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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Monday, December 9, 2013

माँ





‘‘माँ ’’ यह वो अलौकिक शब्द है, जिसके स्मरण मात्र से ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है, हृदय में भावनाओं का अनहद ज्वार स्वतः उमड़ पड़ता है और मनोःमस्तिष्क स्मृतियों के अथाह समुद्र में डूब जाता है। ‘माँ’ वो अमोघ मंत्र है, जिसके उच्चारण मात्र से ही हर पीड़ा का नाश हो जाता है। ‘माँ’ की ममता और उसके आँचल की महिमा का को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। नौ महीने तक गर्भ में रखना, प्रसव पीड़ा झेलना, स्तनपान करवाना, रात-रात भर बच्चे के लिए जागना, खुद गीले में रहकर बच्चे को सूखे में रखना, मीठी-मीठी लोरियां सुनाना, ममता के आंचल में छुपाए रखना, तोतली जुबान में संवाद व अटखेलियां करना, पुलकित हो उठना, ऊंगली पकड़कर चलना सिखाना, प्यार से डांटना-फटकारना, रूठना-मनाना, दूध-दही-मक्खन का लाड़-लड़ाकर खिलाना-पिलाना, बच्चे के लिए अच्छे-अच्छे सपने बुनना, बच्चे की रक्षा के लिए बड़ी से बड़ी चुनौती का डटकर सामना करना और बड़े होने पर भी वही मासूमियत और कोमलता भरा व्यवहार…..ये सब ही तो हर ‘माँ’ की मूल पहचान है। इस सृष्टि के हर जीव और जन्तु की ‘माँ’ की यही मूल पहचान है।

हमारे वेद, पुराण, दर्शनशास्त्र, स्मृतियां, महाकाव्य, उपनिषद आदि सब ‘माँ’ की अपार महिमा के गुणगान से भरे पड़े हैं। असंख्य ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों, पंडितों, महात्माओं, विद्वानों, दर्शनशास्त्रियों, साहित्यकारों और कलमकारों ने भी ‘माँ’ के प्रति पैदा होने वाली अनुभूतियों को कलमबद्ध करने का भरसक प्रयास किया है। इन सबके बावजूद ‘माँ’ शब्द की समग्र परिभाषा और उसकी अनंत महिमा को आज तक कोई शब्दों में नहीं पिरो पाया है।

हमारे देश भारत में ‘माँ’ को ‘शक्ति’ का रूप माना गया है और वेदों में ‘माँ’ को सर्वप्रथम पूजनीय कहा गया है। इस श्लोक में भी इष्टदेव को सर्वप्रथम ‘माँ’ के रूप में की उद्बोधित किया गया है:

‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या च द्रविणम त्वमेव, त्वमेव सर्वमम देव देवः।।’


वेदों में ‘माँ’ को ‘अंबा’, ‘अम्बिका’, ‘दुर्गा’, ‘देवी’, ‘सरस्वती’, ‘शक्ति’, ‘ज्योति’, ‘पृथ्वी’ आदि नामों से संबोधित किया गया है। इसके अलावा ‘माँ’ को ‘माता’, ‘मात’, ‘मातृ’, ‘अम्मा’, ‘अम्मी’, ‘जननी’, ‘जन्मदात्री’, ‘जीवनदायिनी’, ‘जनयत्री’, ‘धात्री’, ‘प्रसू’ आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है।

ऋग्वेद में ‘माँ’ की महिमा का यशोगान कुछ इस प्रकार से किया गया है, ‘हे उषा के समान प्राणदायिनी माँ ! हमें महान सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करो। तुम हमें नियम-परायण बनाओं। हमें यश और अद्धत ऐश्वर्य प्रदान करो।’

सामवेद में एक प्रेरणादायक मंत्र मिलता है, जिसका अभिप्राय है, ‘हे जिज्ञासु पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर, अपने दुराचरण से माता को कष्ट मत दे। अपनी माता को अपने समीप रख, मन को शुद्ध कर और आचरण की ज्योति को प्रकाशित कर।’

प्राचीन ग्रन्थों में कई औषधियों के अनुपम गुणों की तुलना ‘माँ’ से की गई है। एक प्राचीन ग्रन्थ में आंवला को ‘शिवा’ (कल्याणकारी), ‘वयस्था’ (अवस्था को बनाए रखने वाला) और ‘धात्री’ (माता के समान रक्षा करने वाला) कहा गया है। राजा बल्लभ निघन्टु ने भी एक जगह ‘हरीतकी’ (हरड़) के गुणों की तुलना ‘माँ’ से कुछ इस प्रकार की है:

‘यस्य माता गृहे नास्ति, तस्य माता हरितकी।’

(अर्थात, हरीतकी (हरड़) मनुष्यों की माता के समान हित करने वाली होती है।)

श्रीमदभागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि ‘माताओं की सेवा से मिला आशिष, सात जन्मों के कष्टों व पापांे को भी दूर करता है और उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा का कवच का काम करती है।’ इसके साथ ही श्रीमदभागवत में कहा गया है कि ‘माँ’ बच्चे की प्रथम गुरू होती है।‘

रामायण में श्रीराम अपने श्रीमुख से ‘माँ’ को स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं। वे कहते हैं कि:

‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी।’

(अर्थात, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।)

महाभारत में जब यक्ष धर्मराज युधिष्ठर से सवाल करते हैं कि ‘भूमि से भारी कौन?’ तब युधिष्ठर जवाब देते हैं:

‘माता गुरूतरा भूमेः।’

(अर्थात, माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं।)

महाभारत में अनुशासन पर्व में पितामह भीष्म कहते हैं कि ‘भूमि के समान कोई दान नहीं, माता के समान कोई गुरू नहीं, सत्य के समान कोई धर्म नहीं और दान के समान को पुण्य नहीं है।’

इसके साथ ही महाभारत महाकाव्य के रचियता महर्षि वेदव्यास ने ‘माँ’ के बारे में लिखा है कि:

‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।’


(अर्थात, माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय चीज नहीं है।)

तैतरीय उपनिषद में ‘माँ’ के बारे में इस प्रकार उल्लेख मिलता है:

‘मातृ देवो भवः।’

(अर्थात, माता देवताओं से भी बढ़कर होती है।)

संतो का भी स्पष्ट मानना है कि ‘माँ’ के चरणों में स्वर्ग होता है।’ आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी कालजयी रचना ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के प्रारंभिक चरण में ‘शतपथ ब्राहा्रण’ की इस सूक्ति का उल्लेख कुछ इस प्रकार किया है:

‘अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः
मातृमान् पितृमानाचार्यवान पुरूषो वेदः।’


(अर्थात, जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो तो तभी मनुष्य ज्ञानवान होगा।)

‘माँ’ के गुणों का उल्लेख करते हुए आगे कहा गया है कि:
‘प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान।’


(अर्थात, धन्य वह माता है जो गर्भावान से लेकर, जब तक पूरी विद्या न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।)

‘चाणक्य-नीति’ के प्रथम अध्याय में भी ‘माँ’ की महिमा का बखूबी उल्लेख मिलता है। यथा:

‘रजतिम ओ गुरू तिय मित्रतियाहू जान।
निज माता और सासु ये, पाँचों मातृ समान।।’


(अर्थात, जिस प्रकार संसार में पाँच प्रकार के पिता होते हैं, उसी प्रकार पाँच प्रकार की माँ होती हैं। जैसे, राजा की पत्नी, गुरू की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी मूल जननी माता।)

‘चाणक्य नीति’ में कौटिल्य स्पष्ट रूप से कहते हैं कि, ‘माता के समान कोई देवता नहीं है। ‘माँ’ परम देवी होती है।’

महर्षि मनु ने ‘माँ’ का यशोगान इस प्रकार किया है:

‘दस उपाध्यायों के बराबर एक आचार्य होता है। सौ आचार्यों के बराबर एक पिता होता है और एक हजार पिताओं से अधिक गौरवपूर्ण ‘माँ’ होती है।’

विश्व के महान साहित्यकारों और दार्शनिकों ने ‘माँ’ की महिमा का गौरवपूर्ण बखान किया है। एच.डब्लू बीचर के अनुसार, ‘जननी का हृदय शिशु की पाठशाला है।’ कालरिज का मानना है, ‘जननी जननी है, जीवित वस्तुओं में वह सबसे अधिक पवित्र है।’ इसी सन्दर्भ में विद्या तिवारी ने लिखा है, ‘माता और पिता स्वर्ग से महान् हैं।’ विश्व प्रसिद्ध नेपोलियन बोनापार्ट के अनुसार, ‘शिशु का भाग्य सदैव उसकी जननी द्वारा निर्मित होता है।’ महान भारतीय कवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी रचना में ‘माँ’ की महिम कुछ इस तरह बयां की:

‘स्वर्ग से भी श्रेष्ठ जननी जन्मभूमि कही गई।
सेवनिया है सभी को वहा महा महिमामयी’।।


(अर्थात, माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ कही गई हैं। इस महा महिमामयी जननी और जन्मभूमि की सेवा सभी लोगों को करनी चाहिए।)

इसके अलावा श्री गुप्त ने ‘माँ’ की महिमा में लिखा है:

‘जननी तेरे जात सभी हम,
जननी तेरी जय है।’


इसी क्रम में रामचरित उपाध्याय ने अपनी रचना ‘मातृभूमि’ में कुछ इस प्रकार ‘माँ’ की महिमा का उल्लेख किया है:

‘है पिता से मान्य माता दशगुनी, इस मर्म को,
जानते हैं वे सुधी जो जानते हैं धर्म को।’


(जो बुद्धिमान लोग धर्म को मानते हैं, वे जानते हैं कि माता पिता से दस गुनी मान्य होती है।)

इसके साथ ही ‘माँ’ के बारे में एक महाविद्वान ने क्या खूब कहा है, ‘कोमलता में जिसका हृदय गुलाब सी कलियों से भी अधिक कोमल है तथा दयामय है। पवित्रता में जो यज्ञ के धुएं के समान है और कर्त्तव्य में जो वज्र की तरह कठोर है-वही दिव्य जननी है।’सिनेमा में भी ‘माँ’ पर आधारित बहुत सारी फिल्में और गाने बनाए गए हैं। कई गीत तो इतने मार्मिक बन पड़े हैं, जिनको सुनकर व्यक्ति एकदम द्रवित हो उठता है। मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा फिल्म ‘दादी माँ’ (1966) के लिए लिखा गया यह गीत आज भी लोगों के हृदय पटल पर अपनी अमिट छाप बनाए हुए है:

‘उसको नहीं देखा हमने कभी,
पर इसकी जरूरत क्या होगी!
ऐ माँ…ऐ माँ! तेरी सूरत से अलग,
भगवान की सूरत क्या होगी!!’


‘माँ’ के बारे में लिखी गई ये हृदयस्पर्शी पंक्तियां हर किसी को प्रभावित किए बिना नहीं रहतीं:

‘कौन सी है वो चीज जो यहां नहीं मिलती।
सबकुछ मिल जाता है, लेकिन,
हाँ…! ‘माँ’ नहीं मिलती।’


जो नारी ‘माँ’ नहीं बन पाती, वह जीवन भर स्वयं को अधूरा मानती है और जीवन भर तड़पती रहती है। समाज में ऐसी औरत को ‘बांझ’ कहा जाता है और उसकी कदम-कदम पर उपेक्षा की जाती है। नारी की इसी मनोदशा को हरियाणा के ‘सूर्यकवि’ पं. लखमीचन्द ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘पूर्ण भगत’ में कुछ इस तरह चित्रित किया है:

‘बांझ दोष की बीर नै के बेरा,
सन्तान होण का किसा दर्द हो सै।’


(अर्थात, जो औरत ‘माँ’ न बनी हो यानी जो बांझ हो, भला उसे प्रसव-पीड़ा का क्या पता हो सकता है।)

नारी इस सृष्टि और प्रकृति की ‘जननी’ है। नारी के बिना तो सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसी शाश्वत सत्य को हरियाणा के सिरमौर कवि पं. मांगे राम ने अपने प्रख्यात साँग ‘शकुन्तला-दुष्यन्त’ में कुछ इस प्रकार समाहित किया है:

‘स्त्री ना होती जग म्हं, सृष्टि को रचावै कौण।
ब्रहा्रा विष्णु शिवजी तीनों, मन म्हं धारें बैठे मौन।
एक ब्रहा्रा नैं शतरूपा रच दी, जबसे लागी सृष्टि हौण।’


(अर्थात, यदि नारी नहीं होती तो सृष्टि की रचना नहीं हो सकती थी। स्वयं ब्रहा्रा, विष्णु और महेश तक सृष्टि की रचना करने में असमर्थ बैठे थे। जब ब्रहा्रा जी ने नारी की रचना की, तभी से सृष्टि की शुरूआत हुई।)

कुल मिलाकर, संसार का हर धर्म जननी ‘माँ’ की अपार महिमा का यशोगान करता है। हर धर्म और संस्कृति में ‘माँ’ के अलौकिक गुणों और रूपों का उल्लेखनीय वर्णन मिलता है। हिन्दू धर्म में देवियों को ‘माँ’ कहकर पुकारा गया है। धार्मिक परम्परा के अनुसार धन की देवी ‘लक्ष्मी माँ’, ज्ञान की देवी ‘सरस्वती माँ’ और शक्ति की देवी ‘दुर्गा माँ’ मानीं गई हैं। नवरात्रों में ‘माँ’ को नौ विभिन्न रूपों में पूजा जाता है। मुस्लिम धर्म में भी ‘माँ’ को सर्वोपरि और पवित्र स्थान दिया गया है। हजरत मोहम्मद कहते हैं कि ‘‘माँ’ के चरणों के नीचे स्वर्ग है।’ ईसाईयों के पवित्र ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा गया है कि ‘माता के बिना जीवन होता ही नहीं है।’ ईसाई धर्म में भी ‘माँ’ को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। इसके साथ ही भगवान यीशु की ‘माँ’ मदर मैरी को सर्वोपरि माना जाता है। बौद्ध धर्म में महात्मा बुद्ध के स्त्री रूप में देवी तारा की महिमा का गुणगान किया गया है। कहने का अभिप्राय यह है कि चाहे कोई भी देश हो, कोई भी संस्कृति या सभ्यता हो और कोई भी भाषा अथवा बोली हो, ‘माँ’ के प्रति अटूट, अगाध और अपार सम्मान देखने को मिलेगा। ‘माँ’ को अंग्रेजी भाषा में ‘मदर’ ‘मम्मी’ या ‘मॉम’, हिन्दी में ‘माँ’, संस्कृत में ‘माता’, फारसी में ‘मादर’ और चीनी में ‘माकून’ कहकर पुकारा जाता है। भाषायी दृष्टि से ‘माँ’ के भले ही विभिन्न रूप हों, लेकिन ‘ममत्व’ और ‘वात्सल्य’ की दृष्टि में सभी एक समान ही होती हैं।

।। माँ की महिमा ।।
जिसे कोई उपमा न दी जा सके उसका नाम हैं ‘माँ’। जिसकी कोई सीमा नहीं उसका नाम है ‘माँ’। जिसके प्रेम को कभी पतझड़ स्पर्श न करे उसका नाम है ‘माँ’। ऐसी तीन माँ है —परमात्मा ...... महात्मा ........और माँ। हे जीव! प्रभु को पाने की पहली सीढ़ी ‘माँ’ है। जो तलहटी की अवमानना करे वो शिखर को प्राप्त करे यह शक्य नहीं। ऐसी माँ की अवमानना कर दिल दुखाकर हम मोक्ष पा सकें यह शक्य नहीं ।
(1)
माँ पूर्ण शब्द है। ग्रन्थ है। महाविद्यालय है।
यह मंत्र बीज है। हर सर्जनता का आधार है।
यह माँ शब्द माँ की सागर से भी अधिक गहराई को,
माँ की हिमालय से भी अधिक ऊँचाई को,
माँ की आसमान से भी अधिक असीमता को,
एवं धरती से भी अधिक माँ की सहनशीलता को दर्शाता है।
याद रखना माँ को जानने वाला ही महात्मा को जान सकता है।
माँ को जानने वाला ही परमात्मा को जान सकता है।
(2)
माँ और क्षमा, दोनों एक है
क्योंकि,
माफ करने में दोनों एक हैं।
सुविधा के लिये जुदा होना पड़े,
उसमें कोई हर्ज नहीं है
किन्तु
स्वभाव के कारण, जुदा होना पड़े
वो तो सबसे बड़ी शर्म है।
(3) 
माँ !
पहले आँसू आते थे, और तू याद आती थी।
आज तू याद आती है, और आँसू आते हैं।।
मात पिता क्रोधी हैं, पक्षपाती हैं, शंकाशील हैं,
ये सारी बातें बाद की है,
पहली बात तो ये है कि...
वो माँ बाप है।
संसार की
दो बड़ी करुणता........
माँ बिन घर.......
और घर बिना माँ ......!!!
(4)
ऊपर जिसका अंत नहीं, उसे आसमां कहते हैं
जहाँ में जिसका अंत नहीं, उसे माँ कहते हैं
तूने जब धरती पर, पहला श्वाँस लिया
तब तेरे माता—पिता, तेरे पास थे,
माता—पिता अंतिम श्वाँस लें,
तब तू उनके पास रहना....
जब छोटा था तब,
माँ की शय्या गीली रखता था,
अब बड़ा हुआ तो,
माँ की आँखे गीली रखता है।
रे पुत्र!
तुझे माँ को गीलेपन में रखने की आदत हो गई हैं।
(5)
माँ तूने तीर्थंकरों को जना हैं,
संसार तेरे ही दम से बना है।
तू मेरी पूजा है, मन्नत है मेरी,
तेरे ही कदमों में जन्नत है मेरी.....!
बंटवारे के समय, घर की हर चीज के लिये
झगड़ा करने वाले बेटे, दो चीज के लिये
उदार बनते है, जिसका नाम है
माँ — बाप .......
(6)
डेढ़ किलो दूधी, डेढ़ घंटे तक उठाने से,
तेरे हाथ दुख जाते हैं।
माँ को सताने से पहले, इतना तो सोच .......
तुझे नौ नौ महीने पेट में कैसे उठाया होगा ?
जो मस्ती आँखों में है, मदिरालय में नहीं,
अमीरी दिल की कोई, बड़े महालय में नहीं,
शीतलता पाने को, कहाँ भटकता है मानव!
जो है माँ की गोद में,
वो हिमालय में नहीं ......!
(7)
बचपन के आठ साल तुझे, अंगुली पकड़कर जो माँ—बाप,
स्कूल ले जाते थे, उस माँ—बाप को,
बुढ़ापे के आठ साल, सहारा बन कर मन्दिर ले जाना.....
शायद थोड़ा सा तेरा कर्ज, थोड़ा सा तेरा फर्ज पूरा होगा।
माँ — बाप को सोने से न मढ़ो, चलेगा।
हीरे से न जड़ो, तो चलेगा।
पर उसका जिगर जले
और अंतर आँसू बहाये,
वो कैसे चलेगा ?
(8)
जिन बेटों के जनम पर माँ—बाप ने,
हंसी खुशी से पेड़े बाँटे.........
वही बेटे जवान होकर कानापूâसी से,
माँ—बाप को बाँटे.......
हाय! कैसी करुणता ?
माँ—बाप की आँखों में, दो बार आँसू आते हैं
लड़की घर छोड़े तब....
लड़का मुँह मोड़े तब....
(9)
घर में वृद्ध माँ—बाप से बोलें नहीं,
उनको संभालें नहीं,
और वृद्धाश्रम में दान करें,
जीवदया में धन प्रदान करें,
उसे दयालु कहना.........
वो दया का अपमान है
चार वर्ष का तेरा लाड़ला
जो तेरे प्रेम की प्यास रखे।
तो पचास वर्ष के तेरे माँ—बाप
तेरे प्रेम की आस क्यों न रखें ?
माँ — बाप की सच्ची विरासत,
पैसा और बंगला नहीं,
प्रामाणिकता और पवित्रता है........
बचपन में जिसने तुझको पाला,
बूढ़ेपन में उसको तूने नहीं संभाला,
तो याद रखना........
तेरे भाग्य में भड़केगी ज्वाला।
(10)
जिस दिन तुम्हारे कारण माँ— बाप की आँख में
आँसू आते हैं,
याद रखना .......
उस दिन तुम्हारा किया सारा धर्म
आँसू में बह जाता है।
आज तू जो कुछ भी है,
वो ‘माँ- की बदौलत है
क्योंकि उसने तुझे जन्म दिया।
माँ तो देवी है, गर्भपात कराके,
वो राक्षसी नहीं बनी, इतना तो सोच !
पत्नी पसंद से मिल सकती है,
माँ पुण्य से ही मिलती है।
पसंद से मिलने वाली के लिये,
पुण्य से मिलने वाली को मत ठुकराना।
(11)
पेट में पाँच बेटे जिसको भारी नहीं लगे थे,
वो माँ ........
बेटों के पाँच फ्लेट में भी भारी लग रही है।
बीते जमाने का यह श्रवण का देश है!
कौन मानेगा ?
कबूतर को दाना डालने वाला बेटा
अगर माँ— बाप को दबाये तो .......
उसके दाने में कोई दम नहीं।
जीवन के अंधेरे पथ में,
सूरज बनकर, रोशनी करने वाले
माँ— बाप की जिन्दगी में, अंधकार
मत फैलाना ........
(12)
जिस माता ने जनम दिया है,
उस माता को भूल गया
जिस माता ने बड़ा किया है,
उस माता से रूठ गया
तकलीफ कितनी उसने सही थी
नौ महीने गर्भ में लेकर फिरी थी,
फिर भी तू उस माँ को भूल गया
तू, अपनी ही माँ से रूठ गया
याद करो उस बचपन को,
उसने ही तुझको पाला था,
(13)
तेरी माता तुझको सुलाने वो कभी ना सोयी थी
जब जब तू बीमार हुआ तो उसकी आँखे रोई थी
खुद ने न खाया माँ ने तुझको खिलाया,
सारी सारी रात पालने में झुलाया,
पालने में रोया तो गले से लगाया,
उंगली पकड़कर चलना सिखाया
माता के उस उपकारों को कौन कभी चुकायेगा,
जो जी माँ की ना सुनेगा.........
(14)
जिस माता ने गीले से
सूखे में तुझे सुलाया था,
जब जब था मलमूत्र में,
तब तब उस माता ने धोया था,
नफरत कभी भी उसने न की थी,
तेरी खुशी में वो हरदम हँसी थी,
फिर भी उनको भूल गया तू,
अपनी ही माँ से रूठ गया तू
उस माता की मेहनत को,
तू कभी भी भूल ना पायेगा,
जो माँ की ना सुनेगा...
(15)
माता तेरी उंगली पकड़कर स्कूल में छोड़ने आती थी
देव—गुरु को वंदन करना सब कुछ वो सिखाती थी
तुझे पाठशाला में धरम सिखाया,
धरम के भावों को खूब बढ़ाया
बड़े होते ही तू बना धनवाला,
माँ—बाप को तूने घर से निकाला
ऐसा बेटा डनलप के गद्दों में सो न पायेगा
जो माँ की ना सुनेगा.....
(16)
माँ की गोद में सातों बेटे यूं ही बड़े हो जाते हैं
(मगर) सातों बेटे अपने महल में
माँ को नहीं रख पाते हैं
कपूत जिसे माँ की परवा नहीं है,
नरक में भी उसके लिये जगह नहीं है
माँ का अनादर न माफ करेगा,
माँ का आशीष जो पायेगा
वो सीधा स्वर्ग में जायेगा...
जो माँ की ना सुनेगा...
बेटे की शादी होते ही
माता को भूल जाता है,
घरवाली की बातें सुनकर
माँ से अलग हो जाता है
बहू सास को परेशान करेगी,
मगर बहू भी एक दिन सास बनेगी
(17)
जहर को घोला जो तो जहर ही मिलेगा,
कांटों को बोया तो कांटे ही पायेगा,
दुनिया में सब कुछ मिलेगा,
मिले न ममता मात की...
जो माँ की ना सुनेगा...
बुढ़ापे में मात—पिता का सपना जब टूट जाता है,
दौलत के संग मात—पिता का बंटवारा हो जाता है
एक बेटा अपने घर माँ को ले जाये,
एक बेटा अपने घर बाप को ले जाये
एक होते भी हो गये पराये,
दोनों बिछड़कर आंसू बहाये
जो बबूल को बोयेगा,
वो आम कहां से खायेगा...
जो माँ की ना सुनेगा...
एक बेटा अपने बेटे को भेंट में गाड़ी देता है
वो ही बेटा मात—पिता को थाली तक नहीं देता है
फिर भी वो माता कभी खफा नहीं होती,
जुबां से कभी बद्दुआ नहीं देती
(18)
माता तो तेरी ममता की ज्योति,
माता के आंसू हैं सच्चे मोती
उनके दिल को ठेस लगा के,
बेटा संभल न पायेगा...
जो माँ की ना सुनेगा...
मात—पिता की तबियत बिगड़े तो
बेटे को तो समय नहीं
धंधापानी छोड़ के माता को
मिलने का कोई धरम नहीं
अगर सास—ससुर की तबियत बिगड़ी,
टिकिट निकाली हवाई जहाज की
शरम तो करो ओ माँ के सपूतों,
अभी भी समय है पहचानो माँ को
अपने ही स्वार्थों के खातर खातिर
माता को क्यों भूल गया..
जो माँ की ना सुनेगा.....
मात—पिता जब जिंदा होते हाल कभी ना पूछते हैं
मात—पिता जब स्वर्ग चले जो शोकसभा बुलवाते हैं
(19)
अखबारों में नाम छपाया,
माता—पिता की छवि को सजाया
दीप जलाया और धूप जलाया,
बेटे ने आंसू का सागर बहाया
पर मगर के आंसू को तो,
हर कोई पहचानेगा....
जो माँ की ना सुनेगा....
चाहे पूजा पाठ करो और
व्याख्यान सुनलो तुम भाई
चाहे कितना धरम करो
व्यर्थ है जो माँ की ममता ना पाई
चाहे बड़ी तुम तपस्या भी करलो,
चाहे लाखों का दान भी कर लो
चाहे चले जाओ पावापुरी जी
चाहे चले जाओ सम्मदेशिखरजी
जिसने नहीं जीता माता को,
प्रभुवर को क्या जीतेगा
जो माँ की ना सुनेगा....
(20)
बचपन में तो पहला शब्द
तूने माँ माँ बोला था
तब ही तेरी माँ का मन
एक मोरनी बनकर डोला था
तेरे पीछे वो तो पागल बनी थीं,
ममता की छाँव का बादल बनी थी,
ऐसी ही माता को भूल ना जाना,
ममता के फर्ज को जल्दी चुकाना
स्वर्ग है माँ के चरणों में,
जो समझेगा वो पायेगा
जो माँ की ना सुनेगा.....
(21)
इस दुनिया को माँ की महिमा
सबको आज सुनानी है
माँ और बेटे के रिश्ते की
ये तो अमर कहानी है
माता ने बेटे को जनम दिया,
बाप ने बेटे का सब कुछ किया,
तूने उसका क्या बदला दिया,
किसके भरोसे छोड़ दिया।
माता—पिता को दु:ख देके,
कहां से तू सुख पायेगा
(22)
जो माँ की ना सुनेगा.....
चाहे लाखों कमालो
चाहे करोड़ों भी कमा लेना
जिसने माता को नहीं जीता,
धिक्कार है उसका जीना
गर्व ना कर तू धन का ओ पगले,
गाड़ी ये बंगले यहीं तो रहेंगे
माता—पिता की लेले दुआई,
जीवन बनेगा तेरा सुखदाई
जिसने नहीं ली माँ की दुआयें,
हरदम वो पछतायेगा
जो माँ की ना सुनेगा.....
जो माँ की ना सुनेगा
माता को जो प्यार करें, वो लोग निराले होते हैं
जिसे माँ का आशीर्वाद मिले, वो किस्मत वाले होते हैं।
चाहे लाख करो तुम पूजा, और तीरथ करो हजार
मगर माँ—बाप को ठुकराया तो सब कुछ है बेकार....
जो माँ की ना सुनेगा, तेरी कौन सुनेगा
जो माँ को ठुकरायेगा, दर—दर की ठोकर खायेगा...
जो माँ की ना सुनेगा....
(23)
माँ—बाप को भूलना नहीं
भले ही हर बात भूल जाइये, माँ—बाप को भूलना नहीं।
अनगिनत है उपकार इनके, यह कभी भूलना नहीं।।
धरती के सभी देवताओं को पूजा, तभी आपकी सूरत देखी।
इस पवित्र माँ के दिल, कठोर बनकर तोड़ना नहीं।।
अपने मुँह की कौर निकाल, तुम्हें खिलाकर बड़ा किया।
इन अमृत देने वालों के सामने, जहर कभी उगलना नहीं।।
खुब लाड़ प्यार किया तुमसे, तुम्हारी हर जिद पूरी की।
ऐसे प्यार करने वालों से, प्यार करना कभी भूलना नहीं।।
चाहे लाख कमाते हो, लेकिन माँ—बाप खुश न रहें तो।
लाख नहीं सब खाक है, यह मानना भूलना नहीं।।
भीगी जगह में खुद सोकर, सुखे में सुलाया तुम्हें।
ऐसी अनमोल आँखों को, भूल से कभी भिगोंना नहीं।।
फूल बिछाए प्यार से, जिन्होंने तुम्हारी राहों पर।
ऐसी चाहना करने वालों के राहों में कांटा कभी बनना नहीं।।
दौलत से हर चीज मिलेगी, लेकिन माँ—बाप मिलते नहीं।
इनके पवित्र चरणों के प्रति, सम्मान कभी भूलना नहीं।।
संतान सेवा चाहे, तो संतान बनकर सेवा करें।
जैसी करनी वैसी भरनी, यह न्याय कभी भूलना नहीं।।
(24)
कलयुगी बेटा
जीवता माँ बाप ने रोटी नहि देवे,
मरिया पछे लाडू जीमावे है
जीवता माँ बाप ने पाणी नहीं पावे,
मरीया पछे, प्याऊसा खोलावे है
जीवता माँ बाप सु मुंडे नहीं बोले,
मरीया पछे आंसुड़ा ढुलकावे है
जीवता माँ बाप ने कपड़ा नहीं देवे,
मंरीया पछे सालां ओढ़ावे है
जीवता माँ बाप से इलाज नहीं करावे,
मरीया पछे हॉस्पिटल बंधावे हैं
जीवता माँ बाप ने खर्ची नहीं देवें,
मरीया पछे रुपया उछाले है।


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