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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Tuesday, February 26, 2013

शिव के नाम


शिव के  नाम
हिन्दू धर्मग्रंथों महादेव यानी भगवान शिव को अनादि, अनंत, अजन्मा माना गया है यानी उनका कोई आरंभ है न अंत है, न उनका जन्म हुआ है, वह मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस तरह भगवान शिव अवतार न होकर साक्षात ईश्वर हैं। शिव को मृत्युलोक का देवता भी माना गया है।

शिव इन नामों को बोलनेभर या स्मरण से सभी दु:ख और परेशानियां दूर होती है और भरपूर सुख-सौभाग्य बरसता है।

शिव के यहां बताए जा रहे 108 स्वरूप का नाम स्मरण पितृदोष भी दूर कर भाग्य को संवारने वाला माना गया है, जो तमाम खुशहाली देने वाला साबित होता है। यहां जानिए कौन से शिव के इन 108 रूपों के नाम और उनका मतलब -

शिव - कल्याण स्वरूप

महेश्वर - माया के अधीश्वर

शम्भू - आनंद स्वरूप वाले

पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले

शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले

वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले

विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले

कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले

नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले

शंकर - सबका कल्याण करने वाले

शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले

खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले

विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी

शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले

अंबिकानाथ - भगवति के पति

श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले

भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले

भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले

शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले

त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी

शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले

शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय

उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले

कपाली - कपाल धारण करने वाले

कामारी - कामदेव के शत्रुअंधकार

सुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले

गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले

ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले

कालकाल - काल के भी काल

कृपानिधि - करूणा की खान

भीम - भयंकर रूप वाले

परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले

मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले

जटाधर - जटा रखने वाले

कैलाशवासी - कैलाश के निवासी

कवची - कवच धारण करने वाले

कठोर - अत्यन्त मजबूत देह वाले

त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले

वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले

वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले

भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले

सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले

स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले

त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले

अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है

सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले

परमात्मा - सबका अपना आपा

सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले

हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले

यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले

सोम - उमा के सहित रूप वाले

पंचवक्त्र - पांच मुख वाले

सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाल

विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर

वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले

गणनाथ - गणों के स्वामी

प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले

हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले

दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले

गिरीश - पहाड़ों के मालिक

गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले

अनघ - पापरहित

भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले

भर्ग - पापों को भूंज देने वाले

गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले

गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी

कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले

पुराराति - पुरों का नाश करने वाले

भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न

प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति

मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले

सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले

जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले

जगद्गुरू - जगत् के गुरू

व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले

महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता

चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले

रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले

भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी

स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले

अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले

दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले

अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले

अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले

सात्त्विक - सत्व गुण वाले

शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले

शाश्वत - नित्य रहने वाले

खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले

अज - जन्म रहित

पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले

मृड - सुखस्वरूप वाले

पशुपति - पशुओं के मालिक

देव - स्वयं प्रकाश रूप

महादेव - देवों के भी देव

अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले

हरि - विष्णुस्वरूप

पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले

अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले

दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाल

हर - पापों व तापों को हरने वाले

भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले

अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले

सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले

सहस्रपाद - अनंत पैर वाले

अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले

अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित

तारक - सबको तारने वाला

परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर

दोहा:-
किरिया आसन सब कियो षट मुद्रा लियो जान ।
कुंभक रेचक पूरकहु प्राणायाम विधान ॥१॥
जड़ समाधि हमने सिखी मिट्यो न तन मन रोग ।
सूरति शब्द के जाप से जीव ब्रह्म संयोग ॥२॥
राज योग याको कहैं अति ही सुलभ उपाय ।
रोम रोम ते नाम धुनि सन्मुख रूप दिखाय ॥३॥
सूरति शब्द कि जाप है अजपा याको जान ।
दुर्लभ अति सो सुलभ भा सतगुरु किरपा मान ॥४॥
तत्व ज्ञान सिर मौर यह ईसा की सुनि लेहु ।
जिह्वा नयन न कर हिलैं सुरति शब्द पर देहु ॥५॥
संसकार जेहि ठीक हों सो पावै यह जान।
बदलै ताहि स्वभाव तब होवै ज्ञान महान ॥६॥
समय बँधे अनुकूल हैं सब जीवन के जान ।
या से धीरज को धरै सतगुरु बचन प्रमान ॥७॥
जो जेहि लायक जीव जब वैसेहि बुध्दि विचार ।
वैसे वाके संग लगैं संसकार सरदार ॥८॥
मुद्रा सब साधन किये रूप अनूप दिखाय ।
ररंकार की धुनि खुली अनहद नाद सुनाय ॥९॥
इड़ा पिंगला सुखमना में ह्वै कर जब जाय ।
षट चक्कर औ नागिनी सातौं कमल दिखाय ॥१०॥

भेदन होवैं चक्र सब कमल उलटि सब जांय ।
तिरबेनी स्नान करि शून्य में लय ह्वै जांय ॥११॥
सुधि बुधि सबै हिराय गै जानि को पावै अंत ।
आतम परमातम मिले शुभ औ अशुभ जरंत ॥१२॥
ईसा कहैं हर दम भजौ प्रणतपाल भगवन्त ।
दीन होहु हरि द्रवहिं तब आवागमन नसंत ॥१३॥
शरीर क पूरब सामने, पीठी पश्चिम जान ।
उत्तर में शिर है सही दक्षिण पगन प्रमान ॥१४॥
इड़ा नारि का रंग हरा पिंगला स्वेतहिं जान ।
सुखमन ताके मध्य में लाल रंग परमान ॥१५॥

सुखमन नाड़ि में चित्रणी पीत रंग है मान ।
श्याम रंग है वज्रणी अभ्यन्तर धुनि जान ॥१६॥
शुक्ल धुवाँ सम लखि परै तामे तेज महान ।
सुर शक्ती मुनि ऋषि तहां वायू रूप लुभान ॥१७॥
ब्रह्म नाड़ि याको कहत मानों बचन प्रमाण ।
जो या विधि को जान लेय सोई पुरुष महान ॥१८॥

चौपाई:-
गुदा क चक्र पीत रंग जानौ। इन्द्री चक्र लाल है मानो ॥१॥
नाभि चक्र तो श्वेत सोहाई। हिरदय चक्र श्याम है भाई ॥२॥

दोहा:-
कंठ के चक्र क हरा रंग, जानै चतुर सुजान ।
अगिनी के सम रंग है, त्रिकुटी चक्रहिं जान ॥१॥
कमलन के रंग नहिं कह्यो, जानहिं परम प्रवीन ।
श्री शिव जी शुकदेव जी, भेद विलग करि दीन ॥२॥

चौपाई:-
शिव की देखि स्वरोदय लीजै। ज्ञान स्वरोदय पर मन दीजै ॥१॥

दोहा:-
सोपान स्वरोदय लिखा है, श्री नानक जी जान।
देखि लेय जो कोइ चहै, दीन बताय प्रमान ॥१॥
राज योग की खेचरी, सुखमन घाट पै जान ।
सतगुरु से उपदेश लै, तब पावै कोइ जान ॥२॥


कृष्ण पक्ष की चतुर्दशि, दिवस शनिश्चर जान ।
महिना कातिक शाम को प्रगट भये हनुमान ॥१॥
ऋषि मुनि औ सब देवता, जपैं राम का नाम।
नामहिं ते सब मिलत है, मुक्ति भक्ति औ राम ॥२॥
सूरति शब्द की एकता, राम रूप दर्शाय ।
कहन सुनन की बात क्या मन ही मन मुसुकाय ॥
अजपा जाप के भेद को, जानि करै अभ्यास।
जग में फिर आवै नहीं, करै अमरपुर बास ॥१॥
सूरति समानी शब्द में, आपा आपु नसान ।
अन इच्छित तब ह्वै गयो, राम रूप दर्सान ॥१॥
नाम सनेही सो भयो, सूरति शब्द में लागि ।
सारी मन की बासना, गई आप ही भागि ॥१॥
राजयोग का मूल है, सुरति शब्द का खेल ।
तीनों गुन के परे तब, जीव ब्रह्म का मेल ॥१ ॥
दोहा:-
अर्ध्द चन्द्र ओंकार पर, जानि लेय जो कोय ।
सत्य लोक को जाय फिरि, आवागमन न होय ॥१॥
कंठकी जाप पिपीलका, स्वांसा की है मीन ।
सूरति जाप विहंग है, जानहिं परम प्रवीन ॥२॥

पद:-
शब्द का भेद कछु वेद नही पायौ, कहत है सब साँच साँच ॥१॥
गुरु देव से नाम कि धुनी जानि तब हरि चरित्र फिर बाँच बाँच ॥२॥
तीनोइ गुनन के परे होय तब लगै कभी नहिं आँच आँच ॥३॥
मन रम्यो नाम औ रूप संग ठग स्थिर ह्वै गये पाँच पाँच ॥४॥
प्रेम मगन छवि देखै तौन घनश्याम सखा सखी नाच नाच ॥५॥
मिटि जाय करम गति विधि की लिखी जो मस्तक में दियो खाँच खाँच ॥६॥
है सुरन को दुर्लभ नर शरीर कैसा सुन्दर यह ढाँच ढाँच ॥७॥
नानक विरथा मानुष शरीर हरि भजन बिना जैसे काँच काँच ॥८॥

दोहा:-
बेद कि गति बैकुण्ठतक, आगे गति कछु नाहिं ।
राम नाम गुरु से मिलै, है सब के तन माहिं ॥१॥
सुर मुनि संतन जो कही, सो सब दीन लखाय ।
बेद भेद पायो नहीं, साँची दीन बताय ॥२॥
बेद त्रिगुन के परे नहिं, तीनो गुन परवीन ।
श्री कृष्ण भगवान ने, गीता में कहि दीन ॥३॥
मोक्ष जीव तब होत है, मिटै सबै संताप ।
एक अंश हरि भेजते, जग हितार्थ हित आप ॥४॥
पाप ते महि गुरुआय जब, तब आवैं वे अंश ॥५॥
जगत आय रक्षा करैं, होय दुःख बिध्वंश ॥६॥
फँसै नहीं वे जगत में, चले जाहिं हरि पास ॥७॥
ऐसे खेल लगा रहै, कीजै मन विश्वास ॥८॥
हरि की लीला अगम है, नाहिन पारावार ॥९॥
संत गुरु जो किरपा करैं, नाम खुलै सुखसार ॥१०॥

चारों मोक्षन का यहीं, हाल जानि तुम लेहु ॥११॥
राम नाम सुमिरन करहु, निज नैनन लखि लेहु ॥१२॥
भक्तन सँग खेलत रहैं, राम आप ही खेल ॥१३॥
संशय देंय मिटाय सब, जो ह्वै जाय अकेल ॥१४॥
अकेल उसी को कहत हैं, नाम कि धुनि एकतार ॥१५॥
तार कभी टूटै नहीं, काह करै संसार ॥१६॥
कोटिन के तब बीच में, बैठौ बोलौ खाव ॥१७॥
विघ्न कोई ब्यापै नहीं, राम नाम परभाव ॥१८॥
यह सिध्दान्त अपेल है, जान लेहु गुरु पास ॥१९॥
आँखी कान खुलै तबै, होहु राम के दास ॥२०॥

राज योग या को कहत, सब योगन को मूल ॥२१॥
याके बिन जाने सुनो, मिटै न तन मन शूल ॥२२॥
छूटि जांय संकल्प सब, निर्विकल्प होय जाय ॥२३॥
तब हरि के ढिग जाइहै, साँची दीन बताय ॥२४॥
संतन की संगति करै, तन मन प्रेम लगाय ॥२५॥
राम कृपानिधि द्रबहिं तब, सतगुरु देहिं मिलाय ॥२६॥
सूरति शब्द के जाप को, सतगुरु देहिं बताय ॥२७॥
रोम रोम ते नाम धुनि, श्याम स्वरूप दिखाय ॥२८॥
अजपा या को कहत हैं, सूरति शब्द की जाप ॥२९॥
जिह्वा चलै न कर हिलै, जपै आप को आप ॥३०॥

राम विष्णु औ कृष्ण जी, एकै हैं नहिं दोय ॥३१॥
नानक जे जन जानिगे, मुक्ति भक्ति लियो सोय ॥३२॥
कह नानक धनि संत वे, जिन कछु साधन कीन ॥३३॥
तिन चरनन की रज भली, मुख औ सिर पर लीन ॥३४॥
साढ़े तीन कोटि तीरथ बसैं, चरनन में लेव जान ॥३५॥
धोय के प्रेम से पीजिये, कह नानक हो ज्ञान ॥३६॥
संतन की महिमा अगम, को करि सकै बरवान ॥३७॥
नानक हर दम संग रहैं, जिनके कृपानिधान ॥३८॥

चौपाई:-
संतन के मन की हरि जानैं। हरि की लीला संत बखानै ॥१॥
संत सदा सँग केलि करत हैं। हरि संतन का ध्यान धरत हैं ॥२॥
हरि औ संत संग रहैं कैसे। जल औ जल तरंग हैं जैसे ॥३॥

दोहा:-
हरि औ संत में भेद नहिं, कह नानक सुनि लेव ।
तन मन मारो दीन ह्वै, जानि गूढ़ गति लेव ॥१॥
सात कमल तन में अहैं, नाल एक ही जान।
नानक कह अभ्यास करि, देखैं चतुर सुजान ॥२॥

चौपाई:-
कमल लाल रंग दल है चारी। बैठिगजानन सुरति सम्हारी ॥१॥
गुदा चक्र का भेद बतावा। करिकै जतन जानि हम पावा ॥२॥
कमल पीत रंग षट दल जानो। शक्ति सहित ब्रह्मा कर थानो ॥३॥
इन्द्री चक्र का भेद बतायन। उत्पति यहँ से होत सुनायन ॥४॥
नाभी इन्द्री मध्य बखानो। कुंडलिनि को यहँ परे जानो ॥५॥
पूँछ को मुँह में बैठिदबाये। जब जागै तब सुख उपजाये ॥६॥
श्याम रंग दल आठसुहावन। विष्णु लक्ष्मी बास है पावन ॥७॥
पालन करत सबन पर दाया। नाभि चक्र का हाल सुनाया ॥८॥
बारह दल रंग स्वेत कमल हैं। शिव गिरिजा जहँ बैठिबिमल हैं ॥९॥
हिरदय चक्र क हाल यह भाई। जो देखा सो दीन बताई ॥१०॥
कमल धूम रंग सोरह दल जहाँ। आतम इच्छा शक्ति रहत तहँ ॥११॥
कण्ठके चक्र का भेद है प्यारे। चलु आगे मिलिहैं सुखसारे ॥१२॥
कमल सहस दल बहु परकाशा। जोति निरंजन गिरिजा बासा ॥१३॥

दोहा:-
शेष सुकुल रंग सहस फन, ऊपर छाया कीन ।
त्रिकुटी के नीचे अहै, जानहिं परम प्रबीन ॥१॥

चौपाई:-
दुई दल कमल रंग शशि केरा। रेफ़ विन्दु को तापर डेरा ॥१॥

दोहा:-
शिव ब्रह्मा विष्णू जपैं, राम नाम यह जान ।
चमकै तेज अपार तहँ, को करि सकै बखान ॥१॥

चौपाई:-
त्रिकुटी चक्र कहत हैं याको। तिरगुण का फाटक है बाँको ॥१॥
सूरति शब्द में जौन लगावै। सदगुरु किरपा ते खुलि जावै ॥२॥
तीनों देव खुशी हों ताता। आशिष देंय जाव अब भ्राता ॥३॥

दोहा:-
तिरबेनी स्नान करि, जब निर्मल ह्वै जाय ।
तब जोती के दरस हों, गगन महल में जाय ॥४॥

पद:-
गगन महल में रहस करत हैं राधे कृष्ण मुरारी जी ॥१॥
राग रागिनी सखा सखी सँग मुरली बाजै प्यारी जी ॥२॥
अनहद वाजा बरनि सकै को ताल सुरन गति न्यारी जी ॥३॥
नानक देखत ही बनि आवै कीजै ध्यान सम्हारी जी ॥४॥

दोहा:-
शून्य भवन में लय भई, सुधि बुधि गई हेराय ॥१॥
किरपा निधि की कृपा ते, फिर आगे बढ़ि जाय ॥२॥
भँवर गुफ़ा जाको कहत, महा शून्य है नाम ॥३॥
जड़ समाधि तहँ होत है, हठयोगिन को धाम ॥४॥
सत्य लोक के पास ही, बना अहै गोलोक ॥५॥
कृष्ण के अन्तर राधिका, गौवन का तहँ थोक ॥६॥

चौपाई:-
बने विचित्र भवन तहँ पावन। रंग रंग के वृक्ष सुहावन ॥१॥
पुष्पन की सुगंध तहँ उड़ती। मधुर मधुर वायु जहँ चलती ॥२॥
झूला झूल रहे गिरधारी। कोटि काम छवि तन पर वारी ॥३॥
राम ब्रह्म साकेत के वासी। जिन इच्छा करि सब परकासी ॥४॥
पूरण सुख के हैं प्रभु रासी। चारौं मोक्षन के तहँ वासी ॥५॥
बरन सकै छवि वहँ की को है। देखत ही बनि आवत जो है ॥६॥
अन्तरगत हैं आदि भवानी। अगनित शक्ती जिन उत्पानी ॥७॥

दोहा:-
हमको गुरु महाराज ने, दीन्हों भेद बताय ।
जड़ समाधि में मन चपल, सृष्टी रचत अघाय ॥१॥
यासे याको मत सिखो, मानो बचन हमार।
राजयोग को जान लो, मिलै तुम्हैं सुखसार ॥२॥
शून्य में सोऽहं रूप प्रभु, रहत लीजीये मान ।
पवन में पवन जबै मिलै, कैसे पावै जान ॥३॥
सत्यलोक से दयानिधि, नाम को दीन पठाय ।
त्रिकुटी पर आसन कियो, दुइ दल कमल पै आय ॥४॥
एक अंश महा शून्य में, दूसर शून्य में जान ।
गगन में तीसर जानिये, त्रिकुटी चौथा मान ॥५॥
त्रिकुटी से वहु अंश बनि, छिटके तन में जाय ।
धुनी उठत है नाम की, रोम रोम हर्षाय ॥६॥

चौपाई:-
मध्य भाग पच्छिम दिशि सोहै। तीनों नारायण मन मोहै ॥१॥
धुनी ध्यान का खेल पसारैं। शून्य समाधि सबै मिलि धारै ॥२॥
आपै आप को जानन हारे। आपै आप खेल विसतारै ॥३॥
करि विश्वास श्री गुरु बानी। निर्भय ह्वै भजु सारंगपानी ॥४॥
छूटि जाय सब तन की काई। हर शै में फिर वही दिखाई ॥५॥
जप अरू ध्यान सदा संग जानौ। अन्तराय होवैं नहिं मानौ ॥६॥
अकह अपार अगम यह बाता। गुरु किरपा नानक कहैं ताता ॥७॥

दोहा:-
सतगुरु बचन में प्रीति हो, अन्धकार हर जाय ॥८॥
प्रेम दीनता उर बसै, हर दम रूप दिखाय ॥९॥

चौपाई:-
नाम रूप का खेल अपारा। पालन उत्पत्ति प्रलयक सारा ॥१॥
नाम से रूप बनत पल माहीं। रूप से नाम कि सब पर छाहीं ॥२॥
लीला धाम बनत नहिं देरी। नाम कि सब दिशि अहै उजेरी ॥३॥

पद:-
नाम रूप परकाश दशालय और न दूजा कोई जी ॥१॥
द्वैत भाव तन से जब छूटै सूरति शब्द मिलोई जी ॥२॥
अस्तुति निन्दा सम तब होवै तन मन प्रेम भिजोई जी ॥३॥
नानक सतगुरु से जब जानै मुक्ति भक्ति तब होई जी ॥४॥

दोहा:-
बायें स्वर में शशि रहैं, दहिने सूर्य को जान ।
मध्य में सुखमन जानिये, तहँ पर शिव को थान ॥१॥

चौपाई:-
प्राण का बास कण्ठमें जानो। हिरदय बास मनहिं कर मानो ॥१॥
जब मन सूरति संग लग जाई। तब अकाशवत् होत है भाई ॥२॥
छवि देखैं जब श्याम कि प्यारी। प्रेम की डोरि बँध्यौ सुख भारी ॥३॥

दोहा:-
शंख चक्र गदा पदुम कर, मुरली धनुष औ बान ॥१॥
तीनौ शक्तिन के सहित, सन्मुख कृपानिधान ॥२॥
पन्द्रह विधि की जाप को, गुरु किरपा हम जान ॥३॥
कह नानक मानो सही, लय समाधि अरु ध्यान ॥४॥
नीचे उपर दंत जो, समुहें पर है जान ॥५॥
जिह्वा तिन में साँटिये, मुख मुंदौ हो ज्ञान ॥६॥
बैठि उनमुनी से तबै, सूरति शब्द लगाव ॥७॥
चन्द्र सूर्य जब एक हों, सुखमन घाट नहाव ॥८॥
तिरवेनी स्नान भइ, वहाँ खेचरी लागि ॥९॥
पाप पुन्य दोनों जरे, सबै कामना भागि ॥१०॥

हठयोगिन की खेचरी, तुम्हैं देंव बतलाय ॥११॥
जिह्बा उलटि के दशम में, कसि के देय लगाय ॥१२॥
महा शून्य के घाट पर, महा खेचरी जान ॥१३॥
भँवर गुफा पँहुच्यौ जबै, बन्द भई तब मान ॥१४॥
श्री गुरु शुकदेव जी, मोपर किरपा कीन ॥१५॥
रूप सदा सन्मुख रहै, सूरति शब्द में लीन ॥१६॥
मानुष का तन पाय कै, निशि दिन भज्यौ न राम ॥१७॥
अगनित चक्कर काटि है, मिलै नहीं विश्राम ॥१८॥
राम नाम सुमिरन करौ, तन मन प्रेम लगाय ॥१९॥
नानक की यह विनय है, सब से शीश नवाय ॥२०॥

पद:-
सब में सब से परे हैं स्वामी रूप अहै नहिं रूपम् ॥१॥
अकथ अनादि कहैं सुर मुनि सब गावत चरित अनूपम् ॥२॥
अकह अपार अगम करुणामय भक्तन हित नर रूपम् ॥३॥
नानक सरन सरन प्रभु तेरी चर अरु अचर के भूपम् ॥४॥

चौपाई:-
मानुष का तन मिल्यौ अमोला। करि हरि भजन सुफल करु चोला ॥१॥
हरि को भजि ले सुरति सँभारी। कह नानक फिरि मिलै न वारी ॥२॥
संतन के यह बचन करारी। नानक तन मन प्रभु पर वारी ॥३॥

दोहा:-
महा प्रकाश में रूप है, रूप में महा प्रकाश।
नाम में महा प्रकाश है, रूप में नाम का वास ॥१॥
नाम रूप परकाश का, देखा चहै जो रंग
नानक हर दम हरि भजै, रहै सदा ही संग ॥२॥
गौर वर्ण शशि जानिये, श्याम वर्ण हैं भानु।
पालन शशि ते होत है, उतपति सूर्य से जान ॥३॥

चौपाई:-
पिता विष्णु सम रवि को जानो । लक्षमी माता सम शशि मानो ॥१॥
सुखमन मन को सुख उपजावै । धुनी ध्यान लय में पहुँचावै ॥२॥

दोहा:-
शशि ते थिर कारज बनै, रवि से चर को जान ।
नानक हरि के भजन बिन, मिलै न पद निर्वान ॥१॥
सिध्दिन में परि के कहीं, मन प्रसन्न ह्वै जाय।
पावन बेड़ी परि गई, घूमि घूमि चकराय ॥२॥
तीखे कंटक जानिये, बचा रहे सो सूर ।
नानक गुरु परताप ते, राम कृपा भरपूर ॥३॥

चौपाई:-
चारौं ध्यान देव बतलाई। सुनि कै तन मन अति हर्षाई ॥१॥
प्रथम ध्यान करू नैनन बन्दा। देखौ चरित सच्चिदानन्दा ॥२॥
दूसर ध्यान खुलें दोऊ नैना। खेलैं हंसै कहैं मृदु बैना ॥३॥
तीसर ध्यान है सन्मुख झाँकी। बरनि सकै को छवि अति बाँकी ॥४॥
चौथा ध्यान दिब्य साकेता। संत हंस सँग कृपानिकेता ॥५॥
चारौं ध्यान सिध्द ह्वै जावैं, तब सब सुर मुनि दरस दिखावै ॥६॥
नाना खेल करैं सँग आई। सो चरित्र नहिं बरनि सिराई ॥७॥

दोहा:-
पाँच प्राण मिलि एक हों, तब पावो वह ठौर ।
कह नानक मेरे गुरु, तत्व ज्ञान शिर मौर ॥१॥
अपने में सबको लखैं, सब में आप को मान ।
इस रहस्य के भेद को नानक सो कछु जान ॥२॥
नाद विन्दु में जब कोई, ह्वै जावै सम्पन्न ।
वीर्य उर्ध्व होवै तबै, कह नानक सो धन्य ॥३॥

चौपाई:-
पदवी महा पुरुष की जानो । दरशन करत हरैं अघ मानो ॥१॥

दोहा:-
नानक ऐसे सँत जन, गुरु किरपा मिलि जाहिं ।
मानो हरि ही मिलि गये, भेद नहीं बिलगाहिं ॥१॥
नानक ऐसे सँत जन, करैं सदा उर वास ।
जिनकी कृपा कटाक्ष ते, तन मन रहे हुलास ॥२
सँतन की महिमा अगम, मेटि करम गति देहिं।
बचन प्रभू टारैं नहीं, पास आपने लेहिं ॥३॥
सँतन की सँगति करै, आवागमन नसाय ।
कह नानक मानो बचन, दीन्हों भेद बताय ॥४॥
गई पिपीलिका गगन तक, मीन समाधी कीन ।
सात स्वर्ग ऊपर विहँग, जाय के आसन लीन ॥५॥
सूरति लागै शब्द पर, तन मन प्रेम से जान ।
नानक ताको प्राप्त हों, चारों बिधि के ध्यान ॥६॥
राम नाम ही शब्द है भीतर वाहर एक ।
सूरति से जप होत है या में फरक न नेक ॥१॥

जय राम रमारमणं समनं | भव ताप भयाकुल पाहि जनं ||
अवधेस सुरेस रमेस विभो
| सरनागत मागत पाहि प्रभो ||||
गुन सील कृपा परमायतनं | प्रनमामि निरंतर श्रीरमणं |
दोहा:
बार बार बर मांगऊ हारिशी देहु श्रीरंग |
पदसरोज अनपायनी भागती सदा सतसंग
||



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