चतुःश्लोकी भागवत का अर्थ
ब्रह्मा जी की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान ने ब्रह्मा जी को चार श्लोंकों की भागवत सुनाई जिसे कि चतुःश्लोकी भागवत भी कहते हैं|
प्रथम श्लोक में भगवान ने ब्रह्मा जी को “आत्म-सत्ता (भगवान की सत्ता)’’ के बारे में बताया, जिसका अर्थ है : “मैं ही पहले था, अभी भी मैं हूँ और आगे यानि कि भविष्य में भी मैं ही रहूँगा”| “मेरे अतिरिक्त कुछ भी नही है| जब कुछ भी नहीं रहेगा, तब भी मैं रहूँगा| मैं ही आत्मा के रूप में सबके शरीर में विद्यमान रहता हूँ| जब शरीर नहीं रहेगा, तब भी मैं ( आत्मा के रूप में) रहूँगा|” परमात्मा हमेशा सभी प्राणियों में आत्मा के रूप में विद्यमान रहते हैं|
भगवान ने द्वितीय श्लोक में “माया तत्व” के बारे में कहा कि “माया (अज्ञान) भी मेरी ही शक्ति है| “मा”= नहीं और “या”= जो नहीं है फिर भी दिखाई दे यानि कि भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दे। माया सत्य को ढक देती है और असत्य का उद्घोष कर देती है)| ईश्वर के बिना जो कुछ दिखाई देता है वही ईश्वर की माया है|
हमें “मैं” और “मेरे” का भान माया के कारण ही होता है| मोह और माया से परे होने पर हम गुणातीत आत्माराम हो जाते हैं अर्थात् “मैं” और “मेरे” से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता| अज्ञान का आत्यंतिक विनाश करके परमात्मा की शरण लेना श्रेष्ठतम है| श्रीशुकदेव जी ने कहा कि हे राजन्! माया के कारण ही इस दृश्य-प्रपंच के साथ हमारा सम्बन्ध होता है और असत् सत्ता (संसार) के साथ आत्म-भाव पनपता है|
प्रातःस्मरणीय गोलोकवासी श्रीडोंगरे जी महाराज कहते थे कि माया भगवान की पहरेदार “कुतिया” है जो भगवान से मिलने नहीं देती, जैसे पालतू कुतिया किसी मेहमान के आने पर वह सबसे पहले दौड़कर आती है और किसी अंजान व्यक्ति को भौं-भौं करके अपने घरवालों से मिलने नहीं देती| इसी प्रकार माया रूपी कुतिया भी भगवान से मिलने में बाधक है परंतु यदि हम भगवान को सच्चे मन से पुकारें तो भगवान स्वयं ही इस माया रूपी परदे|पहरेदार| कुतिया को हमारे और अपने बीच से हटा देंगे| जैसे कुतिया का मालिक उस कुतिया को संभाल लेता है उसी प्रकार मायापति को साधक पुकारेगा तो वे अपनी माया रूपी कुतिया| पहरेदार को संभाल लेंगे| “ठाकुर ह्र्दय की आवाज़ सुनते हैं, प्रेम से आवाज़ दो तो ठाकुर दौड़े चले आयेंगें.” हमको अपनी सम्पूर्ण शक्ति से हर पल, हर जगह भगवान का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिए|
तृतीय श्लोक में भगवान ने ब्रह्माजी को “जगत सत्ता” (तत्व) के बारे में बताया| भगवान् ही स्वयं इस जगत (संसार) के रूप में विद्यमान हैं| भगवान से अलग जगत का कोई अस्तित्त्व है ही नहीं| ““भगवान की सत्ता (अस्तित्व) से ही जगत की सत्ता (अस्तित्व) है”| संसार परिवर्तनशील रास्ता है | जिसके द्वारा जगत (संसार ) में लोग आते -जाते रहते हैं, परंतु जगत (संसार) ज्यों का त्यों रहता है| हम, हमारे पिता, हमारे दादा, परदादा उनके पिता इत्यादि इस रास्ते रूपी संसार से आकर चले भी गये और हम भी चले जायेंगे| लेकिन ये संसार ऐसे का ऐसा ही है| सम्पूर्ण भूत-प्राणी जहाँ समाये जा रहे हैं और जहाँ विलीन होते जायेंगे, वही जगत है| जगत परिवर्तनशील है|
चतुर्थ श्लोक में भगवान ने “भगवत् प्राप्ति का साधन” बताया| भगवान ने समझाया कि “संसार कार्य है और सृजनकर्ता परमात्मा इसका कारण है| कारण नित्य है, कार्य परिवर्तनशील एवं मिथ्या है| बिना कारण के कार्य की परिकल्पना भी व्यर्थ है| इसे यहाँ अन्वय व्यतिरेक के माध्यम से समझाया है|
अन्वय= मिट्टी (कारण) के रहने पर घड़े (कार्य) का रहना|
व्यतिरेक = घड़े (कार्य) के न रहने पर भी मिट्टी (कारण) का रहना| तत्व (मिट्टी) की दृष्टि से घड़ा ,सुराही, कुल्हड़ आदि सब एक हैं और घड़ा, सुराही, कुल्हड़ के न रहने पर भी मिट्टी (तत्त्व) ज्यों की त्यों ही रहती है|
इसी प्रकार :
अन्वय = आत्मा (कारण) के रहने पर शरीर (कार्य) का रहना|
व्यतिरेक = शरीर (कार्य) के न रहने पर भी आत्मा (कारण) का रहना| अत: शरीर के रहने अथवा न रहने पर भी आत्म तत्त्व के रूप में सदा विद्यमान रहती है|
इन चार श्लोकों – “आत्मा, माया, जगत और भगवान को प्राप्त करने की विधि” से पता चलता है कि यह संसार ब्रह्ममय है अर्थात भगवान के अलावा यहां कुछ भी नही है|
तात्विक दृष्टि से जगत मिथ्या है| अतः जगत का विचार अधिक नहीं किया गया है परंतु सृष्टि के कर्ता का विचार बार-बार किया गया है|
ब्रह्माजी की समझ में आ गया कि हम भगवान के ही अंश हैं| मेरे अन्दर तो आत्मा के रूप में भगवान स्वयं बैठे हैं| जब मैं हूं ही नहीं तो मुझे अपने होने का अहंकार भी नहीं हो सकता| सब ब्रह्ममय है।
दस लक्षण वाला भागवत
एक बार नारद जी ने अपने पिता ब्रह्मा जी की बहुत सेवा की और मायापति की माया का तत्त्व जानने की इच्छा प्रकट की| ब्रह्माजी नारद जी की सेवा से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने नारद जी को दस लक्षण वाला भागवत पुराण सुनाया| श्रीशुकदेव जी ने परीक्षित जी से कहा कि हे राजन्! इस भागवत पुराण में दस विषयों का वर्णन है-
1-सर्ग :- पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु) और इन पाँचों महाभूतों के विषय:- गन्ध, रस, तेज, व्याप्त, वेग| पाँच ज्ञानेन्द्रिय :-कान, आँख, नासिका, रसना, त्वचा; पाँच कर्मेन्द्रियाँ :- हाथ, पाँव, गुदा, उपस्थ और वाणी, अहंकार, मन, बुद्धि और महतत्त्व की जब उत्पत्ति होती है तो उसे ‘सर्ग’ कहते हैं| इसे तृतीय स्कन्ध में बताया है|
2-विसर्ग:- जब विभिन्न चराचर सृष्टियों का निर्माण होता है उसे ‘विसर्ग’ कहते है| इसका चतुर्थ स्कन्ध में वर्णन है|
3- स्थान :- हर पल नाश की ओर बढ़ने वाली सृष्टि को भगवान द्वारा मर्यादा में रखने को ही “स्थान” कहते हैं| इसे पंचम स्कन्ध में प्रतिपादित किया है|
4- पोषण:- भगवान अपने भक्तों को सृष्टि में सुरक्षित रखते हैं| यही पोषण है| ”पोषणं तदनुग्रहः” पोषण का मतलब भगवान का अनुग्रह| इसका प्रतिपादन छठे स्कन्ध में है|
5- ऊति :- कर्म वासना जो कर्म द्वारा जीवों को बन्धन में डाल देती है उन्हें ऊति कहते हैं| यह सप्तम स्कन्ध का विषय है|
6- मन्वन्तर :- भगवद्-भक्ति और शुद्ध-प्रजापाल रूप अनुष्ठान जब-जब होता है उसे मन्वन्तर (सद्धर्म) कहते है| इसका वर्णन अष्टम स्कन्ध में है|
7-ईशानु कथा:- भगवान के विभिन्न अवतार और भक्तों द्वारा विभिन्न आख्यानों से युक्त गाथाएँ| यह नवम स्कन्ध का विषय है|
8-निरोध :- जब भगवान योगनिद्रा में सोते हैं तब जीव का भगवान में लीन होना ही ‘निरोध’ कहलाता है| इसका कथानकों के द्वारा दशम स्कन्ध में प्रतिपादन ह|
9- मुक्ति :- सब कुछ त्याग कर अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मा में लीन होना ही मुक्ति है| यह एकादश स्कन्ध का विवेचन है|
10-आश्रय :- वह तत्व जिस से इस चराचर जगत की उत्पत्ति, पालन और प्रलय होता है, वह परम ब्रह्म ही सबका आश्रय है| दशम स्कन्ध में आश्रय तत्व का प्रतिपादन है| हालांकि पुराणों के पाँच लक्षण होते हैं, किंतु भागवत महापुराण है अतः इसके दस लक्षण बताये गये हैं| नारद जी ने यही उपदेश व्यास जी को दिया और उन्होंने अठारह हजार श्लोक वाला भागवत महापुराण रचा|
मृत्यु क्या है?
मृत्यु एक विश्राम स्थल है, एक पड़ाव है| आत्मा शरीर से भिन्न है| जैसे हम पुराने कपड़े बदल कर नये कपड़े पहन लेते हैं, जीवात्मा भी पुराने शरीर को इसी दुनिया में छोड़कर नया शरीर धारण कर लेती है| तत्पश्चात् जीवात्मा की नई यात्रा प्रारम्भ हो जाती है|
जाता नहीं है कोई दुनियाँ से दूर चलकर |
प्रथम श्लोक में भगवान ने ब्रह्मा जी को “आत्म-सत्ता (भगवान की सत्ता)’’ के बारे में बताया, जिसका अर्थ है : “मैं ही पहले था, अभी भी मैं हूँ और आगे यानि कि भविष्य में भी मैं ही रहूँगा”| “मेरे अतिरिक्त कुछ भी नही है| जब कुछ भी नहीं रहेगा, तब भी मैं रहूँगा| मैं ही आत्मा के रूप में सबके शरीर में विद्यमान रहता हूँ| जब शरीर नहीं रहेगा, तब भी मैं ( आत्मा के रूप में) रहूँगा|” परमात्मा हमेशा सभी प्राणियों में आत्मा के रूप में विद्यमान रहते हैं|
भगवान ने द्वितीय श्लोक में “माया तत्व” के बारे में कहा कि “माया (अज्ञान) भी मेरी ही शक्ति है| “मा”= नहीं और “या”= जो नहीं है फिर भी दिखाई दे यानि कि भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दे। माया सत्य को ढक देती है और असत्य का उद्घोष कर देती है)| ईश्वर के बिना जो कुछ दिखाई देता है वही ईश्वर की माया है|
हमें “मैं” और “मेरे” का भान माया के कारण ही होता है| मोह और माया से परे होने पर हम गुणातीत आत्माराम हो जाते हैं अर्थात् “मैं” और “मेरे” से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता| अज्ञान का आत्यंतिक विनाश करके परमात्मा की शरण लेना श्रेष्ठतम है| श्रीशुकदेव जी ने कहा कि हे राजन्! माया के कारण ही इस दृश्य-प्रपंच के साथ हमारा सम्बन्ध होता है और असत् सत्ता (संसार) के साथ आत्म-भाव पनपता है|
प्रातःस्मरणीय गोलोकवासी श्रीडोंगरे जी महाराज कहते थे कि माया भगवान की पहरेदार “कुतिया” है जो भगवान से मिलने नहीं देती, जैसे पालतू कुतिया किसी मेहमान के आने पर वह सबसे पहले दौड़कर आती है और किसी अंजान व्यक्ति को भौं-भौं करके अपने घरवालों से मिलने नहीं देती| इसी प्रकार माया रूपी कुतिया भी भगवान से मिलने में बाधक है परंतु यदि हम भगवान को सच्चे मन से पुकारें तो भगवान स्वयं ही इस माया रूपी परदे|पहरेदार| कुतिया को हमारे और अपने बीच से हटा देंगे| जैसे कुतिया का मालिक उस कुतिया को संभाल लेता है उसी प्रकार मायापति को साधक पुकारेगा तो वे अपनी माया रूपी कुतिया| पहरेदार को संभाल लेंगे| “ठाकुर ह्र्दय की आवाज़ सुनते हैं, प्रेम से आवाज़ दो तो ठाकुर दौड़े चले आयेंगें.” हमको अपनी सम्पूर्ण शक्ति से हर पल, हर जगह भगवान का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिए|
तृतीय श्लोक में भगवान ने ब्रह्माजी को “जगत सत्ता” (तत्व) के बारे में बताया| भगवान् ही स्वयं इस जगत (संसार) के रूप में विद्यमान हैं| भगवान से अलग जगत का कोई अस्तित्त्व है ही नहीं| ““भगवान की सत्ता (अस्तित्व) से ही जगत की सत्ता (अस्तित्व) है”| संसार परिवर्तनशील रास्ता है | जिसके द्वारा जगत (संसार ) में लोग आते -जाते रहते हैं, परंतु जगत (संसार) ज्यों का त्यों रहता है| हम, हमारे पिता, हमारे दादा, परदादा उनके पिता इत्यादि इस रास्ते रूपी संसार से आकर चले भी गये और हम भी चले जायेंगे| लेकिन ये संसार ऐसे का ऐसा ही है| सम्पूर्ण भूत-प्राणी जहाँ समाये जा रहे हैं और जहाँ विलीन होते जायेंगे, वही जगत है| जगत परिवर्तनशील है|
चतुर्थ श्लोक में भगवान ने “भगवत् प्राप्ति का साधन” बताया| भगवान ने समझाया कि “संसार कार्य है और सृजनकर्ता परमात्मा इसका कारण है| कारण नित्य है, कार्य परिवर्तनशील एवं मिथ्या है| बिना कारण के कार्य की परिकल्पना भी व्यर्थ है| इसे यहाँ अन्वय व्यतिरेक के माध्यम से समझाया है|
अन्वय= मिट्टी (कारण) के रहने पर घड़े (कार्य) का रहना|
व्यतिरेक = घड़े (कार्य) के न रहने पर भी मिट्टी (कारण) का रहना| तत्व (मिट्टी) की दृष्टि से घड़ा ,सुराही, कुल्हड़ आदि सब एक हैं और घड़ा, सुराही, कुल्हड़ के न रहने पर भी मिट्टी (तत्त्व) ज्यों की त्यों ही रहती है|
इसी प्रकार :
अन्वय = आत्मा (कारण) के रहने पर शरीर (कार्य) का रहना|
व्यतिरेक = शरीर (कार्य) के न रहने पर भी आत्मा (कारण) का रहना| अत: शरीर के रहने अथवा न रहने पर भी आत्म तत्त्व के रूप में सदा विद्यमान रहती है|
इन चार श्लोकों – “आत्मा, माया, जगत और भगवान को प्राप्त करने की विधि” से पता चलता है कि यह संसार ब्रह्ममय है अर्थात भगवान के अलावा यहां कुछ भी नही है|
तात्विक दृष्टि से जगत मिथ्या है| अतः जगत का विचार अधिक नहीं किया गया है परंतु सृष्टि के कर्ता का विचार बार-बार किया गया है|
ब्रह्माजी की समझ में आ गया कि हम भगवान के ही अंश हैं| मेरे अन्दर तो आत्मा के रूप में भगवान स्वयं बैठे हैं| जब मैं हूं ही नहीं तो मुझे अपने होने का अहंकार भी नहीं हो सकता| सब ब्रह्ममय है।
दस लक्षण वाला भागवत
एक बार नारद जी ने अपने पिता ब्रह्मा जी की बहुत सेवा की और मायापति की माया का तत्त्व जानने की इच्छा प्रकट की| ब्रह्माजी नारद जी की सेवा से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने नारद जी को दस लक्षण वाला भागवत पुराण सुनाया| श्रीशुकदेव जी ने परीक्षित जी से कहा कि हे राजन्! इस भागवत पुराण में दस विषयों का वर्णन है-
1-सर्ग :- पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु) और इन पाँचों महाभूतों के विषय:- गन्ध, रस, तेज, व्याप्त, वेग| पाँच ज्ञानेन्द्रिय :-कान, आँख, नासिका, रसना, त्वचा; पाँच कर्मेन्द्रियाँ :- हाथ, पाँव, गुदा, उपस्थ और वाणी, अहंकार, मन, बुद्धि और महतत्त्व की जब उत्पत्ति होती है तो उसे ‘सर्ग’ कहते हैं| इसे तृतीय स्कन्ध में बताया है|
2-विसर्ग:- जब विभिन्न चराचर सृष्टियों का निर्माण होता है उसे ‘विसर्ग’ कहते है| इसका चतुर्थ स्कन्ध में वर्णन है|
3- स्थान :- हर पल नाश की ओर बढ़ने वाली सृष्टि को भगवान द्वारा मर्यादा में रखने को ही “स्थान” कहते हैं| इसे पंचम स्कन्ध में प्रतिपादित किया है|
4- पोषण:- भगवान अपने भक्तों को सृष्टि में सुरक्षित रखते हैं| यही पोषण है| ”पोषणं तदनुग्रहः” पोषण का मतलब भगवान का अनुग्रह| इसका प्रतिपादन छठे स्कन्ध में है|
5- ऊति :- कर्म वासना जो कर्म द्वारा जीवों को बन्धन में डाल देती है उन्हें ऊति कहते हैं| यह सप्तम स्कन्ध का विषय है|
6- मन्वन्तर :- भगवद्-भक्ति और शुद्ध-प्रजापाल रूप अनुष्ठान जब-जब होता है उसे मन्वन्तर (सद्धर्म) कहते है| इसका वर्णन अष्टम स्कन्ध में है|
7-ईशानु कथा:- भगवान के विभिन्न अवतार और भक्तों द्वारा विभिन्न आख्यानों से युक्त गाथाएँ| यह नवम स्कन्ध का विषय है|
8-निरोध :- जब भगवान योगनिद्रा में सोते हैं तब जीव का भगवान में लीन होना ही ‘निरोध’ कहलाता है| इसका कथानकों के द्वारा दशम स्कन्ध में प्रतिपादन ह|
9- मुक्ति :- सब कुछ त्याग कर अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मा में लीन होना ही मुक्ति है| यह एकादश स्कन्ध का विवेचन है|
10-आश्रय :- वह तत्व जिस से इस चराचर जगत की उत्पत्ति, पालन और प्रलय होता है, वह परम ब्रह्म ही सबका आश्रय है| दशम स्कन्ध में आश्रय तत्व का प्रतिपादन है| हालांकि पुराणों के पाँच लक्षण होते हैं, किंतु भागवत महापुराण है अतः इसके दस लक्षण बताये गये हैं| नारद जी ने यही उपदेश व्यास जी को दिया और उन्होंने अठारह हजार श्लोक वाला भागवत महापुराण रचा|
मृत्यु क्या है?
मृत्यु एक विश्राम स्थल है, एक पड़ाव है| आत्मा शरीर से भिन्न है| जैसे हम पुराने कपड़े बदल कर नये कपड़े पहन लेते हैं, जीवात्मा भी पुराने शरीर को इसी दुनिया में छोड़कर नया शरीर धारण कर लेती है| तत्पश्चात् जीवात्मा की नई यात्रा प्रारम्भ हो जाती है|
जाता नहीं है कोई दुनियाँ से दूर चलकर |
मिलते हैं सब यहीं पर कपड़े बदल-बदल कर ||
अधिकारी शिष्य को सद्गुरू मिलते हैं| परीक्षित के लिये भी शुकदेव जी स्वयं चलकर आये थे| शुकदेव जी में पूर्णतः ज्ञान, भक्ति और वैराग्य (मन विषय की ओर न जाये) था| सम्पूर्णतः वैराग्यमय वक्ता उत्तम होता है|
श्री शुकदेव जी ने कहा कि सात दिन तो बहुत हैं, यदि भगवान में प्रेम और शरणागति है तो सब कुछ है और यदि ऐसा नहीं है तो सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है| जैसे मानो एक धनी (सम्पन्न) व्यक्ति बिना टिकट और एक देहात का निर्धन (गरीब) व्यक्ति टिकट सहित एक साथ रेल में यात्रा कर रहे हों| मार्ग में परिचालक (टी.टी.ई.) आए और टिकट माँगे तो निर्धन व्यक्ति को घबराहट नहीं होगी परंतु घबराहट तो धनी को होगी जिसके पास टिकट नहीं है| हम भी जीवन पथ के पथिक हैं, हमारे पास संसार का वैभव तो हो परंतु प्रभु शरणागति(ईश्वर के बिना मेरा कोई नहीं है) का टिकट न हो तो घबराहट तो अवश्य ही होगी | अतः हमें भगवान का ध्यान (शरणागति) करना चाहिए| जब शरीर ही मेरा नहीं है तो मेरा है ही कौन, सिवाय भगवान के? संग्रह से ममता बढ़ती है अतः अपरिग्रही बनो| तृप्ति भोग में नहीं है| इन्द्रियों को भोग से नहीं, प्रभु स्मरण व सेवा से शांति मिलती है| सोचो मैंने मृत्यु की तैयारी की है या नहीं? मृत्यु से ड़रते रहें और भगवान का ध्यान रखें| इसी से वैराग्य आता है और पाप छूटते हैं| जिसे संसार में कुछ नहीं चाहिए अथवा सब कुछ चाहिए उसे भी भगवान को तीव्र भक्ति-योग से रिझाना चाहिए| शुकदेव जी जैसे गुरू मिलें तो सात वार क्या सात मिनटों में भी मुक्ति मिल सकती है परंतु शिष्य परीक्षित जैसा अधिकारी होना चाहिए|
विराट पुरूष की धारणा करने से मन शुद्ध होता है| सम्पूर्ण जगत को ब्रह्ममय जानना ही विराट पुरूष की धारणा है| परंतु विराट पुरूष की कल्पना व धारणा कठिन है| अतः साधक अति सुन्दर नारायण भगवान का ध्यान करते हैं| परमात्मा का निरंतर स्मरण करना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है| संसार में व्यवहार करते हुए भी ईश्वर का स्मरण होना चाहिए| ईश्वर का ध्यान चाहे न हो लेकिन संसार का ध्यान छोड़ने की आदत डालनी चाहिए| मन को मृत्यु का भय रहने से भी परमात्मा में ध्यान लगेगा| प्रभु के एक अंग का चिंतन करना ध्यान है और प्रभु के सर्वांग का चिंतन करना धारणा है| भगवान निराकार और निर्विकार हैं| ये संसार साकार विकार सहित है| ये जगत सपना है और सपना कभी अपना नहीं होता| भगवान हमेशा हमारे साथ हमारे हृदय में रहते हैं| अतः केवल भगवान ही अपने हैं|
“ उमा कहूँ मैं अनुभव अपना|सत हरि भजन जगत सब सपना”|| मानस
श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित से कहा कि हे राजन्! भोग में क्षणिक सुख मिलता है परंतु त्याग में सदैव के लिये अनंत सुख की प्राप्ति होती है| एक बार नारद जी ने भी अपने पिता ब्रह्मा जी से इसी प्रकार का प्रश्न किया था| जब नारद जी ने ब्रह्मा जी को ध्यान करते हुए देखा तो पूछा कि हे पिताश्री! आप तो सृष्टि के रचयिता (निर्माण करने वाले) हैं | फिर भी आप किसका ध्यान कर रहे हैं? ऐसी कौन सी सर्वोपरि, सर्वोत्तम शक्ति है जिसका आप ध्यान करते हैं?
सात वारों से शिक्षा
रविवार –रवि (सूर्य) का दिन है| सूर्य स्वयं तप कर सारे संसार को प्रकाश देता है| अतः जो स्वयं कष्ट (तप कर) सहकर दूसरे को रोशनी दे उस के जीवन में शांति आती है| उसी का जीवन सार्थक है|
सोमवार- सोम (चन्द्रमा) अर्थात् शीतल| परोपकारी को शांति मिलती है|
मंगल – शांति से मंगल (शुभ) होता है|
बुध - बुध मतलब ज्ञान अर्थात् ज्ञानी| जीवन में मंगल होने पर बोध(ज्ञान) होता है|
बृहस्पति – गुरु का वार है| ज्ञानी होने पर गुरू कहलाता है| गुरू मन और स्वभाव को सुधारते हैं जिसकी प्रत्येक क्रिया ज्ञानमय हो वह उत्तम गुरू है|
शुक्र – गुरू बनने के बाद जीवन में शुक्र यानि संयम आता है|
संयम आने से व्यक्ति स्वतः ही पराक्रमी बन जाता है| शुक्र का मतलब पराक्रमी भी होता है|
शनि – संयमी, पराक्रमी व्यक्ति शनि को भी वश में कर सकता है अर्थात् काल पर भी विजय प्राप्त कर लेता है|
अधिकारी शिष्य को सद्गुरू मिलते हैं| परीक्षित के लिये भी शुकदेव जी स्वयं चलकर आये थे| शुकदेव जी में पूर्णतः ज्ञान, भक्ति और वैराग्य (मन विषय की ओर न जाये) था| सम्पूर्णतः वैराग्यमय वक्ता उत्तम होता है|
श्री शुकदेव जी ने कहा कि सात दिन तो बहुत हैं, यदि भगवान में प्रेम और शरणागति है तो सब कुछ है और यदि ऐसा नहीं है तो सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है| जैसे मानो एक धनी (सम्पन्न) व्यक्ति बिना टिकट और एक देहात का निर्धन (गरीब) व्यक्ति टिकट सहित एक साथ रेल में यात्रा कर रहे हों| मार्ग में परिचालक (टी.टी.ई.) आए और टिकट माँगे तो निर्धन व्यक्ति को घबराहट नहीं होगी परंतु घबराहट तो धनी को होगी जिसके पास टिकट नहीं है| हम भी जीवन पथ के पथिक हैं, हमारे पास संसार का वैभव तो हो परंतु प्रभु शरणागति(ईश्वर के बिना मेरा कोई नहीं है) का टिकट न हो तो घबराहट तो अवश्य ही होगी | अतः हमें भगवान का ध्यान (शरणागति) करना चाहिए| जब शरीर ही मेरा नहीं है तो मेरा है ही कौन, सिवाय भगवान के? संग्रह से ममता बढ़ती है अतः अपरिग्रही बनो| तृप्ति भोग में नहीं है| इन्द्रियों को भोग से नहीं, प्रभु स्मरण व सेवा से शांति मिलती है| सोचो मैंने मृत्यु की तैयारी की है या नहीं? मृत्यु से ड़रते रहें और भगवान का ध्यान रखें| इसी से वैराग्य आता है और पाप छूटते हैं| जिसे संसार में कुछ नहीं चाहिए अथवा सब कुछ चाहिए उसे भी भगवान को तीव्र भक्ति-योग से रिझाना चाहिए| शुकदेव जी जैसे गुरू मिलें तो सात वार क्या सात मिनटों में भी मुक्ति मिल सकती है परंतु शिष्य परीक्षित जैसा अधिकारी होना चाहिए|
विराट पुरूष की धारणा करने से मन शुद्ध होता है| सम्पूर्ण जगत को ब्रह्ममय जानना ही विराट पुरूष की धारणा है| परंतु विराट पुरूष की कल्पना व धारणा कठिन है| अतः साधक अति सुन्दर नारायण भगवान का ध्यान करते हैं| परमात्मा का निरंतर स्मरण करना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है| संसार में व्यवहार करते हुए भी ईश्वर का स्मरण होना चाहिए| ईश्वर का ध्यान चाहे न हो लेकिन संसार का ध्यान छोड़ने की आदत डालनी चाहिए| मन को मृत्यु का भय रहने से भी परमात्मा में ध्यान लगेगा| प्रभु के एक अंग का चिंतन करना ध्यान है और प्रभु के सर्वांग का चिंतन करना धारणा है| भगवान निराकार और निर्विकार हैं| ये संसार साकार विकार सहित है| ये जगत सपना है और सपना कभी अपना नहीं होता| भगवान हमेशा हमारे साथ हमारे हृदय में रहते हैं| अतः केवल भगवान ही अपने हैं|
“ उमा कहूँ मैं अनुभव अपना|सत हरि भजन जगत सब सपना”|| मानस
श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित से कहा कि हे राजन्! भोग में क्षणिक सुख मिलता है परंतु त्याग में सदैव के लिये अनंत सुख की प्राप्ति होती है| एक बार नारद जी ने भी अपने पिता ब्रह्मा जी से इसी प्रकार का प्रश्न किया था| जब नारद जी ने ब्रह्मा जी को ध्यान करते हुए देखा तो पूछा कि हे पिताश्री! आप तो सृष्टि के रचयिता (निर्माण करने वाले) हैं | फिर भी आप किसका ध्यान कर रहे हैं? ऐसी कौन सी सर्वोपरि, सर्वोत्तम शक्ति है जिसका आप ध्यान करते हैं?
सात वारों से शिक्षा
रविवार –रवि (सूर्य) का दिन है| सूर्य स्वयं तप कर सारे संसार को प्रकाश देता है| अतः जो स्वयं कष्ट (तप कर) सहकर दूसरे को रोशनी दे उस के जीवन में शांति आती है| उसी का जीवन सार्थक है|
सोमवार- सोम (चन्द्रमा) अर्थात् शीतल| परोपकारी को शांति मिलती है|
मंगल – शांति से मंगल (शुभ) होता है|
बुध - बुध मतलब ज्ञान अर्थात् ज्ञानी| जीवन में मंगल होने पर बोध(ज्ञान) होता है|
बृहस्पति – गुरु का वार है| ज्ञानी होने पर गुरू कहलाता है| गुरू मन और स्वभाव को सुधारते हैं जिसकी प्रत्येक क्रिया ज्ञानमय हो वह उत्तम गुरू है|
शुक्र – गुरू बनने के बाद जीवन में शुक्र यानि संयम आता है|
संयम आने से व्यक्ति स्वतः ही पराक्रमी बन जाता है| शुक्र का मतलब पराक्रमी भी होता है|
शनि – संयमी, पराक्रमी व्यक्ति शनि को भी वश में कर सकता है अर्थात् काल पर भी विजय प्राप्त कर लेता है|
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