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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Friday, February 22, 2013

बार बार बर मांगऊ हारिशी देहु श्रीरंग, पदसरोज अनपायनी भगती सदा सतसंग |


।।श्रीहरिः।।

ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि
बार बार बर मांगऊ हारिशी देहु श्रीरंग |
पदसरोज अनपायनी भगती सदा सतसंग ||
स्वामी रामसुखदास जी महाराज
नारायण! नारायण! नारायण! नारायण! नारायण!
राम राम राम राम राम रामराम राम राम राम राम

जय राम रमारमणं शमनं । भव ताप भयाकुल पाहि जनं ॥
अवधेश सुरेश रमेश विभो । शरणागत मागत पाहि प्रभो ॥
गुणशील कृपा परमायतनं । प्रणमामि निरंतर श्रीरमणं ॥
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥

अच्युतम केशवम् राम नारायणम्
कृष्ण दामोदरम् वासुदेवम भजे !
श्रीधरम् माधवम् गोपिका वल्लभम्
जानकी नायकम रामचन्द्रम भजे  !!


कर्पूर गौरम करूणावतारम
संसार सारम भुजगेन्द्र हारम
सदा वसंतम हृदयारविंदे
भवम भवानी सहितं नमामि

हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण हरे हरे,

जय राम रमारमणं शमनं । भव ताप भयाकुल पाहि जनं ॥
अवधेश सुरेश रमेश विभो । शरणागत मागत पाहि प्रभो ॥
दशशीस विनाशनवीस भुजा । कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ॥
रजनीचर वृंद पतंग महा । शर पावक तेजिं प्रचंड दहां ॥
महिमंडल मंडन चारुतरं । धृत सायक चाप निषंग वरं ॥
मद मोह महा ममता रजनी । तमपुंज दिवाकर तेज अनी ॥
मनजात किरात निपात करी । मृग लोक कुभोग शरांनिं उरीं ॥
जहि नाथ अनाथ हि पाहि हरे । विषयाटविं पामर भूलभरे ॥
बहु रोग वियोगिं हि लोक हत । भवदंघ्रि निरादर हा फळत ॥
भवसिंधु अगाधहि ते पडती । पद पंकजिं प्रेम न जे करती ॥
अति दीन मलीन हि दुःखिसदा । पदपंकजिं प्रीति न ज्यांस कदा ॥
अवलंब कथा तुमच्या हि जयां । प्रिय संत अनंत सदैव तयां ॥
मद मान न राग न लोभ कदा । सम मानति वैभव ते विपदा ॥
तव सेवक यास्तव होति मुदा । मुनि सांडिति योग दुरास सदा ॥
युत भक्ति निरंतर नेम तनें । पदपंकज सेविति शुद्ध मनें ॥
सम मान अनादर मानुनिया । सब संत सुखी फिरती जगिं या ॥
मुनि मानस पंकज भृंग भजे । रघुवीर महा रणधीर अजे ॥
तव नाम जपामि नमामि हरी । भवरोग महागद मान अरी ॥
गुणशील कृपा परमायतनं । प्रणमामि निरंतर श्रीरमणं ॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्व घनं । महिपाल विलोकय दीनजनं ॥

बार बार बर मांगऊ हारिशी देहु श्रीरंग |
पदसरोज अनपायनी भगती सदा सतसंग ||
बरनी उमापति राम गुन हरषि गए कैलास |
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास||

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