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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Monday, January 6, 2014

विवेक की जागृति




विवेक की जागृति
मानव-शरीरकी महिमा विवेकके कारण ही है । विवेक प्राणिमात्रमें है; परन्तु जिससे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कर सकें, ऐसा (सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्यका) विवेक मनुष्यमें ही है । यह विवेक कर्मोंका फल नहीं है, प्रत्युत भगवत्प्रदत्त है । यह बुद्धिमें आता है, बुद्धिका गुण नहीं है ।अत: बुद्धि तो कर्मानुसारिणी होती है, पर विवेक कर्मानुसारी नहीं होता । अगर विवेकको पुण्य-कर्मोंका फल मानें तो यह शंका पैदा होगी कि बिना विवेकके पुण्यकर्म कैसे हुए ?कारण कि ये पुण्यकर्म हैं और ये पापकर्म हैं‒ऐसा विवेक पहले होनेपर ही मनुष्य पापोंका त्याग करके पुण्यकर्म करता है । अत: विवेक पुण्यकर्मोंका फल नहीं है, प्रत्युत यह पुण्यकर्मोंका कारण और अनादि है । लौकिक पदार्थोंकी प्राप्ति तो क्रियासे होती है, पर परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति विवेकसे होती है । मुक्त करनेकी शक्ति विवेकमें है, क्रियामें नहीं । अगर मनुष्यमें विवेककी प्रधानता हो तो वह प्रत्येक देशमें, प्रत्येक कालमें, प्रत्येक अवस्थामें, प्रत्येक परिस्थितिमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कर सकता है । कारण कि परमात्मतत्त्वसे कभी किसीका वियोग नहीं है । अत:मनुष्यका खास काम है‒प्राप्त विवेकका आदर करना, उसको महत्व देना । विवेकका आदर करनेसे वह विवेक ही बढ़कर तत्त्वबोधमें परिणत हो जाता है ।
प्रश्न‒अन्तःकरणको शुद्ध किये बिना विवेकका आदर कैसे होगा ?
उत्तर‒विवेक अन्तःकरणकी शुद्धिके आश्रित नहीं है,प्रत्युत अन्तःकरणकी शुद्धि विवेकके आश्रित है । विवेक अनादि तथा अनन्त है और अन्तःकरणकी अशुद्धि सादि और शान्त है । विवेक असीम है और अशुद्धि सीमित है । विवेक स्वतःसिद्ध है, अशुद्धि स्वत: सिद्ध नहीं है । विवेक नित्य है,अशुद्धि अनित्य है । नित्यको अनित्य कैसे ढक सकता है ?जड़ताका महत्त्व ही अन्तःकरणको अशुद्ध करनेवाली चीज है । अत: विवेकको महत्त्व देनेसे अन्तःकरण स्वत: शुद्ध हो जाता है ।

शुद्ध करनेसे अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता । कारण कि शुद्ध करनेसे अन्तःकरणके साथ सम्बन्ध बना रहता है ।जबतक ‘मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो जाय’‒यह भाव रहेगा,तबतक अन्तःकरणकी शुद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि ममता ही अशुद्धिका कारण है‒‘ममता मल जरि जाई’ (मानस ७ । ११७ क) । इसलिये गीताने अन्तःकरणके साथ ममता न रखनेकी बात कही है; जैसे‒
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥
(५ । ११)

‘कर्मयोगी आसक्तिका त्याग करके अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये केवल अर्थात् ममतारहित इन्द्रियाँ-शरीर-मन-बुद्धिके द्वारा कर्म करते हैं ।’ कारण कि ममता-आसक्ति रखनेसे कर्म होते हैं, कर्मयोग नहीं होता


साधकको इस बातकी सावधानी रखनी चाहिये कि उसके द्वारा कोई साधनविरुद्ध काम न हो । साधनविरुद्ध काम न करनेसे साधककी स्वत: उन्नति होती है और साधनविरुद्ध काम करनेसे साधकका स्वत: पतन होता है । तात्पर्य है कि मनुष्यमें क्रियाका एक वेग रहता है । यदि उसके द्वारा उन्नतिकी क्रिया नहीं होगी तो फिर पतनकी क्रिया होगी । कारण कि स्थिर न रहना, प्रतिक्षण बदलना संसारका स्वभाव है । अत: साधक या तो उन्नतिमें जायगा या पतनमें जायगा । इसलिये साधक किसी भी जाति, वर्ण,आश्रम, मत, सम्प्रदाय आदिका क्यों न हो, उसको साधनविरुद्ध कार्यका त्याग करना ही पड़ेगा* अर्थात् प्राप्त वस्तुका दुरुपयोग, अपनी जानकारीका अनादर और संसारपर विश्वास‒इन तीनोंका त्याग करना ही पड़ेगा । साधनविरुद्ध कार्यके त्यागमें ही उसके साधनकी पूर्णता है ।
प्रश्न‒साधनविरुद्ध कार्यके मूलमें क्या है ?
उत्तर‒साधनविरुद्ध कार्यके मूलमें सुखभोगकी आसक्ति है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें सुखासक्ति बहुत बाधक है । सुखासक्ति अधिक होनेसे उसका त्याग कठिन, असम्भव दीखता है । परन्तु साधक इस सुखासक्तिके त्यागमें स्वतन्त्र है और विचारपूर्वक इसका त्याग कर सकता है । वह विचार करे कि मुझे वह सुख लेना है, जिसमें कोई कमी न हो तथा जो कभी नष्ट न हो‒
यं लख्या चापरं लाभ मन्यते नाधिक तत: ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
तं विद्याद्‌दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।

(गीता ६ । २२ - २३)
‘जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता ।’
‘जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है उसीको‘योग’ नामसे जानना चाहिये ।’
मनुष्यमें विचारकी जितनी शक्ति है, उतनी देवताओंमें भी नहीं है । वह विचार नहीं करता तो यह उसका प्रमाद है, असावधानी है ।
सुखभोगसे भोग्य वस्तुका नाश और अपना पतन होता है‒यह नियम है । जैसे, रागपूर्वक धनका भोग करते हैं तो धनका नाश और अपना पतन करते हैं । अपनेमें धनका महत्व, कामना, लोभ, आसक्ति, जड़ता, गुलामी आदि आना ही अपना पतन है । रागपूर्वक भोजन करते हैं तो अन्नका नाश और अपना पतन करते हैं । अपनेमें भोजनकी आसक्ति बढ़ना ही अपना पतन है ।
सांसारिक सुखभोगका तो कहना ही क्या है,साधनजन्य सुखका भोग करनेसे भी साधकका पतन हो जाता है ! जैसे, त्यागसे जो शान्ति मिलती है, उस शान्तिका उपभोग करनेसे वह त्याग नहीं रहता और साधकका पतन हो जाता है । कारण कि साधनजन्य सुखके भोगसे मरा हुआ अहंकार भी जीवित हो जाता है अर्थात् व्यक्तित्व जाग्रत् हो जाता है और दृढ़ हो जाता है जो कि महान् अनर्थका, जन्म-मरणका हेतु है । जबतक अपनेमें अच्छेपनका भाव रहता है अपनेमें कोई विशेषता दीखती है, तबतक व्यक्तित्व नष्ट नहीं होता अर्थात् अपनेमें एकदेशीयपना रहता है । अत: साधनमें ऊँची स्थिति होनेपर भी तथा अपनेमें जीवन्मुक्त या गुणातीत-अवस्थाकी मान्यता होनेपर भी उसका सुख नहीं भोगना चाहिये । इस विषयमें साधकको बहुत सावधान रहनेकी आवश्यकता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!



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