RAJ INFOTECH SYSTEM @ NETWORK

RAJ INFOTECH SYSTEM @ NETWORK
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Friday, October 12, 2012

श्राद्ध


श्राद्ध

हिन्दूधर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता,पूर्वजों को नमस्कार प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म मॆं, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध,तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। यदि कोई कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है इसीलिए आवश्यक है -श्राद्ध और साथ ही
पितरेश्वर तर्पण मुक्ति विधान-साधना
पितरेश्वर दोष निवारण विधान-साधना

श्राद्ध के लाभ
श्राद्ध करने वाला व्यक्ति पापों से मुक्त हो परमगति को प्राप्त करता है।श्राद्ध से संतुष्ट होकर पित्तरगण श्राद्ध करने वालों को दीर्घायु,धन, सुख और मोक्ष प्रदान करते हैं।

श्राद्ध ना करने से हानि
ब्रह्मपुराण के अनुसार श्राद्ध न करने से पित्तर गणों को दुख तो होता ही है, साथ ही श्राद्ध न करने वालों को कष्ट का सामना करना पड़ता है। कैसे करें श्राद्ध: श्राद्ध दो प्रकार के होते हैं पिंड दान और ब्राह्मण भोजन। मृत्यु के बाद जो लोग देव लोक या पितृ लोक पहुंचते हैं वे मंत्रों के द्वारा बुलाए जाने पर श्राद्ध के स्थान पर आकर ब्रा±मण के माध्यम से भोजन करते हैं। ऐसा मनु महाराज ने लिखा है क्योंकि पितृ पक्ष में ब्राह्मण भोजन का ही महत्व है, इसलिए लोग पिंड दान नहीं करते।

ध्यान योग्य
पितृ पक्ष में संकल्प पूर्वक ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। यदि ब्राह्मण भोजन न करा सकें तो भोजन का सामान ब्राह्मण को भेंट करने से भी संकल्प हो जाता है। कुश और काले तिल से संकल्प करें। इसके अलावा गाय, कुत्ता, कोआ, चींटी और देवताओं के लिए भोजन का भाग निकालकर खुले में रख दें। भोजन कराते समय चुप रहें।
भोजन में इनका प्रयोग करें : दूध, गंगा जल, शहद, टसर का कपड़ा, तुलसी, सफेद फूल।
इनका प्रयोग न करें : कदंब, केवड़ा, मौलसिरी या लाल तथा काले रंग के फूल और बेल पत्र श्राद्ध में वर्जित हैं। उड़द, मसूर, अरहर की दाल, गाजर, गोल लौकी, बैंगन, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, पीली सरसों आदि भी वर्जित हैं। लोहा और मिट्टी के बर्तन तथा केले के पत्तों का प्रयोग न करें। विष्णु पुराण के अनुसार श्राद्ध करने वाला ब्राह्मण भी दूसरे के यहां भोजन न करे। जिस दिन श्राद्ध करें उसे दिन दातुन और पान न खाएं। श्राद्ध का महत्वपूर्ण समय: प्रात: 11.26 से 12.24 बजे तक है।




प्रस्तावना
भारतीय संस्कृति की एक बड़ी विशेषता है कि जीते-जी तो विभिन्न संस्कारों के द्वारा, धर्मपालन के द्वारा मानव को समुन्नत करने के उपाय बताती ही है लेकिन मरने के बाद भी, अत्येष्टि संस्कार के बाद भी जीव की सदगति के लिए किये जाने योग्य संस्कारों का वर्णन करती है।
मरणोत्तर क्रियाओं-संस्कारों का वर्णन हमारे शास्त्र-पुराणों में आता है। आश्विन(गुजरात-महाराष्ट्र के मुताबिक भाद्रपद) के कृष्ण पक्ष को हमारे हिन्दू धर्म में श्राद्ध पक्ष के रूप में मनाया जाता है। श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में यथास्थान किया गया है। उन्हीं पर आधारित पूज्यश्री के प्रवचनों को प्रस्तुत पुस्तक में संकलित किया गया है ताकि जनसाधारण 'श्राद्ध महिमा' से परिचित होकर पितरों के प्रति अपना कर्त्तव्य-पालन कर सके।
दिव्य लोकवासी पितरों के पुनीत आशीर्वाद से आपके कुल में दिव्य आत्माएँ अवतरित हो सकती हैं। जिन्होंने जीवन भर खून-पसीना एक करके इतनी साधन-सामग्री व संस्कार देकर आपको सुयोग्य बनाया उनके प्रति सामाजिक कर्त्तव्य-पालन अथवा उन पूर्वजों की प्रसन्नता, ईश्वर की प्रसन्नता अथवा अपने हृदय की शुद्धि के लिए सकाम व निष्काम भाव से यह श्राद्धकर्म करना चाहिए।

श्राद्ध महिमा
हिन्दू धर्म में एक अत्यंत सुरभित पुष्प है कृतज्ञता की भावना, जो कि बालक में अपने माता-पिता के प्रति स्पष्ट परिलक्षित होती है। हिन्दू धर्म का व्यक्ति अपने जीवित माता-पिता की सेवा तो करता ही है, उनके देहावसान के बाद भी उनके कल्याण की भावना करता है एवं उनके अधूरे शुभ कार्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है। 'श्राद्ध-विधि' इसी भावना पर आधारित है।
मृत्यु के बाद जीवात्मा को उत्तम, मध्यम एवं कनिष्ठ कर्मानुसार स्वर्ग नरक में स्थान मिलता है। पाप-पुण्य क्षीण होने पर वह पुनः मृत्युलोक (पृथ्वी) में आता है। स्वर्ग में जाना यह पितृयान मार्ग है एवं जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना यह देवयान मार्ग है।
पितृयान मार्ग से जाने वाले जीव पितृलोक से होकर चन्द्रलोक में जाते हैं। चंद्रलोक में अमृतान्न का सेवन करके निर्वाह करते हैं। यह अमृतान्न कृष्ण पक्ष में चंद्र की कलाओं के साथ क्षीण होता रहता है। अतः कृष्ण पक्ष में वंशजों को उनके लिए आहार पहुँचाना चाहिए, इसीलिए श्राद्ध एवं पिण्डदान की व्यवस्था की गयी है। शास्त्रों में आता है कि अमावस के दिन तो पितृतर्पण अवश्य करना चाहिए।
आधुनिक विचारधारा एवं नास्तिकता के समर्थक शंका कर सकते हैं किः "यहाँ दान किया गया अन्न पितरों तक कैसे पहुँच सकता है?"
देवलोक एवं पितृलोक के वासियों का आयुष्य मानवीय आयुष्य से हजारों वर्ष ज्यादा होता है। इससे पितर एवं पितृलोक को मानकर उनका लाभ उठाना चाहिए तथा श्राद्ध करना चाहिए।
भगवान श्रीरामचन्द्रजी भी श्राद्ध करते थे। पैठण के महान आत्मज्ञानी संत हो गये श्री एकनाथ जी महाराज। पैठण के निंदक ब्राह्मणों ने एकनाथ जी को जाति से बाहर कर दिया था एवं उनके श्राद्ध-भोज का बहिष्कार किया था। उन योगसंपन्न एकनाथ जी ने ब्राह्मणों के एवं अपने पितृलोक वासी पितरों को बुलाकर भोजन कराया। यह देखकर पैठण के ब्राह्मण चकित रह गये एवं उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमायाचना की।
प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर देवऋण, पितृऋण एवं ऋषिऋण रहता है। श्राद्धक्रिया द्वारा पितृऋण से मुक्त हुआ जाता है। देवताओं को यज्ञ-भाग देने पर देवऋण से मुक्त हुआ जाता है। ऋषि-मुनि-संतों के विचारों को आदर्शों को अपने जीवन में उतारने से, उनका प्रचार-प्रसार करने से एवं उन्हे लक्ष्य मानकर आदरसहित आचरण करने से ऋषिऋण से मुक्त हुआ जाता है।
सुनी है एक कथाः महाभारत के युद्ध में दुर्योधन का विश्वासपात्र मित्र कर्ण देह छोड़कर ऊर्ध्वलोक में गया एवं वीरोचित गति को प्राप्त हुआ। मृत्युलोक में वह दान करने के लिए प्रसिद्ध था। उसका पुण्य कई गुना बढ़ चुका था एवं दान स्वर्ण-रजत के ढेर के रूप में उसके सामने आया।
कर्ण ने धन का दान तो किया था किन्तु अन्नदान की उपेक्षा की थी अतः उसे धन तो बहुत मिला किन्तु क्षुधातृप्ति की कोई सामग्री उसे न दी गयी। कर्ण ने यमराज से प्रार्थना की तो यमराज ने उसे 15 दिन के लिए पृथ्वी पर जाने की सहमति दे दी। पृथ्वी पर आकर पहले उसने अन्नदान किया। अन्नदान की जो उपेक्षा की थी उसका बदला चुकाने के लिए 15 दिन तक साधु-संतों, गरीबों-ब्राह्मणों को अन्न-जल से तृप्त किया एवं श्राद्धविधि भी की। यह आश्विन (गुजरात महाराष्ट्र के मुताबिक भाद्रपद) मास का कृष्णपक्ष ही था। जब वह ऊर्ध्वलोक में लौटा तब उसे सभी प्रकार की खाद्य सामग्रियाँ ससम्मान दी गयीं।
धर्मराज यम ने वरदान दिया किः "इस समय जो मृतात्माओं के निमित्त अन्न जल आदि अर्पित करेगा, उसकी अंजलि मृतात्मा जहाँ भी होगी वहाँ तक अवश्य पहुँचेगी।"
जो निःसंतान ही चल बसें हों उन मृतात्माओं के लिए भी यदि कोई व्यक्ति इन दिनों में श्राद्ध-तर्पण करेगा अथवा जलांजलि देगा तो वह भी उन तक पहुँचेगी। जिनकी मरण तिथि ज्ञात न हो उनके लिए भी इस अवधि के दौरान दी गयी अंजलि पहुँचती है।
श्राद्धपक्ष के दौरान दिन में तीन बार स्नान एवं एक बार भोजन का नियम पालते हुए श्राद्ध विधि करनी चाहिए।
जिस दिन श्राद्ध करना हो उस दिन किसी विशिष्ट व्यक्ति को आमंत्रण न दें, नहीं तो उसी की आवभगत में ध्यान लगा रहेगा एवं पितरों का अनादर हो जाएगा। इससे पितर अतृप्त होकर नाराज भी हो सकते हैं। जिस दिन श्राद्ध करना हो उस दिन विशेष उत्साहपूर्वक सत्संग, कीर्तन, जप, ध्यान आदि करके अंतःकरण पवित्र रखना चाहिए।
जिनका श्राद्ध किया जाये उन माता, पिता, पति, पत्नी, संबंधी आदि का स्मरण करके उन्हें याद दिलायें किः "आप देह नहीं हो। आपकी देह तो समाप्त हो चुकी है, किंतु आप विद्यमान हो। आप अगर आत्मा हो.. शाश्वत हो... चैतन्य हो। अपने शाश्वत स्वरूप को निहार कर हे पितृ आत्माओं ! आप भी परमात्ममय हो जाओ। हे पितरात्माओं ! हे पुण्यात्माओं ! अपने परमात्म-स्वभाव का स्मऱण करके जन्म मृत्यु के चक्र से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाओ। हे पितृ आत्माओँ ! आपको हमारे प्रणाम हैं। हम भी नश्वर देह के मोह से सावधान होकर अपने शाश्वत् परमात्म-स्वभाव में जल्दी जागें.... परमात्मा एवं परमात्म-प्राप्त महापुरुषों के आशीर्वाद आप पर हम पर बरसते रहें.... ॐ....ॐ.....ॐ....

शास्त्रों में श्राद्ध विधान
जो श्रद्धा से दिया जाये उसे श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धा मंत्र के मेल से जो विधि होती है उसे श्राद्ध कहते हैं। जीवात्मा का अगला जीवन पिछले संस्कारों से बनता है। अतः श्राद्ध करके यह भावना की जाती है कि उसका अगला जीवन अच्छा हो। जिन पितरों के प्रति हम कृतज्ञतापूर्वक श्राद्ध करते हैं वे हमारी सहायता करते हैं।
'वायु पुराण' में आत्मज्ञानी सूत जी ऋषियों से कहते हैं- "हे ऋषिवृंद ! परमेष्ठि ब्रह्मा ने पूर्वकाल में जिस प्रकार की आज्ञा दी है उसे तुम सुनो। ब्रह्मा जी ने कहा हैः 'जो लोग मनुष्यलोक के पोषण की दृष्टि से श्राद्ध आदि करेंगे, उन्हें पितृगण सर्वदा पुष्टि एवं संतति देंगे। श्राद्धकर्म में अपने प्रपितामह तक के नाम एवं गोत्र का उच्चारण कर जिन पितरों को कुछ दे दिया जायेगा वे पितृगण उस श्राद्धदान से अति संतुष्ट होकर देनेवाले की संततियों को संतुष्ट रखेंगे, शुभ आशिष तथा विशेष सहाय देंगे।"
हे ऋषियो ! उन्हीं पितरों की कृपा से दान, अध्ययन, तपस्या आदि सबसे सिद्धि प्राप्त होती है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि वे पितृगण ही हम सबको सत्प्रेरणा प्रदान करने वाले हैं।
नित्यप्रति गुरुपूजा-प्रभृति सत्कर्मों में निरत रहकर योगाभ्यासी सब पितरों को तृप्त रखते हैं। योगबल से वे चंद्रमा को भी तृप्त करते हैं जिससे त्रैलोक्य को जीवन प्राप्त होता है। इससे योग की मर्यादा जानने वालों को सदैव श्राद्ध करना चाहिए।
मनुष्यों द्वारा पितरों को श्रद्धापूर्वक दी गई वस्तुएँ ही श्राद्ध कही जाती हैं। श्राद्धकर्म में जो व्यक्ति पितरों की पूजा किये बिना ही किसी अन्य क्रिया का अनुष्ठान करता है उसकी उस क्रिया का फल राक्षसों तथा दानवों को प्राप्त होता है।
श्राद्धयोग्य ब्राह्मण
'वराह पुराण' में श्राद्ध की विधि का वर्णन करते हुए मार्कण्डेयजी गौरमुख ब्राह्मण से कहते हैं- "विप्रवर छहों वेदांगो को जानने वाले, यज्ञानुष्ठान में तत्पर, भानजे, दौहित्र, श्वसुर, जामाता, मामा, तपस्वी ब्राह्मण, पंचाग्नि तपने वाले, शिष्य, संबंधी तथा अपने माता पिता के प्रेमी ब्राह्मणों को श्राद्धकर्म में नियुक्त करना चाहिए।
'मनुस्मृति' में कहा गया हैः
"जो क्रोधरहित, प्रसन्नमुख और लोकोपकार में निरत हैं ऐसे श्रेष्ठ ब्राह्मणों को मुनियों ने श्राद्ध के लिए देवतुल्य कहा है।
वायु पुराण में आता हैः श्राद्ध के अवसर पर हजारों ब्राह्मणों को भोजन कराने स जो फल मिलता है, वह फल योग में निपुण एक ही ब्राह्मण संतुष्ट होकर दे देता है एवं महान् भय (नरक) से छुटकारा दिलाता है। एक हजार गृहस्थ, सौ वानप्रस्थी अथवा एक ब्रह्मचारी – इन सबसे एक योगी (योगाभ्यासी) बढ़कर है। जिस मृतात्मा का पुत्र अथवा पौत्र ध्यान में निमग्न रहने वाले किसी योगाभ्यासी को श्राद्ध के अवसर पर भोजन करायेगा, उसके पितृगण अच्छी वृष्टि से संतुष्ट किसानों की तरह परम संतुष्ट होंगे। यदि श्राद्ध के अवसर पर कोई योगाभ्यासी ध्यानपरायण भिक्षु न मिले तो दो ब्रह्मचारियों को भोजन कराना चाहिए। वे भी न मिलें तो किसी उदासीन ब्राह्मण को भोजन करा देना चाहिए। जो व्यक्ति सौ वर्षों तक केवल एक पैर पर खड़े होकर, वायु का आहार करके स्थित रहता है उससे भी बढ़कर ध्यानी एवं योगी है – ऐसी ब्रह्मा जी की आज्ञा है।
मित्रघाती, स्वभाव से ही विकृत नखवाला, काले दाँतवाला, कन्यागामी, आग लगाने वाला, सोमरस बेचने वाला, जनसमाज में निंदित, चोर, चुगलखोर, ग्राम-पुरोहित, वेतन लेकर पढ़ानेवाला, पुनर्विवाहिता स्त्री का पति, माता-पिता का परित्याग करने वाला, हीन वर्ण की संतान का पालन-पोषण करने वाला, शूद्रा स्त्री का पति तथा मंदिर में पूजा करके जीविका चलाने वाला ब्राह्मण श्राद्ध के अवसर पर निमंत्रण देने योग्य नहीं हैं, ऐसा कहा गया है।
बच्चों का सूतक जिनके घर में हो, दीर्घ काल से जो रोगग्रस्त हो, मलिन एवं पतित विचारोंवाले हों, उनको किसी भी प्रकार से श्राद्धकर्म नहीं देखने चाहिए। यदि वे लोग श्राद्ध के अन्न को देख लेते हैं तो वह अन्न हव्य के लिए उपयुक्त नहीं रहता। इनके द्वारा स्पर्श किये गये श्राद्धादि संस्कार अपवित्र हो जाते हैं।
"ब्रह्महत्या करने वाले, कृतघ्न, गुरुपत्नीगामी, नास्तिक, दस्यु, नृशंस, आत्मज्ञान से वंचित एवं अन्य पापकर्मपरायण लोग भी श्राद्धकर्म में वर्जित हैं। विशेषतया देवताओं और देवर्षियों की निंदा में लिप्त रहने वाले लोग भी वर्ज्य हैं। इन लोगों द्वारा देखा गया श्राद्धकर्म निष्फल हो जाता है।

ब्राह्मण को निमंत्रण
विचारशील पुरुष को चाहिए कि वह संयमी, श्रेष्ठ ब्राह्मणों को एक दिन पूर्व ही निमंत्रण दे दे। श्राद्ध के दिन कोई अनिमंत्रित तपस्वी ब्राह्मण, अतिथि या साधु-सन्यासी घर पर पधारें तो उन्हें भी भोजन कराना चाहिए। श्राद्धकर्त्ता को घर पर आये हुए ब्राह्मणों के चरण धोने चाहिए। फिर अपने हाथ धोकर उन्हें आचमन करना चाहिए। तत्पश्चात उन्हें आसनों पर बैठाकर भोजन कराना चाहिए।
पितरों के निमित्त अयुग्म अर्थात एक, तीन, पाँच, सात इत्यादि की संख्या में तथा देवताओं के निमित्त युग्म अर्थात दो, चार, छः, आठ आदि की संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराने की व्यवस्था करनी चाहिए। देवताओं एवं पितरों दोनों के निमित्त एक-एक ब्राह्मण को भोजन कराने का भी विधान है।
वायु पुराण में बृहस्पति अपने पुत्र शंयु से कहते हैं-
"जितेन्द्रिय एवं पवित्र होकर पितरों को गंध, पुष्प, धूप, घृत, आहुति, फल, मूल आदि अर्पित करके नमस्कार करना चाहिए। पितरों को प्रथम तृप्त करके उसके बाद अपनी शक्ति अनुसार अन्न-संपत्ति से ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए। सर्वदा श्राद्ध के अवसर पितृगण वायुरूप धारण कर ब्राह्मणों को देखकर उन्ही आविष्ट हो जाते हैं इसीलिए मैं तत्पश्चात उनको भोजन कराने की बात कर रहा हूँ। वस्त्र, अन्न, विशेष दान, भक्ष्य, पेय, गौ, अश्व तथा ग्रामादि का दान देकर उत्तम ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए। द्विजों का सत्कार होने पर पितरगण प्रसन्न होते हैं।

श्राद्ध के समय हवन और आहुति
"पुरुषप्रवर ! श्राद्ध के अवसर पर ब्राह्मण को भोजन कराने के पहले उनसे आज्ञा पाकर लवणहीन अन्न और शाक से अग्नि में तीन बार हवन करना चाहिए। उनमें 'अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा.....' इस मंत्र से पहली आहुति, 'सोमाय पितृमते स्वाहा.....' इस मंत्र से दूसरी आहूति एवं 'वैवस्वताय स्वाहा....' मंत्र बोलकर तीसरी आहुति देने का समुचित विधान है। तत्पश्चात हवन करने से बचा हुआ अन्न थोड़ा-थोड़ा सभी ब्राह्मणों के पात्रों में दें।

अभिश्रवण एवं रक्षक मंत्र
श्राद्धविधि में मंत्रों का बड़ा महत्व है। श्राद्ध में आपके द्वारा दी गई वस्तुएँ कितनी भी मूल्यवान क्यों न हों, लेकिन आपके द्वारा यदि मंत्रों का उच्चारण ठीक न हो तो कार्य अस्त-व्यस्त हो जाता है। मंत्रोच्चारण शुद्ध होना चाहिए और जिनके निमित्त श्राद्ध करते हों उनके नाम का उच्चारण शुद्ध करना चाहिए।
श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराते समय 'रक्षक मंत्र' का पाठ करके भूमि पर तिल बिखेर दें तथा अपने पितृरूप में उन द्विजश्रेष्ठों का ही चिंतन करें। 'रक्षक मंत्र' इस प्रकार हैः
'यहाँ संपूर्ण हव्य-फल के भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान श्रीहरि विराजमान हैं। अतः उनकी सन्निधि के कारण समस्त राक्षस और असुरगण यहाँ से तुरन्त भाग जाएँ।'
ब्राह्मणों को भोजन के समय यह भावना करें किः
'इन ब्राह्मणों के शरीरों में स्थित मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आदि आज भोजन से तृप्त हो जाएँ।'
जैसे, यहाँ के भेजे हुए रुपये लंदन में पाउण्ड, अमेरिका में डालर एवं जापान में येन बन जाते हैं ऐसे ही पितरों के प्रति किये गये श्राद्ध का अन्न, श्राद्धकर्म का फल हमारे पितर जहाँ हैं, जैसे हैं, उनके अनुरूप उनको मिल जाता है। किन्तु इसमें जिनके लिए श्राद्ध किया जा रहा हो, उनके नाम, उनके पिता के नाम एवं गोत्र के नाम का स्पष्ट उच्चारण होना चाहिए। विष्णु पुराण में आता हैः
'श्रद्धायुक्त व्यक्तियों द्वारा नाम और गोत्र का उच्चारण करके दिया हुआ अन्न पितृगण को वे जैसे आहार के योग्य होते हैं वैसा ही होकर उन्हें मिलता है'

श्राद्ध में भोजन कराने का विधान
भोजन के लिए उपस्थित अन्न अत्यंत मधुर, भोजनकर्त्ता की इच्छा के अनुसार तथा अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ होना चाहिए। पात्रों में भोजन रखकर श्राद्धकर्त्ता को अत्यंत सुंदर एवं मधुरवाणी से कहना चाहिए किः 'हे महानुभावो ! अब आप लोग अपनी इच्छा के अनुसार भोजन करें।'
फिर क्रोध तथा उतावलेपन को छोड़कर उन्हें भक्ति पूर्वक भोजन परोसते रहना चाहिए।
ब्राह्मणों को भी दत्तचित्त और मौन होकर प्रसन्न मुख से सुखपूर्वक भोजन करना चाहिए।
"लहसुन, गाजर, प्याज, करम्भ (दही मिला हुआ आटा या अन्य भोज्य पदार्थ) आदि वस्तुएँ जो रस और गन्ध से निन्द्य हैं, श्राद्धकर्म में निषिद्ध हैं।"
"ब्राह्मण को चाहिए कि वह भोजन के समय कदापि आँसू न गिराये, क्रोध न करे, झूठ न बोले, पैर से अन्न के न छुए और उसे परोसते हुए न हिलाये। आँसू गिराने से श्राद्धान्न भूतों को, क्रोध करने से शत्रुओं को, झूठ बोलने से कुत्तों को, पैर छुआने से राक्षसों को और उछालने से पापियों को प्राप्त होता है।"
"जब तक अन्न गरम रहता है और ब्राह्मण मौन होकर भोजन करते हैं, भोज्य पदार्थों के गुण नहीं बतलाते तब तक पितर भोजन करते हैं। सिर में पगड़ी बाँधकर या दक्षिण की ओर मुँह करके या खड़ाऊँ पहनकर जो भोजन किया जाता है उसे राक्षस खा जाते हैं।"
"भोजन करते हुए ब्राह्मणों पर चाण्डाल, सूअर, मुर्गा, कुत्ता, रजस्वला स्त्री और नपुंसक की दृष्टि नहीं पड़नी चाहिए। होम, दान, ब्राह्मण-भोजन, देवकर्म और पितृकर्म को यदि ये देख लें तो वह कर्म  निष्फल हो जाता है।
सूअर के सूँघने से, मुर्गी के पंख की हवा लगने से, कुत्ते के देखने से और शूद्र के छूने से श्राद्धान्न निष्फल हो जाता है। लँगड़ा, काना, श्राद्धकर्ता का सेवक, हीनांग, अधिकांग इन सबको श्राद्ध-स्थल से हटा दें।"
श्राद्ध से बची हुई भोजनादि वस्तुएँ स्त्री को तथा जो अनुचर न हों ऐसे शूद्र को नहीं देनी चाहिए। जो अज्ञानवश इन्हें दे देता है, उसका दिया हुआ श्राद्ध पितरों को नहीं प्राप्त होता। इसलिए श्राद्धकर्म में जूठे बचे हुए अन्नादि पदार्थ किसी को नहीं देना चाहिए।

अन्न आदि के वितरण का विधान
जब निमंत्रित ब्राह्मण भोजन से तृप्त हो जायें तो भूमि पर थोड़ा-सा अन्न डाल देना चाहिए। आचमन के लिए उन्हे एक बार शुद्ध जल देना आवश्यक है। तदनंतर भली भांति तृप्त हुए ब्राह्मणों से आज्ञा लेकर भूमि पर उपस्थित सभी प्रकार के अन्न से पिण्डदान करने का विधान है। श्राद्ध के अंत में बलिवैश्वदेव का भी विधान है।
ब्राह्मणों से सत्कारित तथा पूजित यह एक मंत्र समस्त पापों को दूर करने वाला, परम पवित्र तथा अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति कराने वाला है।
सूत जी कहते हैः "हे ऋषियो ! इस मंत्र की रचना ब्रह्मा जी ने की थी। यह अमृत मंत्र हैः
"समस्त देवताओं, पितरों, महायोगिनियों, स्वधा एवं स्वाहा सबको हम नमस्कार करते हैं। ये सब शाश्वत फल प्रदान करने वाले हैं।"
सर्वदा श्राद्ध के प्रारम्भ, अवसान तथा पिण्डदान के समय सावधानचित्त होकर तीन बार इस मंत्र का पाठ करना चाहिए। इससे पितृगण शीघ्र वहाँ आ जाते हैं और राक्षसगण भाग जाते हैं। राज्य प्राप्ति के अभिलाषी को चाहिए कि वह आलस्य रहित होकर सर्वदा इस मंत्र का पाठ करें। यह वीर्य, पवित्रता, धन, सात्त्विक बल, आयु आदि को बढ़ाने वाला है।
बुद्धिमान पुरुष को चाहिए की वह कभी दीन, क्रुद्ध अथवा अन्यमनस्क होकर श्राद्ध न करे। एकाग्रचित्त होकर श्राद्ध करना चाहिए। मन में भावना करे किः 'जो कुछ भी अपवित्र तथा अनियमित वस्तुएँ है, मैं उन सबका निवारण कर रहा हूँ। विघ्न डालने वाले सभी असुर एवं दानवों को मैं मार चुका हूँ। सब राक्षस, यक्ष, पिशाच एवं यातुधानों (राक्षसों) के समूह मुझसे मारे जा चुके हैं।

श्राद्ध में दान
श्राद्ध के अन्त में दान देते समय हाथ में काले तिल, जौ और कुश के साथ पानी लेकर ब्राह्मण को दान देना चाहिए ताकि उसका शुभ फल पितरों तक पहुँच सके, नहीं तो असुर लोग हिस्सा ले जाते हैं। ब्राह्मण के हाथ में अक्षत(चावल) देकर यह मंत्र बोला जाता हैः
"मेरा पुण्य अक्षय हो। मुझे शांति, पुष्टि और धृति प्राप्त हो। लोक में जो कल्याणकारी वस्तुएँ हैं, वे सदा मुझे मिलती रहें।"
इस प्रकार की प्रार्थना भी की जा सकती है।
पितरों को श्रद्धा से ही बुलाया जा सकता है। केवल कर्मकाण्ड या वस्तुओं से काम नहीं होता है।
"श्राद्ध में चाँदी का दान, चाँदी के अभाव में उसका दर्शन अथवा उसका नाम लेना भी पितरों को अनन्त एवं अक्षय स्वर्ग देनेवाला दान कहा जाता है। योग्य पुत्रगण चाँदी के दान से अपने पितरों को तारते हैं। काले मृगचर्म का सान्निध्य, दर्शन अथवा दान राक्षसों का विनाश करने वाला एवं ब्रह्मतेज का वर्धक है। सुवर्णनिर्मित, चाँदीनिर्मित, ताम्रनिर्मित वस्तु, दौहित्र, तिल, वस्त्र, कुश का तृण, नेपाल का कम्बल, अन्यान्य पवित्र वस्तुएँ एवं मन, वचन, कर्म का योग, ये सब श्राद्ध में पवित्र वस्तुएँ कही गई हैं।"
श्राद्धकाल में ब्राह्मणों को अन्न देने में यदि कोई समर्थ न हो तो ब्राह्मणों को वन्य कंदमूल, फल, जंगली शाक एवं थोड़ी-सी दक्षिणा ही दे। यदि इतना करने भी कोई समर्थ न हो तो किसी भी द्विजश्रेष्ठ को प्रणाम करके एक मुट्ठी काले तिल दे अथवा पितरों के निमित्त पृथ्वी पर भक्ति एवं नम्रतापूर्वक सात-आठ तिलों से युक्त जलांजलि दे देवे। यदि इसका भी अभाव हो तो कहीँ कहीं न कहीं से एक दिन का घास लाकर प्रीति और श्रद्धापूर्वक पितरों के उद्देश्य से गौ को खिलाये। इन सभी वस्तुओं का अभाव होने पर वन में जाकर अपना कक्षमूल (बगल) सूर्य को दिखाकर उच्च स्वर से कहेः
मेरे पास श्राद्ध कर्म के योग्य न धन-संपत्ति है और न कोई अन्य सामग्री। अतः मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ। वे मेरी भक्ति से ही तृप्तिलाभ करें। मैंने अपनी दोनों बाहें आकाश में उठा रखी हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि पितरों के कल्याणार्थ श्राद्ध के दिनों में श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। पितरों को जो श्रद्धामय प्रसाद मिलता है उससे वे तृप्त होते हैं।

श्राद्ध में पिण्डदान
हमारे जो सम्बन्धी देव हो गये हैं, जिनको दूसरा शरीर नहीं मिला है वे पितृलोक में अथवा इधर उधर विचरण करते हैं, उनके लिए पिण्डदान किया जाता है।
बच्चों एवं सन्यासियों के लिए पिण्डदान नहीं किया जाता। पिण्डदान उन्हीं का होता है जिनको मैं-मेरे की आसक्ति होती है। बच्चों की मैं-मेरे की स्मृति और आसक्ति विकसित नहीं होती और सन्यास ले लेने पर शरीर को मैं मानने की स्मृति सन्यासी को हटा देनी होती है। शरीर में उनकी आसक्ति नहीं होती इसलिए उनके लिए पिण्डदान नहीं किया जाता।
श्राद्ध में बाह्य रूप से जो चावल का पिण्ड बनाया जाता, केवल उतना  बाह्य कर्मकाण्ड नहीं है वरन् पिण्डदान के पीछे तात्त्विक ज्ञान भी छुपा है।
जो शरीर में नहीं रहे हैं, पिण्ड में हैं, उनका भी नौ तत्त्वों का पिण्ड रहता हैः चार अन्तःकरण और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। उनका स्थूल पिण्ड नहीं रहता है वरन् वायुमय पिण्ड रहता है। वे अपनी आकृति दिखा सकते हैं किन्तु आप उन्हे छू नहीं सकते । दूर से ही वे आपकी दी हुई चीज़ को भावनात्मक रूप से ग्रहण करते हैं। दूर से ही वे आपको प्रेरणा आदि देते हैं अथवा कोई कोई स्वप्न में भी मार्गदर्शन देते हैं।
अगर पितरों के लिए किया गया पिण्डदान एवं श्राद्धकर्म व्यर्थ होता तो वे मृतक पितर स्वप्न में यह नहीं कहते किः हम दुःखी हैं। हमारे लिए पिण्डदान करो ताकि हमारी पिण्ड की आसक्ति छूटे और हमारी आगे की यात्रा हो... हमें दूसरा शरीर, दूसरा पिण्ड मिल सके।
श्राद्ध इसीलिए किया जाता है कि पितर मंत्र एवं श्रद्धापूर्वक किये गये श्राद्ध की वस्तुओं को भावनात्मक रूप से ले लेते हैं और वे तृप्त भी होते हैं।

No comments:

Post a Comment