।।श्रीहरिः।।
तत्वज्ञान
कैसे हो स्वामी रामसुखदास जी
जय
राम रमारमणं शमनं । भव ताप भयाकुल पाहि जनं ॥
अवधेश सुरेश रमेश विभो । शरणागत मागत पाहि प्रभो ॥
अवधेश सुरेश रमेश विभो । शरणागत मागत पाहि प्रभो ॥
गुणशील कृपा परमायतनं । प्रणमामि निरंतर श्रीरमणं ॥
बार बार बर मांगऊ हारिशी देहु श्रीरंग |
पदसरोज अनपायनी भागती सदा सतसंग ||
पदसरोज अनपायनी भागती सदा सतसंग ||
नम्र निवेदन
प्रायः प्रत्येक साधक के भीतर यह जिज्ञासा रहती है कि
तत्त्वज्ञान क्या है ? तत्त्वज्ञान
सुगमता से कैसे हो सकता है ? आदि। इस जिज्ञासाकी पूर्ति करने
के लिये प्रस्तुत पुस्तक साधकों के लिये बड़े कामकी है। इसमें जो बातें आयी हैं,
वे केवल सीखने-सिखाने की, सुनने-सुनाने की नहीं
हैं, प्रत्युत अनुभव करने की हैं।
तत्त्वज्ञान का सहज उपाय
हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं
है—यह बात यदि समझ में आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है
! इसमें समय लगने की बात नहीं है। समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है।
जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना
है जैसे—
संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।
दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’। इसमें ‘मैं’ प्रकृति का अंश है और ‘हूँ’ परमात्मा का अंश है। ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है। ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है। ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है। ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है। ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है। ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है। ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया—यही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है। ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध
है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘मैं’ को साथ मिलाने से ही ‘हूँ’ कहा जाता है। अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है।
एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहन के सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नी से के सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, भानजे के सामने कहता है कि ‘मैं मामा हूँ’, मामा के सामने कहता है कि ‘मैं भानजा हूँ’ आदि-आदि। तात्पर्य है कि बेटा,
बाप, पोता, दादा,
भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है। ‘मैं’ तो बदला है, पर
‘हूँ’ नहीं बदला। वह ‘मैं’ बाप के सामने बेटा हो जाता, बेटे के सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है। अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुद का पता नहीं है ! यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी। कारण कि वास्तव में सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं।
बेटे की अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस प्रकार बेटा, बाप,
पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं;
अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं। स्वयं का नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है। वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है। ‘मैं’ जाननेवाला नहीं है और जो जाननेवाला है,
वह ‘मैं’ नहीं है। ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है। ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है। ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें,
‘मैं’ की सत्ता नहीं है। सत्ता ‘है’ की ही है। परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं। ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है। ‘मैं’ पनको पकड़ने से ही वह अंश है। अगर मैं-पन
को न पकड़ें तो वह अंश (‘हूँ’) नहीं है, प्रत्युत ‘है’ (सत्ता मात्र है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है। अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है। इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थिति का अनुभव होने पर शरीर का
कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीर को मैं—मेरा
कहनेवाला कोई नहीं रहता।
मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है,
चूना है, पत्थर है—इस प्रकार वस्तुओं में तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है। ऐसे ही मैं मनुष्य
हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ,
मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ
तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है। अनेक
शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक है। बालक,
जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओं में सत्ता एक है।
कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है। अवस्थाएँ बदलती हैं, पर
उनको जाननेवाला नहीं बदलता। ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवाले में कोई फर्क नहीं पड़ता।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।
‘हे पार्थ ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई सम्मोहित नहीं
होता। इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्म की
प्राप्ति हो जाती है।’
यदि जाननेवाला भी बदल जाय तो इन पाँचों की गणना कौन करेगा
? एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तन
का ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तन का ज्ञान कभी किसी को
नहीं होता। सबका इदंता से भान होता है, पर अपने स्वरूप का इदंता
से भान कभी किसी को नहीं होता सबके अभाव का ज्ञान होता है, पर
अपने अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। तात्पर्य है कि ‘है’ (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः है
करनी नहीं है। भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं। ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करने से ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती। वास्तव में
‘है में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये। ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करने से ‘नहीं’ नहीं रहेगा और ‘है’ रह जायगा।
भगवान् कहते हैं।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
‘असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत्का अभाव ही विद्यमान है और सत्
का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है।’
एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि में अपनी जो परिच्छिन्न सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, एकदेशीयता) को लेकर ही दीखती है।
जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपने को एक देश, काल आदि में देखता है। अहम् के मिटने पर एक देश, काल
आदि में परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत अपरिच्छिन्न सत्तामात्र
रहती है।
वास्तव में अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है। सांसारिक
पदार्थों की जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की
नहीं है। सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम्
उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है। इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं,
पर अहम् मिट जाता है।
अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है। इसलिये
आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं। अहम् ज्ञानी में होता है,
ज्ञान में नहीं। अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत
ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है। उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है। कारण कि वह ज्ञान
स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयं से ही स्वयं का ज्ञान होता है। वास्तव
में ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है। अज्ञान मिटाने
को ही तत्त्वज्ञान का होना कह देते हैं
तत्त्वज्ञान
प्रायः
प्रत्येक साधक के भीतर यह जिज्ञासा रहती है कि तत्त्वज्ञान क्या है ? तत्त्वज्ञान सुगमता से कैसे हो सकता है ? आदि। इस जिज्ञासाकी
पूर्ति करने के लिये प्रस्तुत लेख जिज्ञासुओं के लिये बड़े उपयोगी है.. इसके अंतर्गत जो बातें आती हैं, वे केवल सीखने-सिखाने
की, सुनने-सुनाने की या पढने पढ़ाने के लिए नहीं हैं, बल्कि अनुभव करने की हैं.. दूर से देखने में तो कठिन दीखता
है, पर प्रवेश करने पर बड़ा ही सुगम और रसीला है..परमात्मतत्त्व
की खोज में लगे हुए जिज्ञासुओं से प्रार्थना है, कि वे तत्त्व
ज्ञान का अध्ययन-मनन करें और तत्त्व का अनुभव करें.. सबसे पहले हमें यह जानना होगा
की तत्त्व हैं क्या ..तभी हमें उनका यथार्थ ज्ञान हो सकेगा ..
वेदों का ऐसा मानना है कि सृष्टि का निर्माण 24 तत्वों से मिलकर हुआ है इनमें पांच ज्ञानेद्रियां (आंख,नाक, कान,जीभ,त्वचा) पांच कर्मेन्द्रियां (गुदा,लिंग,हाथ,पैर,वचन) तीन अंहकार (सत, रज,
तम) पांच तन्मात्राएं (शब्द,रूप,स्पर्श,रस,गन्ध) पांच तत्व (धरती,
आकाश,वायु, जल,तेज) और एक मन शमिल
है… इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर
ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है….
भगवान्
श्रीकृष्ण के अनुसार हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं है—यह
बात यदि समझ में आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है …इसमें
समय लगने की बात नहीं है…समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है… जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना
है जैसे—संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि
अखंड अपारा….दो अक्षर हैं—‘मैं
हूँ’…इसमें ‘मैं’ प्रकृति का अंश है, और ‘हूँ’ परमात्मा का अंश है, ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है.. ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है.. ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है.. ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है… ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है… ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है.. ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया..यही चिज्जडग्रन्थि
(जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है.. ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है… यहाँ इस वाक्य पर ध्यान केन्द्रित करना
आवश्यक है , कि ‘मैं’ को साथ मिलाने से ही ‘हूँ’ कहा जाता है… अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, बल्कि
‘है’ रहेगा.. वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है…निर्ममो
निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।….एक ही व्यक्ति अपने
बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि ‘मैं
बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि ‘मैं
पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि ‘मैं
दादा हूँ’, बहन के सामने कहता है कि ‘मैं
भाई हूँ’, पत्नी से के सामने कहता है कि
‘मैं पति हूं’, आदि.. तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, आदि तो
अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है.. ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला…वह ‘मैं’ बाप के सामने बेटा हो जाता, बेटे के सामने बाप हो जाता
है , अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा
ही हो जाता है… अगर उससे पूछें कि
‘तू कौन है’ तो उसको खुद का पता नहीं है .. यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी…कारण
कि वास्तव में सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं… बेटे की अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस
प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा
आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं… स्वयं का नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है.. वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है… ‘मैं’ जाननेवाला नहीं है ..और जो जाननेवाला है, वह ‘मैं’ नहीं है.. ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में आनेवाला
) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है.. ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है… ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है.. सत्ता ‘है’ की ही है… परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं… ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है.. ‘मैं’ पन को पकड़ने से ही वह अंश है.. अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह अंश (‘हूँ’) नहीं है, अपितु ‘है’ (सत्ता मात्र है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है…..अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—……
यही
‘ब्राह्मी स्थिति’ है….इस ब्राह्मी स्थितिको
प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थिति का अनुभव होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीर को
मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता………मनुष्य
है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है— अनु है परमाणुहै , सजीव है , निर्जीव है , प्रकाश
है , अन्धकार है .. इस प्रकार वस्तुओं में तो फर्क है,
पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है… ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ
तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है.. अनेक शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक है…. बालक, जवान और वृद्ध—ये
तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओं में सत्ता एक ही है… कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये
तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक ही है….. जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति,
मूर्च्छा और समाधि—ये
पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक ही है… अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता..
ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त,
एकाग्र, और निरुद्ध—इन
पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवाले
में कोई फर्क नहीं पड़ता….एषा ब्राह्मी स्थितिः
पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि
ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।…… इस प्रकार भगवान्
श्रीकृष्ण कहते हैं ….‘हे
पार्थ ! यह ब्राह्मी स्थिति है… इसको प्राप्त होकर
कभी कोई सम्मोहित नहीं होता, इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी
स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है…….’
यदि
जाननेवाला भी परिवर्तित हो जाय तो इनकी गणना
कौन करेगा ? सबके परिवर्तन का
ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तन का ज्ञान कभी किसी को नहीं
होता…सबका इदं ता से भान होता है, पर अपने स्वरूप का इदं ता से भान कभी किसी को नहीं होता, सबके अभाव का ज्ञान होता है, पर अपने अभाव का ज्ञान कभी
किसी को नहीं होता… इसलिए ‘है’ (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः
है, करनी नहीं है..बल्कि है… भूल यह होती है कि हम ‘संसार
है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं.. ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करने से ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है, और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती.. वास्तव में ‘है
में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये,…. ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करने से ‘नहीं’ नहीं रह जाएगा और रह जाएगा केवल ‘’है“.. और इसी “है“ को पर्ब्रह्म्पर्मात्मा कहते हैं … नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।………असत्
की सत्ता विद्यमान नहीं है, अर्थात् असत्का अभाव ही विद्यमान है,
और इसी प्रकार सत् का अभाव विद्यमान नहीं है, अर्थात्
सत् का भाव ही विद्यमान है…’
एक
ही देश, काल, वस्तु, व्यक्ति,
अवस्था, परिस्थिति आदि में अपनी जो सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व)
को लेकर ही दीखती है.. जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य
अपने को एक देश, काल आदि में देखता है… अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदि में परिच्छिन सत्ता
नहीं रहती, बल्कि अपरिच्छिन्न
सत्तामात्र रहती है…
वास्तव
में अहम है नहीं, केवल उसकी मान्यता है…. सांसारिक पदार्थों की जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी
सत्ता भी अहम् की नहीं है… सांसारिक पदार्थ
तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं
है… इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि
पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है…
अतः
तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, अपितु ज्ञानमात्र रह्जाता है…….इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं,
ज्ञानी होगा भी नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं… अहम् ज्ञानी में होता है, ज्ञान में नहीं…… अतः ज्ञानी नहीं है, ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है….. उस ज्ञानका कोई
ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक
नहीं है…. कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश
है, अतः स्वयं से ही स्वयं का ज्ञान होता है… और यह प्रक्रिया ब्रहमांड के कण – कण में होती है , .. अज्ञान का मिट जाने से ही परमात्मा से मिलन होता है , और इसी अवस्था को तत्त्व का तत्त्व में विलय हो जाना , सत्य कहीं से आता नहीं है , असत्य का नाश हो जाता है
, वास्तव में ज्ञान होता
नहीं है, बल्कि अज्ञान
मिटता है.. अज्ञान मिटाने को ही तत्त्वज्ञान कहते
हैं… …
और
यही तत्त्व ज्ञान श्री कृष्ण जी ने अर्जुन और उद्धव को प्रदान किया था…. ॐ पर-ब्रह्मपर्मात्मने नमः ……
जय राम रमारमणं शमनं । भव ताप भयाकुल पाहि जनं ॥
अवधेश सुरेश रमेश विभो । शरणागत मागत पाहि प्रभो ॥
दशशीस विनाशनवीस भुजा । कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ॥
रजनीचर वृंद पतंग महा । शर पावक तेजिं प्रचंड दहां ॥
महिमंडल मंडन चारुतरं । धृत सायक चाप निषंग वरं ॥
मद मोह महा ममता रजनी । तमपुंज दिवाकर तेज अनी ॥
मनजात किरात निपात करी । मृग लोक कुभोग शरांनिं उरीं ॥
जहि नाथ अनाथ हि पाहि हरे । विषयाटविं पामर भूलभरे ॥
बहु रोग वियोगिं हि लोक हत । भवदंघ्रि निरादर हा फळत ॥
भवसिंधु अगाधहि ते पडती । पद पंकजिं प्रेम न जे करती ॥
अति दीन मलीन हि दुःखिसदा । पदपंकजिं प्रीति न ज्यांस कदा ॥
अवलंब कथा तुमच्या हि जयां । प्रिय संत अनंत सदैव तयां ॥
मद मान न राग न लोभ कदा । सम मानति वैभव ते विपदा ॥
तव सेवक यास्तव होति मुदा । मुनि सांडिति योग दुरास सदा ॥
युत भक्ति निरंतर नेम तनें । पदपंकज सेविति शुद्ध मनें ॥
सम मान अनादर मानुनिया । सब संत सुखी फिरती जगिं या ॥
मुनि मानस पंकज भृंग भजे । रघुवीर महा रणधीर अजे ॥
तव नाम जपामि नमामि हरी । भवरोग महागद मान अरी ॥
गुणशील कृपा परमायतनं । प्रणमामि निरंतर श्रीरमणं ॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्व घनं । महिपाल विलोकय दीनजनं ॥
अवधेश सुरेश रमेश विभो । शरणागत मागत पाहि प्रभो ॥
दशशीस विनाशनवीस भुजा । कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ॥
रजनीचर वृंद पतंग महा । शर पावक तेजिं प्रचंड दहां ॥
महिमंडल मंडन चारुतरं । धृत सायक चाप निषंग वरं ॥
मद मोह महा ममता रजनी । तमपुंज दिवाकर तेज अनी ॥
मनजात किरात निपात करी । मृग लोक कुभोग शरांनिं उरीं ॥
जहि नाथ अनाथ हि पाहि हरे । विषयाटविं पामर भूलभरे ॥
बहु रोग वियोगिं हि लोक हत । भवदंघ्रि निरादर हा फळत ॥
भवसिंधु अगाधहि ते पडती । पद पंकजिं प्रेम न जे करती ॥
अति दीन मलीन हि दुःखिसदा । पदपंकजिं प्रीति न ज्यांस कदा ॥
अवलंब कथा तुमच्या हि जयां । प्रिय संत अनंत सदैव तयां ॥
मद मान न राग न लोभ कदा । सम मानति वैभव ते विपदा ॥
तव सेवक यास्तव होति मुदा । मुनि सांडिति योग दुरास सदा ॥
युत भक्ति निरंतर नेम तनें । पदपंकज सेविति शुद्ध मनें ॥
सम मान अनादर मानुनिया । सब संत सुखी फिरती जगिं या ॥
मुनि मानस पंकज भृंग भजे । रघुवीर महा रणधीर अजे ॥
तव नाम जपामि नमामि हरी । भवरोग महागद मान अरी ॥
गुणशील कृपा परमायतनं । प्रणमामि निरंतर श्रीरमणं ॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्व घनं । महिपाल विलोकय दीनजनं ॥
बार बार बर मांगऊ हारिशी देहु श्रीरंग |
पदसरोज अनपायनी भागती सदा सतसंग ||
बरनी उमापति राम गुन हरषि गए कैलास |
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास||
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