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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Wednesday, June 13, 2012

कबीर के दोहे



कबीर के दोहे
















कबीर क्षुधा कूकरी, करत भजन में भंग
वाकूं टुकडा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग

संत शिरोमणि कबीरदास जीं कहते हैं कि भूख कुतिया के समान है। इसके होते हुए भजन साधना में विध्न-बाधा होती है। अत: इसे शांत करने के लिक समय पर रोटी का टुकडा दे दो फिर संतोष और शांति के साथ ईश्वर की भक्ति और स्मरण कर सकते हो ।

जहाँ न जाको गुन लहै , तहां न ताको ठांव
धोबी बसके क्या करे, दीगम्बर के गाँव

इसका आशय यह है कि जहाँ पर जिसकी योग्यता या गुण का प्रयोग नहीं होता, वहाँ उसका रहना बेकार है। धोबी वहां रहकर क्या करेगा जहां ऐसे लोग रहते हैं जिनके पास पहनने को कपडे नहीं हैं या वह पहनते नहीं है। अत: अपनी संगति और स्वभाव के अनुकूल वातावरण में रहना चाहिए। भावार्थ यह है कि जहां गुण की कद्र न हो वहां नहीं जायें.

पर नारी पैनी छुरी, विरला बांचै कोय
कबहुं छेड़ि न देखिये, हंसि हंसि खावे रोय।

संत कबीर दास जी कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को अपने लिये पैनी छुरी ही समझो। उससे तो कोई विरला ही बच पाता है। कभी पराई स्त्री से छेड़छाड़ मत करो। वह हंसते हंसते खाते हुए रोने लगती है।

पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान।
कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि पराई स्त्री के साथ प्रेम प्रसंग करना लहसून खाने के समान है। उसे चाहे कोने में बैठकर खाओ पर उसकी सुंगध दूर तक प्रकट होती है

कंचन दीया कारन ने, दरोपदी ने चीर
जो दीया सो पाइया, ऐसे कहैं कबीर

संत शिरोमणि कबीरदास जे कहते हैं कर्ण ने स्वर्ण दान दिया और द्रोपदी ने वस्त्र का दान दिया। उन्होने जो दान दिया उससे कई गुना बढ़कर उनको प्राप्त हुआ।
भाव-कर्ण को अनंत यश मिला तो चीरहरण के समय द्रोपदी को भगवान श्री कृष्ण ने वस्त्र प्रदान किया।

पहिले यह मन काग था, करता जीवन घात
अब तो मन हंसा, मोती चुनि-चुनि खात

संत शिरोमणि अपने मन का वर्णन करते हुए कहते हैं की पहले मेरा मन कौए के समान था जो जीवन पर घात करता रहता था , किन्तु अब यह मन हंस के समान हो गया है जो चुन-चुन कर मोती खाता है।

पढि पढि तो पत्थर भया, लिखि लिखि भया जो चोर
जिस पढ़ने साहिब मिले, सो पढ़ना कछु और

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं पुस्तकें पढ़-पढ़कर तो पत्थर के समान जड़ अज्ञानी होते गए और लिख-लिख कर भी चोर बनते गए। जिसे पढ़ने से स्वामी मिलता है वह तो कुछ और ही है।

साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं

कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।

जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीमद्भागवत गीता के संदेश के अनुसार गुण ही गुणों में बरतते हैं। जिस तरह का मनुष्य भोजन ग्रहण करता है और जिस वातावरण में रहता है उसका प्रभाव उस पर पड़ता ही है। अगर हम यह मान लें कि हम तो आत्मा हैं और पंच तत्वों से बनी यह देह इस संसार के पदार्थों के अनुसार ही आचरण करती है तब इस बात को समझा जा सकता है। अनेक बार हम कोई ऐसा पदार्थ खा लेते हैं जो मनुष्य के लिये अभक्ष्य है तो उसके तत्व हमारे रक्त कणों में मिल जाते हैं और उसी के अनुसार व्यवहार हो जाता है।

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपनै, गोबिंद दियो मिलाय।।
बुरा जो देखन मैं चल्या, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय ।।

कथनी कथी तो क्या भया जो करनी ना ठहराइ ।
कालबूत के कोट ज्यूं देखत ही ढहि जाइ।।

दोष पराए देख कर चल्या हंसत हंसत ।
अपनै चीति न आबई जाको आदि न अंत ।।

कबीरा खड़ा बजार में, सब की चाहे खैर ।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर ।।

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदय सांच हें, वाके हिरदय आप ।।

एकै साध सब सधै, सब साधे सब जाय ।
जो तू सींचे मूल को, फूले फल अघाय ।।

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब ।
पल में प्रलय होयगी, बहुरि करोगे कब ।।

सूरा के मैदान में, कायर का क्या काम ।
कायर भागे पीठ दे , सूरा करे संग्राम ।।

सतनाम जाने बिना, हंस लोक नहिं जाए।
ज्ञानी पंडित सूरमा, कर कर मुये उपाय।।

साई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय।।

सुमिरन करहु राम का, काल गहै है केस।
न जानो कब मारिहै, का घर का परदेस।।

करता था सो क्यों किया, अब करि क्यों पछताय।
बोवे पेड बबूल का, आम कहां से खाय।।

जो तोको कांटा बुवै, ताहि बोओ तू फूल।
ताहि फूल को फूल हैं, वाको हैं तिरसूल।।

जो जल बाढ़े नांव में, घर में बाढ़े दाम।
दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।।

कबिरा गरब न कीजिये, कबहूं न हंसिये कोय।
अबहूं नाव समुंद्र में, का जाने का होय।।

जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी बन डरी, रही किनारे बैठ।।

कर बहियां बल आपनी, छोड़ बीरानी आस।
जाके आंगन नदि बहे, सो कस मरत प्यास।।

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंड़ित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंड़ित होय।।

चलती चक्की देखि कै, दिया कबीरा रोय।
दुइ पट भीतर आइ कै, साबित गया न कोय।

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।

कबीरा सोई पीर हैं, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर ।।

कबीर माला काठ की, कहि समझावै तोहि।
मन न फिरावै आपणा, कहा फिरावै मोहि।।

कस्तूरी कुंजल बसे, मृग ढूढै बन माहि।।
ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखे नाहि।।

चारिउं वेदि पठाहि, हरि सूं न लाया हेत।
बालि कबीरा ले गया, पंडित ढूंढे खेत।।

ऊंचे कुल का जनमिया, जे करणी ऊंच होइ।
सुबण कलस सुरा भरा, साधू निन्दै सोइ।।

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोइ।
आपन को सीतल करे, और हु सीतल होइ।।

कबीर तूं काहै डरै, सिर पर हरि का हाथ।
हस्ती चढि नहि डोलिये, कुकर भूखें साथ।।

माली आवत देख कै कलियन करी पुकार।
फूली फूली चुन लिए, काल्हि हमारी बार।।

धरती सब कागद करूं, लेखनी सब बनराय।
साह सुमुंद्र की मसि करूं, गुरू गुण लिखा न जाय़।।

कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।
ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।

सहज सहज सब कोऊ कहै, सहज न चीन्है कोइ।
जिन्ह सहजैं विषया तजी, सहज कहीजै सोइ।

सुखिया सब संसार है खावै और सोवै।
दुखिया दास कबीर है जागै अरू रोवै।।

कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्यान षड्ग गहि, काल सिरि , भली मचाई मार।।

माया मुई न मन मुवा मरि मरि गया सरीर।
आशा त्रिष्णा ना मुई, यौ कह गया कबीर।।

मन माया तो एक हैं, माया नहीं समाय।
तीन लोक संसय परा, काहि कहूं समझाय।

रज गुन ब्रह्मा तम गुन संकर सत्त गुन हरि सोई।
कहै कबीर राम रमि रहिये हिन्दू तुरक न कोई।।

एक राम दशरथ का प्यारा, एक राम का सकल पसारा।
एक राम घट घट में छा रहा, एक राम दुनिया से न्यारा।।

लाली मेरे लाल की जित देखों तित लाल।
लाली देखन मैं चली, हो गई लाल गुलाल।।

पूरब दिसा हरि को बासा, पश्चिम अलह मुकामा।
दिल महं खोजु, दिलहि में खोजो यही करीमा रामा।।

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मन का डा‍रि दे, मन का मनका फेर॥

तिनका कबहुं ना निंदए, जो पांव तले होए।
कबहुं उड़ अंखियन पड़े, पीर घनेरी होए॥

गुरु गोविंद दोऊं खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय॥

साईं इतना दीजिए, जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाय॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥

कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदली जाय॥

दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे होय॥

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥

उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनाई।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाई॥

राम  बुलावा  भेजिया , दिया  कबीरा  रोय  |
जो  सुख  साधू  संग  में , सो  बैकुंठ  न  होय  ||


संगती  सो  सुख  उपजे , कुसंगति  सो  दुःख  होय  |
कह  कबीर   तह  जाइए , साधू  संग  जहा  होय  ||


साहेब  तेरी  साहिबी , सब  घट  रही  समाय  |
ज्यो  मेहंदी  के  पात  में , लाली  राखी  न  जाय  ||


साईं  आगे  सांच  है , साईं  सांच  सुहाय  |
चाहे  बोले  केस  रख , चाहे  घौत  मुंडाय  ||


लकड़ी  कहे  लुहार  की , तू  मति  जारे  मोहि  |
एक  दिन  ऐसा  होयगा , मई  जरौंगी  तोही  ||


ज्ञान  रतन  का  जतानकर , माटि  का  संसार  |
आय  कबीर  फिर  गया , फीका  है  संसार  ||


रिद्धि  सिद्धि  मांगूं नहीं , माँगू  तुम  पी  यह  |
निशिदिन  दर्शन  साधू  को , प्रभु  कबीर  कहू   देह  ||


न  गुरु  मिल्या  ना  सिष  भय , लालच  खेल्या  डाव  |
दुनयू  बड़े  धार  में , छधी  पाथर  की  नाव  ||


कबीर  सतगुर  ना  मिल्या , रही  अधूरी  सीश  |
स्वांग  जाति  का  पहरी  कर , घरी  घरी  मांगे  भीष  ||

.
यह  तन  विष  की  बेलरी , गुरु  अमृत  की  खान  |
सीस  दिए  जो  गुरु  मिले , तो  भी  सस्ता  जान  ||

जो  तू  चाहे  मुक्ति  को , छोड़  दे  सबकी  आस  |
मुक्त  ही  जैसा  हो  रहे , सब  कुछ  तेरे  पास  ||


ते  दिन  गए  अकार्थी , सांगत  भाई  न  संत  |
प्रेम  बिना  पशु  जीवन , भक्ति  बिना  भगवंत  ||


तीर  तुपक  से  जो  लादे , सो  तो  शूर  न  होय  |
माया  तजि  भक्ति  करे , सूर  कहावै  सोय  ||


तन  को  जोगी  सब  करे , मन  को  बिरला  कोय  |
सहजी  सब  बिधि  पिये , जो  मन  जोगी  होय  ||


नहाये  धोये  क्या  हुआ , जो  मन  मेल  न  जाय  |
मीन  सदा  जल  में  रही , धोये  बॉस  न  जाय  ||


पांच  पहर  धंधा  किया , तीन  पहर  गया  सोय  |
एक  पहर  भी  नाम  बिन , मुक्ति  कैसे  होय  ||


पत्ता  बोला  वृक्ष  से , सुनो  वृक्ष  बनराय  |
अब  के  बिछड़े  न  मिले , दूर  पड़ेंगे  जाय  ||


माया  छाया  एक  सी , बिरला  जाने  कोय  |
भागत  के  पीछे  लगे , सन्मुख  भागे  सोय  ||


या  दुनिया  में  आ  कर , छड़ी  डे  तू  एट  |
लेना  हो  सो  लिले , उठी  जात  है  पैठ  ||


रात  गवई  सोय  के  दिवस  गवाया  खाय  |
हीरा  जन्म  अनमोल  था , कौड़ी  बदले  जाय  ||

कबीरा  गरब  ना  कीजिये , कभू  ना  हासिये  कोय  |
अजहू  नाव   समुद्र  में , ना  जाने  का   होए  ||


कबीरा  कलह  अरु  कल्पना , सैट  संगती  से  जाय  |
दुःख  बासे  भगा  फिरे , सुख  में  रही  समाय  ||


काह  भरोसा  देह  का , बिनस  जात  छान  मारही  |
सांस  सांस  सुमिरन  करो , और  यतन  कुछ  नाही  ||


कुटिल  बचन  सबसे  बुरा , जासे  हॉट  न  हार  |
साधू  बचन  जल  रूप  है , बरसे  अमृत  धार  ||


कबीरा  लोहा  एक  है , गढ़ने  में  है  फेर  |
ताहि  का  बख्तर  बने , ताहि  की  शमशेर  ||


कबीरा  सोता  क्या  करे , जागो  जपो  मुरार  |
एक  दिन  है  सोवना , लंबे  पाँव  पसार  ||


कबीरा  आप  ठागइए , और  न  ठगिये  कोय  |
आप  ठगे  सुख  होत  है , और  ठगे  दुःख  होय  ||


गारी  ही  से  उपजे , कलह  कष्ट  और  भीच  |
हारी  चले  सो  साधू  है , लागी  चले  तो  नीच  ||


जा  पल  दरसन  साधू  का , ता  पल  की  बलिहारी  |
राम  नाम  रसना  बसे , लीजै  जनम  सुधारी  ||


जो  तोकू  कांता  बुवाई , ताहि  बोय  तू  फूल  |
तोकू  फूल  के  फूल  है , बंकू  है  तिरशूल  ||

फल  कारन  सेवा  करे , करे  ना  मन  से  काम  |
कहे  कबीर  सेवक  नहीं , चाहे  चौगुना  दाम  ||


कबीरा  यह  तन  जात  है , सके  तो  ठौर  लगा  |
कई  सेवा  कर  साधू  की , कई  गोविन्द  गुण  गा  ||


सोना  सज्जन  साधू  जन , टूट  जुड़े  सौ  बार  |
दुर्जन  कुम्भ  कुम्हार  के , एइके  ढाका  दरार  ||


जग  में  बैरी  कोई  नहीं , जो  मन  शीतल  होय  |
यह  आपा  तो  डाल  दे , दया  करे  सब  कोए  ||


प्रेमभाव  एक  चाहिए , भेष  अनेक  बनाय  |
चाहे  घर  में  वास  कर , चाहे  बन  को  जाए  ||


साधू  सती  और  सुरमा , इनकी  बात  अगाढ़  |
आशा  छोड़े  देह  की , तन  की  अनथक  साध  ||


हरी  सांगत  शीतल  भय , मिति  मोह  की  ताप  |
निशिवासर  सुख  निधि , लाहा  अन्न  प्रगत  आप्प   ||


आवत  गारी  एक  है , उलटन  होए  अनेक  |
कह  कबीर  नहीं  उलटिए , वही  एक  की  एक  ||


उज्जवल  पहरे  कापड़ा , पान  सुपारी  खाय  |
एक  हरी  के  नाम  बिन , बंधा  यमपुर  जाय  ||


अवगुण  कहू  शराब  का , आपा  अहमक  होय  |
मानुष  से  पशुआ  भय , दाम  गाँठ  से  खोये  ||

कामी   क्रोधी  लालची , इनसे  भक्ति  ना  होए  |
भक्ति  करे  कोई  सूरमा , जाती  वरण  कुल  खोय  ||


बैद  मुआ  रोगी  मुआ , मुआ  सकल  संसार  |
एक  कबीरा  ना  मुआ , जेहि  के  राम  आधार  ||


प्रेम  न  बड़ी  उपजी , प्रेम  न  हात  बिकाय  |
राजा  प्रजा  जोही  रुचे , शीश  दी  ले  जाय  ||


प्रेम  प्याला  जो  पिए , शीश  दक्षिणा  दे   |
लोभी  शीश  न  दे  सके , नाम   प्रेम  का  ले  ||


दया  भाव  ह्रदय  नहीं , ज्ञान  थके  बेहद  |
ते  नर  नरक  ही  जायेंगे , सुनी  सुनी  साखी  शब्द  ||


जहा  काम  तहा  नाम  नहीं , जहा  नाम  नहीं  वहा  काम  |
दोनों  कभू  नहीं  मिले , रवि  रजनी  इक  धाम  ||


ऊँचे   पानी  ना  टिके , नीचे  ही  ठहराय  |
नीचा  हो  सो  भारी  पी , ऊँचा  प्यासा  जाय  ||


जब  ही  नाम  हिरदय  धर्यो , भयो  पाप  का  नाश  |
मानो  चिनगी  अग्नि  की , परी  पुरानी  घास  ||


सुख  सागर  का  शील  है , कोई  न  पावे  थाह  |
शब्द  बिना  साधू  नहीं , द्रव्य  बिना  नहीं  शाह  ||


बाहर  क्या  दिखलाये , अंतर  जपिए  राम  |
कहा  काज  संसार  से , तुझे  धानी  से  काम  ||

राम  पियारा  छड़ी  करी , करे  आन   का  जाप  |
बेस्या  कर  पूत  ज्यू , कहै  कौन  सू  बाप  ||


जो  रोऊ  तो  बल  घटी , हंसो  तो  राम  रिसाई  |
मनही  माहि  बिसूरना , ज्यूँ  घुन  काठी  खाई  ||


सुखिया सब संसार है , खावै और सोवे |
दुखिया दास कबीर है , जागे अरु रावे  ||


परबत परबत  मै   फिरया  , नैन गवाए रोई   |
सो  बूटी  पौ  नहीं , जताई जीवनी  होई  ||


कबीर  एक  न  जन्या , तो  बहु  जनया  क्या  होई  |
एक  तै  सब  होत  है , सब  तै  एक  न  होई  ||

पतिबरता मैली भली ,गले कांच को पोत |
सब सखियाँ में यो दिपै ,ज्यो  रवि  ससी  को  ज्योत  ||


भगती  बिगाड़ी  कामिया , इन्द्री  करे  सवादी  |
हीरा  खोया  हाथ  थाई , जनम  गवाया  बाड़ी  ||


परनारी  रता  फिरे , चोरी  बिधिता  खाही  |
दिवस  चारी  सरसा  रही , अति  समूला  जाहि  ||


कबीर  कलि  खोटी  भाई , मुनियर  मिली  न  कोय  |
लालच  लोभी  मस्कारा , टिंकू  आदर  होई  ||


कबीर  माया   मोहिनी  , जैसी   मीठी   खांड   |
सतगुरु   की  कृपा  भई , नहीं  तोउ  करती  भांड  ||

आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल ।
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥

वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥

तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय ।
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥

भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥

आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥

दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥

कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय ।
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥

जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त ।
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥

इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ ।
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट ॥

अब तोहि जान न देहुँ राम पियारे, ज्यूँ भावै त्यूँ होहु हमारे।
बहुत दिनन के बिछुरे हरि पाये, भाग बड़े घरि बैठे आये॥
चरननि लागि करौं बरियायी, प्रेम प्रीति राखौं उरझाई।
इत मन मंदिर रहौ नित चोषै, कहै कबीर करहु मति घोषैं॥

कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम ।
कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥

यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर ।
बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर ॥

चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार ।
खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार ॥

पासा पकड़ा प्रेम का, सारी किया सरीर।
सतगुर दावा बताइया, खेलै दास कबीर॥

सतगुर हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का भीजि गया अब अंग॥

कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्माँ हरी भई बनराइ॥

और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥

कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥

कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान ।
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥

भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥

आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥

दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥

सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय ।
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥

गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥

ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥

पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम ।
दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥

एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।
अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥

कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय ।
जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥

अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥

यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥

साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥

सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥

और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥

विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥

सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥

जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥

साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥

गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥

साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय ।
जल सो अरसां नहिं, क्यों कर ऊजल होय ॥

सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय ।
कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय ॥



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