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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Thursday, November 14, 2013

ठाकुर जी ने रघुनाथ के रूप में दर्शन दिए




ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि
!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!

जब गोस्वामी जी ने संत की जूतियाँ खीर के लिए आगे कर दी
एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी वृन्दावन के कालीदह के निकट रामगुलेला के स्थान में रुके थे. उस समय वृन्दावन भक्तमाल ग्रन्थ के रचियता परम भागवत नाभा जी भी वृंदावन में निवास कर रहे थे. एक दिन श्री नाभा जी ने वृंदावन के समस्त संत वैष्णवों के लिए विशाल भंडारे का आयोजन किया.सब जगह भंडारे की चर्चा थी. तुलसीदास उस समय वृन्दावन में ही ठहरे थे , पर वे ऐसे भंडारों में विशेष रुचि नहीं रखते थे.उनका विचार वहाँ जाने का नहीं था.किन्तु श्री नाभा जी के भंडारे में संत श्रीतुलसी दास जी की उपस्थिति को आवश्यक जानकर, श्रीगोपेश्वर महादेव जी ने स्वयं जाकर उन्हें भंडारे में जाने का अनुरोध किया. तब श्री तुलसी दास जी ने श्री नाभा जी की महिमा को जाना और श्री महादेव जी की कृपा का भी अनुभव किया. तुलसीदास जी ने भगवान शंकर की आज्ञा का पालन किया और नाभा जी के भंडारे में जाने के लिया चल दिए, जब गोस्वामी जी वहाँ पहुंचे तो थोडा बिलम्ब हो गया था, संतो की पंक्ति बैठ चुकी थी,स्थान खचा खच भरा हुआ था. गोस्वामी जी एक ओर जहाँ संतो की पनहियाँ (जूतियाँ) रखी थी,वही बैठ गए. अब परोसने वाले ने पत्तल रख दी ओर परोसने वाले ने आकर पुआ, साग, लड्डू, परोस दिए, जब खीर परसने वाला आया तो वह बोला - बाबा! तेरो कुल्ल्हड़ कहाँ है? खीर किसमे लोगे ? श्री गोस्वामी जी ने पास में पड़ी एक संत की पनहियाँ आगे कर दी और बोले - लो इसमें खीर डाल दो' तो वो परोसने वाला तो क्रोधित को उठा बोला बाबा! पागल होए गयो है का इसमें खीर लोगे ? उलटी सीधी सुनाने लगा संतो में हल चल मच गई श्री नाभा जी वहाँ दौड़े आये गोस्वामी जी को देखते ही उनके चरणों पर गिर पड़े सर्व वन्ध महान संत के ऐसे दैन्य को देखकर सब संत मंडली अवाक् रह गई सबने उठकर प्रणाम किया उस परोसने वाले ने तो शतवार क्षमा प्रार्थना की.

जब ठाकुर जी ने गोस्वामी जी की प्रार्थना पर रघुनाथ के रूप में दर्शन दिए
एक समय श्रीतुलसीदास जी श्रीवृन्दावन में सायंकाल को, श्रीनाभाजी एवं अनेक वैष्णवों के साथ ज्ञानगुदड़ी में विराजमान श्रीमदनमोहन जी का दर्शन कर रहे थे. इन्होंने जब श्रीमदनमोहन जी को दण्डवत प्रणाम किया तो परशुरामदास नाम के पुजारी ने व्यंग किया—

अपने अपने इष्टको, नमन करे सब कोय ! इष्ट विहीने परशुराम नवै सो निगुरा होय !!

श्रीगोस्वामीजी के मन में श्रीराम—कृष्ण में कोई भेदभाव नहीं था, परन्तु पुजारी के कटाक्ष के कारण आपने हाथ जोड़कर श्रीठाकुरजी से कहा—

कहा कहों छवि आज की, भले बने हो नाथ ! तुलसी मस्तक नवत है, धनुष बाण लो हाथ !!

भक्तवांच्छा कल्पतरु प्रभु ने भक्त का मान रखा. उनके लिए भक्त की वांछा पूरी करने में क्या देर लगनी थी -

मुरली लकुट दुराय के, धरयो धनुष सर हाथ ! तुलसी रुचि लखि दासकी, कृष्ण भये रघुनाथ !!

कित मुरली कित चन्द्रिका, कित गोपिन के साथ ! अपने जन के कारणे, कृष्ण भये रघुनाथ !!



            प्रेम अमिय मन्दर विरह भरत पयोधि गँभीर।
            मथि प्रगटे सुर साधु हित कृपासिन्धु रघुबीर।।

   बिस्व भरण-पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।।
      गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।
  जपहि नामु जन आरत भारी। मिटाई कुसंकट होहि सुखारी।।

                 ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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