ऋतु शुक्ला 23 फरवरी, 2013
विक्रम संवत
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2069
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शक संवत
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1934
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मास
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माघ
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पक्ष
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शुक्ल पक्ष
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तिथि
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त्रियोदशी 25.31
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नक्षत्र
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पुष्य 24.16 तद्पश्चात अश्लेशा
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योग
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सौभाग्य 16.07
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करण
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कौलव 13.03 तद्पश्चात तैतिल
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सूर्य राशि
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कुम्भ
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चन्द्र राशि
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कर्क
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राहुकाल
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09.48-11.14
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गुलिक
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06.57-8.23
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यमगंड
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14.06-15.31
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अभिजीतमुहूर्त
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12:17- 13.03
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सूर्योदय
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06:57
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सूर्यास्त
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18.23
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चंद्रोदय
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16.19
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तिथि विशेष
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शनि प्रदोष, श्री विश्वकर्मा जयंती
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शुभ कार्य
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तकनीकी शिक्षा प्रारंभ, खनन, भूमि, लकडी़, क्रय- विक्रय, तेल आदि कार्य
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वर्ज्य
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पूर्व, उतर तथा ईशान दिशा में यात्रा
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विश्वकर्मा जयंती
हिंदू धर्मं में विश्वकर्मा को निर्माण एवं सृजन का देवता माना जाता है. मान्यता
है कि सोने की लंका का निर्माण उन्होंने ही किया था.
विश्वकर्मा कौन से हुए?
साधन, औजार, युक्ति व निर्माण
के देवता विश्वकर्मा जी के विषय में अनेकों भ्रांतियां हैं बहुत से विद्वान
विश्वकर्मा इस नाम को एक उपाधि मानते हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में भी समकालीन कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है
कालान्तर में विश्वकर्मा एक उपाधि हो गई थी, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मूल पुरुष या आदि पुरुष हुआ ही न हो, विद्वानों में मत भेद इस पर भी है कि मूल पुरुष विश्वकर्मा
कौन से हुए। कुछ एक विद्वान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं तो
कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं,
ऋग्वेद मे विश्वकर्मा सुक्त के नाम से 11 ऋचाऐ लिखी हुई है। जिनके
प्रत्येक मन्त्र पर लिखा है ऋषि विश्वकर्मा भौवन देवता आदि । यही सुक्त यजुर्वेद
अध्याय 17, सुक्त मन्त्र 16 से 31 तक 16 मन्त्रो मे आया है ऋग्वेद मे
विश्वकर्मा शब्द का एक बार इन्द्र व सुर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है।
परवर्ती वेदों मे भी विशेषण रुप मे इसके प्रयोग अज्ञत नही है यह प्रजापति का भी
विशेषण बन कर आया है।
प्रजापति विश्वकर्मा विसुचित।
परन्तु महाभारत के
खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानतें हैं।
स्कंद पुराण प्रभात खण्ड के निम्न श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों
में यह श्लोक मिलता हैः-
बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी ।
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च ।
'विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः ।।16।।
महर्षि अंगिरा के
ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु
महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पुर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति
विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है।
शिल्प शास्त्र का
कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, सम्पूर्ण
सिद्धियों का जनक है,वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ
पुत्र का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहिता) है। अंगिरा कुल से
विश्वकर्मा का सम्बन्ध तो सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। जिस तरह भारत मे
विश्वकर्मा को शिल्पशस्त्र का अविष्कार करने वाला देवता माना जाता हे और सभी
कारीगर उनकी पुजा करते हे। उसी तरह चीन मे लु पान को बदइयों का देवता माना जाता
है।
प्राचीन ग्रन्थों
के मनन-अनुशीलन से यह विदित होता है कि जहाँ ब्रहा, विष्णु ओर महेश
की वन्दना-अर्चना हुई है, वही भनवान विश्वकर्मा को भी स्मरण-परिष्टवन किया गया है।
" विश्वकर्मा" शब्द से ही यह अर्थ-व्यंजित होता है
"विशवं कृत्स्नं कर्म व्यापारो वा यस्य सः
अर्थातः जिसकी
सम्यक् सृष्टि और कर्म व्यपार है वह विशवकर्मा है। यही विश्वकर्मा प्रभु है, प्रभूत पराक्रम-प्रतिपत्र, विशवरुप विशवात्मा है। वेदो मे
विशवतः चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वस्पात
कहकर इनकी
सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, शक्ति-सम्पन्ता और
अनन्तता दर्शायी गयी है। हमारा उद्देश्य तो यहाँ विश्वकर्मा जी का परिचय कराना है।
माना कई विश्वकर्मा हुए हैं और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणों को धारण करने वाले
श्रेष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा हो तो यह बात भी
मानी जानी चाहिए।
हमारी भारतीय
संस्कृति के अंतर्गत भी शिल्प संकायो, कारखानो, उधोगों मॆ भगवान विशवकमॉ की महता को प्रगत करते हुए
प्रत्येक र्वग 17 सितम्बर को श्वम दिवस के रुप मे मनाता हे। यह उत्पादन-वृदि ओर
राष्टीय समृध्दि के लिए एक संकलप दिवस है। यह जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान नारे
को भी श्वम दिवस का संकल्प समाहित किये हुऐ है।
यह पर्व सोरवर्ष
के कन्या संर्काति मे प्रतिवर्ष 17 सितम्बर विशवकर्मा-पुजा के रुप मे सरकारी व गैर
सरकारी ईजीनियरिग संस्थानो मे बडे ही हषौलास से सम्पन्न होता हे। लोग भ्रम वश इस
पर्व को विश्वकर्मा जयंति मानते हे। जो सर्वदा अनुचित हे। भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा
कन्या की संक्राति (17 सितम्बर), कार्तिक शुक्ला
प्रतिपदा (गोवर्धन पूजा), भाद्रपद पंचमी (अंगिरा जयन्ति) मई दिवस आदि विश्वकर्मा-पुजा
महोत्सव पर्व है। इन पर्वो पर भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा-अर्चना की जाती है।
भगवान विशवकर्मा
जी की वर्ष मे कई बार पुजा व महोत्सव मनाया जाता है। जैसे भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा
इस तिंथि की महिमा का पुर्व विवरण महाभारत मे विशेष रुप से मिलता है। इस दिन भगवान
विश्वकर्मा जी की पुजा अर्चना की जाती है। यह शिलांग और पूर्वी बंगला मे मुख्य तौर
पर मनाया जाता है। अन्नकुट (गोवर्धन पूजा) दिपावली से अगले दिन भगवान विश्वकर्मा
जी की पुजा अर्चना (औजार पूजा) की जाती है। मई दिवस, विदेशी त्योहार का प्रतीक है।, रुसी क्रांति
श्रमिक वर्ग कि जीत का नाम ही मई मास के रुसी श्रम दिवस के रुप मे मनाया जाता है।
5 मई को ऋषि अंगिरा जयन्ति होने से विश्वकर्मा-पुजा महोत्सव मनाया जाता है भगवान
विश्वकर्मा जी की जन्म तिथि माघ मास त्रयोदशी शुक्ल पक्ष दिन रविवार का ही साक्षत
रुप से सुर्य की ज्योति है। ब्राहाण हेली को यजो से प्रसन हो कर माघ मास मे
साक्षात रुप मे भगवान विश्वकर्मा ने दर्शन दिये। श्री विश्वकर्मा जी का वर्णन
मदरहने वृध्द वशीष्ट पुराण मे भी है।
माघे शुकले त्रयोदश्यां दिवापुष्पे पुनर्वसौ।
अष्टा र्विशति में जातो विशवकमॉ भवनि च।।
धर्मशास्त्र भी
माघ शुक्ल त्रयोदशी को ही विश्वकर्मा जयंति बता रहे है। अतः अन्य दिवस भगवान विश्वकर्मा
जी की पुजा-अर्चना व महोत्सव दिवस के रुप मे मनाऐ जाते है। ईसी तरह भगवान
विश्वकर्मा जी की जयन्ती पर भी विद्वानों में मतभेद है। भगवान विश्वकर्मा जी की
वर्ष मे कई बार पुजा व महोत्सव मनाया जाता है।
निःदेह यह विषय
निर्भ्रम नहीं है। हम स्वीकार करते है प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तथा त्वष्ठापुत्र विश्वकर्मा आदि
अनेकों विश्वकर्मा हुए हैं। यह अनुसंधान का विषय है। अतः सभी विशवकर्मा मन्दिर व
धर्मशालाऔं, विशवकर्मा जी से सम्भधींत संस्थाऔं, संघ व समितिऔं को प्रस्ताव पारित करके भारत सरकार से मांग जानी
चाहीए की सम्पुर्ण संस्कृत साहित्य का अवलोकन किया जाय, भारत की विभिन्न युनीर्वशटीजो मे इस विष्य पर शौध की जानी
चाहीए, विदेशों में भी खोज की जाय, तथा भारत सरकार विश्वकर्मा वशिंयो का सर्वेक्षण किसी प्रमुख मीडिया एजेन्सी से
करवाऐ। श्रुति का वचन है कि विवाह, यज्ञ , गृह प्रवेश आदि कर्यो मे अनिवार्य रुप से विशवकर्मा-पुजा
करनी चाहिए
विवाहदिषु यज्ञषु गृहारामविधायके।
सर्वकर्मसु संपूज्यो विशवकर्मा इति श्रुतम।।
स्पष्ट है कि
विशवकर्मा पूजा जन कल्याणकारी है। अतएव प्रत्येक प्राणी सृष्टिकर्ता, शिल्प कलाधिपति, तकनीकी ओर विज्ञान के जनक भगवान विशवकर्मा जी की पुजा-अर्चना अपनी व राष्टीय
उन्नति के लिए अवश्य करनी चाहिए।
जगदचक विश्वकर्मन्नीश्वराय नम: ।।
हम अपने प्राचीन
ग्रंथो उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने
विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है । भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कोर्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया गया है । पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है । कर्ण का
कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन
चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है
।
भगवान विश्वकर्मा
ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति करके उन्हे प्राणीमात्र का
सृजन करने का वरदान दिया और उनके द्वारा 84 लाख योनियों को उत्पन्न किया ।
श्री विष्णु भगवान की उत्पत्ति कर उन्हे जगत में उत्पन्न सभी प्राणियों की रक्षा और भगण-पोषण का कार्य सौप दिया । प्रजा का ठीक सुचारु रुप से पालन और हुकुमत करने के लिये एक अत्यंत
शक्तिशाली तिव्रगामी सुदर्शन चक्र
प्रदान किया । बाद में संसार के प्रलय के लिये एक अत्यंत दयालु बाबा भोलेनाथ श्री शंकर भगवान की उत्पत्ति की । उन्हे डमरु, कमण्डल, त्रिशुल आदि
प्रदान कर उनके ललाट पर प्रलयकारी तिसरा नेत्र भी प्रदान कर उन्हे प्रलय की शक्ति देकर शक्तिशाली बनाया । यथानुसार इनके साथ इनकी देवियां खजाने की अधिपति माँ लक्ष्मी, राग-रागिनी वाली वीणावादिनी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देंवों को सुशोभित किया ।
हमारे
धर्मशास्त्रो और ग्रथों में विश्वकर्मा के पाँच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन
प्राप्त होता है ।
- विराट विश्वकर्मा - सृष्टि के रचेता
- धर्मवंशी विश्वकर्मा - महान शिल्प विज्ञान विधाता प्रभात पुत्र
- अंगिरावंशी विश्वकर्मा - आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र
- सुधन्वा विश्वकर्म - महान शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता ऋशि अथवी के पात्र
- भृंगुवंशी विश्वकर्मा - उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र )
देवगुरु बृहस्पति
की भगिनी भुवना के पुत्र भौवन विश्वकर्मा की वंश परम्परा
अत्यंत वृध्द है।सृष्टि के वृध्दि करने हेतु भगवान पंचमुख विष्वकर्मा के सघोजात नामवाले पूर्व मुख से सामना दूसरे वामदेव नामक दक्षिण मुख से सनातन, अघोर नामक पश्चिम मुख से अहिंमून, चौथे तत्पुरुष नामवाले उत्तर मुख से
प्रत्न और पाँचवे ईशान नामक मध्य भागवाले मुख से सुपर्णा की उत्पत्ति शास्त्रो में वर्णित है। इन्ही सानग, सनातन, अहमन, प्रत्न और सुपर्ण नामक पाँच
गोत्र प्रवर्तक ऋषियों से प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस सन्ताने उत्पन्न हुई जिससे विशाल विश्वकर्मा समाज का विस्तार हुआ है ।
शिल्पशास्त्रो के
प्रणेता बने स्वंय भगवान विश्वकर्मा जो ऋषशि रुप में उपरोक्त सभी ज्ञानों का भण्डार है, शिल्पो कें आचार्य शिल्पी प्रजापति ने पदार्थ के आधार पर शिल्प विज्ञान को पाँच प्रमुख धाराओं में विभाजित
करते हुए तथा मानव समाज को इनके ज्ञान से लाभान्वित करने के निर्मित पाणच
प्रमुख शिल्पायार्च पुत्र को उत्पन्न किया जो अयस ,काष्ट, ताम्र, शिला एंव हिरण्य शिल्प के अधिषश्ठाता मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी एंव
दैवज्ञा के रुप में जाने गये । ये सभी ऋषि
वेंदो में पारंगत थे ।
कन्दपुराण के नागर
खण्ड में भगवान विश्वकर्मा के वशंजों की चर्चा की गई है । ब्रम्ह स्वरुप विराट श्री.विश्वकर्मा पंचमुख है । उनके पाँच मुख है जो पुर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऋषियों
को मत्रों व्दारा उत्पन्न किये है । उनके
नाम है – मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ
।
- ऋषि मनु विष्वकर्मा - ये "सानग गोत्र" के कहे जाते है । ये लोहे के कर्म के उध्दगाता है । इनके वशंज लोहकार के रुप मे जानें जाते है ।
- सनातन ऋषि मय - ये सनातन गोत्र कें कहें जाते है । ये बढई के कर्म के उद्धगाता है। इनके वंशंज काष्टकार के रुप में जाने जाते है।
- अहभून ऋषि त्वष्ठा - इनका दूसरा नाम त्वष्ठा है जिनका गोत्र अहंभन है । इनके वंशज ताम्रक के रूप में जाने जाते है ।
- प्रयत्न ऋषि शिल्पी - इनका दूसरा नाम शिल्पी है जिनका गोत्र प्रयत्न है । इनके वशंज शिल्पकला के अधिष्ठाता है और इनके वंशज संगतराश भी कहलाते है इन्हें मुर्तिकार भी कहते हैं ।
- देवज्ञ ऋषि - इनका गोत्र है सुर्पण । इनके वशंज स्वर्णकार के रूप में जाने जाते हैं । ये रजत, स्वर्ण धातु के शिल्पकर्म करते है, ।
परमेश्वर
विश्वकर्मा के ये पाँच पुत्रं, मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी और देवज्ञ
शस्त्रादिक निर्माण करके संसार करते है । लोकहित के लिये अनेकानेक पदार्थ को उत्पन्न करते वाले तथा घर ,मंदिर एवं भवन, मुर्तिया आदि को बनाने वाले तथा
अलंकारों की रचना करने वाले है । इनकी सारी रचनाये लोकहितकारणी हैं । इसलिए ये पाँचो एवं वन्दनीय ब्राम्हण है और यज्ञ कर्म करने वाले है । इनके बिना कोई भी यज्ञ नहीं हो सकता ।
मनु ऋषि ये भगनान
विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र थे । इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था इन्होने मानव सृष्टि का निर्माण किया है । इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि
उत्पन्न हुये है ।
भगवान विश्वकर्मा
के दुसरे पुत्र मय महर्षि थे । इनका विवाह परासर ऋषि की कन्या सौम्या देवी के साथ हुआ था । इन्होने इन्द्रजाल सृष्टि की रचना किया है । इनके कुल में विष्णुवर्धन, सूर्यतन्त्री, तंखपान, ओज, महोज इत्यादि महर्षि
पैदा हुए है ।
भगवान विश्वकर्मा
के तिसरे पुत्र महर्षि त्वष्ठा थे । इनका विवाह कौषिक ऋषि की कन्या जयन्ती के साथ हुआ था । इनके कुल में लोक त्वष्ठा, तन्तु, वर्धन, हिरण्यगर्भ शुल्पी अमलायन ऋषि उत्पन्न हुये है । वे देवताओं में पूजित ऋषि थे ।
भगवान विश्वकर्मा
के चौथे महर्षि शिल्पी पुत्र थे । इनका विवाह भृगु ऋषि की करूणाके साथ हुआ था । इनके कुल में बृध्दि, ध्रुन, हरितावश्व, मेधवाह नल, वस्तोष्यति, शवमुन्यु आदि ऋषि हुये है । इनकी कलाओं का वर्णन मानव जाति क्या देवगण भी नहीं कर पाये है ।
भगवान विश्वकर्मा
के पाँचवे पुत्र महर्षि दैवज्ञ थे । इनका विवाह जैमिनी ऋषि की कन्या चन्र्दिका के साथ हुआ था । इनके कुल में सहस्त्रातु, हिरण्यम, सूर्यगोविन्द, लोकबान्धव, अर्कषली इत्यादी
ऋषि हुये ।
इन पाँच पुत्रो के
अपनी छीनी, हथौडी और अपनी उँगलीयों से निर्मित कलाये दर्शको को चकित कर देती है । उन्होन् अपने वशंजो को कार्य सौप कर अपनी कलाओं को सारे संसार मे फैलाया और आदि युग से आजलक अपने-अपने कार्य को सभालते चले आ रहे है ।
विश्वकर्मा वैदिक
देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका
पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है। आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के
प्रति सम्मान का भाव रहा है। उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक
सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक कहा माना गया है। वह सृष्टि के प्रथम
सूत्रधार कहे गए हैं-
देवौ सौ सूत्रधार:
जगदखिल हित: ध्यायते सर्वसत्वै।
वास्तु के 18 उपदेष्टाओं में विश्वकर्मा को प्रमुख माना गया है। उत्तर ही नहीं, दक्षिण भारत में भी, जहां मय के ग्रंथों की स्वीकृति रही है, विश्वकर्मा के मतों को सहज रूप में लोकमान्यता प्राप्त है।
वराहमिहिर ने भी कई स्थानों पर विश्वकर्मा के मतों को उद्धृत किया है।
विष्णुपुराण के
पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी या देव-बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं। स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल
पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे।
सूर्य की मानव
जीवन संहारक रश्मियों का संहार भी विश्वकर्मा ने ही किया। राजवल्लभ वास्तुशास्त्र में उनका ज़िक्र मिलता है। यह ज़िक्र अन्य ग्रंथों में भी मिलता है। विश्वकर्मा कंबासूत्र, जलपात्र, पुस्तक और ज्ञानसूत्र धारक हैं, हंस पर आरूढ़, सर्वदृष्टिधारक, शुभ मुकुट और वृद्धकाय हैं—
कंबासूत्राम्बुपात्रं
वहति करतले पुस्तकं ज्ञानसूत्रम्।
हंसारूढ़स्विनेत्रं
शुभमुकुट शिर: सर्वतो वृद्धकाय:॥ उनका अष्टगंधादि से पूजन लाभदायक है।
विश्व के सबसे
पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन व रत्नों पर विमर्श है। विश्वकर्माप्रकाश, जिसे वास्तुतंत्र भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के
साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। मेवाड़ में लिखे गए
अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा द्वारा दिए उत्तर
लगभग साढ़े सात हज़ार श्लोकों में दिए गए हैं। संयोग से यह ग्रंथ 239 सूत्रों तक ही मिल पाया है। इस ग्रंथ
से यह भी पता चलता है कि विश्वकर्मा ने अपने तीन अन्य पुत्रों जय, विजय और सिद्धार्थ को भी ज्ञान दिया।
श्री विश्वकर्मा वंशावली
जैसे राम् कृष्णा
आदि ईश्वर के अनेक अवतार पुराणों में वर्णन किये गये है, वैसे ही विश्वकर्मा भगवान के अवतारों का वर्णन मिलता है।
स्कन्द पुराण के काशी खंड में महादेव जी ने पार्वती जी से कहा है
कि हे पार्वती मैं आप से पाप नाशक कथा कहता हूं। इसी कथा में महादेव जी ने
पार्वती जी को विश्वकर्मेश्वर लिगं प्रकट होने की कथा कहते हुए त्वष्टा
प्रजापति के पुत्र के संबंध में कहाः
प्रथम अवतार
विश्वकर्माSभवत्पूर्व ब्रह्मण स्त्वपराSतनुः । त्वष्ट्रः
प्रजापतेः पुत्रो निपुणः सर्व कर्मस ।।
अर्थः प्रत्यक्ष
आदि ब्रह्मा विश्वकर्मा त्वष्टा प्रजापति का पुत्र पहले उत्पन्न हुआ और वह सब
कामों मे निपुण था।
दूसरा अवतार
स्कन्द पुराण
प्रभास खंड सोमनाथ माहात्म्य सोम पुत्र संवाद में विश्वकर्मा के दूसरे अवतार का
वर्णन इस भातिं मिलता है। ईश्वर उचावः
शिल्पोत्पत्तिं
प्रवक्ष्यामि श्रृणु षण्मुख यत्नतः । विश्वकर्माSभवत्पूर्व
शिल्पिनां शिव कर्मणाम् ।।
मदंगेषु च सभूंताः पुत्रा पंच जटाधराः । हस्त कौशल संपूर्णाः पंच ब्रह्मरताः सदा ।।
मदंगेषु च सभूंताः पुत्रा पंच जटाधराः । हस्त कौशल संपूर्णाः पंच ब्रह्मरताः सदा ।।
एक समय कैलाश
पर्वत पर शिवजी, पार्वती, गणपति आदि सब बैठे
थे उस समय स्कन्दजी ने गणपतिजी के रत्नजडित दातों और पार्वती जी के
जवाहरात से जडें हुए जेवरों को देखकर प्रश्न किया कि, हे पार्वतीनाथ, आप यह बताने की कृपा करे कि ये हीरे
जवाहरात चमकिले पदार्थो किसने निर्मित किये? इसके उत्तर में भोलानाथ शंकर ने
कहा कि शिल्पियों के अधिपति श्री विश्वकर्मा की उत्पति सुनो। शिल्प के प्रवर्त्तक विश्वकर्मा पांच मुखों से पांच जटाधरी पुत्र उत्पन्न हुए जिन के नाम मनु, मय, शिल्प,त्वष्टा, दैवेज्ञ थे। यह पांचों पुत्र ब्रह्मा की उपासना में सदा लगें रहतें थे इत्यादि।
तीसरा अवतार
आर्दव वसु प्रभास
नामक को अंगिरा की पुत्री बृहस्पति जी की बहिन योगसिद्ध विवाही गई और अष्टम वसु प्रभाव से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम विश्वकर्मा हुआ जो शिल्प प्रजापति कहलाया इसका वर्णन
वायुपुराण अ.22 उत्तर भाग में दिया हैः
बृहस्पतेस्तु
भगिनो वरस्त्री ब्रह्मचारिणी । योगसिद्धा जगत्कृत्स्नमसक्ता चरते सदा ।।
प्रभासस्य तु सा भार्या वसु नामष्ट मस्य तु । विश्वकर्मा सुत स्तस्यां जातः शिल्प प्रजापतिः ।।
प्रभासस्य तु सा भार्या वसु नामष्ट मस्य तु । विश्वकर्मा सुत स्तस्यां जातः शिल्प प्रजापतिः ।।
मत्स्य पुराण अ.5 में भी लिखा हैः
विश्वकर्मा
प्रभासस्य पुत्रः शिल्प प्रजापतिः । प्रसाद भवनोद्यान प्रतिमा भूषणादिषु । तडागा
राम कूप्रेषु स्मृतः सोमSवर्धकी ।।
अर्थः प्रभास का
पुत्र शिल्प प्रजापति विश्वकर्मा देव, मन्दिर, भवन, देवमूर्ति, जेवर, तालाब, बावडी और कुएं
निर्माण करने देव आचार्य थे।
आदित्य पुराण में
भी कहा है किः
विश्वकर्मा
प्रभासस्य धर्मस्थः पातु स ततः ।।
महाभारत आदि पर्व
विष्णु पुराण औरं भागवत में भी इसका उल्लेख किया गया है।
विश्वकर्मा ऋषि
विश्वकर्मा नाम के
ऋषि भी हुए है। विद्वानों को इसका पूरा पता है कि ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त दिया हुआ है, और इस सूक्त में 14 ऋचायें है इस सूक्त का देवता
विश्वकर्मा है और मंत्र दृष्टा ऋषि विश्वकर्मा है। विश्वकर्मा सूक्त 14 उल्लेख इसी ग्रन्थ विश्वकर्मा-विजय प्रकाश में दिया है। 14 सूक्त मंत्र और
अर्थ भावार्थ सब लिखे दिये है। पाठक इसी पुस्तक में देखे लेंवे। य़इमा विश्वा भुवनानि इत्यादि से सूक्त प्रारम्भ होता है यजुर्वेद 4/3/4/3 विश्वकर्मा ते ऋषि
इस प्रमाण से विश्वकर्मा को होना सिद्ध है इत्यादि।
पाठकगण। वेदों और पुराणों के अनेक प्रमाणों से हम विश्वकर्मा को परमात्मा परमपिता जगतपिर्त्ता, सृष्टि कर चुके तथा विश्वकर्मा के अवतारों को भी
पुराणों से बता चुके है। अब भी कोई हटधमीं करें तो हमारे पास उनका इलाज करने का तरीका भी है। इन टकापन्थी भोजन भट्टों ने बहुत धूर्तता की है। विश्वकर्मा देव की अवेहलना करने से ही इस समय
ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि कष्टमय जीवन
व्यतीत कर रहे है। न इनके पास खुद की उत्पत्ति है यह टकशाली ब्राह्मण यह देख पद्म पुराण के वचनों पर तनिक ध्यान नहीं देते, देखों कितना साफ कहा है। अर्थ विष्णु और विश्वकर्मा में कोई
भेद नही।
विश्वकर्मा अनेक
नामों से विभूषित
जगतकर्ता
विश्वकर्मा भौवन विश्वकर्मा, ऋषि विश्वकर्मा
धर्म ग्रंन्थों में अनेक अवतरण आये है। विषय अनेकानेक नामॆ में
बटा हुआ है विश्वकर्मा ब्राह्मण कर्म है, अर्थात विश्वकर्मा सन्तान कहने का दावा करने वाले तथा अपने को पांचाल शिल्पी ब्राह्मण बताने वाले खरे ब्राह्मण है। यहां हम धर्मग्रन्थों के प्रमामों को देकर अन्त में ग्रथों के
आधार पर भृगु, अंगिरा, मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवेज्ञ
आदि की वंशावली भी सप्रमाण दिखायेंगे।
प्राचीन धर्म
शास्त्रों में
शिल्पज्ञ, विश्वकर्मा ब्राह्मणों को रथकार वर्धकी, एतब कवि, मोयावी, पाँचाल, रथपति, सुहस्त सौर और परासर आदि शब्दों में सम्बोधित किया गया था। उस समय आजकल के सामान लोहाकारों, काष्ठकारों और स्वर्णकारों आदि सभी के अलग-अलग सहस्त्रों जाति भेद नहीं थे। प्राचीन समय में शिल्प कर्म बहुत उंचा समझा जाता था, क्योंकि धर्मग्रंथों की खोज में हमें पता चलता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों ही
वर्ण रथ कर्म अर्थात शिल्प कर्म करतें थे। हम यहां
विश्वकर्मा ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्य विषयक कुछ प्रमाण देने से पूर्व यह उचित समझते है कि रथकार, पाचांल, नाराशस इत्यादि शब्दों के विषय में कुछ थोडा समजझा दें। जिससे आगे को जो धर्म शास्त्रों के प्रमाण हम दिखायेंगे उनमें जब इन शब्दों में से कोई आवे तो हमारे
पाठकों को समझने में कठिनाई न पडें।
रथकार
यह शब्द प्राचीन
धर्मग्रन्थों में अनेक स्थलों पर आया है, और उनकें शिल्पी ब्राह्मण के स्थान में प्रयोग हुआ है। अर्थात लोककार, काष्टकार, स्वर्णकार, सिलावट और ताम्रकार सब ही काम करने वाले कुशल प्रवीण शिल्पी ब्राह्मण का बोध केवल रथकार शब्द से ही कराया गया है, और यही शब्दों वेदों तथा पुराणों में
भी शिल्पज्ञ ब्राह्मणों के लिए लिखा गया है। स्कन्द पुराण नागर खण्ड अध्याय 6 में रथकार शब्द का प्रयोग हुआ हैः
सद्योजाता दि
पंचभ्यो मुखेभ्यः पंच निर्भये ।। विश्वकर्मा सुता होते रथ कारास्तु पचं च ।।
तास्मिन् काले महाभागो परमो मय रुप भाक् ।। पाषणदार कंटकं सौ वर्ण दशकं तदा ।।
काष्ठं च नव लोहानि रथ कृद्यों ददौ विभुः ।। रथ कारास्तदा चक्रुः पचं कृत्यानि सर्वदा ।।
षडदशनाद्य नुष्ठानं षट् कर्मनिरताश्च ये ।।
तास्मिन् काले महाभागो परमो मय रुप भाक् ।। पाषणदार कंटकं सौ वर्ण दशकं तदा ।।
काष्ठं च नव लोहानि रथ कृद्यों ददौ विभुः ।। रथ कारास्तदा चक्रुः पचं कृत्यानि सर्वदा ।।
षडदशनाद्य नुष्ठानं षट् कर्मनिरताश्च ये ।।
अर्थः शंकर बोले
कि हे स्कंन्द, सद्योजात् वामदेव, तत्पुरूष, अधीर और ईशान यह पांच
ब्रह्म सज्ञंक विश्वकर्मा के पांच मुखों से पैदा हुए। इन विश्वकर्मा पुत्रों की रथकार सज्ञां है। अनेक रूप धारण करने वाले उस विश्वकर्मा ने अपने पुत्रों को टांकी आदि दस शिल्प आयुध
अर्थात दस औजार सोना आदि नौ धातु लोहा, लकडीं आत्यादि दिया। उसके यह षटेकर्म करने वाले रथकार सृष्टि कार्य के पंचनिध पवित्र कर्म करने लगे।
रथकार शब्द क
ब्राह्मण सूचक होने के विषय में व्याकरण में भी अष्टाध्यायी पाणिनि सूत्र पाठ सूत्र - शिल्पिनि चा कुत्रः 6/2/76 सज्ञांयांच 6/2/77
सिद्धांत कौमुदी वृतिः- शिल्पि वाचिनि समासे अष्णते ।
परे पूर्व माद्युदात्तं, स चेदण कृत्रः परो न भवति ।
ततुंवायः शिल्पिनि किम- काडंलाव, अकृत्रः किं-कुम्भकारः ।
सज्ञां यांच अणयते परे तंतुवायो नाम कृमिः ।
अकृत्रः इत्येव रथकारों नाम ब्राह्मणः पाणिनिसूत्र 4/1-151 कृर्वादिभ्योण्यः ।
सिद्धांत कौमुदी वृतिः- शिल्पि वाचिनि समासे अष्णते ।
परे पूर्व माद्युदात्तं, स चेदण कृत्रः परो न भवति ।
ततुंवायः शिल्पिनि किम- काडंलाव, अकृत्रः किं-कुम्भकारः ।
सज्ञां यांच अणयते परे तंतुवायो नाम कृमिः ।
अकृत्रः इत्येव रथकारों नाम ब्राह्मणः पाणिनिसूत्र 4/1-151 कृर्वादिभ्योण्यः ।
ब्राह्मण जाति
सूचक अर्थ को बताने वाले जो गोत्र शब्द गण सूत्र में दियें है, वह यह हैः कुरू, गर्ग, मगुंष, अजमार, ऱथकार, बाबदूक, कवि, मति, काधिजल इत्यादि, कौरव्यां, ब्राह्मणा, मार्ग्य, मांगुयाः आजमार्याः राथकार्याः
वावद्क्याः कात्या मात्याः कापिजल्याः ब्राह्मणाः इति सर्वत्र।
तात्पर्य यह है कि
व्याकरण शास्त्र में भी रथकार शब्द को आर्य गोत्र, ब्राह्मण जाति बोधक सिद्ध किया हुआ है और उसका उदाहरण भी
रथकारों नाम ब्राह्मण दिया है। जिससे सिद्ध किया गया है कि रथकार
शब्द ब्राह्मण जाति बोधक है क्योकिं- रथं करोतिं इति रथकारः। अर्थात रथ
निर्माण करने वाले ब्राह्मण का बोध प्राचीन ग्रथों में रथकार शब्द से होता है।
यहां यह भी लिख देना जरूरी जान पडतां है कि स्मृतियों में रथकार एक
संकीर्ण जाति को भी लिखा है, परन्तु जहां पवित्र देव शिल्प आदि का वर्णन आता है।वहां
शिल्पी ब्राह्मण संतति रथकार का ही मतलब होता है। आपको रतकार विषय
में शास्त्र के मन्त्र और रथकार का प्राचीन समय में जो मान, समान्न प्रतिष्ठा थी उस समय विश्वकर्मा का रथकार रूप विस्तृत था। राजे महाराजा सभी विश्वकर्मा रथकारों को आदर देते थे क्योंकि कलाकार राष्ट्रं के निर्माण करने मे
अग्रसर रखतें थे यह ब्राह्मण वर्ग रथकारों में था।
पांचाल
रथकार शब्द के
विषय के नमूने के तौर पर ऊपर उदाहरण देकर बता चुके है। अब इसी भातिं एक दो उदाहरण पांचाल शब्द के विषय में भी देकर बतावेंगे कि विश्वकर्मा ब्राह्मणों को प्राचीन धर्म ग्रन्थों में
पांचाल भी कहा गया है। बराह पुराण में कहा हैः
पांचाल
ब्राह्मणेति हासः कथं ।। तत्र सुवर्णालंकार वाणिज्यों प जीविनः पांचाल ब्राह्मणा
।।
शैवागम में कहा
हैः
पंचालाना च
सर्वेषामा चारोSप्य़थ गीयते । षट् कर्म विनिर्मित्यनी पचांलाना स्मुतानिच ।।
रूद्रयामल वास्तु
तन्त्र में शिवाजी महाराज ने कहा किः
शिवा मनुमंय
स्त्वष्टा तक्षा शिल्पी च पंचमः ।। विश्वकर्मसुता नेतान् विद्धि प्रवर्तकान् ।।
एतेषां पुत्र पौत्राणामप्येते शिल्पिनो भूवि ।। पंचालानां च सर्वेषां शाखास्याच्छौन कायनो ।।
पंचालास्ते सदा पूज्याः प्रतिमा विश्वकर्मणः ।। रूद्रवामल वास्तु तन्त्र व्रत्यादि ।।
एतेषां पुत्र पौत्राणामप्येते शिल्पिनो भूवि ।। पंचालानां च सर्वेषां शाखास्याच्छौन कायनो ।।
पंचालास्ते सदा पूज्याः प्रतिमा विश्वकर्मणः ।। रूद्रवामल वास्तु तन्त्र व्रत्यादि ।।
उपरोक्त प्रमाणों
में पाचांल शब्द का प्रयोग विश्वकर्माके स्थान में किया गया है। अर्थात् रथकार और पांचाल दोनों शब्द विश्वकर्मा ब्राह्मण बोधक ही है।
स्थापत्य
यज्ञ कर्म और देव
कर्म संबंधी कर्म में कहीं कहीं विश्वकर्मा पाचांल ब्राह्मण की सज्ञां स्थापत्य भी कही गई है। जैसे भागवत स्कन्द 3 में स्थापत्य
विश्वकर्म शास्त्र लिखा है, इसका यही अर्थ है कि यज्ञ सम्बधी और देव संबधी पवित्र शिल्प कर्म करने वाले विश्वकर्मा सन्तान ब्राह्मण है। इसकी पुष्टि अमर कोष के प्रमाण से भी होती है।
देखो - अमर कोष अ.
ब्रह्मवर्ग - सगींष्प तोष्टय्या स्थपतिः
अर्थः बृहस्पति
सज्ञंक इष्ट अर्थात् बृहस्पति सज्ञां वाले यह कर्म करने वाले बृहस्पति गुरू को कहते है और दूसरे बृहस्पति विश्व-कर्म कुलोत्पन्न शिल्पाचार्य हुए है।
नाराशंस
अंगिरा महर्षि को
ऋग्वेद में नाराशंस कहा है इसका प्रमाण ऋग्वेद अ. 8/2/1 मे देखो - नराः अगिंरसः महर्षयः मनुष्य जाता वुत्पन्नत्वात् ते शंस्यते
इति नाराशंसः।
बौधायन श्रौत्
सूत्र के महा प्रवराध्याय में भी लिखा है - वसिष्ट शुनिकात्रि
भृगु कण्व वाघ्रश्चाधूल राजन्य वैश्य इति नाराशंसः ।।
गोत्र प्रवर दर्पण
में भी यह शब्द पाया जाता है - भृगु गणे
त्वष्टयाः अग्ने नाराशंसान् व्याख्या स्यामः। वशिष्ठ शुनकात्रिभृगु काण्व
बाघ्रश्चाधूल इति ।।
नाराशंस शब्द पितर
सज्ञां में भी प्रयुक्त हुआ है। देखो ऋग्देव अध्याय 8/1/16/3 - मनोन्वा हुवामुहे नाराशंसेन सोमेने ।।
भाष्य - नरेः शस्यते इति नाराशंसः पितरः ।।
आश्वलायन श्रौत
सूत्र में भी नाराशंस का प्रयोग मिलता है। देखो सूत्र 5/6/30 - आप्यायिताश्चिमतान् सादयंति ते नाराशंस भवति ।।
उपरोक्त अनेक
प्रमाण हमने रथकार पांचाल, रथापत्य और नाराशंस शब्दों के प्रयोग को जिखाकर यह सिद्ध किया हा कि यह सब जहां कही भी धर्म ग्रन्थों में भी लिखे गये है। वहा वह शिल्पी ब्राह्मणों के बोधक है।
अब आगे हम यह सिद्ध करके दिखोयेगें कि विश्वकर्मा वंश के ब्राह्मण होने
के और भी अनेक प्रमाण सनातनी धर्म ग्रन्थों मे खोजने से मिले सकते है।
उपरोक्त ऱथकार, पांचाल, रथकार, नाराशंस यह सब स्तंभ प्रमाण सग्रंह अर्थात विश्वकर्म - ब्राह्मण - भास्कर से संग्रहीत किए है। यह पुस्कत स्वः
जयकृष्ण मणिठिया, शर्मा, गुरूदेव की
सग्रंहीत है जिसे विश्वकर्मा-विजय-प्रकाश में कई स्तम्भ संग्रहीत कर प्रकाशित किये है।
भृगु ऋषि कुल
वायु पुराण अध्याय
4 के पढने से यह बात सिद्ध हो जाती है कि वास्तव में
विश्वकर्मा सन्तान भृगु ऋषि कुल उत्पन्न है देखों लिखा हैः
भार्ये भृगोर
प्रतिमे उत्तमेSभिजाते शुभे ।। हिरण्य कशिपोः कन्या दिव्यनाम्नी परिश्रुता
।।
पुलोम्नश्चापि पौलोमि दुहिता वर वर्णिनी ।। भृगोस्त्वजनयद्विव्या काव्यवेदविंदा वरं ।।
देवा सुराणामाचार्य शुक्रं कविसुंत ग्रहं ।। पितृंणा मानसी कन्या सोमपाना य़शस्विनी ।।
शुक्रस्य भार्यागीराम विजये चतुरः सुतान् ।। ब्राह्मणे मानसी कन्या सोमपाना यशस्विनीः ।।
तस्या मेव तु चत्वार पुत्राः शुक्रस्य जज्ञिर ।। त्वष्टावरूपी द्वावेतौ शण्डामर्कोतु ताबुभो ।।
ते तदादित्य सकाया ब्रह्मकल्पा प्रभावतः ।।
पुलोम्नश्चापि पौलोमि दुहिता वर वर्णिनी ।। भृगोस्त्वजनयद्विव्या काव्यवेदविंदा वरं ।।
देवा सुराणामाचार्य शुक्रं कविसुंत ग्रहं ।। पितृंणा मानसी कन्या सोमपाना य़शस्विनी ।।
शुक्रस्य भार्यागीराम विजये चतुरः सुतान् ।। ब्राह्मणे मानसी कन्या सोमपाना यशस्विनीः ।।
तस्या मेव तु चत्वार पुत्राः शुक्रस्य जज्ञिर ।। त्वष्टावरूपी द्वावेतौ शण्डामर्कोतु ताबुभो ।।
ते तदादित्य सकाया ब्रह्मकल्पा प्रभावतः ।।
अर्थः हिरण्यकश्यप
की बेटी दिव्या और पुलोमी की बेटी पौलीमी उत्तम कुलीन, यह दोनों मृग ऋषि को विवाही गई। दिव्या नाम वाली स्त्री के
गर्भ से शुक्राचार्य पैदा हुए। सोम्य पितरों की मानसी कन्या अगीं
नाम वाली शुक्राचार्य को विवाही गई। शुक्राचार्य जी के सूर्य के समान
ब्रह्म तेज वाले त्वष्टा, वस्त्र, शंड और अर्मक यह पुत्र पैदा हुए, इन चारो मे त्वष्टा ब्रह्म तेज से
विशेष सुक्त था । अर्थात त्वष्टा में ब्रह्म तेज अधिक था। पाठक गण इससे स्पष्ट है कि त्वष्टा भृगु कुल मे पैदा हुआ और ब्राह्मण था, ब्राह्म तेज की विशे,ता ब्राह्मणत्व को
साफ बता रही है। अब इसी कुल में त्वष्टा से
विश्वकर्मा का जन्म सुनों।
त्रिशिरा
विश्वरूपस्तु त्वष्टाः पुत्राय भवताम् ।। विस्वरूपानुजश्चापि विश्वकर्मा प्रजापतिः
।।
अर्थः त्वष्टा
प्रजापति के त्रिशिरा जिसका नाम विश्वरूप था बडा पराक्रमी औऱ उसका भाई विस्वकर्मा प्रपति यह दो पुत्र इसी विश्वकर्मा प्रजपति के विषय में स्कन्द पुराण रे प्रभास खंड में यह
लिखा है।
विश्वकर्म महदभूतं
विश्वकर्माणाम् मदंगेषु च सम्भूताः ।। पुत्रा पचं जटाधराः हस्त कौशल सम्पूर्णाः
पंच ब्रह्मरताः सदा ।।
अर्थः शिल्पियों में विश्वकर्मा बडा महान हुआ, जिसके पांच जटाधारी पुत्र हुए। इन्ही विश्वकर्मा के पांच पुत्र मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवज्ञ
का वायु पुराण अध्याय, 4 में उल्लेख किया हुआ है इन्हीं पाचं पुत्रों की सतांन जो हुई वह सब भृगु कुलोत्पन्न विश्व-ब्राह्मण या पांचाल ब्राह्मण कहलाई।
पाठकगण ध्यान दें
कि उपरोक्त विदित वंश बिलकुल साफ-सुथरा और खरा है। इसमें कोई अण्ड-बण्ड ऐसी उत्पत्ति नहीं है। जैसा कि इस पुस्तक की भूमिका में हम अकसाली ब्राह्मणों की उत्पत्ति जाति भास्कर और
ब्राह्मणोंत्पत्ति मार्तण्ड के अधार पर दिखा चुके है। पाठको की जानकारी के लिए
हम यहां भृगु कुल में उत्पन्न हुए सब ही ऋषियों का उत्पत्ति क्रमानुसार
दिखाते है।
इस कुल में भृगु, च्यवन, दिवोदास और
गृत्समद और शौनक यह वेद मत्रं के द्रष्टा हुए है।
भृगुः ब्रह्मदेव का मानस पुत्र क् शाप से मर गये तब ब्रह्मदेव ने उनको फिर उत्पन्न किया और वह वरूण के यज्ञ
में अग्नि से उत्पन्न हुए और वरूण ने इनको अपना पुत्र ग्रहण किया। इसी
कारण यह वारूणी भृगु के नाम से प्रसिद्ध हुए। विशेष जिसे देखना हो
वायुपुत्र अ. 4 मत्स्य पुराण अ.252 महाभारत अनुशासन पर्व अ.85 निरूक्त दैवज्ञ कांड भाग पृ. 193 औऱ भारत वर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में देख सकतें है।
भार्गवः भृगु ऋषि के पुत्र सुक्राचार्य का ही नाम भार्गव है।यह देवों और दत्यों के दोनों के ही पुरोहित
अर्तात् आचार्य थे। इन्होंने शिल्प
शास्त्र का ओशनस नामक ग्रंथ भी लिखा है। वायु पुराण और बृहत्संहिता अ.50 में विशेष रूप से देख सकतें हैं।
त्वष्टाः शुक्राचार्य के चार पुत्रों में सें थे। इनमें अधिक
ब्रह्मतेज था। विश्वरूप और विश्वकर्माइनके दो पुत्र थे।
शौनकः यह शुनक ऋषि के पुत्र और ऋग्वेद के द्रष्टा ऋषि थे। पांचालो
की शौन कायनी शाखा इन्हीं से चली है।
उपरोक्त सब ही ऋषि
शिल्प कार्य करते थे। गोत्र प्रवर दीपिका में इस भृगु कुल के गोत्र प्रवर इस
प्रकार दिये है।
भृगु ऋषि - भार्गव, च्यवन,, देवो दासेति।
वाध्न्यस्वा -
भार्गव, वाध्न्यश्वा, देवो दासेति।
भार्गव - भार्गव, त्वष्टा, विश्वरूपेति।
वाधूल - भार्गव, वैतहव्य,सावेतसेति।
शुनक - शौनक, भार्गव, शौन हौत्र
गार्त्समदप्ति।
किसी किसी
ग्रन्थकार जैसे बोधयन नामक सूत्रकार ने वरिष्ठ शुनक अत्रि, भृगु, कण्व, वाध्न्यश्वा, वाधूल,यह गोत्र बी नाराशंस पांचालों के आर्षेय गोत्र लिखे है।
केवल आंगिरस कुल
के प्रसिद्ध ऋषि
उपरोक्त अगिंरा
वशांवली दी गई है, यह प्रमाण-सग्रंह से उधृत है। अगिंरा ऋषि ब्रह्मा, के मुख से उत्पन्न हुय़े। इनका वर्णन वेद, ब्राह्मण ग्रथं, श्रुति, स्मृति, रामायण, महाभारत और सभी
पुराणों में उल्लेख है। अगिंरा कुल परम
श्रेष्ठ कुल है।
अंगिरा
अंगिरा ऋषि के
विषय में मत्स्य पुराण, भागवत, वायु पुराण
महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है।
मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है। भागवत का कथन
है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए। महाभारत अनु पर्व
अध्याय 83 में कहा गया है कि
अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है। ऋग्वेद 10-14-6 मे कहा है किः
अमगिरासों नः
पितरो नवग्वा अर्थर्वाणो भृगबः सोम्यासः। तेषां वयं सुभतौं यज्ञियानामपि भद्रे
सौमनसः स्यामः।।
अर्थः जिसके कुल
में भरद्वाज, गौतम और अनेक महापुरूष उत्पन्न हुए ऐसे जो अग्नि के पुत्र महर्षि अंगिरा बडे भारी विद्वान हुए है उनके वशं को सुनों। अंगिरस देव धनुष और बाण धारी थे, उनको ऋषि मारीच की बेटी सुरूपा व कर्दम ऋषि की बेटी स्वराट् और मनु ऋषि कन्या पथ्या यह तीनों विवाही गई। सुरूमा के गर्भ से बृहस्पति, स्वराट् से गौतम, प्रबंध, वामदेव उतथ्य और उशिर यह पांछ पुत्र जन्में, पथ्या के गर्भ से विष्णु संवर्त, विचित, अयास्य असिज, दीर्घतमा, सुधन्वा यह सात
पुत्र उत्पन्न हुए। उतथ्य ऋषि से शरद्वान, वामदेव से बृहदुकथ्य उत्पन्न हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि विभ्मा और बाज यह तीन पुत्र हुए। यह ऋषि पुत्र हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि
विभ्मा और बाज यह तीन पुत्र हुए। यह ऋषि पुत्र ऱथकार में बडें कुशल देवता थे, तो भी इनकी गणना ऋषियों में
की गई है। बृहस्पति का पुत्र महा य़शस्वी भरद्वाज हुआ, यह सब अंगिरा भृगु आदि
द्व शिल्प के निर्माण वाले रथकार नाम से प्रसिद्ध हुए। इसमे स्पष्ट सिद्ध हो गया की प्राचीन काल में शिल्पी ब्राह्मणों रथकार भी कहा करते थे और रथकार शब्द ब्राह्मण जाति बोधक है,इस विषय में हम पूर्व पर रथकार शब्द को
व्याकरण की कसौटि पर कसकर ब्राह्मण बोधक सिद्ध कर चुके है।
महाभारत अमुसाशन
पर्व अध्याय पर्व अध्याय 83 में अंगिरा ऋषि के आठ पुत्रों की आग्नेय सज्ञां होने के
विषय में यह उल्लेख हैः
अष्टौ चांगिरसः
पुत्राः आग्नेयास्तेSप्युवाह्रताः। बृहस्पतिरूतथ्यश्य पयस्यः शांतिरेवच। धोरो
विरूपः संर्वतः सुधन्वा चाष्टमः स्मृतः।
श्री विश्वकर्मा भगवान की प्रात: कालीन स्तुति
श्री विश्वकर्मा विश्व के भगवान सर्वाधारणम् । शरणागतम् शरणागतम् शरणागतम् सुखाकारणम् ।।
कर शंख चक्र गदा मद्दम त्रिशुल दुष्ट संहारणम् । धनुबाण
धारे निरखि छवि सुर नाग मुनि जन वारणम् ।।
डमरु कमण्डलु पुस्तकम् गज सुन्दरम् प्रभु धारणम् । संसार
हित कौशल कला मुख वेद निज उच्चारणम् ।।
त्रैताप मेटन हार हे ! कर्तार कष्ट निवारणम् । नमस्तुते जगदीश जगदाधार ईश
खरारणम् ।।
सर्वज्ञ व्यापक सत्तचित आनंद सिरजनहारणम् । सब करहिं स्तुति
शेष शारदा पाहिनाथ पुकारणम् ।।
श्री विश्वपति भगवत के जो चरण चित लव लांइ है । करि विनय
बहु विधि प्रेम सो सौभाग्य सो नर पाइ है ।।
संसार की सुख सम्पदा सब भांति सो नर पाइ है । गहु शरण जाहिल
करि कृपा भगवान तोहि अपनाई है ।।
प्रभुदित ह्रदय से जो सदा गुणगान प्रभु की गाइ है । संसार
सागर से अवति सो नर सुपध को पाइ है ।।
हे विश्वकर्मा विश्व के भगवान सर्वा धारणम् । शरणागतम् ।
शरणागतम् । शरणागतम् । शरणागतम् ।।
श्री विश्वकर्मा भगवान की मुरति अजब विशाल । भरि निज नैन
विलोकिये तजि नाना जंजाल ।।
आरती
गाऊं जगदीश हरी को । विश्वकर्मा स्वामी परम श्री की ।
तन मन धन सब अर्पण तेरे । करो वास हिये मेँ प्रभु मेरे ।
शिव विरंची तुमरे गुण गावें । घनश्याम राम सिया मां ध्यावें
। 1 ।
कलियुग में कर साधन कीन्हां । चतुरानन वेद पढयो मुनि चारा ।
शिल्प कला शुभ मार्ग दीन्हा । साम यजु ऋग शिल्प भडारा । 2 ।
विश्वकर्मा नाम सदा अविनाशी । अगम अगोचर घट घट वासी ।
कल्पतरु पद सब सुख धामा । सत्य सनातन मुद मगंल नामा । 3 ।
करें अर्चन सुमरण पूजा किसकी । नहीं तुम बिन दूजा करे आसा
जिसकी ।
विषय विकार मिटाओ मन के । दुख व्याधा रोग कटें तब तन के । 4 ।
माता पिता तुम शरणा गत स्वामी । तुम पूरण प्रभु नित्य
अन्तर्यामी ।
हम पावन पाठ करेंहिं चितलाई । करो संकट नाश सदा सुख दाई । 5 ।
परम विज्ञानी सत्य लोक निवासी । देव तनु धर आयो ,ख राशी ।
तुम बिन जग में कौन गोसाँई । विश्वप्रताप की अब जो करे सहाई
। 6 ।
आरती पंच मुखी विश्वकर्मा की
ओ3म् जय पंचानन देवा , प्रभु जय पंचानन देवा
। ब्रह्मा विष्णु शंकर आदि करते नित्य सेवा ।1।
भव मय त्राता जगत विधाता, मुक्ति
फल दाता । स्वर्ण सिहासन मुकुट शीश चहूँ, सबके मन भाता ।2।
प्रभात पिता भवना (माता) विश्वकर्मा स्वामी । विज्ञान शिल्प
पति जग मांहि, आयो अन्तर्यामी ।3।
त्रिशुल धनु शंकर को दीन्हा,
विश्वकर्मा भवकर्ता । विष्णु महल रचायो तुमने, कृपा
करो भर्ता ।4।
भान शशि नक्षत्र सारे, तुम से ज्योति पावें ।
दुर्गा इन्र्द देव मुनि जन, मन देखत हर्षावें ।5।
श्रेष्ठ कमण्डल कर चक्तपाणी तुम से त्रिशुल धारी । नाम
तुम्हारा सयाराम और भजते कुँज बिहरी ।6।
नारद आदि शेष शारदा, नुत्य गावत गुण तेरे ।
अमृत घट की रक्षा कीन्ही, जब देवों
ने टेरे ।7।
सिन्धु सेत बनाय राम की पल में करी सहाई । सप्त ऋषि दुख
मोचन कीन्हीं, तब शान्ति पाई ।8।(तब)
सुर नर किन्नर देव मुनि, गाथा नित्य गाते । परम
पवित्र नाम सुमर नर, सुख सम्पति पाते ।9।
पीत वसन हंस वाहन स्वानी, सबके
मन भावे । सो प्राणी धन भाग पिता,
चरण शरण जो आवे ।10।
पंचानन विश्वकर्मा की जो कोई आरती गावे । निश्वप्रताप, दुख
छीजें
सारा सुख सम्पत आवे ।11।
ओ3म् जय पंचानन स्वामी प्रभु पंचानन स्वामी । अजर अमर अविनाशी, नमो
अन्तर्यामी ।
चतुरानन संग सात ऋषि, शरण आपकी आये । अभय
दान दे ऋषियन को, सार कष्ट मिटाये ।1।
निगम गम पथ दाता हमें शरण पडे तेरी । विषय विकार मिटाओ सारे, मत
लाओ देरी ।2।
कुण्डल कर्ण गले मे माला इस वाहन सोहे । जति सति सन्यासी जग
के, देख ही मोहे ।3।
श्रेष्ठ कमण्डल मुकमट शीश पर तुम त्रिशूल धारी । भाल विशा
सुलोचन देखत सुख पावँ
नरनारी ।4।
देख देख कर रुप मुनिजन, मन ही मन रीझै । अग्नि
वायु आदित्य अंगिरा, आनन्द रस पीजै ।5।
ऋषि अंगिरा कियो धारे तपस्या, शान्ति
नही पाई । चरण कमल का दियो आसय,
तब सब बन आई ।6।
भक्त की जय कार तुम्हारी विज्ञान शिल्प दाता । जिस पर हो
तेरी दया दृष्टि भव सागर तर जाता ।7।
ऋषि सिर्फ ज्ञान विधायक जो शरण तुम्हारी आये । विश्वप्रताप
दुख रोग मिटे, सुख सम्पत पावे ।8।
ओ3म् जय विश्वकर्मा हरे जय विश्वकर्मा हरे । दीना नाथ शरण गत
वत्सलभव उध्दार करे ।1।
भक्त जनों के समय समय पर दुख संकट हर्ता । विश्वरुप जगत के
स्वामी तुम आदि कर्ता ।2।
ब्रह्म वशं मे अवतार धरो, निज
इच्छा कर स्वामी । प्रभात पिता महतारी भूवना योग सुता नामी ।3।
शिवो मनुमय त्वष्टा शिल्पी दैवज सुख दाता । शिल्प कला मे
पांच तनय, भये ब्रह्म ज्ञाता ।4।
नारद इन्द्रशेष शारदा तव चरणन के तेरे । अग्नि वायु आदित्य
अंगिरा, गावें गुण तेरे ।5।
देव मुनि जन ऋषि महात्मा चरण शरण आये । राम सीया और उमा
भवानी कर दर्शन हर्षाये ।6।
ब्रह्मा विष्णु शंकर स्वमी, करते
नित्य सेवा । जगत प्राणी दर्श करन हित, आस करें देवा ।7।
हेली नाम विप्र ने मन से तुम्हारा गुण गाया । मिला षिल्प
वरदान विप्र को, भक्ति फल पाया ।8।
अमृत घट की रक्षा कीन्ही, सुर
भय हीन भये । महा यज्ञ हेतु इन्द्र के घर, बन के गुरु गये ।9।
पीत वसन कर चक्र सोहे. महा वज्र धारी । वेद ज्ञान की बहे
सरिता, सब विध सुखकारी ।10।
हम अज्ञान भक्त तेरे तुम सच्चे हितकारी । करो कामना सब की
पूर्ण, दर पर खडे भिकारी ।11।
विश्वकर्मा सत्गुरु हमारे, कष्ट
हरो तन का । विश्वप्रताप शरण सुख राशि दुख विनेश मन का ।12।
ओ3म् जय विश्वकर्मा प्रभु जय विश्वकर्मा । शरण तुम्हारी आये
हैं, रक्षक श्रुति धर्मा ।
उमा भवानी शंकर भोले, शरण तुम्हारी आये ।
कुंज बिहारी कृष्ण योगी, दर्शन करने धाये ।1।
सृष्टि धर्ता पालन कर्ता, ज्ञान
विकास किया । धनुष बना छिन माहिं तुमने, शिवाजी हाथ दिया ।2।
आठ व्दीप नौ खण्ड स्वामी, चौदह
भुवन बनायें । पंचानन करतार जगत के, देख सन्त हर्षाये ।3।
शेष शारदा नारद आदि देवन की करी सहाई । दुर्गा इन्द्र सीया
राम ने निज मुख गाथा गाई ।4।
ब्रह्म विष्णु विश्वकर्मा तूं शक्ति रुपा । जगहितकारी सकंट
हारी , तुम जग के भूपा ।5।
ज्ञान विज्ञान निधि दाता त्वष्टा भुवन पति । अवतार धार के
स्वामी तुमने जग में कियो गति । 6।
मनु मय त्वष्टा पाँच तनय, ज्ञान
शिल्प दाता । शिल्प विधा का आदि युग में, तुम सम को ज्ञाता ।7।
मन भावन पावन रुप स्वामी ऋषियों ने जाना । पीत वसन तन सोहे स्वामी, मुक्ति पद बाना ।8।
विश्वकर्मा परम गुरु की जो कोई आरती गावै । विश्वप्रताप
सन्ताप मिटै, घर सम्पत आवै ।9।
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