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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Friday, February 21, 2014

दाम्पत्य कहते किसे हैं ?









दाम्पत्य कहते किसे हैं ? क्या सिर्फ विवाहित होना या पति-पत्नी का साथ रहना दाम्पत्य कहा जा सकता है। पति-पत्नी के बीच का ऐसा धर्म संबंध जो कर्तव्य और पवित्रता पर आधारित हो। इस संबंध की डोर जितनी कोमल होती है, उतनी ही मजबूत भी। जिंदगी की असल सार्थकता को जानने के लिये धर्म-अध्यात्म के मार्ग पर दो साथी, सहचरों का प्रतिज्ञा बद्ध होकर आगे बढऩा ही दाम्पत्य या वैवाहिक जीवन का मकसद होता है।

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर स्त्री और पुरुष दोनों ही अधूरे होते हैं। दोनों के मिलन से ही अधूरापन भरता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनद पूर्ण हो जाता है। दाम्पत्य की भव्य इमारत जिन आधारों पर टिकी है वे मुख्य रूप से सात हैं। रामायण में राम सीता के दाम्पत्य में ये सात बातें देखने को मिलती हैं।

संयम : यानि समय-यमय पर उठने वाली मानसिक उत्तेजनाओं जैसे- कामवासना, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मोह आदि पर नियंत्रण रखना। राम-सीता ने अपना संपूर्ण दाम्पत्य बहुत ही संयम और प्रेम से जीया। वे कहीं भी मानसिक या शारीरिक रूप से अनियंत्रित नहीं हुए।

संतुष्टि : यानि एक दूसरे के साथ रहते हुए समय और परिस्थिति के अनुसार जो भी सुख-सुविधा प्राप्त हो जाए उसी में संतोष करना। दोनों एक दूसरे से पूर्णत: संतुष्ट थे। कभी राम ने सीता में या सीता ने राम में कोई कमी नहीं देखी।

संतान : दाम्पत्य जीवन में संतान का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। पति-पत्नी के बीच के संबंधों को मधुर और मजबूत बनाने में बच्चों की अहम् भूमिका रहती है। राम और सीता के बीच वनवास को खत्म करने और सीता को पवित्र साबित करने में उनके बच्चों लव और कुश ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

संवेदनशीलता : पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे की भावनाओं का समझना और उनकी कद्र करना। राम और सीता के बीच संवेदनाओं का गहरा रिश्ता था। दोनों बिना कहे-सुने ही एक दूसरे के मन की बात समझ जाते थे।

संकल्प : पति-पत्नी के रूप अपने धर्म संबंध को अच्छी तरह निभाने के लिये अपने कर्तव्य को संकल्पपूर्वक पूरा करना।

सक्षम : सामर्थ्य का होना। दाम्पत्य यानि कि वैवाहिक जीवन को सफलता और खुशहाली से भरा-पूरा बनाने के लिये पति-पत्नी दोनों को शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से मजबूत होना बहुत ही आवश्यक है।

समर्पण : दाम्पत्य यानि वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति पूरा समर्पण और त्याग होना भी आवश्यक है। एक-दूसरे की खातिर अपनी कुछ इच्छाओं और आवश्यकताओं को त्याग देना या समझौता कर लेना दाम्पत्य संबंधों को मधुर बनाए रखने के लिये बड़ा ही जरूरी होता है।

वेदों का सत्य ज्ञान

ऋग्वेद के विवाह सूक्त १०/८५ , अथर्ववेद में १४/१ , ७/३७ एवं ७/३८ सूक्त में पाणिग्रहण अर्थात विवाह विधि, वैवाहिक प्रतिज्ञाएँ, पति पत्नी सम्बन्ध, योग्य संतान का निर्माण, दाम्पत्य जीवन, गृह प्रबंध एवं गृहस्थ धर्म का स्वरुप देखने को मिलता हैं, जो विश्व की किसी अन्य सभ्यता में अन्यंत्र ही मिले. जैसे

अथर्ववेद १४/१/५१- ऐश्वर्यवान और सकल जगातुत्पदक प्रभु ने मुझे तेरा हाथ पकड़ाया हैं. इसलिए आब तू धर्म से मेरी पत्नी हैं और में धर्म से तेरा पति हूँ.

ऋग्वेद १०/८५/४४- पत्नी कैसी हो- पति का अहित चिंतन करने वाली न हो, पति के प्रति कोप्मायी दृष्टि रखने वाली न हो, गृह का कल्याण करने वाली हो, सोम्य भाव से संपन्न, निर्मल अन्तकरण और सदा प्रसन्न चित रहने वाली हो, शुभ गुण-कर्म-स्वभाव तथा सुंदर विद्या से विभूषिता हो, उत्तम वीर संतानों को उत्पन्न करने वाली हो, घर के सभी जनों के लिए सुख देने वाली हों.

अथर्ववेद ७/३८/४- मैं (पत्नी) प्रतिज्ञा कर रही हूँ की तुम्हारे अतिरिक्त मेरा कोई पति नहीं हैं ऐसे ही तुम भी सभा में प्रतिज्ञा कर की तुम केवल मेरे ही हो और अन्य स्त्रियों की कभी चर्चा न करे.

ऋग्वेद १०/८५/२७- हे वधु! तुझे संतति प्राप्त हो और वह तेरा प्रिय हो.सदैव जागरूक रहकर इस घर का संरक्षण करना तेरा कर्तव्य हैं. इस पति के साथ तू शरीर से एक हो. तुम दोनों वृद्ध अवस्था में भी घर में परस्पर मिलकर रहो व प्रेम से व्यवहार करो.

अथर्ववेद ३/३०/१- माता-पिता, संतान, स्त्री पुरुष, भृत्य,मित्र, पड़ोसी और सभी से सहृदय भाव से व्यवहार करो जैसे एक गौ अपने बछड़े से करती हैं.

इस प्रकार वेद में अनेक मंत्र गृहस्थ आश्रम में पति-पत्नी के कर्तव्यों पर प्रकाश डालते हैं.

अर्थात भूमंडल के किसी भी देश में, संसार की किसी भी जाति में, किसी भी धर्म में विवाह का महत्व ऐसा गंभीर एवं ऐसा पवित्र नहीं हैं, जैसे प्राचीन आर्ष ग्रंथों में पाया जाता हैं. वेद में विवाह सामाजिक आश्रम के लिए इतने महान सन्देश को होना किसी जंगली अथवा अशिक्षित जाति का कार्य नहीं हैं जैसा पश्चिमी विद्वानों का मन्ना हैं अपितु संसार के सबसे बुद्धिजीवी और महान जाति का कार्य हैं.

इसलिए वेद के उचित अर्थों को न समझ कर उसके स्थान पर भ्रामक बातों का प्रचार करना अत्यंत दुर्भाग्य पूर्ण कार्य हैं. यम यमी सूक्त अश्लीलता नहीं अपितु मानव को सम्बन्ध आदि में नियंत्रित करने का सन्देश हैं

'विवाह'

'विवाह' शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। इसका पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है जिससे पति-पत्नी के स्थायी संबंध का निर्माण होता है। प्राचीन एवं मध्यकाल के धर्मशास्त्री तथा वर्तमान युग के समाजशास्त्री समाज द्वारा स्वीकार की गई परिवार की स्थापना करनेवाली किसी भी पद्धति को विवाह मानते हैं। मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि  के शब्दों में विवाह एक निश्चित पद्धति से किया जानेवाला, अनेक विधियों से संपन्न होनेवाला तथा कन्या को पत्नी बनानेवाला संस्कार है। रघुनंदन के मतानुसार उस विधि को विवाह कहते हैं जिससे कोई स्त्री (किसी की) पत्नी बनती है।

विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जानेवाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन भी होता है। इस संबंध से पति पत्नी को अनेक प्रकार के अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ एक ओर समाज पति पत्नी को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहाँ दूसरी पति और पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है। संस्कृत में पति का शब्दार्थ है : 'पालन करनेवाला' तथा 'भार्या' का अर्थ है 'भरणपोषण की जाने योग्य नारी'। पति के संतान और बच्चों पर कुछ अधिकार माने जाते हैं। विवाह प्राय: समाज में नवजात प्राणियों की स्थिति का निर्धारण करता है। संपत्ति का उत्तराधिकार अधिकांश समाजों में वैध विवाहों से उत्पन्न संतान को ही दिया जाता है।

विवाह एक धार्मिक संबंध है। प्राचीन यूनान, रोम, भारत आदि सभी सभ्य देशों में विवाह को धार्मिक बंधन एवं कर्तव्य समझा जाता था। वैदिक युग में यज्ञ करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य था, किंतु यज्ञ पत्नी के बिना पूर्ण नहीं हो सकता, अत: विवाह सबके लिए धार्मिक दृष्टि से आवश्यक था। पत्नी शब्द का अर्थ ही यज्ञ में साथ बैठनेवाली स्त्री है। श्री राम का अश्वमेध यज्ञ पत्नी के बिना पूरा नहीं हो सका था, अत: उन्हें सीता की प्रतिमा स्थापित करनी पड़ी। याज्ञवल्क्य (१।८९) ने एक पत्नी के मरने पर यज्ञकार्य चलाने के लिए फौरन दूसरी पत्नी के लाने का आदेश दिया है। पितरों की आत्माओं का उद्धार पुत्रों के पिंडदान और तर्पण से ही होता है, इस धार्मिक विश्वास ने भी विवाह को हिंदू समाज में धार्मिक कर्तव्य बताया है। रोमनों का भी यह विश्वास था कि परलोक के मृत पूर्वजों का सुखी रहना इस बात पर अवलंबित था कि उनका मृतक संस्कार यथाविधि हो तथा उनकी आत्मा की शांति के लिए उन्हें अपने वंशजों की प्रार्थनाएँ, भोज और भेंटें यथासमय मिलती रहें। यहूदियों की धर्मसंहिता के अनुसार विवाह से बचनेवाला व्यक्ति उनके धर्मग्रंथ के आदेशों का उल्लंघन करने के कारण हत्यारे जैसा अपराधी माना जाता था। विवाह का धार्मिक महत्व होने से ही अधिकांश समाजों में विवाह की विधि एक धार्मिक संस्कार मानी जाती रही है

4 comments:

  1. मनुष्यका निश्चय एक होना चाहिए और वह परमात्माकी तरफ ही हो सकता है , क्योंकि वह एक है । संसारमें तो कई तरहकी बातें होती है तो आदमी एक निश्चय नहीं कर सकता । मनुष्य शरीरका केवल एक ही प्रयोजन है, परमात्माकी प्राप्ति करना । यहाँ आक़र भोग और संग्रहमें लग जाते है, भूल करते है । यह प्रारब्धका विषय है । पारमार्थिक उन्नति ही पुरुषार्थकी बात है ।

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  2. एक विवाह हीन प्रेम पाप है तो फिर एक प्रेमहिन दम्प्रत्य कैसे पवित्र हुआ

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