गजेन्द्र मोक्ष (Gajendra
Moksh)
श्रीमद्भागवत
के अष्टम स्कन्ध में गजेन्द्र मोक्ष की कथा है । द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध
का वर्णन है, तृतीय अध्याय
में गजेन्द्रकृत
भगवान के स्तवन और गजेन्द्र मोक्ष का प्रसंग है और चतुर्थ
अध्याय में गज ग्राह के पूर्व
जन्म का इतिहास है । श्रीमद्भागवत में गजेन्द्र मोक्ष आख्यान के पाठ का माहात्म्य
बतलाते हुए इसको स्वर्ग तथा यशदायक, कलियुग के समस्त पापों का नाशक, दुःस्वप्न नाशक और श्रेयसाधक कहा गया है। तृतीय
अध्याय का स्तवन बहुत ही उपादेय है । इसकी भाषा और भाव सिद्धांत के प्रतिपादक और बहुत ही मनोहर
हैं ।
श्रीमद्भागवतान्तर्गत गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन
श्री शुक उवाच – श्री शुकदेव जी ने कहा
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥
बुद्धि के
द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर
करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार
दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥
गजेन्द्र उवाच गजराज ने (मन ही मन) कहा
-
ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥१॥
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥१॥
जिनके प्रवेश
करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की
भांति व्यवहार करने लगते हैं), ‘ओम’
शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण
शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही
मन नमन करते हैं ॥२॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥
जिनके सहारे
यह विश्व टिका है, जिनसे यह
निकला है , जिन्होने इसकी
रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं – फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता
प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं – उन अपने आप – बिना किसी कारण के – बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम ।
क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम ।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोवतु मां परात्परः ॥४॥
स आत्ममूलोवतु मां परात्परः ॥४॥
अपने संकल्प
शक्ति के द्वार अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और
प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप
जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं उनसे लिप्त नही
होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी
परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
तमस्तदाsssसीद गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
समय के प्रवाह
से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर
तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप
प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच
रही थी। उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सब ओर
प्रकाशित रहते हैं वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
भिन्न भिन्न
रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण
दर्शक नही जान पाते , उसी
प्रकार सत्त्व
प्रधान देवता तथा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता
है – वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा
करें ॥६॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
आसक्ति से
सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण
प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके
अकारण हितू एवं अतिशय साधु स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार
करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं
, वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा
न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः
स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥
स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥
जिनका हमारी
तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं,
जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही,
फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं
प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥
उन अन्नतशक्ति
संपन्न परं ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है । उन प्राकृत आकाररहित एवं अनेको आकारवाले
अद्भुतकर्मा भगवान को बारंबार नमस्कार है ॥९॥
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥
स्वयं प्रकाश
एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो नम, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे
हैं, बार बार नमस्कार है ॥१०॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण
विपश्चिता ।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥
विवेकी पुरुष
के द्वारा सत्त्वगुणविशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है ॥११॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
सत्त्वगुण को
स्वीकार करके शान्त , रजोगुण
को स्वीकर करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, भेद रहित, अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है
॥१२॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय
साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥
शरीर इन्द्रीय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है । सबके अन्तर्यामी , प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ॥१३॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥
शरीर इन्द्रीय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है । सबके अन्तर्यामी , प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ॥१३॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥
सम्पूर्ण
इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण
विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥
नमो नमस्ते खिल कारणाय
निष्कारणायद्भुत कारणाय ।
निष्कारणायद्भुत कारणाय ।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥
सबके कारण
किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है ।
सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य , मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान को
नमस्कार है ॥१५॥ ॥
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय ।
तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥
जो त्रिगुणरूप
काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने
की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा
विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं
प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥
मुझ जैसे
शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवों की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप
से काट देने वाले अत्याधिक दयालू एवं दया करने में कभी आलस्य ना करने वाले
नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में
अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियन्ता अनन्त परमात्मा आप को नमस्कार
है ॥१७॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥
शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं
कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले
तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप ,
सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥
करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥
जिन्हे धर्म,
अभिलाषित भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग
अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं
अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से
सदा के लिये उबार लें ॥१९॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
जिनके अनन्य
भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं
अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते
हैं ॥२०॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥
उन अविनाशी,
सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा
प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट
होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय,
अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण
उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा
लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥
ब्रह्मादि
समस्त देवता, चारों वेद तथा
संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे
गये हैं ॥२२॥
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः ।
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः ।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥
जिस प्रकार
प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने
कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ
और नाना योनियों के शरीर – यह
गुणमय प्रपंच जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही
में लीन हो जात है ॥२३॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची – पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों ॥२४॥
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची – पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों ॥२४॥
जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥
मैं इस ग्राह
के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर – सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना
है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता
हूँ, जिसका कालक्रम से अपने
आप नाश नही होता , अपितु
भगवान की
दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥
सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम
।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥
इस प्रकार
मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले,
विश्व में आत्मरूप से व्याप्त ,
अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री
भगवान को केवल प्रणाम ही करता हूं, उनकी शरण में हूँ ॥२६॥
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥
जिन्होने
भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने
हृदय में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥
जिनकी
त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में
प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी
इन्द्रियाँ विषयों में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार
है ॥२८॥
नायं वेद स्वमात्मानं
यच्छ्क्त्याहंधिया हतम ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥
जिनकी अविद्या
नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता,
उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण आया हूँ ॥२९॥
श्री शुकदेव उवाच – श्री शुकदेवजी ने कहा -
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात
तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥
तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥
जिसने
पूर्वोक्त प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था , उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी
देवता नही
आये, जो भिन्न भिन्न प्रकार
के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण
सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान -
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥
उपर्युक्त
गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई स्तुति को सुन कर
सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर
स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान अपर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था ।
सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम ।
दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा -
न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥
न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥
सरोवर के भीतर
महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर
सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के
लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है”
यह वाक्य कहा ॥३२॥
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥
उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥
सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥
उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥
गजेन्द्र मोक्ष
श्री शुकदेव जी ने कहा –
यों निश्चय कर
व्यवसित मति से मन प्रथम हृदय से जोड लिया ।
फिर पूर्व जन्म में अनुशिक्षित इस परम मंत्र का जाप किया ॥१॥
फिर पूर्व जन्म में अनुशिक्षित इस परम मंत्र का जाप किया ॥१॥
गजेन्द्र बोला –
मन से है ऊँ
नमन प्रभु को जिनसे यह जड चेतन बनता ।
जो परमपुरुष जो आदि बीज, सर्वोपरि जिसकी ईश्वरता ॥२॥
जो परमपुरुष जो आदि बीज, सर्वोपरि जिसकी ईश्वरता ॥२॥
जिसमें,
जिससे, जिसके द्वारा जग की सत्ता, जो स्वयं यही ।
जो कारण-कार्य परे सबके , जो निजभू आज शरण्य वही ॥३॥
जो कारण-कार्य परे सबके , जो निजभू आज शरण्य वही ॥३॥
अपने में ही
अपनी माया से ही रचे हुए संसार ।
को हो कभी प्रकट, अन्तर्हित, कभी देखता उभय प्रकार ॥
जो अविद्धदृक साक्षी बन कर, जो परसे भी सदा परे ।
है जो स्वयं प्रकाशक अपना, मेरी रक्षा आज करे ॥४॥
को हो कभी प्रकट, अन्तर्हित, कभी देखता उभय प्रकार ॥
जो अविद्धदृक साक्षी बन कर, जो परसे भी सदा परे ।
है जो स्वयं प्रकाशक अपना, मेरी रक्षा आज करे ॥४॥
लोक, लोकपालों का, इन सबके कारण का भी संहार ।
कर देता संपूर्ण रूप से महाकाल का कठिन कुठार ॥
अंधकार तब छा जाता है, एक गहन गंभीर अपार ।
उसके पार चमकते जो विभु, वे में मुझको आज संभार ॥५॥
कर देता संपूर्ण रूप से महाकाल का कठिन कुठार ॥
अंधकार तब छा जाता है, एक गहन गंभीर अपार ।
उसके पार चमकते जो विभु, वे में मुझको आज संभार ॥५॥
देवता तथा ऋषि
लोग नही जिनके स्वरूप को जान सके ।
फिर कौन दूसरा जीव भला, जो उनको कभी बखान सके ॥
जो करते नाना रूप धरे , लीला अनेक नटतुल्य रचा ।
है दुर्गम जिनका चरितसिंधु , वे महापुरुष लें मुझे बचा ॥६॥
फिर कौन दूसरा जीव भला, जो उनको कभी बखान सके ॥
जो करते नाना रूप धरे , लीला अनेक नटतुल्य रचा ।
है दुर्गम जिनका चरितसिंधु , वे महापुरुष लें मुझे बचा ॥६॥
जो साधु
स्वाभवी , सर्व सुहृद वे
मुनिगण भी सब सग छोड ।
बस केवल मात्र आत्मा का सब भूतों से संबंध जोड ॥
जिनके मंगलमय पद दर्शन की इच्छा से वन मे पालन ।
करते अलोक व्रत का अखंड , वे ही हैं मेरे अवलम्बन ॥७॥
बस केवल मात्र आत्मा का सब भूतों से संबंध जोड ॥
जिनके मंगलमय पद दर्शन की इच्छा से वन मे पालन ।
करते अलोक व्रत का अखंड , वे ही हैं मेरे अवलम्बन ॥७॥
जिसका होता है
जन्म नही, केवल होता भ्रम से
प्रतीत ।
जो कर्म और गुण दोष तथा जो नाम रूप से है अतीत ॥
रचनी होती जब सृष्टि किंतु, जब करना होता उसका लय ।
तब अंगीकृत कर लेता है इन धर्मों को वह यथा समय ॥८॥
जो कर्म और गुण दोष तथा जो नाम रूप से है अतीत ॥
रचनी होती जब सृष्टि किंतु, जब करना होता उसका लय ।
तब अंगीकृत कर लेता है इन धर्मों को वह यथा समय ॥८॥
उस परमेश्वर,
उस परमब्रह्म, उस अमित शक्ति को नमस्कार ।
जो अद्भुतकर्मा जो अरूप फिर भी लेता बहुरूप धार ॥९॥
जो अद्भुतकर्मा जो अरूप फिर भी लेता बहुरूप धार ॥९॥
परमात्मा जो
सबका साक्षी, उस आत्मदीप को
नमस्कार ।
जिसतक जाने में पथ में ही जाते वाणी मन चित्त हार ॥१०॥
जिसतक जाने में पथ में ही जाते वाणी मन चित्त हार ॥१०॥
बन सतोगुणी
सुनिवृत्तिमार्ग से पाते जिसको विद्वज्जन ।
जो सुखस्वरूप निर्वाण जनित, जो मोक्षधामपति, उसे नमन ॥११॥
जो सुखस्वरूप निर्वाण जनित, जो मोक्षधामपति, उसे नमन ॥११॥
जो शान्त,
घोर, जडरूप प्रकट होते तीनों गुण धर्म धार ।
उन सौम्य ज्ञान घन निर्विशेष को नमस्कार है, नमस्कार ॥१२॥
उन सौम्य ज्ञान घन निर्विशेष को नमस्कार है, नमस्कार ॥१२॥
सबके स्वामी,
सबके साक्षी, क्षेत्रज्ञ ! तुझे है नमस्कार ।
हे आत्ममूल हे मूल प्रकृति, हे पुरुष नमस्ते बार बार ॥१३॥
हे आत्ममूल हे मूल प्रकृति, हे पुरुष नमस्ते बार बार ॥१३॥
इन्द्रिय
विषयों का जो दृष्टा, इन्द्रियानुभव
का जो कारन ।
जो व्यक्त असत की छाया में, हे सदाभास ! है तुझे नमन ॥१४॥
जो व्यक्त असत की छाया में, हे सदाभास ! है तुझे नमन ॥१४॥
सबके कारण
निष्कारण भी, हे विकृतिरहित
सबके कारण ।
तेरे चरणों में बारबार है नमस्कार मेरा अर्पण ॥
सब श्रुतियों, शास्त्रों का सारे, जो केवल एक अगाध निलय ।
उस मोक्षरूप को नमस्कार, जिसमें पाते सज्जन आश्रय ॥१५॥
तेरे चरणों में बारबार है नमस्कार मेरा अर्पण ॥
सब श्रुतियों, शास्त्रों का सारे, जो केवल एक अगाध निलय ।
उस मोक्षरूप को नमस्कार, जिसमें पाते सज्जन आश्रय ॥१५॥
जो ज्ञानरूप
से छिपा गुणों के बीच, काष्ठ
में यथा अनल ।
अभिव्यक्ति चाहता मन जिसका, जिस समय गुणों में हो हलचल ॥
मैं नमस्कार करता उनको, जो स्वयं प्रकाशित हैं उनमें ।
आत्मालोचन करके न रहे जो विधि निषेध के बंधन में ॥१६॥
अभिव्यक्ति चाहता मन जिसका, जिस समय गुणों में हो हलचल ॥
मैं नमस्कार करता उनको, जो स्वयं प्रकाशित हैं उनमें ।
आत्मालोचन करके न रहे जो विधि निषेध के बंधन में ॥१६॥
जो मेरे जैसे
शरणागत जीवों का हरता है बंधन ।
उस मुक्त अमित करुणा वाले, आलस्य रहित के लिये नमन ॥
सब जीवों के मन के भीतर, जो हैं प्रतीत प्रत्यक्चेतन ।
बन अन्तर्यामी, हे भगवन! हे अपरिछिन्न ! है तुझे नमन ॥१७॥
उस मुक्त अमित करुणा वाले, आलस्य रहित के लिये नमन ॥
सब जीवों के मन के भीतर, जो हैं प्रतीत प्रत्यक्चेतन ।
बन अन्तर्यामी, हे भगवन! हे अपरिछिन्न ! है तुझे नमन ॥१७॥
जिसका मिलना
है सहज नही, उन लोगों को जो
सदा रमें ।
लोगों में, धन में, मित्रों में, अपने में, पुत्रों में, घर में ॥
जो निर्गुण, जिसका हृदय बीच जन अनासक्त करते चिन्तन ।
हे ज्ञानरूप ! हे परमेश्वर ! हे भगवन ! मेरा तुझे नमन ॥१८॥
लोगों में, धन में, मित्रों में, अपने में, पुत्रों में, घर में ॥
जो निर्गुण, जिसका हृदय बीच जन अनासक्त करते चिन्तन ।
हे ज्ञानरूप ! हे परमेश्वर ! हे भगवन ! मेरा तुझे नमन ॥१८॥
जिनको
विमोक्ष-धर्मार्थ काम की इच्छा वाले जन भज कर ।
वांछित फल को पा लेते हैं; जो देते तथा अयाचित वर ॥
भी अपने भजने वालों को, कर देते उनकी देह अमर ।
लें वे ही आज उबार मुझे, इस संकट से करुणासागर ॥१९॥
वांछित फल को पा लेते हैं; जो देते तथा अयाचित वर ॥
भी अपने भजने वालों को, कर देते उनकी देह अमर ।
लें वे ही आज उबार मुझे, इस संकट से करुणासागर ॥१९॥
जिनके अनन्य
जन धर्म, अर्थ या काम मोक्ष
पुरुषार्थ-सकल ।
की चाह नही रखते मन में, जिनकी बस, इतनी रुचि केवल ॥
अत्यन्त विलक्षण श्री हरि के जो चरित परम मंगल सुन्दर ।
आनन्द-सिंधु में मग्न रहें , गा गा कर उनको निसि-वासर ॥२०॥
की चाह नही रखते मन में, जिनकी बस, इतनी रुचि केवल ॥
अत्यन्त विलक्षण श्री हरि के जो चरित परम मंगल सुन्दर ।
आनन्द-सिंधु में मग्न रहें , गा गा कर उनको निसि-वासर ॥२०॥
जो अविनाशी,
जो सर्व व्याप्त. सबका स्वामी,
सबके ऊपर ।
अव्यक्त किन्तु अध्यात्म मार्ग के पथिकों को जो है गोचर ॥
इन्द्रियातीत अति दूर सदृश जो सूक्ष्म तथा जो हैं अपार ।
कर कर बखान मैं आज रहा, उस आदि पुरुष को ही पुकार ॥२१॥
अव्यक्त किन्तु अध्यात्म मार्ग के पथिकों को जो है गोचर ॥
इन्द्रियातीत अति दूर सदृश जो सूक्ष्म तथा जो हैं अपार ।
कर कर बखान मैं आज रहा, उस आदि पुरुष को ही पुकार ॥२१॥
उत्पन्न वेद,
ब्रह्मादि देव, ये लोक सकल , चर और अचर ।
होते जिसकी बस, स्वल्प कला से नाना नाम रूप धरकर ॥२२॥
होते जिसकी बस, स्वल्प कला से नाना नाम रूप धरकर ॥२२॥
ज्यों ज्वलित
अग्नि से चिंगारी, ज्यों रवि
से किरणें निकल निकल ।
फिर लौट उन्ही में जाती हैं, गुण कृत प्रपंच उस भाँति सकल ॥
मन बुद्दि सभी इन्द्रियों तथा सब विविध योनियों वाले तन ।
का जिससे प्रकटन हो जिसमें, हो जाता है पुनरावर्त्तन ॥२३॥
फिर लौट उन्ही में जाती हैं, गुण कृत प्रपंच उस भाँति सकल ॥
मन बुद्दि सभी इन्द्रियों तथा सब विविध योनियों वाले तन ।
का जिससे प्रकटन हो जिसमें, हो जाता है पुनरावर्त्तन ॥२३॥
वह नही देव,
वह असुर नही, वह नही मर्त्य वह क्लीब नही ।
वह कारण अथवा कार्य नही, गुण, कर्म, पुरुष या जीव नही ॥
सबका कर देने पर निषेध, जो कुछ रह जाता शेष, वही ।
जो है अशेष हो प्रकट आज, हर ले मेरा सब क्लेश वही ॥२४॥
वह कारण अथवा कार्य नही, गुण, कर्म, पुरुष या जीव नही ॥
सबका कर देने पर निषेध, जो कुछ रह जाता शेष, वही ।
जो है अशेष हो प्रकट आज, हर ले मेरा सब क्लेश वही ॥२४॥
कुछ चाह न
जीवित रहने की जो तमसावृत बाहर-भीतर -
ऐसे इस हाथी के तन को क्या भला करूंगा मैं रखकर ?
इच्छा इतनी-बन्धन जिसका सुदृढ न काल से भी टूटे ।
आत्मा की जिससे ज्योति ढँकी, अज्ञान वही मेरा छूटे ॥२५॥
ऐसे इस हाथी के तन को क्या भला करूंगा मैं रखकर ?
इच्छा इतनी-बन्धन जिसका सुदृढ न काल से भी टूटे ।
आत्मा की जिससे ज्योति ढँकी, अज्ञान वही मेरा छूटे ॥२५॥
उस विश्व सृजक
, अज, विश्व रूप, जग से बाहर जग-सूत्रधार ।
विश्वात्मा, ब्रह्म, परमपद को, इस मोक्षार्थी का नमस्कार ॥२६॥
विश्वात्मा, ब्रह्म, परमपद को, इस मोक्षार्थी का नमस्कार ॥२६॥
निज कर्मजाल
को, भक्ति योग से जला,
योग परिशुद्ध हृदय ।
में जिसे देखते योगीजन , योगेश्वर प्रति मैं नत सविनय ॥२७॥
में जिसे देखते योगीजन , योगेश्वर प्रति मैं नत सविनय ॥२७॥
हो सकता सहन
नही जिसकी त्रिगुणात्मक शक्ति का वेग प्रबल ।
जो होता तथा प्रतीत धरे इन्द्रिय विषयों का रूप सकल ॥
जो दुर्गम उन्हें मलिन विषयों में जो कि इन्द्रियों के उलझे ।
शरणागत-पालक अमित शक्ति हे! बारंबार प्रणाम तुझे ॥२८॥
जो होता तथा प्रतीत धरे इन्द्रिय विषयों का रूप सकल ॥
जो दुर्गम उन्हें मलिन विषयों में जो कि इन्द्रियों के उलझे ।
शरणागत-पालक अमित शक्ति हे! बारंबार प्रणाम तुझे ॥२८॥
अनभिज्ञ जीव
जिसकी माय, कृत अहंकार द्वारा
उपहत ।
निज आत्मा से मैं उस दुरन्त महिमामय प्रभु के शरणागत ॥२९॥
निज आत्मा से मैं उस दुरन्त महिमामय प्रभु के शरणागत ॥२९॥
श्री शुकदेव जी ने कहा -
यह
निराकार-वपु भेदरहित की स्तुति गजेन्द्र वर्णित सुनकर ।
आकृति विशेषवाले रूपों के अभिमानी ब्रह्मादि अमर ॥
आये जब उसके पास नही , तब श्री हरि जो आत्मा घट घट ।
के होने से सब देव रूप, हो गये वहाँ उस काल प्रकट ॥३०॥
आकृति विशेषवाले रूपों के अभिमानी ब्रह्मादि अमर ॥
आये जब उसके पास नही , तब श्री हरि जो आत्मा घट घट ।
के होने से सब देव रूप, हो गये वहाँ उस काल प्रकट ॥३०॥
वे देख उसे इस
भाँति दुःखी , उसका यह
आर्त्तस्तव सुनकर ।
मन-सी गति वाले पक्षी राज की चढे पीठ ऊपर सत्वर ॥
आ पहुँचे, था गजराज जहाँ, निज कर में चक्र उठाये थे ।
तब जगनिवास के साथ साथ, सुर भी स्तुति करते आये थे ॥३१॥
मन-सी गति वाले पक्षी राज की चढे पीठ ऊपर सत्वर ॥
आ पहुँचे, था गजराज जहाँ, निज कर में चक्र उठाये थे ।
तब जगनिवास के साथ साथ, सुर भी स्तुति करते आये थे ॥३१॥
अतिशय बलशाली
ग्राह जिसे था पकडे हुए सरोवर में ।
गजराज देखकर श्री हरि को, आसीन गरुड पर अंबर में ॥
खर चक्र हाथ में लिये हुए, वह दुखिया उठा कमल करमें ।
‘हे विश्व-वन्द्य प्रभु ! नमस्कार’ यह बोल उठा पीडित स्वर में ॥३२॥
गजराज देखकर श्री हरि को, आसीन गरुड पर अंबर में ॥
खर चक्र हाथ में लिये हुए, वह दुखिया उठा कमल करमें ।
‘हे विश्व-वन्द्य प्रभु ! नमस्कार’ यह बोल उठा पीडित स्वर में ॥३२॥
पीडा में उसको
पडा देख, भगवान अजन्मा पडे
उतर ।
अविलम्ब गरुड से फिर कृपया झट खींच सरोवर से बाहर ॥
कर गज को मकर-सहित, उसका मुख चक्रधार से चीर दिया ।
देखते-देखते सुरगण के हरि ने गजेन्द्र को छुडा लिया ॥३३॥
अविलम्ब गरुड से फिर कृपया झट खींच सरोवर से बाहर ॥
कर गज को मकर-सहित, उसका मुख चक्रधार से चीर दिया ।
देखते-देखते सुरगण के हरि ने गजेन्द्र को छुडा लिया ॥३३॥
गजेन्द्र मोक्ष
स्तोत्र
नाथ कैसे गज को फन्द छुड़ाओ, यह आचरण माहि आओ।
गज और ग्राह लड़त जल भीतर, लड़त-लड़त गज हार्यो।
जौ भर सूंड ही जल ऊपर तब हरिनाम पुकार्यो।।
नाथ कैसे गज को फन्द छुड़ाओ, यह आचरण माहि आओ।
शबरी के बेर सुदामा के तन्दुल रुचि-रुचि-भोग लगायो।
दुर्योधन की मेवा त्यागी साग विदुर घर खायो।।
नाथ कैसे गज को फन्द छुड़ाओ, यह आचरण माहि आओ।
पैठ पाताल काली नाग नाथ्यो, फन पर नृत्य करायो।
गिरि गोवर्द्धन कर पर धार्यो नन्द का लाल कहायो।।
नाथ कैसे गज को फन्द छुड़ाओ, यह आचरण माहि आओ।
असुर बकासुर मार्यो दावानल पान करायो।
खम्भ फाड़ हिरनाकुश मार्यो नरसिंह नाम धरायो।।
नाथ कैसे गज को फन्द छुड़ाओ, यह आचरण माहि आओ।
अजामिल गज गणिका तारी द्रोपदी चीर बढ़ायो।
पय पान करत पूतना मारी कुब्जा रूप बनायो।।
नाथ कैसे गज को फन्द छुड़ाओ, यह आचरण माहि आओ।
कौर व पाण्डव युद्ध रचायो कौरव मार हटायो।
दुर्योधन का मन घटायो मोहि भरोसा आयो ।।
नाथ कैसे गज को फन्द छुड़ाओ, यह आचरण माहि आओ।
सब सखियां मिल बन्धन बान्धियो रेशम गांठ बंधायो।
छूटे नाहिं राधा का संग, कैसे गोवर्धन उठायो ।।
नाथ कैसे गज को फन्द छुड़ाओ, यह आचरण माहि आओ।
योगी जाको ध्यान धरत हैं ध्यान से भजि आयो।
सूर श्याम तुम्हरे मिलन को यशुदा धेनु चरायो।।
नाथ कैसे गज को फन्द छुड़ाओ, यह आचरण माहि आओ।
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