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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Friday, December 27, 2013

‘सत्संगका प्रसाद’ श्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज


हे नाथ ! मेरे नाथ !! मैं आपको भूलूँ नहीं !

श्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज

मन-बुद्धि अपने नहीं

अपने स्वरूपमें स्थित होनेकी बात जहाँ आती है,वहाँ हम उन्हीं मन और बुद्धिसे स्थित होना चाहते हैं, जिनमें संसारके संस्कार पड़े हैं । वे मन और बुद्धि संसारकी तरफ ही दौड़ते हैं । हमारे पास मन और बुद्धि लगानेके अलावा कोई उपाय है नहीं । ऐसी स्थितिमें हम मन-बुद्धिसे कैसे अलग हों?

हम मन-बुद्धिको परमात्मामें लगाते हैं तो वे संसारकी तरफ जाते हैं । इसमें मुख्य बात यह है कि हमारे भीतरमें संसारका महत्त्व जँचा हुआ है । उत्पत्ति-विनाशशीलका जो महत्त्व अन्तःकरणमें बैठा हुआ है, उसको हमने बहुत ज्यादा आदर दे दिया है‒यह बाधा हुई है । इस बाधाको विचारके द्वारा निकाल दो तो यह ‘ज्ञानयोग’ हो जायगा । इससे पिण्ड छुड़ानेके लिये भगवान्‌की शरण लेकर पुकारो तो यह‘भक्तियोग’ हो जायगा । जितनी वस्तु अपने पास है, उसको व्यक्तिगत न मानकर दूसरोंकी सेवामें लगाओ और कर्तव्य-कर्म करो तो अपने लिये न करके केवल दूसरोंके हितके लिये करो तो यह ‘कर्मयोग’ हो जायगा । इन तीनोंमें जो आपको सुगम दीखे, वह शुरू कर दो । वस्तुओंको व्यक्तियोंकी सेवामें लगाओ । समाधि भी सेवामें लगा दो । अपने शरीरको,मनको, बुद्धिको सेवामें लगा दो । केवल दूसरोंको सुख पहुँचाना है और स्वयं बिलकुल अचाह होना है । जड़की कोई भी चाह रखोगे तो बन्धन रहेगा, इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । यह बात खास जँच जानी चाहिये कि संसारकी कोई भी चाह रखोगे तो दुःखसे, बन्धनसे कभी बच नहीं सकते; क्योंकि दूसरोंकी चाहना रखेंगे, दूसरोंसे सुख चाहेंगे तो पराधीन होना ही पड़ेगा और ‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं’ (मानस १ । १०२ । ३) । कुछ भी चाह मत रखो तो दुःख मिट जायगा ।

बुद्धि संसारमें जाती है तो उसको जाने दो । बुद्धि आपकी है कि आप बुद्धिके हो ? स्वयं विचार करो, सुन करके नहीं । आपकी बुद्धि संसारमें जाती है तो आप बुद्धिमें अपनापन मत रखो । बुद्धि तो आपकी वृत्ति है । उसको चाहे जहाँ नहीं लगा सको तो उससे विमुख हो जाओ कि मैं बुद्धिका द्रष्टा हूँ, बुद्धिसे बिलकुल अलग हूँ । स्वयं बुद्धिको जाननेवाला है । बुद्धि एक करण है और परमात्मतत्त्व करण-निरपेक्ष है । पढ़ाईके समय भी मेरी यह खोज रही है कि जीवका कल्याण कैसे हो ? मेरेको जब यह बात मिली कि परमात्मतत्त्व करण-निरपेक्ष है, तब मुझे बड़ा लाभ हुआ,बड़ी प्रसन्नता हुई । आप इस बातपर आरम्भमें ही ध्यान दो तो बड़ा अच्छा रहे ! तत्त्व वृत्तिके कब्जेमें नहीं आयेगा । प्रकृतिकी वृत्ति प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको कैसे पकड़ेगी ? अत: यह विचार आप पक्का कर लो कि तत्त्वकी प्राप्ति करण-निरपेक्ष है, करण-सापेक्ष नहीं है ।

परमात्मा सबके भीतर हैं‒यह बहुत ऊँचे दर्जेकी चीज है । उतना न समझ सको तो इतना समझ लो कि ‘सब परमात्माके हैं ।’ यह सुगमतासे समझमें आ जायगा कि ये जितने प्राणी हैं, सब परमात्माके हैं । परमात्माके हैं तो ऐसे क्यों हो गये ? कि ज्यादा लाड़-प्यार करनेसे बालक बिगड़ जाता है । ये परमात्माके लाड़ले बालक हैं, इसलिये बिगड़ गये । बिगड़नेपर भी हैं तो परमात्माके ही ! अत: उनको परमात्माके समझकर ही उनके साथ यथायोग्य बर्ताव करना है । जैसे हमारा कोई प्यारा-से-प्यारा भाई हो और उसको प्लेग हो जाय तो प्लेगसे परहेज रखते हैं और भाईकी सेवा करते हैं । जिसकी सेवा करते हैं, वह तो प्रिय है, पर रोग अप्रिय है । इसलिये खान-पानमें परहेज रखते हैं । ऐसे ही किसीका स्वभाव बिगड जाय तो यह बीमारी आयी है,विकृति आयी है । उसके साथ व्यवहार करनेमें जो फरक दीखता है, वह केवल ऊपर-ऊपरका है । भीतरमें तो उसके प्रति हितैषिता होनी चाहिये ।

भगवान् सबके सुहद् हैं‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५ । २९) । ऐसे ही सन्तोंके लिये आया है कि वे सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद् होते हैं‒‘सुहृद: सर्वदेहिनाम्’ (श्रीमद्भा॰ ३ । २५ । २१) । सुहृद् होनेका मतलब क्या ? कि दूसरा क्या करता है, कैसे करता है, हमारा कहना मानता है कि नहीं मानता, हमारे अनुकूल है कि प्रतिकूल‒इन बातोंको न देखकर यह भाव रखना कि अपनी तरफसे उसका हित कैसे हो ? उसकी सेवा कैसे हो ? हाँ, सेवा करनेके प्रकार अलग-अलग होते हैं । जैसे, कोई चोर है, डाकू है, उनकी मारपीट करना भी सेवा है । तात्पर्य है कि उनका सुधार हो जाय,उनका हित हो जाय, उनका उद्धार हो जाय । बच्चा जब कहना नहीं मानता तो क्या आप उसको थप्पड़ नहीं लगाते? उस समय क्या आपका उससे वैर होता है ? वास्तवमें आपका अधिक स्नेह होता है, तभी आप उसको थप्पड़ लगाते हैं । भगवान् भी ऐसा ही करते हैं । जैसे, बच्चे खेल रहे हैं और किसी माईका चित्त प्रसन्न हो जाय तो वह स्नेहवश सब बच्चोंको एक-एक लड्‌डू दे देती है । परन्तु वे उद्दण्डता करते हैं तो वह सबको थप्पड़ नहीं लगाती, केवल अपने बालकको ही लगाती है । ऐसे ही भगवान्‌का विधान हमारे प्रतिकूल हो तो वह उनके अधिक स्रेहका, अपनेपनका द्योतक है ।

दूसरेके साथ स्नेह रखते हुए बर्ताव तो यथायोग्य,अपने अधिकारके अनुसार करना चाहिये, पर दोष नहीं देखना चाहिये । किसीके दोष देखनेका हमारा अधिकार नहीं है । जैसे, नाटकमें एक मेघनाद बन गया और एक लक्ष्मण बन गया । दोनों एक ही कम्पनीके हैं । पर नाटकके समय कहते हैं‒अरे, तेरेको मार दूँगा । आ जा मेरे सामने खत्म कर दूँगा । वे शस्त्र-अस्त्र भी चलाते हैं । परन्तु भीतरसे उनमें वैर है क्या ? नाटकके बाद वे एक साथ रहते हैं, खाते-पीते हैं;क्यों ? उनके हृदयमें वैर है ही नहीं ।

‘सत्संगका प्रसाद’

हे नाथ ! मेरे नाथ !! मैं आपको भूलूँ नहीं !

श्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज

Saturday, December 21, 2013

नवधा भक्ति- श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥



नवधा भक्ति
प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन), और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं ।

श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।

कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।

अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।

आत्म निवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।
 रामचरितमानस में नवधा भक्ति

भगवान् श्रीराम जब भक्तिमती शबरीजी के आश्रम में आते हैं तो भावमयी शबरीजी उनका स्वागत करती हैं, उनके श्रीचरणों को पखारती हैं, उन्हें आसन पर बैठाती हैं और उन्हें रसभरे कन्द-मूल-फल लाकर अर्पित करती हैं। प्रभु बार-बार उन फलों के स्वाद की सराहना करते हुए आनन्दपूर्वक उनका आस्वादन करते हैं। इसके पश्चात् भगवान् राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं कि-

नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं।।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।

गुर पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।

मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।

छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा।।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा।।

आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।

नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना।।

नवधा भक्ति : भगवान को पाने के नौ आसान रास्ते


आज की तेज रफ्तार जिंदगी में हर किसी के पास घंटों मंदिर में बैठकर पूजन, हवन या यज्ञ करने का समय नहीं है। न ही कोई रोज तीर्थ दर्शन कर सकता है। फिर भगवान की भक्ति कैसे की जाए? क्या आपको पता है कि भक्ति के नौ तरीके होते हैं, आध्यात्म की भाषा में इसे नवधा भक्ति कहते हैं। इसमें भगवान को याद करने या उपासना करने के नौ तरीके दिए गए हैं, जिससे आप बिना मंदिर जाए, बिना पूजा-पाठ और बिना तीर्थ दर्शन के भी कर सकते हैं।

ये नौ तरीके जिन्हें नवधा भक्ति कहते हैं, इतने आसान है कि इन्हें कहीं भी, कभी भी किया जा सकता है। रामचरितमानस में भी भगवान राम ने भक्ति के ये नौ प्रकार बताए हैं। इनमें से किसी एक को ही अपनाकर हम भगवान के निकट पहुंच सकते हैं। ये नौ ही प्रयास ऐसे हैं जिनमें हमें कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना है। बस केवल अपने व्यवहार में उतारना भर है, इसके बाद भगवान स्वयं ही मिल जाएंगे। जानते हैं भगवान की नौ तरह से भक्ति के नाम और व्यावहारिक अर्थ -

1. संतो का सत्संग - संत यानि सज्जन या सद्गुणी की संगति।

2. ईश्वर के कथा-प्रसंग में प्रेम - देवताओं के चरित्र और आदर्शों का स्मरण और जीवन में उतारना।

3. अहं का त्याग - अभिमान, दंभ न रखना। क्योंकि ऐसा भाव भगवान के स्मरण से दूर ले जाता है। इसलिए गुरु यानि बड़ों या सिखाने वाले व्यक्ति को सम्मान दें।

4. कपट रहित होना - दूसरों से छल न करने या धोखा न देने का भाव।

5. ईश्वर के मंत्र जप - भगवान में गहरी आस्था, जो इरादों को मजबूत बनाए रखती है।

6. इन्द्रियों का निग्रह - स्वभाव, चरित्र और कर्म को साफ रखना।

7. प्रकृति की हर रचना में ईश्वर देखना - दूसरों के प्रति संवेदना और भावना रखना। भेदभाव, ऊंच नीच से परे रहना।

8. संतोष रखना और दोष दर्शन से बचना - जो कुछ आपके पास है उसका सुख उठाएं। अपने अभाव या सुख की लालसा में दूसरों के दोष या बुराई न खोजें। इससे आपवैचारिक दोष आने से सुखी होकर भी दु:खी होते है। जबकि संतोष और सद्भाव से ईश्वर और धर्म में मन लगता है।

9. ईश्वर में विश्वास - भगवान में अटूट विश्वास रख दु:ख हो या सुख हर स्थिति में समान रहना। स्वभाव को सरल रखना यानि किसी के लिए बुरी भावना न रखना। धार्मिक दृष्टि से स्वभाव, विचार और व्यवहार में इस तरह के गुणों को लाने से न केवल ईश्वर की कृपा मिलती है बल्कि सांसारिक सुख-सुविधाओं का भी वास्तविक आनंद मिलता है।


नवधा भक्ति कहऊँ तेहि पाहीं, सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भक्ति संतन्ह कर संगा, दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥

श्री राम शबरी से कहते हैं की मैं तुझसे अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ॥ तू सावधान होकर सुन॥ और मन में धारण कर॥ पहली भक्ति है संतों का सत्संग॥ दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥

गुरु पद पंकज सेवा तीसरी भक्ति अमान,

चौथी भक्ति मम गुन गन करई कपट तजि गान॥

तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा॥ और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़ कर मेरे गुन समूहों का गान करें ॥

मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा, पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा, निरत निरंतर सज्जन धर्मा ॥

मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास-यह पांचवी भक्ति है जो वेदों में प्रसिद्द है॥ छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा सवभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के (आचरण) में लगे रहना॥

सातवं सम मोहि मय जग देखा, मोते संत अधिक करी लेखा॥
आठँव जथा लाभ संतोष, सपनेहूँ नहि देखई परदोषा॥

सातवीं भक्ति है जगत भर को सम भाव से मुझमें ओत-प्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना॥ आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए उसी में संतोष करना॥ और स्वपन में भी पराये दोषों को न देखना॥
नवम सरल सब सन छलहीना, मम भरोस हियं हर्ष न दिना
नव महू एकऊ जिन्ह के होई, नारि पुरूष सचराचर कोई॥

नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपट रहित बर्ताव करना॥ ह्रदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना॥ इन् नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री पुरूष, जड़ चेतन कोई भी हो..॥

सोई अतिसय प्रिय भामिनी मोरें, सकल प्रकार भक्ति दृढ़ तोरें
जोगी ब्रिंद दुर्लभ गति जोई, तो कहूँ आज सुलभ भई सोई॥
हे भामिनी! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है॥ फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है॥ अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है॥ वही आज तेरेलिये सुलभ हो गई॥

इस प्रसंग के शुरू में ही श्री राम ने साफ शब्दों में कहा है कि मैं सिर्फ़ एक भक्ति का ही सम्बन्ध जनता हूँ॥ जाती, पाती, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुंब, गुण और चतुरता-इन सबके होने पर भी भक्ति रहित मनुष्य कैसा लगता है जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई देता है॥

Uma Vinod Kumar Sharma 2013



Saturday, December 14, 2013

अखियों के झरोखों से मैने देखा जो सावरे सीताराघव राधामाधव




सीताराघव राधामाधव
रे मन कृष्ण नाम कहि लीजै
गुरु के बचन अटल करि मानहिं, साधु समागम कीजै
पढिए गुनिए भगति भागवत, और कथा कहि लीजै
कृष्ण नाम बिनु जनम बादिही, बिरथा काहे जीजै
कृष्ण नाम रस बह्यो जात है, तृषावंत है पीजै
सूरदास हरिसरन ताकिए, जन्म सफल करी लीजै

राधाजी श्रीकृष्ण की अन्तरंग शक्ति हैं। श्रीकृष्ण फूल हैं तो राधाजी सुगंध हैं, श्रीकृष्ण मधु हैं तो राधाजी मिठास, श्रीकृष्ण मुख हैं तो राधाजी कांतिऔर सौन्दर्य। राधाजी श्रीकृष्ण का अभिन्न स्वरुप हैं। वह श्रीकृष्ण की आहलादिनी शक्ति हैं। श्रीकृष्ण का आनंदस्वरूप ही राधाजी के रूप में व्यक्त है। राधा ही कृष्ण हैं और कृष्ण ही राधा हैं। भक्ति का आनंद प्राप्त करने के लिए श्रीकृष्ण राधा बने हैं और रूप सौन्दर्य का आनंद प्राप्त करने के लिए राधा कृष्ण बनी हैं।राधाजी सृष्टीमयी, विश्वस्वरूपा, रासेश्वरी, परमेश्वरी और वृन्दावनेश्वरी हैं।

प्रेम से बोलो, राधे राधे ! राधे राधे, श्याम मिला दे !!
एक ही नाम आधार श्री कृष्ण के श्री मुख से निकले बार बार
श्री राधा श्री राधा श्री राधा श्री राधा श्री राधा श्री श्री राधा श्री राधा

श्री हरि नारायण गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे।
श्री सीता राघव गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे।
श्री राधा माधव गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे।
श्री कमला विष्णू गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे।
श्री सिया राम जय गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे।
श्री प्रिया श्याम जय गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे।६।

गोविन्द मेरो है, गोपाल मेरो है, श्री बांके बिहारी नन्दलाल मेरो है ।

श्री कृष्ण:शरणम् मम:

जब मैं था तब हरि‍ नहीं, अब हरि‍ हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।

जय राधा माधव , जय कुंज बिहारी ,
जय गोपी जन वलभ , जय गिरधर हरी ,
यशोदा नन्दन , बृज जन रंजन ,
जमुना तीर बन चारी ,

हरे कृष्ण , हरे कृष्ण ,
कृष्ण कृष्ण , हरे हरे ,
हरे रामा , हरे रामा ,
रामा रामा , हरे हरे

जय राधा माधव , जय कुंज बिहारी ,
जय गोपी जन वलभ , जय गिरधर हरी ,
यशोदा नन्दन , बृज जन रंजन ,
जमुना तीर बन चारी ,

हरे कृष्ण , हरे कृष्ण ,
कृष्ण कृष्ण , हरे हरे ,
हरे रामा , हरे रामा ,
रामा रामा , हरे हरे

कलियुग में श्रीमद्भागवत गीता सुनने मात्र से ही मनुष्यों का कल्याण होता है। क्योंकि, श्रीमदभागवत गीता स्वयं त्रिलोकी नाथ भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण के मुख से निकली है।

भागवत कथा ज्ञान का वह भंडार है, जिसके वाचन और सुनने से वातावरण में शुद्धि तो आती ही है। साथ ही, मन और मस्तिष्क भी स्वच्छ हो जाता है।

भागवत कथा के ज्ञान से आत्मा शुद्ध होती है और बुरे विचार अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं। श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता जगत विख्यात है। विकट परिस्थितियों में एक-दूसरे के काम आना ही मित्र धर्म है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मित्र धर्म को निभाते हुए सुदामा की दरिद्रता को दूर किया।

भागवत कथा से घर और समाज में पवित्रता बनती है, जो सुख व शांति का आधार है। भागवत कथा व गीता के ज्ञान को अपने जीवन में धारण करना चाहिए, ताकि जीवन सफल हो सके।

भागवत का उद्देश्य लौकिक कामनाओं का अंत करना और प्राणी को प्रभु साधना में लगाना है। संत चलते फिरते तीर्थ होते हैं जो संसार के प्राणियों को दिशा देने व उन्हें सद्मार्ग दिखाने आते हैं। भागवत को जीवन में अपनाने व उसके अनुसार स्वयं को ढालने से ही प्राणी अपना कल्याण कर सकता है।


अखियों के झरोखों से मैने देखा जो सावरे
तुम दूर नज़र आये, बड़े दूर नज़र आये
बंद कर के झरोखों को ज़रा बैठी जो सोचने
मन में तुम ही मुसकाये, मन में तुम ही मुसकाये


एक मन था मेरे पास वो अब खोने लगा हैं
पा कर तुझे, हाए मुझे कुछ होने लगा हैं
एक तेरे भरोसे पे सब बैठी हूँ भूल के
यूँ ही उम्र गुजर जाये, तेरे साथ गुजर जाये

जीती हूँ तुम्हे देखके मरती हूँ तुम ही पे
तुम हो जहा, साजन मेरी दुनियाँ हैं वही पे
दिन रात दुवां माँगे मेरा मन तेरे वासते
कही अपनी उम्मीदों का कोई फूल ना मुरझाये

मैं जब से तेरे प्यार के रंगो में रंगी हूँ
जगते हुये सोयी रही, नींदो में जगी हूँ
मेरे प्यार भरे सपने, कही कोई ना छिन ले
मन सोच के घबराये, यही सोच के घबराये


अखियों के झरोखों से मैने देखा जो सावरे
आप दूर नज़र आये, बड़े दूर नज़र आये
बंद कर के झरोखों को ज़रा बैठा जो सोचने
मन में आप ही मुसकाये, मन में आप ही मुसकाये
अखियों के झरोखों से मैने देखा जो सावरे...................

एक मन था मेरे पास वो अब खोने लगा हैं
पा कर तुझे, अब मुझे कुछ होने लगा हैं
एक तेरे भरोसे पे सब बैठा हूँ भूल के
यूँ ही उम्र गुजर जाये, तेरे साथ गुजर जाये
अखियों के झरोखों से मैने देखा जो सावरे...................

जीता हूँ तुम्हे देखके मरता हूँ तुम ही पे
आप हो जहा, सावरे मेरी दुनियाँ हैं वही पे
दिन रात दुवां माँगे मेरा मन तेरे वासते
कही अपनी उम्मीदों का कोई फूल ना मुरझाये
अखियों के झरोखों से मैने देखा जो सावरे...................

मैं जब से तेरे प्यार के रंगो में रंगा हूँ
जगते हुये सोया रहा, नींदो में जगा हूँ
मेरे प्यार भरे सपने, कही कोई ना छिन ले
मन सोच के घबराये, यही सोच के घबराये
अखियों के झरोखों से मैने देखा जो सावरे...................

 


भगवान मेरे अपराध को क्षमा करें आप अपने भक्तों को सदा क्षमा करते हैं।

भगवान मेरे अपराध को क्षमा करें आप अपने भक्तों की सदा रक्षा करते हैं।