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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Monday, October 28, 2013

श्रीराधादामोदर (दामोदर मास)



दामोदर मास को कार्तिक मास भी कहा जाता है।
भगवान श्री कृष्ण को वनस्पतियों में तुलसी, पुण्यक्षेत्रों में द्वारिकापुरी, तिथियों में एकादशी और महीनों में कार्तिक विशेष प्रिय है- कृष्णप्रियो हि कार्तिक:, कार्तिक: कृष्णवल्लभ:। इसलिए कार्तिक मास को अत्यंत पवित्र और पुण्यदायक माना गया है।  ग्रंथों के अनुसार,

भविष्य पुराण

भविष्य पुराण की कथा के अनुसार, एक बार कार्तिक महीने में श्रीकृष्ण को राधा से कुंज में मिलने के लिए आने में विलंब हो गया। कहते हैं कि इससे राधा क्रोधित हो गईं। उन्होंने श्रीकृष्ण के पेट को लताओं की रस्सी बनाकर उससे बांध दियां वास्तव में माता यशोदा ने किसी पर्व के कारण कन्हैया को घर से बाहर निकलने नहीं दिया था। जब राधा को वस्तुस्थिति का बोध हुआ, तो वे लज्जित हो गईं। उन्होंने तत्काल क्षमा याचना की और दामोदर श्रीकृष्ण को बंधनमुक्त कर दिया। इसलिए कार्तिक माह 'श्रीराधा-दामोदर मास' भी कहलाता है।

पद्म पुराण

पद्म पुराण में उल्लेख है कि पूर्व जन्म में आजीवन एकादशी और कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करने से ही सत्यभामा को कृष्ण की अर्द्धांगिनी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। व्रत और तप की दृष्टि से कार्तिक मास को परम कल्याणकारी, श्रेष्ठ और दुर्लभ कहा गया है-

स्कंदपुराण

स्कंद पुराण के अनुसार, कार्तिक के माहात्म्य के बारे में नारायण ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु को अवगत कराया था। पद्मपुराण के अनुसार, रात्रि में भगवान विष्णु के समीप जागरण, प्रात: काल स्नान करने, तुलसी की सेवा, उद्यापन और दीपदान ये सभी कार्तिक मास के पांच नियम हैं। इस मास के दौरान विधिपूर्वक स्नान-पूजन, भगवद्कथा श्रवण और संकीर्तन किया जाता है। इस समय वारुण स्नान, यानी जलाशय में स्नान का विशेष महत्व है। तीर्थ-स्नान का भी असीम महत्व है। भक्तगण ब्रज में इस माह के दौरान श्रीराधाकुंड में स्नान और परिक्रमा करते हैं। 'नमो रमस्ते तुलसि पापं हर हरिप्रिये' मंत्रोच्चार कर तुलसी की पूजा की जाती है। माना जाता है कि दामोदर मास में राधा के विधिपूर्वक पूजन से भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं, क्योंकि राधा को प्रसन्न करने के सभी उपक्रम भगवान दामोदर को अत्यंत प्रिय हैं।

श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय

श्री - निधि | कृष्ण - आकर्षण तत्व | गोविन्द - इन्द्रियों को वशीभुत करना गो-इन्द्रि, विन्द बन्द करना, वशीभूत | हरे – दुःखों का हरण करने वाले | मुरारे – समस्त बुराईयाँ- मुर (दैत्य) | हे नाथ – मैं सेवक आप स्वामी | नारायण – मैं जीव आप ईश्‍वर | वासु – प्राण | देवाय – रक्षक

“हे आकर्षक तत्व मेरे प्रभो, इन्द्रियों को वशीभूत करो, दुःखों का हरण करो, समस्त बुराईयों का बध करो, मैं सेवक हूँ आप स्वामी, मैं जीव हूं आप ब्रह्म, प्रभो ! मेरे प्राणों के आप रक्षक हैं ।”

                    ||श्री गोपाल दोमोदर स्त्रोतम् ||

करार विन्दे न पदार्विन्दं ,मुखार्विन्दे विनिवेशयन्तम
वटस्य पत्रस्य पुटेश्यानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि || (१)
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव
जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (2)
विक्रेतु-कामा किल गोप-कन्या, मुरारि-पादार्पित-चित्त-वृत्तिः
दध्यादिकं मोहवशात् अवोचत्, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (३)
गृहे गृहे गोप-वधू-कदम्बाः, सर्वे मिलित्वा समवाय-योगे
पुण्यानि नामानि पठन्ति नित्यं, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (४)
सुखं शयाना निलये निजेऽपि, नामानि विष्णोः प्रवदन्ति मर्त्याः
ते निश्चितं तन्मयतां व्रजन्ति, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (5)
जिह्वे सदैव भज सुन्दराणि, नामानि कृष्णस्य मनोहराणि
समस्त-भक्तार्ति-विनाशनानि, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (6)
सुखावसाने तु इदमेव सारं, दुःखावसाने तु इदमेव गेयम्
देहावसाने तु इदमेव जाप्यं, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (7)
जिह्वे रसज्ञे मधुर-प्रियात्वं, सत्यं हितं त्वां परमं वदामि
आवर्णयेता मधुराक्षराणि, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (8)
त्वामेव याचे मम देहि जिह्वे, समागते दण्ड-धरे कृतान्ते
वक्तव्यमेवं मधुरं सुभक्त्या, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (9)
श्री कृष्ण राधावर गोकुलेश, गोपाल गोवर्धन-नाथ विष्णो
जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (10)

                               || श्री गोविन्द-दामोदर-स्तोत्रं संपूर्णम् ।।




कृष्ण भक्ति काव्यधारा की प्रमुख विशेषतायें

भारतीय धर्म और संस्कृति के इतिहास में कृष्ण सदैव एक अद्भुत व विलक्षण व्यक्तित्व माने जाते रहें है| हमारी प्राचीन ग्रंथों में यत्र – तत्र कृष्ण का उल्लेख मिलता है जिससे उनके जीवन के विभिन्न रूपों का पता चलता है|
यदि वैदिक व संस्कृत साहित्य के आधार पर देखा जाए तो कृष्ण के तीन रूप सामने आते है -
१. बाल व किशोर रूप, २. क्षत्रिय नरेश, ३. ऋषि व धर्मोपदेशक |
श्रीकृष्ण विभिन्न रूपों में लौकिक और अलौकिक लीलाएं दिखाने वाले अवतारी पुरूष हैं | गीता, महाभारत व विविध पुराणों में उन्ही के इन विविध रूपों के दर्शन होतें हैं |
कृष्ण महाभारत काल में ही अपने समाज में पूजनीय माने जाते थे | वे समय समय पर सलाह देकर धर्म और राजनीति का समान रूप से संचालन करते थे | लोगों में उनके प्रति श्रद्या और आस्था का भाव था | कृष्ण भक्ति काव्य धारा के कवियों ने अपनी कविताओं में राधा – कृष्णा की लीलाओं को प्रमुख विषय बनाकर वॄहद काव्य सॄजन किया। इस काव्यधारा की प्रमुख विशेशतायें इस प्रकार है–

१. राम और कृष्ण की उपासना

समाज में अवतारवाद की भावना के फलस्वरूप राम और कृष्ण दोनों के ही रूपों का पूजन किया गया |
दोनों के ही पूर्ण ब्रह्म का प्रतीक मानकर, आदर्श मानव के रूप में प्रस्तुत किया गया |
किंतु जहाँ राम मर्यादा पुरषोत्तम के रूप में सामने आते हैं, बही कृष्ण एक सामान्य परिवार में जन्म लेकर सामंती अत्याचारों का विरोध करते हैं | वे जीवन में अधिकार और कर्तव्य के सुंदर मेल का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं |  वे जिस तन्मयता से गोपियों के साथ रास रचाते हैं , उसी तत्परता से राजनीति का संचालन करते हैं या फ़िर महाभारत के युद्ध भूमि में गीता उपदेश देते हैं | इस प्रकार से राम व कृष्ण ने अपनी अपनी चारित्रिक विशेषताओं द्वारा भक्तों के मानस को आंदोलित किया |

२. राधा-कृष्ण की लीलाएं

कृष्णा – भक्ति काव्य धारा के कवियों ने अपनी कविताओं में राधा – कृष्णा की लीलाओं को प्रमुख विषय बनाया | श्रीमदभागवत में कृष्ण के लोकरंजक रूप को प्रस्तुत किया गया था | भागवत के कृष्ण स्वंय गोपियों से निर्लिप्त रहते हैं | गोपियाँ बार – बार प्रार्थना करती है , तभी वे प्रकट होतें हैं जबकि हिन्दी कवियों के कान्हा एक रसिक छैला बनकर गोपियों का दिल जीत लेते है |

सूरदास जी ने राधा – कृष्ण के अनेक प्रसंगों का चित्रण ककर उन्हें एक सजीव व्यक्तित्व प्रदान किया है |
हिन्दी कवियों ने कृष्ण ले चरित्र को नाना रूप रंग प्रदान किये हैं , जो काफी लीलामयी व मधुर जान पड़ते हैं |

३. वात्सल्य रस का चित्रण

पुष्टिमार्ग प्रारंभ हुया तो बाल कृष्ण की उपासना का ही चलन था | अत : कवियों ने कृष्ण के बाल रूप को पहले पहले चित्रित किया |
यदि वात्सल्य रस का नाम लें तो सबसे पहले सूरदास का नाम आता है, जिन्हें आप इस विषय का विशेषज्ञ कह सकते हैं | उन्होंने कान्हा के बचपन की सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियाँ भी ऐसी चित्रित की है, मानो वे स्वयं वहाँ उपस्थित हों |

मैया कबहूँ बढेगी चोटि ?
किनी बार मोहिं ढूध पियत भई , यह अजहूँ है छोटी |


सूर का वात्सल्य केवल वर्णन मात्र नहीं है | जिन जिन स्थानों पर वात्सल्य भाव प्रकट हो सकता था , उन सब घटनाओं को आधार बनाकर काव्य रचना की गयी है | माँ यशोदा अपने शिशु को पालने में सुला रही हैं और निंदिया से विनती करती है की वह जल्दी से उनके लाल की अंखियों में आ जाए |

जसोदा हरी पालनै झुलावै |
हलरावै दुलराय मल्हरावै जोई सोई कछु गावै |
मेरे लाल कौ आउ निंदरिया, काहै मात्र आनि सुलावै |
तू काहे न बेगहि आवे, तो का कान्ह बुलावें |


कृष्णा का शैशव रूप घटने लगता है तो माँ की अभिलाषाएं भी बढ़ने लगती हैं | उसे लगता है की कब उसका शिशु उसका शिशु उसका आँचल पकड़कर डोलेगा | कब, उसे माँ और अपने पिता को पिता कहके पुकारेगा , वह लिखते है –

जसुमति मन अभिलाष करै,
कब मेरो लाल घुतरुवनी रेंगै, कब घरनी पग द्वैक भरे,
कब वन्दहिं बाबा बोलौ, कब जननी काही मोहि ररै ,
रब घौं तनक-तनक कछु खैहे, अपने कर सों मुखहिं भरे
कब हसि बात कहेगौ मौ सौं, जा छवि तै दुख दूरि हरै|


सूरदास ने वात्सल्य में संयोग पक्ष के साथ – साथ वियोग का भी सुंदर वर्णन किया है | जब कंस का बुलावा लेकर अक्रूर आते हैं तो कृष्ण व बलराम को मथुरा जाना पङता है | इस अवसर पर सूरदास ने वियोग का मर्म्स्पर्सी
चित्र प्रस्तुत किया है | यशोदा बार बार विनती करती हैं कि कोई उनके गोपाल को जाने से रोक ले |

जसोदा बार बार यों भारवै
है ब्रज में हितू हमारौ, चलत गोपालहिं राखै


जब उधौ कान्हा का संदेश लेकर आते हैं, तो माँ यशोदा का हृदय अपने पुत्र के वियोग में रो देता है, वह देवकी को संदेश भिजवाती हैं |

संदेस देवकी सों कहियो।
हों तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो||
उबटन तेल तातो जल देखत ही भजि जाने
जोई-चोर मांगत सोइ-सोइ देती करम-करम कर न्हाते |
तुम तो टेक जानतिही धै है ताऊ मोहि कहि आवै |
प्रात: उठत मेरे लाड लडैतहि माखन रोटी भावै |


४. श्रृंगार का वर्णन

कृष्ण भक्त कवियों ने कृष्ण व गोपियों के प्रेम वर्णन के रूप में पूरी स्वछंदता से श्रृंगार रस का वर्णन किया है | कृष्ण व गोपियों का प्रेम धीरे – धीरे विकसित होता है | कृष्ण , राधा व गोपियों के बीच अक्सर छेड़छाड़ चलती रहती है –

तुम पै कौन दुहावै गैया
इत चितवन उन धार चलावत, यहै सिखायो मैया |
सूर कहा ए हमको जातै छाछहि बेचनहारि |


कवि विद्यापति ने कृष्ण के भक्त-वत्सल रूप को छोड़ कर शृंगारिक नायक वाला रूप ही चित्रित किया है |
विद्यापति की राधा भी एक प्रवीण नायिका की तरह कहीं मुग्धा बनाती है , तो कभी कहीं अभिसारिका | विद्यापति के राधा – कृष्ण यौवनावस्था में ही मिलते है और उनमे प्यार पनपने लगता है |
प्रेमी नायक , प्रेमिका को पहली बार देखता है तो रमनी की रूप पर मुग्ध हो जाता है |

सजनी भलकाए पेखन न मेल
मेघ-माल सयं तड़ित लता जनि
हिरदय सेक्ष दई गेल |


हे सखी ! मैं तो अच्छी तरह उस सुन्दरी को देख नही सका क्योंकि जिस प्रकार बादलों की पंक्ति में एका एअक
बिजली चमक कर चिप जाती है उसी प्रकार प्रिया के सुंदर शरीर की चमक मेरे ह्रदय में भाले की तरह उतर गयीऔर मै उसकी पीडा झेल रहा हूँ |  विद्यापति की राधा अभिसार के लिए निकलती है तो सौंप पाँव में लिप्त जाता है | वह इसमे भी अपना भला मानती है , कम से कम पाँव में पड़े नूपुरों की आवाज़ तो बंद हो गयी |  इसी प्राकार विद्यापति वियोग में भी वर्णन करते हैं | कृष्ण के विरह में राधा की आकुलता , विवशता , दैन्य व निराशा आदि का मार्मिक चित्रण हुया है |

सजनी, के कहक आओव मधाई |
विरह-पयोचि पार किए पाऊव, मझुम नहिं पति आई |
एखत तखन करि दिवस गमाओल, दिवस दिवस करि मासा |
मास-मास करि बरस गमाओल, छोड़ लूँ जीवन आसा |
बरस-बरस कर समय गमाओल, खोल लूं कानुक आसे |
हिमकर-किरन नलिनी जदि जारन, कि कर्ण माधव मासे |


इस प्रकार कृष्ण भक्त कवियों ने प्रेम की सभी अवस्थाओं व भाव-दशाओं का सफलतापूर्वक चित्रण किया है |

५. भक्ति भावना

यदि भक्त – भावना के विषय में बात करें तो कृष्ण भक्त कवियों में सूरदास , कुंमंदास व मीरा का नाम उल्लेखनीय है |
सूरदासजी ने वल्लभाचार्य जी से दीक्षा ग्रहण कर लेने के पूर्व प्रथम रूप में भक्ति – भावना की व्यंजना की है |
नाथ जू अब कै मोहि उबारो
पतित में विख्यात पतित हौं पावन नाम विहारो||

सूर के भक्ति काव्य में अलौकिकता और लौकितता , रागात्मकता और बौद्धिकता , माधुर्य और वात्सल्य सब मिलकर एकाकार हो गए हैं |
भगवान् कृष्ण के अनन्य भक्ति होने के नाते उनके मन से से सच्चे भाव निकलते हैं | उन्होंने ही भ्रमरनी परम्परा को नए रूप में प्रस्तुत किया | भक्त – शोरोमणि सूर ने इसमे सगुणोपासना का चित्रण , ह्रदय की अनुभूति के आधार पर किया है | अंत में गोपियों अपनी आस्था के बल पर निर्गुण की उपासना का खंडन कर देती हैं |

उधौ मन नाहिं भए दस-बीस
एक हुतो सो गयो श्याम संग
को आराधै ईश |


मीराबाई कृष्ण को अपने प्रेमी ही नही , अपितु पति के रूप में भी स्मरण करती है | वे मानती
है कि वे जन्म – जन्म से ही कृष्ण की प्रेयसी व पत्नी रही हैं | वे प्रिय के प्रति आत्म – निवेदन व उपालंभ के रूप
में प्रणय – वेदना की अभिव्यक्ति करती है |

देखो सईयां हरि मन काठ कियो
आवन कह गयो अजहूं न आयो, करि करि गयो
खान-पान सुध-बुध सब बिसरी कैसे करि मैं जियो
वचन तुम्हार तुमहीं बिसरै, मन मेरों हर लियो
मीरां कहे प्रभु गिरधर नागर, तुम बिन फारत हियो |


भक्ति काव्य के क्षेत्र में मीरा सगुण – निर्गुण श्रद्धा व प्रेम , भक्ति व रहस्यवाद के अन्तर को भरते हुए , माधुर्य
भाव को अपनाती है | उन्हें तो अपने सांवरियां का ध्यान कराने में , उनको ह्रदय की रागिनी सुनाने व उनके सम्मुख नृत्य करने में ही आनंद आता है |

आली रे मेरे नैणां बाण पड़ीं |
चित चढ़ी मेरे माधुरी मुरल उर बिच आन अड़ी |
कब की ठाढ़ी पंछ निहारूं अपने भवन खड़ी |


६. ब्रज भाषा व अन्य भाषाओं का प्रयोग

अनेक कवियों ने निःसंकोच कृष्ण की जन्मभूमि में प्रचलित ब्रज भाषा को ही अपने काव्य में प्रयुक्त किया। सूरदास व नंददास जैसे कवियों ने भाषा के रूप को इतना निखार दिया कि कुछ समय बाद यह समस्त उत्तरी भारत की साहित्यिक भाषा बन गई।
यद्यपि ब्रज भाषा के अतिरिक्त कवियों ने अपनी-अपनी मातृ भाषाओं में कृष्ण काव्य की रचना की। विद्यापति ने मैथिली भाषा में अनेक भाव प्रकट किए।

सप्ति हे कतहु न देखि मधाई
कांप शरीर धीन नहि मानस, अवधि निअर मेल आई
माधव मास तिथि भयो माधव अवधि कहए पिआ गेल।


मीरा ने राजस्थानी भाषा में अपने भाव प्रकट किए।

रमैया बिन नींद न आवै
नींद न आवै विरह सतावै, प्रेम की आंच हुलावै।


प्रमुख कवि
महाकवि सूरदास को कृष्ण भक्त कवियों में सबसे ऊँचा स्थान दिया जाता है। इनके द्वारा रचित ग्रंथों में “सूर-सागर”, “साहित्य-लहरी” व “सूर-सारावली” उल्लेखनीय है। कवि कुंभनदास अष्टछाप कवियों में सबसे बड़े थे, इनके सौ के करीब पद संग्रहित हैं, जिनमें इनकी भक्ति भावना का स्पष्ट परिचय मिलता है।

संतन को कहा सींकरी सो काम।
कुंभनदास लाल गिरधर बिनु और सवै वे काम।


इसके अतिरिक्त परमानंद दास, कृष्णदास गोविंद स्वामी, छीतस्वामी व चतुर्भुज दास आदि भी अष्टछाप कवियों में आते हैं किंतु कवित्व की दृष्टि से सूरदास सबसे ऊपर हैं।
राधावल्लभ संप्रादय के कवियों में “हित-चौरासी” बहुत प्रसिद है, जिसे श्री हित हरिवंश जी ने लिखा है। हिंदी के कृष्ण भक्त कवियों में मीरा के अलावा बेलिकिशन रुक्मिनी के रचयिता पृथ्वीराज राठौर का नाम भी उल्लेखनीय है।

कृष्ण भक्ति धारा के कवियों ने अपने काव्य में भावात्मकता को ही प्रधानता दी। संगीत के माधुर्य से मानो उनका काव्य और निखर आया। इनके काव्य का भाव व कला पक्ष दोनों ही प्रौढ़ थे व तत्कालीन जन ने उनका भरपूर रसास्वादन किया। कृष्ण भक्ति साहित्य ने सैकड़ो वर्षो तक भक्तजनो का हॄदय मुग्ध किया । हिन्दी साहित्य के इतिहास मे कृष्ण की लीलाओ के गान, कृष्ण के प्रति सख्य भावना आदि की दॄष्टि से ही कृष्ण काव्य का महत्व नही है, वरन आगे चलकर राधा कृष्ण को लेकर नायक नायिका भेद , नख शिख वर्णन आदि की जो परम्परा रीतिकाल में चली , उस के बीज इसी काव्य मे सन्निहित है।रीतिकालीन काव्य मे ब्रजभाषा को जो अंलकॄत और कलात्मक रूप मिला , वह कृष्ण काव्य के कवियों द्वारा भाषा को प्रौढ़ता प्रदान करने के कारण ही संभव हो सका।
    श्रीराधादामोदर श्रीराधादामोदर श्रीराधादामोदर
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मधुराष्टकं



मधुराष्टकं
अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरम्
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥१॥

अर्थ - आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी ऑंखें मधुर हैं, आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपकी चाल मधुर है, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है.
वचनं मधुरं चरितं मधुरं, वसनं मधुरं वलितं मधुरम्
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥२॥

अर्थ- आपका बोलना मधुर है, आपका चरित्र मधुर है, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपके वलय मधुर हैं, आपका चलना मधुर है, आपका घूमना मधुर है, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है.
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः, पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुर, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥३॥

अर्थ- आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाये हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं , आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है.
गीतं मधुरं पीतं मधुरं, भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम्
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥४॥

अर्थ- आपके गीत मधुर हैं, आपका पीताम्बर मधुर है, आपका खाना मधुर है, आपका सोना मधुर है, आपका रूप मधुर है, आपका टीका मधुर है, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है.
करणं मधुरं तरणं मधुरं, हरणं मधुरं रमणं मधुरम्
वमितं मधुरं शमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥५॥

अर्थ- आपके कार्य मधुर हैं, आपका तैरना मधुर है, आपका चोरी करना मधुर है, आपका प्यार करना मधुर है, आपके शब्द मधुर हैं, आपका शांत रहना मधुर है, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है.
गुंजा मधुरा माला मधुरा, यमुना मधुरा वीची मधुरा
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥६॥

अर्थ- आपकी घुंघची मधुर है, आपकी माला मधुर है, आपकी यमुना मधुर है, उसकी लहरें मधुर हैं, उसका पानी मधुर है, उसके कमल मधुर हैं, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है.
गोपी मधुरा लीला मधुरा, युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम्
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥७॥

अर्थ- आपकी गोपियाँ मधुर हैं, आपकी लीला मधुर है, आप उनके साथ मधुर हैं, आप उनके बिना मधुर हैं, आपका देखना मधुर है, आपकी शिष्टता मधुर है, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है.
गोपा मधुरा गावो मधुरा, यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा
दलितं मधुरं फलितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥८॥

अर्थ- आपके गोप मधुर हैं, आपकी गायें मधुर हैं, आपकी छड़ी मधुर है, आपकी सृष्टि मधुर है, आपका विनाश करना मधुर है आपका वर देना मधुर है, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है.
जय जय श्री राधे

श्रीकृष्णाश्रय



श्रीकृष्णाश्रय
सर्वमार्गेषु नष्टेषु कलौ च खल धर्मिणि
पाष्ण्डप्रचुरेलोके कृष्ण एव गतिर्मम ॥१॥
अर्थ- हे प्रभु ! कलियुग में धर्म के सभी रास्ते बंद हो गए है और दुष्ट लोग धर्माधिकारी बन गए है संसार में पाखंड व्याप्त इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हो.

म्लेच्छाक्रान्तेषुदेशेषु पापैकनिलयेषुचः
सत्पीडा व्यग्रलोकेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥२ ॥

अर्थ - हे प्रभु ! देश में दुष्ट लोगो का भय व्याप्त है और सभी लोग पाप कर्मो में लिप्त है संसार में संत लोग अत्यंत पीड़ित है इसलिए केवल आप इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हो.

गंगादितीर्थ वर्येषु दुष्टैरेवा वृतेस्विह
तिरोहिताधिदेवेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥३॥

अर्थ- हे प्रभु ! गंगा आदि प्रमुख नदियों पर स्थित तीर्थो का भी दुष्ट प्रवृति के लोगो ने अतिक्रमण कर लिया है और सभी देवस्थान लुप्त होते जा रहे है इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हो.

अहंकार विमुढेषु सत्सु पापानुवर्तिषु
लाभपूजार्थयत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥४॥

अर्थ- हे प्रभु ! अहंकार से ग्रसित होकर संतजन भी पाप कर्म का अनुसरण कर रहे है और लोभ के वश में होकर ही ईश्वर की पूजा करते है इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हो.

अपरिज्ञाननष्टेषु मन्त्रेष्वव्रतयोगिषु
तिरूहितार्थवेदेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥५॥
अर्थ- हे प्रभु ! वास्तविक ज्ञान लुप्त हो गया है योग में स्थित व्यक्ति भी वैदिक मंत्रो का ठीक प्रकार से उच्चारण नहीं करते है और व्रत नियमों का उचित प्रकार से पालन भी नहीं करते है वेदों का सही अर्थ लुप्त होता जा रहा है, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हो .

नानावाद विनष्टेषु सर्वकर्मव्रतादिषु
पाषण्डेकप्रयत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥६॥

अर्थ- हे प्रभु ! अनेको प्रकार की विधियों के कारण सभी प्रकार के व्रत आदि उचित कर्म नष्ट हो रहे है पाखंड ता पूर्वक कर्मो का ही आचरण किया जा रहा है इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हो.
अजामिलादिदोषाणां नाशको नुभवे स्थितः
ज्ञापिताखिल माहात्म्यः कृष्ण एव गतिर्मम ॥७॥

अर्थ- हे प्रभु ! आपका नाम अजामिल आदि जैसे दुष्ट व्यक्तियो के दोषों का नाश करने वाला है ऐसा अनुभवी संतो द्वारा गाया गया है अब मै आपके सम्पूर्ण महात्म्य को जान गया हूँ ,इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हो.
प्राकृताः सकल देवा गणितानन्दकं बृहत
पूर्णानन्दो हरिस्तस्मातकृष्ण एव गतिर्मम ॥८॥

अर्थ- हे प्रभु ! समस्त देवतागण भी प्रकृति के अधीन है इस विराट जगत का सुख भी सीमित ही है केवल आप ही समस्त कष्टों को हरने वाले है और पूर्ण आनंद प्रदान करने वाले हो इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हो.

विवेक धैर्य भक्त्यादि रहितस्य विशेषतः
पापासक्तस्य दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम ॥९॥

अर्थ- हे प्रभु ! मुझमे सत्य को जानने कीसामर्थ्य नहीं है धैर्य धारण करने की शक्ति नहीं है आप की भक्ति आदि से रहित हूँ और विशेष रूप से पाप में आसक्त मन वाले मुझ दीनहीन के लिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हो.

सर्व सामर्थ्यसहितः सर्वत्रैवाखिलार्हकृत
शरणस्थ्समुद्धारं कृष्णं विज्ञापयाम्यहम ॥१०॥

अर्थ- हे प्रभु ! आप ही सभी प्रकार से सामर्थ्यवान हो आप ही सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हो और आप ही शरण में आये हुए जीवो का उद्धार करने वाले है इसलिए मै भगान श्रीकृष्ण की वंदना करता हूँ.

कृष्णाश्रयमिदं स्तोत्रं यः पठेत कृष्ण्सन्निधौ
तस्याश्रयो भवेत कृष्ण इति श्री वल्लभोब्रवीत ॥११॥

अर्थ भगवान श्रीकृष्ण के आश्रय में रहकर और उनकी मूर्ति के सामने जो इस स्त्रोत का पाठ करता है उसके आश्रय श्रीकृष्ण हो जाते है ऐसा श्री वल्लभाचार्य जी के द्वारा कहा गया है.

नारायण कवच




नारायण कवच
श्री विष्णवे नमः (तीन बार)

नमो नारायणाय (तीन बार)

नमो भगवते वासुदेवाय (तीन बार)



आत्मानं परमं ध्यायेद् ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।

विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रामुदाहरेत्।।1।।

हरिर्विघ्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपाः पतगेन्द्रपृष्ठे।

दरारिचर्मासिगदेषुचाप-पाशान् दधानोऽष्ट गुणोऽष्टबाहुः।।2।।

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोर्गणेभ्यो वरुणस्य पाशात्।

स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः।।3।।

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः।

विमुच्×ातो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुन्र्यपतंच गर्भाः।।4।।

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।

रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोऽव्याद् भरताग्रजोऽस्मान्।।5।।

मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरच सात्।

दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ।।6।।

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।

देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात्।।7।।

धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।

यज्ञच लोकापवादाज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ।।8।।

द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात्।

कल्किः कलेः कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरुकृतावतारः ।।9।।

मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसग्वमात्तवेणुः।

नारायणः प्रान उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुरीन्द्रपाणिः।।10।।

देवोऽपराने मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।

दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रो निशीथ एकोऽवतु पानाभः।।11।।

श्रीवत्सधामापररात्रा ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।

दामोदरोऽव्यादनुसंध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः।।12।।

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम्।

दंदग्धि दंदग्ध्यरिसैन्यमाशु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ।।13।।

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिग्े निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि।

कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षोभूतग्रहांचट्टर्णय चूर्णयारीन्।।14।।

त्वं यातुधान प्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।

दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ।।15।।

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि।

चक्षूंषि चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम्।।16।।

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।

सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा।।17।।

सर्वाण्येतानि भगन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।

प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः।।18।।

गरुडो भगवान् स्तोत्रास्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।

रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः।।19।।

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।

बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः।।20।।

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत्।

सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः।।21।।

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।

भूषणायुधलिगख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया।।22।।

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।

पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्रा सर्वगः।।23।।

विदिक्षु दिक्षूध्र्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।

प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः।।24।।


1. - मनुष्य समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान्का ध्यान करें और अपने को भी तद्रूप ही चिन्तन करे। तत्पचात् विद्या, तेज और तपःस्वरूप इस कवच का पाठ करे।।1।।


भगवान् श्रीहरि गरुड़जी की पीठ पर अपने चरण-कमल रक्खे हुए हैं। अणिमादि आठों सिद्धियों उनकी सेवा कर रही हैं। आठ हाथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश (फंदा)


2. - धारण किये हुए हैं। वे ही कारस्वरूप प्रभु सब प्रकार से सब ओर से मेरी रक्षा करें। मत्स्यमूर्ति भगवान जल के भीतर जल जन्तुओं से और वरुण के पाश से मेरी रक्षा करें.

3. - माया से ब्रह्मचारी का रूप धारण करनेवाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्रीत्रिविक्रम भगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें.

4. -जिनके घोर अट्टहास करने पर सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्य-पत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्ययूथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें.

5. - अपनी दाढ़ो पर पृथ्वी को उठा लेने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में, परशुरामजी पर्वतों के शिखरों पर और लक्ष्मणजी के सहित भरत के बड़े भाई भगवान् रामचन्द्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें.

6. - भगवान् नारायण मारण-मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें। ऋषिश्रेष्ठ गर्व से नर नारायण योगेश्वर भगवान् दत्तात्रोय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धनोंसे मेरी रक्षा करें.

7. - परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान् कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें

8. - भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्रिय भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान् लोकापवाद से बलराम जी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेष जी क्रोधवशनामक सर्पों के गण से मेरी रक्षा करें.

9.- भगवान श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें। धर्म-रक्षा के लिये महान अवतार धारण करने वाले भगवान कल्कि पाप बहुल कलिकाल के दोषो से मेरी रक्षा करें.

10.- प्रातःकाल भगवान केशव अपनी गदा लेकर कुछ दिन चढ़ जाने पर भगवान गोविन्द अपनी बाँसुरी लेकर दोपहर के पहले भगवान नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहर को भगवान विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें।.

11.- तीसरे पहर में भगवान मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें। सांयकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बाद हृषीकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्धरात्रि के समय अकेले भगवान पानाभ मेरी रक्षा करें.

12.- रात्रि के पिछले पहर में श्रीवत्सला×छन श्रीहरि, उषा काल में खड्गधारी भगवान जर्नादन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण संध्याओं में कालमूर्ति भगवान विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें।


13.- सुदर्शन ! आपका आकार चक्र (रथ के पहिये) की तरह है। आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान की प्रेरणा से सब ओर घूमते रहते हैं। जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास फूस को जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रु सेना को शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये.


14.- कौमोदकी गदा ! आपसे छूटने वाली चिंगारियो का स्पर्श वज्र के समान असह्य है। आप भगवान अजित की प्रिया है और मैं उनका सेवक हूँ। इसलिये आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, तथा मेरे शत्रुओं को चूर-चूर कर दीजिये.

15.- शंख श्रेष्ठ ! आप भगवान श्री कृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका पिशाच तथा ब्रह्म राक्षस आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से झटपट भगा दीजिये.

16.- भगवान की श्रेष्ठ तलवार-आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है। आप भगवान की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-छिन्न कर दीजिये। भगवान की प्यारी ढाल-आपमें सैंकडों चन्द्राकार मण्डल है-आप पाप दृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखें बंद कर दीजिये और उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये.


17-18 .- सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छल तारे) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले जन्तु, दाढ़ो वाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियो से हमें जो-जो भय हो और जो-जो हमारे मंगल के विरोधी हों-वे सभी भगवान के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जाएं।

19.- बृहद् रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान गरुड़ और विष्वक्सेन जी अपने नामोच्चर के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें.


20.- श्री हरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि, इन्द्रिय मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें.


21.- जितना भी कार्य अथवा कारणरूप जगत् है, वह वास्तव में भगवान ही है-इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायें.

22-23.- जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान का स्वरूप समस्त विकल्पों-भेदों से रहित है, फिर भी वे अपनी माया-शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं। यह बात निश्चित रूप से सत्य है। इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान श्री हरि सदा-सर्वत्रा सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें।।

24.- जो अपने भयंकर अट्टाहस से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान नृसिंह दिशा-विदिशा में, नीचे ऊपर, बाहर-भीतर - सब ओर हमारी रक्षा करें.

नारायणो नर इति प्रथितो द्विमूर्ति-

स्तेपे भवा×छिवकरं हि तपोतिऽतीव्रम्।

श्रीकृष्ण कृष्ण ‘तपतां वर’ कृष्ण कृष्ण

कृष्ण कृष्ण शरणं भव कृष्ण कृष्ण।।

श्रीकृष्ण ! आपने नारायण और नर-इन दो रूपों में प्रख्यात होकर अत्यन्त तीव्र एवं कल्याणकारी तप का अनुष्ठान किया। तपस्वीजनों में श्रेष्ठ कृष्ण ! कृष्ण! श्रीकृष्ण! आप ही मेरे लिये शरण (आश्रयदाता) हो जाएँ। कृष्ण! आपको मेरा प्रणाम है।

इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरूष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता है अथवा पैर से छू देता है, तत्काल समस्त भयों से से मुक्त हो जाता है जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत, पिशाच आदि और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता.

जो पुरूष इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदर पूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है
                नारायण   नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण  नारायण