महाशिवरात्री शंकर और पार्वती का महामिलन
महाशिवरात्री भगवान शंकर और भगवती पार्वती का महामिलन का महोत्सव है। यह हमें कल्याणकारी कार्य करने की ओर शिवत्व का बोध कराता है। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन महाशिवरात्रि का पर्व आता है। शैव और वैष्णव, दोनों ही महाशिवरात्रि का व्रत रखते है। वैष्ण्व इस तिथि को शिव चतुर्दशी कहते है। भगवान शिव को वेदों में रुद्र कहा गया है, क्योंकि दुख को नष्ट कर देते है। इस प्रकार शिव और रुद्र एक परमेश्वर के ही पर्यायवाची शब्द हैं। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि चंद्र-दर्शन की आखिरी तिथि है, क्योंकि इसके बाद अमावस्या की रात्रि में चंद्र लुप्त हो जाता है। अमावस्या को कालरात्रि भी कहा जाता है। धर्मग्रंथों के अनुसार, फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को भगवान शंकर और भगवती पार्वती का विवाह हुआ था। शिव और शक्ति के पावन परिणय की तिथि होने के कारण इसे महाशिवरात्री का नाम दिया गया। इस दिन लोग व्रत रखकर शिव-पार्वतीाâा विवाहोत्सव धूमधाम से मनाते है। काशी में महाशिवरात्रि के दिन निकलने वाली शिव-बारात तो विश्वविख्यात है, जिसे देखने के लिए देश-विदेश से लोग पहुंचते है। बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में हर घर शिवरात्रि की उमंग में रंग जाता है।इस तिथि के मध्यरात्रिकालीन महानिशीथकाल में महेश्वर के निराकार ब्रह्म-स्वरूप प्रतीक शिवलिंग का आविर्भाव होने से भी यह तिथि महाशिवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध हो गई। शिवपुराण के अनुसार, शिव के दो रूप है- सगुण और निर्गुण। सगुण-रूप मूर्ति में साकार होता है, जबकि शिवलिंग निर्गुण-निराकार ब्रह्म है।
महाशिवरात्रि का यह पावन व्रत सुबह से ही शुरू हो जाता है। इस दिन शिव मंदिरों में जाकर मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर, ऊपर से बेलपत्र, आक-धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर शिविंलग पर चढ़ाया जाता है. अगर पास में शिवालय न हो, तो शुद्ध गीली मिट्टी से ही शिविंलग बनाकर उसे पूजने का विधान है। इस दिन भगवान शिव की शादी भी हुई थी, इसलिए रात्रि में शिवजी की बारात निकाली जाती है। रात में पूजन कर फलाहार किया जाता है। अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है।
महाशिवरात्री भगवान शंकर और भगवती पार्वती का महामिलन का महोत्सव है। यह हमें कल्याणकारी कार्य करने की ओर शिवत्व का बोध कराता है। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन महाशिवरात्रि का पर्व आता है। शैव और वैष्णव, दोनों ही महाशिवरात्रि का व्रत रखते है। वैष्ण्व इस तिथि को शिव चतुर्दशी कहते है। भगवान शिव को वेदों में रुद्र कहा गया है, क्योंकि दुख को नष्ट कर देते है। इस प्रकार शिव और रुद्र एक परमेश्वर के ही पर्यायवाची शब्द हैं। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि चंद्र-दर्शन की आखिरी तिथि है, क्योंकि इसके बाद अमावस्या की रात्रि में चंद्र लुप्त हो जाता है। अमावस्या को कालरात्रि भी कहा जाता है। धर्मग्रंथों के अनुसार, फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को भगवान शंकर और भगवती पार्वती का विवाह हुआ था। शिव और शक्ति के पावन परिणय की तिथि होने के कारण इसे महाशिवरात्री का नाम दिया गया। इस दिन लोग व्रत रखकर शिव-पार्वतीाâा विवाहोत्सव धूमधाम से मनाते है। काशी में महाशिवरात्रि के दिन निकलने वाली शिव-बारात तो विश्वविख्यात है, जिसे देखने के लिए देश-विदेश से लोग पहुंचते है। बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में हर घर शिवरात्रि की उमंग में रंग जाता है।इस तिथि के मध्यरात्रिकालीन महानिशीथकाल में महेश्वर के निराकार ब्रह्म-स्वरूप प्रतीक शिवलिंग का आविर्भाव होने से भी यह तिथि महाशिवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध हो गई। शिवपुराण के अनुसार, शिव के दो रूप है- सगुण और निर्गुण। सगुण-रूप मूर्ति में साकार होता है, जबकि शिवलिंग निर्गुण-निराकार ब्रह्म है।
महाशिवरात्रि का यह पावन व्रत सुबह से ही शुरू हो जाता है। इस दिन शिव मंदिरों में जाकर मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर, ऊपर से बेलपत्र, आक-धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर शिविंलग पर चढ़ाया जाता है. अगर पास में शिवालय न हो, तो शुद्ध गीली मिट्टी से ही शिविंलग बनाकर उसे पूजने का विधान है। इस दिन भगवान शिव की शादी भी हुई थी, इसलिए रात्रि में शिवजी की बारात निकाली जाती है। रात में पूजन कर फलाहार किया जाता है। अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है।
स्कंदपुराण
महाशिवरात्रि को व्रतों में सर्वोपरि कहता है। इस व्रत के तीन प्रमुख अंग है- उपवास, शिवार्चन और
रात्रि-जागरण। उपवास से तन शुद्ध होता है, अर्चना से मन पवित्र होता है तथा रात्रि-जागरण से आत्म-साक्षात्कार होता है। यही महाशिवरात्रि के व्रत का
उद्देश्य है।
सही अर्थो में
शिवचतुर्दशी का लक्ष्य है पांच ज्ञानेंद्रियों, पांच कर्मेद्रियों तथ मन, अहंकार, और बुद्धि-इन चतुर्दश १४, का समुचित नियंत्रण। यही सच्ची
शिव-पूजा है। वस्तुतः इसी से शिवत्व का बोध होता है। यही अनुभूति ही इस पर्व को सार्थक बनाती है और यह पर्व समस्त प्राणियों के लिए कल्याणकारी बन जाता है ।
महाशिवरात्रि परम कल्याणकारी मंगलों
के मूल एवं अमंगलों के उल्मूलक समस्त विद्याओं, वेदादि शास्त्रों, आगमों तथा कलाओं के स्रोत विशुद्ध विज्ञानमय, विद्यापति तथा सस्त प्राणियों के ईश्वर भगवान
महादेव का व्रत है। जिसके विधिपूर्वक करने से हर किसी के दु:ख, पीड़ाओं का अंत होता है और उसे इच्छित फल की प्राप्ति होती है। पति-पत्नी,
पुत्र-पुत्री, धन, सौभाग्य,
समृद्धि व आरोग्यता प्राप्त होती है।
पूजन करने वाला मोक्ष को प्राप्त करने के योग्य बन जाता है। शिव, शंभु और शंकर, ये तीन उनके मुख्य नाम हैं और तीनों का अर्थ है- परम कल्याण की जन्मभूमि, संपूर्ण रूप से मंगलमय , कल्याणमय, और परम शांतिमय। भगवान शिव सबके पिता और भगवती पार्वती
जगजननी तथा
जगदम्बा कहलाती हैं। अपनी संतान पर उनकी असीम करुणा और कृपा है। उनका नाम ही आशुतोष है। उनका
भोलापन भक्तों को बहुत ही भाता है।भगवान शिव नीतिस्वरूप हैं। अपनी चर्चा से उन्होंने जीव को थोड़ा भी परिग्रह न करने, ऐश्वर्य एवं वैभव से विरक्त रहने, संतोष, संयम, साधुता, सादगी, सच्चाई परहित-चिंतन, अपने कर्तव्य के पालन तथा सतत्?नाम जप-परायण रहने का पाठ पढ़ाया है। ये सभी उनकी आदर्श अनुपालनीय नीतियां हैं।
अपने प्राणों की बलि देकर भी जीवों की रक्षा करना, सदा उनके हित चिंतन में संलग्न रहना- सबसे बड़ी नीति है। कृपालु शिव ने यह सब कर दिखाया। मेरी प्रजाओं का हित हो इसलिए मैं इस विष को पी जाता हूं। ऐसा कह वे हलाहल पी गए और नीलकंठ कहलाए। तीनों लोकों की रक्षा हो गई। व्रत रखने वाले व्यक्तियों को शिव-मंत्र का उच्चारण अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने से अनेक प्रकार की सात्विक और पवित्र ऊर्जा का शरीर में समावेश होता है।भगवान शंकर ही सबसे बड़े नीतिज्ञ है भगवान शिव शंकर ही समस्त प्राणियों के अंतिम विश्रामस्थान भी है। उनकी संहारिका शक्ति प्राणियों के कल्याण के लिए प्रस्फुटित होती है। जब भी जिसके द्वारा धर्म का विरोध और नीति मार्ग का उल्लंघन होता है, तब कल्याणकारी शिव उसे सन्मार्ग प्रदान करते हैं। मानस रामायण की रचना भोलेशंकर ने की है। भोलेशंकर राम नाम के रसिक हैं। शमशान घाट एवं वहां जलने वाले मुर्दे की भस्म को शरीर में धारण करने वाले भोलेशंकर पूर्ण निर्विकारी हैं। उन्हें विकारी मनुष्य पसंद नहीं हैं।
जब मनुष्य की मौत हो जाती है और मुर्दे को जलाया जाता है तब जलने के बाद मुर्दे की भस्म में किसी भी प्रकार का विकार नहीं रहता। मनुष्य के सारे अहंकार तन के साथ जलकर भस्म हो जाते हैं। तब भोलेनाथ उस र्निविकारी भस्म को अपने तन में लगाते हैं।
सती कथा के अनुसार- जब सती ने भोले शिव के मना करने पर मन में विकार उत्पन्न होने पर श्रीराम के ईश्वर होने की परीक्षा ली और सीता को वेश धारण किया, तब शिव ने सती का त्याग कर दिया।
इसके बाद जब सती ने राजा हिमालय के घर जन्म लेकर पार्वती के रूप में शिव की निर्विकारी रूप से पूजा की। तब शिवजी ने उन्हें स्वीकार कर लिया। इसका तात्पर्य यह है कि शिवकृपा निर्विकारी को ही प्राप्त होती है।
समुद्र से जब कालकूट विष निकला जिसकी वालाओं से तीनों लोकों में सर्वत्र हाहाकार मच गया। सभी प्राणी काल के जाल में जाने लगे, किसी से ऐसा सामर्थ्य नहीं था कि वह कालकूट विष का शमन कर सके। प्रजा की रक्षा का दायित्व प्रजापतिगणों का था, पर वे भी जब असमर्थ हो गए तो सभी शंकरजी की शरण में गए और अपना दुख निवेदन किया। उस समय भगवान शंकर ने देवी पार्वती से जो बात कही, उससे बड़ी कल्याणकारी, शिक्षाप्रद, अनुकरणीय नीति और क्या हो सकती है। विष से आर्त और पीड़ित जीवों को देखकर भगवान बोले- देवि! ये बेचारे प्राणी बड़े ही व्याकुल हैं। ये प्राण बचाने की इच्छा से मेरे पास आए हैं। मेरा कर्तव्य है कि मैं इन्हें अभय करूं क्योंकि जो समर्थ हैं, उनकी सामर्थ्य का उद्देश्य ही यह है कि वे दोनों का पालन करें।
साधुजन, नीतिमान जन अपने क्षणभंगुर जीवन की बलि देकर भी प्राणियों की रक्षा करते हैं। कल्याणी! जो पुरुष प्राणियों पर कृपा करता है, उससे सर्वात्मा श्री हरि संतुष्ट होते हैं और जिस पर वे श्री हरि संतुष्ट हो जाते हैं, उससे मैं तथा समस्त चराचर जगत भी संतुष्ट हो जाता है।
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