श्रोता — ‘मामेकं शरणं व्रज’— इसमें ‘शरणं’ का क्या तात्पर्य है ?
स्वामीजी— ‘हे नाथ ! हे नाथ ! मै आपका हूँ’, हे भगवन् मैं आपका हूँ — यह तात्पर्य है । जैसे लडकी ब्याह-शादी होनेपर पतिकी हो जाती है । अब पिहरकी नहीं रही, भले ही बापके पास बैठी हो ! वह तो वहाँकी हो गई । ऐसे ही हम भगवानके हो गए, संसारके नहीं रहे । ‘हे नाथ ! मै आपका हूँ !’ —इतना होते ही भीतरसे मान लिया कि मैं संसारका, माँ-बापका, जातिका नहीं हूँ; वर्ण, आश्रम, हिंदुस्तानका नहीं हूँ । घरका, शहरका नहीं हूँ । मै हूँ ही नहीं यहाँका, मैं तो भगवानका हूँ ! — यह हो जाता है, यह शरणागति है ।
श्रोता — जैसे जगतकी मान्यता करते है, ऐसे ही भगवानकी मान्यता करनी पड़ती है ?
स्वामीजी — जगतकी मान्यता हटानी पड़ती है और भगवानकी मान्यता करनी पड़ती है, करो तो ! जगत् माना हुआ है, है नहीं ! माँ-बाप, भाई, मनुष्य केवल माना हुआ है; है नहीं, ‘कर्ताः इति मन्यते’ ! माँ को किसीने देखा नहीं है, बोलो किसीने देखा हो तो ? बापको किसीने देखा नहीं है, माना हुआ है । जब बाप बना तब तो बालककी उत्पत्ति ही नहीं हुई थी ! सिवाय मान्यताके और कोई प्रबल कारण है कोई ? अतः माना हुआ न मानो तो मिटा ! मान्यतामें बैठे है तो भगवानकी भी मान्यता ही करनी पड़ेगी ! आप मारवाड़ी भाषा समझते हो तो मुझे मारवाड़ी भाषामें ही बोलना पडेगा ! अंग्रेज भगवानकी मूर्ति बनाते है तो अंग्रेज जैसी ही बनाते है ,बंगाली मूर्तिकार बंगाली जैसी ही बनाता है । कुत्तेका भगवान कुत्ते जैसा ही होगा ! हमारा भगवान हमारे जैसा ही होगा ! कोई M.A. पढ़ा हुआ हो तो भी बालकको सिखायेगा तो A…A….B….B…करना पड़ेगा ही ! अ, आ, इ, ई....बोलना पड़ेगा ! बालककी अवस्था में आकर ही बालकको पढ़ा सकता है, अपनी अवस्थामें रहकर समझा देगा ? चाहे M.A. हो या आचार्य हो ? इस वास्ते गुरुका शिष्यके भीतर अवतार होता है । अवतार मानो उतरना, तब समझा सकता है, नहीं तो कैसे समझा सकता है ? आप जिस भाषा, द्रष्टान्त समझो, वही भाषामें द्रष्टान्त मेरेको कहना पड़ेगा ! नहीं तो कैसे समझोगे ? इस तरह भगवानको प्राप्त कर सकते है । भाव व्यक्त करनेके लिए शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों है, इसके सिवा हम क्या करें ?
यह परिवर्तनशीलमें अपरिवर्तनशील है, उत्पत्ति-विनाश होता है, उसमें वह ‘है’ रूप से है ही ! साधनाकालमें तो उसका चिंतन करना पडता है; मन, बुद्धि उसमे लगानी पड़ती है । साध्य परिवर्तनशील नहीं होगा, साधन परिवर्तनशील होगा । देखो साधक, साधन और साध्य — यह तीन है । साधक साधना करके साध्यको प्राप्त करता है, तो साधक पहले साधनरूप बनेगा । साधन बनकर फिर साध्यमें मिल जायेगा ! साधक और साधन; दोनों छूट जायेगा ।
श्रोता — जैसे संसारकी मान्यता है, ऐसे ही परमात्माकी मान्यता है ?
स्वामीजी — परमात्माकी मान्यता नहीं है, परमात्मा ‘है’ । आप मान्यता समझो तो आपकी बात है । उस ‘है’ में ही मान्यता होती है । मान्यतामें मान्यता कैसे ठहरेगी ? आप स्वयं हो तो कोई चीज उथल-पुथल कर सकते हो, आप ही नहीं हो तो उथल-पुथल कैसे करोगे ? आप चाहे कितने ही तर्क कर लो, आप बातोंमें मेरेको नहीं जीत सकते हो (हास्य) !!! युक्तिसे बात करो आप । पृथ्वी न हो तो कितना ही चतुर नृत्यकार नाच सकता है क्या ? आधारके बिना कैसे बात चलेगी ? आधारका पता ही नहीं है ? बिना प्रकाश आप देख सकते नहीं, पर आप प्रकाशकी तरफ देखते ही नहीं हो, और सब कुछ देखते हो; उधर ध्यान जाता ही नहीं आपका !
क्षत्रिय विद्यालय कलकत्तामें है, उसमें एकबार जानेका काम पड़ा । एक बालकने कहा कि परमात्मा नहीं है । तो मैंने बोला भाई ! अपनी फ़जीती नहीं करानी चाहिए, बेइज्जती नहीं करानी चाहिए ! क्योंकि आपने सब जगह देख लिया, अनंत ब्रह्माण्डोंमें खोज लिया ? और यदि सब देखा है, जानते हो तो आप ही ईश्वर हो गये ! आप ईश्वर नहीं है, ऐसा कैसे कह सकते हो ? और यदि आप सब जानते नहीं हो, देखा नहीं; तो आपकी बातको मानें वह डबल मुर्ख है ! आप जानते तो हो नहीं, और कहते हो कि ईश्वर है ही नहीं ! आप जानते हो ? उसने कहा — ‘मैं जानता हू’ ! तो तेरे सिरके केश कितने है बताओ ? तो उसने कहा, वह तो आप ही नहीं बता सकते ! तो मैंने कहा कि मैं तो सब जाननेका दम भरता ही नहीं हूँ ! आप कहते हो कि मैं सब जानता हूँ, तो आप पर लागु होगा ! अच्छा यह नहीं सही ! आप इस स्कुलमें छोटेपनसे पढते-पढते बड़े हो गये, बताओ यह स्कुलकी सीढियों कितनी है ? आपने ध्यान ही नहीं दिया है, रोजाना चढ़ते-उतरने पर भी ! जब इतनी स्थूल चीज भी ध्यान दिए बिना नहीं बता सकते, तो परमात्माको कैसे बता सकते हो ?
मेरेको दुःख इस बातका है कि आप जानना चाहते ही नहीं ! इधर द्रष्टि देना चाहते ही नहीं ! आप जान सकते नहीं, ऐसा मैं नहीं कहता हूँ । आप सबलोग जान सकते हो, पर चाहते ही नहीं तो क्या करें आपको ? परिवार नियोजनमें कितना बड़ा भारी नुकसान है, पता ही नहीं ! किसीने मुझे सुनाया कि विदेशोमें बड़े-बड़े बुद्धिमान है, वह भारतीय है । उनका तो आप जन्मना बंद कर देते हो ! भारतीय दर्शन जितना गहरा है, उतना गहरा दर्शन किसी देशका हो तो बताओ ? आपको चेलेंज देता हूँ, खोजके लाओ, मेरेको बताओ ! इतने बुद्धिमानका तो नाश कर देते हो, जन्म ही नहीं लेने देते हो ! थोड़ेसे आरामके लिए कितना नुकसान करते हो । सुखासक्ति ही पतनका मूल कारण है, संतोंकी कृपासे मिली है यह बात मुझको ! यहीं संसारके भोगोमें अटके हो आप, महान पतन होगा । वही सुखके पीछे पड़े हो, क्या दशा होगी देशकी, जनताकी ? महान पतन होगा ।
परमात्मप्राप्ति सरल है
देहिनोऽस्मिन्यथा यथा देहे कौमारं यौवनं जरा, तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति’ — यह संसार नित्य परिवर्तनशील है, बदलता ही रहता है । एक क्षण ही स्थिर नहीं रहता है । तो बदलना बहुत आवश्यक है और बदलनेसे अंत में नाशकी तरफ जाता है । अविनाशी बदलता नहीं और नाशकी तरफ जाता नहीं, अविनाशी ही रहता है । संसारका काम तो बदलनेसे ही होता है और परमात्मतत्वकी प्राप्ति न बदलनेसे ही होती है । वही है जो रहता है । ‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं ज्ञास्यसि पाण्डव’, शरीर, विचार, वस्तु बदलती रहती है,यह सब बदलनेवाले है और खतम होनेवाले है । और संसारमें जो अच्छापन है, वह बदलनमें ही है । न बदलनेमें नहीं है, नहीं तो धान, फल, वृक्ष, शरीर भी कैसे होगा ? बिना बदले कैसे होगा फुलमें से फल ? तो इसकी बदलनेसे ही सुंदरता है । और जो बदलता है वह नित्य रह सकता ही नहीं कभी ! क्योंकि ‘नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः’ । असत् का भाव विद्यमान नहीं रहता है, नित्य-निरंतर बदलता रहता है और सत् का अभाव नहीं होता है, हो सकता नहीं है । इस आधे श्लोकमें सम्पूर्ण शास्त्रोंका, वेदोंका सार भरा हुआ है, बहुत गहरा भाव भरा हुआ है । सब संसार नाशवान है और स्वयं चेतन, अविनाशी है । यह अविनाशी होकर नाशवानके द्वारा सुख चाहता है, आराम, उन्नति चाहता है; बड़ी भारी गलती करता है । यह कभी होनेवाला नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं, प्रत्यक्ष बात है । शरीर द्वारा आप कैसे सुखी हो सकते हो ? पदार्थ, भोग, रुपयें द्वारा आप कैसे सुखी हो सकते हो ? आपमें तो परिवर्तन होता नहीं, इसमें तो परिवर्तन ही परिवर्तन है, बिलकुल विरुद्ध स्वाभाव है । आप अपरिवर्तनशील हो तो अपरिवर्तनशील के साथ ही शांतिसे रह सकते हो । परिवर्तनशीलके साथ कैसे आनंद हो सकता है ? असंभव बात है । बहुत सीधी और सरल बात है , विचार करोगे तो आपको साफ दिखेगी, प्रत्यक्ष अनुभव है । आपने कितने ही व्याख्यान,कथा सुनी है, परन्तु कभी ऐसा सुना है कि परमात्म बदलते है ? वे परमात्मा और हो गए है और पहले परमात्म और थे ? कभी किसी शास्त्र, पुराण, मत-मतान्तर, मजहब, धर्ममें सुना है ? वह सब जगह है, और सबका है । जो सबका हो, वही हमारा हो सकता है । किसीका हो और किसीका न हो, वह हमारा नहीं हो; वह हमारा कैसे हो सकता है ? कभी हो और कभी न हो, वह सदा कैसे हो सकता है ? कहीं हो और कहीं न हो, वह सब जगह कैसे मिल सकता है ? आप विचार ही नहीं करते हो, सोचो तो सही ! जिसके लिए भयंकर पाप करते हो वह रहेगा क्या ? गर्भपात जैसे भयंकर पाप करते हो ...राम राम राम ...!!! महान, भयंकर कष्ट पाना पड़ेगा ! सत्संग करनेवाले भी इस बातको समजते नहीं ? गहरा उतरना चाहते ही नहीं ! समझना चाहो तो आपके समझमें बहुत बातें आ सकती है ।
श्रोता — ‘मन्मना भव’ ऐसा कहनेमें भगवानका क्या तात्पर्य है ? ‘मेरे में मन लगा’ तो मेरी कल्पनाके अनुसार ही मन लगाऊंगा ! तो भगवान मेरी कल्पना ही हुए !
स्वामीजी — ‘मेरे में मन लगा’ इसमें आप जो समजो वह सब तात्पर्य है । भगवानको सगुण मानो तो सगुणमें तात्पर्य है, निर्गुण समझो तो निर्गुणमें तात्पर्य है । निराकार, साकार, समझो तो उसीमें तात्पर्य है । परमात्माका कोई भी रूप हो, नित्य है वह ! आपने आज दिन तक जो पढ़ा हो, समझा हो, माना हो; वही रूप, उसीमें मन लगाओ — यह तात्पर्य है । साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण वही है, उसमें भेद मानना गलती है ।
परमात्माका जो भी चिंतन किया जायेगा, सब-का-सब कल्पित ही होगा किसीकी भी ताकत नहीं है कि भगवानके असली रूपको पकड़ सकें ! तो हम पकड़ नहीं सकते परन्तु हमारी पकड़में वे आ जाते है ! हम पकड़ नहीं सकते मगर वे पकड़में आ जाता है ! हम साकारको नहीं जानते, पर वो साकार हो सकते है ! हम आँख, कानसे नहीं पकड़ सकते पर वे देखने, सुननेमें आ जाते है; मानो हम उनतक नहीं पहुँच सकते पर वे हमारे तक पहुँच सकते है, वे सर्व-समर्थ है । हम जो भाव रखते है, वे उस भावको स्वीकार कर लेते है । क्योंकि हमारी कमजोरीको वे जानते है । नहीं जानते तो ईश्वर, भगवान कैसे हुए ? ब्रह्म,निराकार ..आदि जोर लगाके कर लो, सिवाय आपकी कल्पनाके कुछ नहीं है । जैसे सगुण माया है, वैसे ही निर्गुण भी माया है । बराबर है, कोई फर्क नहीं है दोनोंमें ! परन्तु हमारा लक्ष्य परमात्मा है, उस लक्ष्यको परमात्मा जानते है और मान लेते है । हम परमात्माका ध्यान करते है तो हम परमात्माको ध्यानसे पकड़ नहीं सकते, परन्तु भगवान हमारे भावको स्वीकार कर लेते है; ‘भावग्राही जनार्दनः’ । जैसे बालक माँको माँ, जननी, मधर; कोई बालक माँको भाभी, मासी, बाई कहता है तो क्या माँ भाई या देवर समझती है क्या ? कोई नाम लेकर बोलता है तो भी माँ समझती है उस बालक के भाव को ! ऐसे सर्व-वित् है भगवान ! भाषा बादमें प्रगट होती है । उसके मन, बुद्धि, प्रेरणामें भाव होते है, उसको परमात्मा जानते है । इस वास्ते हमारा लक्ष्य परमात्मा है, उसीसे हमें परमात्माकी प्राप्ति होती है । प्रकृति परमात्माको नहीं पकड़ सकती है, फिर यह प्रकृतिजन्य यह साकार, सगुण; उत्पन्न और नष्ट होनेवाला कैसे पकड़ सकता है ? पर परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है वैसे-के-वैसे ही ! सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटनामें वैसे के वैसे ही है; पर लक्ष्य होनेसे परमात्मा प्राप्त हो जाते है । तो तत्वज्ञान, दर्शन उनकी कृपासे ही होता है — यह सिद्धांत है । मेरेको गीताजीसे बहुत विचित्र बातें मिली है, बड़ा सरल दिखता है । मुझे परमात्मप्राप्ति जितनी सरलतासे, सुगमतासे प्राप्त होती है, ऐसी कोई वस्तु सरलतासे, सुगमतासे प्राप्प्त होती नहीं, हो सकती नहीं, है नहीं ऐसा साफ दिखता है ! इतना सुगम है परमात्मा; ऐसा सुननेसे मन तो करता है पर अपनी जिद छोड़ते नहीं, अब छोड़े बिना कैसे हो ??
साधक कौन है ?
श्रोता — कर्तृत्व ही नहीं है, वह करता ही नहीं है फिर उसके लिए कार्य ही क्या है? उसके लिए करणकी भी क्या आवश्यकता है; पर महाराजजी यह किस स्थितिकी बात है ?
स्वामीजी — जबसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिकी इच्छा होती है, तबसे ही यह बात समझ लेनी चाहिये कि परमात्मतत्त्वमें कर्तृत्व नहीं है और करणकी अपेक्षा नहीं है । यह बात पहलेसे ही मान लेनी चाहिए तो उद्देश्य करणनिरपेक्षताका हो जायेगा । करणकी सहायता लेते हुए साधन करते है तो भी उसके ध्यानमें यह आ जायेगी कि वास्तवमें तत्त्व करणनिरपेक्ष है और करणनिरपेक्ष तत्वका साधन भी करणनिरपेक्ष ही है । जबतक असाधन साथमें रहता है तबतक करणसापेक्षता साथमें दिखती है । परमात्मतत्वमें करणकी अपेक्षा नहीं है । ‘निर्द्वन्द्वो ही महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’; जबतक सत्-असत् का, साधन-असाधनका द्वंद्व रहता तबतक करणकी अपेक्षा रहती है, निर्द्वन्द्व होने पर करण नहीं रहता । अतः वास्तवमें असधानमें ही करणकी अपेक्षा रहती है । मानो उद्देश्य निष्काम भावका होनेसे सर्वथा निष्काम उनके(स्वयं) होनेसे होता है । इस वास्ते लोकमान्य तिलकजी महाराजने कर्मयोग सिद्धपुरुषके द्वारा ही होता है — यह माना है । जबतक सर्वथा कर्मसे सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता है; पूर्णता नहीं होती; तबतक निष्कामभावका उद्देश्य रहता है, निष्कामभाव पूरा नहीं रहता परन्तु ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ । इसमें यह बात आयी है कि निष्कामभावसे जितना भी अनुष्ठान हो गया उसका फल परमात्मप्राप्ति ही होगी, दूसरा नहीं होगा । क्रिया जीतनी भी है, प्रकृतिमें होती है तो प्रकृतिसे अतीत होनेका पहले उद्देश्य होता है । अतः उद्देश्यमें करणसापेक्षता नहीं रहती पहलेसे ही ! उद्देश्यको ठीक समझ ले तो उसका साधन बढ़िया होगा । नहीं तो कभी सकाम, कभी निष्काम, कभी धन, मान, बड़ाईका उद्देश्य — यह साथमें बनते रहेंगे ।उद्देश्य सांसारिक न रहनेसे ही वह साधक होता है, वरना वह साधक नहीं है । आंशिक साधन तो सबमें रहता है, परमात्माका अंश होनेसे । आज साधन करते है, सत्संग करते है फिर भी उन्नति नहीं होती, कारण क्या है ? साथमें असाधन रहता है ! मानो जूठ-कपट भी कर ले, बेईमानी भी कर ले, ठगी, धोखेबाजी भी कर ले धनके लिए ! और मनमें यह रहता है कि हम बाबाजी थोड़े ही है ! हम तो गृहस्थ है !! हमारे तो यह करना ही पडता है, हमारे तो जरुरी है; तो जबतक यह जरुरी रहता है तबतक वह साधक नहीं होता, सांसारिक आदमी है; भले ही अपने को साधक मान लें ! सत्संग करते है अच्छी बात है, फायदेकी बात है, परन्तु साधक नहीं है । साधक तो वह है, जिसका साधन ही उद्देश्य है । असाधन हो जाय तो चिंता, दुःख होता है, भीतर में जलन होगी । अतः एक-दो बार असाधन हो जाय पर आगे नहीं होगा । उसका उद्देश्य पारमार्थिक है, वह विधिरुपसे कैसे कर सकता है कि जूठ-कपट करना पडता है, हम गृहस्थ है !! तो गृहस्थकी ही मुख्यता रहती है । साधन करते हुए और व्यवहार करते हुए भी संसारकी मुख्यता रहेगी । और साधन करने में तत्पर हो जाने पर मुख्यता साधककी ही रहती है । साधकके उद्देश्यमें साधकपना अखंड रहेगा, मैं साधक हूँ, मैं ऐसे कैसे कर सकता हूँ । सत्संग होने पर असत् का संग रहना नहीं चाहिए, नहीं तो तबतक सत् कर्म है,सत् चिंतन है,सत् चर्चा है !
करणसापेक्षता रहेगी तबतक कर्तृत्व रहेगा और कर्तृत्व रहेगा तबतक भोक्तृत्व रहेगा ही । कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही तो संसार है । परमात्मप्राप्ति न गृहस्थको होती है, न साधुको होती है; परमात्मप्राप्ति तो साधक को ही होती है ।साधक न गृहस्थ होता है, न साधु होता है । उसमें न गृहस्थपनेका अभिमान होता है, न साधुपनेका अभिमान होता है ! इसपर सोचो, विचार करो ! नहीं तो तबतक सत्संग एक शुभकर्म है, शुभकर्मसे लाभ है; पर अपनी मुक्ति चाहता है, वह बात कहाँ है ? जैसे एक धन कमानेवाला होता है और एक बेफिक्र होता है कि कभी नुकशान हो जाय,खर्च भी कर दे कभी । तो वह असली लोभी नहीं है ।असली लोभी होगा तो थोडा चल लेगा पर चार पैसे खर्च नहीं करेगा । वह कठिनता सह लेगा पर पैसा खर्च नहीं करेगा ! ऐसे ही साधनका लोभी हो वह असाधन कैसे करेगा ? विचार करते है तो मालूम पडता है कि करणसापेक्ष साधक होता ही नहीं ! तो साधक मात्र करणनिरपेक्ष होता है । प्रायः साधक मन-बुद्धिकी आवश्यकता समझते है और मन-बुद्धिके द्वारा ही साधन करते है । आवश्यकता जडकी समझेंगे तो जडताका त्याग कैसे करेंगे ? उनको करणनिरपेक्षता समझमें आती ही नहीं ! उनको साधनमें सहायक मानता है फिर उनसे सम्बन्ध विच्छेद कैसे होगा ? यह तब होगा कि जब प्रकृतिका सम्बन्ध किसी भी तरह से किन्चित् मात्र भी बाधक है, ऐसा समझने पर ही यह करणनिरपेक्षताकी बात समझमें आएगी । जैसे रथके आगे घोड़े जाते है, घोड़े के आगे लगाम जाती है, उसके आगे सारथी जाता है और महलमें तो रथी स्वयं ही जाता है, क्रम है यह ! इस तरहकी करणनिरपेक्षताकी बात शास्त्रोमें भी विस्तार से आयी है । इसलिए साधक पहलेसे ही उद्देश्य करणनिरपेक्षताका रखें ।
नारायण..... नारायण......... नारायण........... नारायण.............. नारायण
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