सीताराम
राजा जनक की पुत्री का नाम सीता इसलिए था कि वे जनक को हल कर्षित रेखाभूमि से प्राप्त हुई थीं। बाद में उनका विवाह भगवान राम से हुआ। वाल्मीकि रामायण में जनक जी सीता की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार कहते हैं:
अथ मे कृषत: क्षेत्रं लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता॥
भूतकादुत्त्थिता सा तु व्यवर्द्धत ममात्मजा।
दीर्यशुक्लेति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा॥
यही कथा पद्म पुराण तथा भविष्य पुराण में विस्तार के साथ कही गयी है।
साहित्य में सीता
सीता के आदर्श से प्रभावित लक्ष्मण कहते हैं-
“नारी के जिस भव्य भाव का, स्वाभिमान भाषी हूँ मैं । उसे नरों में भी पाने का, उत्सुक अभिलाषी हूँ मैं॥ सीता- रामकाव्य परम्परा के अंतर्गत सीता भारतीय नारी-भावना का चरमोत्कृष्ट निदर्शन है, जहाँ नाना पुराण निगमागमों में व्यक्त नारी आदर्श सप्राण एवं जीवन्त हो उठे हैं । नारी पात्रों में सीता ही सर्वाधिक, विनयशीला, लज्जाशीला, संयमशीला, सहिष्णु और पातिव्रत की दीप्ति से दैदीप्यमान नारी हैं । समूचा रामकाव्य उसके तप, त्याग एवं बलिदान के मंगल कुंकुम से जगमगा उठा है । लंका में सीता को पहचानकर उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए हनुमान जी ने कहा-
“दुष्करं कृतवान् रामो हीनो यदनया प्रभुः धारयत्यात्मनो देहं न शोकेनावसीदति । यदि नामः समुद्रान्तां मेदिनीं परिवर्तयेत् अस्थाः कृते जगच्चापि युक्त मित्येव मे मतिः।।
अर्थात् ऐसी सीता के बिना जीवित रहकर राम ने सचमुच ही बड़ा दुष्कर कार्य किया है। इनके लिए यदि राम समुद्र-पर्यन्त पृथ्वी को पलट दें तो भी मेरी समझ में उचित ही होगा, त्रैलौक्य का राज्य सीता की एक कला के बराबर भी नहीं है । पत्नी व पति भारतीय संस्कृति में एक-दूसरे के पूरक हैं । आदर्श पत्नी का चरित्र हमें जगदम्बा जानकी के चरित्र में तब तक दृष्टि-गोचर होता है, जब श्रीराम द्वारा वन में साथ न चलने की प्रेरणा करने पर अपना अंतिम निर्णय इन शब्दों में कह देती है- प्राणनाथ तुम्ह बिनु जग माहीं । मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं । जिय बिन देह नदी बिनु बारी । तैसिअ नाथ पुरूष बिनु नारी॥
विषादग्रस्त होकर भी पत्नी अथवा पति को अपने जीवन-साथी का ध्यान रखना भारतीय सांस्कृतिक आदर्श है । सीता को अशोकवाटिका में रखकर रावण ने साम, दाम, दण्ड, भेद आदि उपायों से पथ-विचलित करने का प्रयास किया, परन्तु सीता मे अपने पारिवारिक आदर्श का परिचय देते हुए केवल श्रीराम का ही ध्यान किया,
तृन धरि ओट कहति वैदेही, सुमिरि अवधपति परम सनेही ।
सुनु दस मुख खद्योत प्रकासा, कबहुँ कि नलिनी करइ विकासा॥
वनगमन के अवसर पर सीता जब उर्मिला के प्रति संवेदना प्रकट करती है, उस समय माता सुमित्रा के मार्मिक उद्गारों में सीता के चरित्र की झाँकी मिलती है-
पति-परायणा, पतित भावना, भक्ति भावना, भक्ति भावना मृदु तुम हो, स्नेहमयी, वात्सल्यमयी, श्रीकृराम-कामना मृदु तुम हो॥[सीता एक ओर भारतीय आदर्श पत्नी है, जिनमें पति-परायणता, त्याग, सेवा, शील और सौजन्य है, तो दूसरी ओर वे युग-जीवन की मर्यादा के अनुरूप श्रमसाध्य जीवन-यापन में गौरव का अनुभव करने वाली नारी हैं,
औरों के हाथों यहाँ नहीं चलती हूँ । अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ॥
लोकापवाद के कारण सीता निर्वासित होती है, परन्तु वह अपना उदार हृदय व सहिष्णु चरित्र का परित्याग नहीं करती और न ही पति को दोष देती है, बल्कि इसे लोकोत्तर त्याग कहकर शिरोधार्य करती है व अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करती है-
यदि कलंकिता हुई कीर्ति तो मुँह कैसे दिखलाऊँगी । जीवनधर पर उत्सर्गित हो जीवन धन्य बनाऊँगी । है लोकोत्तर त्याग अपना लोकाराधन है न्यारा । कैसे संभव है कि वह न हो शिरोधार्य्य मेरे द्वारा ।।
इसी प्रकार समस्त ग्रंथों में सीता के चरित्र का उज्जवलतम पक्ष प्रस्तुत हुआ है । वह राम-कथा के केन्द्र में रहकर केन्द्रीय पात्र बनी हैं ।
सीता का जन्म
मिथिला प्रदेश के राजा जनक के राज्य में एक बार अकाल पड़ने लगा। वे स्वयं हल जोतने लगे। तभी पृथ्वी को फोड़कर सीता निकल आयी। जब राजा बीज बो रहे थे तब सीता को धूल में पड़ी पाकर उन्होंने उठा लिया। उन्होंने आकाशवाणी सुनी - 'यह तुम्हारी धर्मकन्या है।' तब तक राजा की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने उसे पुत्रीवत पाला और अपनी बड़ी रानी को सौंप दिया।
सीता का स्वयंवर
किशोरी सीता के लिए योग्य वर प्राप्त करना कठिन हो गया, क्योंकि सीता ने मानव-योनि से जन्म नहीं लिया था। अंत में राजा जनक ने सीता का स्वयंवर रचा। एक बार दक्ष यक्ष के अवसर पर वरुण देव ने जनक को एक धनुष और बाणों से आपूरित दो तरकश दिये थे। वह धनुष अनेक लोग मिलकर भी हिला नहीं पाते थे। जनक ने घोषणा की कि जो मनुष्य धनुष को उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ा देगा, उससे वे सीता का विवाह कर देंगे। राजा इस कसौटी पर असफल रहे तो उन्होंने अपना अपमान जानकर जनकपुरी को तहस-नहस कर डाला। राजा जनक ने तपस्या से देवताओं को प्रसन्न किया तथा उनकी चतुरंगिणी सेना से उन राजाओं को परास्त किया। राजा जनक से यह वृत्तांत जानकर विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को वह धनुष दिखलाने की इच्छा प्रकट की। जनक की आज्ञा से आठ पहियों वाले संदूक में बंद उस धनुष को पांच हज़ार वीर ठेल कर लाये। जनक ने कहा कि जिस धनुष को उठाने, प्रत्यंचा चढ़ाने और टंकार करने में देवता, दानव, दैत्य, राक्षस, गंधर्व और किन्नर भी समर्थ नहीं हैं, उसे मनुष्य भला कैसे उठा सकता है! संदूक खोलकर, राजा जनक की अनुमति से, राम ने अत्यंत सहजता से वह धनुष उठाकर चढ़ाया और मध्य से तोड़ डाला। राम, लक्ष्मण, विश्वामित्र और जनक के अतिरिक्त शेष समस्त उपस्थित गण तत्काल बेहोश हो गये। जनक ने प्रसन्नचित्त सीता का विवाह राम से करने की ठानी और राजा दशरथ को सादर लाने के लिए मन्त्रियों को अयोध्या भेजा। राजा दशरथ ने वसिष्ठ, वामदेव तथा अपने मन्त्रियों से सलाह की और विदेह के नगर की ओर प्रस्थान किया। राजा जनक ने अपने भाई कुशध्वज को भी सांकाश्या नगरी से बुला भेजा। राजा दशरथ और जनक ने अपनी वंशावली का पूर्ण परिचय देकर सीता और उर्मिला का विवाह राम और लक्ष्मण से तय कर दिया तथा विश्वामित्र के प्रस्ताव से कुशध्वज की दो सुंदरी कन्याओं मांडवी-श्रुतकीर्ति का विवाह भरत तथा शत्रुघ्न के साथ निश्चित कर दिया। उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में चारों भाइयों का विवाह हो गया।
राम का रावण से युद्ध
कालांतर में कैकेयी के वर मांग लेने पर सीता और लक्ष्मण सहित राम चौदह वर्ष के वनवास के लिए चले गये। वन में रावण ने सीता का हरण किया। फलस्वरूप राम - रावण युद्ध हुआ। रणक्षेत्र में वानर-सेना तथा राम - लक्ष्मण को व्यग्र करने के निमित्त मेघनाद ने माया का विस्तार किया। एक मायावी सीता की रचना की, जो सीता की भांति ही कृशकाय तथा अस्त-व्यस्त वेशभूषा धारण किये थी। मेघनाद ने उस मायावी सीता को अपने रथ के सामने बैठा कर रणक्षेत्र में घूमना प्रारंभ किया। वानरों ने उसे सीता समझकर प्रहार नहीं किया। मेघनाद ने मायावी सीता के बाल पकड़कर खींचे तथा उसके दो टुकड़े करके मार डाला। चारों ओर फैला ख़ून देखकर सब लोग शोकाकुल हो उठे। हनुमान ने सीता को मरा जानकर वानरों को युद्ध न करने की व्यवस्था दी क्योंकि जिस सीता के लिए युद्ध कर रहे थे, वही नहीं रही तो युद्ध करना व्यर्थ है। यह देखकर मेघनाद निकुंभिला देवी के स्थान पर जाकर हवन करने लगा। राम ने सीता के निधन के विषय में जाना तो अचेत हो गये। जब राम की चेतना लौटी तो लक्ष्मण ने अनेक प्रकार से उनको समझाया तथा विभीषण ने कहा कि 'रावण कभी भी सीता को मारने की आज्ञा नहीं दे सकता, अत: यह निश्चय ही माया का प्रदर्शन किया गया होगा
अग्नि परीक्षा
लंका-विजय के उपरांत राम ने सीता से कहा- 'तुम रावण के पास बहुत रही हो, अत: मुझे तुम्हारे चरित्र पर संदेह है। तुम स्वेच्छा से लक्ष्मण, भरत अथवा विभीषण किसी के भी पास जाकर रहो, मैं तुम्हें ग्रहण नहीं करूंगा।' सीता ने ग्लानि, अपमान और दु:ख से विगलित होकर चिता तैयार करने की आज्ञा दी। लक्ष्मण ने चिता तैयार की। सीता ने यह कहा - 'यदि मन - वचन - कर्म से मैंने सदैव राम को ही स्मरण किया है तथा रावण जिस शरीर को उठाकर ले गया था, वह अवश था, तब अग्निदेव मेरी रक्षा करें।' और जलती हुई चिता में प्रवेश किया। अग्निदेव ने प्रत्यक्ष रूप धारण करके सीता को गोद में उठाकर राम के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए कहा कि वह हर प्रकार से पवित्र हैं। तदुपरांत राम ने प्रसन्न भाव से सीता को ग्रहण किया और उपस्थित समुदाय को बतलाया कि उन्होंने लोक निन्दा के भय से सीता को ग्रहण नहीं किया था।
सीता का त्याग
कुछ समय बाद मन्त्रियों और दुर्मुख नामक एक गुप्तचर के मुँह से राम ने जाना कि प्रजाजन सीता की पवित्रता के विषय में संदिग्ध हैं। अत: सीता और राम को लेकर अनेक बातें कहते हैं। सीता गर्भवती थीं और उन्होंने राम से एक बार तपोवन की शोभा देखने की इच्छा प्रकट की थी। रघु वंश को कलंक से बचाने के लिए राम ने सीता को तपोवन की शोभा देखने के बहाने से लक्ष्मण के साथ भेजा। लक्ष्मण को अलग बुलाकर राम ने कहा कि वह सीता को वहीं छोड़ आये। लक्ष्मण ने तपोवन में पहुंचकर अत्यंत उद्विग्न मन से सीता से सब कुछ कह सुनाया और लौट आया। सीता का रूदन सुनकर वाल्मीकि ने दिव्य दृष्टि से सब बातें जान लीं तथा सीता को अपने आश्रम में स्थान दिया। उसी आश्रम में सीता ने लव और कुश नामक पुत्रों को जन्म दिया। बालकों का लालन-पालन भी आश्रम में ही हुआ। राम इस सबके विषय में कुछ नहीं जानते थे।
अश्वमेध यज्ञ
जब राम ने अश्वमेध यज्ञ किया, उस समय लव और कुश नामक शिष्यों को वाल्मीकि ने रामायण सुनाने के लिए भेजा। राम ने मोद भाव से वह चरित्र सुना। प्रतिदिन वे दोनों बीस सर्ग सुनाते थे। उत्तर कांड तक पहुंचने पर राम ने जाना कि वे दोनों राम के ही बालक हैं। राम ने सीता को कहलाया कि यदि वे निष्पाप हैं तो सभा में आकर अपनी पवित्रता प्रकट करें। वाल्मीकि सीता को लेकर गये । वसिष्ठ ने कहा- 'हे राम, मैं वरुण का दसवां पुत्र हूं। जीवन में मैंने कभी झूठ नहीं बोला। ये दोनों तुम्हारे पुत्र हैं। यदि मैंने झूठ बोला हो तो मेरी तपस्या का फल मुझे न मिले। मैंने दिव्य-दृष्टि से उसकी पवित्रता देख ली है।' सीता हाथ जोड़कर नीचे मुख करके बोली- 'हे धरती मां, यदि मैं पवित्र हूँ तो धरती फट जाये और मैं उसमें समा जाऊ।' जब सीता ने यह कहा तब नागों पर रखा एक सिंहासन पृथ्वी फाड़कर बाहर निकला। सिंहासन पर पृथ्वी देवी बैठी थीं। उन्होंने सीता को गोद में बैठा लिया। सीता के बैठते ही वह सिंहासन धरती में धंसने लगा।
अन्य कथाएँ
राम ने अग्नि-परीक्षा के उपरांत सीता को ग्रहण किया। इस बात का हनुमान और अंगद ने विरोध किया। उनके अनुसार समस्त कुटुंब और प्रजाजनों के सम्मुख सीता की पवित्रता प्रमाणित करके ही उसे ग्रहण करना चाहिए। राम-लक्ष्मण नहीं माने। राज्य में पहुंचकर कुछ समय बाद लोकापवाद सुनकर राम ने पुन: सीता को निर्वासित कर दिया। अश्वमेध यज्ञ के समय अंगद और हनुमान को ज्ञात हुआ तो वे रुष्ट और दुखी होकर गंगा - स्नान से पापों का शमन करने गये।
जनक की पटरानी का नाम विदेही था। उसके गर्भिणी होने पर प्रभावशाली देव (जो पूर्वजन्म में पिंगल साधु था) ने अपने पूर्वजन्म का स्मरण किया तथा जाना कि उसके उदर से एक अन्य जीव के साथ उसका भूतपूर्व शत्रु भी जन्म ले रहा है। एक जुड़वां पुत्र और कन्या का जन्म होने पर उस देव ने पुत्र का अपहरण कर लिया। वह उसे शिला पर पटककर मार डालना चाहता था किंतु उसे अपने पुण्यों का नाश करने की इच्छा नहीं हुई। अत: उसने उद्यान में ही बालक को रख दिया। गवाक्ष से चंद्रगति खेचर ने उसे देखा तो उठाकर अपनी पत्नी अंशुमता के पास लिटा दिया। वे दोनों पुत्रहीन थे। उसे पुत्र मानकर उन्होंने लालन - पालन किया। उसका नाम भांमडल रखा गया। लोग उसको ही पुत्र का जनक समझे। विदेही अपना पुत्र खोकर बहुत दुखी हुई। बहुत ढूंढ़ने पर भी वह नहीं मिला। कन्या का नाम सीता रखा गया। बड़े होने पर एक दिन पृथ्वी पर घूमते हुए नारद ने सीता के विषय में सुना तो वह आकाश मार्ग से उसे देखने गया। नारद के भयंकर रूप को देखकर वह भयातुरा महल के अंदर चली गयी। नारद को द्वारपालों ने रोक लिया। नारद वहां से तो चला गया, पर सीता से वैर ठान लिया। उसने रथनूपुर नगर में पट पर सीता का चित्र खींचा, जिसे देखकर भामंडल उस पर मुग्ध हो गया। नारद ने प्रकट होकर उसका परिचय दिया और स्वयं आकाश-मार्ग से चला गया। पुत्र की इच्छा जानकर चंद्रगति ने कहा- 'हम लोग आकाश में रहने वाले विद्याधर हैं। मनुष्यों के पास हमारा जाना शोभा नहीं देता।' उसने चपलगति नामक एक दूत को पृथ्वी पर भेजा कि वह जनक को ले आये। चपलगति अश्व का रूप धारण करके जनक के पास गया। नये अश्व को देख जनक ने उसे अश्वशाला में बांध लिया। एक दिन राजा उस घोड़े पर बैठा तो वह तुरंत राजा सहित उड़कर वृक्ष की एक शाखा से जा लगा। अश्व अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुआ। चंद्रगति ने अपने पुत्र के लिए सीता को मांगा। जनक ने कहा कि वह पहले ही राम को समर्पित करने का निश्चय कर चुका है। चंद्रगति ने विद्याधरों के हाथ जनक के साथ एक महाधनुष भेजा और कहा- 'यदि राम इस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देंगे तो वह सीता को प्राप्त कर ले। यदि वह ऐसा न कर पाया तो भामंडल उसका अपहरण कर लेगा।' राम ने धनुष उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा दी। अत: उसने सीता को प्राप्त कर लिया। तदनंतर लक्ष्मण ने धनुष मोड़कर चंद्राकार कर दिया। भरत सोचने लगा- 'उसी पिता का पुत्र होकर मैं अभागा रह गया।'
राम-लक्ष्मण के साथ सीता ने भी राज्य का परित्याग कर वन की ओर प्रस्थान किया। दुर्भाग्य से रावण ने उसे हर लिया। रावण पूर्वसंकल्प के कारण पर नारी की इच्छा के बिना उसका उपभोग नहीं कर रहा था किंतु राम से बिछुड़कर सीता निराहार रहने लगी। उसे रावण ने अनेक प्रकार से मायावी कृत्यों द्वारा डराया भी किंतु उसका मन राम में ही रमा रहा। सीता को प्राप्त करके राम साकेत पहुंचा। लक्ष्मण का राज्याभिषेक हुआ तथा सीता के गर्भ की घोषणा हुई। सीता गर्भकाल में जिन मंदिरों के दर्शन करना चाहती थी। राम ने राज्य में सीता के चरित्र-विषयक अपवाद सुने, क्योंकि उसे रावण ने हरा था। राम ने लोकापवाद से बचने के लिए निरपराधिनी सीता को जैन-मंदिरों के दर्शन करवाने के बहाने से जंगल में भेज दिया। भयानक जंगल में उसे छोड़ते हुए सेनापति कृतांतवदन का दिल भी दहल उठां रथ लौटाते हुए उसने सीता को उसके निर्वासन और उसका कारण भी बता दिया। संयोग से उस दिन हाथियों को पकड़ने के लिए राजा वज्रजंघ भी उसी जंगल में गया था। उसने सीता की बात सुनी तो उसे आश्वासन प्रदान करके अपने राज्य में शरण दी। कालांतर में उसने दो पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम अनंगलवण तथा मदनांकुश थे।
रावण ने खर दूषण और सेना के साथ दंडकारण्य में पहुंचकर पुष्पक विमान से ही सीता को देखा तो मुग्ध हो गया। लक्ष्मण ने राम और सीता को ठहरने के लिए कहा और स्वयं युद्ध के लिए प्रस्थान किया। थोड़े समय उपरांत रावण ने लक्ष्मण जैसी आवाज़ में ज़ोर से सिंहनाद किया। राम उस आवाज़ को सुनकर आकुल हो गये। वे सीता को जटायु के संरक्षण में छोड़कर युद्ध के लिए चले गये। सुअवसर जानकर रावण ने विमान नीचा किया तथा सीता को बलात उसमें बैठा लिया। जटायु के रोकने पर उसे घायल करके पृथ्वी पर धकेल दिया और सीता सहित विमान में उड़ चला। सीता रोने लगी। रावण ने सोचा, जब तक वह स्वेच्छा से उसके निकट नहीं आयेगी, वह उसका उपभोग नहीं करेगा। उधर राम लक्ष्मण के पास पहुंचे तो वह ठीक था और उसने अनुरोधपूर्वक राम को वापस भेज दिया। लौटने पर सीता नहीं मिली। घायल जटायु ने समस्त वृत्तांत कह सुनाया। लक्ष्मण विराधित की सहायता से उन सबको परास्त करके लौटा तो देखा कि सीता का अपहरण हो चुका है। राजा विराधित की सहायता करते हुए लक्ष्मण ने खरदूषण को मार डाला था, अत: सीता को खोजने के लिए विराधित ने अपने समस्त सेवकों का प्रयोग किया।
अनंगलवण तथा मदनांकुश से राम-लक्ष्मण का युद्ध होने के उपरांत सीता अनेक नारियों से घिरी हुई राम के पास पहुंची। अपवाद के शमन के लिए उसने अग्नि-परीक्षा का अंगीकरण किया। सीता ने कहा- 'हे अग्नि! यदि मेरे मन में कभी भी राम से इतर कोई पुरुष नहीं आया है तो तू मुझे न जलाना।' जिस जगह लकड़ियां लगाकर अग्नि प्रज्वलित की गयी थी, वह सीता के प्रवेश करते ही पानी की बावड़ी के रूप में परिणत हो गया। धीरे-धीरे जल बढ़ता गया-लोग डूबने लगे। सीता का स्पर्श पाकर जल पुन: सीमित हो गया। राम ने सीता से क्षमा-याचना की। सीता ने उसे अपना कर्मजन्य प्रारब्ध ही माना। उसने अपने बाल उखाड़ डाले तथा दीक्षा ले ली। सकल भूषण मुनि ने राम के पूर्वभव के विषय में बताया सीता ने 'प्रव्रज्या' ग्रहण की।
सीताराम
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