RAJ INFOTECH SYSTEM @ NETWORK

RAJ INFOTECH SYSTEM @ NETWORK
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Thursday, February 27, 2014

शिव महिमा









शिव महिमा
हमारे हिंदू धर्म में त्रिदेवों अर्थात भगवान ब्रह्मा, विष्णु व शंकर का अपना एक विशिष्ट स्थान है और इसमें भी भगवान शंकर का चरित्र जहाँ अत्यधिक रोचक हैं वहीं यह पौराणिक कथाओं में अत्यधिक गूढ रहस्यों से भी भरा हुआ है ।

पौराणिक कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है क्योंकि उनका अपना चरित्र अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ है जैसे शिव का अर्थ है जो शुभकर व कल्याणकारी हो, जबकि शिवजी का अपना व्यक्तित्व इससे जरा भी मेल नहीं खाता, क्योंकि वे अपने शरीर में इत्र के स्थान पर चिता की राख मलते हैं तथा गले में फूल-मालाओं के स्थान पर विषैले सर्पों को धारण करते हैं । यही नहीं भगवान शिव को कुबेर का स्वामी माना जाता है जबकि वे स्वयं कैलाश पर्वत पर बिना किसी ठौर-ठिकानों के यूँ ही खुले आकाश के नीचे निवास करते हैं । कहने का तात्पर्य है कि भगवान शिव का स्वभाव शास्त्रों में वर्णित उनके गुणों से जरा भी मेल नहीं खाता और इतने अधिक विरोधाभासों में, किसी भी व्यक्ति की शिव के प्रति आस्था, उसके अपने विश्वास के आधार पर ही टिकी हुई है, इसलिए, सभी कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है ।

पौराणिक कथाओं के अनुसार माता पार्वती को भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए तपस्या के कठिन दौर से गुज़रना पडा था और चूँकि तपस्या के कठिन दौर की सफलता व्यक्ति की अपनी श्रद्धा पर निर्भर करती है और ऐसे समय भगवान शिव के प्रति माता पार्वती की श्रद्धा (चूँकि वे हिमालय पर्वत की बेटी हैं इसलिए) पर्वत की तरह अडिग व मज़बूत रहती है, इसलिए हमारी पौराणिक कथाओं में माता पार्वती को श्रद्धा का प्रतीक माना गया है ।

भगवान शिव के अपने दो पुत्र है, श्री कार्तिकेय व श्री गणेश । जहाँ कार्तिकेय का सीधा सा अर्थ यह है कि जो ‘तर्कय‘ हो अर्थात जो सभी प्रकार के तर्कों से मुक्त हो गया हो वहीं गणेश भगवान को माता पार्वती अपने मैल से उत्पन्न करती हैं किन्तु एक शिव भक्त के हाथों से उनका सिर, धड से अलग हो जाता हैं । संक्षेप में इसके द्वारा हमें यह बताने का प्रयास किया है कि अगर श्रद्धा अपने कुछ मैल रूपी अवगुणों को भी निकालती है तो उससे भी जगत में कुछ श्रेष्ठतम ही घटता है किन्तु इसके लिए श्रद्धा को विश्वास का सहयोग लेकर चलना चाहिए । इसके विपरीत आचरण करने पर इसके अमंगलमय होने की पूरी संभावना रहती है । कथा आगे कहती है कि इसके पश्चात भगवान शिव हाथी का सिर लगाकर श्री गणेशजी का उद्धार करते हैं अर्थात ऐसी अमंगलकारी स्थितियों में भी, हम विश्वास के सहयोग से इसे पुनर्व्यवस्थित कर, इसकी श्रेष्ठता को प्रमाणित कर सकते हैं और इसे शुभ सिद्ध कर सकते हैं ।

इस तरह पुराणों में वर्णित इस शिव-चरित्र के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जिन व्यक्तियों के जीवन में मन अत्यधिक प्रबल हो उन्हें भगवान शिव की उपासना के द्वारा ही अपनी आध्यात्मिक सत्य की यात्रा आरम्भ करनी चाहिए क्योंकि इससे उनके मन में जहाँ विश्वास का भाव गहरे तौर पर अंकुरित होगा वहीं यह मज़बूत व अडिग श्रद्धा रूपी विशाल वट वृक्ष बनकर चहुं ओर अपनी शाखाएँ फैलाने लगेगा ।

इसी तरह और आगे की आध्यात्मिक यात्रा करने पर गणेश भगवान के आशीर्वाद से जहाँ उनकी सारी विघ्न बाधाएँ दूर होंगी वहीं इसके द्वारा उन्हें शुभ फलों की प्राप्ति भी होने लगेगी । जब भक्त इन सब बातों से उत्साहित होकर पूरी तन्मयता के साथ इसी रास्ते में थोडा और आगे निकलेगा तो वह स्वयं को सभी प्रकार के विधि-विधानों व तर्कों से मुक्त पाएगा तथा वह आध्यात्मिक सत्य व ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल होगा । यही शिव के अपने सम्पूर्ण जीवन का मर्म है जिसे कि शिव-चरित्र के माध्यम से हमें समझाने का प्रयास किया गया है ।

महा शिवरात्रि के बारे में यह कथा प्रचलित है कि एक पापी शिकारी अनजाने में ही बेलपत्रों के द्वारा भगवान शिव की उपासना करता है तथा हाथ में आए हुए शिकार को अभयदान देकर छोड देता है जिससे भगवान शिव प्रसन्न होकर उसे दर्शन देते हैं तथा उसका उद्धार करते हैं । इस कथा के द्वारा हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि अगर कोई अनजाने में ही अपने पूर्ण विश्वास के साथ ईश्वर की स्तुति करें तो भी उसके जीवन का उद्धार संभव है । यही वजह है कि कई वर्षों तक पाप व अपराध का जीवन ढोते वाल्मीकि ऋषि, मगध सम्राट अशोक आदि का जीवन भी अनजाने में ही उनके द्वारा किए गए ईश्वरीय स्तुति के परिणामस्वरुप, मात्र एक छोटी सी घटना को आधार बनाकर रूपान्तिरित हो उठा और भगवान के द्वारा इनका उद्धार हुआ ।

इसी प्रकार एक अन्य कथा में भगवान शिव अपना ध्यान भंग करने के जुर्म में कामदेव को पूर्णतः समाप्त करने के स्थान पर, उसकी देह को ही भस्म कर देते हैं क्योंकि ‘काम‘ का सम्बन्ध व्यक्ति की देह के साथ ही जुडा हुआ है । यही नहीं इस कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के अन्दर ईश्वर के प्रति विश्वास घनीभूत रूप में हो तो वह अपनी एक ही नज़र में ‘काम‘ जैसे विकारों को नष्ट कर सकता है । इसी तरह कथा आगे यह कहती है कि शिव के हाथों भस्म होने के पश्चात कामदेव का दोबारा जन्म कृष्ण-पुत्र श्री प्रद्युम्न के रूप में होता है । भगवान श्रीकृष्ण स्वयं विष्णु के अवतार है जो कि हृदय के प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण भगवान इसी हृदय से निकले साक्षात प्रेम के ही रूप है । यहाँ यह समझने योग्य बात है कि प्रद्युम्न का जन्म ब्रज की गोपियों अथवा राधा के गर्भ से न होकर, कृष्ण की सामाजिक पत्नी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त रूक्मणि देवी के गर्भ से होता है अर्थात इस सम्पूर्ण कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के मन में काम का भाव यूँ ही उठे तब तो यह ग़लत है किन्तु यदि यह काम-भाव व्यक्ति के हृदय से निकले प्रेम रूप में हो तथा यह विवाह बंधन में बँधा हो, तब ही यह जगत के कल्याणकारी हित में पूर्णतः स्वीकार्य है ।

ज्योतिष गुरु भगवान शिव

हमारी भारतीय संस्कृति इतनी विशाल है कि उसका प्रत्येक कार्य चाहे उपवास हो, पूजन हो, ध्यान हो या सामाजिक कार्य हो, सदैव संस्कृति से जुड़ा रहता है। हमारे देश के विभिन्न प्रांतों में अनेक देवताओं का पूजन होता रहा है किंतु शिव की व्यापकता ऐसी है कि वह हर जगह पूजे जाते हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथ, जो हर जिज्ञासा को शांत करने में समर्थ हैं, जो श्रुति स्मृति के दैदीप्यमान स्तंभ हैं, ऐसे वेदों के वाग्मय में जगह-जगह शिव को ईश्वर या रुद्र के नाम से संबोधित कर उनकी व्यापकता को दर्शाया गया है।

यजुर्वेद के एकादश अध्याय के 54वें मंत्र में कहा गया है कि रुद्रदेव ने भूलोक का सृजन किया और उसको महान तेजस्विता से युक्त सूर्यदेव ने प्रकाशित किया। उन रुद्रदेव की प्रचंड ज्योति ही अन्य देवों के अस्तित्व की परिचायक है। शिव ही सर्वप्रथम देव हैं, जिन्होंने पृथ्वी की संरचना की तथा अन्य सभी देवों को अपने तेज से तेजस्वी बनाया। यजुर्वेद के 19वें अध्याय में 66 मंत्र हैं, जिन्हें रुद्री का नाम या नमक चमक के मंत्रों की संज्ञा दी है। इसी से भगवान भूत भावन महाकाल की पूजा-अर्चन व अभिषेक आदि होता है। इसी अध्याय के चौथे मंत्र में भगवान शिव को पर्वतवासी कहा गया। उनसे संपूर्ण जगत के कल्याण की कामना की गई और अपने विचारों की पवित्रता तथा निर्मलता मांगी गई। आगे 19वें मंत्र में अपनी संतानों की तथा पशुधन की रक्षा चाही गई।

महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश में महेश्वर ˜यम्बक एवं न द्रपटा कहकर त्रिलोचन सदाशिव को ही महेश्वर कहा है। सभी प्रकार की याचनाएं उसी से की जाती हैं, जो उसको पूर्ण करने में समर्थ है और यही कारण है कि शिव औघरदानी के नाम से भी जाने जाते हैं।

वैदिक वांगमय में रुद्र का विशिष्ट स्थान है। शतपथ ब्रह्मण में रुद्र को अनेक जगह अग्नि के निकट ही माना गया है। कहते हैं कि ‘यो वैरुद्र: सो अग्नि’ रुद्र को पशुओं का पति भी कहा गया है। भगवान रुद्र को मरुत्तपिता कहा गया है। तैत्तरीय संहिता में शिव की व्यापकता बताई गई है। इसी कारण रुद्र एवं उनके गणों की यजुर्वेद में स्तुति की गई है।

शिव को पंचमुखी, दशभुजा युक्त माना है। शिव के पश्चिम मुख का पूजन पृथ्वी तत्व के रूप में किया जाता है। उनके उत्तर मुख का पूजन जल तत्व के रूप में, दक्षिण मुख का तेजस तत्व के रूप में तथा पूर्व मुख का वायु तत्व के रूप में किया जाता है। भगवान शिव के ऊध्र्वमुख का पूजन आकाश तत्व के रूप में किया जाता है। इन पांच तत्वों का निर्माण भगवान सदाशिव से ही हुआ है। इन्हीं पांच तत्वों से संपूर्ण चराचर जगत का निर्माण हुआ है। तभी तो भवराज पुष्पदंत महिम्न में कहते हैं - हे सदाशिव! आपकी शक्ति से ही इस संपूर्ण संसार चर-अचर का निर्माण हुआ है।

आप ही रक्षक हैं। आपकी माया से ही इस ब्रम्हांड का लय होता है। हे शिव! सत्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण का समावेश भी आपसे ही होता है। श्लोक में आगे वे कहते हैं कि हे सदाशिव! आपके पास केवल एक बूढ़ा बेल, खाट की पाटी, कपाल, फरसा, सिंहचर्म, भस्म एवं सर्प है, किंतु सभी देवता आपकी कृपा से ही सिद्धियां, शक्तियां एवं ऐश्वर्य भोगते हैं। 29वें श्लोक में वे कहते हैं - शिव को ऋक, यजु, साम, ओंकार तीनों अवस्थाएं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, स्वर्ग लोक, मृत्युलोक एवं पाताल लोक, ब्रह्मा, विष्णु आदि को धारण किए हुए दर्शाया है।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान शिव उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के दृष्टा हैं। निर्माण, रक्षण एवं संहरण कार्यो का कर्ता होने के कारण उन्हें ही ब्रम्हा, विष्णु एवं रुद्र कहा गया है। इदं व इत्थं से उनका वर्णन शब्द से परे है। शिव की महिमा वाणी का विषय नहीं है। मन का विषय भी नहीं है। वे तो सारे ब्रम्हांड में तद्रूप होकर विद्यमान होने से सदैव श्वास-प्रश्वास में अनुभूत होते रहते हैं। इसी कारण ईश्वर के स्वरूप को अनुभव एवं आनंद की संज्ञा दी गई है।

आगे भगवान सदाशिव को अनेक नामों से जानने का प्रयत्न किया गया है, जिसमें त्रिनेत्र, जटाधर, गंगाधर, महाकाल, काल, नक्षत्रसाधक, ज्योतिषमयाय, त्रिकालधृष, शत्रुहंता आदि अनेक नाम हैं। यहां महाकाल पर चर्चा करना आवश्यक होगा। काल का अर्थ है समय। ज्योतिषीय गणना में समय का बहुत महत्व है। उस समय की गणना किसे आधार मानकर की जाए, यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है। अवंतिका (उज्जैन) गौरवशालिनी है क्योंकि जब सूर्य की परम क्रांति 24 होती है, तब सूर्य ठीक अवंतिका के मस्तक पर होता है।

वर्ष में एक बार ही ऐसा होता है। यह स्थिति विश्व में और कहीं नहीं होती क्योंकि अवंतिका का ही अक्षांक्ष 24 है। यही संपूर्ण भूमंडल का मध्यवर्ती स्थान माना गया है। यह गौरव मात्र अवंतिका को ही प्राप्त है और इसी कारण यहां महाकाल स्थापित हुए हैं, जो स्वयंभू हैं। यहीं से भूमध्य रेखा को माना गया है। शिव को नक्षत्र साधक भी कहा गया है। जो यह स्पष्ट करता है कि शिव ज्योतिष शास्त्र के प्रणोता, गुरु, प्रसारक एवं उपदेशक शिव है।

भगवान सदाशिव का एक नाम शत्रुहंता भी है। हम इसका अर्थ लौकिक शत्रु का नाश करना समझते हैं, लेकिन इसका अर्थ है, अपने भीतर के शत्रु भाव को समाप्त करना। अनेक कथाओं में हम देखते हैं कि जब ब्रrांड पर कोई भी विपत्ति आई, सभी देवता सदाशिव के पास गए। चाहे समुद्रमंथन से निकलने वाला जहर हो या त्रिपुरासुर का आतंक या आपतदैत्य का कोलाहल, इसी कारण तो भगवान शिव परिवार के सभी वाहन शत्रु भाव त्यागकर परस्पर मैत्री भाव से रहते हैं। शिवजी का वाहन नंदी (बैल), उमा (पार्वती) का वाहन सिंह, भगवान के गले का सर्प, कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणोश का चूहा सभी परस्पर प्रेम एवं सहयोग भाव से रहते हैं।

शिव को त्रिनेत्र कहा गया है। ये तीन नेत्र सूर्य, चंद्र एवं वहनी है, जिनके नेत्र सूर्य एवं चंद्र हैं। शिव के बारे में जितना जाना जाए, उतना कम है। अधिक न कहते हुए इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि शिव केवल नाम ही नहीं हैं अपितु संपूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल परिवर्तन, परिवर्धन आदि में भगवान सदाशिव के सर्वव्यापी स्वरूप के ही दर्शन होते हैं।

भगवान शिव के १०८ नाम
शिव - कल्याण स्वरूप
महेश्वर - माया के अधीश्वर
शम्भू - आनंद स्स्वरूप वाले
पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले
शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले
विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले
कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले
नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले
शंकर - सबका कल्याण करने वाले
शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले
खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले
विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी
शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले
अंबिकानाथ - भगवति के पति
श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले
भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले
भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले
शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले
त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी
शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले
शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय
उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले
कपाली - कपाल धारण करने वाले
कामारी - कामदेव के शत्रु
अंधकारसुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले
गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले
ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले
कालकाल - काल के भी काल
कृपानिधि - करूणा की खान
भीम - भयंकर रूप वाले
परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले
मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले
जटाधर - जटा रखने वाले
कैलाशवासी - कैलाश के निवासी
कवची - कवच धारण करने वाले
कठोर - अत्यन्त मजबूत देह वाले
त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले
वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले
वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले
भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले
सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले
स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले
त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले
अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है
सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले
परमात्मा - सबका अपना आपा
सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले
हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले
यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले
सोम - उमा के सहित रूप वाले
पंचवक्त्र - पांच मुख वाले
सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाले
विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर
वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले
गणनाथ - गणों के स्वामी
प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले
हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले
दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले
गिरीश - पहाड़ों के मालिक
गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले
अनघ - पापरहित
भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले
भर्ग - पापों को भूंज देने वाले
गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले
गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी
कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले
पुराराति - पुरों का नाश करने वाले
भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न
प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति
मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले
सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले
जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले
जगद्गुरू - जगत् के गुरू
व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले
महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता
चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले
रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले
भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी
स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले
अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले
दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले
अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले
अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले
सात्त्विक - सत्व गुण वाले
शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले
शाश्वत - नित्य रहने वाले
खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले
अज - जन्म रहित
पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले
मृड - सुखस्वरूप वाले
पशुपति - पशुओं के मालिक
देव - स्वयं प्रकाश रूप
महादेव - देवों के भी देव
अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले
हरि - विष्णुस्वरूप
पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले
अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले
दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले
हर - पापों व तापों को हरने वाले
भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले
अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले
सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले
सहस्रपाद - अनंत पैर वाले
अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले
अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित
तारक - सबको तारने वाला
परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर

शिव का स्वरूप

शिव की महिमा अनंत है। उनके रूप, रंग और गुण अनन्य हैं। समस्त सृष्टि शिवमयहै। सृष्टि से पूर्व शिव हैं और सृष्टि के विनाश के बाद केवल शिव ही शेष रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, परंतु जब सृष्टि का विस्तार संभव न हुआ तब ब्रह्मा ने शिव का ध्यान किया और घोर तपस्या की। शिव अ‌र्द्धनारीश्वर रूप में प्रकट हुए। उन्होंने अपने शरीर के अ‌र्द्धभागसे शिवा (शक्ति या देवी) को अलग कर दिया। शिवा को प्रकृति, गुणमयीमाया तथा निर्विकार बुद्धि के नाम से भी जाना जाता है। इसे अंबिका, सर्वलोकेश्वरी,त्रिदेव जननी, नित्य तथा मूल प्रकृति भी कहते हैं। इनकी आठ भुजाएं तथा विचित्र मुख हैं। अचिंत्य तेजोयुक्तयह माया संयोग से अनेक रूपों वाली हो जाती है। इस प्रकार सृष्टि की रचना के लिए शिव दो भागों में विभक्त हो गए, क्योंकि दो के बिना सृष्टि की रचना असंभव है। शिव सिर पर गंगा और ललाट पर चंद्रमा धारण किए हैं। उनके पांच मुख पूर्वा, पश्चिमा, उत्तरा,दक्षिणा तथा ऊध्र्वाजो क्रमश:हरित,रक्त,धूम्र,नील और पीत वर्ण के माने जाते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं और दसों हाथों में अभय, शूल, बज्र,टंक, पाश, अंकुश, खड्ग, घंटा, नाद और अग्नि आयुध हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वह त्रिशूल धारी, प्रसन्नचित,कर्पूर गौर भस्मासिक्तकालस्वरूपभगवान हैं। उनकी भुजाओं में तमोगुण नाशक सर्प लिपटे हैं। शिव पांच तरह के कार्य करते हैं जो ज्ञानमय हैं। सृष्टि की रचना करना, सृष्टि का भरण-पोषण करना, सृष्टि का विनाश करना, सृष्टि में परिवर्तनशीलतारखना और सृष्टि से मुक्ति प्रदान करना। कहा जाता है कि सृष्टि संचालन के लिए शिव आठ रूप धारण किए हुए हैं। चराचर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करते हुए वह शर्वअथवा सर्व हैं। सृष्टि को संजीवन रूप प्रदान करने वाले जलमयरूप में वह भव हैं। सृष्टि के भीतर और बाहर रहकर सृष्टि स्पंदित करने वाला उनका रूप उग्र है। सबको अवकाश देने वाला, नृपोंके समूह का भेदक सर्वव्यापी उनका आकाशात्मकरूप भीम कहलाता है। संपूर्ण आत्माओं का अधिष्ठाता, संपूर्ण क्षेत्रवासी, पशुओं के पाश को काटने वाला शिव का एक रूप पशुपति है। सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त समग्र सृष्टि में प्रकाश करने वाले शिव स्वरूप को ईशान कहते हैं। रात्रि में चंद्रमा स्वरूप में अपनी किरणों से सृष्टि पर अमृत वर्षा करता हुआ सृष्टि को प्रकाश और तृप्ति प्रदान करने वाला उनका रूप महादेव है। शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है। तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं। प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं। कहा जाता है कि सृष्टि के आदि में महाशिवरात्रि को मध्य रात्रि में शिव का ब्रह्म से रुद्र रूप में अवतरण हुआ, इसी दिन प्रलय के समय प्रदोष स्थिति में शिव ने ताण्डव नृत्य करते हुए संपूर्ण ब्रह्माण्ड अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से नष्ट कर दिया। इसीलिए महाशिवरात्रि अथवा काल रात्रि पर्व के रूप में मनाने की प्रथा का प्रचलन है।

जहां नटराज करते हैं आज भी राज!

हिमाचल प्रदेश के जिला चंबामें समुद्र तल से साढे सात हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित देव घाटी भरमौरका सौंदर्य नयनाभिराम है और अतीत गौरवपूर्ण। हमारे पौराणिक ग्रंथों में जिन चार कैलाश पर्वतों का उल्लेख आया है, उनमें से एक मणिमहेशकैलाश, इसी नैसर्गिक घाटी में स्थित है।

चंबाशहर से भरमौरकी दूरी कोई पैंसठ किलोमीटर है। भरमौरका रास्ता खडामुखसे होकर जाता है। खडामुखऔर भरमौरके बीच रावीनदी बहती है। भरमौरकई तरह के फलदार वृक्षों से सजी एक ऐसी मनोरम घाटी है, जहां कदम रखते ही सारी थकान पल भर के लिए छू-मंतर हो जाती है। यह घाटी वर्ष में तकरीबन पांच मास बर्फ की सफेद चादर से ढंकी रहती है।

भरमौरका जिक्र प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है और जनश्रुतियोंमें भी। भरमौरका प्राचीन नाम ब्रह्मपुर है। उसे पांच सौ वर्षो तक चंबाराज्य की राजधानी रहने का गौरव भी हासिल है। भरमौरनिवासियों की यह मान्यता है कि कालांतर में भगवान शिव यानी नटराज ने भरमौरघाटी में तांडव नृत्य भी किया था। भरमौरनिवासियों के अनुसार नटराज सात तरह के तांडव नृत्य करते हैं-आनंद तांडव, संध्या (प्रदोष) तांडव, कालिका तांडव, त्रिपुर दाह तांडव, गौरी तांडव, संहार तांडव और उमा तांडव। भारत ही नहीं, अनेक पाश्चात्य पुरातत्ववेताओंको भी भरमौरने अपने गौरवपूर्ण अतीत की तरफ आकर्षित किया है। इनमें डॉ. हटचिनसन,डा. फोगल,हरमनगोटसके नाम उल्लेखनीय है।

शिखर शैली में बना मणिमहेशका विशाल मंदिर यहां के निवासियों और शैव मतावलंबियों के लिए आस्था का प्रतीक है। आबादी के बीच एक बडे मंदिर परिसर में शिखर और पहाडी शैली में बने बीसियोंछोटे शिव मंदिर हैं और शिवलिंगभी। मंदिर समूह में सबसे बडा और ऊंचा मणिमहेशमंदिर ही है, जिसका शिखर दूर से ही दिखाई देने लग जाता है। विद्वानों ने इस मंदिर का निर्माण काल राजा मेरुवर्मन(780 ई.) के समय का माना है। इस काल में मेरुवर्मनने भरमौरमें अन्य मंदिरों और मूर्तियों की स्थापना की थी। कहा जाता है कि भरमौर(ब्रह्मपुर) में चौरासी सिद्धोंने धूनी रमाई थी और जहां-जहां वे बैठे थे, उन्हीं जगहों पर राजा साहिल वर्मा ने चौरासी मंदिरों का निर्माण करवाया था। यह मंदिर शिल्प व वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। मणिमहेशमंदिर में प्रवेश करते ही नंदी की भव्य कांस्य प्रतिमा ध्यान आकर्षित करती है।

नृसिंह भगवान का मंदिर शिखर शैली का बना है। इस मंदिर में नृसिंह भगवान की अष्टधातु की मूर्ति ग्यारह इंच ऊंचे तांबे की पीठ पर प्रतिष्ठित है। एक हजार से अधिक वर्ष पुरानी इन प्रतिमाओं पर वक्त की धूल जमी नहीं दिखाई देती, बल्कि इनकी चमक-दमक अभी तक बरकरार है और बडी श्रद्धा से इन्हें पूजा जाता है। भरमौरघाटी का दूसरा प्रसिद्ध शिव मंदिर हडसरमें है। हडसरजिसे स्थानीय बोली में हरसरभी कहा जाता है, पवित्र मणिमहेशको जाने वाली सडक पर अंतिम गांव है और कैलाश पर्वत के दर्शनार्थ जाने वाले श्रद्धालुओं की विश्राम स्थली भी है। गांव में पहाडी शैली में लकडी से निर्मित भगवान शिव का ऐतिहासिक मंदिर है। भरमौरघाटी का तीसरा प्रमुख मंदिर छतराडीमें है, जिसका निर्माण भी राजा मेरुवर्मनने करवाया था। मंदिर में अष्टधातु की बनी आदि शक्ति की कलात्मक मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस बहूमूल्यमूर्ति का निर्माण काल छठी-सातवीं शताब्दी का है। मंदिर की कलात्मकता देखते ही बनती है।

कुछ लोग इसे हिमाचल का अमरनाथ कहकर भी पुकारते हैं। भारत के उत्तर-पश्चिम में यह सबसे बडा शैव तीर्थ है और इसे भगवान शिव का वास्तविक घर माना गया है। समुद्र तल से 18,564फुट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेशके आंचल में करीब दो सौ मीटर परिधि की झील है। प्रति वर्ष भाद्रपक्षमास में कृष्णाष्टमी तथा जन्माष्टमी को यहां विशाल मेला लगता है।

शिवशंकर भोलेनाथ के अनेक रूप

गंगाधर

राजा भगीरथ ने जनकल्याण के लिए पतितपावन गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए कई वर्षों तक कठोर तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने राजा भगीरथ को यह वचन दिया कि सर्वकल्याणकारी गंगा पृथ्वी पर आएगी। मगर समस्या यह थी कि गंगाजी को पृथ्वी पर संभालेगा कौन?

समस्या का समाधान करते हुए ब्रह्माजी ने कहा कि गंगाजी को धारण करने की शक्ति भगवान शंकर के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है अतः तुम्हें भगवान रुद्र की तपस्या करना चाहिए। ऐसा कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। ब्रह्माजी के वचन सुनकर भगीरथ ने प्रभु भोलेनाथ की कठोर तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने भगीरथ से कहा- 'नरश्रेष्ठ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। मैं गिरिराजकुमारी गंगा को अपने मस्तक पर धारण करके संपूर्ण प्राणियों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करूँगा।'

भगवान शंकर की स्वीकृति मिल जाने के बाद हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगाजी बड़े ही प्रबल वेग से आकाश से भगवान शंकर के मस्तक पर गिरीं। उस समय गंगाजी के मन में भगवान शंकर को पराजित करने की प्रबल इच्छा थी। गंगाजी का विचार था कि मैं अपने प्रबल वेग से भगवान शंकर को लेकर पाताल में चली जाऊँगी।

गंगाजी के इस अहंकार को जान शिवजी कुपित हो उठे और उन्होंने गंगाजी को अदृश्य करने का विचार किया। पुण्यशीला गंगा जब भगवान रुद्र के मस्तक पर गिरीं, तब वे उनकी जटाओं के जाल में बुरी तरह उलझ गईं। लाख प्रयत्न करने पर भी वे बाहर न निकल सकीं। जब भगीरथ ने देखा कि गंगाजी भगवान शिव के जटामंडल में अदृश्य हो गईं, तब उन्होंने पुनः भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए तप करना प्रारंभ कर दिया। उनके तप से संतुष्ट होकर भगवान शिव ने गंगाजी को लेकर बिंदु सरोवर में छोड़ा। वहाँ से गंगाजी सात धाराएँ हो गईं।

इस प्रकार ह्लादिनी, पावनी और नलिनी नामक की धाराएँ पूर्व दिशा की ओर तथा सुचक्षु, सीता और महानदी सिंधु- ये तीन धाराएँ पश्चिम की ओर चली गईं। सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे-पीछे चली और पृथ्वी पर आई। इस प्रकार भगवान शंकर की कृपा से गंगा का धरती पर अवतरण हुआ और भगीरथ के पितरों के उद्धार के साथ पतितपावनी गंगा संसारवासियों को प्राप्त हुईं।

औढरदानी शिव

भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है। वे कल्याण की जन्मभूमि तथा शांति के आगार हैं। वेद तथा आगमों में भगवान शिव को विशुद्ध ज्ञानस्वरूप बताया गया है। समस्त विद्याओं के मूल स्थान भी भगवान शिव ही हैं। उनका यह दिव्यज्ञान स्वतः सम्भूत है।

ज्ञान, बल, इच्छा और क्रिया-शक्ति में भगवान शिव के समान कोई नहीं है। फिर उनसे अधिक होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। वे सबके मूल कारण, रक्षक, पालक तथा नियंता होने के कारण महेश्वर कहे जाते हैं। उनका आदि और अंत न होने से वे अनंत हैं। वे सभी पवित्रकारी पदार्थों को भी पवित्र करने वाले हैं, इसलिए वे समस्त कल्याण और मंगल के मूल कारण हैं।

भगवान शंकर दिग्वसन होते हुए भी भक्तों को अतुल ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, अनंत राशियों के अधिपति होने पर भी भस्म-विभूषण, श्मशानवासी होने पर भी त्रैलोक्याधिपति, योगिराज होने पर भी अर्धनारीश्वर, पार्वतीजी के साथ रहने पर भी कामजित तथा सबके कारण होते हुए भी अकारण हैं। आशुतोष और औढरदानी होने के कारण वे शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों के संपूर्ण दोषों को क्षमा कर देते हैं तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ज्ञान-विज्ञान के साथ अपने आपको भी दे देते हैं। कृपालुता का इससे बड़ा उदाहरण भला और क्या हो सकता है।

संपूर्ण विश्व में शिवमंदिर, ज्योतिर्लिंग, स्वयम्भूलिंग से लेकर छोटे-छोटे चबूतरों पर शिवलिंग स्थापित करके भगवान शंकर की सर्वाधिक पूजा उनकी लोकप्रियता का अद्भुत उदाहरण है।

हरिहर रूप

एक बार सभी देवता मिलकर संपूर्ण जगत के अशांत होने का कारण जानने के लिए विष्णुजी के पास गए। भगवान विष्णु ने कहा कि इस प्रश्न का उत्तर तो भोलेनाथ ही दे सकते हैं। अब सभी देवता विष्णुजी को लेकर शिवजी की खोजने मंदर पर्वत गए। वहाँ शंकरजी के होते हुए भी देवताओं को उनके दर्शन नहीं हो रहे थे।

पार्वतीजी का गर्भ नष्ट करने पर देवताओं को महापाप लगा था और इस कारण ही ऐसा हो रहा था। तब विष्णुजी ने कहा कि सारे देवता शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तत्पकृच्छ्र व्रत करें। इसकी विधि भी विष्णुजी ने बताई। सारे देवताओं ने ऐसा ही किया। फलस्वरूप सारे देवता पापमुक्त हो गए। पुनः देवताओं को शंकरजी के दर्शन करने की इच्छा जागी। देवताओं की इच्छा जान प्रभु विष्णु ने उन्हें अपने हृदयकमल में विश्राम करने वाले भगवान शंकर के लिंग के दर्शन करा दिए।

अब सभी देवता यह विचार करने लगे कि सत्वगुणी विष्णु और तमोगुणी शंकर के मध्य यह एकता किस प्रकार हुई। देवताओं का विचार जान विष्णुजी ने उन्हें अपने हरिहरात्मक रूप का दर्शन कराया। देवताओं ने एक ही शरीर में भगवान विष्णु और भोलेनाथ शंकर अर्थात हरि और हर का एकसाथ दर्शन कर उनकी स्तुति की।

पंचमुखी शिव

मुक्तापीतपयोदमौक्तिकजपावर्णैर्मुखैः पञ्चभि- स्त्र्यक्षैरंजितमीशमिंदुमुकुटं पूर्णेन्दुकोटिप्रभम्‌ ।
शूलं टंककृपाणवज्रदहनान्नागेन्द्रघंटांकुशान्‌ पाशं भीतिहरं दधानममिताकल्पोज्ज्वलं चिन्तयेत्‌ ॥

'जिन भगवान शंकर के ऊपर की ओर गजमुक्ता के समान किंचित श्वेत-पीत वर्ण, पूर्व की ओर सुवर्ण के समान पीतवर्ण, दक्षिण की ओर सजल मेघ के समान सघन नीलवर्ण, पश्चिम की ओर स्फटिक के समान शुभ्र उज्ज्वल वर्ण तथा उत्तर की ओर जपापुष्प या प्रवाल के समान रक्तवर्ण के पाँच मुख हैं।

जिनके शरीर की प्रभा करोड़ों पूर्ण चंद्रमाओं के समान है और जिनके दस हाथों में क्रमशः त्रिशूल, टंक (छेनी), तलवार, वज्र, अग्नि, नागराज, घंटा, अंकुश, पाश तथा अभयमुद्रा हैं। ऐसे भव्य, उज्ज्वल भगवान शिव का मैं ध्यान करता हूँ।'

महामृत्युंजय
हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां वहंतं परम्‌ ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे ॥

भगवान मृत्युंजय अपने ऊपर के दो हाथों में स्थित दो कलशों से सिर को अमृत जल से सींच रहे हैं। अपने दो हाथों में क्रमशः मृगमुद्रा और रुद्राक्ष की माला धारण किए हैं। दो हाथों में अमृत-कलश लिए हैं। दो अन्य हाथों से अमृत कलश को ढँके हैं।

इस प्रकार आठ हाथों से युक्त, कैलास पर्वत पर स्थित, स्वच्छ कमल पर विराजमान, ललाट पर बालचंद्र का मुकुट धारण किए त्रिनेत्र, मृत्युंजय महादेव का मैं ध्यान करता हूँ।

शिव स्वरूप का रहस्य (त्रिनेत्र)

शिव की आराधना का विशेष महत्व है। यह महत्व अनायास नहीं है। केवल कर्मकांड भी नहीं है। इनके राज गहरे हैं। केवल कर्मकाण्ड मानकर पूजा-पाठ करने से बात नहीं बनेगी।

शिव पूरक हैं। शिवत्व पूर्णता है। इनके व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह के जीवन में खास महत्व हैं। शिव के प्रचलित स्वरूप को ही देखें तो उनके हर अंग, आभूषण और मुद्रा का महत्व है। जैसे - जैसे आप इसे समझते हैं आप शिवमय होते जाते हैं। शिवत्व आपमें उतरता जाता है और आप सरस हो जाते हैं। केवल शिव ही हैं जिनकी आराधना के साथ अमर होने का वरदान जुड़ा हुआ है। वैसे तो शिव इतने व्यापक हैं कि उनके लेशमात्र का वर्णन करने की योग्यता मुझमें नहीं है, लेकिन उन्हीं की इच्छा से कोशिश करते हैं।

शिव की वेश-भूषा को देखिए। सर पर गंगा और चंद्रमा, माथे पर तीसरी खुली हुई आंख, कंठ और हाथों में सर्प, कंधे पर जनेउ, कमर में वाघम्बर, बाघम्बर का आसन, पद्मासन में भैरवी मुद्रा, त्रिशूल और डमरू। साथ में माता पार्वती और उनका वाहन नंदी। यह शिव की वाह्य छवि है जिसे हम देखते हैं। अगर हमें शिव को निरूपित करना हो तो हम कुछ ऐसी ही छवि बनाएंगे। सर के जिस स्थान पर गंगा को दर्शाया जाता है भारतीय शरीर शास्त्र (तंत्र) में उसे सहस्रार चक्र के रूप में परिभाषित किया गया है। जब बच्चा पैदा होता है तो सिर के मध्य भाग में एक स्थान बहुत कोमल होता है। बहुत दिनों तक उस स्थान पर होने वाले स्पंदन को प्रकट रूप में देखा जा सकता है। जैसे जैसे हमारी कोमलता नष्ट होने लगती है धीरे-धीरे वह स्थान भी कठोर हो जाता है। वह स्थान तंत्र में सहस्रार के रूप में परिभाषित है। सहस्रार का सामान्य अर्थ समझना हो तो उसे सहस्रदल कमल कह लें। वह अमरता का स्रोत है। सिर के उस हिस्से की बनावट ऐसी है जैसी कमल की पंखुड़ियां। कमल कहां पैदा होता है? पानी में। जल का पवित्रतम रूप हैं गंगा। और गंगा का उद्गम क्षेत्र है शिव की जटा। इसका मतलब यह हुआ कि गंगा को वहां स्थापित करने के पीछे कारण हैं। हम प्रतीक रूप में गंगा को देखकर यह समझ लें कि वह स्थान अमरता का केन्द्र है। उस केन्द्र तक पहुंचना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए शिव ही साधना की अनेक विधियां बताते हैं जो विभिन्न शास्त्रों में वर्णित हैं। सामान्य जीवन में गंगा का क्या महत्व है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।

उससे थोड़ा नीचे चंद्रमा स्थापित हैं। शिव के शरीर में जिस स्थान पर चंद्रमा का दर्शन होता है तंत्र में उस स्थान को बिन्दु विसर्ग कहते हैं। भौतिक शरीर में यह स्थान बुद्धि का केन्द्र है। चंद्रमा का स्वभाव शीतल है। बुद्धि शीतल हो। शांत हो। चंद्रमा इसी बात का संकेत हैं।

कंठ और भुजाओं पर सर्प की माला। संभवत: शिव की भारतीय मानस में स्थापना का ही परिणाम है कि सांप का सामान्य जीवन में बड़ा आदर है। सांपों का इतना आदर दुनिया के शायद ही किसी देश में हो। सांप पर्यावास के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण जीव होता है। संभवत: सांप ही एकमात्र ऐसा जीव होता है जो अपनी पूरा कायाकल्प कर लेता है। कंठ में जो चक्र स्थापित है उसका नाम है विशुद्धि। विशुद्धि चक्र शरीर में कई तरह के रसों का उत्पादन करता है जो पाचक रसों के रूप में जाने जाते हैं। अगर इन पाचक रसों में व्यवधान आ जाए तो व्यक्ति में कई तरह के रोग घर कर जाते हैं। तंत्र के साधक ऐसा कहते हैं कि विशुद्धि चक्र जागृत हो जाता है तो व्यक्ति में विष को पचा लेने की क्षमता अपने-आप आ जाती है। वह रसों का स्वामी हो जाता है। सांप को प्रतीक रूप में चुनने का एक और अर्थ है। शरीर के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति का स्थान होता है। उस स्थान को मूलाधार चक्र कहते हैं। मूलाधार चक्र जागृत होने पर वह शक्ति उर्ध्वगामी होती है और शरीर के सारे चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में जाकर विस्फोट करती है। इस सुसुप्त शक्ति का जो आकार है वह कुंडली मारकर बैठे हुए सर्प जैसी है। इड़ा और पिंगड़ा नाड़ियां सुषुम्ना को लपेटे हुए उपर की तरफ चलती हैं। इसलिए सांप को शिव के गले में प्रतीक रूप में रखने के पीछे यह महत्वपूर्ण कारण है।

इसी तरह शिव के माथे पर एक अधखुली आंख के दर्शन होते हैं। उसे त्रिनेत्र कहते हैं। शिव का यह त्रिनेत्र तंत्र में आज्ञा चक्र के रूप में परिभाषित है। आज्ञा चक्र सभी चक्रों का नियंत्रण करता है। उच्चतर साधनाओं के लिए त्रिनेत्र का खुलना जरूरी है। क्योंकि साधना के दौरान यह शरीर एक अनंत उर्जा का स्रोत बनता चला जाता है। इस उर्जा का समायोजन त्रिनेत्र के खुलने पर ही हो सकता है। अन्यथा कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति साधना के दौरान अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। त्रिनेत्र अथवा आज्ञा चक्र के खुलने पर हम एक नये ब्रह्माण्ड में पहुंच जाते हैं। इन दो आंखों से हम जो जगत देख पाते हैं त्रिनेत्र उसके परे के जगत से हमारा साक्षात्कार करवाता है। शिव के भाल पर त्रिनेत्र दर्शाने का संभवत: यही अर्थ है। क्योंकि जिन्हें तंत्र में चक्रों के रूप में परिभाषित किया गया है उनका कोई आकार तो है नहीं। वह उर्जा केन्द्र है। शिव में उन उर्जा केन्द्रों को उनके व्यवहार के अनुकूल दर्शाया गया है। आज्ञा चक्र का जो व्यवहार है उसको त्रिनेत्र के रूप इसीलिए दिखाया गया है।

भगवान शिव को सर्वाधिक प्रिय

• अखण्ड बिल्वपत्र भगवान शिव को अत्यन्त प्रिय है। जो श्रध्दापूर्वक नम: शिवाय मंत्र जाप करते हुए शिव लिंग पर बेलपत्र अर्पित करता है वह सभी पापों से मुक्त हो शिव के परमधाम में स्थान पाता है। यहाँ तक कि बिल्वपत्र के दर्शन, स्पर्श व वंदना से ही दिन-रात के किये पापों से छुटकारा मिल जाता है।

• इसके अलावा भगवन् भोलेनाथ को आक-धतूरा विजया भांग आदि भी अति प्रिय हैं।

• पत्र, पुष्प, फल अथवा स्वच्छ जल तथा कनेर से भी भगवान् शिव की पूजा करके मनुष्य उन्हीं के समान हो जाता है। आक (मदार) का फूल कनेर से दसगुना श्रेष्ठ माना गया है।

• आक के फूल से भी दस गुना श्रेष्ठ है धतूरे आदि का फल। नील कमल एक हजार कह्लार (कचनार) से भी श्रेष्ठ माना गया है।
• शिवरात्रि व्रत करते हुए शिवोपासना से मनुष्य के त्रिविध तापों का शमन हो जाता है, संकटव कष्ट के बादल छंट जाते हैं, कर्मज व्याधियों व ग्रह बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है। इससे अकाल मृत्यु को टाला जा सकता है, मोक्ष प्राप्ति होती है। इस पर्व पर मनुष्य जिस मनोकामना से जिस रूप में शिव की आराधना करता है वह पूरी होती है और भोले शंकर उसी रूप में प्रसन्न होकर फल भी प्रदान करते हैं।

• जो व्यक्ति रोग ग्रस्त होकर बिस्तर पर पड़ा है, वह भी महामृत्युंजय के जाप से अपने को स्वस्थ अनुभव करने लगता है।

• घर में कलह, व्यापार में मंदी, कुसंतान, रोग, भाग्य में रूकावट, भाइयों में मतभेद आदि हो तब भी मनुष्य को शिवरात्रि के दिन कालसर्प शांति अवश्य करवा लेनी चाहिए। इस प्रकार की बाधाओं से मुक्ति के लिए शिवरात्रि से बढ़कर दूसरा उत्तम मुहूर्त नहीं।

• जिन व्यक्तियों को ‘शनि की साढेसाती’ प्रतिकूलता का संकेत दे रही हो उसका शमन शिव आराधना के द्वारा बड़ी सरलता से किया जा सकता है, उसके अलावा और कोई दूसरी आराधना उसे सरलता से शांत नहीं कर सकती।

• शिव गृहस्थ जीवन के आदर्श है जो अनासक्त रहते हुए भी पूर्ण गृहस्थ स्वरूप हैं। इनकी आराधना से मनुष्य के गृहस्थ जीवन में अनुकूलता प्राप्त होती है और वह सुखमय गृहस्थी का स्वामी बनता है।

• भगवान शिव सौभाग्य दायक हैं। अत: इस रात्रि में कुंवारी कन्या द्वारा इनकी आराधना करने से उसे मनोवांछित वर की प्राप्ति होती है।

• जो स्त्री संतान सुख की कामना से शिवरात्रि पर शिव की पूजा अर्चना करती है उसे शिव कृपा से संतान की भी प्राप्ति होती है, क्योंकि शिव पुत्र प्रदान करने वाले देवता हैं।

• भगवान शिव परमपिता परमात्मा के सम्पूर्ण स्वरूप है इसलिए इनकी आराधना जीवन पर्यन्त की जाती है और विशेषकर शिवरात्रि पर इनकी आराधना से व्यक्ति अपने इष्ट के दर्शन पाकर धन्य हो जाता है एवं उसके समस्त मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।

सर्पशैय्या पर आसीन है शिव परिवार

देश के बारह ज्योतिर्लिगोंमें प्रमुख प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के शीर्ष पर स्थित नागचंद्रेश्वरमंदिर में देवाधिदेव भगवान शिव की एक ऐसी विलक्षण प्रतिमा है, जिसमें वह अपने पूरे परिवार के साथ सर्प सिंहासन पर आसीन है।

हिंदू मान्यताओं के अनुसार सर्प भगवान शिव का कंठाहारऔर भगवान विष्णु का आसन है लेकिन यह विश्व का संभवत:एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां भगवान शिव, माता पार्वती एवं उनके पुत्र गणेशजीको सर्प सिंहासन पर आसीन दर्शाया गया है। वर्ष में केवल एक दिन नागपंचमी पर इस मंदिर के पट 24घंटे के लिए खुलते है और इस दौरान दूरदराज से आने वाले श्रद्धालुओं की भारी भीड उमड पडती है। शनिवार को नागपंचमी का पर्व होने की वजह से शुक्रवार की मध्यरात्रि से ही इस मंदिर में भगवान शिव के दर्शनों के लिए भक्तों की कतार लगने का सिलसिला आरंभ हो जाएगा।

महाकाल भक्त मंडल के अध्यक्ष एवं महाकालेश्वर मंदिर के पुजारी पंडित रमण त्रिवेदी ने बताया कि पौराणिक मान्यता के अनुसार सर्पोके राजा तक्षक ने भगवान शंकर की यहां घनघोर तपस्या की थी। तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए और तक्षक को अमरत्व का वरदान दिया। ऐसा माना जाता है कि उसके बाद से तक्षक नाग यहां विराजितहै, जिस पर शिव और उनका परिवार आसीन है। एकादशमुखीनाग सिंहासन पर बैठे भगवान शिव के हाथ-पांव और गले में सर्प लिपटे हुए है।

इस अत्यंत प्राचीन मंदिर का परमार राजा भोज ने एक हजार और 1050ईस्वी के बीच पुनर्निर्माण कराया था। 1732में तत्कालीन ग्वालियर रियासत के राणाजीसिंधिया ने उज्जयिनीके धार्मिक वैभव को पुन:स्थापित करने के भागीरथी प्रयास के तहत महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णाेद्धार कराया। प्रतिवर्ष श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन नागपंचमी का पर्व पडता है और इस दिन नाग की पूजा की जाती है।

इस दिन कालसर्पयोग की शांति के लिए यहां विशेष पूजा के आयोजन भी होते है। श्री महाकाल ज्योतिष अनुसंधान केंद्र के संचालक और ज्योतिषाचार्य पंडित कृपाशंकर व्यास ने बताया कि नागचन्द्रेश्वरमंदिर दुनिया में अपनी तरह का एक ही मंदिर है।उन्होने कहा कि यहां पूजा-पाठ का विशेष महत्व है।

महाशिवरात्रि की व्रत-कथा

एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?'

उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।

शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया।

अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।

पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।

एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।

कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।'

शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मार।'

शिकारी हँसा और बोला, 'सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।'

उत्तर में मृगी ने फिर कहा, 'जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।'

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा।

शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,' हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।'

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।'

उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।

थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।

देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।'

शिव परिवार

देवी पार्वती-

यह शिव की शक्ति हैं। शिव की अनाम शक्ति ही अलग-अलग नाम धारण करती है। लक्ष्मी से लेकर राधा तक, सब शिव की शक्तियां ही हैं। पार्वती पूर्वजन्म में सती थीं। वह शिव की प्रेरणा हैं। शिव भोले हैं, पार्वती उनकी बुद्धिशक्ति हैं। वह शिव को जगाने का साहस करती है। पार्वती का वाहन सिंह है, जो शिव द्वारा ही दिया गया है। पार्वती को शिव, उमा या गौरी नाम से बुलाते हैं।

पुत्र गणोश-

गणोश का सिर काटकर शिव ने हाथी का सिर लगा दिया था, बाद में वरदान स्वरूप अपने गणों का मुखिया बना दिया। गणोश शिव की क्षुधा यानी भूख शक्ति हैं। शिव ख़ुद आहार नहीं लेते, बल्कि गणोश खाते हैं। जितना खाते हैं, सब महादेव के पेट में जाता है, लेकिन पेट गणोश का बड़ा होता है। यानी शिव गणोश से लेकर भी नहीं लेते। रस ले लेते हैं, बाक़ी गणोश को दे देते हैं। गणोश को उन्होंने बुद्धि, शौर्य और बोलने-सुनने की शक्ति दी है। इसी शक्ति के कारण गणोश व्यास से सुन-सुनकर उतनी ही गति से महाभारत को लिख सके। गणोश की पत्नी ऋद्धि और सिद्धि हैं, इनके दो पुत्र हैं क्षेम और लाभ। ऋद्धि के कारण दुनिया में बुद्धि का प्रसार हुआ, सिद्धि ने साधना का प्रसार किया। बेटे क्षेम के कारण लोग कुशलता से रहना सीख पाए और लाभ ने सफलता के भाव का प्रसार किया।

बेटा कार्तिकेय-

कार्तिकेय दया और कृपा के देव हैं। शिव जगत के प्रति अपना प्रेम इन्हीं के ज़रिए व्यक्त करते हैं। दक्षिण भारत में कार्तिकेय की विशेष पूजा होती हैं। शिव ने जैसे रावण के भाई कुबेर को उत्तर भारत का संपत्ति-राज्य सौंपा था, उसी तरह कार्तिकेय को दक्षिण भारत का। दक्षिण दिशा में निवास करने वालों को संपन्नता के लिए कार्तिकेय की आराधना करनी चाहिए। उत्तर में कुबेर की आराधना होती है, किंतु देवरूप में नहीं, क्योंकि कुबेर मात्र क्षेत्रपाल हैं, देव नहीं। वह असुर योनि के हैं। कार्तिकेय का वाहन है मयूर और पत्नी हैं देवसेना, जो देवताओं की पूरी सेना को नियंत्रित करती हैं। यह भी शिव की एक अव्यक्त शक्ति ही हैं।

गणसेना- शिव अपने गणों से बहुत प्रेम करते हैं। ये गण साधारण नहीं, बल्कि बहुत डरावने हैं। शिव के साथ 11 रुद्र, 11 रुद्रिणियां, चौंसठ योगिनियां, अनगिनत मातृकाएं व 108 भैरव हैं। इस सेना के अध्यक्ष वीरभद्र हैं, जिनके पास अनगिनत रुद्र हैं। कालिकापुराण के अनुसार सीधे शिवराज से वार्ता करने वाले 36 करोड़ प्रमथगण उनकी सेना में हैं। शिव के पार्षदों व क्षेत्रपालों में प्रमुख हैं-बाण, रावण, चंडी, रिटि, भृंगी, लाटा, गोरिल और विजया, जो कि माता पार्वती की ख़ास सखी हैं। शिव के प्रमुख द्वाररक्षक हैं कीर्तिमुख।

बाल गणोश ने सिर कटने से पहले इन्हीं के साथ युद्ध किया था। शिव और शक्ति को अलग मानने वाले ध्यान दें कि आदिशक्ति महादेवी दुर्गा, जिन्हें चंडिका, काली, गढ़देवी, त्रिपुरसुंदरी, अंबा जैसे कई नामों से जाना जाता है, की सेना भी यही है। मात्र एक अंतर है- शिव अपने सेनाध्यक्ष को वीरभद्र के नाम से पुकारते हैं, जबकि आदिशक्ति अपने सेनाध्यक्ष को कालभैरव नाम से। वीरभद्र और कालभैरव एक ही हैं। दोनों शिव के ही लीलावतार हैं। यह भी ध्यान देने लायक़ बात है कि शिव ही वह एकमात्र देव हैं, जिनकी सेना में स्त्री की भी जगह है। योगिनियां और मातृकाएं शिव की स्त्री-शक्ति में विश्वास का ही प्रतीक है।

शिवलिंग पूजा का महत्व

श्री शिवमहापुराण के सृष्टिखंड अध्याय १२श्लोक ८२से८६ में ब्रह्मा जी के पुत्र सनत्कुमार जी वेदव्यास जी को उपदेश देते हुए कहते है कि हर गृहस्थ को देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर पंचदेवों (श्री गणेश,सूर्य,विष्णु,दुर्गा,शंकर) की प्रतिमाओं में नित्य पूजन करना चाहिए क्योंकि शिव ही सबके मूल है, मूल (शिव)को सींचने से सभी देवता तृत्प हो जाते है परन्तु सभी देवताओं को तृप्त करने पर भी प्रभू शिव की तृप्ति नहीं होती। यह रहस्य देहधारी सद्गुरू से दीक्षित व्यक्ति ही जानते है।
सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु ने एक बार ,सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के साथ निर्गुण-निराकार- अजन्मा ब्रह्म(शिव)से प्रार्थना की, "प्रभों! आप कैसे प्रसन्न होते है।"

प्रभु शिव बोले,"मुझे प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग का पूजन करो। जब जब किसी प्रकार का संकट या दु:ख हो तो शिवलिंग का पूजन करने से समस्त दु:खों का नाश हो जाता है।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय श्लोक से पृष्ठ )

(२) जब देवर्षि नारद ने श्री विष्णु को शाप दिया और बाद में पश्चाताप किया तब श्री विष्णु ने नारदजी को पश्चाताप के लिए शिवलिंग का पूजन, शिवभक्तों का सत्कार, नित्य शिवशत नाम का जाप आदि क्रियाएं बतलाई।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय श्लोक से पृष्ठ )

(३) एक बार सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी देवताओं को लेकर क्षीर सागर में श्री विष्णु के पास परम तत्व जानने के लिए पहुॅचे । श्री विष्णु ने सभी को शिवलिंग की पूजा करने की आज्ञा दी और विश्वकर्मा को बुलाकर देवताओं के अनुसार अलग-अलग द्रव्य के शिवलिंग बनाकर देने की आज्ञा दी और पूजा विधि भी समझाई।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय १२ )

(४) रूद्रावतार हनुमान जी ने राजाओं से कहा कि श्री शिवजी की पूजा से बढ़कर और कोई तत्व नहीं है। हनुमान जी ने एक श्रीकर नामक गोप बालक को शिव-पूजा की दीक्षा दी। (प्रमाण श्री शिवमहापुराण कोटीरूद्र संहिता अध्याय १७ ) अत: हनुमान जी के भक्तों को भी भगवान शिव की प्रथम पूजा करनी चाहिए।

(५) ब्रह्मा जी अपने पुत्र देवर्षि नारद को शिवलिंग की पूजा की महिमा का उपदेश देते है। देवर्षि नारद के प्रश्न और ब्रह्मा जी के उत्तर पर ही श्री शिव महापुराण की रचना हुई है। पार्वती जगदम्बा के अत्यन्त आग्रह से, जनकल्याण के लिए, निर्गुण निराकार अजन्मा ब्रह्म (शिव) ने सौ करोड़ श्लोकों में श्री शिवमहापुराण की रचना की। चारों वेद और अन्य सभी पुराण, श्री शिवमहापुराण की तुलना में नहीं आ सकते। प्रभू शिव की आज्ञा से विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने श्री शिवमहापुराण को २४६७२ श्लोकों में संक्षिप्त किया है। ग्रन्थ विक्रेताओं के पास कई प्रकार के शिवपुराण उपलब्ध है परन्तु वे मान्य नहीं है केवल २४६७२ श्लोकों वाला श्री शिवमहापुराण ही मान्य है। यह ग्रन्थ मूलत: देववाणी संस्कृत में है और कुछ प्राचीन मुद्रणालयों ने इसे हिन्दी, गुजराती भाषा में अनुदित किया है। श्लोक संख्या देखकर और हर वाक्य के पश्चात् श्लोक क्रमांक जॉंचकर ही इसे क्रय करें। जो व्यक्ति देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर , एक बार गुरूमुख से श्री शिवमहापुराण श्रवण कर फिर नित्य संकल्प करके (संकल्प में अपना गोत्र,नाम, समस्याएं और कामनायें बोलकर)नित्य श्वेत ऊनी आसन पर उत्तर की ओर मुखकर के श्री शिवमहापुराण का पूजन करके दण्डवत प्रणाम करता है और मर्यादा-पूर्वक पाठ करता है, उसे इस प्रकार सम्पूर्ण २४६७२ श्लोकों वाले श्री शिवमहापुराण का बोलते हुए सात बार पाढ करने से भगवान शंकर का दर्शन हो जाता है। पाठ करते समय स्थिर आसन हो, एकाग्र मन हो, प्रसन्न मुद्रा हो, अध्याय पढते समय किसी से वार्ता नहीं करें, किसी को प्रणाम नहीं करे और अध्याय का पूरा पाठ किए बिना बीच में उठे नहीं। श्री शिवमहापुराण पढते समय जो ज्ञान प्राप्त हुआ उसे व्यवहार में लावें।श्री शिव महापुराण एक गोपनीय ग्रन्थ है। जिसका पठन (परीक्षा लेकर) सात्विक, निष्कपटी, प्रभू शिव में श्रद्धा रखने वालों को ही सुनाना चाहिए।

(६) जब पाण्ड़व लोग वनवास में थे , तब भी कपटी, दुर्योधन , पाण्ड़वों को कष्ट देता था।(दुर्वासा ऋषि को भेजकर तथा मूक नामक राक्षस को भेजकर) तब पाण्ड़वों ने श्री कृष्ण से दुर्योधन के दुर्व्यवहार के लिए कहा और उससे राहत पाने का उपाय पूछा। तब श्री कृष्ण ने उन सभी को प्रभू शिव की पूजा के लिए सलाह दी और कहा "मैंने सभी मनोरथों को प्राप्त करने के लिए प्रभू शिव की पूजा की है और आज भी कर रहा हॅूॅ।तुम लोग भी करो।" वेदव्यासजी ने भी पाण्ड़वों को भगवान् शिव की पूजा का उपदेश दिया। हिमालय में, काशी में,उज्जैन में, नर्मदा-तट पर या विश्व में कहीं भी चले जायें, प्रत्येक स्थान पर सबसे सनातन शिवलिंग की पूजा ही है। मक्का मदीना में एवं रोम के कैथोलिक चर्च में भी शिवलिंग स्थापित है परन्तु सही देहधारी सद्गुरू से दीक्षा न लेकर ,सही पूजा न करने से ही हमें सांसारिक सभी सुख प्राप्त नहीं हो रहे है।

श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय ११ श्लोक १२से १५ में श्री शिव-पूजा से प्राप्त होने वाले सुखों का वर्णन निम्न प्रकार से है:- दरिद्रता, रोग सम्बन्धी कष्ट, शत्रु द्वारा होने वाली पीड़ा एवं चारों प्रकार का पाप तभी तक कष्ट देता है, जब तक प्रभू शिव की पूजा नहीं की जाती। महादेव का पूजन कर लेने पर सभी प्रकार का दु:ख नष्ट हो जाता है, सभी प्रकार के सुख प्राप्त हो जाते है और अन्त में मुक्ति लाभ होता है। जो मनुष्य जीवन पाकर उसके मुख्य सुख संतान को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें सब सुखों को देने वाले महादेव की पूजा करनी चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र विद्यिवत शिवजी का पूजन करें। इससे सभी मनोकामनाएं सिद्द्ध हो जाती है।

प्रमाण श्री शिवमहापुराण

त्रयोदशी, फाल्गुन, कृष्ण पक्ष, २०७० विक्रम सम्वत 2014 Maha Shivaratri महाशिवरात्रि








प्रदोष व्रत, महा शिवरात्रि त्रयोदशी, फाल्गुन, कृष्ण पक्ष, २०७० विक्रम सम्वत 2014 Maha Shivaratri

महाशिवरात्रि

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान् शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं।

विधान

इस दिन शिवभक्त, शिव मंदिरों में जाकर शिवलिंग पर बेल-पत्र आदि चढ़ाते, पूजन करते, उपवास करते तथा रात्रि को जागरण करते हैं। शिवलिंग पर बेल-पत्र चढ़ाना, उपवास तथा रात्रि जागरण करना एक विशेष कर्म की ओर इशारा करता है।

इस दिन शिव की शादी हुई थी इसलिए रात्रि में शिवजी की बारात निकाली जाती है। वास्तव में शिवरात्रि का परम पर्व स्वयं परमपिता परमात्मा के सृष्टि पर अवतरित होने की स्मृति दिलाता है। यहां रात्रि शब्द अज्ञान अन्धकार से होने वाले नैतिक पतन का द्योतक है। परमात्मा ही ज्ञानसागर है जो मानव मात्र को सत्यज्ञान द्वारा अन्धकार से प्रकाश की ओर अथवा असत्य से सत्य की ओर ले जाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री-पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध सभी इस व्रत को कर सकते हैं। इस व्रत के विधान में सवेरे स्नानादि से निवृत्त होकर उपवास रखा जाता है।

विधि

इस दिन मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर, ऊपर से बेलपत्र, आक धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर ‘शिवलिंग’ पर चढ़ाया जाता है। अगर पास में शिवालय न हो, तो शुद्ध गीली मिट्टी से ही शिवलिंग बनाकर उसे पूजने का विधान है।

रात्रि को जागरण करके शिवपुराण का पाठ सुनना हरेक व्रती का धर्म माना गया है।

अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है।

महाशिवरात्रि भगवान शंकर का सबसे पवित्र दिन है। यह अपनी आत्मा को पुनीत करने का महाव्रत है। इसके करने से सब पापों का नाश हो जाता है। हिंसक प्रवृत्ति बदल जाती है। निरीह जीवों के प्रति दया भाव उपज जाता है। ईशान संहिता में इसकी महत्ता का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-

॥शिवरात्रि व्रतं नाम सर्वपापं प्रणाशनम्। आचाण्डाल मनुष्याणं भुक्ति मुक्ति प्रदायकं॥

विशेष

चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव हैं। अत: ज्योतिष शास्त्रों में इसे परम शुभफलदायी कहा गया है। वैसे तो शिवरात्रि हर महीने में आती है। परंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि कहा गया है।ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य देव भी इस समय तक उत्तरायण में आ चुके होते हैं तथा ऋतु परिवर्तन का यह समय अत्यन्त शुभ कहा गया हैं। शिव का अर्थ है कल्याण। शिव सबका कल्याण करने वाले हैं। अत: महाशिवरात्रि पर सरल उपाय करने से ही इच्छित सुख की प्राप्ति होती है।

ज्योतिषीय गणित के अनुसार चतुर्दशी तिथि को चंद्रमा अपनी क्षीणस्थ अवस्था में पहुंच जाते हैं। जिस कारण बलहीन चंद्रमा सृष्टि को ऊर्जा देने में असमर्थ हो जाते हैं। चंद्रमा का सीधा संबंध मन से कहा गया है। मन कमजोर होने पर भौतिक संताप प्राणी को घेर लेते हैं तथा विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है। इससे कष्टों का सामना करना पड़ता है।

चंद्रमा शिव के मस्तक पर सुशोभित है। अत: चंद्रदेव की कृपा प्राप्त करने के लिए भगवान शिव का आश्रय लिया जाता है। महाशिवरात्रि शिव की प्रिय तिथि है। शिव आदि-अनादि है

शिकारी कथा

एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?' उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक गांव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकार को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।'

शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।

पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई।

कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे मत मारो।

शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़फ रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।' उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान् शिव की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।

थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए'। भगवान शंकर की महिमा का वर्णन अनेक धर्मग्रंथों में किया गया है। सभी में एक ही बात कही गई है कि भगवान शिव अपने भक्तों का कल्याण करने के लिए तत्पर रहते हैं। यदि एक लौटा जल प्रतिदिन शिव पर जढ़ाया जाए तो भी भगवान शिव अपने भक्त से प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान शंकर की पूजा से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति संभव है। भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए यदि शिवाष्टक का जप किया जाए तो विशेष फल मिलता है 



शिवमानसपूजा

रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं
नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम्
जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम् ..१..

हे दयानिधे, हे पशुपते, मैंने आपके लिए एक रत्नजड़ित सिहांसन की कल्पना की है, स्नान के लिए हिमालय सम शीतल जल, नाना प्रकार के रत्न जड़ित दिव्य वस्त्र, तथा कस्तुरि, चन्दन, विल्व पत्र एवं जुही, चम्पा इत्यादि पुष्पांजलि तथा धूप-दीप ये सभी मानसिक पूजा उपहार ग्रहण करें।

सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् .
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ..२..

हे महादेव, मैंने अपने मन में नवीन रत्नखण्डों से जड़ित स्वर्ण पात्रों में धृतयूक्त खीर, दुध एवं दही युक्त पाँच प्रकार के व्यंजन, रम्भा फल एवं शुद्ध मीठा जल ताम्बुल और कर्पूर से सुगन्धित धुप आपके लिए प्रस्तुत किया है। हे प्रभू मेरी इस भक्ति को स्वीकार करें।

छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलम्
वीणाभेरिमृदङ्गकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा .
साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया
सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ..३..

हे प्रभो! मैंने सकंल्प द्वारा आपके लिए एक छ्त्र, दो चंवर, पंखा एव निर्मल दर्पन की कल्पना की है। आपको साष्टाङ्ग प्रणाम करते हुए, तथा विणा, भेरि एवं मृदङ्ग के साथ गीत, नृत्य एव बहुदा प्रकार की स्तुति प्रस्तुत करता हूँ। हे प्रभो! मेरी इस पूजा को ग्रहण करें।

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः .
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् .. ४..

हे शम्भों ! आप मेरी आत्मा हैं, माँ भवानी मेरी बुद्धी हैं, मेरी इन्द्रियाँ आपके गण हैं एवं मेरा शरीर आपका गृह है। सम्पुर्ण विषय-भोग की रचना आपकी ही पूजा है। मेरे निद्रा की स्थिति समाधि स्थिति है, मेरा चलना आपकी ही परिक्रमा है, मेरे शब्द आपके ही स्तोत्र हैं। वास्त्व में मैं जो भी करता हूँ वह सब आपकी आराधना ही है।

करचरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा .
श्रवणनयनजं वा मानसंवापराधम् .
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व .
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेवशम्भो .. ५..

हे प्रभो! मेरे हाथ या पैर द्वारा, कर्म द्वारा, वाक्य या स्रवण द्वारा या मन द्वारा हुए समस्त विहित अथवा अविहित अपराधों को क्षमा करें। हे करूणा मय महादेव सम्भों आपकी सदा जय हो।

वेदसार शिवस्तव

आदिगुरू श्री शंकराचार्य द्वारा रचित यह शिवस्तव वेद वर्णित शिव की स्तुति प्रस्तुत करता है। शिव के रचयिता, पालनकर्ता एव विलयकर्ता विश्वरूप का वर्णन करता यह स्तुति संकलन करने योग्य है।

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं
गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्

(हे शिव आप) जो प्राणिमात्र के स्वामी एवं रक्षक हैं, पाप का नाश करने वाले परमेश्वर हैं, गजराज का चर्म धारण करने वाले हैं, श्रेष्ठ एवं वरण करने योग्य हैं, जिनकी जटाजूट में गंगा जी खेलती हैं, उन एक मात्र महादेव को बारम्बार स्मरण करता हूँ|

महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्

हे महेश्वर, सुरेश्वर, देवों (के भी) दु:खों का नाश करने वाले विभुं विश्वनाथ (आप) विभुति धारण करने वाले हैं, सूर्य, चन्द्र एवं अग्नि आपके तीन नेत्र के सामान हैं। ऎसे सदा आनन्द प्रदान करने वाले पञ्चमुख वाले महादेव मैं आपकी स्तुति करता हूँ।

गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं
गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्

(हे शिव आप) जो कैलाशपति हैं, गणों के स्वामी, नीलकंठ हैं, (धर्म स्वरूप वृष) बैल की सवारी करते हैं, अनगिनत गुण वाले हैं, संसार के आदि कारण हैं, प्रकाश पुञ सदृश्य हैं, भस्मअलंकृत हैं, जो भवानिपति हैं, उन पञ्चमुख (प्रभु) को मैं भजता हूँ।

शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले
महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप

हे शिवा (पार्वति) पति, शम्भु! हे चन्द्रशेखर! हे महादेव! आप त्रीशूल एवं जटाजूट धारण करने वाले हैं। हे विश्वरूप! सिर्फ आप ही स्मपुर्ण जगद में व्याप्त हैं। हे पूर्णरूप आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों।

परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं
निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्

हे एकमात्र परमात्मा! जगत के आदिकारण! आप इक्षारहित, निराकार एवं ॐकार स्वरूप वाले हैं। आपको सिर्फ प्रण (ध्यान) द्वारा ही जान जा सकता है। आपके द्वारा ही सम्पुर्ण सृष्टी की उतपत्ति होती है, आपही उसका पालन करते हैं तथा अंतत: उसका आप में ही लय हो जाता है। हे प्रभू मैं आपको भजता हूँ।

न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायु-
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे

जो न भुमि हैं, न जल, न अग्नि, न वायु और न ही आकाश, – अर्थात आप पंचतत्वों से परे हैं। आप तन्द्रा, निद्रा, गृष्म एवं शीत से भी अलिप्त हैं। आप देश एव वेश की सीमा से भी परे हैं। हे निराकार त्रिमुर्ति मैं आपकी स्तुति करता हूँ।

अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्

हे अजन्मे (अनादि), आप शाश्वत हैं, नित्य हैं, कारणों के भी कारण हैं। हे कल्यानमुर्ति (शिव) आप ही एक मात्र प्रकाशकों को भी प्रकाश प्रदान करने वाले हैं। आप तीनो अवस्ताओं से परे हैं। हे आनादि, अनंत आप जो कि अज्ञान से परे हैं, आपके उस परम् पावन अद्वैत स्वरूप को नमस्कार है।

नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥

हे विभो, हे विश्वमूर्ते आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे सबको आनन्द प्रदान करने वाले सदानन्द आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे तपोयोग ज्ञान द्वारा प्राप्त्य आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे वेदज्ञान द्वारा प्राप्त्य (प्रभु) आपको नमस्कार है, नमस्कार है।

प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः

हे त्रिशूलधारी ! हे विभो विश्वनाथ ! हे महादेव ! हे शंभो ! हे महेश ! हे त्रिनेत्र ! हे पार्वतिवल्लभ ! हे शान्त ! हे स्मरणिय ! हे त्रिपुरारे ! आपके समक्ष न कोई श्रेष्ठ है, न वरण करने योग्य है, न मान्य है और न गणनीय ही है।

शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि

हे शम्भो! हे महेश ! हे करूणामय ! हे शूलपाणे ! हे गौरीपति! हे पशुपति ! हे काशीपति ! आप ही सभी प्रकार के पशुपाश (मोह माया) का नाश करने वाले हैं। हे करूणामय आप ही इस जगत के उत्तपत्ति, पालन एवं संहार के कारण हैं। आप ही इसके एकमात्र स्वामि हैं।

त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन्

हे चराचर विश्वरूप प्रभु, आपके लिंगस्वरूप से ही सम्पुर्ण जगत अपने अस्तित्व में आता है (उसकी उत्तपत्ती होती है), हे शंकर ! हे विश्वनाथ अस्तित्व में आने के उपरांत यह जगत आप में ही स्थित रहता है – अर्थात आप ही इसका पालन करते हैं। अंतत: यह सम्पुर्ण श्रृष्टी आप में ही लय हो जाती है।
शिव

अनादि, अनंत, देवाधिदेव, महादेव शिव परंब्रह्म हैं| सहस्र नामों से जाने जाने वाले त्र्यम्बकम् शिव साकार, निराकार, ॐकार और लिंगाकार रूप में देवताओं, दानवों तथा मानवों द्वारा पुजित हैं| महादेव रहस्यों के भंडार हैं| बड़े-बड़े ॠषि-महर्षि, ज्ञानी, साधक, भक्त और यहाँ तक कि भगवान भी उनके संम्पूर्ण रहस्य नहीं जान पाए| आशुतोष भगवान अपने व्यक्त रूप में त्रिलोकी के तीन देवताओं में ब्रह्मा एवं विष्णु के साथ रुद्र रूप में विराजमान हैं| ये त्रिदेव, हिन्दु धर्म के आधार और सर्वोच्च शिखर हैं| पर वास्तव में महादेव त्रिदेवों के भी रचयिता हैं| महादेव का चरित्र इतना व्यापक है कि कइ बार उनके व्याख्यान में विरोधाभाष तक हो जाता है| एक ओर शिव संहारक कहे जाते हैं तो दूसरी ओर वे परंब्रह्म हैं जिस लिंगाकार रूप में वे सबसे ज्यादा पूज्य हैं| जहां वे संसार के मूल हैं वहीं वे अकर्ता हैं| जहां उनका चित्रण श्याम वर्ण में होता है वहीं वे कर्पूर की तरह गोरे, कर्पूर गौरं, माने जाते हैं| जिन भगवान रूद्र के क्रोध एवं तीसरे नेत्र के खुलने के भय से संसार अक्रांत होता है और जो अनाचार करने पर अपने कागभुष्डीं जैसे भक्तों तथा ब्रह्मा जैसे त्रिदेवों को भी दण्डित करने से नहीं चुकते, वही आसुतोष भगवान अपने सरलता के कारण भोलेनाथ हैं तथा थोडी भक्ति से ही किसी से भी प्रसन्न हो जाते हैं| एक ओर रूद्र मृत्यु के देवता माने जाते हैं तो महामृत्यंजय भी उनके अलावा कोई दुसरा नहीं …

पर उस विरोधाभाष में भी एका स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है| आइए जानने की कोशिश करतें हैं आसुतोष भगवान के उन मनमोहन रूपों को जिसकी व्याख्यान प्राचीन आचार्यों तथा देवगणों ने कलमबद्ध किया है|
शिव परंब्रह्म हैं

शिव अनादि हैं, अनन्त हैं, विश्वविधाता हैं| सारे संसार में एक मात्र शिव ही हैं जो जन्म, मृत्यू एवं काल के बंधनो से अलिप्त स्वयं महाकाल हैं| शिव सृष्टी के मूल कारण हैं, फिर भी स्वयं अकर्ता हैं, तटस्थ हैं| सृष्टी से पहले कुछ नहीं था – न धरती न अम्बर, न अग्नी न वायू, न सूर्य न ही प्रकाश, न जीव न ही देव। था तो केवल सर्वव्यपी अंधकार और महादेव शिव। तब शिव ने सृष्टी की परिकल्पना की ।

सृष्टी की दो आवश्यकतायँ थीं – संचालन हेतु शक्ति एवं व्यवस्थापक । शिव ने स्वंय से अपनी शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं शक्ति ने व्यवस्था हेतु एक कर्ता पुरूष का सृजन किया जो विष्णु कहलाय। भगवान विष्णु के नाभि से ब्रह्मा की उतपत्ति हुई। विष्णु भगवान ने ब्रह्मदेव को निर्माण कार्य सौंप कर स्वयं सुपालन का कार्य वहन किया। फिर स्वयं शिव जी के अंशावतार रूद्र ने सृष्टी के विलय के कार्य का वहन किया। इस प्रकार सृजन, सुपालन तथा विलय के चक्र के संपादन हेतु त्रिदेवों की उतपत्ति हुई। इसके उपरांत शिव जी ने संसार की आयू निरधारित की जिसे एक कल्प कहा गया। कल्प समय का सबसे बड़ा माप है। एक कल्प के उपरातं महादेव शिव संपूर्ण सृष्टी का विलय कर देते हैं तथा पुन: नवनिर्माण आरंभ करते हैं जिसकी शुरुआत त्रिदेवों के गठन से होती है| इस प्रकार शिव को छोड शेष सभी काल के बंधन में बंधे होते हैं|

इन परमात्मा शिव का अपना कोई स्वरूप नहीं है, तथा हर स्वरूप इन्हीं का स्वरूप है। शिवलिंग इन्ही निराकार परमात्मा का परीचायक है तथा परम शब्द ॐ इन्हीं की वाणी। (अवश्य देखें शिवलिंग का महत्व)
अर्धनरनारीश्वर…

सृष्टी के निर्माण के हेतु शिव ने अपनी शक्ति को स्वयं से पृथक किया| शिव स्वयं पुरूष लिंग के द्योतक हैं तथा उनकी शक्ति स्त्री लिंग की द्योतक| पुरुष (शिव) एवं स्त्री (शक्ति) का एका होने के कारण शिव नर भी हैं और नारी भी, अतः वे अर्धनरनारीश्वर हैं|

जब ब्रह्मा ने सृजन का कार्य आरंभ किया तब उन्होंने पाया कि उनकी रचनायं अपने जीवनोपरांत नष्ट हो जायंगी तथा हर बार उन्हें नए सिरे से सृजन करना होगा। गहन विचार के उपरांत भी वो किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाय। तब अपने समस्या के सामाधान के हेतु वो शिव की शरण में पहुँचे। उन्होंने शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तप किया। ब्रह्मा की कठोर तप से शिव प्रसन्न हुए। ब्रह्मा के समस्या के सामाधान हेतु शिव अर्धनारीश्वर स्वरूप में प्रगट हुए। अर्ध भाग में वे शिव थे तथा अर्ध में शिवा। अपने इस स्वरूप से शिव ने ब्रह्मा को प्रजन्नशिल प्राणी के सृजन की प्रेरणा प्रदान की। साथ ही साथ उन्होंने पुरूष एवं स्त्री के सामान महत्व का भी उपदेश दिया। इसके बाद अर्धनारीश्वर भगवान अंतर्धयान हो गए।

शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं। तो फिर क्या हैं शिव और शक्ति?


शिव कारण हैं; शक्ति कारक।

शिव संकल्प करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी।

शक्ति जागृत अवस्था हैं; शिव सुशुप्तावस्था।

शक्ति मस्तिष्क हैं; शिव हृदय।

शिव ब्रह्मा हैं; शक्ति सरस्वती।

शिव विष्णु हैं; शक्त्ति लक्ष्मी।

शिव महादेव हैं; शक्ति पार्वती।
 

शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली।

शिव सागर के जल सामन हैं। शक्ति सागर की लहर हैं।

आइये हम समझने की कोशिश करते हैं। शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरे के सामान हैं। लहर क्या है? जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध। आएं तथा प्रार्थना करें शिव-शक्ति के इस अर्धनारीश्वर स्वरूप का इस अर्धनारीश्वर स्तोत्र द्वारा ।
विलयकर्ता रूद्र

शिव के सभी स्वरूपों में विलयकर्ता स्वरूप सर्वाधिक चर्चित, विस्मयकारी तथा भ्रामक है। सृष्टी का संतुलन बनाए रखने के लिए सृजन एवं सुपालन के साथ विलय भी अतिआवश्यक है| अतः ब्रह्मा एवं विष्णु के पुरक के रूप में शिव ने रूद्र रूप में विलयकर्ता अथवा संहारक की भुमिका का चयन किया| पर यह समझना अतिआवश्यक है कि शिव का यह स्वरूप भी काफी व्यापक है| शिव विलयकर्ता हैं पर मृत्यूदेव नहीं | मृत्यू के देवता तो यम हैं| शिव के विलयकर्ता रूप के दो अर्थ हैं|

विनाशक के रूप में शिव वास्तव में भय,अज्ञान, काम, क्रोध, लोभ, हिंसा तथा अनाचार जैसे बुराईयों का विनाश करते हैं। नकारात्मक गुणों का विनाश सच्चे अर्थों में सकारात्मक गुणों का सुपालन ही होता है। इस प्रकार शिव सुपालक हो विष्णु के पुरक हो जाते हैं। शिव का तीसरा नेत्र जो कि प्रलय का पर्याय माना जाता है वास्त्व में ज्ञान का प्रतीक है जो की प्रत्यक्ष के पार देख सकता है। शिव का नटराज स्वरूप इन तर्कों की पुष्टी करता है।

दुसरे अर्थों में सृजन, सुपालन एवं संहार एक चक्र है और किसी चक्र का आरंभ या अंत नहीं होता| अतः संहार एक दृष्टी से सृजन का प्रथम चरण है| लोहे को पिघलाने से उसका आकार नष्ट हो जाता है पर नष्ट होने के बाद ही उससे नय सृजन हो सकते हैं| तो लोहे के मुल स्वरूप का नष्ट होना नव निर्माण का प्रथम चरण है| उसी प्रकार संहार सृजन का प्रथम चरण है| इस दृष्टी से शिव ब्रह्मा के पुरक होते हैं|
नटराज शिव

नटराज शिव का स्वरूप न सिर्फ उनके संपुर्ण काल एवं स्थान को ही दर्शाता है; अपितु यह भी बिना किसी संशय स्थापित करता है कि ब्रह्माण मे स्थित सारा जिवन, उनकी गति कंपन तथा ब्रह्माण्ड से परे शुन्य की नि:शब्दता सभी कुछ एक शिव में ही निहत है।

नटराज दो शब्दों के समावेश से बना है – नट (अर्थात कला) और राज। इस स्वरूप में शिव कालाओं के आधार हैं| शिव का तांडव नृत्य प्रसिद्ध है| शिव के तांडव के दो स्वरूप हैं|

पहला उनके क्रोध का परिचायक, प्रलंयकारी रौद्र तांडव तथा दुसरा आनंद प्रदान करने वाला आनंद तांडव| पर ज्यदातर लोग तांडव शब्द को शिव के क्रोध का पर्याय ही मानते हैं| रौद्र तांडव करने वाले शिव रुद्र कहे जाते हैं, आनंद तांडव करने वाले शिव नटराज|

प्राचीन आचार्यों के मतानुसार शिव के आनन्द तांडव से ही सृष्टी अस्तित्व में आती है तथा उनके रौद्र तांडव में सृष्टी का विलय हो जाता है| शिव का नटराज स्वरूप भी उनके अन्य स्वरूपों की ही भातिं मनमोहक तथा उसकी अनेक व्याख्यायँ हैं।

नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मुर्ति के चार भुजाएं हैं, उनके चारो ओर अग्नि के घेरें हैं। उनका एक पावं से उन्होंने एक बौने को दबा रखा है, एवं दुसरा पावं नृत मुद्रा में उपर की ओर उठा हुआ है।

उन्होंने अपने पहले दाहिने हांथ में (जो कि उपर की ओर उठा हुआ है) डमरु पकड़ा हुआ है। डमरू की आवाज सृजन का प्रतीक है। इस प्रकार यहाँ शिव की सृजनात्मक शक्ति का द्योतक है।

उपर की ओर उठे हुए उनके दुसरे हांथ में अग्नि है। यहाँ अग्नी विनाश की प्रतीक है। इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाँथ से सृजन करतें हैं तथा दुसरे हाँथ से विलय।

उनका दुसरा दाहिना हाँथ अभय (या आशिस) मुद्रा में उठा हुआ है जो कि हमें बुराईयों से रक्षा करता है।

उठा हुआ पांव मोक्ष का द्योतक है। उनका दुसरा बांया हांथ उनके उठे हुए पांव की ओर इंगित करता है। इसका अर्थ यह है कि शिव मोक्ष के मार्ग का सुझाव करते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि शिव के चरणों में ही मोक्ष है।

उनके पांव के नीचे कुचला हुआ बौना दानव अज्ञान का प्रतीक है जो कि शिव द्वारा नष्ट किया जाता है। शिव अज्ञान का विनाश करते हैं।

चारों ओर उठ रही आग की लपटें इस ब्रह्माण्ड की प्रतीक हैं। उनके शरीर पर से लहराते सर्प कुण्डलिनि शक्ति के द्योतक हैं। उनकी संपुर्ण आकृति ॐ कार स्वरूप जैसी दीखती है। यह इस बाद को इंगित करता है कि ॐ शिव में ही निहित है।

आइये स्मरण करते हैं उन्ही नाटराज शिव को इस नटराज स्तुति में|
योगेश्वर महादेव

शिव योग के जन्मदाता तथा श्रोत हैं। योग विज्ञान का उल्लेख प्राचीनतम हिन्दु ग्रंथों में मिलता है| सभी विज्ञानों से परे, यह विज्ञान शरीर एवं आत्मा दोने का ही अध्यन करता है| स्वसन प्रणाली का प्राचीनतम एवं आधिकारिक वर्णन भी सिर्फ योग के पास ही है| योग शारीरिक एवं मानसिक दोनो ही के स्वास्थ के लिए एक सरल मार्ग है|

हमारा शरीर तथा मस्तिष्क जिसमें अपार क्षमताएं हैं पर हम उनका सदोपयोग साधारणत: नहीं कर पातें हैं। योग हमें अपने अधिकतम क्षमता पर पहूँने में सहायक होता है।

शिव अपने व्यक्त स्वरूप में योगी सदृश्य हैं तथा नित योग साधना में निरत रहते हैं। उनकी योग साधना से जिस उर्जा का प्रजनन होता है उसी से यह ब्रह्माण्ड चलायमान है। तो शिव इस संसार में व्याप्त संपुर्ण उर्जा के श्रोत हैं।
महाकाल कालभैरव

तांत्रिक कलाओं के साधक एवं जानकार शिव को कालभैरव अथवा महाकाल के रूप में पूजते हैं| उन अघोरी साधकों का साधनास्थल ज्यादातर श्मशान, वन अथवा ऐसे ही विरान स्थल होते हैं जो भय उत्तपन्न करतें हैं| शिव का यह रूप भी उनके साधकों के अनुरूप ही भय उत्तपन्न करने वाला है|
पशुपतिनाथ

शिव सृष्टि के स्रोत हैं| सभी प्राणीयों के अराध्य हैं| मानवों और देवों के अलावा दानवों एवं पशुओं के भी द्वारा पूज्य हैं, अतः पशुपतिनाथ हैं| प्राचीनतम हरप्पा एवं मोहनजोदारो संकृति के अवशेषों में शिव के पशुपति रूप की कई मुर्तियाँ एवं चिन्ह उपलब्ध हैं|
दिगंबर शिव

दिगंबर शब्द का अर्थ है अंबर (आकाश) को वस्त्र सामान धारण करने वाला। दुसरे किसी वस्त्र के आभाव में इसका अर्थ ( या शायद अनर्थ ) यह भी निकलता है कि जो वस्त्र हिन हो (अथवा नग्न हो)। सही अर्थों में दिगंबर शिव के सर्वव्यापत चरीत्र की ओर इंगित करता है। शिव ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। यह अनंत अम्बर शिव के वस्त्र सामान हैं।

शिव का एक नाम व्योमकेश भी है जिसका अर्थ है जिनके बाल आकाश को छूतें हों। इनका यह नाम एक बार फिर से उनके सर्वव्यापक चरीत्र की ओर ही इशारा करती है।

शिव सर्वेश्वर हैं। सर्वशक्तिमान तथा विधाता होने के बाद भी वे अत्यंत ही सरल हैं – भोलेनाथ हैं। वे शिघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें प्रसनन करने के लिए किसी जटील विधान अथवा आडंबर की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे तो भक्ति मात्र देखतें हैं। कोई भी किसी मार्ग द्वारा शिव को प्राप्त कर सकता है।

शिव देवाधिदेव हैं, पर उनमें कोई आडंबर नहीं है, वे सरल हैं, वस्त्र के स्थान पे बाघंबर, आभुषण के नाम पर सर्प और मुण्ड माल, श्रृंगार के नाम भस्म यही उनकी पहचान है| गिरीश योगी मुद्रा में कैलाश पर्वत पर योग में नित निरत रहते हैं| भक्तों के हर प्रकार के प्रसाद को ग्रहण करने वाले महादेव बिना किसी बनावट और दिखावा के होने के कारण दिगंबर कहे जाते हैं|



शिव महिम्न: स्तोत्रम्


शिव महिम्न: स्तोत्रम शिव भक्तों का एक प्रिय मंत्र है| ४३ क्षन्दो के इस स्तोत्र में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है|

स्तोत्र का सृजन एक अनोखे असाधारण परिपेक्ष में किया गया था तथा शिव को प्रसन्न कर के उनसे क्षमा प्राप्ति की गई थी |

कथा कुछ इस प्रकार के है …

एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था| वो परं शिव भक्त था| उसने एक अद्भुत सुंदर बागा का निर्माण करवाया| जिसमे विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे| प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे |

फिर एक दिन …

पुष्पदंत नामक के गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहा था| उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया| मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया| अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए |

पर ये तो आरम्भ मात्र था …

बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्यक दिन पुष्प की चोरी करने लगा| इस रहश्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे| पुष्पदंत अपने दिव्या शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहा |

और फिर …

राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला| उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया| रजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पेरो से कुचल दिया| फिर क्या था| इससे पुष्पा दंत की दिव्या शक्तिओं का क्षय हो गया|

तब…

पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था | अपनी गलती का बोध होने परा उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा करा पुष्पदंत के दिव्या स्वरूप को पुनः प्रदान किया |


महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी

स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः .

अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्

ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः .. १..


हे हर !!! आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं| मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना करा रहा हूँ जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो| पर हे महादेव स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं| जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है उसी प्रकार मैं भे अपने यथा शक्ति आपकी आराधना करता हूँ|

अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः

अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि .

स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः

पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः .. २..

हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन ना ही वचन द्वारा ही संभव है| आपके सन्दर्भ में वेदा भी अचंभित हैं तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं| आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन करा सकता है? ये जानते हुए भी की आप आदि अंत रहित परमात्मा का गुणगान कठीण है मैं आपका वंदना करता हूँ|


मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः

तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् .

मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः

पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता .. ३..


हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी, अपने सिमित क्षमता का बोध होते हुए भे मैं इस विशवास से इस स्तोत्र की रचना करा रहा हूँ के इससे मेरे वाने शुद्ध होगी तथा मेरे बुद्धी का विकास होगा |

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्

त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु .

अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं

विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः .. ४..

हे देव, आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं| तीनों वेद आपके ही सहिंता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-रजो-तमो) आपसे हे प्रकाशित हैं| आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है| इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फ़ैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है |

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं

किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च .

अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः

कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः .. ५..

हे महादेव !!! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिस करते हैं| वो कहते हैं की अगर कोई परं पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वो कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वो इसा श्रिष्टी को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं| वेद ने भी स्पष्ट किया है की तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता |


अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां

अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति .

अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो

यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे .. ६..

हे परमपिता !!! इस श्रृष्टि में सात लोक हैं (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)| इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे संभव हो सका? ये किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य हे की आप पर संसय का कोइ तर्क भी नहीं हो सकता |

त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति

प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च .

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव .. ७..

विवध प्राणी सत्य तक पहुचने के लिय विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं | पर जिस प्रकार सभी नदी अंतत: सागर में समाहित हो जाती है ठीक उसी प्रकार हरा मार्ग आप तक ही पहुंचता है |


महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः

कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् .

सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां

न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति .. ८..


हे शिव !!! आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण एश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं| पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नंदी), कपाल, बाघम्बर, त्रिशुल, कपाल एवं नाग्माला एवं भष्म मात्र है| अगर कोई संशय करे कि अगर आप देवों के असीम एश्वर्य के श्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है| आप इच्छा रहित हीं तथा स्वयं में ही स्थित रहते हैं |

ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं

परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये .

समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव

स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता .. ९..

हे त्रिपुरहंता !!! इस संसारा के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न माता हैं. कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है| अन्य इसे नित्यानित्य बताते हीं. इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुध्दि भ्रमित होती है पर मेरी भक्ति आप में और दृढ होती जा रही है |


तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः

परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः .

ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्

स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति .. १०..

एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश: उपर एवं नीचे की दिशा में गए| पर उनके सारे प्रयास विफल हुए| जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी आपको जान पाए| क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है?

अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं

दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान् .

शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः

स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् .. ११..

हे त्रिपुरान्तक !!! दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका ? उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे | हे प्रभु ! रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, ये उसी भक्ति का प्रभाव था|

अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं

बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः .

अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि

प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः .. १२..

हे शिव !!! एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की| हे महादेव आपने अपने सहज पाँव के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया| फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा| वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा| अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका|

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं

अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः .

न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः

न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः .. १३..

हे शम्भो !!! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक अश्वर्यशाली बन सका ताता तीनो लोकों पर राज्य किया| हे ईश्वर आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं है?

अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा

विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः .

स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो

विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः .. १४..

देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुन्द्र मंथन किया| समुद्र से आने मूल्यवान वस्तुएँ परात्प हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बाट लिया| परा जब समुन्द्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रगट हुआ तो असमय ही सृष्टी समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया और सभी भयभीत हो गए| हे हर तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लिया| वह विष आपके कंठ में निस्किर्य हो कर पड़ा है| विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला पड़ गया| हे नीलकंठ आश्चर्य ही है की ये विकृति भी आपकी शोभा ही बदती है| कल्याण कार्य सुन्दर ही होता है|

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे

निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः .

स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्

स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः .. १५..

हे प्रभु !!! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव ही | पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तक्षण ही भष्म करा दिया| श्रेष्ठ जानो के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता|

मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं

पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम् .

मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा

जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता .. १६..

हे नटराज !!! जब संसार कल्याण के हितु आप तांडव करने लगते हैं तो आपके पाँव के नीचे धारा कंप उठती है, आपके हाथो के परिधि से टकरा कार ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं| विष्णु लोक भी हिल जाता है| आपके जाता के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है| आशार्य ही है हे महादेव कि अनेको बार कल्याणकरी कार्य भे भय उतपन्न करते हैं |

वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः

प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते .

जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति

अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः .. १७..

आकाश गंगा से निकलती तारागणों के बिच से गुजरती गंगा जल अपनी धारा से धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात उत्पन्न करती है| पर ये उफान से परिपूर्ण गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद के सामन ही दृष्टीगोचर होती है| ये आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है|

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो

रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति .

दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः

विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः .. १८..

ही शिव !!! आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया| हे शम्भू इसा वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है| आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता?

हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः

यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् .

गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः

त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् .. १९..

जब भगवान विष्णु ने आपकी सहश्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमाल कम पाया| तब भक्ति भाव से हरी ने अपने एक आँख को कमाल के स्थान पर अर्पित कर दिया| उनकी यही अदाम्ह्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं.

क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां

क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते .

अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं

श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः .. २०..

हे देवाधिदेव !!! आपने ही कर्म -फल का विधान बनाया| आपके ही विधान से अच्छे कर्मो तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है | आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मो में आस्था बनाया रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं|

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां

ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः .

क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः

ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः .. २१..

हे प्रभु !!! यदपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेप्रित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसा परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है| दक्षप्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि समलित हुए| फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ| आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के क्ष्द्म्बेश में क्यों न हो |

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं

गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा .

धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं

त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः .. २२..

एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पे ही मोहित हो गया| जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरु धारण करा भागने की कोशिस की तो कामातुर ब्रह्मा ने भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे| हे शंकर तब आप व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा की और कूच किया| आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर भगा निकले तथा आजे भी आपसे भयभीत हैं|

स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्

पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि .

यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्

अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः .. २३..

हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहभागी बनाया तो उन्हें आपने योगी होने पे शंका उत्पन्न हुई| ये शंका निर्मुर्ल ही थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिस की तो आपने काम को जला करा नाश्ता करा दिया|

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः

चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः .

अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं

तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि .. २४..

हे भोलेनाथ!!! आप स्मशान में रमण करते हैं, भुत-प्रेत आपके संगी होते हैं, आप चिता भष्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं| ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं| तबभी हे स्मशान निवासी आपके भक्त आपके इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंदाई हे प्रतीत होता है क्योकि हे शंकर आप मनोवान्चिता फल प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते|

मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः

प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः .

यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये

दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् .. २५..

हे योगिराज!!! मनुष्य नाना प्रकार के योग्य पदाति को अपनाते हैं जैसे की स्वास पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि| इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनदं, जिस सुख को प्राप्त करते हैं वो वास्तव में आपही हैं महादेव हे

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः

त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च .

परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं

न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि .. २६..

हे शिव !!! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नी, जल एवं वायु हैं | आप ही आत्मा भी हैं| हे देव मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों |

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्

अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति .

तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः

समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् .. २७..

हे सर्वेश्वर!!! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, ऊ, माँ जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्ना, शुसुप्ता), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों, तथा त्रिदेवों को इंगित करता है| हे ॐकार आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, औरो त्रिवेद के समागम हैं

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्

तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् .

अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि

प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते .. २८..

हे शिव विद एवं देवगन आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं – भव, सर्व, रूद्र , पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान| हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामो से स्तुति करता हूँ |

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः

नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः .

नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः

नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः .. २९..

हे त्रिलोचन आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी, आप महा विशाल भी हैं तथा परम सूक्ष्म भी, आप श्रेठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी| आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभे कुछ से परे भी |

बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः

प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः .

जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः

प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः .. ३०..

हे भव, मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूँ | हे हर, मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूँ| हे मृड, आप सतोगुण से व्याप्त सबो का पालन करने वाले हैं| आपको नमस्कार है| आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं| हे परमात्मा, मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूँ |

कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं

क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः .

इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्

वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् .. ३१..

हे शिव आप गुनातीत हैं और आपका विस्तार नित बढता ही जाता है| अपनी सिमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूँ? पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है तथा मैं आपने कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूँ |

असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे

सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी .

लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं

तदपि तव गुणानामीश पारं न याति .. ३२..

यदि कोइ गिरी (पर्वत) को स्याही, सिंधु तो दवात, देव उद्यान के किसी विशाल वृक्ष को लेखनी एवं उसे छाल को पत्र की तरह उपयोग में लाए तथा स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती अनंतकाल आपके गुणों की व्याख्या में संलग्न रहें तो भी आप के गुणों की व्याख्या संभव नहीं है|

असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः

ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य .

सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः

रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार .. ३३..

इस स्तोत्र की रचना पुश्प्दंता गंधर्व ने उन चन्द्रमोलेश्वर शिव जी के गुणगान के लिए की है तो गुनातीत हैं

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्

पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः .

स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र

प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च .. ३४..

जो भी इसा स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य पाठ करता है वो जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है तथा अंततः शिवधाम को प्राप्त करता है तथा शिवातुल्या हो जाता है|

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः .

अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् .. ३५..

महेश से श्रेष्ठ कोइ देवा नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोइ स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरू से उपर कोई सत्य नहीं.

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः .

महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् .. ३६..

दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इसा स्तोत्र के पाठ के सोलहवे अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते |

कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः

शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः .

स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्

स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः .. ३७..

कुसुमदंत नामक गंधर्वों का राजा चन्द्रमोलेश्वर शिव जी का परं भक्त था| अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वो अपने दिव्या स्वरूप से वंचित हो गया| तब उसने इस स्तोत्र की रचना करा शिव को प्रसन्न किया तथा अपने दिव्या स्वरूप को पुनः प्राप्त किया

सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं

पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः .

व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः

स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् .. ३८..

जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाटा है तथा ऋषि मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम् .

अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् .. ३९..

पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से परं सुख की प्राप्ति होती है

इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः .

अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः .. ४०..

ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पति है | प्रभु हमसे प्रसन्न हों|

तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर .

यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः .. ४१..

हे शिव !!! मैं आपके वास्तविक स्वरुप् को नहीं जानता| हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता उसको नमस्कार है |

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः .

सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते .. ४२..

जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है |

श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन

स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण .

कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन

सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः .. ४३..

पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव जी अत्यंत ही प्रिय है | इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है |

.. इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः

स्तोत्रं समाप्तम् ..

इस प्रकार शिव महिम्न स्तोत्र समाप्त होता है |