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Wednesday, March 12, 2014

होली 16-03-2014 होलिकादहन पूर्णिमा, फाल्गुन, शुक्ल पक्ष, २०७० विक्रम सम्वत












होली/होलिकादहन पूर्णिमा, फाल्गुन, शुक्ल पक्ष, २०७० विक्रम सम्वत

रंगवाली होली प्रतिपदा, चैत्र, कृष्ण पक्ष, २०७० विक्रम सम्वत

होली

होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है।यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता हैं ! यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहां भी धूम धाम के साथ मनाया जाता हैं! पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।

राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।

कहानियाँ

होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।

प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है। कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।

परंपराएँ

होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं, और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।

होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए। लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।

होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।

होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने की वज़ह से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता ।

विशिष्ट उत्सव

भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया, जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।

संगीत में होली

भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हाँलाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली हैं, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहां ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है,अपने महबूब के घर रंग है री। इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता हैं। भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं।

आधुनिकता का रंग

होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते है। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं।लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं। रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं। होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ इस साल होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है से लगाया जा सकता है।

होली के रूप अनेक:लट्ठमार होली

सभी को पता है कि भारत मे होली मार्च के महीने मे मनाई जाती है, लेकिन क्या आपको पता है पूरे देश मे अलग अलग प्रान्तो(यहाँ प्रदेश पढे) में होली को अलग अलग नामों से जाना जाता है। आइये एक नजर डालते है, होली के विभिन्न रूपों पर :

बरसाना की लट्ठमार होली

हरियाणा की धुलन्डी

महाराष्ट्र की रंग पंचमी

बंगाल का बसन्तोत्सव

पंजाब का होला मोहल्ला

कोंकण का शिमगो

तमिलनाडु की कमन पोडिगई

बिहार की फागु पूर्णिमा

चलिये आज बात करते है ब्रज के बरसाना की लट्ठमार होली की।
बरसाना की लट्ठमार होली
अब जब होली की बात हो और ब्रज का नाम ना आए, ऐसा तो हो ही नही सकता। होली शुरु होते ही सबसे पहले तो ब्रज रंगों मे डूब जाता है।सबसे ज्यादा मशहूर है बरसाना की लट्ठमार होली।बरसाना, भगवान श्रीकृष्ण की प्रिय राधा का जन्मस्थान। उत्तरप्रदेश मे मथुरा के पास बरसाना मे होली की धूम, होली के कुछ दिनो पहले ही शुरु हो जाती है और हो भी क्यों ना, यहाँ राधा रानी जो पली बढी थी। यहाँ की लट्ठमार होली बहुत प्रसिद्द है। इस दिन लट्ठ महिलाओं के हाथ मे रहता है और नन्दगाँव के पुरुषों(गोप) जो राधा के मन्दिर ‘लाडलीजी’ पर झंडा फहराने की कोशिश करते है उन्हे महिलाओं के लट्ठ से बचना होता है, महिलाएं पुरुषों को लट्ठ मार मार कर लहुलुहान कर देती है। गोपों को किसी भी तरह का प्रतिरोध करने की आज्ञा नही होती, उन्हे तो बस गुलाल छिड़क कर इन महिलाओं को चकमा देना होता है।अगर वे पकड़े जाते है तो उनकी जमकर पिटाई होती है या उन्हे महिलाओं के कपड़े पहनाकर, श्रृंगार इत्यादि करके नचाया जाता है।माना जाता है कि पौराणिक काल मे श्रीकृष्ण भी गोप बने थे और उन्हे भी बरसाना की गोपियों ने नचाया था।दो सप्ताह तक चलने वाली इस होली का माहौल बहुत मस्ती भरा होता है।एक बात और यहाँ पर रंग और गुलाल जो प्रयोग किया जाता है वो प्राकृतिक होता है, जिससे माहौल बहुत ही सुगन्धित रहता है।

अगले दिन यही प्रक्रिया दोहराई जाती है, लेकिन इस बार नन्दगाँव मे, वहाँ की गोपियां, बरसाना के गोपों की जमकर धुलाई करती है।कहते है इस दिन सभी महिलाओं मे राधा की आत्मा बसती है और पुरुष भी हँस हँस कर लाठिया खाते है और होली को पारम्परिक तरीके से मनाते है।आपसी वार्तालाप के लिये ‘होरी’ गाई जाती है, जो श्रीकृष्ण और राधा के बीच वार्तालाप पर आधारित होती है।इस होली को देखने के लिये देश विदेश से हजारो सैलानी बरसाना पहुँचते है। तो आप आ रहे है ना इस बार बरसाना में, होली खेलने?

होली के रूप अनेक : भाग दो

होली उत्तर भारत के अलावा अन्य प्रदेशों मे भी मनाई जाती है, हाँ थोड़ा बहुत रुप स्वरुप बदल जाता है।
हरियाणा की धुलन्डी
हरियाणा मे होली के त्योहार मे भाभियों को इस दिन पूरी छूट रहती है कि वे अपने देवरों को साल भर सताने का दण्ड दें।इस दिन भाभियां देवरों को तरह तरह से सताती है और देवर बेचारे चुपचाप झेलते है, क्योंकि इस दिन तो भाभियों का दिन होता है।शाम को देवर अपनी प्यारी भाभी के लिये उपहार लाता है इस तरह इस त्योहार को मनाया जाता है। भारतीय संस्कृति मे यही तो अच्छी बात है, हम प्रकृति को हर रुप मे पूजते है और हमारे यहाँ हर रिश्ते नाते के लिये अलग अलग त्योहार हैं।ऐसा और कहाँ मिलता है।

बंगाल का बसन्तोत्सव

गुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर ने होली के ही दिन शान्तिनिकेतन मे वसन्तोत्सव का आयोजन किया था, तब से आज तक इस यहाँ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। पूरे बंगाल मे इसे ढोल पूर्णिमा अथवा ढोल जात्रा के तौर पर भी मनाया जाता है, लोग अबीर गुलाल लेकर मस्ती करते है। श्रीकृष्ण और राधा की झांकिया निकाली जाती है।

महाराष्ट्र की रंग पंचमी और कोंकण का शिमगो
महाराष्ट्र और कोंकण के लगभग सभी हिस्सों मे इस त्योहार को रंगों के त्योहार के रुप मे मनाया जाता है। मछुआरों की बस्ती मे इस त्योहार का मतलब नाच,गाना और मस्ती होता है। ये मौसम रिशते(शादी) तय करने के लिये मुआफिक होता है, क्योंकि सारे मछुआरे इस त्योहार पर एक दूसरे के घरों को मिलने जाते है और काफी समय मस्ती मे व्यतीत करते हैं।

पंजाब का होला मोहल्ला
पंजाब मे भी इस त्योहार की बहुत धूम रहती है। सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री अनन्दपुर साहिब मे होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है। सिखों के लिये यह धर्मस्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है।कहते है गुरु गोबिन्द सिंह(सिक्खों के दसवें गुरु) ने स्वयं इस मेले की शुरुआत की थी।तीन दिन तक चलने वाले इस मेले में सिख शौर्यता के हथियारों का प्रदर्शन और वीरत के करतब दिखाए जाते हैं। इस दिन यहाँ पर अनन्दपुर साहिब की सजावट की जाती है और विशाल लंगर का आयोजन किया जाता है।कभी आपको मौका मिले तो देखियेगा जरुर।

तमिलनाडु की कामन पोडिगई
तमिलनाडु में होली का दिन कामदेव को समर्पित होता है। इसके पीछे भी एक किवदन्ती है। प्राचीन काल मे देवी सती (भगवान शंकर की पत्नी) की मृत्यू के बाद शिव काफी क्रोधित और व्यथित हो गये थे।इसके साथ ही वे ध्यान मुद्रा मे प्रवेश कर गये थे।उधर पर्वत सम्राट की पुत्री भी शंकर भगवान से विवाह करने के लिये तपस्या कर रही थी। देवताओ ने भगवान शंकर की निद्रा को तोड़ने के लिये कामदेव का सहारा लिया।कामदेव ने अपने कामबाण के शंकर पर वार किया।भगवन ने गुस्से मे अपनी तपस्या को बीच मे छोड़कर कामदेव को देखा। शंकर भगवान को बहुत गुस्सा आया कि कामदेव ने उनकी तपस्या मे विध्न डाला है इसलिये उन्होने अपने त्रिनेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया। अब कामदेव का तीर तो अपना काम कर ही चुका था, सो पार्वती को शंकर भगवान पति के रुप मे प्राप्त हुए। उधर कामदेव की पत्नी रति ने विलाप किया और शंकर भगवान से कामदेव को जीवित करने की गुहार की। ईश्वर प्रसन्न हुए और उन्होने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया। यह दिन होली का दिन होता है। आज भी रति के विलाप को लोक संगीत के रुप मे गाया जाता है और चंदन की लकड़ी को अग्निदान किया जाता है ताकि कामदेव को भस्म होने मे पीड़ा ना हो। साथ ही बाद मे कामदेव के जीवित होने की खुशी मे रंगो का त्योहार मनाया जाता है।

और अब कानपुर की होली के बारे मे कुछ शब्द
पूरे देश मे होली का त्योहार एक दिन के लिये मनाया जाता है, लेकिन कानपुर मे यह त्योहार पूरे सात दिन तक मनाया जाता है।होली के दिन से लेकर अनूसुइया नक्षत्र के दिखाई देने तक, रोजाना होली खेली जाती है। इस दौरान शहर के सभी बड़े थोक बाजार बन्द रहते है, सभी लोग इस दौरान अपने अपने गाँवो/शहरों मे होली मनाने चले जाते है। पुराने लोगों का मानना है कि अनुसुइया नक्षत्र दिखाई देने तक व्यापार के लिये महूर्त ठीक नही रहता इसलिये दुकाने बन्द रखी जाती है।हालांकि अब इस होली को दो या तीन दिन तक सीमित किए जाना के काफी प्रयास किये जा रहे है।फिर भी जब तक अनुसुइया नक्षत्र नही दिखाई देता, कोई भी दुकान खोलने की हिम्मत नही करता।जिस दिन नक्षत्र दिखाई दे जाता है, उसके अगले दिन को यहाँ गंगा मेला के तौर पर मनाया जाता है, उस दिन रंगो का आखिरी दिन होता है। अगले दिन लोग वापस अपने व्यापार को लौटते हैं।

तो भैया, जब भी कानपुर आओ, तो होली के समय सोच समझकर ही आना, बाद मे मत कहना कि पहले बताया नही।तो भैया ये था होली का हिसाब किताब, अब कोई और होली छूट गयी हो तो जरुर बताना,हमारा तो इतना ही ज्ञान था, जो यहाँ पर उड़ेल दिया। आपको और आपके परिवार में सभी को होली की बहुत बहुत शुभकामनायें।
देश विदेश की होली

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भले ही विविध प्रकार से रंगों का उत्सव मनाया जाता है परंतु सबका उद्देश्य एवं भावना एक ही है। ब्रज मंडल में इस अवसर पर रास और रंग का मिश्रण देखते ही बनता है।




बरसाने' की लठमार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। इस दिन नंद गाँव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते हैं और विभिन्न मंदिरों में पूजा अर्चना के पश्चात जम कर बरसती लाठियों के साए में होली खेली जाती है। इस होली को देखने के लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश से लोग 'बरसाना' आते हैं।

फालैन गाँव में विचित्र दृश्य देखने में आता है। मथुरा से ५३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित फालैन की अनूठी होली अपने आप में एक कौतुक है। यह होली फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को आयोजित होती है। होली पर इस गाँव का एक पंडा मात्र एक अंगोछा शरीर पर धारण करके २०-२५ फुट घेरे वाली विशाल होली की धधकती आग में से निकल कर अथवा उसे फलांग कर दर्शकों में रोमांच पैदा कर देता है। यह पंडा वर्ष पर्यंत संयमपूर्वक नियमानुसार पूजा पाठ करता है जिससे वह ऐसी विकराल ज्वालाओं के मध्य कूदने का साहस कर पाता है। होली में से उसके सकुशल निकलने के उपलक्ष्य में उसे जन्म एवं विवाह इत्यादि अवसरों पर सम्मानपूर्वक निमंत्रित किया जाता है। खलिहान का पहला अनाज भी उसे अर्पित किया जाता है। फालैन गाँव के आस-पास के लोगों का मत है कि सैंकड़ों वर्षों से प्रह्लाद के आग से सकुशल बच जाने की घटना को, इस दृश्य के माध्यम से सजीव किया जाता है। इसलिए इस अवसर पर यहाँ लगने वाले मेले को 'प्रह्लाद मेला' कहा जाता है। इस गाँव में प्रह्लाद का एक भव्य मंदिर है। एक प्रह्लाद कुंड भी है।

मालवा में होली के दिन लोग एक दूसरे पर अंगारे फैंकते हैं। उनका विश्वास है कि इससे होलिका नामक राक्षसी का अंत हो जाता है।

पंजाब और हरियाणा में होली पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाई जाती है। इसीलिए दशम गुरू गोविंद सिंह जी ने होली के लिए पुल्लिंग शब्द होला महल्ला का प्रयोग किया। गुरु जी इसके माध्यम से समाज के दुर्बल और शोषित वर्ग की प्रगति चाहते थे। होला महल्ला का उत्सव आनंदपुर साहिब में छ: दिन तक चलता है। इस अवसर पर, भांग की तरंग में मस्त घोड़ों पर सवार निहंग, हाथ में निशान साहब उठाए तलवारों के करतब दिखा कर साहस, पौरुष और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं। जुलूस तीन काले बकरों की बलि से प्रारंभ होता है। एक ही झटके से बकरे की गर्दन धड़ से अलग करके उसके मांस से 'महा प्रसाद' पका कर वितरित किया जाता है। पंज पियारे जुलूस का नेतृत्व करते हुए रंगों की बरसात करते हैं और जुलूस में निहंगों के अखाड़े नंगी तलवारों के करतब दिखते हुए बोले सो निहाल के नारे बुलंद करते हैं। यह जुलूस हिमाचल प्रदेश की सीमा पर बहती एक छोटी नदी चरण गंगा के तट पर समाप्त होता है।

राजस्थान में भी होली के विविध रंग देखने में आते हैं। बाड़मेर में पत्थर मार होली खेली जाती है तो अजमेर में कोड़ा अथवा सांतमार होली कजद जाति के लोग बहुत धूम-धाम से मनाते हैं। हाड़ोती क्षेत्र के सांगोद कस्बे में होली के अवसर पर नए हिजड़ों को हिजड़ों की ज़मात में शामिल किया जाता है। इस अवसर पर 'बाज़ार का न्हाण' और 'खाड़े का न्हाण' नामक लोकोत्सवों का आयोजन होता है। खाडे के न्हाण में जम कर अश्लील भाषा का प्रयोग किया जाता है। राजस्थान के सलंबूर कस्बे में आदिवासी 'गेर' खेल कर होली मनाते हैं। उदयपुर से ७० कि. मि. दूर स्थित इस कस्बे के भील और मीणा युवक एक 'गेली' हाथ में लिए नृत्य करते हैं। गेली अर्थात एक लंबे बाँस पर घुंघरू और रूमाल का बँधा होना। कुछ युवक पैरों में भी घुंघरू बाँधकर गेर नृत्य करते हैं। इनके गीतों में काम भावों का खुला प्रदर्शन और अश्लील शब्दों और गालियों का प्रयोग होता है। जब युवक गेरनृत्य करते हैं तो युवतियाँ उनके समूह में सम्मिलित होकर फाग गाती हैं। युवतियाँ पुरुषों से गुड़ के लिए पैसे माँगती हैं। इस अवसर पर आदिवासी युवक-युवतियाँ अपना जीवन साथी भी चुनते हैं।

मध्य प्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं। भील युवकों के लिए होली अपने लिए प्रेमिका को चुनकर भगा ले जाने का त्योहार है। होली से पूर्व हाट के अवसर पर हाथों में गुलाल लिए भील युवक 'मांदल' की थाप पर सामूहिक नृत्य करते हैं। नृत्य करते-करते जब युवक किसी युवती के मुँह पर गुलाल लगाता है और वह भी बदले में गुलाल लगा देती है तो मान लिया जाता है कि दोनों विवाह सूत्र में बँधने के लिए सहमत हैं। युवती द्वारा प्रत्युत्तर न देने पर युवक दूसरी लड़की की तलाश में जुट जाता है। गुजरात के भील इसी प्रकार 'गोलगधेड़ो' नृत्य करते हैं। इसके अंतर्गत किसी बांस अथवा पेड़ पर गुड़ और नारियल बाँध दिया जाता है और उसके चारों ओर युवतियाँ घेरा बना कर नाचती हैं। युवक इस घेरे को तोड़कर गुड़ नारियल प्राप्त करने का प्रयास करता है जबकि युवतियों द्वारा उसका ज़बरदस्त विरोध होता है। इस विरोध से वह बुरी तरह से घायल भी हो जाता है। हर प्रकार की बाधा को पार कर यदि युवक गुड़ नारियल प्राप्त करने में सफल हो जाता है तो वह घेरे में नृत्य कर रही अपनी प्रेमिका अथवा किसी भी युवती के लिए होली का गुलाल उड़ाता है। वह युवती उससे विवाह करने को बाध्य होती है। इस परीक्षा में युवक न केवल बुरी तरह से घायल हो जाता है बल्कि कभी-कभी कोई व्यक्ति मर भी जाता है।

बस्तर में इस पर्व पर लोग 'कामुनी षेडुम' अर्थात कामदेव का बुत सजाते हैं। उसके साथ एक कन्या का विवाह किया जाता है। इसके उपरांत कन्या की चूड़ियाँ तोड़ दी जाती हैं और सिंदूर पोंछ कर विधवा का रूप दिया जाता है। बाद में एक चिता जला कर उसमें खोपरे भुन कर प्रसाद बाँटा जाता है। बनारस जैसी प्राचीन सांस्कृति नगरी में होली के अवसर पर भारी मात्रा में अश्लील पर्चे वितरित किए जाते हैं। शांति निकेतन में होली अत्यंत सादगी और शालीनतापूर्वक मनाई जाती है। प्रात: गुरु को प्रणाम करने के पश्चात अबीर गुलाल का उत्सव, जिसे 'दोलोत्सव' कहा जाता है, मनाते हैं। पानी मिले रंगों का प्रयोग नहीं होता। सायंकाल यहाँ रवींद्र संगीत की स्वर लहरी सारे वातावरण को गरिमा प्रदान करती है। भारत के अन्य भागों से पृथक बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर कृष्ण प्रतिमा का झूला प्रचलित है। इस दिन श्री कृष्ण की मूर्ति को एक वेदिका पर रख कर सोलह खंभों से युक्त एक मंडप के नीचे स्नान करवा कर सात बार झुलाने की परंपरा है।

मणिपुर में होली का पर्व 'याओसांग' के नाम से मनाया जाता है। यहाँ दुलेंडी वाले दिन को 'पिचकारी' कहा जाता है। याओसांग से अभिप्राय उस नन्हीं-सी झोंपड़ी से है जो पूर्णिमा के अपरा काल में प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। इसमें चैतन्य महाप्रभु की प्रतिमा स्थापित की जाती है और पूजन के बाद इस झोंपड़ी को होली के अलाव की भाँति जला दिया जाता है। इस झोंपड़ी में लगने वाली सामग्री ८ से १३ वर्ष तक के बच्चों द्वारा पास पड़ोस से चुरा कर लाने की परंपरा है। याओसांग की राख को लोग अपने मस्तक पर लगाते हैं और घर ले जा कर तावीज़ बनवाते हैं। 'पिचकारी' के दिन रंग-गुलाल-अबीर से वातावरण रंगीन हो उठता है। बच्चे घर-घर जा कर चावल सब्ज़ियाँ इत्यादि एकत्र करते हैं। इस सामग्री से एक बड़े सामूहिक भोज का आयोजन होता है।

प्राचीन काल से अविरल होली मनाने की परंपरा को मुगलों के शासन में भी अवरुद्ध नहीं किया गया बल्कि कुछ मुगल बादशाहों ने तो धूमधाम से होली मनाने में अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया। अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। शाम को महल में उम्दा ठंडाई, मिठाई और पान इलायची से मेहमानों का स्वागत किया जाता था और मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफ़िलें जमती थीं। जहाँगीर के समय में महफ़िल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम आयोजित होता था। इस अवसर पर राज्य के साधारण नागरिक बादशाह पर रंग डालने के अधिकारी होते थे। शाहजहाँ होली को 'ईद गुलाबी' के रूप में धूमधाम से मनाता था। बहादुरशाह ज़फर होली खेलने के बहुत शौकीन थे और होली को लेकर उनकी सरस काव्य रचनाएँ आज तक सराही जाती हैं। मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे और जहाँ आरा के बाग में होली के मेले भरते थे।

भारत ही नहीं विश्व के अन्य अनेक देशों में भी होली अथवा होली से मिलते-जुलते त्योहार मनाने की परंपराएँ हैं। हमारे पड़ोसी देश नेपाल, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्री लंका और मरिशस में भारतीय परंपरा के अनुरूप ही होली मनाई जाती है। फ्रांस में यह पर्व १९ मार्च को डिबोडिबी के नाम से मनाया जाता है। वहाँ यह पर्व पिछले वर्ष की विदाई और नए साल के स्वागत में मनाया जाता है। मिस्र में १३ अप्रैल की रात्रि को जंगल में आग जला कर यह पर्व मनाया जाता है। आग में लोग अपने पूर्वजों के पुराने कपड़े भी जलाते हैं। अधजले अंगारों को भी एक दूसरे पर फैंकने के कारण यह अंगारों की होली होती है। लोगों का मत है कि इस प्रकार अंगारे फैंकने से राक्षसी का नाश हो जाएगा और वे अधिक खुशहाल हो जाएँगे। तेरह अप्रैल को ही थाईलैंड में भी नव वर्ष 'सौंगक्रान' प्रारंभ होता है इसमें वृद्धजनों के हाथों इत्र मिश्रित जल डलवाकर आशीर्वाद लिया जाता है। लाओस में यह पर्व नववर्ष की खुशी के रूप में मनाया जाता है। लोग एक दूसरे पर पानी डालते हैं। म्यांमर में इसे जल पर्व के नाम से जाना जाता है।

जर्मनी में ईस्टर के दिन घास का पुतला बनाकर जलाया जाता है। लोग एक दूसरे पर रंग डालते हैं। हंगरी का ईस्टर होली के अनुरूप ही है। अफ्रीका में 'ओमेना वोंगा' मनाया जाता है। इस अन्यायी राजा को लोगों ने ज़िंदा जला डाला था। अब उसका पुतला जलाकर नाच गाने से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। अफ्रीका के कुछ देशों में सोलह मार्च को सूर्य का जन्म दिन मनाया जाता है। लोगों का विश्वास है कि सूर्य को रंग-बिरंगे रंग दिखाने से उसकी सतरंगी किरणों की आयु बढ़ती है। पोलैंड में 'आर्सिना' पर लोग एक दूसरे पर रंग और गुलाल मलते हैं। यह रंग फूलों से निर्मित होने के कारण काफ़ी सुगंधित होता है। लोग परस्पर गले मिलते हैं।

अमरीका में 'मेडफो' नामक पर्व मनाने के लिए लोग नदी के किनारे एकत्र होते हैं और गोबर तथा कीचड़ से बने गोलों से एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं। ३१ अक्तूबर को अमरीका में सूर्य पूजा की जाती है। इसे होबो कहते हैं। इसे होली की तरह मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग फूहड वेशभूषा धारण करते हैं।

चेक और स्लोवाक क्षेत्र में बोलिया कोनेन्से त्योहार पर युवा लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे पर पानी एवं इत्र डालते हैं। हालैंड का कार्निवल होली सी मस्ती का पर्व है। बेल्जियम की होली भारत सरीखी होती है और लोग इसे मूर्ख दिवस के रूप में मनाते हैं। यहाँ पुराने जूतों की होली जलाई जाती है। इटली में रेडिका त्योहार फरवरी के महीने में एक सप्ताह तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लकड़ियों के ढेर चौराहों पर जलाए जाते हैं। लोग अग्नि की परिक्रमा करके आतिशबाजी करते हैं। एक दूसरे को गुलाल भी लगाते हैं। रोम में इसे सेंटरनेविया कहते हैं तो यूनान में मेपोल। ग्रीस का लव ऐपल होली भी प्रसिद्ध है। स्पेन में भी लाखों टन टमाटर एक दूसरे को मार कर होली खेली जाती है।

जापान में १६ अगस्त रात्रि को टेमोंजी ओकुरिबी नामक पर्व पर कई स्थानों पर तेज़ आग जला कर यह त्योहार मनाया जाता है। चीन में होली की शैली का त्योहार च्वेजे कहलाता है। यह पंद्रह दिन तक मनाया जाता है। लोग आग से खेलते हैं और अच्छे परिधानों में सज धज कर परस्पर गले मिलते हैं। साईबेरिया में घास फूस और लकड़ी से होलिका दहन जैसी परिपाटी देखने में आती है। नार्वे और स्वीडन में सेंट जान का पवित्र दिन होली की तरह से मनाया जाता है। शाम को किसी पहाड़ी पर होलिका दहन की भाँति लकड़ी जलाई जाती है और लोग आग के चारों ओर नाचते गाते परिक्रमा करते हैं। इंग्लैंड में मार्च के अंतिम दिनों में लोग अपने मित्रों और संबंधियों को रंग भेंट करते हैं ताकि उनके जीवन में रंगों की बहार आए।

इस प्रकार होली विश्व के कोने-कोने में उत्साहपूर्वक मनाई जाती है। भारत में यह पर्व अपने धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और आर्थिक पक्षों के कारण हमारे संपूर्ण जीवन में रच बस गया है। यह पर्व स्नेह और प्रेम से प्राणी मात्र को उल्लसित करता है। इस पर्व पर रंग की तरंग में छाने वाली मस्ती जब तक मर्यादित रहती है तब तक आनंद से वातावरण को सराबोर कर देती है। सीमाएँ तोड़ने की भी सीमा होती है और उसी सीमा में बँधे मर्यादित उन्माद का ही नाम है होली।


भक्तिकालीन काव्य में होली

भक्तिकाल और रीतिकाल में होली, फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। चाहे वह राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेडछाड से भरी होली हो या नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीत की होली हो। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीरा, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानन्द आदि सभी कवियों का यह विषय प्रिय विषय रहा है। चाहे वो सगुन साकार भक्तिमय प्रेम हो या निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम या फिर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच का प्रेम हो, फाल्गुन माह का फाग भरा रस सबको छूकर गुजरा है। होली के रंगों के साथ साथ प्रेम के रंग में रंग जाने की चाह ईश्वर को भी है तो भक्त को भी है, प्रेमी को भी है तो प्रेमिका को भी।
मीरां बाई ने इस पद में कहा है -

रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री।
होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री।।
उडत गुलाल लाल बादला रो रंग लाल।
पिचकाँ उडावां रंग रंग री झरी, री।।
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री।
मीरां दासी गिरधर नागर, चेरी चरण धरी री।।

इस पद में मीरां ने होली के पर्व पर अपने प्रियतम कृष्ण को अनुराग भरे रंगों की पिचकारियों से रंग दिया है। मीरां अपनी सखि को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि,

हे सखि मैं ने अपने प्रियतम कृष्ण के साथ रंग से भरी, प्रेम के रंगों से सराबोर होली खेली। होली पर इतना गुलाल उडा कि जिसके कारण बादलों का रंग भी लाल हो गया। रंगों से भरी पिचकारियों से रंग रंग की धारायें बह चलीं। मीरां कहती हैं कि अपने प्रिय से होली खेलने के लिये मैं ने मटकी में चोवा, चन्दन, अरगजा, केसर आदि भरकर रखे हुये हैं। मीरां कहती हैं कि मैं तो उन्हीं गिरधर नागर की दासी हूँ और उन्हीं के चरणों में मेरा सर्वस्व समर्पित है। इस पद में मीरां ने होली का बहुत सजीव वर्णन किया है।

सूरदास जैसे नेत्रहीन कवि भी फाल्गुनी रंग और गंध की मादक धारों से बच न सके और उनके कृष्ण और राधा बहुत मधुर छेडख़ानी भरी होली खेलते हैं।

हरि संग खेलति हैं सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।।
डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग।
अति आनन्द मनोहर बानि गावत उठति तरंग।।
एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छांडि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि।।
मिली दस पांच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाई।
भरि अरगजा अबीर कनक घट, देतिं सीस तैं नाईं।।
छिरकतिं सखि कुमकुम केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि।
सोभित हैं तनु सांझ समै घन, आये हैं मनु पूरि।।
दसहूं दिसा भयो परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद।
सुर बिमान कौतुहल भूले, निरखत स्याम बिनोद

सूर के कान्हा की होली देख तो देवतागण तक अपना कौतुहल न रोक सके और आकाश से निरख रहे हैं कि आज कृष्ण के साथ ग्वाल बाल और सखियां फाग खेल रहे हैं। फाग के रंगों के बहाने ही गोपियां मानो अपने हृदय का अनुराग प्रकट कर रही हैं, मानो रंग रंग नहीं उनका अनुराग ही रंग बन गया है। सभी गोपियां सुन्दर साडी पहन कर, चित्ताकर्षक चोली पहन कर तथा अपनी आँखों में काजल लगा कर कृष्ण की पुकार सुन बन ठन कर अपने घरों से निकल पडीं और होली खेलने के लिये आ खडी हुई हैं।

डफ, बांसुरी, रुंज और ढोल और मृदंग बजने लगे हैं तथा सभी लोग आनंदित होकर मधुर स्वरों में गा उठे हैं, मानो आनन्द की तरंगे उठ रही हों। एक ओर कृष्ण और ग्वाल बाल डटे हैं तो दूसरी ओर समस्त ब्रज नारियां: ये सभी संकोच छोड एक दूसरे को मीठी मनभावन गालियां दे रहे हैं, छेडछाड ज़ारी है, अचानक कुछ सखियां मिल कृष्ण को घेर लेती हैं और स्वर्णघट में भरा सुगंधित रंग उनके सर पर उंदेल देती हैं। कुछ सखियां उन पर कुंकुम केसर छिडक़ देती हैं। इस प्रकार ऊपर से नीचे तक रंग, अबीर गुलाल से मंडित कृष्ण ऐसे लग रहे हैं जैसे मानो शाम के समय आकाश में बादल छा गये हों, कान्ह का श्यामल शरीर लाल रंग में रचा ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे डूबते सूर्य की लालिमा और सांवले बादलों से घिरा आकाश कहीं लाल कहीं श्यामल दिखता है। सूरदास जी कहते हैं कि फाग के सुन्दर रंगों से दसों दिशायें परिपूर्ण हो गयी हैं। तभी तो आकाश से देवतागण अपना विचरण भूल श्याम सुन्दर का फाग विनोद देखने को ठिठक गये हैं और आनन्दित हो रहे हैं।

रसखान जैसे रस की खान कहलाने वाले कवि ने तो फाग लीला के अर्न्तगत अनेकों सवैय्ये रच डाले हैं। सभी एक से एक रस और रंग से सिक्त _

फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है।।
सांझ सकारे वहि रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है।
कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटु बिहिं मान बच्यौ है।।

एक गोपी अपनी सखि से फाल्गुन मास के जादू का वर्णन करते हुए कहती है, कि जबसे फाल्गुन मास लगा है तभी से ब्रजमण्डल में धूम मची हुई है। कोई भी स्त्री, नवेली वधू नहीं बची है जिसने प्रेम का विशेष प्रकार का रस न चखा हो। सुबह शाम आनन्द मगन होकर श्री कृष्ण रंग और गुलाल लेकर फाग खेलते रहते हैं। हे सखि इस माह में कौन सी सजनी है जिसने अपनी लज्जा और संकोच तथा मान नहीं त्यागा हो!

खेलत फाग लख्यौ पिय प्यारी को ता मुख की उपमा किहीं दीजै।
देखत ही बनि आवै भलै रसखन कहा है जौ बार न कीजै।।
ज्यों ज्यों छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजै।
त्यों त्यों छबीलो छकै छबि छाक सों हेरै हंसे न टरे खरो भीजै।।

एक गोपी अपनी सखि से फागलीला का वर्णन करती हुई कहती है कि ऐ सखि, मैं ने कृष्ण और उनकी प्रिया राधा को फाग खेलते हुये देखा। उस समय की जो शोभा थी उसे किसी की भी उपमा नहीं दी जा सकती। वह शोभा तो देखते बनती थी, कि उस पर कोई ऐसी वस्तु भी नहीं जिसे निछावर किया जा सके। ज्यों ज्यों राधा एक के बाद एक रंग भरी पिचकारी उनपर डालती थीं, त्यों त्यों वे उनके रूप रस में सराबोर होकर मस्त हो रहे थे और हंस हंस कर वहां से भागे बिना खडे ख़डे भीग रहे थे।

बिहारी तो संयोग और वियोग निरुपण दोनों में सिध्दहस्त कवि हैं, संयोग हो या वियोग फागुन मास का विशेष महत्व है। प्रिय हैं तो होली मादक है और प्रिय नहीं हैं तो होली जैसा त्यौहार भी रंगहीन प्रतीत होता है। बसन्त ॠतु भी अच्छी नहीं लगती।

बन बाटनु पिक बटपरा, तकि बिरहिनु मत मैन।
कुहौ कुहौ कहि कहि उठे, करि करि राते नैन।।
हिय/ और सी हवे गई डरी अवधि के नाम।
दूजे करि डारी खरी, बौरी बौरे आम।।

बिहारी ने फागुन को साधन के रूप में लेकर संयोग निरुपण भी किया है। फागुन महीना आ जाने पर जब नायक नायिका के साथ होली खेलता है तो नायिका भी नायक के मुख पर गुलाल मल देती है या फिर पिचकारी से उसके शरीर को रंग में डुबो देती है।

जज्यौं उझकि झांपति बदनु, झुकति विहंसि सतराई।
तत्यौं गुलाब मुठी झुठि झझकावत प्यौ जाई।।
पीठि दियैं ही नैंक मुरि, कर घूंघट पटु डारि।
भरि गुलाल की मुठि सौं गई मुठि सी मारि।।

इस प्रकार हमारे प्राचीन कवियों ने फागुन मास और होली के रंग भरे त्योहार को अपने शब्दों में बडी सजीवता से प्रस्तुत किया है। होली का महत्व जो तब था, आज भी वही है। फागुन मास में बौराये आमों की तुर्श गंध और फूलते पलाश के पेडों के साथ तन मन आज भी बौरा जाता है। आज भी होली रूप रस गंध का त्यौहार है। होली उत्साह, उमंग और प्रेम पगी छेडछाड लेकर आती है। होली सारे अलगाव और कटुता और अपनी रंग भरी धाराओं से धो जाती है। इस रंगमय त्यौहार की महत्ता अक्षुण्ण है।

मैं कैसे निकसूं मोहन खेलै फाग!
होली के रंग रसखान के कृष्ण के संग

रसखान के कृष्ण का फाग क्या कोई साधारण फाग होता था? वह तो गुलाल और अबीर की लालिमा को द्विगुणित करते हुए जीवन और रसानन्द और उल्लास का अद्भुत सामन्जस्य है।फागुन की एक लहर उठी है, जिसमें यह नहीं पता चलता कौन ज्यादा लाल हुआ? श्रीकृष्ण राधा की गुलाल से लाल हो गये या श्रीकृष्ण के प्रेम में पग राधा के कपोल रक्ताभ हो उठे।
होरी भई के हरि भये लाल, कै लाल के लागि पगी ब्रजबाला
फागुन लगते ही पूरे ब्रजमण्डल में धूम मचा रखी है कृष्ण ने। कोई ऐसी युवति नहीं बची जो कृष्ण के आकर्षण से बची रह गई हो। सब लोक लाज त्याग कृष्ण के साथ फाग खेलने में सुबह से शाम तक तल्लीन हैं।
फागुन लाग्यौ सखि जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचै नाहिं एक बिसेख मरै सब प्रेम अच्यौ है।।
सांझ सकारे वही रसखानि सुरंग गुलालन खेल मच्यौ है।
को सजनी निलजी न भई अरु कौन भटु जिहिं मान बच्यौ है।।

गोपियों और राधा के साथ कृष्ण होली खेल रहे हैं। राधा के साथ फाग खेलने की प्रक्रिया में परस्पर अनुराग बढ रहा है। दोनों आनन्द की अठखेलियां कर रहे हैं। कमल समान सुन्दर मुख वाली राधा कृष्ण के मुख पर कुंकुम लगाने की घात में है। गुलाल फेंकने का अवसर ताक रही है। चारों और गुलाल ही गुलाल उड रही है। उसमें ब्रजबालाओं की देहयष्टि इस तरह चमक रही है मानो सावन की सांझ में लोहित गगन में चारों ओर बिजली चमकती हो।
गुलाल की चारों ओर उड रही धूल के बीच रसखान ने गोपियों के सौन्दर्य को रूपायित करने के लिये सावन के महीने में सूर्यास्त के बाद छायी लालिमा और चारों दिशा में दामिनी की चमक के रूपक का प्रयोग किया है। क्योंकि गोपियां उस लाल गुलाल के उडने में स्थिर नहीं चपल हैं तो उनका गोरा शरीर चमकती तडक़ती बिजली के समान दिखाई दे रहा है वह भी सावन माह के सूर्यास्त से रक्ताभ आकाश में।
मिली खेलत फाग बढयो अनुराग सुराग सनी सुख की रमकै।
कर कुंकुम लै करि कंजमुखि प्रिय के दृग लावन को धमकैं।।
रसखानि गुलाल की धुंधर में ब्रजबालन की दुति यौं दमकै।
मनौ सावन सांझ ललाई के मांझ चहुं दिस तें चपला चमकै।।

रसखान राधा कृष्ण के होली खेलने पर बलिहारी हैं। इतना सुन्दर दृश्य है इस होली का कि क्या कहैं। फाग खेलती हुई प्रिया को देखने के सुख को किसकी उपमा दें? देखते ही बनता है वह दृश्य कि उस पर सब वार देने का मन चाहता है। जैसे जैसे छबीली राधा पिचकारी भर भर हाथ में ले यह कहते हुए कृष्ण को सराबोर करती जाती हैं कि यह लो एकऔर अब यह दूसरी वैसे वैसे छबीले कृष्ण राधा की इस रसमय छवि को छक कर नैनों से पी मदमस्त होते हुए वहां से हटे बिना खडे ख़डे हंसते हुए भीग रहे हैं।
खेलतु फाग लख्यौ पिय प्यारी कों ता सुख की उपमा किहीं दीजै।
देखत ही बनि आवै भलै रसखान कहा है जो वारि न कीजै।।
ज्यौं ज्यौं छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजे।
त्यौं त्यौं छबीलो छकै छाक सौं हेरै हंसे न टरै खरौ भीजे।

गोपियां एक दूसरे से कृष्ण की बुराई करती हैं कि कृष्ण बडे ही रसिक हैं, सूने मार्ग में उन्हें एक अनजानी नई नवेली स्त्री मिली। फाग के बहाने उसे गुलाल लगाने के चक्कर में मनमानी कर रहे हैं। उस सुकुमारी की साडी फ़ट गई है और रंग में भीग चोली खिसक गई है। उसे गालों पर लाल गुलाल लगा कर आलिंगित कर रिझा कर अपने आकर्षण के अधीन कर विदा कर दिया है।
आवत लाल गुपाल लिये सूने मग मिली इक नार नवीनी।
त्यौं रसखानि लगाई हिय भट् मौज कियौ मनमांहि अधीनी।।
सारी फटी सुकुमारी हटी अंगिया दरकी सरकी रंगभीनी।
गाल गुलाल लगाइ कै अंक रिझाई बिदा कर दीनी।।

गोपियां आपस में चर्चा करती हैं फाग के फगुनाये मौसम में _ गोकुल का एक सांवला ग्वाल गोरी सुन्दर ग्वालिनों से होली का हुडदंग कर धूम मचा गया। फाग और रसिया की एक बांकी तान गा कर मन हर्षा गया। अपने सहज स्वभाव से सारे गांव का मन ललचा गया है। पिचकारी चला कर युवतियों को नेह से भिगो गया और मेरे अंग तो भीगने से बच गये पर अपने नैन नचा कर मेरा मन भिगो गया। मेरी भोली सास और कुटिल ननद तक को नचा कर बैर का बदला लेकर मुझे सकुचा गया। ऐसा है वह सांवला ग्वाल।
गोकुल को ग्वाल काल्हि चौमुंह की ग्वालिन सौं
चांचर रचाई एक धूमहिं मचाईगो।
हियो हुलसाय रसखानि तान गाई बांकी
सहज सुभाई सब गांव ललचाइगो।
पिचका चलाइ और जुबति भिजाइ नेह
लोचन नचाइ मेरे अम्ग ही बचाइगो।
सासहि नचाइ भोरी नन्दहि नचाइ खोरी
बैरिन सचाइ गोरी मोहि सकुचाइगो।।

रसखान कहते हैं _ चन्द्रमुखी सी ब्रजवनिता कृष्ण से कहती है, निशंक होकर आज इस फाग को खेलो तुम्हारे साथ फाग खेल कर हमारे भाग जाग गये हैं। गुलाल लेकर मुझे रंग लो, हाथ में पिचकारी लेकर मेरा मन रंग डालो, वह सब करो जिसमें तुम्हारा सुख निहित हो लेकिन तुम्हारे पैर पडती हूं यह घूंघट तो मत हटाओ, तुम्हें कसम है ये अबीर तो आंख बचा कर डालो! अन्यथा तुम्हारी सुन्दर छवि देखने से मैं वंचित रह जाऊंगी।
खेलिये फाग निसंक व्है आज मयंकमुखी कहै भाग हमारौ।
तेहु गुलाल छुओ कर में पिचकारिन मैं रंग हिय मंह डारौ।
भावे सुमोहि करो रसखानजू पांव परौ जनि घूंघट टारौ।
वीर की सौंह हो देखि हौ कैसे अबीर तो आंख बचाय के डारो।।

होली के बौराये हुरियाये माहौल में एक बिरहन राधन् ऐसी भी है जिसे लोक लाज ने रोका है। बाकि सब गोपियां कृष्ण के साथ धूम मचाये हैं। रसखान के मोहक शब्दों में इस ब्रजबाला की पीडा देखते ही बनती है मर्म को छू जाती है। वह कहती है _ मैं कैसे निकलूं मोहन तुम्हारे साथ फाग खेलने? मेरी सब सखियां चली गईं और मैं तुम्हारे प्रेम में पगी रह गयी। हुआ यूं कि मैं ने एक रात सपना देखा था कि नन्द नन्दन मिलने आये हैं, मैं ने सकुचा कर घूंघट कर लिया है और उन्होंने मुझे अपनी भुजाओं में भर लिया है। अपने प्रेम का रस मुझे पिलाया और मेरे प्रेम के रस से छक गये हैं। लेकिन तभी मेरी बैरिन पलकें खुल गयीं। मेरा सपना अधूरा छूट गया, फिर मैं ने बहुत कोशिश की पर आंख लगी ही नहीं। फिर अगले दिन के अगले पहर में पलकें मूंद कर फिर मैं ने उस सपने से परिचय लेने का प्रयास किया तो उसमें ही आंखे मूंदे मूंदे मेरा पूरा दिन निकल गया और शाम हो गई और होलिका का डंडा रोप दिया गयातब सास ननद घर के कामकाज सौंप नाराज होकर चली गई। देवर भी नाराज होकर अनबोला ठान बैठा।
मन ही मन पछताती छत पर चढी ख़डी रही, पर घर से निकलने का रास्ता नहीं सूझा। तुम्हारी मुरली की टेर सुन कर रात की अधूरी इच्छा मन को व्याकुल करती है, अब कैसे मन को धीरज दिलाऊं, मन की अकुलाहट है कि उठती ही जा रही है। वेदना से भरा ये मन फटता क्यों नहीं कि अब एक तिल भर दुख भी उसमें समा नहीं सकता। मन तो करता है कि लोक लाज और कुल की मर्यादा छोड छाड ब्रज के ईश्वर और प्रेम तथा रति के नायक रसखान के श्रीकृष्ण से जा मिलूं।
मैं कैसे निकसौं मोहन खेलै फाग।
मेरे संग की सब गईं, मोहि प्रकटयौ अनुराग।।
एक रैनि सुपनो भयो, नन्द नन्दन मिल्यौ आहि।
मैं सकुचन घूंघट करयौ, उन भुज मेरी लिपटाइ।।
अपनौ रस मो कों दयो, मेरो लीनी घूंटि।
बैरिन पलकें खुल गयी, मेरी गई आस सब टूटि।।
फिरी बहुतेरी करी, नेकु न लागि आंखि।
पलक - मूंदी परिचौ लिया, मैं जाम एक लौं राखि।।
मेरे ता दिन व्है गयो, होरी डांडो रोपि।
सास ननद देखन गयी, मौहि घर बासौ सौंपि।।
सास उसासन भारुई, ननद खरी अनखाय।
देबर डग धरिबौ गनै, बोलत नाहु रिसाय।।
तिखने चढि ठाडी रहूं, लैन करुं कनहेर।
राति द्यौंस हौसे रहे, का मुरली की टेर।।
क्यों करि मन धीरज धरुं, उठति अतिहि अकुलाय।
कठिन हियो फाटै नहीं, तिल भर दुख न समाये।।
ऐसी मन में आवई छांडि लाज कुल कानी।
जाय मिलो ब्रज ईस सौं, रति नायक रसखानि।।

एक तो रसखान के कृष्ण अनोखे उस पर रसखान की कविता में खेला गया राधा कृष्ण फाग अनोखा! प्रेम की व्याख्या को लेकर उनका काव्य अनोखा। उनके उकेरे फागुन के रंग जीवन्त हो जाते हैं और मानस पटल पर राधा कृष्ण की प्रेम में पगी फाग लीला साकार हो उठती है।


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