद्धिः स्यात्तस्माद्यत्नेन साधयेत्॥
गुरु की तीन
प्रदक्षिणा करके दाएं हाथ से स्पर्श करें और गुरु के चरण-कमलों
में साष्टांग नमस्कार करें। श्रद्धावान् पुरुष को अवश्य ही विद्या
की सिद्धि होती है, अश्रद्धावान को कदापि नहीं होती। इसलिए यत्नपूर्वक
साधन करना ही श्रेयस्कर है।
न भवेत संगयुक्तानांतथा
विश्वा सिनामपि।
गुरुपूजाविहीनानां
तथा च बहुसंगिनाम्॥
मिथ्यावादरतानां
च तथा निष्ठरभाषिणम्।
गुरुसंतोषहीनानां
न सिद्धिः स्यात् कदाचन॥
सांसारिक
व्यवहार में लिप्त मनुष्यों का संग करने से योग विद्या
की सिद्धि संभव नहीं है और न अविश्वासी साधकों को ही सिद्धि हो सकती है।
जो पुरुष गुरु की पूजा नहीं करते या अधिक लोगों का संग करते हैं, वे भी
असफल रहते हैं। मिथ्या और कठोर वचन बोलने वाले या गुरु को संतुष्ट न रखने
वाले साधकों को भी सिद्धि नहीं मिल सकती॥
फलिष्यतीति
विश्वासः सिद्धः प्रथमलक्षणम्।
द्वितीय
श्रद्धया युक्तं तृतीय गुरुपूजनम्॥
चतुर्थ
समताभावं पञ्चमेन्द्रियनिग्रहम्।
षष्ठं
प्रमिताहारं सप्तमं नैव विद्यते॥
सिद्धि का
प्रथम लक्षण है विश्वास का होना। अविश्वास होने पर
उसकी संभावना ही नहीं है। दूसरा लक्षण है साधक का श्रद्धायुक्त होना और तीसरा
लक्षण है गुरु-पूजन में तत्पर रहना। चौथा लक्षण जीवनमात्र में समानता का
भाव रखना है। पांचवां चिन्ह इंद्रियों का संयम रखना और छठा चिन्ह है परिमित
भोजन करना। योग सिद्ध के छह चिन्ह हैं कोई सांतवां चिन्ह नहीं है।
समकायः प्राञ्जलिश्च प्रणम्य च गुरुन सुधीः।
दक्षे वामे च
विघ्नेशं क्षेत्रपालाम्बिकां पुनः॥
ततश्च
दक्षङ्गष्ठेन निरुद्धय पिङ्गलां सुधोः।
इड़या
पूरयेद्वायुं यथाशक्ति तु कुंभयेत्।
ततस्त्यक्त्वा
पिङ्गलया शनैरेव न वेगतः॥
शरीर को सीधा
रखकर, हाथों को जोड़कर गुरु को प्रणाम करें और
बाएं और दाएं भाग में विघ्नों को नष्ट करने वाले गणेश जी को, क्षेत्रपाल को
और भगवती अंबिका को प्रणाम करें। तत्पश्चात दाएं हाथ अंगूठे से पिंगला नाड़ी
(दाएं नासारंध्र) को रोककर इडा नाड़ी (बाएं नासारंध्र) से यथाशक्ति वायु
को खींचकर रोकें और फिर पिंगला द्वारा धीरे-धीरे बाहर निकाल दें। अर्थात
एक नासारंध्र से पूरक (वायु को खींचना) करके कुंभक द्वारा (वायु को रोकना)
और फिर दूसरे नासारंध्र से रेचन करें अर्थात वायु को निकाल दें। पूरक, कुंभक
और रेचक, यह तीनों प्राणायाम के अंग हैं॥
पुनः
पिङ्गलयापूर्य यथाशक्ति तु कुंभयेत्।
इडयारेचयेद्वायुं
न वेगेन शनैः शनैः।।
इदं योगविधानेन
कुर्याद्विंशतिकुंभकान्।
सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तः
प्रत्यहं विगतालसः॥
इसी प्रकार
फिर पिंगला नाड़ी से पूरक करके कुंभक करें और फिर इड़ा से धीरे-धीरे वायु
को निकालें, वेगपूर्वक न निकालें, इस
प्रकार योग के विधान से बीस बार कुंभक करने वाला व्यक्ति सभी द्वंद्वों
से मुक्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि प्राणायाम के अभ्यास को उत्तरोत्तर
बढ़ाता हुआ साधक वायु को वश में कर ले तो फिर उसके लिए कोई कष्ट शेष
नहीं रहता॥
इत्थं मासद्वयं
कुर्यादनालस्यो दिने दिने।
तताे
नाडीविशद्धिः स्याद् विलम्वेन निश्च्तिम्॥
ऊपर कही हुई
विधि से नित्य प्रति प्रातःकाल, मध्याहृ काल, सायंकाल
और अर्द्धरात्रि के समय अर्थात् चार बार कुंभक करना चाहिए।
इस प्रकार यदि आलस्य का त्याग करके नित्य नियमपूर्वक दो महीने तक प्राणायाम
करने वाले व्यक्ति की नाड़ी-शुद्धि में विलंब नहीं होता अर्थात् नाड़ी
निश्चित ही शुद्ध हो जाती है।
यक्षा तु
नाड़ीशुद्धिः स्याद् योगिनस्तत्त्वदर्शिनः।
तदा
विध्वस्तदोषश्च भवेदारंभसंभवः॥
चिह्नानि योगिनो
देहे दृश्यते नाडि़शुद्धितः।
कथ्यन्ते तु
समस्तान्यङ्गानि संक्षेपतो मया॥
जब
तत्त्वदर्शी योगी की नाड़ी शुद्ध हो जाती है,
तब सभी दोष
नष्ट हो जाते हैं और योग की नवीन प्रक्रियाओं का आरंभ किया जा सकता है। नाड़ी
शुद्ध होने के पश्चात योगी के देह में जो चिन्ह दिखाई देते हैं, उन सभी
को संक्षेप में कहता हूं।
समकायः
सुगन्धिश्च सुकांतिः स्वरसाधकः॥
आरंभभटकश्चैव
यथा परिचयस्तदा।
निष्पत्तिः
सर्वयोगेषु योगावस्था भवन्ति ताः॥
नाड़ी शुद्ध
होने पर योगी का शरीर सम हो जाता है (अर्थात तब
वह न मोटा रहता है न पतला) शरीर में सुगंध आने लगनी है श्रेष्ठ कांति अर्थात
उज्जवल तेज दिखाई देता है,माधुर्य आ जाता है। इसी स्थिति को योगावस्था
कहा जाता है।
सिद्धान्तश्रवणं
नित्यवैराग्वगृहसेवनम्।
नामसङ्कीर्तनं
विष्णोः सुसादश्रवणे परम्॥
धृतिः क्षमा तपः
शौच हृीर्मतिगुरुसेवनम्।
सदैतांश्च परं
योगी नियमांश्च समाचरेत्॥
सिद्धांत
ग्रंथों (वेदादि) का श्रवण करें, सदा वैराग्य युक्त भाव से घर में
रहंे, ईश्वर का नाम संकीर्तन करते रहें, जो
कुछ सुनें, वह शुभ ही सुनंे अर्थात
बुरी बातों को कभी न सुनें। धृति, क्षमा,
तप,
शौच और लज्जा का भाव रखें, गुरु
की सेवा में लगे रहें। इस प्रकार से नियमों के प्रति सदा तत्पर रहने
वाला योगी शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
अनिलोऽर्कप्रवेशे
च भोक्तव्यं योगिभिः सदा।
वायौ प्रविष्टे
शशिनि शयनं साघकोत्तमैः॥
सद्यो भुक्तेऽपि
क्षुधितेनाभ्यासः क्रियते बुधैः।
अभ्यासकाले
प्रथमं कुर्यान् क्षीराज्यभोजनम्॥
सूर्य नाड़ी
अर्थात दांई नासिका में स्थित पिंगला नाड़ी का प्रवाह रहने पर
योगी को भोजन करना चाहिए तथा चंद्र (इड़ा) नाड़ी में वायु का प्रवाह रहने
पर शयन करना ठीक है। भोजन करने के तुरंत बाद अथवा भूखे रहने पर कभी भी
अभ्यास न करंे। अभ्यास काल के पूर्व घी का भोजन करना चाहिए।
ततोऽभ्यासे
स्थिरीभूते न ताहङ् नियमग्रहः।
अभ्यासिना
विभोक्तव्यं स्तोकं स्तोकमनेकधा॥
पूर्वोक्तकाले
कुयात्तु कुम्भकान् प्रतिवासरे।
ततो
यथेष्टशक्तिः स्याद्योगिनो वायुधारणे॥
जब अभ्यास
दृढ़ हो जाए, तब उक्त नियमों के पालन की आवश्यकता
नहीं रहती। योगाभ्यासी को थोड़ा-थोड़ा भोजन अनेक बार
करना चाहिए। नित्य प्रति पूर्वोक्त प्रकार से कुम्भक करें। इससे
कुंभक सिद्ध हो जाता है और साधक को
इच्छानुसार वायु के धारण करने की शक्ति
प्राप्त हो जाती है।
यथेष्टं
मारणद्वायोः कुम्भकः सिध्यति ध्रुवम् ।
केवले कुम्भके
सिद्ध किं न स्यादिह योगिनः।।
स्वेछः संजायते
स्वेदो योगिनः पृथमोद्यमे।।
यदा संजायते
स्वेदो मर्दन कारयेत्सुधीः।
अन्यथा विग्रेह
धातुर्नष्टो भवति योगिनः।।्र
वायु को वश
में कर लेने पर कुंभक सिद्ध होता है और जब केवल कुंभक सिद्ध हो
जाता है तब योगी क्या नहीं कर सकता? योगी
के देह में पहली बार के प्रयत्न से पसीना आता है, योगी
को उत्पन्न हुए पसीने का देह में ही मर्दन कर
लेना चाहिए। यदि पसीने को देह में नहीं मलेगा तो धातु नष्ट हो जाएगी।
द्वितीये हि
भवेतु कम्पो दार्दुरी मध्यमे मता।
ततोडधिकतराभ्यासाद्गगने
चरसाधकः।।
योगी
पद्मासनस्थोडपि भुवमुत्यृज्य वर्तते।
वायुसिद्धिस्तदा
ज्ञेया संसारध्वान्तनाशनी।।
दूसरी बार के
प्रयत्न से कंप होता है और तीसरी बार में मेंढक की वृत्ति होती
है अर्थात मेंढक जिस प्रकार उछलता और पृथ्वी पर आ जाता है, वैसे
ही योगी भी आसन भूमि से ऊं चा उठता और फिर
भूमि पर आ जाता है। बाद मे योगी
आकाश गमन में सक्षम हो जाता है।
तावत्कालं
प्रकुर्वीत योगोक्तनियमनग्रह।
अल्पनिद्रा
पुरीषं च स्तोकं मुत्रं च जायते।।
अरोगित्वमदोनत्वं
योगिनस्त्वदर्शितः।
स्वेदो लाला
कृमिश्चैव सर्वथैव न जायते।।
योग सिद्धि
के लिए तब तक योगशास्त्रोक्त नियमों का पालन करें जब कि वायु की
सिद्धि न हो जाए और जब तक अल्प निद्रा और अल्प मल-मूत्र न होने लगे। तत्वदर्शी
योगी शारीरिक और मानसिक वेदना से परे हो जाते हैं साथ ही उनका शरीर पसीने
जैसे मलों से भी मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
कफपित्तानिलाश्चैव
साधकस्य कलेवरे।
यस्मिन् काले
साधकस्य भोज्येष्वनियमग्रहः।।
अल्यल्पं बहुधा
भुक्त्वा योगी न व्यथते हि सः।
अथाभ्यासवशांद्योगी
भूचरीं सिद्धिमाप्नुयात्।
यथा
दर्दुरजन्तूनां गतिः स्यात्पाणिताडनात्।।
साधक के देह
में कफ, पित्त और वात दूषित नहीं होते। निर्धारित समय तक योगी
को भोजन आदि पर संयम रखना आवश्यक है। योगी यदि अत्यधिक भोजन करे अथवा बहुत
कम खाए तो भी उसे कुछ कष्ट नहीं होता और अभ्यास करते-करते उसे भूचरी विद्या
की सिद्धि हो जाती है, जिस प्रकार मेंढ़क हाथ मार कर पृथ्वी में घुसता
है, वैसे ही योगी भी हाथ से ताड़न करके पृथिवी में
प्रवेश करता है।
सन्त्यत्र बहवो
विध्ना दारुणा दुनिवारणाः।
तथापि
साधयेद्योगी प्राणैः कण्नगतैरुप।।
योगाभ्यास
में अनेक अति दारुण विघ्न उपस्थित हो जाते हैं,
उनका शमन होना अत्यंत
कठिन है। फिर भी साधक का कर्त्तव्य है कि जब तक प्राण कंठगत न
हो जाए,
तब तक साधन में तत्पर रहे। अर्थात साधना में
धैर्य की आवश्यकता होती है,
इसलिए विघ्नों के उपस्थित होने पर
निराश नहीं होना चाहिए।
ततो
रहस्युपाविष्टः साधकः संयतेन्द्रियः।
प्रणवं
प्रजपेद्दीर्घं विघ्नानां नाशहेतवे ।।
पूर्वार्जितानि
कर्माणि प्राणायामेन निश्चितिम् ।
नाशयेत साधको
धीमानिह लोकाद्भवानि च।।
साधक को
विघ्नों को नष्ट करने के लिए इंद्रियों को वश में करने की चेष्टा
करनी चाहिए। साथ ही एकांत स्थान में बैठकर मनोयोगपूर्वक स्पष्ट रूप से
उच्चारण करते हुए ओंकार का जप भी करना चाहिए। विद्वान, साधक
पूर्वजन्म के अर्जित कर्म और इस जन्म में किए गए
कर्म ,इन दोनों के फल को प्राणायाम से
अवश्य ही नष्ट कर डालता है।
पूर्वार्जितार्नि
पापानि पुण्यानि विविधानि च ।
नाशयेत्
षोडशप्राणायामेन योगिपुंङ्गव ।।
योगियों में
श्रेष्ठसाधक पूर्वजन्मों के अर्जित पाप-पुण्य रूपी कर्मों को
सोलह प्राणायाम करके नष्ट कर डालता है। वह योगी पापों के समूह को वैसे ही
नष्ट कर देता है जैसे आग सूखी घास को भस्म करत डालती है।
ततोऽभ्यासक्रमेणैव
घटिकात्रिमयं भवेत्।
येन स्तात्सकला
सिद्धिर्योगिनः स्वेप्सिता ध्रवम्॥
वाक्सिद्धि :
कामचारित्वं दूरदृष्टिस्तथैव च।
दुरश्रुति :
सूक्ष्मदृष्टिः परकायप्रवेशनम्॥
क्रमपूर्वक
प्राणायाम का अभ्यास होने पर जब प्राणवायु को तीन घड़ी तक रोके
रखने की शक्ति आ जाती है, तब योगी अपनी इच्छा के अनुसार सभी
सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है। इस बात में तनिक
भी संदेह नहीं किया जाना चाहिए।
वह वाक् सिद्धि में समर्थ हो जाता है
अर्थात वह विभिन्न विषयों के मर्मभाव को अभिव्यक्त करने
में सक्षम हो जाता है तथा उसके द्वारा कही गई बातें सत्य साबित
होने लगती हैं। सही-गलत के बीच विभेद करने का स्वविवेक उसके भीतर पैदा
हो जाता है और दूरदर्शन की शक्ति भी आ जाती है। श्रुति अर्थात सुदूर के
शब्दों को भी सुन सकता है, सूक्ष्म दर्शन अर्थात् सूक्ष्म वस्तु को
देख सकता है और दूसरे के शरीर में प्रविष्ट हो सकता
है।
विष्णूत्रलेपनं
स्वर्णमट्टश्यं करणं तथा।
भवन्त्येतानि
सर्वांणि खेचरत्वं च योगिनाम्॥
यदा भवेद्
घटावस्था पवनाम्यासने परा।
तदा संसार
चक्रेऽस्मिन् तन्नास्ति यन्न साध्येत्॥
उसके शरीर से
निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ भी दूसरों के लिए स्वर्ण के समान
हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में योगी को अदृश्य होने की शक्ति प्राप्त हो जाती
है तथा आकाश में उड़ने की सामर्थ्य आ जाती है। इन सभी कार्यों को योगी,कुंभक
को सिद्ध करके पूर्ण कर सकता है, इसके पश्चात् उसकी घटावस्था हो सकती
है। वायु के अभ्यास में परायण योगी के लिए घटावस्था में संसार में सब कुछ
प्राप्य हो जाता है।
प्राणपानौ
नादबिन्द् जीवात्मपरमात्मनोः।
मिलित्वा घटते
यस्मात्तस्माद्वै घट उच्चते।।
याममात्रं यदा
धर्तु समर्थः स्यात्तदाद्भुतः।
प्रत्याहारस्तैव
स्यात्रान्तरा भवति ध्रुवम्
अब आपको
घटावस्था के बारे में बताते हैं। प्राण, अपान,
नाद,
बिंदु,
जीवात्मा और परमात्मा जब एकत्र हो जाए तब
वह योगी की घटावस्था कहलाती है।
जब योगी में एक प्रहर भर वायु-धारण की
शक्ति आ जाए ,तब साधन में अंतर न आने पर
अवश्य ही प्रत्याहार हो सकता है।
यं यं जानाति
योगीन्द्रस्तं तमात्सेति भावयेत्। यौरिन्द्रयैर्यद्वि धानस्तदिन्द्रयजयो भवेत्।।
योगी को
जिस-जिस पदार्थ की जानकारी हो,उसी-उसी पदार्थ में उसे आत्मा की भावना
करनी चाहिए। जिन इंद्रियों के द्वारा पदार्थ का बोध होता हो उसी में आत्मभाव
करने से योगी इंद्रियजयी हो जाता है। अभिप्राय यह है कि जैसे चक्षु से
रूप का या कानों से शब्द का बोध होता है, तब उसी रूप अथवा शब्द में आत्मा-भाव
करने से चक्षु रूप में आसक्त न होंगे और कान शब्द में आसक्त न होंगे
तो चक्षु या कान रूपी इंद्रिया स्वयं ही वश में हो जाएंगी। यही तथ्य अन्य
इंद्रियों और उनके विषयों के संबंध में भी समझना चाहिए।
याममात्रं यदा
पूर्ण भवेदभ्यास संयोगतः।
एक बार
प्रकुर्वीत यदा योगी च कुम्भकम्।।
दण्याष्टकं यदा
वायुनिश्चलो योगिनो भवेत्।
स्वसामर्थ्यादांगुष्ठे
तिष्ठेद्वातुलवत् सुधीः।।
जब एक बार
पूरे प्रहर अर्थात तीन घंटे तक योगाभ्यास द्वारा
कुंभक में स्थिरता प्राप्त हो जाए अथवा आठ घड़ी तक वायु को निश्चल रखने
का क्षमता प्राप्त हो जाए तो योगी के भीतर अपने ही सामर्थ्य से केवल पैर
के अंगूठे पर खड़ा रहने की शक्ति आ जाती है। परंतु योगी को अपनी शक्तियों
के प्रदर्शन के लोभ से बचना चाहिए। उसे अपनी सामर्थ्य की गोपनीयता रखने
के लिए विक्षिप्त जैसी चेष्टा प्रदर्शित करनी चाहिए।
अस्मिन्काले महायोगो
पंचधा धारणा चनते।
यून भरातिरिधः
स्यात्ततो भूतभयापहा॥
आधारे घटिकाः
पंच लिंगस्थाने तथैव च।
तदर्ध्व घटिकाः
पंच नाभिहृन्मध्यकं तथा॥
भू्र मध्योर्ध्व
तथा पंच घटिका धारयेत सुधी।
तथा भूतादिना नष्टो योगींद्रो न भवेत खलु॥
मेधावी
सर्वभूतानां धारणां यः समभ्यसेत।
शतब्रह्ममृनेनापि
मूत्युस्तस्य न विद्यते
जब योगी पांच
प्रकार की धारणा को सिद्ध कर लेता है तब उसमें पंचभूतों को धारण
करने की क्षमता भी पैदा हो जाती है।
फिर उन भूतों से उसे किसी प्रकार
का भय नहीं होता। मूलाधार चक्र में वायु को पांच घड़ी अर्थात दो घंटे
तक धारण करें , फिर उससे ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र में दो घंटे तक
धारण किए रहें। इसी प्रकार मणिपुर चक्र में और अनाहद
तक में भी दो-दो घंटे तक वायु धारण करने का विधान है। फिर विशुिद्ध
चक्र और आज्ञा चक्र में भी पांच-पांच घड़ी तक ही वायु-धारणा का
अभ्यास करें। इस प्रकार गुदा, मेढ़,
नाभि,
हृदय,
कंठ और भृकुटियों के मध्य में स्थित
षट्चक्रों में वायु धारणा करने के इस अभ्यास से सिद्ध होने वाले
योगी का पंचभूतों के द्वारा नष्ट
होना कदापि संभव नहीं है। इस प्रकार का
अभ्यास करने वाला योगी, सौ ब्रह्माओं
का मृत्युकाल पूर्ण होने पर भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता।
यदा निष्पत्ति
संपन्नः समाधिःस्वेच्छया भवेत्॥
गृहीत्वा चेतनां
वायुःक्रियाशक्ति च वेगवान्।
सर्वान् चक्रान्
विजित्वा च ज्ञान शक्तौ विलीयते॥
इस प्रकार
ज्ञान की संपन्नता होने पर समाधि भी इच्छानुसार होती है। अर्थात्
समाधि में जिस ध्येय का ध्यान किया जाता है,
उसी में चित्त नितांत लीन
हो जाता है। वह योगी वायु की चैतन्यता को ग्रहण करता हुआ क्रियाशक्ति को
वेगवती बना लेता है और सभी चक्रों को जीतकर ज्ञानशक्ति में विलीन हो जाता
है अर्थात् आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान में ही तन्मय हो जाता है। इसी अवस्था
को शास्त्रों में ब्रह्मज्ञान की अवस्था कहा जाता है।
इदानीं
क्लेशहान्यर्थ वक्तव्यं वायुसाधनम्।
येन
संसारचक्रऽस्तिम् रोगहानिर्भवेद्घ्रवम्।
रसनां तालुमूले
यः स्थापयित्वा विचक्षणः।
पिवेत्
प्राणानिलं तस्य रोगाणां संक्षयो भवेत्॥
शिवजी कहते
हैं कि अब मैं क्लेशों को नष्ट करने के लिए प्राण वायु के उस साधन
को कहता हूं, जिससे कि इस संसार चक्र में होने वाले रोगों का
निश्चय ही नाश हो जाता है। आशय यह है कि साधक को
मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ
रहना आवश्यक है। अन्यथा साधना में चित्त
नहीं लगेगा। इसीलिए शिवजी ने रोगनाशक उपाय कहा है कि यदि जिह्वा को
तालु के मूल में लगाकर बुद्धिमान
योगी प्राण-वायु का पान करता है, तो
उसके रोगों का अवश्य नाश हो जाता है॥
यदा निष्पत्ति
संपन्नः समाधिःस्वेच्छया भवेत्॥
गृहीत्वा चेतनां
वायुःक्रियाशक्ति च वेगवान्।
सर्वान् चक्रान्
विजित्वा च ज्ञान शक्तौ विलीयते॥
इस प्रकार
ज्ञान की संपन्नता होने पर समाधि भी इच्छानुसार होती है। अर्थात्
समाधि में जिस ध्येय का ध्यान किया जाता है,
उसी में चित्त नितांत लीन
हो जाता है। वह योगी वायु की चैतन्यता को ग्रहण करता हुआ क्रिया शक्ति का
वेगवती बना लेता है और सभी चक्रों को जीतकर ज्ञानशक्ति में विलीन हो जाता
है।
इदानीं
क्लेशहान्यर्थ वक्तव्यं वायुसाधनम्।
येन
संसारचक्रऽस्तिम् रोगहानिर्भवेद्घ्रवम्।
रसनां तालुमूले
यः स्थापयित्वा विचक्षणः।
पिवेत्
प्राणानिलं तस्य रोगाणां संक्षयो भवेत्॥
शिवजी कहते
हैं कि अब मैं क्लेशों को नष्ट करने के लिए प्राण वायु के उस साधन
को कहता हूं, जिससे कि इस संसार चक्र में होने वाले रोगों का
निश्चय ही नाश हो जाता है। आशय यह है कि साधक को
मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ
रहना आवश्यक है। अन्यथा साधना में चित्त
नहीं लगेगा। इसीलिए शिवजी ने रोगनाशक उपाय कहा है कि यदि जिह्वा को
तालु के मूल में लगाकर बुद्धिमान
योगी प्राण-वायु का पान करता है, तो
उसके रोगों का अवश्य नाश हो जाता है॥
काकचञ्च्वा
पिबेद्वायुं शीतलं यो विचक्षणः।
प्राणपानविधानज्ञः स भवेन्मुक्ति भाजनः।।
सरसं यः
पिबेद्वायु प्रत्यहं विधिना सुधीः।
नश्यन्ति
योगिनस्तस्य श्रमदाहजरायाः।।
प्राण अपान
के विधि -विधान का जानने वाला जो साधक कौए की चोंच के समान मुख-मुद्रा बनाकर
शीतल वायु को पीता है। वह साधक अवश्य ही मोक्ष का भाजन है, जो
विद्वान विधि सहित नित्य प्रति सरस वायु का पान करता है, उसके
सभी रोग, श्रम-दाह और वृद्धावस्था आदि का शीघ्र नाश
हो जाता है। आशय यह है ऐसी साधना करने वालों के सभी रोग नष्ट हो जाते
हैं और उसके लिए वृद्धावस्था कष्टकर साबित नहीं होती।
रसनामूर्ध्वगां
कृत्वा यश्चन्द्र सलिलं पिबेत।
मास मात्रेण
योगीन्द्रो मृत्युं जयति निश्चतम्।।
राजदन्त बिल
गाढं संपीड्य विधिता पिबेत।
ध्यात्वा कुण्लिनी देवीं षण्मासेन कविर्भवेत।।
जो योगी जीभ
ऊंची करके अर्थात ब्रह्यरंध्र मार्ग में ले जाकर चंद्रमा से निकलते
हुए अमृतरस का पान करता है वह दीर्घजीवी हो जाता है और वह मरने से नहीं
डरता। जीभ को ऊंची करके अमृत पान करना खेचरी मुद्रा की प्रक्रिया है, जो
योगी नीचे के दांत से राजदंत को दबाकर उसके छिद्र के द्वारा विधिपूर्वक वायु
को पीता है और साथ कुंडलिनी देवी का ध्यान करता है, वह छह महीने में ही
कवि हो जाता है।
रसनामूर्ध्वगां
कृत्वा यश्चन्द्र सलिलं पिबेत।
मास मात्रेण
योगीन्द्रो मृत्युं जयति निश्चतम्।।
राजदन्त बिल
गाढं संपीड्य विधिता पिबेत।
ध्यात्वा कुण्लिनी देवीं षण्मासेन कविर्भवेत।।
जो योगी
जीभ ऊंची करके अर्थात ब्रह्यरन्ध्र मार्ग में ले
जाकर चंद्रमा से नितलते हुए अमृतरस का पान करता है। अर्थात दीर्घ जीवी हो
जाता है और वह मरने से नहीं डरता। जीभ को ऊंची करके अमृत पान करना खेचरी मुद्रा
की प्रक्रिया है, जो योगी नीचे के दांत से राजदंत को दबाकर उसके छिद्र
के द्वारा विधि पूर्वक वायु को पीता है और साथ कुंडलिनी देवी का ध्यान
करता है तो वह छह महीने ही कवि हो जाता है।
काकचञ्च्वा
पिबेद्वायुं सन्धययोरुभयोरपि। कुण्यडलिन्या।
मुखे ध्यात्वा
क्षयरोगस्य शांतये।।
अहर्निशं
पिबेद्योगी काकचञ्चवा विचक्षणः।
पिबेत्प्राणनिलं
तस्य रोगाणां संक्षयों भवेत।
दूसश्रु
तिर्दूरहष्टिस्था स्यादूदर्शन खलु।।
ऊपर कही हुई
काकी मुद्रा की विधि से जो योगी दोनों संध्याओं में कुंडलिनी के
मुख का ध्यान करता हुआ प्राण वायु का पान करता है उनका क्षय रोग
शीघ्र ही शांत हो जाता है, जो विद्वान योगी कौए की चोंच जैसी मुद्रा बनाकर
दिन-रात प्राणवायु का पान करते हैं। उनके रोग अवश्य नष्ट हो जाते हैं तथा
उन्हें दूर के शब्द श्रवण शक्ति प्राप्त होकर दूर दर्शन की क्षमता भी उपलब्ध
हो जाती है। इस प्रकार वह रोगी सुक्ष्म की
वस्तुओं को देखने में भी देखने
में भी समर्थ ंहो जाता है।
दन्ते दंतात्
समापीड्य पिबेद्वायुं शनैः शर्न ऊर्ध्व जिह् सुमेधावी जयति सोडचिरात्।।
षण्मासमात्रमभ्यासं
यः करोति दिने दिने। सर्वपापविनिर्मुकों रोगात्राशयते हि सः।।
जो मेधावी
पुरुष दांत के द्वारा को पीडि़त करके तथा जीभ को ऊपर शर्नः शनैः
वायु का पान करता है। वह शीघ्र ही मृत्यु को जीत कर चिरंजीवी हो जाता है
जो योगी इस अभ्यास को नित्यप्रति करता है, वह छह महीने में ही सब पापों से
मुक्त हो जाता है और उसके सभी रोग नष्ट हो जाते हैं।
संवत्सरकृताभ्यासान्मृत्युं
जयति निश्चितम्। तस्मादतिप्रयत्नेन साधयेद्योगसःधकः।।
वर्षत्रयकृताभ्यासाद्भैरवो
भवति ध्रवम्। अणिमादिगुणन लब्ध्वा जितभूतगणः स्वयम्।।
यदि उक्त विधि
से कोई योगी एक वर्ष तक अभ्यास करता रहे तो अवश्य ही मृत्यु को जीत लेता है, इसलिए योग साधन करने
वाले मुमुक्षु को यत्नपूर्वक इसकी साधना करना चाहिए। यदि
इस प्रकार का साधन तीन वर्ष तक लिया जाए, तो निश्चय ही वह भैरव हो जाता है
अर्थात भैरव के समान सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है साथ ही अणिमादि अष्ट सिद्धियों
की उपलब्धि हो जाती है और उस साधक के वश में समस्त भूतगण स्वयं ही
हो जाते हैं।
रसनामूर्ध्वगां
कृत्वा क्षणार्ध यदि तिष्ठति। क्षणेन मुच्यते योगी व्याधिमृत्युजरादिभिः।।
रसनां
प्राणसंयुक्तां पीड्यमानां विचिन्तयेत्। न तस्य जायते मृत्युः संत्यं मयोदिताम् ॥
यदि योगी की
जीभ आधे क्षण के लिए भी ऊपर स्थित हो जाए तो क्षण भर में ही सभी
रोग,जरा- मरण का नाश हो जाता है। खेचरी मुद्रा द्वारा
अमृतरूपी वायु का पान करने से व्यक्ति सभी व्याधियों से
मुक्त हो जाता है। जो पुरुष जीभ
को प्राण से संयुग्मित करके ब्रह्मरंध्र
में ध्यान से अवस्थित हो जाता है, उसकी मृत्यु नहीं हो सकती है, मेरा
यह कथन नितांत सत्य है।
एनमभ्यासयोगेन
कामदेवो द्वितीयकः। न क्षुधा न तृषा निद्रा नैव मूर्च्छा प्रजायते।।
अनेनैव विधानेन
योगीन्द्रोऽवनिमंडले। भवेत्स्वच्छन्दचारी च सर्वापत्परिवर्जितः।।
न तस्य
पुनरावृत्तिर्मोदते स सुरैरपि। पुण्यपापैर्न लिप्येत एतदाचरणेन सः।।
इस प्रकार
योगाभ्यास करने वाली योगी द्वितीय कामदेव हो जाता है। (अर्थात कामदेव
के समान रूप-लावण्य युक्त होता है) और उसे कभी भूख, प्यास, निद्रा या
मूर्च्छा से पीडि़त नहीं होना पड़ता। इस विधान से अभ्यास करने वाला योगी संसार
में सभी दुखों से रहित होकर इच्छानुसार आचरण करने में समर्थ होता है और
किसी प्रकार की भी आपत्तियों में नहीं फंसता। वह किसी प्रकार के पुण्य से
भी लिप्त नहीं होता और संसार में पुनर्जन्म ही धारण करता है। यह दिव्य लोक
में विचरण करने में समर्थ होने के कारण देवताओं के साथ
सुखपूर्वक विचरण करता है। अर्थात वह सब प्रकार से
समर्थ होकर सभी दिव्यताओं को प्राप्त कर लेता है।
चतुरशीत्यासनाननि
संति नानाविधानि च तेभ्यश्चतुष्कमादाय मयोक्तानि ब्रवीम्यहम्।
सिद्धासने ततः
पदमासनं चोग्र च स्वस्तिकम्
यद्यपि
योगासन बहुत प्रकार के है उनमें चौरासी प्रमुख हैं, उनमें भी चार
अति प्रमुख माने जाते हैं। ये हैं- सिद्धासन, पद्मासन, उग्रासन
और स्वास्तिकासन आशय। इनके द्वारा प्राणवायु भी सहज
में ही वशीभूत होती है।
योनिं संपीड्य
यत्नेन पादमूलेन साधकः।
मेढ्रोपरि
पादमूलं विन्यसेत् योगवित्सदा॥
ऊर्ध्वं
निरीक्ष्य भू्र मध्यं निश्चलः संयतेन्द्रियः।
विशेषोऽवक्रकायश्च
रहस्युद्वेगवर्जितः॥
एतत्सिद्धसनं
ज्ञयं सिद्धानां सिद्धिदायकम्॥
योग का
जानने वाला साधक योनि स्थान को पांव की ऐड़ी से पीडि़त
करे और द्वितीय पांव की एड़ी को मेढ्र के मूल स्थान पर रखे तथा भौंहों
के मध्य में दृष्टि को स्थिर करके और जितेंद्रिय रहता हुआ, शरीर
को सीधा, वेग-रहित करे। यह सिद्धों को भी सिद्धि
प्रदान करने वाला सिद्धासन के रूप से जाना जाता है।
येनाभ्यासवशात्
शीघ्रं योगनिष्पत्तिमाप्नुयात्।
सिद्धासनं सदा
सेव्यं पवनाभ्यासिना परम्॥
येन
संसारमुत्सृज्य लभते परमां गतिम्।
नातः परतरं
गुह्यमासनं विद्यते भुवि।
येनानुध्यानमात्रेण
योगी पापाद्विमुच्यते॥
इस प्रकार
योगाभ्यास करते-करते योग का ज्ञान शीघ्र ही हो
जाता है। इसलिए यह सिद्धासन वायु का अभ्यास करने वाले साधक को अवश्य करना
चाहिए। इसके प्रभाव से संसार-सागर से मुक्त होकर योगी परमगति को प्राप्त
होता है। यह आसन सर्वश्रेष्ठ तथा अत्यंत गोपनीय है, जिसका ध्यान करने
मात्र से योगी को सब पापों से मुक्ति होती है। इसके सिद्ध होने पर योगी
को सब लाभों की प्राप्ति होती है।
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भगवान शिव और माँ पार्वती आप सभी के जीवन को सुखमय और समृद्धिशाली बनाएँ।
ReplyDeleteशिव संहिता+ शिव स्वरोदय HINDI PDF DOWNLOAD
ReplyDeletehow to download no link
जय हो शंभू नाथ हर हर महादेव
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