शिव महिमा
हमारे हिंदू धर्म में त्रिदेवों अर्थात भगवान ब्रह्मा, विष्णु व शंकर का अपना एक विशिष्ट स्थान है और इसमें भी भगवान शंकर का चरित्र जहाँ अत्यधिक रोचक हैं वहीं यह पौराणिक कथाओं में अत्यधिक गूढ रहस्यों से भी भरा हुआ है ।
पौराणिक कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है क्योंकि उनका अपना चरित्र अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ है जैसे शिव का अर्थ है जो शुभकर व कल्याणकारी हो, जबकि शिवजी का अपना व्यक्तित्व इससे जरा भी मेल नहीं खाता, क्योंकि वे अपने शरीर में इत्र के स्थान पर चिता की राख मलते हैं तथा गले में फूल-मालाओं के स्थान पर विषैले सर्पों को धारण करते हैं । यही नहीं भगवान शिव को कुबेर का स्वामी माना जाता है जबकि वे स्वयं कैलाश पर्वत पर बिना किसी ठौर-ठिकानों के यूँ ही खुले आकाश के नीचे निवास करते हैं । कहने का तात्पर्य है कि भगवान शिव का स्वभाव शास्त्रों में वर्णित उनके गुणों से जरा भी मेल नहीं खाता और इतने अधिक विरोधाभासों में, किसी भी व्यक्ति की शिव के प्रति आस्था, उसके अपने विश्वास के आधार पर ही टिकी हुई है, इसलिए, सभी कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार माता पार्वती को भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए तपस्या के कठिन दौर से गुज़रना पडा था और चूँकि तपस्या के कठिन दौर की सफलता व्यक्ति की अपनी श्रद्धा पर निर्भर करती है और ऐसे समय भगवान शिव के प्रति माता पार्वती की श्रद्धा (चूँकि वे हिमालय पर्वत की बेटी हैं इसलिए) पर्वत की तरह अडिग व मज़बूत रहती है, इसलिए हमारी पौराणिक कथाओं में माता पार्वती को श्रद्धा का प्रतीक माना गया है ।
भगवान शिव के अपने दो पुत्र है, श्री कार्तिकेय व श्री गणेश । जहाँ कार्तिकेय का सीधा सा अर्थ यह है कि जो ‘तर्कय‘ हो अर्थात जो सभी प्रकार के तर्कों से मुक्त हो गया हो वहीं गणेश भगवान को माता पार्वती अपने मैल से उत्पन्न करती हैं किन्तु एक शिव भक्त के हाथों से उनका सिर, धड से अलग हो जाता हैं । संक्षेप में इसके द्वारा हमें यह बताने का प्रयास किया है कि अगर श्रद्धा अपने कुछ मैल रूपी अवगुणों को भी निकालती है तो उससे भी जगत में कुछ श्रेष्ठतम ही घटता है किन्तु इसके लिए श्रद्धा को विश्वास का सहयोग लेकर चलना चाहिए । इसके विपरीत आचरण करने पर इसके अमंगलमय होने की पूरी संभावना रहती है । कथा आगे कहती है कि इसके पश्चात भगवान शिव हाथी का सिर लगाकर श्री गणेशजी का उद्धार करते हैं अर्थात ऐसी अमंगलकारी स्थितियों में भी, हम विश्वास के सहयोग से इसे पुनर्व्यवस्थित कर, इसकी श्रेष्ठता को प्रमाणित कर सकते हैं और इसे शुभ सिद्ध कर सकते हैं ।
इस तरह पुराणों में वर्णित इस शिव-चरित्र के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जिन व्यक्तियों के जीवन में मन अत्यधिक प्रबल हो उन्हें भगवान शिव की उपासना के द्वारा ही अपनी आध्यात्मिक सत्य की यात्रा आरम्भ करनी चाहिए क्योंकि इससे उनके मन में जहाँ विश्वास का भाव गहरे तौर पर अंकुरित होगा वहीं यह मज़बूत व अडिग श्रद्धा रूपी विशाल वट वृक्ष बनकर चहुं ओर अपनी शाखाएँ फैलाने लगेगा ।
इसी तरह और आगे की आध्यात्मिक यात्रा करने पर गणेश भगवान के आशीर्वाद से जहाँ उनकी सारी विघ्न बाधाएँ दूर होंगी वहीं इसके द्वारा उन्हें शुभ फलों की प्राप्ति भी होने लगेगी । जब भक्त इन सब बातों से उत्साहित होकर पूरी तन्मयता के साथ इसी रास्ते में थोडा और आगे निकलेगा तो वह स्वयं को सभी प्रकार के विधि-विधानों व तर्कों से मुक्त पाएगा तथा वह आध्यात्मिक सत्य व ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल होगा । यही शिव के अपने सम्पूर्ण जीवन का मर्म है जिसे कि शिव-चरित्र के माध्यम से हमें समझाने का प्रयास किया गया है ।
महा शिवरात्रि के बारे में यह कथा प्रचलित है कि एक पापी शिकारी अनजाने में ही बेलपत्रों के द्वारा भगवान शिव की उपासना करता है तथा हाथ में आए हुए शिकार को अभयदान देकर छोड देता है जिससे भगवान शिव प्रसन्न होकर उसे दर्शन देते हैं तथा उसका उद्धार करते हैं । इस कथा के द्वारा हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि अगर कोई अनजाने में ही अपने पूर्ण विश्वास के साथ ईश्वर की स्तुति करें तो भी उसके जीवन का उद्धार संभव है । यही वजह है कि कई वर्षों तक पाप व अपराध का जीवन ढोते वाल्मीकि ऋषि, मगध सम्राट अशोक आदि का जीवन भी अनजाने में ही उनके द्वारा किए गए ईश्वरीय स्तुति के परिणामस्वरुप, मात्र एक छोटी सी घटना को आधार बनाकर रूपान्तिरित हो उठा और भगवान के द्वारा इनका उद्धार हुआ ।
इसी प्रकार एक अन्य कथा में भगवान शिव अपना ध्यान भंग करने के जुर्म में कामदेव को पूर्णतः समाप्त करने के स्थान पर, उसकी देह को ही भस्म कर देते हैं क्योंकि ‘काम‘ का सम्बन्ध व्यक्ति की देह के साथ ही जुडा हुआ है । यही नहीं इस कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के अन्दर ईश्वर के प्रति विश्वास घनीभूत रूप में हो तो वह अपनी एक ही नज़र में ‘काम‘ जैसे विकारों को नष्ट कर सकता है । इसी तरह कथा आगे यह कहती है कि शिव के हाथों भस्म होने के पश्चात कामदेव का दोबारा जन्म कृष्ण-पुत्र श्री प्रद्युम्न के रूप में होता है । भगवान श्रीकृष्ण स्वयं विष्णु के अवतार है जो कि हृदय के प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण भगवान इसी हृदय से निकले साक्षात प्रेम के ही रूप है । यहाँ यह समझने योग्य बात है कि प्रद्युम्न का जन्म ब्रज की गोपियों अथवा राधा के गर्भ से न होकर, कृष्ण की सामाजिक पत्नी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त रूक्मणि देवी के गर्भ से होता है अर्थात इस सम्पूर्ण कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के मन में काम का भाव यूँ ही उठे तब तो यह ग़लत है किन्तु यदि यह काम-भाव व्यक्ति के हृदय से निकले प्रेम रूप में हो तथा यह विवाह बंधन में बँधा हो, तब ही यह जगत के कल्याणकारी हित में पूर्णतः स्वीकार्य है ।
ज्योतिष गुरु भगवान शिव
हमारी भारतीय संस्कृति इतनी विशाल है कि उसका प्रत्येक कार्य चाहे उपवास हो, पूजन हो, ध्यान हो या सामाजिक कार्य हो, सदैव संस्कृति से जुड़ा रहता है। हमारे देश के विभिन्न प्रांतों में अनेक देवताओं का पूजन होता रहा है किंतु शिव की व्यापकता ऐसी है कि वह हर जगह पूजे जाते हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथ, जो हर जिज्ञासा को शांत करने में समर्थ हैं, जो श्रुति स्मृति के दैदीप्यमान स्तंभ हैं, ऐसे वेदों के वाग्मय में जगह-जगह शिव को ईश्वर या रुद्र के नाम से संबोधित कर उनकी व्यापकता को दर्शाया गया है।
यजुर्वेद के एकादश अध्याय के 54वें मंत्र में कहा गया है कि रुद्रदेव ने भूलोक का सृजन किया और उसको महान तेजस्विता से युक्त सूर्यदेव ने प्रकाशित किया। उन रुद्रदेव की प्रचंड ज्योति ही अन्य देवों के अस्तित्व की परिचायक है। शिव ही सर्वप्रथम देव हैं, जिन्होंने पृथ्वी की संरचना की तथा अन्य सभी देवों को अपने तेज से तेजस्वी बनाया। यजुर्वेद के 19वें अध्याय में 66 मंत्र हैं, जिन्हें रुद्री का नाम या नमक चमक के मंत्रों की संज्ञा दी है। इसी से भगवान भूत भावन महाकाल की पूजा-अर्चन व अभिषेक आदि होता है। इसी अध्याय के चौथे मंत्र में भगवान शिव को पर्वतवासी कहा गया। उनसे संपूर्ण जगत के कल्याण की कामना की गई और अपने विचारों की पवित्रता तथा निर्मलता मांगी गई। आगे 19वें मंत्र में अपनी संतानों की तथा पशुधन की रक्षा चाही गई।
महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश में महेश्वर ˜यम्बक एवं न द्रपटा कहकर त्रिलोचन सदाशिव को ही महेश्वर कहा है। सभी प्रकार की याचनाएं उसी से की जाती हैं, जो उसको पूर्ण करने में समर्थ है और यही कारण है कि शिव औघरदानी के नाम से भी जाने जाते हैं।
वैदिक वांगमय में रुद्र का विशिष्ट स्थान है। शतपथ ब्रह्मण में रुद्र को अनेक जगह अग्नि के निकट ही माना गया है। कहते हैं कि ‘यो वैरुद्र: सो अग्नि’ रुद्र को पशुओं का पति भी कहा गया है। भगवान रुद्र को मरुत्तपिता कहा गया है। तैत्तरीय संहिता में शिव की व्यापकता बताई गई है। इसी कारण रुद्र एवं उनके गणों की यजुर्वेद में स्तुति की गई है।
शिव को पंचमुखी, दशभुजा युक्त माना है। शिव के पश्चिम मुख का पूजन पृथ्वी तत्व के रूप में किया जाता है। उनके उत्तर मुख का पूजन जल तत्व के रूप में, दक्षिण मुख का तेजस तत्व के रूप में तथा पूर्व मुख का वायु तत्व के रूप में किया जाता है। भगवान शिव के ऊध्र्वमुख का पूजन आकाश तत्व के रूप में किया जाता है। इन पांच तत्वों का निर्माण भगवान सदाशिव से ही हुआ है। इन्हीं पांच तत्वों से संपूर्ण चराचर जगत का निर्माण हुआ है। तभी तो भवराज पुष्पदंत महिम्न में कहते हैं - हे सदाशिव! आपकी शक्ति से ही इस संपूर्ण संसार चर-अचर का निर्माण हुआ है।
आप ही रक्षक हैं। आपकी माया से ही इस ब्रम्हांड का लय होता है। हे शिव! सत्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण का समावेश भी आपसे ही होता है। श्लोक में आगे वे कहते हैं कि हे सदाशिव! आपके पास केवल एक बूढ़ा बेल, खाट की पाटी, कपाल, फरसा, सिंहचर्म, भस्म एवं सर्प है, किंतु सभी देवता आपकी कृपा से ही सिद्धियां, शक्तियां एवं ऐश्वर्य भोगते हैं। 29वें श्लोक में वे कहते हैं - शिव को ऋक, यजु, साम, ओंकार तीनों अवस्थाएं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, स्वर्ग लोक, मृत्युलोक एवं पाताल लोक, ब्रह्मा, विष्णु आदि को धारण किए हुए दर्शाया है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान शिव उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के दृष्टा हैं। निर्माण, रक्षण एवं संहरण कार्यो का कर्ता होने के कारण उन्हें ही ब्रम्हा, विष्णु एवं रुद्र कहा गया है। इदं व इत्थं से उनका वर्णन शब्द से परे है। शिव की महिमा वाणी का विषय नहीं है। मन का विषय भी नहीं है। वे तो सारे ब्रम्हांड में तद्रूप होकर विद्यमान होने से सदैव श्वास-प्रश्वास में अनुभूत होते रहते हैं। इसी कारण ईश्वर के स्वरूप को अनुभव एवं आनंद की संज्ञा दी गई है।
आगे भगवान सदाशिव को अनेक नामों से जानने का प्रयत्न किया गया है, जिसमें त्रिनेत्र, जटाधर, गंगाधर, महाकाल, काल, नक्षत्रसाधक, ज्योतिषमयाय, त्रिकालधृष, शत्रुहंता आदि अनेक नाम हैं। यहां महाकाल पर चर्चा करना आवश्यक होगा। काल का अर्थ है समय। ज्योतिषीय गणना में समय का बहुत महत्व है। उस समय की गणना किसे आधार मानकर की जाए, यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है। अवंतिका (उज्जैन) गौरवशालिनी है क्योंकि जब सूर्य की परम क्रांति 24 होती है, तब सूर्य ठीक अवंतिका के मस्तक पर होता है।
वर्ष में एक बार ही ऐसा होता है। यह स्थिति विश्व में और कहीं नहीं होती क्योंकि अवंतिका का ही अक्षांक्ष 24 है। यही संपूर्ण भूमंडल का मध्यवर्ती स्थान माना गया है। यह गौरव मात्र अवंतिका को ही प्राप्त है और इसी कारण यहां महाकाल स्थापित हुए हैं, जो स्वयंभू हैं। यहीं से भूमध्य रेखा को माना गया है। शिव को नक्षत्र साधक भी कहा गया है। जो यह स्पष्ट करता है कि शिव ज्योतिष शास्त्र के प्रणोता, गुरु, प्रसारक एवं उपदेशक शिव है।
भगवान सदाशिव का एक नाम शत्रुहंता भी है। हम इसका अर्थ लौकिक शत्रु का नाश करना समझते हैं, लेकिन इसका अर्थ है, अपने भीतर के शत्रु भाव को समाप्त करना। अनेक कथाओं में हम देखते हैं कि जब ब्रrांड पर कोई भी विपत्ति आई, सभी देवता सदाशिव के पास गए। चाहे समुद्रमंथन से निकलने वाला जहर हो या त्रिपुरासुर का आतंक या आपतदैत्य का कोलाहल, इसी कारण तो भगवान शिव परिवार के सभी वाहन शत्रु भाव त्यागकर परस्पर मैत्री भाव से रहते हैं। शिवजी का वाहन नंदी (बैल), उमा (पार्वती) का वाहन सिंह, भगवान के गले का सर्प, कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणोश का चूहा सभी परस्पर प्रेम एवं सहयोग भाव से रहते हैं।
शिव को त्रिनेत्र कहा गया है। ये तीन नेत्र सूर्य, चंद्र एवं वहनी है, जिनके नेत्र सूर्य एवं चंद्र हैं। शिव के बारे में जितना जाना जाए, उतना कम है। अधिक न कहते हुए इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि शिव केवल नाम ही नहीं हैं अपितु संपूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल परिवर्तन, परिवर्धन आदि में भगवान सदाशिव के सर्वव्यापी स्वरूप के ही दर्शन होते हैं।
भगवान शिव के १०८ नाम
शिव - कल्याण स्वरूप
महेश्वर - माया के अधीश्वर
शम्भू - आनंद स्स्वरूप वाले
पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले
शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले
विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले
कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले
नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले
शंकर - सबका कल्याण करने वाले
शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले
खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले
विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी
शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले
अंबिकानाथ - भगवति के पति
श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले
भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले
भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले
शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले
त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी
शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले
शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय
उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले
कपाली - कपाल धारण करने वाले
कामारी - कामदेव के शत्रु
अंधकारसुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले
गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले
ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले
कालकाल - काल के भी काल
कृपानिधि - करूणा की खान
भीम - भयंकर रूप वाले
परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले
मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले
जटाधर - जटा रखने वाले
कैलाशवासी - कैलाश के निवासी
कवची - कवच धारण करने वाले
कठोर - अत्यन्त मजबूत देह वाले
त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले
वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले
वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले
भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले
सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले
स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले
त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले
अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है
सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले
परमात्मा - सबका अपना आपा
सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले
हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले
यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले
सोम - उमा के सहित रूप वाले
पंचवक्त्र - पांच मुख वाले
सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाले
विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर
वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले
गणनाथ - गणों के स्वामी
प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले
हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले
दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले
गिरीश - पहाड़ों के मालिक
गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले
अनघ - पापरहित
भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले
भर्ग - पापों को भूंज देने वाले
गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले
गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी
कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले
पुराराति - पुरों का नाश करने वाले
भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न
प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति
मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले
सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले
जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले
जगद्गुरू - जगत् के गुरू
व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले
महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता
चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले
रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले
भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी
स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले
अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले
दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले
अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले
अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले
सात्त्विक - सत्व गुण वाले
शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले
शाश्वत - नित्य रहने वाले
खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले
अज - जन्म रहित
पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले
मृड - सुखस्वरूप वाले
पशुपति - पशुओं के मालिक
देव - स्वयं प्रकाश रूप
महादेव - देवों के भी देव
अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले
हरि - विष्णुस्वरूप
पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले
अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले
दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले
हर - पापों व तापों को हरने वाले
भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले
अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले
सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले
सहस्रपाद - अनंत पैर वाले
अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले
अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित
तारक - सबको तारने वाला
परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर
शिव का स्वरूप
शिव की महिमा अनंत है। उनके रूप, रंग और गुण अनन्य हैं। समस्त सृष्टि शिवमयहै। सृष्टि से पूर्व शिव हैं और सृष्टि के विनाश के बाद केवल शिव ही शेष रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, परंतु जब सृष्टि का विस्तार संभव न हुआ तब ब्रह्मा ने शिव का ध्यान किया और घोर तपस्या की। शिव अर्द्धनारीश्वर रूप में प्रकट हुए। उन्होंने अपने शरीर के अर्द्धभागसे शिवा (शक्ति या देवी) को अलग कर दिया। शिवा को प्रकृति, गुणमयीमाया तथा निर्विकार बुद्धि के नाम से भी जाना जाता है। इसे अंबिका, सर्वलोकेश्वरी,त्रिदेव जननी, नित्य तथा मूल प्रकृति भी कहते हैं। इनकी आठ भुजाएं तथा विचित्र मुख हैं। अचिंत्य तेजोयुक्तयह माया संयोग से अनेक रूपों वाली हो जाती है। इस प्रकार सृष्टि की रचना के लिए शिव दो भागों में विभक्त हो गए, क्योंकि दो के बिना सृष्टि की रचना असंभव है। शिव सिर पर गंगा और ललाट पर चंद्रमा धारण किए हैं। उनके पांच मुख पूर्वा, पश्चिमा, उत्तरा,दक्षिणा तथा ऊध्र्वाजो क्रमश:हरित,रक्त,धूम्र,नील और पीत वर्ण के माने जाते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं और दसों हाथों में अभय, शूल, बज्र,टंक, पाश, अंकुश, खड्ग, घंटा, नाद और अग्नि आयुध हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वह त्रिशूल धारी, प्रसन्नचित,कर्पूर गौर भस्मासिक्तकालस्वरूपभगवान हैं। उनकी भुजाओं में तमोगुण नाशक सर्प लिपटे हैं। शिव पांच तरह के कार्य करते हैं जो ज्ञानमय हैं। सृष्टि की रचना करना, सृष्टि का भरण-पोषण करना, सृष्टि का विनाश करना, सृष्टि में परिवर्तनशीलतारखना और सृष्टि से मुक्ति प्रदान करना। कहा जाता है कि सृष्टि संचालन के लिए शिव आठ रूप धारण किए हुए हैं। चराचर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करते हुए वह शर्वअथवा सर्व हैं। सृष्टि को संजीवन रूप प्रदान करने वाले जलमयरूप में वह भव हैं। सृष्टि के भीतर और बाहर रहकर सृष्टि स्पंदित करने वाला उनका रूप उग्र है। सबको अवकाश देने वाला, नृपोंके समूह का भेदक सर्वव्यापी उनका आकाशात्मकरूप भीम कहलाता है। संपूर्ण आत्माओं का अधिष्ठाता, संपूर्ण क्षेत्रवासी, पशुओं के पाश को काटने वाला शिव का एक रूप पशुपति है। सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त समग्र सृष्टि में प्रकाश करने वाले शिव स्वरूप को ईशान कहते हैं। रात्रि में चंद्रमा स्वरूप में अपनी किरणों से सृष्टि पर अमृत वर्षा करता हुआ सृष्टि को प्रकाश और तृप्ति प्रदान करने वाला उनका रूप महादेव है। शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है। तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं। प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं। कहा जाता है कि सृष्टि के आदि में महाशिवरात्रि को मध्य रात्रि में शिव का ब्रह्म से रुद्र रूप में अवतरण हुआ, इसी दिन प्रलय के समय प्रदोष स्थिति में शिव ने ताण्डव नृत्य करते हुए संपूर्ण ब्रह्माण्ड अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से नष्ट कर दिया। इसीलिए महाशिवरात्रि अथवा काल रात्रि पर्व के रूप में मनाने की प्रथा का प्रचलन है।
जहां नटराज करते हैं आज भी राज!
हिमाचल प्रदेश के जिला चंबामें समुद्र तल से साढे सात हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित देव घाटी भरमौरका सौंदर्य नयनाभिराम है और अतीत गौरवपूर्ण। हमारे पौराणिक ग्रंथों में जिन चार कैलाश पर्वतों का उल्लेख आया है, उनमें से एक मणिमहेशकैलाश, इसी नैसर्गिक घाटी में स्थित है।
चंबाशहर से भरमौरकी दूरी कोई पैंसठ किलोमीटर है। भरमौरका रास्ता खडामुखसे होकर जाता है। खडामुखऔर भरमौरके बीच रावीनदी बहती है। भरमौरकई तरह के फलदार वृक्षों से सजी एक ऐसी मनोरम घाटी है, जहां कदम रखते ही सारी थकान पल भर के लिए छू-मंतर हो जाती है। यह घाटी वर्ष में तकरीबन पांच मास बर्फ की सफेद चादर से ढंकी रहती है।
भरमौरका जिक्र प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है और जनश्रुतियोंमें भी। भरमौरका प्राचीन नाम ब्रह्मपुर है। उसे पांच सौ वर्षो तक चंबाराज्य की राजधानी रहने का गौरव भी हासिल है। भरमौरनिवासियों की यह मान्यता है कि कालांतर में भगवान शिव यानी नटराज ने भरमौरघाटी में तांडव नृत्य भी किया था। भरमौरनिवासियों के अनुसार नटराज सात तरह के तांडव नृत्य करते हैं-आनंद तांडव, संध्या (प्रदोष) तांडव, कालिका तांडव, त्रिपुर दाह तांडव, गौरी तांडव, संहार तांडव और उमा तांडव। भारत ही नहीं, अनेक पाश्चात्य पुरातत्ववेताओंको भी भरमौरने अपने गौरवपूर्ण अतीत की तरफ आकर्षित किया है। इनमें डॉ. हटचिनसन,डा. फोगल,हरमनगोटसके नाम उल्लेखनीय है।
शिखर शैली में बना मणिमहेशका विशाल मंदिर यहां के निवासियों और शैव मतावलंबियों के लिए आस्था का प्रतीक है। आबादी के बीच एक बडे मंदिर परिसर में शिखर और पहाडी शैली में बने बीसियोंछोटे शिव मंदिर हैं और शिवलिंगभी। मंदिर समूह में सबसे बडा और ऊंचा मणिमहेशमंदिर ही है, जिसका शिखर दूर से ही दिखाई देने लग जाता है। विद्वानों ने इस मंदिर का निर्माण काल राजा मेरुवर्मन(780 ई.) के समय का माना है। इस काल में मेरुवर्मनने भरमौरमें अन्य मंदिरों और मूर्तियों की स्थापना की थी। कहा जाता है कि भरमौर(ब्रह्मपुर) में चौरासी सिद्धोंने धूनी रमाई थी और जहां-जहां वे बैठे थे, उन्हीं जगहों पर राजा साहिल वर्मा ने चौरासी मंदिरों का निर्माण करवाया था। यह मंदिर शिल्प व वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। मणिमहेशमंदिर में प्रवेश करते ही नंदी की भव्य कांस्य प्रतिमा ध्यान आकर्षित करती है।
नृसिंह भगवान का मंदिर शिखर शैली का बना है। इस मंदिर में नृसिंह भगवान की अष्टधातु की मूर्ति ग्यारह इंच ऊंचे तांबे की पीठ पर प्रतिष्ठित है। एक हजार से अधिक वर्ष पुरानी इन प्रतिमाओं पर वक्त की धूल जमी नहीं दिखाई देती, बल्कि इनकी चमक-दमक अभी तक बरकरार है और बडी श्रद्धा से इन्हें पूजा जाता है। भरमौरघाटी का दूसरा प्रसिद्ध शिव मंदिर हडसरमें है। हडसरजिसे स्थानीय बोली में हरसरभी कहा जाता है, पवित्र मणिमहेशको जाने वाली सडक पर अंतिम गांव है और कैलाश पर्वत के दर्शनार्थ जाने वाले श्रद्धालुओं की विश्राम स्थली भी है। गांव में पहाडी शैली में लकडी से निर्मित भगवान शिव का ऐतिहासिक मंदिर है। भरमौरघाटी का तीसरा प्रमुख मंदिर छतराडीमें है, जिसका निर्माण भी राजा मेरुवर्मनने करवाया था। मंदिर में अष्टधातु की बनी आदि शक्ति की कलात्मक मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस बहूमूल्यमूर्ति का निर्माण काल छठी-सातवीं शताब्दी का है। मंदिर की कलात्मकता देखते ही बनती है।
कुछ लोग इसे हिमाचल का अमरनाथ कहकर भी पुकारते हैं। भारत के उत्तर-पश्चिम में यह सबसे बडा शैव तीर्थ है और इसे भगवान शिव का वास्तविक घर माना गया है। समुद्र तल से 18,564फुट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेशके आंचल में करीब दो सौ मीटर परिधि की झील है। प्रति वर्ष भाद्रपक्षमास में कृष्णाष्टमी तथा जन्माष्टमी को यहां विशाल मेला लगता है।
शिवशंकर भोलेनाथ के अनेक रूप
गंगाधर
राजा भगीरथ ने जनकल्याण के लिए पतितपावन गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए कई वर्षों तक कठोर तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने राजा भगीरथ को यह वचन दिया कि सर्वकल्याणकारी गंगा पृथ्वी पर आएगी। मगर समस्या यह थी कि गंगाजी को पृथ्वी पर संभालेगा कौन?
समस्या का समाधान करते हुए ब्रह्माजी ने कहा कि गंगाजी को धारण करने की शक्ति भगवान शंकर के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है अतः तुम्हें भगवान रुद्र की तपस्या करना चाहिए। ऐसा कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। ब्रह्माजी के वचन सुनकर भगीरथ ने प्रभु भोलेनाथ की कठोर तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने भगीरथ से कहा- 'नरश्रेष्ठ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। मैं गिरिराजकुमारी गंगा को अपने मस्तक पर धारण करके संपूर्ण प्राणियों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करूँगा।'
भगवान शंकर की स्वीकृति मिल जाने के बाद हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगाजी बड़े ही प्रबल वेग से आकाश से भगवान शंकर के मस्तक पर गिरीं। उस समय गंगाजी के मन में भगवान शंकर को पराजित करने की प्रबल इच्छा थी। गंगाजी का विचार था कि मैं अपने प्रबल वेग से भगवान शंकर को लेकर पाताल में चली जाऊँगी।
गंगाजी के इस अहंकार को जान शिवजी कुपित हो उठे और उन्होंने गंगाजी को अदृश्य करने का विचार किया। पुण्यशीला गंगा जब भगवान रुद्र के मस्तक पर गिरीं, तब वे उनकी जटाओं के जाल में बुरी तरह उलझ गईं। लाख प्रयत्न करने पर भी वे बाहर न निकल सकीं। जब भगीरथ ने देखा कि गंगाजी भगवान शिव के जटामंडल में अदृश्य हो गईं, तब उन्होंने पुनः भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए तप करना प्रारंभ कर दिया। उनके तप से संतुष्ट होकर भगवान शिव ने गंगाजी को लेकर बिंदु सरोवर में छोड़ा। वहाँ से गंगाजी सात धाराएँ हो गईं।
इस प्रकार ह्लादिनी, पावनी और नलिनी नामक की धाराएँ पूर्व दिशा की ओर तथा सुचक्षु, सीता और महानदी सिंधु- ये तीन धाराएँ पश्चिम की ओर चली गईं। सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे-पीछे चली और पृथ्वी पर आई। इस प्रकार भगवान शंकर की कृपा से गंगा का धरती पर अवतरण हुआ और भगीरथ के पितरों के उद्धार के साथ पतितपावनी गंगा संसारवासियों को प्राप्त हुईं।
औढरदानी शिव
भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है। वे कल्याण की जन्मभूमि तथा शांति के आगार हैं। वेद तथा आगमों में भगवान शिव को विशुद्ध ज्ञानस्वरूप बताया गया है। समस्त विद्याओं के मूल स्थान भी भगवान शिव ही हैं। उनका यह दिव्यज्ञान स्वतः सम्भूत है।
ज्ञान, बल, इच्छा और क्रिया-शक्ति में भगवान शिव के समान कोई नहीं है। फिर उनसे अधिक होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। वे सबके मूल कारण, रक्षक, पालक तथा नियंता होने के कारण महेश्वर कहे जाते हैं। उनका आदि और अंत न होने से वे अनंत हैं। वे सभी पवित्रकारी पदार्थों को भी पवित्र करने वाले हैं, इसलिए वे समस्त कल्याण और मंगल के मूल कारण हैं।
भगवान शंकर दिग्वसन होते हुए भी भक्तों को अतुल ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, अनंत राशियों के अधिपति होने पर भी भस्म-विभूषण, श्मशानवासी होने पर भी त्रैलोक्याधिपति, योगिराज होने पर भी अर्धनारीश्वर, पार्वतीजी के साथ रहने पर भी कामजित तथा सबके कारण होते हुए भी अकारण हैं। आशुतोष और औढरदानी होने के कारण वे शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों के संपूर्ण दोषों को क्षमा कर देते हैं तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ज्ञान-विज्ञान के साथ अपने आपको भी दे देते हैं। कृपालुता का इससे बड़ा उदाहरण भला और क्या हो सकता है।
संपूर्ण विश्व में शिवमंदिर, ज्योतिर्लिंग, स्वयम्भूलिंग से लेकर छोटे-छोटे चबूतरों पर शिवलिंग स्थापित करके भगवान शंकर की सर्वाधिक पूजा उनकी लोकप्रियता का अद्भुत उदाहरण है।
हरिहर रूप
एक बार सभी देवता मिलकर संपूर्ण जगत के अशांत होने का कारण जानने के लिए विष्णुजी के पास गए। भगवान विष्णु ने कहा कि इस प्रश्न का उत्तर तो भोलेनाथ ही दे सकते हैं। अब सभी देवता विष्णुजी को लेकर शिवजी की खोजने मंदर पर्वत गए। वहाँ शंकरजी के होते हुए भी देवताओं को उनके दर्शन नहीं हो रहे थे।
पार्वतीजी का गर्भ नष्ट करने पर देवताओं को महापाप लगा था और इस कारण ही ऐसा हो रहा था। तब विष्णुजी ने कहा कि सारे देवता शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तत्पकृच्छ्र व्रत करें। इसकी विधि भी विष्णुजी ने बताई। सारे देवताओं ने ऐसा ही किया। फलस्वरूप सारे देवता पापमुक्त हो गए। पुनः देवताओं को शंकरजी के दर्शन करने की इच्छा जागी। देवताओं की इच्छा जान प्रभु विष्णु ने उन्हें अपने हृदयकमल में विश्राम करने वाले भगवान शंकर के लिंग के दर्शन करा दिए।
अब सभी देवता यह विचार करने लगे कि सत्वगुणी विष्णु और तमोगुणी शंकर के मध्य यह एकता किस प्रकार हुई। देवताओं का विचार जान विष्णुजी ने उन्हें अपने हरिहरात्मक रूप का दर्शन कराया। देवताओं ने एक ही शरीर में भगवान विष्णु और भोलेनाथ शंकर अर्थात हरि और हर का एकसाथ दर्शन कर उनकी स्तुति की।
पंचमुखी शिव
मुक्तापीतपयोदमौक्तिकजपावर्णैर्मुखैः पञ्चभि- स्त्र्यक्षैरंजितमीशमिंदुमुकुटं पूर्णेन्दुकोटिप्रभम् ।
शूलं टंककृपाणवज्रदहनान्नागेन्द्रघंटांकुशान् पाशं भीतिहरं दधानममिताकल्पोज्ज्वलं चिन्तयेत् ॥
'जिन भगवान शंकर के ऊपर की ओर गजमुक्ता के समान किंचित श्वेत-पीत वर्ण, पूर्व की ओर सुवर्ण के समान पीतवर्ण, दक्षिण की ओर सजल मेघ के समान सघन नीलवर्ण, पश्चिम की ओर स्फटिक के समान शुभ्र उज्ज्वल वर्ण तथा उत्तर की ओर जपापुष्प या प्रवाल के समान रक्तवर्ण के पाँच मुख हैं।
जिनके शरीर की प्रभा करोड़ों पूर्ण चंद्रमाओं के समान है और जिनके दस हाथों में क्रमशः त्रिशूल, टंक (छेनी), तलवार, वज्र, अग्नि, नागराज, घंटा, अंकुश, पाश तथा अभयमुद्रा हैं। ऐसे भव्य, उज्ज्वल भगवान शिव का मैं ध्यान करता हूँ।'
महामृत्युंजय
हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां वहंतं परम् ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे ॥
भगवान मृत्युंजय अपने ऊपर के दो हाथों में स्थित दो कलशों से सिर को अमृत जल से सींच रहे हैं। अपने दो हाथों में क्रमशः मृगमुद्रा और रुद्राक्ष की माला धारण किए हैं। दो हाथों में अमृत-कलश लिए हैं। दो अन्य हाथों से अमृत कलश को ढँके हैं।
इस प्रकार आठ हाथों से युक्त, कैलास पर्वत पर स्थित, स्वच्छ कमल पर विराजमान, ललाट पर बालचंद्र का मुकुट धारण किए त्रिनेत्र, मृत्युंजय महादेव का मैं ध्यान करता हूँ।
शिव स्वरूप का रहस्य (त्रिनेत्र)
शिव की आराधना का विशेष महत्व है। यह महत्व अनायास नहीं है। केवल कर्मकांड भी नहीं है। इनके राज गहरे हैं। केवल कर्मकाण्ड मानकर पूजा-पाठ करने से बात नहीं बनेगी।
शिव पूरक हैं। शिवत्व पूर्णता है। इनके व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह के जीवन में खास महत्व हैं। शिव के प्रचलित स्वरूप को ही देखें तो उनके हर अंग, आभूषण और मुद्रा का महत्व है। जैसे - जैसे आप इसे समझते हैं आप शिवमय होते जाते हैं। शिवत्व आपमें उतरता जाता है और आप सरस हो जाते हैं। केवल शिव ही हैं जिनकी आराधना के साथ अमर होने का वरदान जुड़ा हुआ है। वैसे तो शिव इतने व्यापक हैं कि उनके लेशमात्र का वर्णन करने की योग्यता मुझमें नहीं है, लेकिन उन्हीं की इच्छा से कोशिश करते हैं।
शिव की वेश-भूषा को देखिए। सर पर गंगा और चंद्रमा, माथे पर तीसरी खुली हुई आंख, कंठ और हाथों में सर्प, कंधे पर जनेउ, कमर में वाघम्बर, बाघम्बर का आसन, पद्मासन में भैरवी मुद्रा, त्रिशूल और डमरू। साथ में माता पार्वती और उनका वाहन नंदी। यह शिव की वाह्य छवि है जिसे हम देखते हैं। अगर हमें शिव को निरूपित करना हो तो हम कुछ ऐसी ही छवि बनाएंगे। सर के जिस स्थान पर गंगा को दर्शाया जाता है भारतीय शरीर शास्त्र (तंत्र) में उसे सहस्रार चक्र के रूप में परिभाषित किया गया है। जब बच्चा पैदा होता है तो सिर के मध्य भाग में एक स्थान बहुत कोमल होता है। बहुत दिनों तक उस स्थान पर होने वाले स्पंदन को प्रकट रूप में देखा जा सकता है। जैसे जैसे हमारी कोमलता नष्ट होने लगती है धीरे-धीरे वह स्थान भी कठोर हो जाता है। वह स्थान तंत्र में सहस्रार के रूप में परिभाषित है। सहस्रार का सामान्य अर्थ समझना हो तो उसे सहस्रदल कमल कह लें। वह अमरता का स्रोत है। सिर के उस हिस्से की बनावट ऐसी है जैसी कमल की पंखुड़ियां। कमल कहां पैदा होता है? पानी में। जल का पवित्रतम रूप हैं गंगा। और गंगा का उद्गम क्षेत्र है शिव की जटा। इसका मतलब यह हुआ कि गंगा को वहां स्थापित करने के पीछे कारण हैं। हम प्रतीक रूप में गंगा को देखकर यह समझ लें कि वह स्थान अमरता का केन्द्र है। उस केन्द्र तक पहुंचना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए शिव ही साधना की अनेक विधियां बताते हैं जो विभिन्न शास्त्रों में वर्णित हैं। सामान्य जीवन में गंगा का क्या महत्व है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
उससे थोड़ा नीचे चंद्रमा स्थापित हैं। शिव के शरीर में जिस स्थान पर चंद्रमा का दर्शन होता है तंत्र में उस स्थान को बिन्दु विसर्ग कहते हैं। भौतिक शरीर में यह स्थान बुद्धि का केन्द्र है। चंद्रमा का स्वभाव शीतल है। बुद्धि शीतल हो। शांत हो। चंद्रमा इसी बात का संकेत हैं।
कंठ और भुजाओं पर सर्प की माला। संभवत: शिव की भारतीय मानस में स्थापना का ही परिणाम है कि सांप का सामान्य जीवन में बड़ा आदर है। सांपों का इतना आदर दुनिया के शायद ही किसी देश में हो। सांप पर्यावास के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण जीव होता है। संभवत: सांप ही एकमात्र ऐसा जीव होता है जो अपनी पूरा कायाकल्प कर लेता है। कंठ में जो चक्र स्थापित है उसका नाम है विशुद्धि। विशुद्धि चक्र शरीर में कई तरह के रसों का उत्पादन करता है जो पाचक रसों के रूप में जाने जाते हैं। अगर इन पाचक रसों में व्यवधान आ जाए तो व्यक्ति में कई तरह के रोग घर कर जाते हैं। तंत्र के साधक ऐसा कहते हैं कि विशुद्धि चक्र जागृत हो जाता है तो व्यक्ति में विष को पचा लेने की क्षमता अपने-आप आ जाती है। वह रसों का स्वामी हो जाता है। सांप को प्रतीक रूप में चुनने का एक और अर्थ है। शरीर के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति का स्थान होता है। उस स्थान को मूलाधार चक्र कहते हैं। मूलाधार चक्र जागृत होने पर वह शक्ति उर्ध्वगामी होती है और शरीर के सारे चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में जाकर विस्फोट करती है। इस सुसुप्त शक्ति का जो आकार है वह कुंडली मारकर बैठे हुए सर्प जैसी है। इड़ा और पिंगड़ा नाड़ियां सुषुम्ना को लपेटे हुए उपर की तरफ चलती हैं। इसलिए सांप को शिव के गले में प्रतीक रूप में रखने के पीछे यह महत्वपूर्ण कारण है।
इसी तरह शिव के माथे पर एक अधखुली आंख के दर्शन होते हैं। उसे त्रिनेत्र कहते हैं। शिव का यह त्रिनेत्र तंत्र में आज्ञा चक्र के रूप में परिभाषित है। आज्ञा चक्र सभी चक्रों का नियंत्रण करता है। उच्चतर साधनाओं के लिए त्रिनेत्र का खुलना जरूरी है। क्योंकि साधना के दौरान यह शरीर एक अनंत उर्जा का स्रोत बनता चला जाता है। इस उर्जा का समायोजन त्रिनेत्र के खुलने पर ही हो सकता है। अन्यथा कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति साधना के दौरान अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। त्रिनेत्र अथवा आज्ञा चक्र के खुलने पर हम एक नये ब्रह्माण्ड में पहुंच जाते हैं। इन दो आंखों से हम जो जगत देख पाते हैं त्रिनेत्र उसके परे के जगत से हमारा साक्षात्कार करवाता है। शिव के भाल पर त्रिनेत्र दर्शाने का संभवत: यही अर्थ है। क्योंकि जिन्हें तंत्र में चक्रों के रूप में परिभाषित किया गया है उनका कोई आकार तो है नहीं। वह उर्जा केन्द्र है। शिव में उन उर्जा केन्द्रों को उनके व्यवहार के अनुकूल दर्शाया गया है। आज्ञा चक्र का जो व्यवहार है उसको त्रिनेत्र के रूप इसीलिए दिखाया गया है।
भगवान शिव को सर्वाधिक प्रिय
• अखण्ड बिल्वपत्र भगवान शिव को अत्यन्त प्रिय है। जो श्रध्दापूर्वक नम: शिवाय मंत्र जाप करते हुए शिव लिंग पर बेलपत्र अर्पित करता है वह सभी पापों से मुक्त हो शिव के परमधाम में स्थान पाता है। यहाँ तक कि बिल्वपत्र के दर्शन, स्पर्श व वंदना से ही दिन-रात के किये पापों से छुटकारा मिल जाता है।
• इसके अलावा भगवन् भोलेनाथ को आक-धतूरा विजया भांग आदि भी अति प्रिय हैं।
• पत्र, पुष्प, फल अथवा स्वच्छ जल तथा कनेर से भी भगवान् शिव की पूजा करके मनुष्य उन्हीं के समान हो जाता है। आक (मदार) का फूल कनेर से दसगुना श्रेष्ठ माना गया है।
• आक के फूल से भी दस गुना श्रेष्ठ है धतूरे आदि का फल। नील कमल एक हजार कह्लार (कचनार) से भी श्रेष्ठ माना गया है।
• शिवरात्रि व्रत करते हुए शिवोपासना से मनुष्य के त्रिविध तापों का शमन हो जाता है, संकटव कष्ट के बादल छंट जाते हैं, कर्मज व्याधियों व ग्रह बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है। इससे अकाल मृत्यु को टाला जा सकता है, मोक्ष प्राप्ति होती है। इस पर्व पर मनुष्य जिस मनोकामना से जिस रूप में शिव की आराधना करता है वह पूरी होती है और भोले शंकर उसी रूप में प्रसन्न होकर फल भी प्रदान करते हैं।
• जो व्यक्ति रोग ग्रस्त होकर बिस्तर पर पड़ा है, वह भी महामृत्युंजय के जाप से अपने को स्वस्थ अनुभव करने लगता है।
• घर में कलह, व्यापार में मंदी, कुसंतान, रोग, भाग्य में रूकावट, भाइयों में मतभेद आदि हो तब भी मनुष्य को शिवरात्रि के दिन कालसर्प शांति अवश्य करवा लेनी चाहिए। इस प्रकार की बाधाओं से मुक्ति के लिए शिवरात्रि से बढ़कर दूसरा उत्तम मुहूर्त नहीं।
• जिन व्यक्तियों को ‘शनि की साढेसाती’ प्रतिकूलता का संकेत दे रही हो उसका शमन शिव आराधना के द्वारा बड़ी सरलता से किया जा सकता है, उसके अलावा और कोई दूसरी आराधना उसे सरलता से शांत नहीं कर सकती।
• शिव गृहस्थ जीवन के आदर्श है जो अनासक्त रहते हुए भी पूर्ण गृहस्थ स्वरूप हैं। इनकी आराधना से मनुष्य के गृहस्थ जीवन में अनुकूलता प्राप्त होती है और वह सुखमय गृहस्थी का स्वामी बनता है।
• भगवान शिव सौभाग्य दायक हैं। अत: इस रात्रि में कुंवारी कन्या द्वारा इनकी आराधना करने से उसे मनोवांछित वर की प्राप्ति होती है।
• जो स्त्री संतान सुख की कामना से शिवरात्रि पर शिव की पूजा अर्चना करती है उसे शिव कृपा से संतान की भी प्राप्ति होती है, क्योंकि शिव पुत्र प्रदान करने वाले देवता हैं।
• भगवान शिव परमपिता परमात्मा के सम्पूर्ण स्वरूप है इसलिए इनकी आराधना जीवन पर्यन्त की जाती है और विशेषकर शिवरात्रि पर इनकी आराधना से व्यक्ति अपने इष्ट के दर्शन पाकर धन्य हो जाता है एवं उसके समस्त मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।
सर्पशैय्या पर आसीन है शिव परिवार
देश के बारह ज्योतिर्लिगोंमें प्रमुख प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के शीर्ष पर स्थित नागचंद्रेश्वरमंदिर में देवाधिदेव भगवान शिव की एक ऐसी विलक्षण प्रतिमा है, जिसमें वह अपने पूरे परिवार के साथ सर्प सिंहासन पर आसीन है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार सर्प भगवान शिव का कंठाहारऔर भगवान विष्णु का आसन है लेकिन यह विश्व का संभवत:एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां भगवान शिव, माता पार्वती एवं उनके पुत्र गणेशजीको सर्प सिंहासन पर आसीन दर्शाया गया है। वर्ष में केवल एक दिन नागपंचमी पर इस मंदिर के पट 24घंटे के लिए खुलते है और इस दौरान दूरदराज से आने वाले श्रद्धालुओं की भारी भीड उमड पडती है। शनिवार को नागपंचमी का पर्व होने की वजह से शुक्रवार की मध्यरात्रि से ही इस मंदिर में भगवान शिव के दर्शनों के लिए भक्तों की कतार लगने का सिलसिला आरंभ हो जाएगा।
महाकाल भक्त मंडल के अध्यक्ष एवं महाकालेश्वर मंदिर के पुजारी पंडित रमण त्रिवेदी ने बताया कि पौराणिक मान्यता के अनुसार सर्पोके राजा तक्षक ने भगवान शंकर की यहां घनघोर तपस्या की थी। तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए और तक्षक को अमरत्व का वरदान दिया। ऐसा माना जाता है कि उसके बाद से तक्षक नाग यहां विराजितहै, जिस पर शिव और उनका परिवार आसीन है। एकादशमुखीनाग सिंहासन पर बैठे भगवान शिव के हाथ-पांव और गले में सर्प लिपटे हुए है।
इस अत्यंत प्राचीन मंदिर का परमार राजा भोज ने एक हजार और 1050ईस्वी के बीच पुनर्निर्माण कराया था। 1732में तत्कालीन ग्वालियर रियासत के राणाजीसिंधिया ने उज्जयिनीके धार्मिक वैभव को पुन:स्थापित करने के भागीरथी प्रयास के तहत महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णाेद्धार कराया। प्रतिवर्ष श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन नागपंचमी का पर्व पडता है और इस दिन नाग की पूजा की जाती है।
इस दिन कालसर्पयोग की शांति के लिए यहां विशेष पूजा के आयोजन भी होते है। श्री महाकाल ज्योतिष अनुसंधान केंद्र के संचालक और ज्योतिषाचार्य पंडित कृपाशंकर व्यास ने बताया कि नागचन्द्रेश्वरमंदिर दुनिया में अपनी तरह का एक ही मंदिर है।उन्होने कहा कि यहां पूजा-पाठ का विशेष महत्व है।
महाशिवरात्रि की व्रत-कथा
एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?'
उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।
शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया।
अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।
पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।
एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।
कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।'
शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मार।'
शिकारी हँसा और बोला, 'सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।'
उत्तर में मृगी ने फिर कहा, 'जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।'
मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा।
शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,' हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।'
मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।'
उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।
थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।
देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।'
शिव परिवार
देवी पार्वती-
यह शिव की शक्ति हैं। शिव की अनाम शक्ति ही अलग-अलग नाम धारण करती है। लक्ष्मी से लेकर राधा तक, सब शिव की शक्तियां ही हैं। पार्वती पूर्वजन्म में सती थीं। वह शिव की प्रेरणा हैं। शिव भोले हैं, पार्वती उनकी बुद्धिशक्ति हैं। वह शिव को जगाने का साहस करती है। पार्वती का वाहन सिंह है, जो शिव द्वारा ही दिया गया है। पार्वती को शिव, उमा या गौरी नाम से बुलाते हैं।
पुत्र गणोश-
गणोश का सिर काटकर शिव ने हाथी का सिर लगा दिया था, बाद में वरदान स्वरूप अपने गणों का मुखिया बना दिया। गणोश शिव की क्षुधा यानी भूख शक्ति हैं। शिव ख़ुद आहार नहीं लेते, बल्कि गणोश खाते हैं। जितना खाते हैं, सब महादेव के पेट में जाता है, लेकिन पेट गणोश का बड़ा होता है। यानी शिव गणोश से लेकर भी नहीं लेते। रस ले लेते हैं, बाक़ी गणोश को दे देते हैं। गणोश को उन्होंने बुद्धि, शौर्य और बोलने-सुनने की शक्ति दी है। इसी शक्ति के कारण गणोश व्यास से सुन-सुनकर उतनी ही गति से महाभारत को लिख सके। गणोश की पत्नी ऋद्धि और सिद्धि हैं, इनके दो पुत्र हैं क्षेम और लाभ। ऋद्धि के कारण दुनिया में बुद्धि का प्रसार हुआ, सिद्धि ने साधना का प्रसार किया। बेटे क्षेम के कारण लोग कुशलता से रहना सीख पाए और लाभ ने सफलता के भाव का प्रसार किया।
बेटा कार्तिकेय-
कार्तिकेय दया और कृपा के देव हैं। शिव जगत के प्रति अपना प्रेम इन्हीं के ज़रिए व्यक्त करते हैं। दक्षिण भारत में कार्तिकेय की विशेष पूजा होती हैं। शिव ने जैसे रावण के भाई कुबेर को उत्तर भारत का संपत्ति-राज्य सौंपा था, उसी तरह कार्तिकेय को दक्षिण भारत का। दक्षिण दिशा में निवास करने वालों को संपन्नता के लिए कार्तिकेय की आराधना करनी चाहिए। उत्तर में कुबेर की आराधना होती है, किंतु देवरूप में नहीं, क्योंकि कुबेर मात्र क्षेत्रपाल हैं, देव नहीं। वह असुर योनि के हैं। कार्तिकेय का वाहन है मयूर और पत्नी हैं देवसेना, जो देवताओं की पूरी सेना को नियंत्रित करती हैं। यह भी शिव की एक अव्यक्त शक्ति ही हैं।
गणसेना- शिव अपने गणों से बहुत प्रेम करते हैं। ये गण साधारण नहीं, बल्कि बहुत डरावने हैं। शिव के साथ 11 रुद्र, 11 रुद्रिणियां, चौंसठ योगिनियां, अनगिनत मातृकाएं व 108 भैरव हैं। इस सेना के अध्यक्ष वीरभद्र हैं, जिनके पास अनगिनत रुद्र हैं। कालिकापुराण के अनुसार सीधे शिवराज से वार्ता करने वाले 36 करोड़ प्रमथगण उनकी सेना में हैं। शिव के पार्षदों व क्षेत्रपालों में प्रमुख हैं-बाण, रावण, चंडी, रिटि, भृंगी, लाटा, गोरिल और विजया, जो कि माता पार्वती की ख़ास सखी हैं। शिव के प्रमुख द्वाररक्षक हैं कीर्तिमुख।
बाल गणोश ने सिर कटने से पहले इन्हीं के साथ युद्ध किया था। शिव और शक्ति को अलग मानने वाले ध्यान दें कि आदिशक्ति महादेवी दुर्गा, जिन्हें चंडिका, काली, गढ़देवी, त्रिपुरसुंदरी, अंबा जैसे कई नामों से जाना जाता है, की सेना भी यही है। मात्र एक अंतर है- शिव अपने सेनाध्यक्ष को वीरभद्र के नाम से पुकारते हैं, जबकि आदिशक्ति अपने सेनाध्यक्ष को कालभैरव नाम से। वीरभद्र और कालभैरव एक ही हैं। दोनों शिव के ही लीलावतार हैं। यह भी ध्यान देने लायक़ बात है कि शिव ही वह एकमात्र देव हैं, जिनकी सेना में स्त्री की भी जगह है। योगिनियां और मातृकाएं शिव की स्त्री-शक्ति में विश्वास का ही प्रतीक है।
शिवलिंग पूजा का महत्व
श्री शिवमहापुराण के सृष्टिखंड अध्याय १२श्लोक ८२से८६ में ब्रह्मा जी के पुत्र सनत्कुमार जी वेदव्यास जी को उपदेश देते हुए कहते है कि हर गृहस्थ को देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर पंचदेवों (श्री गणेश,सूर्य,विष्णु,दुर्गा,शंकर) की प्रतिमाओं में नित्य पूजन करना चाहिए क्योंकि शिव ही सबके मूल है, मूल (शिव)को सींचने से सभी देवता तृत्प हो जाते है परन्तु सभी देवताओं को तृप्त करने पर भी प्रभू शिव की तृप्ति नहीं होती। यह रहस्य देहधारी सद्गुरू से दीक्षित व्यक्ति ही जानते है।
सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु ने एक बार ,सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के साथ निर्गुण-निराकार- अजन्मा ब्रह्म(शिव)से प्रार्थना की, "प्रभों! आप कैसे प्रसन्न होते है।"
प्रभु शिव बोले,"मुझे प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग का पूजन करो। जब जब किसी प्रकार का संकट या दु:ख हो तो शिवलिंग का पूजन करने से समस्त दु:खों का नाश हो जाता है।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय श्लोक से पृष्ठ )
(२) जब देवर्षि नारद ने श्री विष्णु को शाप दिया और बाद में पश्चाताप किया तब श्री विष्णु ने नारदजी को पश्चाताप के लिए शिवलिंग का पूजन, शिवभक्तों का सत्कार, नित्य शिवशत नाम का जाप आदि क्रियाएं बतलाई।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय श्लोक से पृष्ठ )
(३) एक बार सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी देवताओं को लेकर क्षीर सागर में श्री विष्णु के पास परम तत्व जानने के लिए पहुॅचे । श्री विष्णु ने सभी को शिवलिंग की पूजा करने की आज्ञा दी और विश्वकर्मा को बुलाकर देवताओं के अनुसार अलग-अलग द्रव्य के शिवलिंग बनाकर देने की आज्ञा दी और पूजा विधि भी समझाई।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय १२ )
(४) रूद्रावतार हनुमान जी ने राजाओं से कहा कि श्री शिवजी की पूजा से बढ़कर और कोई तत्व नहीं है। हनुमान जी ने एक श्रीकर नामक गोप बालक को शिव-पूजा की दीक्षा दी। (प्रमाण श्री शिवमहापुराण कोटीरूद्र संहिता अध्याय १७ ) अत: हनुमान जी के भक्तों को भी भगवान शिव की प्रथम पूजा करनी चाहिए।
(५) ब्रह्मा जी अपने पुत्र देवर्षि नारद को शिवलिंग की पूजा की महिमा का उपदेश देते है। देवर्षि नारद के प्रश्न और ब्रह्मा जी के उत्तर पर ही श्री शिव महापुराण की रचना हुई है। पार्वती जगदम्बा के अत्यन्त आग्रह से, जनकल्याण के लिए, निर्गुण निराकार अजन्मा ब्रह्म (शिव) ने सौ करोड़ श्लोकों में श्री शिवमहापुराण की रचना की। चारों वेद और अन्य सभी पुराण, श्री शिवमहापुराण की तुलना में नहीं आ सकते। प्रभू शिव की आज्ञा से विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने श्री शिवमहापुराण को २४६७२ श्लोकों में संक्षिप्त किया है। ग्रन्थ विक्रेताओं के पास कई प्रकार के शिवपुराण उपलब्ध है परन्तु वे मान्य नहीं है केवल २४६७२ श्लोकों वाला श्री शिवमहापुराण ही मान्य है। यह ग्रन्थ मूलत: देववाणी संस्कृत में है और कुछ प्राचीन मुद्रणालयों ने इसे हिन्दी, गुजराती भाषा में अनुदित किया है। श्लोक संख्या देखकर और हर वाक्य के पश्चात् श्लोक क्रमांक जॉंचकर ही इसे क्रय करें। जो व्यक्ति देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर , एक बार गुरूमुख से श्री शिवमहापुराण श्रवण कर फिर नित्य संकल्प करके (संकल्प में अपना गोत्र,नाम, समस्याएं और कामनायें बोलकर)नित्य श्वेत ऊनी आसन पर उत्तर की ओर मुखकर के श्री शिवमहापुराण का पूजन करके दण्डवत प्रणाम करता है और मर्यादा-पूर्वक पाठ करता है, उसे इस प्रकार सम्पूर्ण २४६७२ श्लोकों वाले श्री शिवमहापुराण का बोलते हुए सात बार पाढ करने से भगवान शंकर का दर्शन हो जाता है। पाठ करते समय स्थिर आसन हो, एकाग्र मन हो, प्रसन्न मुद्रा हो, अध्याय पढते समय किसी से वार्ता नहीं करें, किसी को प्रणाम नहीं करे और अध्याय का पूरा पाठ किए बिना बीच में उठे नहीं। श्री शिवमहापुराण पढते समय जो ज्ञान प्राप्त हुआ उसे व्यवहार में लावें।श्री शिव महापुराण एक गोपनीय ग्रन्थ है। जिसका पठन (परीक्षा लेकर) सात्विक, निष्कपटी, प्रभू शिव में श्रद्धा रखने वालों को ही सुनाना चाहिए।
(६) जब पाण्ड़व लोग वनवास में थे , तब भी कपटी, दुर्योधन , पाण्ड़वों को कष्ट देता था।(दुर्वासा ऋषि को भेजकर तथा मूक नामक राक्षस को भेजकर) तब पाण्ड़वों ने श्री कृष्ण से दुर्योधन के दुर्व्यवहार के लिए कहा और उससे राहत पाने का उपाय पूछा। तब श्री कृष्ण ने उन सभी को प्रभू शिव की पूजा के लिए सलाह दी और कहा "मैंने सभी मनोरथों को प्राप्त करने के लिए प्रभू शिव की पूजा की है और आज भी कर रहा हॅूॅ।तुम लोग भी करो।" वेदव्यासजी ने भी पाण्ड़वों को भगवान् शिव की पूजा का उपदेश दिया। हिमालय में, काशी में,उज्जैन में, नर्मदा-तट पर या विश्व में कहीं भी चले जायें, प्रत्येक स्थान पर सबसे सनातन शिवलिंग की पूजा ही है। मक्का मदीना में एवं रोम के कैथोलिक चर्च में भी शिवलिंग स्थापित है परन्तु सही देहधारी सद्गुरू से दीक्षा न लेकर ,सही पूजा न करने से ही हमें सांसारिक सभी सुख प्राप्त नहीं हो रहे है।
श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय ११ श्लोक १२से १५ में श्री शिव-पूजा से प्राप्त होने वाले सुखों का वर्णन निम्न प्रकार से है:- दरिद्रता, रोग सम्बन्धी कष्ट, शत्रु द्वारा होने वाली पीड़ा एवं चारों प्रकार का पाप तभी तक कष्ट देता है, जब तक प्रभू शिव की पूजा नहीं की जाती। महादेव का पूजन कर लेने पर सभी प्रकार का दु:ख नष्ट हो जाता है, सभी प्रकार के सुख प्राप्त हो जाते है और अन्त में मुक्ति लाभ होता है। जो मनुष्य जीवन पाकर उसके मुख्य सुख संतान को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें सब सुखों को देने वाले महादेव की पूजा करनी चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र विद्यिवत शिवजी का पूजन करें। इससे सभी मनोकामनाएं सिद्द्ध हो जाती है।
प्रमाण श्री शिवमहापुराण
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