।। अमृतवाणी ।।
स्वामी रामसुखदास जी महाराज
।। अमृतवाणी ।।
स्वामी रामसुखदास जी महाराज
नारायण! नारायण! नारायण! नारायण! नारायण!
राम राम राम राम राम रामराम राम राम राम राम
ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि
ईश्वर के अंश होने के कारण हम परम आनंद को पाने के अधिकारी हैं, चेतना के उस दिव्य स्तर तक पहुंचने के अधिकारी हैं जहाँ विशुद्ध प्रेम, सुख, ज्ञान, शक्ति, पवित्रता और शांति है. सम्पूर्ण प्रकृति भी तब हमारे लिये सुखदायी हो जाती है. इस स्थिति को केवल अनुभव किया जा सकता है यह स्थूल नहीं है अति सूक्ष्म है परम की अनुभूति अंतर को अनंत सुख से ओतप्रोत कर देती है, और परम तक ले जाने वाला कोई सदगुरु ही हो सकता है. सर्व भाव से उस सच्चिदानंद की शरण में जाने की विधि वही सिखाते हैं. हम देह नहीं हैं, देही हैं, जिसे शास्त्रों में जीव कहते हैं. जीव परमात्मा का अंश है, उसके लक्षण भी वही हैं जो परमात्मा के हैं. वह भी शाश्वत, चेतन तथा आनन्दस्वरूप है.
स्वामी रामसुखदास
स्वामी राम सुखदास जी महाराज: स्वामी राम सुखदास जी महाराज भारतवर्ष के अत्यन्त उच्च कोटि के विरले वितरागी सन्यासी थे। उनका जन्म श्री रूघाराम जी पिडवा ग्राम माडपुरा जिला नागौर के यहाँ माघ शुक्ला त्रियोदशी सन 1904 मे हुआ। उनकी माता कुन्नीबाई के सहोदर भ्राता श्री सद्दाराम जी रामस्नेही सम्प्रदाय के साधु थे।
सात वर्ष की आयु मे ही माताजी ने राम सुखदासजी को इनके चरणो मे भेट कर दिया। उसी समय स्वामी कान्हीराम जी गांव चाडी ने आजीवन शिष्य बनाने के लिए आपको मांग लिया। शिक्षा दीक्षा के पश्चात वे सम्प्रदाय का मोह छोडकर सन्यासी हो गये और उन्होंने गीता में मर्म को साक्षात् किया और अपने प्रवचनो से निरन्तर अमृत वर्षा करने लगे। गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा संचालित समस्त साहित्य का आप वर्षो तक संचालन करते रहे।
वस्तुत: गीताप्रेस के तीन कर्णाधार श्री जयदयाल गोयन्दका, हनुमान प्रसाद पोद्दार तथा स्वामी रामसुखदास जी महाराज है। प्राचीन ऋषि परम्परा को पुनर्जीवित करने वाले त्यागी, तपस्वी, निस्पृही सन्यासी है। स्वामी रामसुख दासजी महाराज मिति आषाढ कॄष्ण 11 को रात्रि बिताकर 2/7/2005 को प्रात: लगभग 3 बजकर 40 मिनिट पर स्वर्ग सिधार गये।
सबका कल्याण हो यह भाव रखे
चाहे जितना लाभ उठावो सीमा ही नहीं|
प्रश्न- मुक्तिसे भी क्या ज्यादा लाभ मिल सकता है ?
उत्तर- हाँ मिल सकता है| जब तक संसारमें एक भी जीव है तब तक लाभ उठाया जा सकता है| अपनी आत्मा की उन्नति कर लेना उन्नति का अंत नहीं हो गया| न पतनका अंत है, न उन्नतिका| उन्नतिका अंत है जब सबका कल्याण हो जाये|
अच्छी भावना का बुरा फल होता ही नहीं, इसलिए अच्छी भावना करनी चाहिए| नामदेवजी ने कुत्ते में भगवान की भावना की तो कोई बुरा फल नहीं हुआ| भोग्बुद्धि पतन करनेवाली चीज़ है, इश्वर्बुद्धि नहीं| प्रह्लादने खम्बे में भगवानकी भावना की तो भगवान प्रकट हो गए| यह भावना का फल है| परमात्माकी प्राप्ति कराने की अपने में शक्ति ना होते हुए भी, कहीं परमात्मा की प्राप्ति कराने के लिए भगवान अपनेको निमित्त बनावे तो ना भी ना करे|
इस प्रकार जो आदमी अपनी शक्ति ना समझे की मैं कीसीका कल्याण कर सकता हूँ| और जो यह अभिमान रखता है की मैं दुसरे को परमात्मा की प्राप्ति करा सकता हूँ, वह तो नहीं करा सकता| जो यह समझता है मैं नहीं करा सकता, अगर दूसरा आदमी उसपर आरोपण करता है की यह परमात्मा की प्राप्ति करा सकता है, इस प्रकार निमित्तमात्र उसे कोई बना ले तो बन लो| एक तो निमित्तमात्र की यह बात है की भगवान अपनेको इसके लिए निमित्त बनावे की दूसरों को अपनी प्राप्ति के लिए निमित्त् बनाते हैं तो मना नहीं करें|
दूसरी बात है की भगवान अपने को निमित्त नहीं बनावे तो इस काम में अपने निमित्त बन जाना चाहिए और मानले की भगवान ने ही हमें निमित्त बनाया है| भगवान कहें मैंने तो तुमको यह पदवी दी नहीं, तो कहें की आपने दी नहीं, हमने जबरदस्ती छीन ली| जैसे कोई आदमी मरनेवाला हो वह अपने को निमित्त बनाकर भजन-ध्यान सुनना चाहे, या वह नहीं बुलावे तो अपने ही चलकर कहो की, कीर्तन सुनावे? गीताजी सुनावें? वह कहें सुनावो इस जगह अपने निमित्त बने| इस प्रकार की ४-५ जगह युक्ति लगाईं और १ आदमी की भी मुक्ति हो गयी तो अपना तो जीवन सफल हो गया| मनुष्य का जीवन तो कल्याण करने के लिए मिला था| अपने अपना कल्याण नहीं कर सके और दूसरेका कल्याण कर दीया तो अपनेको धोखा नहीं मानना चाहिए की अपना कल्याण नहीं हुआ|
कोई कहें आपमें कल्याण करने की शक्ति है तो इस बातको स्वीकार नहीं करें| कोई पूछे की आप भगवान की प्राप्ति करा सकते हो क्या? तो कहें नहीं, मेरा सामर्थ्य नहीं है, इश्वर की कृपा से हो सकती है| कोई पूछे की परमात्मा की प्राप्ति का पात्र किस प्रकार होऊ? तो उसे कहें की परमात्मा की शरण हो जाओ| उसे बता देवे की ऐसे-ऐसे शरण होना चाहिए| यह निमित्त बनना हुआ| अपनी शक्ति मानकर निमित्त मत बनो |
वह कहें की हमें तो आपने ही परमात्माकी प्राप्ति करा दी, तो वह कहता रहे, उसपर ध्यान मत दो| एक आदमी गाली देता है और एक प्रशंसा करता है, दोनों की मत सुनो|
भगवान के ध्यान में मृत्यु हो तोह आनंद-ही-आनंद है
प्रश्न – शान्ति किसके मन में होती है ?
उत्तर – जिसके विक्षेपों का नाश हो गया है| विक्षेपों के अभाव से चित्त में निर्मलता होती है – उसीको शान्ति मिलती है| अत: सारी इछाओ का त्याग करना और किसीभी वस्तु की इच्छा ना करना| आत्मा ही महात्मा है| अपनी आत्मासे पूछे की क्या चाहते हो ? तो उत्तर मिले की – कुछ नहीं| ऐसी अवस्था में मृत्यु हो जावे तो बस कल्याण है| मृत्यु को तो निमंत्रण देवें – एक समय मृत्यु तो होगी ही – परमात्मा के ध्यान में मृत्यु होवे तो आनंद-ही-आनंद है|
तत्काल मुक्ति चाहिए तो मरणासन्न व्यक्ति को भगवन्नाम सुनावें
मरनेवाली की खबर सुनकर तत्काल कीर्तन आदि की व्यवस्था करनी चाहिए| हरएक मनुष्य को एक क्षण मुक्ति के लिए मिलता है| यदि वैसा क्षण चाहिए तो मरनेवाले के कीर्तन के लिए शामिल हो जाओ| जितने कीर्तन सुनानेवाले शामिल हुए सब मुक्ति के अधिकार के हो गए| जब किसी की हत्या करनेके लिए शामिल होनेपर सबको फांसी होती है तब मरनेवालों को कीर्तन सुनानेमें सबकी मुक्ति क्यूँ नहीं होगी? वहाँ जाकर भगवन्नाम सुनानेके लिए धरना लगा दें| इस काम के लिए समय देना सबसे ज्यादा दामी है|
इस काम के लिए भजन, ध्यान, सत्संग छोड़ दो| अपनी जरूरी-से-जरूरी चीज़(काम, वस्तु) छोड़ दो| यह बहुत ज्यादा महत्त्व की बात है| गीताप्रेस का भाई होवे तो प्रेस को ताला लगा दो| नुक्सान को बर्दाश्त करलो | आग लगने पर आग बुझाना तो लौकिक लाभ है| किन्तु मरनेवाले की मुक्ति की व्यवस्था करना आध्यात्मिक लाभ है| अगर ५ जगह (मरणासन्न व्यक्ति को भगवन्नाम सुनानेकी) प्रयास करते हैं और १ जगह भी सफलता मिल जावे तो लाभ में हैं|
१०० जनेत(बारात) – में जानेवाला ज्यादा अंश्में नरक में जाएगा| १०० मरनेवाले के पास जानेवालेकी मुक्ति हो जाती है| शत्रु हो वहाँ भी जावें |
१. मरनेवाला व्यक्ति भगवन्नाम सुनना चाहे और घरवालें भी चाहे, तो कीर्तन एक नंबर है|
२. मरनेवाले व्यक्ति को ज्ञान नहीं, पर घरवाले सुनाना चाहे तो दो नंबर है|
३. मरनेवाला व्यक्ति भगवन्नाम सुनना चाहे किन्तु घरवाले नहीं चाहे, तो भी सुनावे यह तीन नंबर है|
४. मरनेवाला व्यक्ति भगवन्नाम सुनना नहीं चाहता, किन्तु घरवाले सुनाना चाहे तो यह चार नंबर हैं|
यहाँ तक तो करलें| किन्तु कोई नहीं चाहे तो कोई उपाय नहीं है| बुलाने आ जावें तो समझे की भगवान का बुलावा आया है|
दूरसे आनेवाले भावुक आदमी गीताप्रेस को तीर्थ मानते हैं| वास्तवमें यह तीर्थ नहीं हैं किन्तु श्रधालु के लिए उसकी भावना के अनुसार लाभ हो भी जाता है| प्रधान तो भाव ही है| गीताप्रेस तो वास्तव में भगवान की है, चाहे कोई माने या ना माने| इसलिए यहाँ बहुत उदारता का व्यवहार करना चाहिए – प्रेम, विनय, त्याग और अभिमान का त्याग |
कर्त्तव्य समझकर भगवद् भजन करना
निष्कामकर्म के आरम्भ का नाश भी नहीं होता और उल्टा फल भी नहीं होता| थोडा-सा भी निष्कामकर्म महान भय से तार देता है| अन्त्काल्का थोडा भी भजन-ध्यान तार देता है| अंतकालका थोडा भी निष्काम भाव भी वृद्धि को प्राप्त होकर कल्याण करता है|
भगवान मनुष्य शरीर देकर हमें अपनी प्राप्ति का मौका देते हैं| उसको व्यर्थ खोनेपर भी अंतकाल का मौका देते हैं| उस समय भी यदि भगवान का स्मरण हो जाता है तो कल्याण की प्राप्ति हो सकती है| किन्तु इसका विश्वास करके हमें अंतकालपे ही निर्भर नहीं रहना चाहिए| शायद उस समय दुःख के कारण भगवानकी या भगवन्नाम की याद हो या नहीं, क्या विश्वास?
ज्यादा भजन होने पर उसका ऐसा अभ्यास हो जाता है की उसके स्वत: भजन होने लग जाता है| पुर्वभ्यासी अभ्यासवश साधन में लग जाता है और पूर्णता को प्राप्त कर लेता है| हमें कर्त्तव्य समझकर भगवद् भजन करना चाहिए, मान-बडाई, प्रतिष्ठा के लिए नहीं| पुत्र आदि पहले के जन्मोमें थे ही जिन्हें आप छोडकर आये हैं, फिर क्यों उन्हें चाहे, उनमें तो दुःख-ही-दुःख है, अत: हमें भगवद भजन ही करना चाहिए|
अगर काममें ले तो नयी है
कहने के लिए कोई नयी बात नहीं है, वेही दो-चार बातें रटी-रटाई हैं| पंडितजी ने कोई नयी बात कहने की बात कही थी, बात तो पुरानी ही है, पर अगर काममें ले तो नयी है, इस दृष्टि से नयी है|
वैद्यजी(एक सत्संगी) – ने कहा था भगवान की बात बार-बार कहनी चाहिए, वह नित्य नयी है| कहने का तात्पर्य है की मनुष्य को अपने जीवन में क्या करना चाहिए इस बात पर यदि ध्यान दे तो पता चलेगा की अधिकाँश लोग भूल ही कर रहे हैं, जो चीज़ मनुष्य जीवन में पाने की है उसे पाने का साधन छोड़कर दुसरे कामोंमें लग जाना येही भूल है, इस भूल को हम सभी कर रहे हैं| जो मरते हैं उनका सबकुछ यहींपर रह जाता है| जिनका एक-एक कणपर स्वामित्व था, मरनेपर सारी चीज़ें पराई हो जाती है| वह आत्मा देखता है, जो मनुष्य वासना लेकर मरता है वह प्राय: होता है| वह देखता है लोग मेरी चीज़ें ले रहे हैं| उसके दुखों का कोई पार नहीं रहता| वह दुखी रहता है| नरक में जाता है और बारम्बार दुःख पाता है|
एक बार सारी पृथ्वी का चक्कर लगा लो या एक बार भगवान का नाम उच्चारण कर लो , दोनों एक बराबर बात है
नामका जप या भगवान के स्वरुप का ध्यान, इससे सारे दुखों का नाश हो जाता हैं| संशय तो रह ही कैसे सकता है, यह विश्वास कर लेवे, इस प्रकार प्रेमसे, करूणा से प्रार्थना करें तो भगवान दर्शन दे देवे| भगवान की भक्ति कैसे ही करो सब ठीक है| वृद्धावस्था निकट आ रही है, अब तो संशय त्यागना चाहिए|
मैं थारे वचन मात्र से तो शरण तो हूँ ही अब या ही प्रार्थना है की अब विलम्ब ना करो, दर्शन देवो, प्रेम कराओ, खूब विश्वास रखकर जौंसी जगह चोखी जचे वहाँ ही डेरा दाल देवे| सभी भूमि गोपालकी|
एक भगवान के नाम उच्चारण को जो फल है सो सगला तीर्थ में नाही| थे कथे दोडोगा, एक बार सारी पृथ्वी की फेरी देल्यो चाहे एक बार नाम उच्चारण कर्ल्येओ, आपाने भागनेसे के जरूरत हैं| आपने तो ऐसी यात्रा करनी है की इस संसार की यात्रा नहीं करनी पड़े | मृत्यु का समय आवे तो याही कर की मेरी मुक्ति में कोई शंका नहीं रेवे| एक-एक चीज़ मुक्ति देनेवाली हैं, जैसे एक बार भगवान का नाम उच्चारण करलो, गीताजी, गंगाजल, काशी, महापुरुष का संग ये सब मुक्ति देनेवाली है|
जिसके घर में आग लग रही है यह समझने पर उसे नींद नहीं आती| कोई के आग लाग जावे तो वो बुझाओ-बुझाओ कर, इयान बुढापा आवे हैं, मृत्यु नज़दीक हैं, समय हैं नहीं, जल्दी काम करो नहीं तो घर जल जावेगो, यह आग है| जिसको घर जलता दिखे तो दूसरी बात दिखती नहीं| आपकी उम्र बीत रही है सो यह घर के आग लग रही हैं| समय ही असली धन हैं, यो व्यर्थ जावे हैं| सो घर के आग लागने के सामान हैं| सोयाँ और लोगांकी निंदा करी| भोग, आलस्य, प्रमाद, पाप, यह चारूं में जिसको समय जाव हैं सो आग लागणी हैं, बिना आग बुझावे उसको चैन नहीं पड़ेगा| जो इस प्रकार सोते हैं, उनके घर आग लाग राखी है| जो समय को अनमोल समझते हैं उनका समय व्यर्थ नहीं जाता|
भागवत-कृपा को आश्रय लेकर भजन-ध्यान को साधन जोरसे करना चाहिए| इसमें एक तो अभिमान कोणी होवे, दूसरी दया काम आवे| प्रयत्न करने दया खिल जावे यानी दया जानी जावे| प्रारब्ध पर काम नहीं छोडनो, फल प्रारब्ध पर छोड़ देनो| भगवान की दया याही है की प्रयत्न करें| केवल दया-दया पुकार्नो झूटो हैं| भगवान को प्रभाव, रेहेस्य और तत्व को महापुरुषोंसे, शास्त्रोंसे जानने की कोशिश करें| उनका प्रभाव सामर्थ्य ऐसी है की एक क्षण में उद्धार कर दें| रेहेस्य जना देवें|
जप करनेवालेके आनन्द और शांति स्वत: रहती है
हमने सत्संगमें बातें तो बहुत सुन ली, पर मनका भाव नहीं बदला| भाव बदले बिना साधक ऊँचा नहीं उठता| सबकी सेवा और हित करनेका भाव रहना चाहिए| इससे जल्दी उन्नति होती है|
प्रश्न - निरंतर भजन कैसे हो?
उत्तर- जिनका भगवानमें प्रेम है या जिन आदमी के निरंतर भजन होता है उनके साथ रहने से निरंतर भजन हो सकता है|
नाम- जपसे बढ़कर और कोई चीज नहीं है तो वही उसके लिए सबसे बढ़कर है| नाम-जप में अलौकिक आनन्द आने लग जावेगा तब फिर नाम-जप छुटेगा ही नहीं| भगवान के नाम से बढ़कर और कोई चीज नहीं है| यह बात शास्त्र महापुरुष कहें तो मान लेनी चाहिए| जैसे वकील है उसको हम हस्ताक्षर कर के दे देते हैं| अपना गला उसके हाथ में दे देते हैं, अपनी गरजसे उसको रूपये भी देते हैं और सिफारिश भी करवाते हैं| महात्मा आपसे रूपये भी नहीं लेते और जन्म- मरणसे छुटने की दवाई भी देते हैं, सो उनपर विश्वास करके काम शुरू कर देना चाहिए|
जैसे डॉक्टर के कहें अनुसार उसपर विश्वास करके उसके कहें अनुसार काम करते हैं| इतना विश्वास भगवान पर करके उनकी शरण हो जावे तो काम बन जावे| वैद्य, वकिल्के जितना भी विश्वास भगवान पर कर लेवे तो बेडा पार है| अपने माननेकी और विश्वास की कमी है|
भगवान कहते हैं -
“जो पुरुष सम्पुर्ण भुतोंमें सबके आत्मारूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता है, क्योंकि वह मेरे में एकीभाव से स्थित है|” (गीताजी ६/३०)
उसके पहले का आधा श्लोक ही बहुत है, जैसे बादल में आकाश है उसमें अणुमात्र भी जगह ऐसी नहीं है की जो आकाशसे रहित हो ऐसे ही भगवान इस संसार में हैं| भगवान कहें वैसा तो अपने को करने चाहिए पिछेका काम भगवान का है|
जप करनेवालों को आनन्द और शांति आप ही रहेगी| अगर आपको आनन्द और शांति नहीं रहती है तो जप अभी वैसा नहीं होने लगा है| जब जप आप ही होने लग जावेगा तब आनन्द, शांति आप ही आने लग जावेगी| जब तक नाम जाप आप ही नहीं होता है तब तक आनन्द और शांति कम रहती है|
हमारी इतनी बात मान लो की हम आपको बीती सच्ची बात कहते हैं की भगवान का नाम ही सबसे श्रेष्ठ है| नाम-जप करनेपर भगवानके नाम और रूप की स्मृति आप ही होती है|
महात्मा और शास्त्र जो कहते हैं उनके वचनों को सच्चा मानकर लाभ उठाना चाहिए| भगवान कहते हैं, महात्मा और शास्त्र जो कहते हैं वे ठीख ही कहते हैं, उनके वचनों को सच्चा मानकर लाभ उठाना चाहिए| अपने वैद्य और वकील पर भी विश्वास करते हैं, तो भगवान, महात्मा और शास्त्र पर तो उससे भी ज्यादा विश्वास करना चाहिए| वैद्यकी दवाई से तो बचे या नहीं यह शंका है पर भगवान और महात्मा के वचनों के अनुसार चलने से जन्म-मरण रूपी बीमारी रहती ही नहीं|
भगवान के नाम-जप का पूरा फल जो निष्काम भावसे, श्रधा–प्रेम पूर्वक करे, उसको मिलता है| जैसे श्वास अपने आप ही आती है वैसे ही भगवान के नाम का जप भी अपने आप ही होने लगे| भगवन्नाम जप निष्कामभावसे एवं श्रद्धा-प्रेम से हो वह बहुत दामी है|
आपके जीवनभर की कमाई एक तरफ और भगवान का नाम एक तरफ| सो अगर आप यहाँ एक करोड़ रूपये भी छोड़ें तो आपके साथ नहीं चलेगा, कुछ काम नहीं आएगा और भगवान् का नाम आपको जीवन-मरणसे उद्धार कर देगा, आपका कल्याण कर देगा|
मरनेके समय भगवान का नाम ले लेवे, बिना श्रद्धा-प्रेम के भी ले लेवे, तो भी उसका कल्याण हो जाता है| यह भगवानकी विशेष कृपा है| चाहे वह कितना ही महान पापी हो, अगर मरनेके समय उसको भगवान् का स्मरण रह गया, तो उसका कल्याण हो जायेगा|
मरते समय अगर किसी पशु-पक्षीकी आवाज आती हो तो उसको हटा देना चाहिए| हल्ला( शोर) नहीं मचाना चाहिए| कुत्ता, चिडियाँको हटा दें| मरनेके समय यदि पशु-पक्षी का स्मरण हो गया तो पशु-पक्षी बनना पड़ेगा| इसलिए मरनेवाले के पास से पशु-पक्षी और बुरे संस्कारों की चिजोंको हटा देना चाहिए|
अपने साधनका निरिक्षण करें
दीन, दुखी, अनाथ आदिकी सेवा करना, सेवा है| परम सेवा है – मरते हुए को भगवान् का नाम सुनाना और गीताका प्रचार करना|
“उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें न कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यंत प्यारा पृथ्वीमें दूसरा कोई होगा|” (गीताजी १८/६९)
४ घंटे का मौन रखना, जिसके अनुकूल हो वह रखे, जिसको साधन करना हो वह मौन रखे| रातको सोनेके समयको साधन बनाना चाहिए| रातको सोते समय भगवानके नाम का जाप या ध्यान एवं लीला आदि का चिंतन करते हुए सोवें|
अपने साधन को हर समय बढ़ावे| हर घंटे उसका निरिक्षण करें की पिछले घंटे से साधन बढ़ा या नहीं, अगर नहीं बढ़ा तो खोजना चाहिए क्यों नहीं बढ़ा? मेरा भक्त, यज्ञ और तपोंका भोक्ता मुझ को जानकर और सुह्रदय जानकर मुझको प्राप्त हो जाता है|
बीमार आदमी मिल जावे तो उसकी खूब तन-मन-धन से सेवा करें| उसको भगवान् का स्वरुप समझें या उसमें भगवानको समझे क्योंकि सब तपों और यज्ञोंका भोक्ता भगवान ही हैं| जो निष्काम भावसे दूसरों के परोपकार के लिए दूसरोंकी सेवा करता है उसको किसी बात का डर नहीं है| जैसे हैजा, प्लेग, टीबी आदि की बीमारी में नीध्ड़क होकर उनकी सेवा करें, सेवा करनेवालोको किसी बात का डर नहीं है| हमने तो बहुत उत्साहसे ऐसे काम किये हैं हमें तो कुछ नहीं हुआ है| निष्काम भाव से जो भी काम किया जाता है वह कल्याण करने वाला है|
रह्स्यकी बात बताई जाती है - गीताजी के एक-एक चरण में रहस्य की बात भरी हुई है| गीताजीमें प्रवेश करके उसको धारण करने से उसका कल्याण हो जाये उसमें तो कहना ही क्या है| वह दूसरों का भी कल्याण कर सकता है| भगवानने गीताजी में कहा है -
“तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं| इसलिए तू कर्मोके फल के हेतु मत हो तथा तेरी कर्म ना करने में भी आसक्ति ना हो|”
इसको धारण करने से बहुत जल्दी उद्धार हो जाता है| जीवित अवस्था में भी उसका फल मिल जाता है| कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, तेरा फलमें अधिकार नहीं है| फल देना तो परमात्मा के अधिकार की चीज है| अधिकार का यह भाव लेना चाहिए की मेरा हक नहीं है| अगर अपना हक मान लिया तो उस कर्मका जितना हक होगा, उतना ही मिलेगा|
भगवान रामकी दृष्टि से १४ वर्ष तक, राज्यपर मेरा अधिकार नहीं है| भरत कहता है मेरा अधिकार नहीं है| वहाँ दोनों के त्याग की प्रशंसा है| यह निष्काम भाव है| भरतजी ने राज्य का काम किया पर उसका उपभोग नहीं किया|
ब्राह्मणको गाय दान देने के बाद उसकी सेवा की जा सकती है, पर उसका दूध नहीं पीया जा सकता| ऐसे ही कर्म करने में अपना अधिकार है, फलमें अपना अधिकार नहीं है| कोई भी उत्तम कर्म किया जावे उसको अच्छी तरह से करें पर फलमें अधिकार नहीं मानें|
कर्मफल का हेतु मत बन| अगर तू कर्मफल का हेतु बन जायेगा तो तुमको भोगना पड़ेगा, और मुक्ति नहीं मिलेगी| फलको छोड़ने से ही मुक्ति होती है| न तो वाणी से यह कहें की मैंने यह बढियां काम किया और ना मन में अभिमान करें| कर्म करके उसके फल में भी आसक्ति ना रखें| न उसमें अहंता ममता रखें, न आसक्ति रखें, न वासना रखें, उनसे अपना सम्बन्ध ही नहीं जोड़ें| जैसे पुण्य कर्म करे तो उसको स्वर्ग मिलेगा, स्वर्गके बाद फिर उसको यहाँपर ( मृत्यु लोकमें ) आना पड़ेगा | उससे आना-जाना नहीं मिटा| सब काम भगवद अर्थ करें जिससे कल्याण होता है| कर्म न करनेमें भी तुम्हारी प्रीति नहीं होनी चाहिए| कर्म करने में ममता, आसक्ति आदि नहीं रखनी चाहिए|
जाती-पाती पूछे नहीं कोई, हरी को भजे सो हरी का होई |
मरनासन्न व्यक्तिको भगवन्नाम सुनाना अधिक महत्वका है
क्या सुनावें लोग सुनना नहीं चाहते और सुनते है तो वैसा काम नहीं करते| मरते हुए मनुष्य की ट्टी-पेशाब साफ़ करना बड़ी सेवा है| पर वह तो दूर, मरनासन्न व्यक्ति को भगवान का नाम और कीर्तन सुनना भी मुश्किल हो रहा है| इसके लिए भगवानने (गीताजी ८/५) में भी कहा है | इस श्लोक्में भगवानने कह दीया है की मेरा ही स्मरण करता हुआ शरीरको छोडकर जाता है उसकी मुक्तिमें कोई शंका की बात नहीं| इसमें कोई शंका करे तो क्या कहें?
मैं तो समझता हूँ की यहाँ ४०० आदमियों को सत्संग सुनाने की अपेक्षा मरनासन्न व्यक्ति को भगवन्नाम सुनना अधिक अच्छा है| क्योंकि यदि एक व्यक्ति का भी भगवन्नाम सुननेसे कल्याण हो गया तो मेरा तो काम बन गया| ज्ञानकी दृष्टिसे तो सभी आत्मा हैं, किसीभी शरीर की आत्मा का कल्याण हुआ तो अपना ही तो कल्याण हुआ, क्योंकि वह अपनी ही तो आत्मा है|
एक भाई तो रात-दिन इस तरह मरनासन्न व्यक्तिको भगवन्नाम सुना नहीं सकता न मालूम किसके सुनाने की पारिमें वैसा सुन्दर मौका आवे| हमें तो कोई युक्ति से समझा दे की यह (मरनासन्न व्यक्तिको भगवन्नाम सुनाने का काम ) भजन, सत्संग्से बढ़कर नहीं| भगवन्नाम सुनाने में अपना तो भजन होता है और दूसरों को भी सुननेको मिलता है| एक बात है- कोई बीमार है, कोई मर रहा है, उसकी सेवा करने में बड़ी दामी बात है| उसको भगवन्नाम का जप, गीताजी सुनना बड़ा कल्याणकारी है|
मरणासन्न व्यक्ति को गीता-पाठ, राम-नाम, सुना रहे हैं और वह सुनते सुनते मर गया तो उसको तो भगवानकी प्राप्ति हो गयी, सुननेवालों को क्या मिला? उसपर भागवान कहते हैं- हे अर्जुन! जो गीताको मेरे भक्तोकों सुनावे वह मेरी भक्तिके द्वारा मुझे प्राप्त हो जायेगा| इस प्रकार करनेवाला मुझे बहुत प्यारा है, ऐसा प्यारा न कोई दूसरा हुआ है न होगा, यह भगवान का वाक्य है| एक आदमी है जो ५० वर्षोंसे साधन कर रहा है, उसका यदि अपने द्वारा नाम सुनने से कल्याण होता है, तो अपना भी कल्याण तो हो ही गया, नाम सुनाने का फल तो मिल गया|
अपना मनुष्य जन्म कल्याण के वास्ते है| यदि अपना कल्याण नहीं हुआ और अपने द्वारा दुसरे का कल्याण हो गया तो अपना तो कल्याण हो ही गया| जो दूसरों को भोजन करावे और खुद यदि उपवास ही करता है तो फिर वह खाने से भी बढ़कर है| अपने द्वारे हजारों बैकुंठ जाते हैं तो खुद नरकमें जावें तो उससे भी बढ़कर है, वहाँ जाकर भी नरकके जीवों का कल्याण करें| ऐसा करनेसे तो उसको भगवानकी पदवी मिले क्योंकि भगवान्का काम है जीवों का उद्दार करना, तो अपने जीवों का उद्दार करते हैं तो भगवान ही हैं| ऐसी उसकी (मरनासन्न व्यक्तिको नाम सुनाने की) महिमा है| पांच मिनट मरनासन्नव्यक्ति को भगवन्नाम सुननेसे जो लाभ होता है वह २० वर्षमें भी साधन करनेसे नहीं होता, इसकी महिमा ही ऐसी है|
इसपर विचार करनेसे यही बात आती है की सब काम छोडकर यह काम करना बड़ी उत्तम बात है, भजन-सत्संग से भी बढ़कर है, सबसे बढ़कर है| मुक्तिसे, कल्यानसे बढ़कर है| इसकी महिमा बहुत अधिक है| मरनेवाले व्यक्ति के पास भगवान्नाम,गीता सुनना और वह सुनते हुए मर गया तो उसका कल्याण है ही, अपना भी कल्याण है|
यह काम सबसे बढ़कर है, ऐसे अवसर की खोज करने की चेष्टा करनी चाहिए, लोभी आदमी की तरह| अतः मरनासन्न व्यक्तिको भगवान् का नाम, गीता सुनाना यह काम सबसे बढ़कर समझकर करना चाहिए|
भगवान के स्वरुप के ध्यान के लिए प्रेरणा
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ||
भगवान के जितने अवतार हुए हैं उसमें भगवान श्रीराम एवं श्रीकृष्ण के अवतार प्रधान हैं| ध्यान के पूर्व आसनकी जरूरत है जैसा की भगवान ने गीताजी(६/११) में बताया है|
इससे पवित्र और क्या देश होगा ? दूसरा – एकांत देश और उसपर गंगाजी की बालू – यह बड़ा ही पवित्र संगम है| गंगाजी की रेणुका से बढ़कर कोई आसान नहीं हो सकता| यदि कोई कहें की फिर भगवान ने गंगाजी की रणुका का ही आसान क्यूँ नहीं बताया ? बात यह है की यह सब के लिए सुगम नहीं हैं| यह रेणुका का बड़ा पवित्र आसान है और इसमें सादगी है| तथा यहाँ के परमाणुओं में ध्यान लगाने की शक्ति है|
अब आसान ज़माना चाहिए, काया, शिर और ग्रीव को सामान रखें| मेरुदंड सीधा रखे जिससे नींद ना आवे और नासिका के अग्रभाग में दृष्टि जमावे| निद्रा, आलस्य नहीं आवे तो नेत्र बंद कर सकते हैं|
प्रश्न – भगवान के स्वरुप का ध्यान बाहर में करें की भीतर में करें ?
उत्तर – जैसा आपको सुगम पड़े |
प्रश्न – साकार का करें या निराकार का ?
उत्तर – निराकार के सहित ही साकार का करें |
जैसे आकाश में पूर्णिमा का चंद्र है| आकाश के प्रकार प्रभु का निराकार स्वरुप है और चन्द्रमा के सामान साकार रूप भी है| ह्रदय आकाश में ध्यान करो चाहे ब्रह्म आकाश में | साकार और निराकार एक ही है| दो वस्तु नहीं हैं| एक ही के दो भेद हैं| ऐसे परमात्मा के स्वरुप का ध्यान करें| भगवान के मुखारविंद की उपमा चन्द्रमा की दी जाती है|
प्रश्न – सगुन-साकार में विष्णु का ध्यान करें की श्रीराम का ?
उत्तर – जिसमें आपकी रूचि हो वही आपके लिए ज्यादा फायदे की चीज़ है|
चन्द्रमा की उपमा तो है ही, भगवान के नाम के साथ में भी चंद्र जोड़ दीया है जैसे की – श्रीरामचंद्र, श्रीकृष्णचंद्र | श्रीकृष्णदास नहीं जोड़ा है |
भगवान की प्राप्ति २४ घंटे में हो सकती है
ध्यान के समय परमात्मा के सिवाय और किसी चीज़ का चिंतन ना करें| भगवान से प्रार्थना करें की प्रभु आप आनेमें क्यूँ विलम्ब कर रहे हैं| आप तो दीन-बंधू हैं और मैं दीन हूँ, आप तो अपने दास के दोशों को देखते नहीं, अगर आप मेरे दोषों की तरफ देखें तो मेरा कहीं टिकाव नहीं हैं| करुणाभावसे भगवान को पुकारो हे नाथ ! हे प्रभु !! करुणाभावसे पुकार्नेसे भगवान विशेष रूप से सुनते हैं|
यह विश्वास रखें की भगवान करुणाभावसे बुलाने पर जरूर आते हैं| भगवान तो अपनी विशेष कृपा के प्रभाव से ही दर्शन दे सकते हैं और भगवान की कृपा तो है ही| भगवान का ध्यान करनेमें तो मनुष्य स्वतंत्र है| भगवान के कीर्तन के प्रभाव से वातावरण शुद्ध हो जाता है और सब विघ्न-बाधा भाग जाती है|
शरीर का सुख तथा आसक्ति परमात्माकी प्राप्ति में बहुत बड़ा विघ्न है| परमात्मा में आसक्ति करनी, वैसा सुख और कहीं नहीं है| संसार की आसक्ति भय और जन्म-मरण देनेवाली है| इस संसार की आसक्ति को विवेक-विचार से हटावें| दुखियों की निष्काम भावसे सेवा, मन-इन्द्रियों का संयम,संसारसे वैराग्य, ये सब साधन में होना अत्यंत आवश्यक है|
एक कहानी – एक बनिए को एक महात्मा ने कहा की भगवान का भजन किया कर, उसने कहा की फुर्सत नहीं है| फिर महात्मा के कहनेसे बनियेने नहाने के समय भगवान के नाम-जप का नियम लिया| जब मरते वक्त उसको स्नान कराया गया, तो उसे भगवान की याद आ गयी और उसका कल्याण हो गया| इसलिए भगवान को हर समय याद रखना चाहिए| इसमें कुछ परिश्रम भी नहीं है और खर्च भी नहीं है|
विशेष बात तो यह है की मरते समय घर में कौवा, कुत्ता आदि पशु-पक्षी आवाज करते हो तो उन्हें वाहन से हटा देना चाहिए| मरने वाले को कुछ भी सांसारिक बातें नहीं कहनी चाहिए| कारण की उसका ध्यान अगर भगवान में लगा होगा और हमने उससे सांसारिक बातें चला दी तो उसका जन्म होना संभव है| मरनेवाले को भगवान की याद दिलावे और उससे कोई भी सांसारिक बातें नहीं करें|
भगवान की प्राप्ति २४ घंटे में हो सकती है| इसके लिए ५ चीज़ों का त्याग करना जरूरी है – आहार, जल, नींद, टट्टी और पेशाब एवं २ चीज़ों को ग्रहण करना जरूरी है – भगवन्नाम जप और भगवान का ध्यान|
पक्षियों या जानवरों की बोली में मरते हुए उसका ध्यान चला जावे तो उसका १ जन्म तो अवश्य होगा, इसलिए किसीके मरनेके समय किसी भी प्रकार के जानवर और पक्षियों की आवाज नहीं सुनाई देनी चाहिए|
यदि मरते समय कुत्ते की आवाज सुनाई दे तो मरनेवाला भी कुत्ता होता है, चाहे मरनेवाला कैसा भी उच्च कोटि का साधक क्यों ना हो| इसलिए सावधानी रखे की अंतसमय में उसे भगवान की स्मृति रहे, ऐसी चेष्ठा रखनी चाहिए |
व्यवहार इतना करें जिससे भजन में बाधा ना आवे
प्रभु पर विश्वास
प्रभु पर विश्वास रखना चाहिए| फिर किसीकी भी मजाल नहीं है की, बाल भी बांका कर सके| नाम-जप व सत्संग की विशेष चेष्टा रखनी चाहिए| हजार काम छोडकर यह चेष्ठा करनी चाहिए| भगवान के भजन के प्रभाव से सबकुछ ठीक हो सकता है|
भगवान के भक्त को देखने से, चिंतन करनेसे भगवान तुरंत याद आने चाहिए| यदि महापुरुष के शुद्ध ह्रदय में अपनी स्मृति हो गयी तो अपना कल्याण हो जावेगा| महापुरुष अपने को छुवे तो ससरे शरीर में प्रेम की बिजली दौड जायेगी| उनके छूने में ज्यादा लाभ है| अपने छूने से भी लाभ है| इसमें अग्निका और घासका दृष्टांत लागू पड़ता है| महापुरुष जिस रास्ते से फिरेंगे सबके पाप को नाश करते जायेंगे| महापुरुष अपनेको देखे तो हम सब ही पवित्र हो गए |
आपको यह बात प्रत्यक्ष समझ लेनी चाहिए की आपने किसी भी जीव को जाकर भगवान का नाम सुनाया और वह सुनता हुआ मर गया तो उस आदमी का तो जन्म ही सफल हो गया|
१. अपना कल्याण चाहनेवाले को तो बहुत ज्यादा व्यवहार करना नहीं चाहिए| इतना व्यवहार करे जिससे भजन में बाधा नहीं आवे|
२. यदि जीविका चल सके तो व्यवहार ना करे| फिर तो हर समय भजन-ध्यान सेवा ही करे|
३. सेवा भी उतनी ही करे जितनी भजन ध्यान के रहते हुए हो सके|
४. अभ्यास डालने से भजन-ध्यान करते हुए भी सेवा हो सकती है|
५. वर्त्तमान समय में व्यवहार का विस्तार रखते हुए कल्याण हो जावे, यह असंभव बात है|
यह बातें प्रत्यक्ष अनुभव करके और बहुत से लोगों के अनुभव सुनकर की गई है|
चेतावनी
जितने जो सुन्दर-सुन्दर शरीर हैं इन सबकी एक दीन ख़ाक होनेवाली है| आज यदि मृत्यु हो जाए तो आज ही ख़ाक है और फिर उस ख़ाक को कोई छूवेगा भी नहीं| अपना हाड-मांस है और जो भी कुछ है सबकी भस्मी हो जायेगी और फिर कोई चीज़ काम नहीं आएगी | इसलिए जब तक हो सके तबतक इससे खूब काम लेना चाहिए | अभी तो इसका बढियां-से-बढियां काम लिया जा सकता है| हजारों बार अपने शरीर की ख़ाक हुयी है, इसकी भी होनेवाली है| ऐसा सुन्दर और दामी शरीर लाख रूपया देने पर भी नहीं मिल सकता जिसकी भस्मी होनेवाली है| लितनी मूर्खता है की इससे काम न लिया जाए| मरनेके बाद कोई इसे घरमें रखेगा भी नहीं|
पूरे दीन भाड़े की मोटर होती है और उसका भाड़ा दे दीया गया तो अब उसको खूब काम में लो | जो उससे काम नहीं लेता, वह मुर्ख है| जैसे किसी खेत में धातु है और उसे १ साल के लिए ठेकेपर ले लिया तो जितना धातु निकाल लिया वह अपना है क्यूंकि १ साल बाद उसपर अपना कोई अधिकार नहीं रहेगा | इसी प्रकार जब तक यह शरीर है इससे खूब काम लेना चाहिए| इसमें भगवान का भजन-ध्यान खूब दामी है| इसके मुकाबले रत्न, हीरे-मोती कोई भी चीज़ नहीं है| ऐसा लाभ उठावे की सदा के लिए सुखी हो जावें|
वर्त्तमान में तो हम रात-दीन जल रहे हैं, जैसे उबलते हुए तेल में पकोडा पकता हैं उसी प्रकार जल रहे हैं| इस चिंता, भय, शोक को सदा के लिए दूर करना चाहिए| इश्वर ने जब हमें बुद्धि, ज्ञान दीया है तो उसका लाभ उठाना चाहिए| हम महान दुखी होरहे हैं इसका तो अत्यंत अभाव कर देना चाहिए| जो बीत गयी सो बीत गयी परन्तु आनेवाले दुःख का तो अभाव हो जाना चाहिए और हम यह कर सकते हैं| मनुष्य शरीर में भी दुःख क्यूँ होता है ? मूर्खता और अज्ञान से | अज्ञान का नाश होता है ज्ञान से और ज्ञान होता है अंत:कारण शुद्ध होने से | इसलिए हमको भजन-ध्यान-सत्संग करना चाहिए जिससे अंत:कारण शुद्ध हो |
“निष्काम कर्मयोगी ममत्व्बुद्धि रहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीरद्वारा भी आसक्ति को त्यागकर अंत:कारण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं |” (गीताजी ५/११) वे आसक्ति को त्यागकर निष्काम भाव से कर्म करते हैं जिससे उन्हें शाश्वत शान्ति मिलती है|
गीताजी में भगवान कहते हैं की जो सम्पूर्ण कामना, ममता, अहंकार को त्यागकर विचरता है वह शान्ति को प्राप्त हो जाता है|
जिस प्रकार हमने यहाँ कीर्तन की धुन लगाईं उसी प्रकार मरनेवाले आदमी के पास लगानी चाहिए | वह नारायण का ध्यान करते-करते मर जाए तो उसका बेडा पार है |
मरनेके वक्त और मरनेके बाद यह प्रबंध तो करना ही चाहिए, चाहे छोटा मरे चाहे बड़ा| इस तरह कीर्तन सुनते हुए मारना ही सराहने लायक है| जिस प्रकार भिस्मजी गंगा किनारे मरे तो यह बड़े आनंद की बात है| मर्तेवक्त बाहरके प्रयत्न में सबसे बढ़कर यह है की मरणासन्न व्यक्ति को भगवान के नाम का कीर्तन सुनावे या गीताजी सुनावे| उसका स्वत: भगवन्नाम में या गीताजी में ध्यान हो तो यह फायदे की बात है| नारायण का नाम श्रवण करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो बेडा पार है, यह बात संक्षेप में कह दी|
इस बात पर भगवान गारंटी देते हैं
कोईसा भी साधन हो किन्तु भगवान के नाम का जप और परमात्मा के स्वरुप की स्मृति अवश्य करें| वह चाहे वाणी से हो या श्वास से | चिंतन तो मन से ही होता है, बुद्धि और लगा दें| परमात्मा हैं ! इस प्रकार मानने में ना कौड़ी लगती है ना छदाम | ऐसा दृढ निश्चय करें की फिर यह निश्चय कायम रहे| बुद्धिसे मान लेवे की परमात्मा हैं| भक्तिपूर्वक, आदरपूर्वक बुद्धिमें विश्वास हो इसीका नाम श्रद्धा है| इस प्रकार बुद्धिकी मान्यतानुसार मन से भगवान का स्मरण एवं उनके नाम का जप होना चाहिए| स्मरण और जप हमेशा बना रहे इसके लिए शक्ति अनुसार प्राण-पर्यंत चेष्टा करनी चाहिए| मृत्युको स्वीकार कर लेवे किन्तु भगवानके नाम-जप एवं स्मरण को ना छोड़े | मारना तो है ही फिर भगवान के नाम को लेते हुए यदि मृत्यु हो तो इससे बढ़कर और क्या होगा ?
प्रार्थना करें की मरते समय आपके नाम का जप हो, चाहे आप दर्शन ना दें किन्तु श्रद्धा-भक्तिपूर्वक आपके नाम का जप और स्मृति बनी रहे, यह बह्ग्वान से प्रार्थना करें, मांग करें| यह, कामना होती हुई भी इतनी शुद्ध और पवित्र है की इससे मुक्ति हो जावे| शरीर भी छूटने वाला होवे तो आज ही छूट जावे किन्तु उनको याद करते हिउये छूटे| चाहे गंगा के किनारे मृत्यु ना होकर किसी हरिजन के घर मृत्यु होवे किन्तु आपकी स्मृति सदा बनी रहे|
भगवान से भी प्रार्थना करें की हे भगवान ! आप कृपया करके इसमें मदद करिये| यही सिद्धांत है, यही साधन, यही साधनों का नीचोड़ है| इस साधन को सिद्धांत मानकर इसका पालन करें| फिर साधन में कोई कमी भी रह जाए तो यह साधन स्वयं उसको संभाल लेता है| किन्तु इसमें कमी रह जाए तो फिर ना तो कोई सहायक है और ना साधन है| अब से अंत तक अभ्यास करें तो हमारा कल्याण हो जाय | इस बात पर भगवान गारंटी देते हैं –
“हे अर्जुन ! जो पुरुष मेरेमें अनन्य चित्त से स्थित हुआ, सदा मेरेको स्मरण करता है, उस निरंतर मेरेमें युक्त हुए योगीके लिए मैं सुलभ हूँ, अर्थात सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ|”
“जो पुरुष अन्त्काल्में भी मेरेको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरुप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है|” (गीताजी ८/५) यही भगवान का क़ानून है|
“हे अर्जुन ! यह मनुष्य अन्त्काल्में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागता है, उस उसको ही प्राप्त होता है| परन्तु सदा जिस भाव का चिंतन करता है, अन्त्काल्में भी प्राय: उसीका स्मरण होता है|”
सदा तदभाव से भावित हुआ यदि भगवान के नाम का जप करता हुआ मरता है, वह उनको ही प्राप्त होता है| देवताओं को याद करता हुआ जाता है वह उनको ही प्राप्त होता है| भूत-प्रेत और पिशाचों को याद करता हुआ जाता है वह उन्हीको प्राप्त होता है| इसलिए भगवान कहता हैं, “हे अर्जुन ! तू हरेक समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर |” युद्धमें तो बड़ा ही जोर आता है| जब भगवान को याद रखते हुए युद्ध हो सकता है, तो फिर हमारेको सब काम करते हुए स्मरण क्यूँ नहीं हो सकता ? इसलये माता-बहिनों और भाईयों को भगवान को स्मरण करते हुए सब काम करना चाहिए|
भगवान को याद करते हुए काम करनेसे बुरे काम तो होंगे ही नहीं और आगे-पीछे के सब पाप भी स्वाहा हो जायेंगे| इस बात को मानकर इस कार्य के लिए कटीबद्ध हो जाना चाहिए |
सबका कल्याण हो यह भाव रखे
चाहे जितना लाभ उठावो सीमा ही नहीं|
प्रश्न- मुक्तिसे भी क्या ज्यादा लाभ मिल सकता है ?
उत्तर- हाँ मिल सकता है| जब तक संसारमें एक भी जीव है तब तक लाभ उठाया जा सकता है| अपनी आत्मा की उन्नति कर लेना उन्नति का अंत नहीं हो गया| न पतनका अंत है, न उन्नतिका| उन्नतिका अंत है जब सबका कल्याण हो जाये|
अच्छी भावना का बुरा फल होता ही नहीं, इसलिए अच्छी भावना करनी चाहिए| नामदेवजी ने कुत्ते में भगवान की भावना की तो कोई बुरा फल नहीं हुआ| भोग्बुद्धि पतन करनेवाली चीज़ है, इश्वर्बुद्धि नहीं| प्रह्लादने खम्बे में भगवानकी भावना की तो भगवान प्रकट हो गए| यह भावना का फल है| परमात्माकी प्राप्ति कराने की अपने में शक्ति ना होते हुए भी, कहीं परमात्मा की प्राप्ति कराने के लिए भगवान अपनेको निमित्त बनावे तो ना भी ना करे|
इस प्रकार जो आदमी अपनी शक्ति ना समझे की मैं कीसीका कल्याण कर सकता हूँ| और जो यह अभिमान रखता है की मैं दुसरे को परमात्मा की प्राप्ति करा सकता हूँ, वह तो नहीं करा सकता| जो यह समझता है मैं नहीं करा सकता, अगर दूसरा आदमी उसपर आरोपण करता है की यह परमात्मा की प्राप्ति करा सकता है, इस प्रकार निमित्तमात्र उसे कोई बना ले तो बन लो| एक तो निमित्तमात्र की यह बात है की भगवान अपनेको इसके लिए निमित्त बनावे की दूसरों को अपनी प्राप्ति के लिए निमित्त् बनाते हैं तो मना नहीं करें|
दूसरी बात है की भगवान अपने को निमित्त नहीं बनावे तो इस काम में अपने निमित्त बन जाना चाहिए और मानले की भगवान ने ही हमें निमित्त बनाया है| भगवान कहें मैंने तो तुमको यह पदवी दी नहीं, तो कहें की आपने दी नहीं, हमने जबरदस्ती छीन ली| जैसे कोई आदमी मरनेवाला हो वह अपने को निमित्त बनाकर भजन-ध्यान सुनना चाहे, या वह नहीं बुलावे तो अपने ही चलकर कहो की, कीर्तन सुनावे? गीताजी सुनावें? वह कहें सुनावो इस जगह अपने निमित्त बने| इस प्रकार की ४-५ जगह युक्ति लगाईं और १ आदमी की भी मुक्ति हो गयी तो अपना तो जीवन सफल हो गया| मनुष्य का जीवन तो कल्याण करने के लिए मिला था| अपने अपना कल्याण नहीं कर सके और दूसरेका कल्याण कर दीया तो अपनेको धोखा नहीं मानना चाहिए की अपना कल्याण नहीं हुआ|
कोई कहें आपमें कल्याण करने की शक्ति है तो इस बातको स्वीकार नहीं करें| कोई पूछे की आप भगवान की प्राप्ति करा सकते हो क्या? तो कहें नहीं, मेरा सामर्थ्य नहीं है, इश्वर की कृपा से हो सकती है| कोई पूछे की परमात्मा की प्राप्ति का पात्र किस प्रकार होऊ? तो उसे कहें की परमात्मा की शरण हो जाओ| उसे बता देवे की ऐसे-ऐसे शरण होना चाहिए| यह निमित्त बनना हुआ| अपनी शक्ति मानकर निमित्त मत बनो |
वह कहें की हमें तो आपने ही परमात्माकी प्राप्ति करा दी, तो वह कहता रहे, उसपर ध्यान मत दो| एक आदमी गाली देता है और एक प्रशंसा करता है, दोनों की मत सुनो|
jai jai narayan jai jai shri krishan , jai ho shri hari, jai jai jai jai jai jai jai jai hare ram
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