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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Friday, October 12, 2012

श्राद्ध के प्रकार




श्राद्ध के प्रकार
श्राद्ध के अनेक प्रकार हैं- नित्य श्राद्धकाम्य श्राद्धएकोदिष्ट श्राद्धगोष्ठ श्राद्ध आदि-आदि।
नित्य श्राद्धः यह श्राद्ध जल द्वाराअन्न द्वारा प्रतिदिन होता है। श्रद्धा-विश्वास से किये जाने वाले देवपूजनमाता-पिता एवं गुरुजनों के पूजन को नित्य श्राद्ध कहते हैं। अन्न के अभाव में जल से भी श्राद्ध किया जाता है।
काम्य श्राद्धः जो श्राद्ध कुछ कामना रखकर किया जाता हैउसे काम्य श्राद्ध कहते हैं।
वृद्ध श्राद्धः विवाहउत्सव आदि अवसर पर वृद्धों के आशीर्वाद लेने हेतु किया जाने वाला श्राद्ध वृद्ध श्राद्ध कहलाता है।
सपिंडित श्राद्धः सपिंडित श्राद्ध सम्मान हेतु किया जाता है।
पार्व श्राद्धः मंत्रों से पर्वों पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्व श्राद्ध है जैसे अमावस्या आदि पर्वों पर किया जाने वाला श्राद्ध।
गोष्ठ श्राद्धः गौशाला में किया जाने वाला गौष्ठ श्राद्ध कहलाता है।
शुद्धि श्राद्धः पापनाश करके अपनी शुद्धि कराने के लिए जो श्राद्ध किया जाता है वह है शुद्धि श्राद्ध।
दैविक श्राद्धः देवताओँ को प्रसन्न करने के उद्देश्य से दैविक श्राद्ध किया जाता है।
कर्मांग श्राद्धः आने वाली संतति के लिए गर्भाधानसोमयागसीमान्तोन्नयन आदि जो संस्कार किये जाते हैंउन्हें कर्मांग श्राद्ध कहते हैं।
तुष्टि श्राद्धः देशान्तर में जाने वाले की तुष्टि के लिए जो शुभकामना की जाती हैउसके लिए जो दान पुण्य आदि किया जाता है उसे तुष्टि श्राद्ध कहते हैं। अपने मित्रभाईबहनपतिपत्नी आदि की भलाई के लिए जो कर्म किये जाते हैं उन सबको तुष्टि श्राद्ध कहते हैं।

श्राद्धयोग्य तिथियाँ
ऊँचे में ऊँचासबसे बढ़िया श्राद्ध श्राद्धपक्ष की तिथियों में होता है। हमारे पूर्वज जिस तिथि में इस संसार से गये हैंश्राद्धपक्ष में उसी तिथि को किया जाने वाला श्राद्ध सर्वश्रेष्ठ होता है।
जिनके दिवंगत होने की तिथि याद न होउनके श्राद्ध के लिए अमावस्या की तिथि उपयुक्त मानी गयी है। बाकी तो जिनकी जो तिथि होश्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर बुद्धिमानों को श्राद्ध करना चाहिए।
जो पूर्णमासी के दिन श्राद्धादि करता है उसकी बुद्धिपुष्टिस्मरणशक्तिधारणाशक्तिपुत्र-पौत्रादि एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती। वह पर्व का पूर्ण फल भोगता है।
इसी प्रकार प्रतिपदा धन-सम्पत्ति के लिए होती है एवं श्राद्ध करनेवाले की प्राप्त वस्तु नष्ट नहीं होती।
द्वितिया को श्राद्ध करने वाला व्यक्ति राजा होता है।
उत्तम अर्थ की प्राप्ति के अभिलाषी को तृतिया विहित है। यही तृतिया शत्रुओं का नाश करने वाली और पाप नाशिनी है।
जो चतुर्थी को श्राद्ध करता है वह शत्रुओं का छिद्र देखता है अर्थात उसे शत्रुओं की समस्त कूटचालों का ज्ञान हो जाता है।
पंचमी तिथि को श्राद्ध करने वाला उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति करता है।
जो षष्ठी तिथि को श्राद्धकर्म संपन्न करता है उसकी पूजा देवता लोग करते हैं।
जो सप्तमी को श्राद्धादि करता है उसको महान यज्ञों के पुण्यफल प्राप्त होते हैं और वह गणों का स्वामी होता है।
जो अष्टमी को श्राद्ध करता है वह सम्पूर्ण समृद्धियाँ प्राप्त करता है।
नवमी तिथि को श्राद्ध करने वाला प्रचुर ऐश्वर्य एवं मन के अनुसार अनुकूल चलने वाली स्त्री को प्राप्त करता है।
दशमी तिथि को श्राद्ध करने वाला मनुष्य ब्रह्मत्व की लक्ष्मी प्राप्त करता है।
एकादशी का श्राद्ध सर्वश्रेष्ठ दान है। वह समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त कराता है। उसके सम्पूर्ण पापकर्मों का विनाश हो जाता है तथा उसे निरंतर ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
द्वादशी तिथि के श्राद्ध से राष्ट्र का कल्याण तथा प्रचुर अन्न की प्राप्ति कही गयी है।
त्रयोदशी के श्राद्ध से संततिबुद्धिधारणाशक्तिस्वतंत्रताउत्तम पुष्टिदीर्घायु तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
चतुर्दशी का श्राद्ध जवान मृतकों के लिए किया जाता है तथा जो हथियारों द्वारा मारे गये हों उनके लिए भी चतुर्दशी को श्राद्ध करना चाहिए।
अमावस्या का श्राद्ध समस्त विषम उत्पन्न होने वालों के लिए अर्थात तीन कन्याओं के बाद पुत्र या तीन पुत्रों के बाद कन्याएँ हों उनके लिए होता है। जुड़वे उत्पन्न होने वालों के लिए भी इसी दिन श्राद्ध करना चाहिए।
सधवा अथवा विधवा स्त्रियों का श्राद्ध आश्विन (गुजरात-महाराष्ट्र के मुताबिक भाद्रपत) कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि के दिन किया जाता है।
बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को किया जाता है।
दुर्घटना में अथवा युद्ध में घायल होकर मरने वालों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को किया जाता है।
जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हैं वे समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं और अनंत काल तक स्वर्ग का उपभोग करते हैं। मघा नक्षत्र पितरों को अभीष्ट सिद्धि देने वाला है। अतः उक्त नक्षत्र के दिनों में किया गया श्राद्ध अक्षय कहा गया है। पितृगण उसे सर्वदा अधिक पसंद करते हैं।
जो व्यक्ति अष्टकाओं में पितरों की पूजा आदि नहीं करते उनका यह जो इन अवसरों पर श्राद्धादि का दान करते हैं वे देवताओं के समीप अर्थात् स्वर्गलोक को जाते हैं और जो नहीं करते वे तिर्यक्(पक्षी आदि अधम) योनियों में जाते हैं।
रात्रि के समय श्राद्धकर्म निषिद्ध है।

श्राद्धयोग्य स्थान
समुद्र तथा समुद्र में गिरने वाली नदियों के तट परगौशाला में जहाँ बैल न होंनदी-संगम परउच्च गिरिशिखर परवनों में लीपी-पुती स्वच्छ एवं मनोहर भूमि परगोबर से लीपे हुए एकांत घर में नित्य ही विधिपूर्वक श्राद्ध करने से मनोरथ पूर्ण होते हैं और निष्काम भाव से करने पर व्यक्ति अंतःकरण की शुद्धि और परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति कर सकता हैब्रह्मत्व की सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
श्रद्धा न करने वालेपापात्मापरलोक को न मानने वाले अथवा वेदों के निन्दकस्थिति में संदेह रखने वाले संशयात्मा एवं सभी पुण्यकर्मों में किसी कारण का अन्वेषण करने वाले कुतर्की-इन पाँचों को पवित्र तीर्थों का फल नहीं मिलता।
गुरुरूपी तीर्थ में परम सिद्धि प्राप्त होती है। वह सभी तीर्थों में श्रेष्ठ है। उससे भी श्रेष्ठ तीर्थ ध्यान है। यह ध्यान साक्षात् ब्रह्मतीर्थ हैं। इसका कभी विनाश नहीं होता।
वायु पुराण
जो ब्राह्मण नित्य व्रतपरायण रहते हैंज्ञानार्जन में प्रवृत्त रहकर योगाभ्यास में निरत रहते हैंदेवता में भक्ति रखते हैंमहान आत्मा होते हैं। वे दर्शनमात्र से पवित्र करते हैं।
काशीगयाप्रयागरामेश्वरम् आदि क्षेत्रों में किया गया श्राद्ध विशेष फलदायी होता है। (अनुक्रम)
श्राद्ध करने का अधिकारी कौन?
वर्णसंकर के हाथ का दिया हुआ पिण्डदान और श्राद्ध पितर स्वीकार नहीं करते और वर्णसंकर संतान से पितर तृप्त नहीं होते वरन् दुःखी और अशांत होते हैं। अतः उसके कुल में भी दुःखअशांति और तनाव बना रहता है।

दानधर्म
श्राद्धकाल में शरीरद्रव्यस्त्रीभूमिमनमंत्र और ब्राह्मण ये सात चीज़ें विशेष शुद्ध होनी चाहिए। श्राद्ध में तीन बातों को ध्यान रखना चाहिए। शुद्धिअक्रोध और अत्वरा यानी जल्दबाजी नहीं।
श्राद्ध में कृषि और वाणिज्य का धन उत्तमउपकार के बदले दिया गया धन मध्यम और ब्याज एवं छल कपट से कमाया गया धन अधम माना जाता है। उत्तम धन से देवता और पितरों की तृप्ति होती हैवे प्रसन्न होते हैं। मध्यम धन से मध्यम प्रसन्नता होती है और अधम धन से छोटी योनि (चाण्डाल आदि योनि) में जो अपने पितर हैं उनको तृप्ति मिलती है। श्राद्ध में जो अन्न इधर उधर छोड़ा जाता है उससे पशु योनि एवं इतर योनि में भटकते हुए हमारे कुल के लोगों को तृप्ति मिलती हैऐसा कहा गया है।
श्राद्ध के दिन भगवदगीता के सातवें अध्याय का माहात्मय पढ़कर फिर पूरे अध्याय का पाठ करना चाहिए एवं उसका फल मृतक आत्मा को अर्पण करना चाहिए।

श्राद्ध में शंका करने का परिणाम व श्रद्धा करने से लाभ
बृहस्पति कहते हैं- "श्राद्धविषयक चर्चा एवं उसकी विधियों को सुनकर जो मनुष्य दोषदृष्टि से देखकर उनमें अश्रद्धा करता है वह नास्तिक चारों ओर अंधकार से घिरकर घोर नरक में गिरता है। योग से जो द्वेष करने वाले हैं वे समुद्र में ढोला बनकर तब तक निवास करते हैं जब तक इस पृथ्वी की अवस्थिति रहती है। भूल से भी योगियों की निन्दा तो करनी ही नहीं चाहिए क्योंकि योगियों की निन्दा करने से वहीं कृमि होकर जन्म धारण करना पड़ता है। योगपरायण योगेश्वरों की निन्दा करने से मनुष्य चारों ओर अंधकार से आच्छन्ननिश्चय ही अतयंत घोर दिखाई पड़ने वाले नरक में जाता है। आत्मा को वश में रखने वाले योगेश्वरों की निन्दा जो मनुष्य सुनता है वह चिरकालपर्यंत कुम्भीपाक नरक में निवास करता है इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। योगियों के प्रति द्वेष की भावना मनसावाचाकर्मणा सर्वथा वर्जित है।
जिस प्रकार चारागाह में सैंकड़ों गौओं में छिपी हुई अपनी माँ को बछड़ा ढूँढ लेता है उसी प्रकार श्राद्धकर्म में दिए गये पदार्थ को मंत्र वहाँ पर पहुँचा देता है जहाँ लक्षित जीव अवस्थित रहता है। पितरों के नामगोत्र और मंत्र श्राद्ध में दिये गये अन्न को उसके पास ले जाते हैंचाहे वे सैंकड़ों योनियों में क्यों न गये हों। श्राद्ध के अन्नादि से उनकी तृप्ति होती है। परमेष्ठी ब्रह्मा ने इसी प्रकार के श्राद्ध की मर्यादा स्थिर की है।"
जो मनुष्य इस श्राद्ध के माहात्म्य को नित्य श्रद्धाभाव सेक्रोध को वश में रखलोभ आदि से रहित होकर श्रवण करता है वह अनंत कालपर्यंत स्वर्ग भोगता है। समस्त तीर्थों एवं दानों को फलों को वह प्राप्त करता है। स्वर्गप्राप्ति के लिए इससे बढ़कर श्रेष्ठ उपाय कोई दूसरा नहीं है। आलस्यरहित होकर पर्वसंधियों में जो मनुष्य इस श्राद्ध-विधि का पाठ सावधानीपूर्वक करता है वह मनुष्य परम तेजस्वी संततिवान होता और देवताओं के समान उसे पवित्रलोक की प्राप्ति होती है। जिन अजन्मा भगवान स्वयंभू (ब्रह्मा) ने श्राद्ध की पुनीत विधि बतलाई है उन्हे हम नमस्कार करते हैं ! महान् योगेश्वरों के चरणों में हम सर्वदा प्रणाम करते हैं !
जीवात्मा का अगला जीवन पिछले संस्कारों से बनता है। अतः श्राद्ध करके यह भावना भी की जाती है कि उनका अगला जीवन अच्छा हो। वे भी हमारे वर्त्तमान जीवन की अड़चनों को दूर करने की प्रेरणा देते हैं और हमारी भलाई करते हैं।
आप जिससे भी बात करते हैं उससे यदि आप प्रेम से नम्रता से और उसके हित की बात करते हैं तो वह भी आपके साथ प्रेम से और आपके हित की बात करेगा। यदि आप सामने वाले से काम करवाकर फिर उसकी ओर देखते तक नहीं तो वह भी आपकी ओर नहीं देखेगा या आप से रुष्ट हो जायेगा।
किसी के घर में ऐरे गैरे या लूले लँगड़े या माँ-बाप को दुःख देने वाले बेटे पैदा होते हैं तो उसका कारण भी यही बताया जाता है कि जिन्होंने पितरों को तृप्त नहीं किया हैपितरों का पूजन नहीं कियाअपने माँ-बाप को तृप्त नहीं किया उनके बच्चे भी उनको तृप्त करने वाले नहीं होते।
श्री अरविन्दघोष जब जेल में थे तब उन्होंने लिखा थाः "मुझे स्वामी विवेकानन्द की आत्मा द्वारा प्रेरणा मिलती है और मैं 15 दिन तक महसूस करता रहा हूँ कि स्वामी विवेकानन्द की आत्मा मुझे सूक्ष्म जगत की साधना का मार्गदर्शन देती रही है।
जब उन्होंने परलोकगमन वालों की साधना की तब उन्होंने महसूस किया कि रामकृष्ण परमहंस का अंतवाहक शरीर (उनकी आत्मा) भी उन्हें सहयोग देता था।
अब यहाँ एक संदेह हो सकता है कि श्री रामकृष्ण परमहंस को तो परमात्म-तत्त्व का साक्षात्कार हो गया थावे तो मुक्त हो गये थे। वे अभी पितर लोक में तो नहीं होंगे। फिर उनके द्वारा प्रेऱणा कैसे मिली?
'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणमें श्री वशिष्ठजी कहते हैं-
"ज्ञानी जब शरीर में होते हैं तब जीवन्मुक्त होते हैं और जब उनका शरीर छूटता है तब वे विदेहमुक्त होते हैं। फिर वे ज्ञानी व्यापक ब्रह्म हो जाते हैं। वे सूर्य होकर तपते हैंचंद्रमा होकर चमकते हैंब्रह्माजी होकर सृष्टि उत्पन्न करते हैंविष्णु होकर सृष्टि का पालन करते हैं और शिव होकर संहार करते हैं।
जब सूर्य एवं चंद्रमा में ज्ञानी व्याप जाते हैं तब अपने रास्ते जाने वाले को वे प्रेरणा दे दें यह उनके लिए असंभव नहीं है।
मेरे गुरुदेव तो व्यापक ब्रह्म हो गये लेकिन मैं अपने गुरुदेव से जब भी बात करना चाहता हूँ तो देर नहीं लगती। अथवा तो ऐसा कह सकते हैं कि अपना शुद्ध संवित ही गुरुरूप में पितृरूप में प्रेरणा दे देता है।
कुछ भी हो श्रद्धा से किए हुए पिण्डदान आदि कर्त्ता को मदद करते हैं। श्राद्ध का एक विशेष लाभ यह है कि 'मरने का बाद भी जीव का अस्तित्व रहता है....इस बात की स्मृति बनी रहती है। दूसरा लाभ यह है कि इसमें अपनी संपत्ति का सामाजिकरण होता है। गरीब-गुरबेकुटुम्बियों आदि को भोजन मिलता है। अन्य भोज-समारोहों में रजो-तमोगुण होता है जबकि श्राद्ध हेतु दिया गया भोजन धार्मिक भावना को बढ़ाता है और परलोक संबंधी ज्ञान एवं भक्तिभाव को विकसित करता है।
हिन्दुओं में जब पत्नी संसार से जाती है तब पति को हाथ जोड़कर कहती हैः "मेरे से कुछ अपराध हो गया हो तो क्षमा करना और मेरी सदगति के लिए आप प्रार्थना करना.... प्रयत्न करना।" अगर पति जाता है तो हाथ जोड़ते हुए कहता हैः "जाने अनजाने में तेरे साथ मैंने कभी कठोर व्यवहार किया हो तो तू मुझे क्षमा कर देना और मेरी सदगति के लिए प्रार्थना करना.... प्रयत्न करना।"
हम एक-दूसरे की सदगति के लिए जीते-जी भी सोचते हैं और मरणकाल का भी सोचते हैंमृत्यु के बाद का भी सोचते हैं।

श्राद्ध से प्रेतात्माओं का उद्धार
इस जमाने में भी जो समझदार हैं एवं उनकी श्राद्धक्रिया नहीं होती वे पितृलोक में नहींप्रेतलोक में जाते हैं। वे प्रेतलोक में गये हुए समझदार लोग समय लेकर अपने समझदार संबंधियों अथवा धार्मिक लोगों को आकर प्रेरणा देते हैं किः "हमारा श्राद्ध करो ताकि हमारी सदगति हो।"
राजस्थान में कस्तूरचंद गड़ोदिया एक बडी पार्टी है। उनकी गणना बड़े-बड़े धनाढयों में होती है। उनके कुटुम्बियों में किसी का स्वर्गवास हो गया। गड़ोदिया फर्म के कन्हैयालालजी गया जी में उनका श्राद्ध करने गयेतब उन्हे वहाँ एक प्रेतात्मा दिखी। उस प्रेतात्मा ने कहाः "मैं राजस्थान में आपके ही गाँव का हूँलेकिन मेरे कुटुम्बियों ने मेरी उत्तरक्रिया नहीं की हैइसलिए मैं भटक रहा हूँ। आप कन्हैयालाल गड़ोदिया सेठ ! अपने कुटुम्बों का श्राद्ध करने के लिए आये हैं तो कृपा करके मेरे निमित्त भी आप श्राद्ध कर दीजिए। मैं आपके गाँव का हूँमेरा हजाम का धंधा था और मोहन नाई मेरा नाम है।"
कन्हैयालाल जी को तो पता नहीं था कि उनके गाँव का कौन सा नाई था लेकिन उन्होंने उस नाई के निमित्त श्राद्ध कर दिया।
राजस्थान वापस आये तो उन्होंने जाँच करवायी तब उन्हें पता चला कि थोड़े से वर्ष पूर्व ही कोई जवान मर गया था वह मोहन नाई था।
ऐसे ही एक बार एक पारसी प्रेतात्मा ने आकर हनुमान प्रसाद पोद्दार से प्रार्थना की किः "हमारे धर्म में तो श्राद्ध को नहीं मानते परन्तु मेरी जीवात्मा प्रेत के रूप में भटक रही है। आप कृपा करके हमारे उद्धार के लिए कुछ करें।"
हनुमान प्रसाद पोद्दार ने उस प्रेतात्मा के निमित्त श्राद्ध किया तो उसका उद्धार हो गया एवं उसने प्रभात काल में प्रसन्नवदन उनका अभिवादन किया कि मेरी सदगति हुई।
श्राद्धकर्म करने वालों में कृतज्ञता के संस्कार सहज में दृढ़ होते हैं जो शरीर की मौत के बाद भी कल्याण का पथ प्रशस्त करते हैं। श्राद्धकर्म से देवता और पितर तृप्त होते हैं और श्राद्ध करनेवाले का अंतःकरण भी तृप्ति-संतुष्टि का अनुभव करता है। बूढ़े-बुजुर्गों ने आपकी उन्नति के लिए बहुत कुछ किया है तो उनकी सदगति के लिए आप भी कुछ करेंगे तो आपके हृदय में भी तृप्ति-संतुष्टि का अनुभव होगा।
औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को कैद कर दिया था तब शाहजहाँ ने अपने बेटे को लिख भेजाः "धन्य हैं हिन्दू जो अपने मृतक माता-पिता को भी खीर और हलुए-पूरी से तृप्त करते हैं और तू जिन्दे बाप को भी एक पानी की मटकी तक नहीं दे सकतातुझसे तो वे हिन्दू अच्छेजो मृतक माता-पिता की भी सेवा कर लेते हैं।"
भारतीय संस्कृति अपने माता-पिता या कुटुम्ब-परिवार का ही हित नहींअपने समाज और देश का ही हित नहीं वरन् पूरे विश्व का हित चाहती है।

गरूड़ पुराण में श्राद्ध-महिमा
"अमावस्या के दिन पितृगण वायुरूप में घर के दरवाजे पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं। जब तक सूर्यास्त नहीं हो जातातब तक वे भूख-प्यास से व्याकुल होकर वहीं खड़े रहते हैं। सूर्यास्त हो जाने के पश्चात वे निराश होकर दुःखित मन से अपने-अपने लोकों को चले जाते हैं। अतः अमावस्या के दिन प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। यदि पितृजनों के पुत्र तथा बन्धु-बान्धव उनका श्राद्ध करते हैं और गया-तीर्थ में जाकर इस कार्य में प्रवृत्त होते हैं तो वे उन्ही पितरों के साथ ब्रह्मलोक में निवास करने का अधिकार प्राप्त करते हैं। उन्हें भूख-प्यास कभी नहीं लगती। इसीलिए विद्वान को प्रयत्नपूर्वक यथाविधि शाकपात से भी अपने पितरों के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
"समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुःखी नहीं रहता। पितरों की पूजा करके मनुष्य आयुपुत्रयशस्वर्गकीर्तिपुष्टिबलश्रीपशुसुख और धन-धान्य प्राप्त करता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्त्व है। देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है।"

जो लोग अपने पितृगणदेवगणब्राह्मण तथा अग्नि की पूजा करते हैंवे सभी प्राणियों की अन्तरात्मा में समाविष्ट मेरी ही पूजा करते हैं। शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक श्राद्ध करके मनुष्य ब्रह्मपर्यंत समस्त चराचर जगत को प्रसन्न कर देता है।
हे आकाशचारिन् गरूड़ ! पिशाच योनि में उत्पन्न हुए पितर मनुष्यों के द्वारा श्राद्ध में पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरा जाता है उससे संतृप्त होते हैं। श्राद्ध में स्नान करने से भीगे हुए वस्त्रों द्वारा जी जल पृथ्वी पर गिरता हैउससे वृक्ष योनि को प्राप्त हुए पितरों की संतुष्टि होती है। उस समय जो गन्ध तथा जल भूमि पर गिरता हैउससे देव योनि को प्राप्त पितरों को सुख प्राप्त होता है। जो पितर अपने कुल से बहिष्कृत हैंक्रिया के योग्य नहीं हैंसंस्कारहीन और विपन्न हैंवे सभी श्राद्ध में विकिरान्न और मार्जन के जल का भक्षण करते हैं। श्राद्ध में भोजन करने के बाद आचमन एवं जलपान करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा जो जल ग्रहण किया जाता हैउस जल से पितरों को संतृप्ति प्राप्त होती है। जिन्हें पिशाचकृमि और कीट की योनि मिली है तथा जिन पितरों को मनुष्य योनि प्राप्त हुई हैवे सभी पृथ्वी पर श्राद्ध में दिये गये पिण्डों में प्रयुक्त अन्न की अभिलाषा करते हैंउसी से उन्हें संतृप्ति प्राप्त होती है।
इस प्रकार ब्राह्मणक्षत्रिय एवं वेश्यों के द्वारा विधिपूर्वक श्राद्ध किये जाने पर जो शुद्ध या अशुद्ध अन्न जल फेंका जाता हैउससे उन पितरों की तृप्ति होती है जिन्होंने अन्य जाति में जाकर जन्म लिया है। जो मनुष्य अन्यायपूर्वक अर्जित किये गये पदार्थों के श्राद्ध करते हैंउस श्राद्ध से नीच योनियों में जन्म ग्रहण करने वाले चाण्डाल पितरों की तृप्ति होती है।
हे पक्षिन् ! इस संसार में श्राद्ध के निमित्त जो कुछ भी अन्नधन आदि का दान अपने बन्धु-बान्धवों के द्वारा किया जाता हैवह सब पितरों को प्राप्त होता है। अन्न जल और शाकपात आदि के द्वारा यथासामर्थ्य जो श्राद्ध किया जाता हैवह सब पितरों की तृप्ति का हेतु है।

(गरूड़ पुराण)
तर्पण और श्राद्ध संबंधी शंका समाधान
गरुड़ ने पूछाः "हे स्वामिन् ! पितृलोक से आकर इस पृथ्वी पर श्राद्ध में भोजन करते हुए पितरों को किसी ने देखा भी है?"
श्री भगवान ने कहाः "हे गरुड़ ! सुनो। देवी सीता का उदाहरण है। जिस प्रकार सीता जी ने पुष्कर तीर्थ में अपने ससुर आदि तीन पितरों को श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मण के शरीर में प्रविष्ट हुआ देखा थाउसको मैं कह रहा हूँ।
हे गरूड़ ! पिता की आज्ञा प्राप्त करके जब श्री राम वन को  चले गये तो उसके बाद सीता जी के साथ श्रीराम ने पुष्कर तीर्थ की यात्रा की। तीर्थ में पहुँचकर उन्होंने श्राद्ध करना प्रारम्भ किया। जानकी जी ने एक पके हुए फल को सिद्ध करके श्री राम जी के सामने उपस्थित किया। श्राद्धकर्म में दीक्षित प्रियतम श्री राम की आज्ञा से स्वयं दीक्षित होकर सीता जी ने उस धर्म का सम्यक पालन किया। उस समय सूर्य आकाशमण्डल के मध्य पहुँच गये और कुतुपमुहूर्त (दिन का आठवाँ मुहूर्त) आ गया था। श्री राम ने जिन ऋषियों को निमंत्रित किया थावे सभी वहाँ पर आ गये थे। आये हुए उन ऋषियों को देखकर विदेहराज की पुत्री जानकी जी श्रीरामचंद्र की आज्ञा से अन्न परोसने के लिए वहाँ आयींकिन्तु ब्राह्मणों के बीच जाकर वे तुरंत वहाँ से दूर चली गयीं और लताओं के मध्य छिपकर बैठ गयीं। सीता जी एकान्त में छिप गयी हैंइस बात को जानकर श्रीराम ने विचार किया किः "ब्राह्मणों को बिना भोजन कराये साध्वी सीता लज्जा के कारण कहीँ चली गयी होंगी।" पहले मैं इन ब्राह्मणों को भोजन करा लूँ फिर उनका अन्वेषण करूँगा। ऐसा विचारकर श्रीराम ने स्वयं उन ब्राह्मणों को भोजन कराया। भोजन के बाद उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों के चले जाने पर श्रीराम ने अपनी प्रियतमा सीता जी से पूछाः "ब्राह्मणों को देखकर तुम लताओं की ओट में क्यों छिप गई थींहे तन्वङी ! तुम इसका समस्त कारण अविलम्ब मुझे बताओ।" श्री राम के ऐसा कहने पर सीता जी मुँह नीचे कर सामने खड़ी हो गयीं और अपने नेत्रों से आँसू बहाती हुई बोलीं-
सीता जी ने कहाः "हे नाथ ! मैंने यहाँ जिस प्रकार का आश्चर्य देखा हैउसे आप सुनें। हे राघव ! इस श्राद्ध में उपस्थित ब्राह्मण के अग्रभाग में मैंने आपके पिता का दर्शन कियाजो सभी आभूषणों से सुशोभित थे। उसी प्रकार के अन्य दो महापुरुष भी उस समय मुझे दिखायी पड़े। आपके पिता को देखकर मैं बिना बताये एकान्त में चली आय़ी थी। हे प्रभो ! वल्कल और मृगचर्म धारण किये हुए मैं राजा (दशरथ) के सम्मुख कैसे जा सकती थीहे शत्रुपक्ष के वीरों का विनाश करने वाले प्राणनाथ ! मैं आपसे यह सत्य ही कह रही हूँअपने हाथ से राजा को मैं वह भोजन कैसे दे सकती थीजिसके दासों के भी दास कभी वैसा भोजन नहीं करते रहेतृणपात्र में उस अन्न को रखकर मैं उन्हे कैसे देतीमैं तो वही हूँ जो पहले सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित रहती थी और राजा मुझे वैसी स्थिति में देख चुके थे। आज वही मैं राजा के सामने कैसे जा पातीहे रघुनन्दन ! उसी से मन में आयी हुई लज्जा के कारण मैं वापस हो गयी।

महाकाल-करन्धम संवाद
एक बार महाराज करन्धम महाकाल का दर्शन करने गये। कालभीति महाकाल ने जब करन्धम को देखातब उन्हें भगवान शंकर का वचन स्मरण हो आया। उन्होंने उनका स्वागत सत्कार किया और कुशल-प्रश्नादि के बाद वे सुखपूर्वक बैठ गये। तदनन्तर करन्धम ने महाकाल (कालभीति) से पूछाः "भगवन ! मेरे मन में एक बड़ा संशय है कि यहाँ जो पितरों को जल दिया जाता हैवह तो जल में मिल जाताफिर वह पितरों को कैसे प्राप्त होता हैयही बात श्राद्ध के सम्बन्ध में भी है। पिण्ड आदि जब यहीं पड़े रह जाते हैंतब हम कैसे मान लें कि पितर लोग उन पिण्डादि का उपयोग करते हैंसाथ ही यह कहने का साहस भी नहीं होता कि वे पदार्थ पितरों को किसी प्रकार मिले ही नहींक्योंकि स्वप्न में देखा जाता है कि पितर मनुष्यों से श्राद्ध आदि की याचना करते हैं। देवताओं के चमत्कार भी प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। अतः मेरा मन इस विषय में मोहग्रस्त हो रहा है।"
महाकाल ने कहाः "राजन ! देवता और पितरों की योनि ही इस प्रकार की है दूर से कही हुई बातदूर से किया हुआ पूजन-संस्कारदूर से की हुई अर्चास्तुति तथा भूतभविष्य और वर्त्तमान की सारी बातों को वे जान लेते हैं और वहीं पहुँच जाते हैं। उनका शरीर केवल नौ तत्त्वों (पाँच तन्मात्राएँ और चार अन्तःकरण) का बना होता हैदसवाँ जीव होता हैइसलिए उन्हें स्थूल उपभोगों की आवश्यकता नहीं होती।"
करन्धम ने कहाः "यह बात तो तब मानी जायेजब पितर लोग यहाँ भूलोक में हों। परन्तु जिन मृतक पितरों के लिए यहाँ श्राद्ध किया जाता है वे तो अपने कर्मानुसार स्वर्ग या नरक में चले जाते हैं। दूसरी बातजो शास्त्रों में यह कहा गया है किः पितर लोग प्रसन्न होकर मनुष्यों को आयुप्रज्ञाधनविद्याराज्यस्वर्ग या मोक्ष प्रदान करते हैं... यह भी सम्भव नहीं हैक्योंकि जब वे स्वयं कर्मबन्धन में पड़कर नरक में हैतब दूसरों के लिए कुछ कैसे करेंगे!"
महाकाल ने कहाः "ठीक हैकिन्तु देवताअसुरयक्ष आदि के तीन अमूर्त तथा चारों वर्णओँ के चार मूर्तये सात प्रकार के पितर माने गये हैं। ये नित्य पितर हैं। ये कर्मों के आधीन नहींये सबको सब कुछ देने समर्थ हैं। इन नित्य पितरों के अत्यन्त प्रबल इक्कीस गण हैं। वे तृप्त होकर श्राद्धकर्त्ता के पितरों कोवे चाहे कहीं भी होतृप्त करते हैं।"
करन्धम ने कहाः "महाराज ! यह बात तो समझ में आ गयीकिन्तु फिर भी एक सन्देह है। भूत-प्रेतादि के लिए जैसे एकत्रित बलि आदि दिया जाता हैवैसे ही एकत्रित करके संक्षेप मे देवतादि के लिए भी क्यों नहीं दिया जातादेवतापितरअग्निइनको अलग-अलग नाम लेकर देने में बड़ा झंझट तथा विस्तार से कष्ट भी होता है।"
महाकाल ने कहाः "सभी के विभिन्न नियम हैं। घर के दरवाजे पर बैठनेवाले कुत्ते को जिस प्रकार खाना दिया जाता हैक्या उसी प्रकार एक विशिष्ट सम्मानित व्यक्ति को भी दिया जाए?.... और क्या वह उस तरह दिए जाने पर उसे स्वीकार करेगाअतः जिस प्रकार भूतादि को दिया जाता है उसी प्रकार देने पर देवता उसे ग्रहण नहीं करते। बिना श्रद्धा के दिया हुआ चाहे उसी प्रकार देने पर देवता उसे ग्रहण नहीं करते। बिना श्रद्धा के दिया हुआ चाहे वह जितना भी पवित्र तथा बहूमूल्य क्यों न होवे उसे कदापि नहीं लेते। यही नहींश्रद्धापूर्वक दिये गये पवित्र पदार्थ भी बिना मंत्र के वे स्वीकार नहीं करते।"
करन्धम ने कहाः "मैं यह जानना चाहता हूँ कि जो दान दिया जाता है वह कुशजल और अक्षत के साथ क्यों दिया जाता है?"
महाकाल ने कहाः "पहले भूमि पर जो दान दिये जाते थेउन्हें असुर लोग बीच में ही घुसकर ले लेते थे। देवता और पितर मुँह देखते ही रह जाते। आखिर उन्होंने ब्रह्मा जी से शिकायत की।
ब्रह्माजी ने कहा कि पितरों को दिये गये पदार्थों के साथ अक्षततिलजलकुश एवं जौ भी दिया जाए। ऐसा करने पर असुर इन्हें न ले सकेंगे। इसीलिए यह परिपाटी है।

एकनाथजी महाराज के श्राद्ध में पितृगण साक्षात प्रकट हुए

एकनाथजी महाराज श्राद्धकर्म कर रहे थे। उनके यहाँ स्वादिष्ट व्यंजन बन रहे थे। भिखमंगे लोग उनके द्वार से गुजरे। उन्हे बड़ी लिज्जतदार खुश्बू आयी। वे आपस में चर्चा करने लगेः "आज तो श्राद्ध है.... खूब माल उड़ेगा।"
दूसरे ने कहाः "यह भोजन तो पहले ब्राह्मणों को खिलाएँगे। अपने को तो बचे-खुचे जूठे टुकड़े ही मिलेंगे।"
एकनाथजी ने सुन लिया। उन्होंने अपनी धर्मपत्नी गिरजाबाई से कहाः "ब्राह्मणों को तो भरपेट बहुत लोग खिलाते हैं। इन लोगों में भी तो ब्रह्मा परमात्मा विराज रहा है। इन्होंने कभी खानदानी ढंग से भरपेट स्वादिष्ट भोजन नहीं किया होगा। इन्हीं को आज खिला दें। ब्राह्मणों के लिए दूसरा बना दोगी नअभी तो समय है।"
गिरजाबाई बोलीः "हाँहाँ पतिदेव ! इसमें संकोच से क्यों पूछते हो?"
गिरजाबाई सोचती है किः "मेरी सेवा में जरूर कोई कमी होगीतभी स्वामी को मुझे सेवा सौंपने में संकोच हो रहा है।"
अगर स्वामी सेवक से संकुचित होकर कोई काम करवा रहे हैं तो यह सेवक के समर्पण में कमी है। जैसे कोई अपने हाथ-पैर से निश्चिन्त होकर काम लेता है ऐसे ही स्वामी सेवक से निश्चिन्त होकर काम लेने लग जायें तो सेवक का परम कल्याण हो गया समझना।
एकनाथ जी ने कहाः ".................तो इनको खिला दें।"
उन भिखमंगों में परमात्मा को देखनेवाले दंपत्ति ने उन्हें खिला दिया। इसके बाद नहा धोकर गिरजाबाई ने फिर से भोजन बनाना प्रारम्भ कर दिया। अभी दस ही बजे थे मगर सारे गाँव में खबर फैल गई किः 'जो भोजन ब्राह्मणों के लिए बना था वह भिखमंगों को खिला दिया गया। गिरजाबाई फिर से भोजन बना रही है।'
सब लोग अपने-अपने विचार के होते हैं। जो उद्दंड ब्राह्मण थे उन्होंने लोगों को भड़काया किः "यह ब्राह्मणों का घोर अपमान है। श्राद्ध के लिए बनाया गया भोजन ऐस म्लेच्छ लोगों को खिला दिया गया जो कि नहाते धोते नहींमैले कपड़े पहनते हैंशरीर से बदबू आती है.... और हमारे लिए भोजन अब बनेगाहम जूठन खाएँगेपहले वे खाएँ और बाद में हम खाएँगेहम अपने इस अपमान का बदला लेंगे।"
तत्काल ब्राह्मणों की आपातकालीन बैठक बुलाई गई। पूरा गाँव एक तरफ हो गया। निर्णय लिया गया कि "एकनाथ जी के यहाँ श्राद्धकर्म में कोई नहीं जाएगाभोजन करने कोई नहीं जायेगा ताकि इनके पितर नर्क में पड़ें और इनका कुल बरबाद हो।"
एकनाथ जी के घर द्वार पर लट्ठधारी दो ब्राह्मण युवक खड़े कर दिये गये।
इधर गिरजाबाई ने भोजन तैयार कर दिया। एकनाथ जी ने देखा कि ये लोग किसी को आने देने वाले नहीं हैं।..... तो क्या किया जायेजो ब्राह्मण नहीं आ रहे थेउनकी एक-दो पीढ़ी में पितापितामहदादापरदादा आदि जो भी थेएकनाथ जी महाराज ने अपनी संकल्पशक्तियोगशक्ति का उपयोग करके उन सबका आवाहन किया। सब प्रकट हो गये।
"क्या आज्ञा हैमहाराज !"
एकनाथजी बोलेः "बैठियेब्राह्मणदेव ! आप इसी गाँव के ब्राह्मण हैं। आज मेरे यहाँ भोजन कीजिए।"
गाँव के ब्राह्मणों के पितरों की पंक्ति बैठी भोजन करने। हस्तप्रक्षालनआचमन आदि पर गाये जाने वाले श्लोकों से एकनाथ जी का आँगन गूँज उठा। जो दो ब्राह्मण लट्ठ लेकर बाहर खड़े थे वे आवाज सुनकर चौंके ! उन्होंने सोचाः 'हमने तो किसी ब्राह्मण को अन्दर जाने दिया।दरवाजे की दरार से भीतर देखा तो वे दंग रह गये ! अंदर तो ब्राह्मणों की लंबी पंक्ति लगी है.... भोजन हो रहा है !
जब उन्होंने ध्यान से देखा तो पता चला किः "अरे ! यह क्याये तो मेरे दादा हैं ! वे मेरे नाना ! वे उसके परदादा !"
दोनों भागे गाँव के ब्राह्मणों को खबर करने। उन्होंने कहाः "हमारे और तुम्हारे बाप-दादापरदादानानाचाचाइत्यादि सब पितरलोक से उधर आ गये हैं। एकनाथजी के आँगन में श्राद्धकर्म अब भोजन पा रहे हैं।"
गाँव के सब लोग भागते हुए आये एकनाथ झी के यहाँ। तब तक तो सब पितर भोजन पूरा करके विदा हो रहे थे। एकनाथ जी उन्हें विदाई दे रहे थे। गाँव के ब्राह्मण सब देखते ही रह गये ! आखिर उन्होंने एकनाथजी को हाथ जोड़े और बोलेः "महाराज ! हमने आपको नहीं पहचाना। हमें माफ कर दो।"
इस प्रकार गाँव के ब्राह्मणों एवं एकनाथजी के बीच समझौता हो गया। नक्षत्र और ग्रहों को उनकी जगह से हटाकर अपनी इच्छानुसार गेंद की तरह घुमा सकते हैं। स्मरण करने मात्र से देवता उनके आगे हाथ जोड़कर खड़े हो सकते हैं। आवाहन करने से पितर भी उनके आगे प्रगट हो सकते हैं और उन पितरों को स्थूल शरीर में प्रतिष्ठित करके भोजन कराया जा सकता है। (अनुक्रम)
भगवदगीता के सातवें अध्याय का माहात्म्य
भगवान शिव कहते हैं- "हे पार्वती ! अब मैं सातवें अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँजिसे सुनकर कानों में अमृत-राशि भर जाती है।
पाटलिपुत्र नामक एक दुर्गम नगर है जिसका गोपुर (द्वार) बहुत ही ऊँचा है। उस नगर में शंकुकर्ण नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसने वैश्य वृत्ति का आश्रय लेकर बहुत धन कमाया किन्तु न तो कभी पितरों का तर्पण किया और न देवताओं का पूजन ही। वह धनोपार्जन में तत्पर होकर राजाओं को ही भोज दिया करता था।
एक समय की बात है। उस ब्राह्मण ने अपना चौथा विवाह करने के लिए पुत्रों और बन्धुओं के साथ यात्रा की। मार्ग में आधी रात के समय जब वह सो रहा थातब एक सर्प ने कहीं से आकर उसकी बाँह में काट लिया। उसके काटते ही ऐसी अवस्था हो गई कि मणिमंत्र और औषधि आदि से भी उसके शरीर की रक्षा असाध्य जान पड़ी। तत्पश्चात कुछ ही क्षणों में उसके प्राण पखेरु उड़ गये और वह प्रेत बना। फिर बहुत समय के बाद वह प्रेत सर्पयोनि में उत्पन्न हुआ। उसका वित्त धन की वासना में बँधा था। उसने पूर्व वृत्तान्त को स्मरण करके सोचाः
'मैंने घर के बाहर करोड़ों की संख्या में अपना जो धन गाड़ रखा है उससे इन पुत्रों को वंचित करके स्वयं ही उसकी रक्षा करूँगा।'
साँप की योनि से पीड़ित होकर पिता ने एक दिन स्वप्न में अपने पुत्रों के समक्ष आकर अपना मनोभाव बताया। तब उसके पुत्रों ने सवेरे उठकर बड़े विस्मय के साथ एक-दूसरे से स्वप्न की बातें कही। उनमें से मंझला पुत्र कुदाल हाथ में लिए घर से निकला और जहाँ उसके पिता सर्पयोनि धारण करके रहते थेउस स्थान पर गया। यद्यपि उसे धन के स्थान का ठीक-ठीक पता नहीं था तो भी उसने चिह्नों से उसका ठीक निश्चय कर लिया और लोभबुद्धि से वहाँ पहुँचकर बाँबी को खोदना आरम्भ किया। तब उस बाँबी से बड़ा भयानक साँप प्रकट हुआ और बोलाः
'ओ मूढ़ ! तू कौन हैकिसलिए आया हैयह बिल क्यों खोद रहा हैकिसने तुझे भेजा हैये सारी बातें मेरे सामने बता।'
पुत्रः "मैं आपका पुत्र हूँ। मेरा नाम शिव है। मैं रात्रि में देखे हुए स्वप्न से विस्मित होकर यहाँ का सुवर्ण लेने के कौतूहल से आया हूँ।"
पुत्र की यह वाणी सुनकर वह साँप हँसता हुआ उच्च स्वर से इस प्रकार स्पष्ट वचन बोलाः "यदि तू मेरा पुत्र है तो मुझे शीघ्र ही बन्धन से मुक्त कर। मैं अपने पूर्वजन्म के गाड़े हुए धन के ही लिए सर्पयोनि में उत्पन्न हुआ हूँ।"
पुत्रः "पिता जी! आपकी मुक्ति कैसे होगीइसका उपाय मुझे बताईयेक्योंकि मैं इस रात में सब लोगों को छोड़कर आपके पास आया हूँ।
पिताः "बेटा ! गीता के अमृतमय सप्तम अध्याय को छोड़कर मुझे मुक्त करने में तीर्थदानतप और यज्ञ भी सर्वथा समर्थ नहीं हैं। केवल गीता का सातवाँ अध्याय ही प्राणियों के जरा मृत्यु आदि दुःखों को दूर करने वाला है। पुत्र ! मेरे श्राद्ध के दिन गीता के सप्तम अध्याय का पाठ करने वाले ब्राह्मण को श्रद्धापूर्वक भोजन कराओ। इससे निःसन्देह मेरी मुक्ति हो जायेगी। वत्स ! अपनी शक्ति के अनुसार पूर्ण श्रद्धा के साथ निर्व्यसी और वेदविद्या में प्रवीण अन्य ब्राह्मणों को भी भोजन कराना।"
सर्पयोनि में पड़े हुए पिता के ये वचन सुनकर सभी पुत्रों ने उसकी आज्ञानुसार तथा उससे भी अधिक किया। तब शंकुकर्ण ने अपने सर्पशरीर को त्यागकर दिव्य देह धारण किया और सारा धन पुत्रों के अधीन कर दिया। पिता ने करोड़ों की संख्या में जो धन उनमें बाँट दिया थाउससे वे पुत्र बहुत प्रसन्न हुए। उनकी बुद्धि धर्म में लगी हुई थीइसलिए उन्होंने बावलीकुआँपोखरायज्ञ तथा देवमंदिर के लिए उस धन का उपयोग किया और अन्नशाला भी बनवायी। तत्पश्चात सातवें अध्याय का सदा जप करते हुए उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।
हे पार्वती ! यह तुम्हें सातवें अध्याय का माहात्म्य बतलायाजिसके श्रवणमात्र से मानव सब पातकों से मुक्त हो जाता है।
सातवाँ अध्यायःज्ञानविज्ञानयोग

श्री भगवान बोलेः हे पार्थ ! मुझमें अनन्य प्रेम से आसक्त हुए मनवाला और अनन्य भाव से मेरे परायण होकरयोग में लगा हुआ मुझको संपूर्ण विभूतिबल ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त सबका आत्मरूप जिस प्रकार संशयरहित जानेगा उसको सुन । (1)

मैं तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्त्वज्ञान को संपूर्णता से कहूँगा कि जिसको जानकर संसार में फिर कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहता है । (2)

हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई ही पुरुष मेरे परायण हुआ मुझको तत्त्व से जानता है । (3)

पृथ्वीजलतेजवायु तथा आकाश और मनबुद्धि एवं अहंकार... ऐसे यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है । यह (आठ प्रकार के भेदों वाली) तो अपरा है अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो ! इससे दूसरी को मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान कि जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है । (4,5)

हे अर्जुन ! तू ऐसा समझ कि संपूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों(परा-अपरा) से उत्पन्न होने वाले हैं और मैं संपूर्ण जगत की उत्पत्ति तथा प्रलयरूप हूँ अर्थात् संपूर्ण जगत का मूल कारण हूँ । हे धनंजय ! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है । यह सम्पूर्ण सूत्र में मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है । (6,7)

हे अर्जुन ! जल में मैं रस हूँ । चंद्रमा और सूर्य में मैं प्रकाश हूँ । संपूर्ण वेदों में प्रणव(ॐ) मैं हूँ । आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व मैं हूँ । पृथ्वी में पवित्र गंध और अग्नि में मैं तेज हूँ । संपूर्ण भूतों में मैं जीवन हूँ अर्थात् जिससे वे जीते हैं वह तत्त्व मैं हूँ तथा तपस्वियों में तप मैं हूँ । (8,9)

हे अर्जुन ! तू संपूर्ण भूतों का सनातन बीज यानि कारण मुझे ही जान । मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ । (10)

हे भरत श्रेष्ठ ! आसक्ति और कामनाओँ से रहित बलवानों का बल अर्थात् सामर्थ्य मैं हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात् शास्त्र के अनुकूल काम मैं हूँ । (11)

और जो भी सत्त्वगुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैंउन सबको तू मेरे से ही होने वाले हैं ऐसा जान । परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमे नहीं हैं । (12)

गुणों के कार्यरूप (सात्त्विकराजसिक और तामसिक) इन तीनों प्रकार के भावों से यह सारा संसार मोहित हो रहा है इसलिए इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को वह तत्त्व से नहीं जानता । (13)

यह अलौकिक अर्थात् अति अदभुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं । (14)

माया के द्वारा हरे हुए ज्ञानवाले और आसुरी स्वभाव को धारण किये हुए तथा मनुष्यों में नीच और दूषित कर्म करनेवाले मूढ़ लोग मुझे नहीं भजते हैं । (15)

हे भरतवंशियो में श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्मवाले अर्थार्थीआर्तजिज्ञासु और ज्ञानी – ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझे भजते हैं । (16)

उनमें भी नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित हुआअनन्य प्रेम-भक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि मुझे तत्त्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यंत प्रिय है । (17)

ये सभी उदार हैं अर्थात् श्रद्धासहित मेरे भजन के लिए समय लगाने वाले होने से उत्तम हैं परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही हैं ऐसा मेरा मत है । क्योंकि वह मदगत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है । (18)

बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मुझे भजता हैवह महात्मा अति दुर्लभ है । (19)

उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात् पूजते हैं । (20)

जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता हैउस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ । (21)

वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगों को निःसन्देह प्राप्त करता है। (22)

परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजेंअंत में मुझे ही प्राप्त होते हैं । (23)

बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तमअविनाशीपरम भाव को न जानते हुएमन-इन्द्रयों से परे मुझ सच्चिदानंदघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जानकर व्यक्ति के भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं । (24)

अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता इसलिए यह अज्ञानी जन समुदाय मुझ जन्मरहितअविनाशी परमात्मा को तत्त्व से नहीं जानता है अर्थात् मुझको जन्मने-मरनेवाला समझता है । (25)

हे अर्जुन! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होनेवाले सब भूतों को मैं जानता हूँपरन्तु मुझको कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता | (26)

हे भरतवंशी अर्जुन ! संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न हुए सुख-दुःखादि द्वन्द्वरूप मोह से संपूर्ण प्राणी अति अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं । (27)

(निष्काम भाव से) श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाला जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया हैवे राग-द्वेषादिजनित द्वन्द्वरूप मोह से मुक्त और दृढ़ निश्चयवाले पुरुष मुझको भजते हैं । (28)

जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैंवे पुरुष उस ब्रह्म को तथा संपूर्ण अध्यात्म को और संपूर्ण कर्म को जानते हैं । (29)

जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित (सबका आत्मरूप) मुझे अंतकाल में भी जानते हैंवे युक्त चित्तवाले पुरुष मुझको ही जानते हैं अर्थात् मुझको ही प्राप्त होते हैं। (30)
ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवदगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगे नाम सप्तमोऽध्यायः।
इस प्रकार उपनिषद्ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद् भगवदगीता में
श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के संवाद में 'ज्ञानवियोग नामकसातवाँ अध्याय संपूर्ण।

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