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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Tuesday, February 25, 2014

गीताजीकी महीमा





स्वामी रामसुखदास जी महाराज

हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!!
आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि
!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!

गीताजीकी महीमा
भगवद्गीता एक बहुत ही अलौकिक, विचित्र ग्रन्थ है । इसमे साधकके लिए उपयोगी पूरी सामग्री मिलती है, चाहे वह किसी भी समुदायका, किसी भी सम्प्रदायका, किसी भी वर्णका, किसी भी आश्रमका कोई व्यक्ति क्यों न हो । इसका कारण यह है की इसमें किसी समुदाय-विषेशकी निंदा या प्रशंसा नहीं है । प्रत्युत वास्तविक तत्वका ही वर्णन है । इस छोटे-से ग्रंथमें इतनी विलक्षणता है कि अपना कल्याण चाहनेवाले साधकको अपने उद्धारके लिए बहुत ही संतोषजनक उपाय मिलते हैं । अपना उद्धार चाहनेवाले सब-के-सब गीताजी के अधिकारी हैं । प्रत्येक व्यवहार मात्रमें परमार्थकी कला गीताजीमें सिखाई गयी हैं । यह एक प्रासादिक ग्रन्थ हैं । जीव संसारसे विमुख होकर भगवानके सम्मुख हो जाय और भगवानके साथ अपने नित्य सम्बन्धको पहचान लें— इसीके लिए भग्वद्गीताका अवतार हुआ है ।
जीवमात्रका मनुष्ययोनिमें जन्म केवल अपने कल्याणके लिए ही हुआ हैं । संसारमें ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं है, जिसमें मनुष्यका कल्याण न हो सकता हो । कारण कि परमात्मतत्त्व प्रत्येक परिस्थितिमें समानरुपसे विद्यमान है । अतः साधकके सामने कोई भी और कैसी भी परिस्थिति आये, उसका केवल सदुपयोग करना है । स्वामीजी महाराज फरमाते है कि जब गीताप्रेमी सज्जनोंने विशेष आग्रह किया, हठ किया, तब गीताके मार्मिक भावोंका अपनेको बोध हो जाय तथा और कोई मनन करे तो उसको भी इनका बोध हो जाय-- इस द्रष्टिसे गीताकी व्याख्या लिखवानेमें प्रवृति हुई । टीका लिखवाते समय 'साधकोंको शीघ्र लाभ कैसे हो' --ऐसा भाव रहा है । गीताका मनन-विचार करनेसे और गीताकी टीका लिखवानेसे मुझे बहुत आध्यात्मिक लाभ हुआ है और गीताके विषयका बहुत स्पष्ट बोध भी हुआ है । दुसरे भाई-बहन भी यदि इसका मनन करेंगे,तो उनको भी आध्यात्मिक लाभ अवश्य— ऐसी मेरी व्यक्तिगत धारणा है । गीताका मनन-विचार करनेसे लाभ होता है— इसमें मुझे कभी किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है ।
अतः हमारे उद्धार-कल्याणके लिए स्वामीजी महाराजजीने साधकसंजीवनीरूपी जहाज इस भवसागरसे तरनेके लिये प्रदान किया है, उसका लाभ लेकर हम सभी साधक भाई-बहने पार हो— इसी भावसे हम स्वामीजी महाराजके उपदेशोंका मनन-चिंतन करेंगे ।
गीता उपनिषदोंका सार है । पर वास्तवमें गीताकी बात उपनिषदोंसे भी विशेष है । कारणकी अपेक्षा कार्यमें विशेष गुण होते है; जैसे— आकाशमें केवल एक गुण 'शब्द' है, पर उसके कार्य वायुमें दो गुण 'शब्द और स्पर्श' हैं ।
वेद भगवान् के निःश्वास है और गीता भगवान् की वाणी है । निःश्वास तो स्वाभाविक होते है, पर गीता भगवान् ने योगमें स्थित होकर कही है । अतः वेदोंकी अपेक्षा भी गीता विशेष है ।
सभी दर्शन गीताके अर्न्तगत है, पर गीता किसी दर्शनके अर्न्तगत नहीं है । दर्शनशास्त्रमें जगत क्या है, जीव क्या है और ब्रह्म क्या है— यह पढाई होती है । परन्तु गीता पढाई नहीं कराती, प्रत्युत अनुभव कराती है ।
गीतामें किसी मतका आग्रह नहीं है, प्रत्युत केवल जीवके कल्याणका ही आग्रह है ।
मतभेद गीतामें नहीं है, प्रत्युत टिकाकारोंमें है ।
गीतामें भगवान् साधकको समग्रकी तरफ ले जाते हैं ।
सब कुछ परमात्माके ही अर्न्तगत है, परमात्माके सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं है— इसी भावमें सम्पूर्ण गीता है ।
गीताका तात्पर्य ‘वासुदेव सर्वंम्’ में है । सबकुछ परमात्मा ही हैं— यह खुले नेत्रोंका ध्यान है । इसमें न आँख बंद करनेकी (ध्यान) जरुरत है, न कान बंद करनेकी (नादानुसंधान) की जरुरत है, न नाक बंद करनेकी (प्राणायाम) जरुरत है ! इसमें न संयोगका असर पङता है, न वियोगका; न किसीके आनेका असर पड़ता है, न किसीके जानेका । सब कुछ परमात्मा है ही तो फिर दूसरा कहाँसे आये ? कैसे आये ?
गीता कर्मयोगको ज्ञानयोगकी अपेक्षा विशेष मानती है, कारणकी ज्ञानयोगके बिना तो कर्मयोग हो सकता है (गीता ३/२०), पर कर्मयोगाके बिना ज्ञानयोग होना कठिन है (गीता ५/६) ।
अतः साधकोंको चाहिये कि वे अपना कोई आग्रह न रखकर परम् पूज्य स्वामीजी महाराजजी द्वारा लिखवाइ हुई श्रीगीताजीकी टीका साधक-संजीवनी, गीता-प्रबोधनी एवं गीता माधुर्य पढ़ें और इसपर गहरा विचार करें तो वास्तविक तत्व उनकी समझमें आ जायगा और जो बात टीकामें नहीं आयी है, वह भी समझमें आ जायेगी !  ऐसा स्वामीजी महाराजका भाव है । अतःसभी साधकोंकी सेवामें श्रीस्वामीजी महाराजका गीताप्रेस-गोरखपुरसे प्रकाशित कल्याणकारी साहित्य एवं 1991 से 2005 के अन्तीम् प्रवचन इन्टरनेट पर उपलब्ध है, उसका लाभ उठाकर मनुष्य जन्म सफल बनायॅ ।
सदा हृदयसे...आर्तभावसे पुकारते रहो......हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूँलूँ नहीं !!
हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!!
आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि
                              !! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!

गई बहोर गरीब नेवाजू।  सरल सबल साहिब रघुराजू।।
जपहि नामु जन आरत भारी।  मिटाई कुसंकट होहि सुखारी।।


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