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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Friday, August 17, 2012

बगलामूखी स्तुति


वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥


बगलामूखी स्तुति
मध्ये सुधाब्धि – मणि मण्डप – रत्नवेद्यां सिंहासनोपरिगतां परिपीतवर्णाम् ।
पीताम्बराभरण – माल्य – बिभूतिषताङ्गी देवीं स्मरामि धृत-मुद्गर वैरिजिह्वाम् ॥









।। संकट-नाशन-गणेश-स्तोत्रं ।।

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकं ।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यं आयुष कामार्थ सिद्धये । । १ । ।

प्रथमं वक्र-तुंडं च एकदंतं द्वितीयकं ।
तृतीयं कृष्ण-पिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकं । । २ । ।

लम्बोदरं पंचमं च षष्टम विकटमेव च ।
सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्णं तथाष्टमं । । ३। ।

नवमं भालचंद्रं च दशमं तू विनायकं ।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तू गजाननं । । ४ । ।

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं प्रभो । । ५। ।


विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनं ।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिं । । ६ । ।

जपेत् गणपति-स्तोत्रं षट्भिः मासैः फलं लभेत ।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभेत् नात्र संशयः । । ७ । ।

अष्टेभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत् ।
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः । । ८। ।

। । इति श्रीनारदपुराणे संकट-नाशन-गणेश स्तोत्रं । ।

ॐ  सर्व  श्र्वरूपे  सर्वेशे  सर्वशक्ति  समन्विते
हयेभ्यस्त्रहिनो  देवी  दुर्गे  देवी  नमोस्तुते

ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं
उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योमुक्षिय  मामृतात

ॐ भुर्भुवः स्वः तत्सोवितुवरेण्यं ।
भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ॥

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद  मातर्जगतो खिलस्य
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि  चराचरस्य

दश महाविद्या स्तुति
काली स्तुति
रक्ताsब्धिपोतारूणपद्मसंस्थां पाशांकुशेष्वासशराsसिबाणान् । शूलं कपालं दधतीं कराsब्जै रक्तां त्रिनेत्रां प्रणमामि देवीम् ॥
तारा स्तुति
मातर्तीलसरस्वती प्रणमतां सौभाग्य-सम्पत्प्रदे प्रत्यालीढ –पदस्थिते शवह्यदि स्मेराननाम्भारुदे ।
फुल्लेन्दीवरलोचने त्रिनयने कर्त्रो कपालोत्पले खड्गञ्चादधती त्वमेव शरणं त्वामीश्वरीमाश्रये ॥
षोडशी स्तुति
बालव्यक्तविभाकरामितनिभां भव्यप्रदां भारतीम् ईषत्फल्लमुखाम्बुजस्मितकरैराशाभवान्धापहाम् ।
पाशं साभयमङ्कुशं च ‍वरदं संविभ्रतीं भूतिदा ।
भ्राजन्तीं चतुरम्बजाकृतिकरैभक्त्या भजे षोडशीम् ॥
छिन्नमस्ता स्तुति
नाभौ शुद्धसरोजवक्त्रविलसद्बांधुकपुष्पारुणं भास्वद्भास्करमणडलं तदुदरे तद्योनिचक्रं महत् ।
तन्मध्ये विपरीतमैथुनरतप्रद्युम्नसत्कामिनी पृष्ठस्थां तरुणार्ककोटिविलसत्तेज: स्वरुपां भजे ॥
त्रिपुरभैरवी स्तुति
उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां रक्तालिप्तपयोधरां जपपटीं विद्यामभीतिं वरम् ।
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्दे समन्दस्मिताम् ॥
धूमावती स्तुति
प्रातर्यास्यात्कमारी कुसुमकलिकया जापमाला जयन्ती मध्याह्रेप्रौढरूपा विकसितवदना चारुनेत्रा निशायाम् ।
सन्ध्यायां वृद्धरूपा गलितकुचयुगा मुण्डमालां वहन्ती सा देवी देवदेवी त्रिभुवनजननी कालोका पातु युष्मान् ॥
बगलामूखी स्तुति
मध्ये सुधाब्धि – मणि मण्डप – रत्नवेद्यां सिंहासनोपरिगतां परिपीतवर्णाम् ।
पीताम्बराभरण – माल्य – बिभूतिषताङ्गी देवीं स्मरामि धृत-मुद्गर वैरिजिह्वाम् ॥
मातङगी स्तुति
श्यामां शुभ्रांशुभालां त्रिकमलनयनां रत्नसिंहासनस्थां भक्ताभीष्टप्रदात्रीं सुरनिकरकरासेव्यकंजांयुग्माम् ।
निलाम्भोजांशुकान्ति निशिचरनिकारारण्यदावाग्निरूपां पाशं खङ्गं चतुर्भिर्वरकमलकै: खेदकं चाङ्कुशं च ॥
भुवनेश्वरी स्तुति
उद्यद्दिनद्युतिमिन्दुकिरीटां तुंगकुचां नयनवययुक्ताम् ।
स्मेरमुखीं वरदाङ्कुश पाशभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम् ॥
कमला स्तुति
त्रैलोक्यपूजिते देवि कमले विष्णुबल्लभे ।
यथा त्वमचल कृष्णे तथा भव मयि स्थिरा ॥

Bhagavati stotra

श्री  भगवति  देवी   नमो  वरदे ,
जय  पाप  विनासिनि  बहु  फलदे ,
जय  शुम्भ  निशुम्भ  कपलधरे ,
प्रणमामि  देवी  थु  नरर्थि   हरे1

जय  चन्द्र  दिवाकर  नेत्र  धरे ,
जय  पावक  भूषिथ  वक्त्र  वरे ,
जय  भैरव  देहानिलीनापरे ,
जय  अन्धक  दैथ्य  विसेशकरे .2

जय  महिष  विमर्धनि  सूल  करे ,
जय  लोक  समस्थाक  पाप  हरे ,
जय  देवी  पिथ  महा  विष्णुनुथे ,
जय  भास्कर  सकर  सिरोअवनाथे . 3

जय  शङ्मुग  सायुध  इषनुथे ,
जय  सागर  गामिनी  शंभुनुथे ,
जय  दुख  दरिद्र  विनास  करे ,
जय  पुत्र  कलथ्र  विवृधि  करे . 4

जय  नाक  विधर्षाणि  दुख  हरे ,
जय  व्याधि  विनासिनि  मोक्ष  करे ,
जय  वन्चिथ  दायिनि  सिधा  वरे . 5

येत्हद  व्यास  कर्थं  स्तोत्रं  यः  पदेन  नियथ  सुचि ,
गृहे  व  शुध  भावेन  प्रीथ  भगवथि  सदा .

Nava Durga stotra.

शैलपुत्री स्तुति

जगत्पजये जगद्वन्द्ये सर्वशक्तिस्वरूपिणि।

सर्वात्मिकेशि कौमारि जगन्मातर्नमोsस्तु ते॥

ब्रह्मचारिणी स्तुति

त्रिपुरां त्रिर्गुणाधारां मार्गज्ञानस्वरूपिणीम् ।

त्रैलोक्यवन्दितां देवीं त्रिमूर्ति प्रणमाम्यहम् ॥

चन्द्रघण्डा स्तुति

कालिकां तु कलातीतां कल्याणहृदयां शिवाम् ।

कल्याणजननीं नित्यं कल्याणीं प्रणमाम्यहम् ॥

कूष्माण्डा स्तुति

अणिमाहिदगुणौदारां मकराकारचक्षुषम् ।

अनन्तशक्तिभेदां तां कामाक्षीं प्रणमाम्यहम् ॥

स्कन्दमाता स्तुति

चण्डवीरां चण्डमायां चण्डमुण्डप्रभञ्जनीम् ।

तां नमामि च देवेशीं चण्डिकां चण्डविक्रमाम् ॥

कात्यायनी स्तुति

सुखानन्दकरीं शान्तां सर्वदेवैर्नमस्कृताम् ।

सर्वभूतात्मिकां देवीं शाम्भवीं प्रणमाम्यहम् ॥

कालरात्रि स्तुति

चण्डवीरां चण्डमायां रक्तबीज-प्रभञ्जनीम् ।

तां नमामि च देवेशीं कालरात्रीं गुणशालिनीम् ॥

महागौरी स्तुति

सुन्दरीं स्वर्णसर्वाङ्गीं सुखसौभाग्यदायिनिम् ।

सन्तोषजननीं देवीं महागौरी प्रणमाम्यम् ॥

सिद्धिदात्री स्तुति

दुर्गमे दुस्तरे कार्ये भयदुर्गविनाशिनि ।

प्रणमामि सदा भक्तया दुर्गा दुर्गतिनाशिनीम् ॥

Tuesday, August 7, 2012

परम धाम बृह्माण्ड के देशों का संक्षिप्त परिचय और श्री गुरुतत्व सुरत का निज धाम


परम धाम बृह्माण्ड के देशों का संक्षिप्त परिचय और श्री गुरुतत्व 
सुरत का निज धाम 

बृह्माण्ड के देशों का संक्षिप्त परिचय - सहसदल कमल । बंकनाल । त्रिकुटी । सुन्न 0 यानी 10 दशम द्वार । महासुन्न 0 । भंवर गुफ़ा । सत्य लोक । अनामी पद ( गुप्त ) अलख लोक । अगम लोक । अकह लोक । कृम से ये मण्डल आज्ञा चक्र अर्थात 6 छठें चक्र के ऊपर के सत्यराज्य के लोक हैं । इस सत्यराज के 2 विभाग हैं - 1 बृह्माण्ड । और 2 निर्मल चैतन्य देश । बृह्माण्ड के अन्तर्गत - सहसदल कमल । बंकनाल । त्रिकुटी । और सुन्न 0 या 10 दशम द्वार मण्डल आते हैं । इन लोकों में योगमाया या विधा माया का प्रभुत्व रहता है ।
सुन्न 0 या 10 दशम द्वार के बाद भंवर गुफ़ा से अकह लोक तक के लोक निर्मल चैतन्य के देश अथवा दयाल देश कहलाते हैं । इस स्थान को ही सुरत का निज धाम कहते हैं । सदगुरू देव की उपासना, उनकी अनन्य भक्ति को छोडकर यहां पहुंचने का दूसरा कोई उपाय या साधना नहीं है ।

सहसदल कमल - सहसदल कमल को सन्तजन त्रिलोकी नाथ या निरंजन का देश कहते हैं । यहां तक पहुंचे हुए साधक साधना की दृष्टि से ऊंचाई पर पहुंचे हुए साधक होते हैं । इनका सदगुरू में अगाध प्रेम होता है । और जिनको श्री सदगुरू के चरणों की प्यास बराबर बनी रहती है । उनको श्री सदगुरू देव महाराज ऊपर के मण्डलों में पहुंचा देते हैं । श्री सदगुरू महाराज के जो शिष्य़ हैं । वे श्री सदगुरू के नाम भजन और ध्यान के सहारे यहां पहुंचते हैं । श्री सदगुरू भगवान को अपने संग साथ रखने वाले शिष्य को वे कृपालु माया के प्रलोभनों में नहीं फ़ंसने देते हैं ।

त्रिकुटी - श्री सदगुरू महाराज ने अपने शिष्यों को जो परानाम का उपदेश दिया है । वह बहुत बडी अमूल्य निधि है । उस अमूल्य निधि का सदा सदा भजन । सुमिरन । ध्यान हर स्थिति में करते रहना चाहिये । ऐसे शिष्य को सदगुरू देव बंकनाल नामक सूक्ष्म मार्ग में प्रवेश दिलाकर इसके ऊपर के त्रिकुटी नामक देश में पहुंचा देते हैं । इस त्रिकुटी नामक देश का वर्णन करते हुए सन्त दरिया साहब कहते हैं  -

त्रिकुटी माहीं सुख घना । नाहीं दुख का लेस । जन दरिया सुख दुख नहीं । वह कोई अनुभवै देश ।
सन्त महापुरूषों ने अपने वचनों में कहा है कि - त्रिकुटी नामक यह मण्डल बृह्म का देश है । जैसे सहसदल कमल में अमृत बरसता रहता है । ठीक उसी प्रकार त्रिकुटी में भी अमृत बरसता रहता है । यहां पहुंचे हुये साधक की त्रिकुटी का अमृत पान करने व उसमें स्नान करने से आशा व तृष्णा की प्यास शान्त हो जाती है । यह त्रिकुटी नामक महल सम्पूर्ण विधाओं का भण्डार है । मन बुद्धि चित्त और अहंकार की गति त्रिकुटी पहुंचने तक ही रहती है । इसके आगे त्रिकुटी महल है । जहां श्री सदगुरू पूर्ण बृह्म का निवास होता है । जब साधक श्री सदगुरू की दया से बृह्म सरोवर में जाकर स्नान पान करने लग जाता है । तो वह शरीर रहते हुए भी मन, वाणी और शरीर से परे हो जाता है । ये तीनों उसे प्रभावित नहीं कर पाते हैं । जब त्रिकुटी की सन्धि में स्थिरता पूर्वक श्री सदगुरू के नाम का भजन । सुमिरन । ध्यान होने लगता है । तो प्राण इङा पिंगला नाडियों को छोडकर अवश्य ही सुषुम्रा नाङी में प्रवाहित होने लगता है । और तब अपने श्री सदगुरू देव के प्रति श्रद्धा और निष्ठा की अटूट धारा बहने लगती है ।

श्री सदगुरू देव महाराज ने इस प्रकार त्रिकुटी नामक मण्डल का पूर्ण रहस्य बतलाया । जिसे केवल समय के सन्त महापुरूषों की चरण शरण में जाने से ही जाना जा सकता है । केवल वाणी विलास या पुस्तकीय ज्ञान से भक्ति की आध्यात्मिक मंजिलों ( आन्तरिक मंजिलों ) को पार करना असम्भव है । इसी आन्तरिक मार्ग को पार करने के लिये परम सन्त कबीर साहब जी उपदेश देते है  -

त्रिकुटी में गुरूदेव का । करै जो गुरू मुख ध्यान । यम किंकर का भय मिटे । पावे पद निर्वान ।
सुन्न 0 या 10 दशम द्वार - जब शिष्य की सुरत श्री सदगुरू देव महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान के दृढ अभ्यास से इस त्रिकुटी नामक मण्डल में पहुंचती है । तब उसको सत शिष्य का दर्जा प्राप्त हो जाता है । फ़िर वह 10 दशम द्वार में प्रवेश करना चाहता है । इस 10 दशम द्वार में जिस गुरू भक्त की सुरत सदगुरू की कृपा से पहुंच जाती है । वही गुरू भक्त सच्चे अर्थों में सत शिष्य कहलाता है । साधु कहलाता है ।

श्री सदगुरू देव जी महाराज के नाम के भजन । सुमिरन और उनकी सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान की प्रगाढता के भाव दशा में साधक की सुरत त्रिकुटी मण्डल से चलकर जब 10 दशम द्वार में प्रवेश कर श्री सदगुरू देव जी महाराज का श्रद्धा । प्रेम । प्यार के साथ इतना स्पष्ट दर्शन करती है । जितना स्पष्ट स्वच्छ दर्पण में अपना चेहरा दिखलाई देता है । तब साधक की सुरत शून्य मण्डल 0 या 10 दशम द्वार में प्रवेश कर श्री सदगुरू देव महाराज की कृपा प्राप्त कर अपने को धन्य धन्य मानने लग जाती है । इस प्रकार साधक की सुरत को 10 दशम द्वार में पहुंचने से उसमें शुद्ध परमार्थ का उदय हो जाता है । अपने श्री सदगुरू देव महाराज के स्वरूप में स्फ़टिक के समान अत्यन्त उज्ज्वल सफ़ेद प्रकाश विधमान रहता है । सन्त महापुरूषों का कहना है कि शून्य मण्डल 0 या 10 दशम द्वार में अक्षय पुरूष के आसन के नीचे अमृत का 1 कुण्ड है । जिसको मान सरोवर कहते है । उसमें साधक के स्नान । पान । ध्यान करने से उसकी सुरत विशेष निर्मल हो जाती है । इसीलिये यहां पहुंची हुई सुरत की हंस गति हो जाती है ।
महासुन्न 0 - इसके बाद श्री सदगुरू देव जी महाराज अपने ही प्रकाश के द्वारा सुरत को महासुन्न 0 के घोर अन्धकार के मैदान से पार करके ऊपर के मण्डलों में ले जाते हैं । साधक जब श्री सदगुरू देव महाराज का साथ हर वक्त पकडे रहता है । तभी घोर अन्धकार युक्त इस विषम घाटी को पार कर पाता है । अर्थात श्री सदगुरू देव महाराज की चरण धूलि में स्नान करते हुए साधक घोर अन्धकारयुक्त महासुन्न 0 की विषम घाटी को पार करने में समर्थ हो जाता है ।

जिन आत्माओं को श्री सदगुरू देव महाराज भजन । सुमिरन । ध्यान का अभ्यास करवा करवाकर अपने साथ आगे ले जाते हैं । उन आत्माओं से महा शून्य 0 में फ़ंसी हुई आत्मायें प्रार्थना करती है कि अपने श्री सदगुरू देव महाराज के सम्मुख सिफ़ारिश करो कि हमें भी ऊपर ले चलें । यदि उन सन्तों की मौज हो जाती है । तो वे महा शून्य 0 की इन आत्माओं को अपने साथ आगे ले जाते हैं ।

भंवर गुफ़ा - पूरे गुरू की कृपा से जब साधक महाशून्य 0 से आगे की यात्रा करता है । तो सत्यराज्य के भंवर गुफ़ा नामक स्थान में पहुंचता है । जैसे सहसदल कमल नामक मण्डल बृह्माण्ड देश का पहला लोक है । उसी तरह शून्य 0 या 10 दशम द्वार निर्मल चैतन्य

देश अथवा दयाल देश का द्वार है । और भंवर गुफ़ा नामक लोक श्री सदगुरू देव महाराज के दयाल देश नामक निज धाम का पहला लोक है ।
महा शून्य 0 से ऊपर की ओर सूरत या चित शक्ति की 1 गुफ़ा है । जिसे भंवर गुफ़ा कहते हैं । यहां पहुंची हुई निर्मल चैतन्य सुरतें निरन्तर भिन्न भिन्न प्रकार के उत्सव मनाती रहती है । यहां की सुरते हंस कहलाती हैं । अपने श्री सदगुरू रूपी क्षीर सागर में सदा मुरली की मधुर धुन बजती रहती है । इसी मुरली की गूंज के मध्य " सोहं " की झंकार होती रहती है । यह ऐसा ही है । जैसे बूंद समुद्र को देखकर कहे कि मैं तुम्हारा ही अंश हूं । मालिक महासागर है । और जीव बूंद है । इसी तरह आत्मा सत पुरूष को देखकर कहती है कि मै श्री सदगुरू देव जी महाराज का 1 अंश हूं ।

सतलोक - भंवर गुफ़ा के बाद माथे में ऊपर की ओर निर्मल चैतन्य देश का सत लोक नामक मण्डल है । अपने श्री सदगुरू देव महाराज जी के श्री चरणों में निरन्तर रमे हुए दास को श्री सदगुरू देव महाराज भंवर गुफ़ा नामक मण्डल से सत लोक नामक लोक में ले जाते हैं । इस देश के मालिक का नाम सत पुरूष है । सतलोक वह स्थान है । जहां से सम्पूर्ण रचना का प्रकाश होता है । साधक सतलोक में पहुंचकर श्री सदगुरू देव महाराज में लीन रहता है । इस तरह के बूंद यहां पहुंचकर समुद्र में मिलकर समुद्र हो जाती है ।
सन्त कहते हैं कि सतलोक सर्वश्रेष्ट सुन्दरता का लोक है । यहां सभी तरफ़ उच्चकोटि की सुगन्ध फ़ैली हुई है । जो साधक अपने श्री सदगुरू देव के श्री चरणों की कृपा से सतलोक में पहुंचा है । वह 16 सूर्यों के प्रकाश जैसा तेज पुंज और उज्जवल हो जाता है ।

सतलोक में पहुंचकर साधक काल की सीमा से बाहर हो जाता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज का भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । ध्यान करने वाले अभ्यासी सतलोक पहुंचते हैं । सतलोक पहुंचने पर ही जीव को मुक्ति लाभ होता है ।

जब सत लोक राह चढि जाई । तब यह जीव मुक्ति को पाई ।
परन्तु धन्य है । श्री सदगुरू देव जी महाराज का यह कृपालु स्वभाव । जिससे प्रेरित होकर वे उस जीव को अपने पास न रखकर उसे निर्मल चैतन्य देश के सतलोक के ऊपर के मण्डलों पर भेज देते हैं । सतलोक तक पहुंचने में श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा के साथ साथ शिष्य के स्वयं के अभ्यास की भी अपेक्षा रहती है । परन्तु सतलोक तक पहुंच जाने के बाद शिष्य के प्रयास की दौड धूप समाप्त हो जाती है । यहां से ऊपर के मण्डलों में एकमात्र श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा ही अपने शिष्य को अपने प्रताप से आगे भेजती है ।
अनामी लोक - सतलोक के बाद और अलख लोक के बीच में अनामी पद नामक निर्मल चैतन्य देश है । इस स्थान की निर्मल सुरत को अनामी सम्भवत: इसलिये कहा जाता है कि सत्य लोक में अलख पुरूष सत्य नाम के रूप में प्रकाशित हो जाता है । अनामी पद सत्य लोक के स्वामी सत्य नाम का पूर्ण रूप है । जिसे सन्तों ने गुप्त भेद भी कहा है ।
अलख लोक - श्री सदगुरू देव जी महाराज का विज्ञानमय स्वरूप शिष्य की आत्मा को ऊपर के अलख । अगम और अकह लोकों में पहुंचा देता है । यहां के मालिक का नाम अलख पुरूष है । अलख पुरूष के एक एक रोम में अनेकों सूर्य का प्रकाश विराजमान रहता है । अलख लोक के ऊपर अगम लोक नामक महाचैतन्य का लोक है । इसकी महिमा अधिक से अधिक है । इस लोक के मालिक का नाम अगम पुरूष है । अगम पुरूष के एक एक रोम में अनेकों सूर्य का प्रकाश है । महापुरूषों ने बताया है कि यह देश परम सन्तों का देश है ।
अकह लोक - इस अगम लोक के ऊपर जो अकह लोक है । उसका वर्णन करने में सन्त भी मौन हो गये । क्योंकि यहां का प्रकाश और यहां की निर्मलता बेअन्त है । इसका वर्णन किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता है । जैसे गूंगे आदमी को मिठाई खिला दी जाय । और वह उस मिठाई के स्वाद का वर्णन न कर सके । उसी प्रकार इस लोक का वर्णन नहीं किय जा सकता है । क्योंकि यह लोक अवर्णनीय है । इसीलिये इसे अकह लोक कहते है । गुरू की कृपा से जो यहां पहुंचे हैं । वही इसका अनुभव कर पाते हैं । तभी तो सन्त भीखा साहब कहते हैं कि इसकी गति अगम्य है -
भीखा बात अगम्य की । कहन सुनन में नाहिं । जो जाने सो कहे ना । कहे सो जाने नाहिं ।

कहने का तात्पर्य यह है कि जो साधक अपने श्री सदगुरू देव जी महाराज के बताये हुए नाम का भजन । सुमिरन तथा उनकी सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान पूर्ण श्रद्धा के साथ करता जाता है । वह सदा अपनी एक के बाद दूसरी आध्यात्मिक मंजिल पर चढता चला जाता है ।
पल पल सुमिरन जो करे । हिरदय श्रद्धा धार । आधि व्याधि नाशे सकल । चढ जावै धुर धाम ।

साधक यदि नियम पूर्वक प्रतिदिन भजन । सुमिरन । ध्यान । यानी सुरत शब्द योग का अभ्यास करते हैं । तो उनको आन्तरिक आनन्द का अनुभव होने लगता है । और उनका चित्त प्रसन्न रहने लग जाता है । यह श्री सदगुरू देव जी महाराज की प्रत्यक्ष दया और उनकी कृपा है । जो शिष्य को गुरू की भक्ति की दिशा में ले जाती है । गुरू की भक्ति की दिशा में ले जाने का तात्पर्य यह है कि साधक की चेतना के ज्ञानात्मक और क्रियात्मक और भावात्मक पक्ष श्री सदगुरू देव जी महाराज पर श्रद्धा और विश्वास के रंग में ऐसे रंग जाते हैं कि श्री सदगुरू देव महाराज की कृपा से शिष्य का ज्ञान और उसके सम्पूर्ण कर्म गुरू भक्ति के रस से सराबोर हो जाते हैं । इस भक्ति की साधना में परानाम का सुमिरन । और ध्यान अर्थात गुरू स्वरूप का अपने अन्तर्चक्षुओं 3rd eye से दर्शन करना । और उनकी मानसिक सेवा । पूजा करने का प्रधान स्थान है । इसमें अपने श्रद्धा भाव द्वारा ही श्री सदगुरू देव जी महाराज के भाव स्वरूप का भजन ध्यान किया जाता है । इस प्रकार की उपासना से गुरू भक्ति के साधक अपने श्री सदगुरू की कृपा से माथे में भाव राज्य के द्वार को खोलकर अन्दर प्रवेश कर जाते हैं । और श्री सदगुरू देव जी महाराज के असीम दया से निकली हुई चेतना की निर्मल किरणों की सहायता से उनकी महिमा का रसास्वादन करते हुए उनके परम धाम की ओर बढने का सतत प्रयास करते हैं ।

प्रभु को प्राप्त करने के जो अभिलाषी भक्ति की साधना के द्वारा मन को इष्ट के साथ जोड लेते हैं । वही मालिक को प्राप्त कर सकते हैं । सदा सदा ही मालिक के भजन । भक्ति । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में रत रहने वाले प्रभु को प्राप्त करने के अभिलाषी शिष्य में स्वभावत: गुरू के स्वरूप उभर आते हैं ।
सदगुरू की प्राप्ति को ईश्वर का साक्षात अनुग्रह समझना चाहिये । गुरू का दर्शन । उनमें पूर्ण भक्ति भाव । उनकी प्रसन्नता प्राप्ति । और परिणाम स्वरूप अन्त: दर्शन की व्याकुलता । ये सभी ईश्वर के सार्थक अनुग्रह बताये गये हैं । ईश्वर के अनुग्रह कारी स्वरूप को गुरू तत्त्व कहते हैं ।