भारत के सभी शिवालयों में श्रावण सोमवार पर हर-हर महादेव और बोल बम बोल की गूँज सुनाई देगी। श्रावण मास में शिव-पार्वती का पूजन बहुत फलदायी होता है। इसलिए सावन मास का बहुत महत्व है।
क्यों है सावन की विशेषता? :- हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि जब सनत कुमारों ने महादेव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो महादेव भगवान शिव ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था।
अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया।
सावन में शिवशंकर की पूजा :- सावन के महीने में भगवान शंकर की विशेष रूप से पूजा की जाती है। इस दौरान पूजन की शुरूआत महादेव के अभिषेक के साथ की जाती है। अभिषेक में महादेव को जल, दूध, दही, घी, शक्कर, शहद, गंगाजल, गन्ना रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक के बाद बेलपत्र, समीपत्र, दूब, कुशा, कमल, नीलकमल, ऑक मदार, जंवाफूल कनेर, राई फूल आदि से शिवजी को प्रसन्न किया जाता है। इसके साथ की भोग के रूप में धतूरा, भाँग और श्रीफल महादेव को चढ़ाया जाता है।
महादेव का अभिषेक :- महादेव का अभिषेक करने के पीछे एक पौराणिक कथा का उल्लेख है कि समुद्र मंथन के समय हलाहल विष निकलने के बाद जब महादेव इस विष का पान करते हैं तो वह मूर्च्छित हो जाते हैं। उनकी दशा देखकर सभी देवी-देवता भयभीत हो जाते हैं और उन्हें होश में लाने के लिए निकट में जो चीजें उपलब्ध होती हैं, उनसे महादेव को स्नान कराने लगते हैं। इसके बाद से ही जल से लेकर तमाम उन चीजों से महादेव का अभिषेक किया जाता है।
बेलपत्र और समीपत्र :- भगवान शिव को भक्त प्रसन्न करने के लिए बेलपत्र और समीपत्र चढ़ाते हैं। इस संबंध में एक पौराणिक कथा के अनुसार जब 89 हजार ऋषियों ने महादेव को प्रसन्न करने की विधि परम पिता ब्रह्मा से पूछी तो ब्रह्मदेव ने बताया कि महादेव सौ कमल चढ़ाने से जितने प्रसन्न होते हैं, उतना ही एक नीलकमल चढ़ाने पर होते हैं। ऐसे ही एक हजार नीलकमल के बराबर एक बेलपत्र और एक हजार बेलपत्र चढ़ाने के फल के बराबर एक समीपत्र का महत्व होता है।
बेलपत्र ने दिलाया वरदान : बेलपत्र महादेव को प्रसन्न करने का सुलभ माध्यम है। बेलपत्र के महत्व में एक पौराणिक कथा के अनुसार एक भील डाकू परिवार का पालन-पोषण करने के लिए लोगों को लूटा करता था। सावन महीने में एक दिन डाकू जंगल में राहगीरों को लूटने के इरादे से गया। एक पूरा दिन-रात बीत जाने के बाद भी कोई शिकार नहीं मिलने से डाकू काफी परेशान हो गया।
इस दौरान डाकू जिस पेड़ पर छुपकर बैठा था, वह बेल का पेड़ था और परेशान डाकू पेड़ से पत्तों को तोड़कर नीचे फेंक रहा था। डाकू के सामने अचानक महादेव प्रकट हुए और वरदान माँगने को कहा। अचानक हुई शिव कृपा जानने पर डाकू को पता चला कि जहाँ वह बेलपत्र फेंक रहा था उसके नीचे शिवलिंग स्थापित है। इसके बाद से बेलपत्र का महत्व और बढ़ गया।
विशेष सजावट : सावन मास में शिव मंदिरों में विशेष सजावट की जाती है। शिवभक्त अनेक धार्मिक नियमों का पालन करते हैं। साथ ही महादेव को प्रसन्न करने के लिए किसी ने नंगे पाँव चलने की ठानी, तो कोई पूरे सावन भर अपने केश नहीं कटाएगा। वहीं कितनों ने माँस और मदिरा का त्याग कर दिया है।
काँवरिए चले शिव के धाम : सावन का महीना शिवभक्तों के लिए खास होता है। शिवभक्त काँवरियों में जल लेकर शिवधाम की ओर निकल पड़ते हैं। शिवालयों में जल चढ़ाने के लिए लोग बोल बम के नारे लगाते घरों से निकलते हैं। भक्त भगवा वस्त्र धारण कर शिवालयों की ओर कूच करते हैं।
भगवान शिव की कृपा भक्ति
पौराणिक कथाओं एवं जनश्रुतियों में जो कहावतें सुनने को मिलती हैं। उससे यह स्पष्ट है कि धन सम्पदा एवं लक्ष्मी प्राप्ति में शिव पूजा के समान अन्य कोई उपाय नहीं है। जटाधारी भुजगपतिहारी चिताभस्मलेपी गंगाधर भगवान भोलेनाथ अपने तीसरे नेत्र की भीषण वेधनक्षमता वाली उग्र ज्वालामयी नेत्र ज्योति से ब्रह्माण्ड के पार तक के दृश्य को समग्र रूप से देख पाने में समर्थ है।
कंठ में हलाहल होने के कारण अन्दर से विकल किन्तु समस्त जगत को सुख-शान्ति प्रदान करने हेतु अति सूक्ष्म तथा विकट कारणों का भी निवारण कर देते हैं। आवश्यकता मात्र भगवान साम्बसदाशिव की शरण में जाने की है। वह भी विश्वास के साथ।
सदा छप्पन भोग एवं सोने-चाँदी से भगवान शिव की पूजा करने वाले राजा छविकृति भगवान शनि के प्रकोप से नष्ट हो गए। कारण यह था कि उन्होंने भगवान शिव की पूजा- श्रद्धा एवं विश्वास के साथ नहीं बल्कि अपनी वाहवाही, दिखावे के लिए ही किया था।
किन्तु क्रम से विधिपूर्वक हल्दी, चन्दन, बेलपत्र, धतूरा, पुष्प एवं जल चढ़ाने वाली प्रभावती के डर से शनि देव को तब तक वृष राशि में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं पड़ी। जब तक उसकी राशि का स्वामी शुक्र मीन राशि में गुरु के साथ और चन्द्रमा उसकी राशि में प्रवेश नहीं कर गया। तब तक शनि देव को इंतजार करना पड़ गया।
राजा छविकृति ने केवल उचित क्रम से ही पदार्थों को शिव लिंग पर चढ़ाया था। 'रुद्रनिधान' में क्रम निम्न प्रकार बताया गया है। इसी क्रम में पदार्थों को शिवलिंग पर चढ़ाने का विधान है।
'नीरसचन्दनबिल्वपत्रेत्रगंधानुलेपनं। हरिद्राखण्डं पुष्पार्पणमभिषेक गोरसेन च। अगरतगरकर्पूरादिक मध्वान्नं फल पयार्पणं। तदान्ते जलार्पणं तत्रान्ते च नीराजनम्। अपराधाय क्षमायाचना तत्प्रसादांगीयताम्। हर हर शिव ननादयित्वा हर कृपा खलु लब्धयेत्।'
किन्तु देखने में आया है कि प्रायः लोग पदार्थों को चढ़ाने का क्रम नहीं जानते हैं। तथा कुछ लोग हल्दी के बाद चन्दन तथा कुछ दही चढ़ाकर सिन्दूर चढ़ाने लगते हैं। वैसे तो भगवान शिव की चाहे जैसे पूजा करें, उन्हें शिवजी की कृपा प्राप्त होती है। किन्तु क्या सब्जी खाकर, दाल पीकर, तब चावल में रोटी मसल कर खा सकते हैं? या चावल खाकर, हाथ मुँह धोकर फिर सब्जी और चटनी खायी जाती है? कितना रुचिकर खाना होगा? या फिर कितना सुन्दर उसका पाचन शरीर में होगा?
उसी प्रकार पूजा के पदार्थों को चढ़ाने का एक निश्चित क्रम बताया गया है। उस क्रम से न चढाने पर प्रेम एवं विश्वास का फल भले भगवान शिव दे दें। किन्तु पूजा का कोई फल प्राप्त नहीं होता है। भगवान शिव सभी का कल्याण करें।
भगवान शिव-महाकाल का महात्म्य
पुराणों में, वेदों में और शास्त्रों में भगवान शिव-महाकाल के महात्म्य को प्रतिपादित किया गया है। भगवान शिव हिन्दू संस्कृति के प्रणेता आदिदेव महादेव हैं। हमारी सांस्कृतिक मान्यता के अनुसार 33 करोड़ देवताओं में 'शिरोमणि' देव शिव ही हैं। सृष्टि के तीनों लोकों में भगवान शिव एक अलग, अलौकिक शक्ति वाले देव हैं।
भगवान शिव पृथ्वी पर अपने निराकार-साकार रूप में निवास कर रहे हैं। भगवान शिव सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान हैं। महाशिवरात्रि पर्व भगवान शिवशंकर के प्रदोष तांडव नृत्य का महापर्व है। शिव प्रलय के पालनहार हैं और प्रलय के गर्भ में ही प्राणी का अंतिम कल्याण सन्निहित है। शिव शब्द का अर्थ है 'कल्याण' और 'रा' दानार्थक धातु से रात्रि शब्द बना है, तात्पर्य यह कि जो सुख प्रदान करती है, वह रात्रि है।
'शिवस्य प्रिया रात्रियस्मिन व्रते अंगत्वेन विहिता तदव्रतं शिवरात्र्याख्याम्।'
इस प्रकार शिवरात्रि का अर्थ होता है, वह रात्रि जो आनंद प्रदायिनी है और जिसका शिव के साथ विशेष संबंध है। शिवरात्रि, जो फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को है, उसमें शिव पूजा, उपवास और रात्रि जागरण का प्रावधान है। इस महारात्रि को शिव की पूजा करना सचमुच एक महाव्रत है।
ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति महाशिवरात्रि के व्रत पर भगवान शिव की भक्ति, दर्शन, पूजा, उपवास एवं व्रत नहीं रखता, वह सांसारिक माया, मोह एवं आवागमन के बँधन से हजारों वर्षों तक उलझा रहता है। यह भी कहा गया है कि जो शिवरात्रि पर जागरण करता है, उपवास रखता है और कहीं भी किसी भी शिवजी के मंदिर में जाकर भगवान शिवलिंग के दर्शन करता है, वह जन्म-मरण पुनर्जन्म के बँधन से मुक्ति पा जाता है। शिवरात्रि के व्रत के बारे में पुराणों में कहा गया है कि इसका फल कभी किसी हालत में भी निरर्थक नहीं जाता है।
शिवरात्रि व्रत धर्म का उत्तम साधन : शिवरात्रि का व्रत सबसे अधिक बलवान है। भोग और मोक्ष का फलदाता शिवरात्रि का व्रत है। इस व्रत को छोड़कर दूसरा मनुष्यों के लिए हितकारक व्रत नहीं है। यह व्रत सबके लिए धर्म का उत्तम साधन है। निष्काम अथवा सकाम भाव रखने वाले सांसारिक सभी मनुष्य, वर्णों, आश्रमों, स्त्रियों, पुरुषों, बालक-बालिकाओं तथा देवता आदि सभी देहधारियों के लिए शिवरात्रि का यह श्रेष्ठ व्रत हितकारक है।
शिवरात्रि के दिन प्रातः उठकर स्नानादि कर शिव मंदिर जाकर शिवलिंग का विधिवत पूजन कर नमन करें। रात्रि जागरण महाशिवरात्रि व्रत में विशेष फलदायी है।
गीता में इसे स्पष्ट किया गया है-
या निशा सर्वभूतानां तस्या जागर्ति संयमी।
यस्यां जागृति भूतानि सा निशा पश्चतो सुनेः॥
तात्पर्य यह कि विषयासक्त सांसारिक लोगों की जो रात्रि है, उसमें संयमी लोग ही जागृत अवस्था में रहते हैं और जहाँ शिवपूजा का अर्थ पुष्प, चंदन एवं बिल्वपत्र, धतूरा, भाँग आदि अर्पित कर भगवान शिव का जप व ध्यान करना और चित्त वृत्ति का निरोध कर जीवात्मा का परमात्मा शिव के साथ एकाकार होना ही वास्तविक पूजा है। शिवरात्रि में चार प्रहरों में चार बार अलग-अलग विधि से पूजा का प्रावधान है।
महाशिवरात्रि के प्रथम प्रहर में भगवान शिव की ईशान मूर्ति को दुग्ध द्वारा स्नान कराएँ, दूसरे प्रहर में उनकी अघोर मूर्ति को दही से स्नान करवाएँ और तीसरे प्रहर में घी से स्नान कराएँ व चौथे प्रहर में उनकी सद्योजात मूर्ति को मधु द्वारा स्नान करवाएँ। इससे भगवान आशुतोष अतिप्रसन्न होते हैं। प्रातःकाल विसर्जन और व्रत की महिमा का श्रवण कर अमावस्या को निम्न प्रार्थना कर पारण करें -
संसार क्लेश दग्धस्य व्रतेनानेन शंकर।
प्रसीद समुखोनाथ, ज्ञान दृष्टि प्रदोभव॥
तात्पर्य यह कि भगवान शंकर! मैं हर रोज संसार की यातना से, दुःखों से दग्ध हो रहा हूँ। इस व्रत से आप मुझ पर प्रसन्न हों और प्रभु संतुष्ट होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्रदान करें।
'ॐ नमः शिवाय' कहिए और देवादिदेव प्रसन्न होकर सब मनोरथ पूर्ण करेंगे। शिवरात्रि के दिन शिव को ताम्रफल (बादाम), कमल पुष्प, अफीम बीज और धतूरे का पुष्प चढ़ाना चाहिए एवं अभिषेक कर बिल्व पत्र चढ़ाना चाहिए।
महाकालेश्वर की पौराणिक गाथा
'अनेकानेक प्राचीन वांग्मय महाकाल की व्यापक महिमा से आपूरित हैं क्योंकि वे कालखंड, काल सीमा, काल-विभाजन आदि के प्रथम उपदेशक व अधिष्ठाता हैं।
अवन्तिकायां विहितावतारं
मुक्ति प्रदानाय च सज्जनानाम्
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं
वन्दे महाकाल महासुरेशम॥
'अर्थात जिन्होंने अवन्तिका नगरी (उज्जैन) में संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए अवतार धारण किया है, अकाल मृत्यु से बचने हेतु मैं उन 'महाकाल' नाम से सुप्रतिष्ठित भगवान आशुतोष शंकर की आराधना, अर्चना, उपासना, वंदना करता हूँ।
इस दिव्य पवित्र मंत्र से निःसृत अर्थध्वनि भगवान शिव के सहस्र रूपों में सर्वाधिक तेजस्वी, जागृत एवं ज्योतिर्मय स्वरूप सुपूजित श्री महाकालेश्वर की असीम, अपार महत्ता को दर्शाती है।
शिव पुराण की 'कोटि-रुद्र संहिता' के सोलहवें अध्याय में तृतीय ज्योतिर्लिंग भगवान महाकाल के संबंध में सूतजी द्वारा जिस कथा को वर्णित किया गया है, उसके अनुसार अवंती नगरी में एक वेद कर्मरत ब्राह्मण हुआ करता था। वह ब्राह्मण पार्थिव शिवलिंग निर्मित कर उनका प्रतिदिन पूजन किया करता था। उन दिनों रत्नमाल पर्वत पर दूषण नामक राक्षस ने ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर समस्त तीर्थस्थलों पर धार्मिक कर्मों को बाधित करना आरंभ कर दिया।
वह अवंती नगरी में भी आया और सभी ब्राह्मणों को धर्म-कर्म छोड़ देने के लिए कहा किन्तु किसी ने उसकी आज्ञा नहीं मानी। फलस्वरूप उसने अपनी दुष्ट सेना सहित पावन ब्रह्मतेजोमयी अवंतिका में उत्पात मचाना प्रारंभ कर दिया। जन-साधारण त्राहि-त्राहि करने लगे और उन्होंने अपने आराध्य भगवान शंकर की शरण में जाकर प्रार्थना, स्तुति शुरू कर दी। तब जहाँ वह सात्विक ब्राह्मण पार्थिव शिव की अर्चना किया करता था, उस स्थान पर एक विशाल गड्ढा हो गया और भगवान शिव अपने विराट स्वरूप में उसमें से प्रकट हुए।
विकट रूप धारी भगवान शंकर ने भक्तजनों को आश्वस्त किया और गगनभेदी हुंकार भरी, 'मैं दुष्टों का संहारक महाकाल हूँ...' और ऐसा कहकर उन्होंने दूषण व उसकी हिंसक सेना को भस्म कर दिया। तत्पश्चात उन्होंने अपने श्रद्धालुओं से वरदान माँगने को कहा। अवंतिकावासियों ने प्रार्थना की-
'महाकाल, महादेव! दुष्ट दंड कर प्रभो
मुक्ति प्रयच्छ नः शम्भो संसाराम्बुधितः शिव॥
अत्रैव् लोक रक्षार्थं स्थातव्यं हि त्वया शिव
स्वदर्श कान् नरांछम्भो तारय त्वं सदा प्रभो॥
अर्थात हे महाकाल, महादेव, दुष्टों को दंडित करने वाले प्रभु! आप हमें संसार रूपी सागर से मुक्ति प्रदान कीजिए, जनकल्याण एवं जनरक्षा हेतु इसी स्थान पर निवास कीजिए एवं अपने (इस स्वयं स्थापित स्वरूप के) दर्शन करने वाले मनुष्यों को अक्षय पुण्य प्रदान कर उनका उद्धार कीजिए।
इस प्रार्थना से अभिभूत होकर भगवान महाकाल स्थिर रूप से वहीं विराजित हो गए और समूची अवंतिका नगरी शिवमय हो गई।
शिवभक्त राजा चंद्रसेन और बालक
उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज था। वह भगवान शिव का परम भक्त था। शिवगणों में मुख्य मणिभद्र नामक गण उसका मित्र था। एक बार मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को एक अत्यंत तेजोमय 'चिंतामणि' प्रदान की। चंद्रसेन ने इसे गले में धारण किया तो उसका प्रभामंडल तो जगमगा ही उठा, साथ ही दूरस्थ देशों में उसकी यश-कीर्ति बढ़ने लगी। उस 'मणि' को प्राप्त करने के लिए दूसरे राजाओं ने प्रयास आरंभ कर दिए। कुछ ने प्रत्यक्षतः माँग की, कुछ ने विनती की।
चूँकि वह राजा की अत्यंत प्रिय वस्तु थी, अतः राजा ने वह मणि किसी को नहीं दी। अंततः उन पर मणि आकांक्षी राजाओं ने आक्रमण कर दिया। शिवभक्त चंद्रसेन भगवान महाकाल की शरण में जाकर ध्यानमग्न हो गया। जब चंद्रसेन समाधिस्थ था तब वहाँ कोई गोपी अपने छोटे बालक को साथ लेकर दर्शन हेतु आई।
बालक की उम्र थी पाँच वर्ष और गोपी विधवा थी। राजा चंद्रसेन को ध्यानमग्न देखकर बालक भी शिव की पूजा हेतु प्रेरित हुआ। वह कहीं से एक पाषाण ले आया और अपने घर के एकांत स्थल में बैठकर भक्तिभाव से शिवलिंग की पूजा करने लगा। कुछ देर पश्चात उसकी माता ने भोजन के लिए उसे बुलाया किन्तु वह नहीं आया। फिर बुलाया, वह फिर नहीं आया। माता स्वयं बुलाने आई तो उसने देखा बालक ध्यानमग्न बैठा है और उसकी आवाज सुन नहीं रहा है।
तब क्रुद्ध हो माता ने उस बालक को पीटना शुरू कर दिया और समस्त पूजन-सामग्री उठाकर फेंक दी। ध्यान से मुक्त होकर बालक चेतना में आया तो उसे अपनी पूजा को नष्ट देखकर बहुत दुःख हुआ। अचानक उसकी व्यथा की गहराई से चमत्कार हुआ। भगवान शिव की कृपा से वहाँ एक सुंदर मंदिर निर्मित हो गया। मंदिर के मध्य में दिव्य शिवलिंग विराजमान था एवं बालक द्वारा सज्जित पूजा यथावत थी। उसकी माता की तंद्रा भंग हुई तो वह भी आश्चर्यचकित हो गई।
राजा चंद्रसेन को जब शिवजी की अनन्य कृपा से घटित इस घटना की जानकारी मिली तो वह भी उस शिवभक्त बालक से मिलने पहुँचा। अन्य राजा जो मणि हेतु युद्ध पर उतारू थे, वे भी पहुँचे। सभी ने राजा चंद्रसेन से अपने अपराध की क्षमा माँगी और सब मिलकर भगवान महाकाल का पूजन-अर्चन करने लगे। तभी वहाँ रामभक्त श्री हनुमानजी अवतरित हुए और उन्होंने गोप-बालक को गोद में बैठाकर सभी राजाओं और उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित किया।
ऋते शिवं नान्यतमा गतिरस्ति शरीरिणाम्॥
एवं गोप सुतो दिष्टया शिवपूजां विलोक्य च॥
अमन्त्रेणापि सम्पूज्य शिवं शिवम् वाप्तवान्।
एष भक्तवरः शम्भोर्गोपानां कीर्तिवर्द्धनः
इह भुक्तवा खिलान् भोगानन्ते मोक्षमवाप्स्यति॥
अस्य वंशेऽष्टमभावी नंदो नाम महायशाः।
प्राप्स्यते तस्यस पुत्रत्वं कृष्णो नारायणः स्वयम्॥
अर्थात 'शिव के अतिरिक्त प्राणियों की कोई गति नहीं है। इस गोप बालक ने अन्यत्र शिव पूजा को मात्र देखकर ही, बिना किसी मंत्र अथवा विधि-विधान के शिव आराधना कर शिवत्व-सर्वविध, मंगल को प्राप्त किया है। यह शिव का परम श्रेष्ठ भक्त समस्त गोपजनों की कीर्ति बढ़ाने वाला है। इस लोक में यह अखिल अनंत सुखों को प्राप्त करेगा व मृत्योपरांत मोक्ष को प्राप्त होगा। इसी के वंश का आठवाँ पुरुष महायशस्वी 'नंद' होगा जिसके पुत्र के रूप में स्वयं नारायण 'कृष्ण' नाम से प्रतिष्ठित होंगे। कहा जाता है भगवान महाकाल तब ही से उज्जयिनी में स्वयं विराजमान है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में महाकाल की असीम महिमा का वर्णन मिलता है। महाकाल साक्षात राजाधिराज देवता माने गए हैं।
महाशिवरात्रि के दिन समूचा शहर शिवमय हो जाता है। चारों ओर बस शिव जी का ही गुंजन सुनाई देता है। सारा शहर बाराती बन शिवविवाह में शामिल होता है। अगले दिन अमावस्या को सेहरे के अत्यंत आकर्षक दर्शन होते हैं। नयनाभिराम साजसज्जा के बीच एक उत्सव धूमधाम से संपन्न होता है। भगवान शिव की यह नगरी भक्ति रस में आकंठ डूबी नजर आती है।
जय-जय श्री महादेव शम्भो मृत्युंजय महाकाल
अनेकानेक प्राचीन वांग्मय महाकाल की व्यापक महिमा से आपूरित हैं क्योंकि वे कालखंड, काल सीमा, काल-विभाजन आदि के प्रथम उपदेशक व अधिष्ठाता हैं। स्कन्दपुराण के अवंती खंड में, शिव पुराण (ज्ञान संहिता अध्याय 38), वराह पुराण, रुद्रयामल तंत्र, शिव महापुराण की विद्येश्वर संहिता के तेइसवें अध्याय तथा रुद्रसंहिता के चौदहवें अध्याय में भगवान महाकाल की अर्चना, महिमा व विधान आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है।
मृत्युंजय महाकाल की आराधना का मृत्यु शैया पर पड़े व्यक्ति को बचाने में विशेष महत्व है। खासकर तब जब व्यक्ति अकाल मृत्यु का शिकार होने वाला हो। इस हेतु एक विशेष जाप से भगवान महाकाल का लक्षार्चन अभिषेक किया जाता है-
'ॐ ह्रीं जूं सः भूर्भुवः स्वः,
ॐ त्र्यम्बकं स्यजा महे
सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्।
उर्व्वारूकमिव बंधनान्नमृत्योर्म्मुक्षीयमामृतात्
ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ'
इसी तरह सर्वव्याधि निवारण हेतु इस मंत्र का जाप किया जाता है।
शिवरात्रि में शिवोत्सव समूचे उज्जैन में मनाया जाता है। इन दिनों भक्तवत्सल्य भगवान आशुतोष महाकालेश्वर का विशेष श्रृंगार किया जाता है, उन्हें विविध प्रकार के फूलों से सजाया जाता है। यहाँ तक कि भक्तजन अपनी श्रद्धा का अर्पण इतने विविध रूपों में करते है कि देखकर आश्चर्य होता है।
कोई बिल्वपत्र की लंबी घनी माला चढ़ाता है। कोई बेर,संतरा, केले, और दूसरे फलों की माला लेकर आता है। कोई आँकड़ों के पत्तों पर चंदन से ॐ बना कर अर्पित करता है।
औढरदानी, प्रलयंकारी, दिगम्बर भगवान शिव का यह सुहाना सुसज्जित सुंदर स्वरूप देखने के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। इसे 'सेहरा' के दर्शन कहा जाता है। अंत में श्री महाकालेश्वर से परम पुनीत प्रार्थना है कि इस शिवरात्रि में इस अखिल सृष्टि पर वे प्रसन्न होकर प्राणी मात्र का कल्याण करें -
'कर-चरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम,
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व,
जय-जय करुणाब्धे, श्री महादेव शम्भो॥'
अर्थात हाथों से, पैरों से, वाणी से, शरीर से, कर्म से, कर्णों से, नेत्रों से अथवा मन से भी हमने जो अपराध किए हों, वे विहित हों अथवा अविहित, उन सबको है करुणासागर महादेव शम्भो! क्षमा कीजिए, एवं आपकी जय हो, जय हो।
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