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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Monday, July 2, 2012

गुरु पूर्णिमा गुरु भक्ति



गुरु पूर्णिमा
श्रीराम की गुरु भक्ति  

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अपने शिक्षागुरु विश्वामित्र के पास बहुत संयम, विनय और विवेक से रहते थे। गुरु की सेवा में सदैव तत्पर रहते थे। उनकी सेवा के विषय में भक्त कवि तुलसीदास ने लिखा है-

मुनिवर सयन कीन्हीं तब जाई।
लागे चरन चापन दोऊ भाई॥
जिनके चरन सरोरुह लागी।
करत विविध जप जोग विरागी॥
बार बार मुनि आज्ञा दीन्हीं।
रघुवर जाय सयन तब कीन्हीं॥
गुरु ते पहले जगपति जागे राम सुजान।

सीता-स्वयंवर में जब सब राजा धनुष उठाने का एक-एक करके प्रयत्न कर रहे थे तब श्रीराम संयम से बैठे ही रहे। जब गुरु विश्वामित्र की आज्ञा हुई तभी वे खड़े हुए और उन्हें प्रणाम करके धनुष उठाया।

सुनि गुरु बचन चरन सिर नावा। हर्ष विषादु न कछु उर आवा।
गुरुहिं प्रनाम मन हि मन किन्हा। अति लाघव उठाइ धनु लिन्हा॥

श्री सद्गुरुदेव के आदर और सत्कार में श्रीराम कितने विवेकी और सचेत थे, इसका उदाहरण जब उनको राज्योचित शिक्षण देने के लिए उनके गुरु वशिष्ठजी महाराज महल में आते हैं तब देखने को मिलता है। सद्गुरु के आगमन का समाचार मिलते ही सीताजी सहित श्रीराम दरवाजे पर आकर सम्मान करते हैं-

गुरु आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार जाय पद नावउ माथा॥
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भांति पूजि सनमाने॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले राम कमल कर जोरी॥

इसके उपरांत भक्तिभावपूर्वक कहते हैं- 'नाथ! आप भले पधारे। आपके आगमन से घर पवित्र हुआ। परन्तु होना तो यह चाहिए था कि आप समाचार भेज देते तो यह दास स्वयं सेवा में उपस्थित हो जाता।' इस प्रकार ऐसी विनम्र भक्ति से श्रीराम अपने गुरुदेव को संतुष्ट रखते हैं।

गुरु भक्ति योग

जिस प्रकार शीघ्र ईश्वर दर्शन के लिए कलयुग में भजन-कीर्तन-साधना-प्रवचन है, उसी प्रकार इस वर्तमान काल में नास्तिकता, अंहकार के युग में गुरु एवं गुरु की भक्ति तथा कृपा से ही आपके जीवन काल में अमोघ प्रभाव देता है.

अध्यात्म-मार्ग में हर एक साधक को गुरु कि आवश्यकता पड़ती है. केवल गुरु ही वास्तविक जीवन का अर्थ एवं उसका रहस्य प्रकट कर सकते हैं तथा ईश्वर का साक्षात्कार का मार्ग दिखा सकते हैं. केवल गुरु ही शिष्य को साधना का रहस्य बता सकते हैं. ऐसे गुरु मन, वचन और कर्म से पवित्र हैं. ऐसे गुरु अपने मन एवं इन्द्रियों पर प्रभुत्व रखते हैं, वे सब शास्त्रों का रहस्य समझते हैं. शिष्य ने अगर पूर्वजन्म में शुभ कर्म किये होंगे, वर्तमान जीवन में अगर वह शुभ कर्म करता होगा, अगर सच्चा, निष्टावान ह्रदयवाला तथा ईश्वर प्राप्ति कि तड़पवाला होगा तो उसे सदगुरू अवश्य प्राप्त होंगे.


गुरु भक्ति योग के अंश
*. गुरु भक्ति योग माना सदगुरु को सम्पूर्ण आत्मसमर्पण करना.
*. गुरु भक्ति योग के अभ्यास के लिए सच्चे ह्रदय की स्थिर महेच्छा. सदगुरु के विचार, वाणी और कार्यों में सम्पूर्ण श्रद्धा. गुरु के नाम का उच्चारण और गुरु को नम्रतापूर्वक साष्टांग प्रणाम. सम्पूर्ण आज्ञाकारिता के साथ गुरु के आदेशों का पालन. बिना फलप्राप्ति की अपेक्षा गुरु की सेवा. भक्तिपूर्वक हर रोज सदगुरु के चरणकमलों की पूजा. सदगुरु के दैवी कार्य के लिए आत्म समर्पण...तन, मन, धन समर्पण. गुरु की कल्याणकारी कृपा प्राप्त करने के लिए एवं उनका पवित्र उपदेश सुनकर उसका आचरण करने के लिए सदगुरु के पवित्र चरणों का ध्यान.
*. गुरु भक्ति योग का एक स्वतंत्र प्रकार है.
*. मुमुक्षु जब तक गुरु भक्ति योग का अभ्यास नहीं करता तब तक ईश्वर के साथ एकरूप होने के लिए आध्यात्मिक मार्ग में प्रवेश करना उसके लिए संभव नहीं है.
*. जो व्यक्ति गुरु भक्ति योग की महत्ता समझता है वही गुरु को बिनशरती आत्म-समर्पण का सकता है.
*. जीवन के परम ध्येय अर्थात आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति गुरु भक्ति योग के अभ्यास द्बारा ही हो सकती है.
*. गुरु भक्ति योग सच्चा एवं सुरक्षित योग है, जिसका अभ्यास करने में किसी भी प्रकार का भय नहीं है.
*. आज्ञाकारी बनकर गुरु के आदेशों का पालन करना, उनके उपदेशों को जीवन में उतारना, यही गुरु भक्ति योग का सार है.
*. जो व्यक्ति गुरु भक्ति योग का अभ्यास करता है वह बिना किसी विपत्ति से अहंभाव को निर्मूल कर सकता है, संसार में मलिन जल को बहुत सरलता से पार कर जाता है और अमरत्व एवं शाश्वत सुख प्राप्त करता है.
*. गुरु भक्ति योग मन को शांत और निश्चल बनानेवाला है.

गुरु भक्ति योग के सिद्धांत
नम्रतापूर्वक अपने परम पूज्य सदगुरु के पदारविंद के पास जाकर, उनके जीवनदायी चरणों में साष्टांग प्रणाम करके पावन चरणों का पूजन एवं ध्यान करना चाहिए. सदगुरु के यशःकारी चरणों की सेवा में जीवन अर्पण करके और उनके दैवी चरणों की धूलि बनना चाहिए. ऐसे गुरु भक्त हठयोगी, लययोगी और राजयोगियों से ज्यादा सरलतापूर्वक सत्य स्वरुप का साक्षात्कार करके धन्य हो जाता है. सदगुरु के दैवी आत्मसमर्पण करनेवाले को निश्चिन्तता, निर्भयता और आनंद सहजता से प्राप्त होता है. सदगुरु के प्रति भक्ति इस योग का सबसे महत्वपूर्ण अंग है.गुरु भक्ति योग का अभ्यास मने गुरु के प्रति शुद्ध उत्कट प्रेम. ईमानदारी के सिवाय गुरु भक्ति योग का बिलकुल प्रगति नहीं हो सकती. गुरु का अखंड श्रद्धा गुरु भक्ति योग रुपी वृक्ष का मूल है. गुरु भक्ति योग का अभ्यास सद्गुरु की निगरानी में करना आवश्यक होता है.
गुरु भक्ति योग ले अभ्यास में गुरुसेवा सर्वस्व है.जो शिष्य चार प्रकार के साधनों से सज्ज है वही ईश्वर से अभिन्न ब्रह्मनिष्ट गुरु के समक्ष बैठने के एवं उनसे महावाक्य सुनने के लिए लायक है. चार प्रकार के साधन यानी साधनचतुष्ट्य इस प्रकार है:
१. विवेक = आत्मा-अनात्मा, नित्य-अनित्य, कर्म-अकर्म आदि का भेद समझने की शक्ति
२. वैराग्य = इन्द्रियजन्य सुख और सांसारिक विषयों से विरक्ति
३. षट्संपति = शम (वासनाओं एवं कामनाओं से मुक्त निर्मल मन की शांति), दम (इन्द्रियों पर काबू), उपरती (विषय-विकारी जीवन से उपरामता), तितिक्षा = हर एक स्थिति में स्थिरता एव, धैर्य के साथ सहनशक्ति), श्रद्धा और समाधान (बाहरी आकर्षणों से अलिप्त मन की एकाग्र स्थिति)
४. मुमुक्षुत्व = मोक्ष अथवा आत्म-साक्षात्कार के लिए तीव्र आकांक्षा.

गुरु भक्ति योग का महत्त्व
कर्मयोगी, भक्तियोगी, हठयोगी, राजयोगी आदि सन योगों की नींव गुरु भक्ति योग है. जो मनुष्य गुरु भक्ति योग के मार्ग से विमुख है वह अज्ञान, अंधकार एवं मृत्यु की परंपरा को प्राप्त होता है. गुरु भक्ति योग का अभ्यास जीवन के परम ध्येय की प्राप्ति का मार्ग दिखाता है. गुरु भक्ति योग में सब योग समाविष्ट हो जाते हैं. गुरु भक्ति योग के आश्रय बिना अन्य कोई योग, जिनका आचरण अति कठिन है, उनका सम्पूर्ण अभ्यास किसीसे नहीं हो सकता. गुरु भक्ति योग में आचार्य की उपासना के द्बारा गुरुकृपा की प्राप्ति को खूब महत्त्व दिया जाता है. गुरु भक्ति योग वेद एवं उपनिषद के समय जितना प्राचीन है. गुरु भक्ति योग जीवन के सब दुःख एवं दर्दों को दूर करने का मार्ग दिखता है. गुरु भक्ति योग का मार्ग केवल योग्य शिष्य को ही तत्काल फल देनेवाला है. गुरु भक्ति योग सर्वोत्तम योग है. परम शांति का राजमार्ग गुरु भक्ति योग के अभ्यास से शुरू होता है. जो जो सिद्धियाँ संन्यास, त्याग, अन्य योग, दान एवं शुभ कार्य आदि से प्राप्त की जा सकती हैं वे सब सिद्धियाँ गुरु भक्ति योग के अभ्यास से शीघ्र प्राप्त हो सकती हैं. गुरु भक्ति योग एक विशुद्ध विज्ञान है, जो निम्न प्रकृति को वश में लाकर परम सुख प्राप्त करने की पद्धति हमें सिखाता है. गुरु भक्ति योग, गुरु सेवा योग, गुरु शरण योग आदि समानार्थी शब्द हैं. उनमें कोई अर्थभेद नहीं है. गुरु भक्ति योग ज्ञान के लिए सबसे सरल, सबसे निश्चित, सबसे शीघ्रगामी, सबसे सस्ता भयरहित मार्ग है.

इसी मार्ग के भयस्थान :
*. गुरु के पावन चरणों में साष्टांग प्रणाम करने में संकोच होना यह गुरु भक्ति योग के अभ्यास में बड़ा अवरोध है.
*. आत्म-बड़प्पन, आत्म-न्यायीपना, मिथ्या-भिमान, आत्मवंचना, दर्प, स्वच्छंदीपना, दीर्घसूत्रता, हठाग्रह, छिन्द्रान्वेषीपना, कुसंग, बेईमानी, अभिमान, विषय-वासना, क्रोध, लोभ, अहंभाव...ये सब गुरु भक्ति योग के मार्ग में आनेवाले विघ्न हैं.
*. गुरु भक्ति योग के सतत अभ्यास के द्बारा मन की चंचल प्रकृति का नाश करो.
*. गुरु भक्ति योग का शास्त्र समाधि एवं आत्म-साक्षात्कार करने हेतु ह्रदयशुद्धि प्राप्त करने के लिए गुरु सेवा पर खूब जोर देता है.
*. तमाम दुर्गुणों को निर्मूल करने का एक मात्र असरकारक उपाय है गुरु भक्ति योग का आचारण.
*. सांसारिक लोगों का संग, अधिक खाना, अभिमानी एवं राजसी प्रकृति, निद्रा, काम, क्रोध, लोभ - ये सब गुरु भक्ति योग एवं गुरु कृपा में विघ्न है.
*. शिष्य को अपने गुरु की निंदा नहीं करना चाहिए. जो गुरु की निंदा करता है वह रौरव नर्क में गिरता है.

गुरु भक्ति योग के लिए योग्यता :
गुरु रहित जीवन मृत्यु के सामान है. गुरु के पास जाने के लिए आप योग्य अधिकारी होने चाहिए. आपमें वैराग्य की भावना, विवेक, गांभीर्य, आत्मसंयम एवं सदाचार जैसा गुण होने चाहिए. अगर आप ऐसा कहेंगे कि "अच्छा गुरु कोई है ही नहीं" तो गुरु भी कहेंगे कि "कोई अच्छा शिष्य है ही नहीं". आप शिष्य कि योग्यता प्राप्त करें तो आपको सदगुरु की योग्यता, महत्ता दिखेगी और समझ में आयेगी.
*. गुरु आपके उद्धारक एवं संरक्षक हैं. सदैव उनकी पूजा करो, उनका आदर करो.
*. गुरुपद भयंकर शाप है.
*. जो सत्, चित् और परमानन्द स्वरुप हैं ऐसे गुरु को सदा साष्टांग प्रणाम करो.
*. शिष्य को गुरु की मूर्ति एवं उनके पावन चरणों को सदा स्मरण में रखना चाहिए. गुरु के चरणों की पूजा ही श्रेष्ट पूजा है. गुरु के पवित्र नाम का सदा जप करना चाहिए. इसीमें साधना का रहस्य निहित है.
*. शिष्य को गुरु की चरणों की पूजा करनी चाहिए क्योंकि गुरु के चरणों में ही ब्रह्माण्ड का वास है.
*. गुरु के चरणामृत से संसारसागर सुख जाता है और मनुष्य आवश्यक आत्मसम्पत्ति प्राप्त कर सकता है.
*. गुरु की चरणामृत शिष्य की तृषा शांत का सकता है.
*. जब आप ध्यान करने बैठें तब अपने गुरु का एवं पूर्वकालीन सब संतों का स्मरण करें. आपको उनके आशीर्वाद प्राप्त होंगे.
*. गुरु एवं महात्माओं के ज्ञान के शब्द सुनें और उसका अनुसरण करें.
*. शास्त्र एवं गुरु के द्बारा निर्दिष्ट शुभ कर्म करें.
*. श्रद्धा माने शास्त्रों में, गुरु के शब्दों में, ईश्वर में और अपने आप में विश्वास.
*. किसी भी प्रकार के फल की अपेक्षा से रहित होकर गुरु की सेवा करना यह सर्वोच्च साधना है.
*. जितनी भक्ति भावना प्रभु के प्रति रखनी चाहिए उतनी ही गुरु के प्रति रखो, तभी सत्य की अनुभूति होगी.
*. गुरु महाराज के प्रति संपूर्णतः आज्ञापालन का भावः शिष्यत्व की नींव है.
*. गुरु से मिलने की उत्कट इच्छा और उनकी सेवा करने की तीव्र आकांक्षा मुमुक्षुत्व की निशानी है.
*. जो आखें गुरु के चरणकमलों का सौंदर्य नहीं देख सकती वे आखें सचमुच अंध हैं.
*. जो कान गुरु की लीला की महिमा नहीं सुनते वे कान सचमुच बहरे हैं.
*. भवसागर को पार करने के लिए गुरु के सत्संग जैसी और कोई सुरक्षित नौका नहीं है.
*. गुरु अवज्ञा महापाप है. गुरु की आज्ञा का पालन उनके सम्मान करने से भी बढ़कर है.
*. गुरु के द्बारा निर्दिष्ट पद्धति कभी कभी शिष्य की रूचि को तत्काल अनुकूल न भी हो,फिर भी उसे श्रद्धा रखना चाहिए कि वह उसके हित और लाभ के लिए है.
*. मनुस्मृति में कहा गया है कि शिष्यों को सदा वेदाध्ययन में निमग्न रहना चाहिए. परम श्रद्धा एवं भक्तिभावपूर्वक सदगुरु कि सेवा के दौरान शिष्य को मदिरा, मांस, तेल, इत्र, स्त्री, स्वादु भोजन, चेतन प्राणियों को हानि पहुँचाना, काम, क्रोध, लोभ, नृत्य, गान, क्रीडा, वाजिन्त्र बजाना, रंग, गपशप लगाना, निंदा करना, अति निंद्रा लेना आदि से अलिप्त रहना चाहिए. उसे असत्य नहीं बोलना चाहिए.

योग का अभ्यास गुरु के सान्निध्य में करना चाहिए. विशेषतः तंत्रयोग के बारे में यह बात अत्यंत आवश्यक है. साधक कौन सी कक्षा का है, यह निश्चित करना एवं उसके लिए योग्य साधना करना गुरु का कार्य है. आजकल साधकों में एक ऐसा खतरनाक एवं गलत ख्याल प्रवर्तमान है कि वे साधना के प्रारंभ में ही उच्च प्रकार का योग साधने के लिए काफी योग्यता रखते हैं. प्रायः सब साधकों का जल्दी पतन होता है इसका यही कारण है. इसीसे सिद्ध होता है कि अभी वह योग साधना के लिए तैयार नहीं है.
गुरु और कोई नहीं हैं अपितु साधक कि उन्नति के लिए विश्व में अवतरित परात्पर साधक जगत जननी दिव्य माता स्वयं ही हैं. गुरु को देव मनो, तभी आपको वास्तविक लाभ होगा. गुरु कि अथक सेवा करो. वे स्वयं ही आप पर दीक्षा के सर्वश्रेष्ट आशीर्वाद बरसाएँगे.
गुरु मन्त्र प्रदान करते हैं यह दीक्षा कहलाती है. दीक्षा के द्बारा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है, पापों का विनाश होता है. जिस प्रकार एक ज्योति से दूसरी ज्योति प्रज्ज्वलित होती है उसी प्रकार गुरु मन्त्र के रूप में अपनी दिव्य शक्ति शिष्य में संक्रमित करते हैं. शिष्य उपवास करता है, ब्रह्मचर्य का पालन करता है और गुरु से मन्त्र ग्रहण करता है. शिष्य को यह जर्रोर याद रखना चाहिए कि गुरु मन्त्र प्राप्त करने के बाद उनके द्बारा किया गया पुण्य का दसवां हिस्सा गुरु के भाग में जाता है, तो पाप भी जरूर जायेगा, तो हमेशा इस बात को ध्यान में रखे और सत्य का मार्ग पर चलें. दीक्षा के रहस्य का पर्दा हट जाता है और शिष्य वेदशास्त्रों के गूढ़ रहस्य समझने में शक्तिमान बन जाता है. सामान्यतः ये रहस्य ये गूढ़ भाषा में छुपे हुए होते हैं. खुद ही अभ्यास करने से वे रहस्य प्रकट नहीं होते. खुद ही अभ्यास करने से तो मनुष्य अधिक अज्ञान में गर्क होता है. केवल गुरु ही आपको शास्त्राभ्यास के लिए योग्य दृष्टि दीक्षा के द्बारा करते हैं. गुरु अपनी आत्म साक्षात्कार कि ज्योति का प्रकाश उन शास्त्रों के सत्य पर डालेंगे और वे सत्य आपको शीघ्र ही समझ में आ जाएँगी.

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मन्त्र दीक्षा के नियम :
गुरु में सम्पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास रखना चाहिए तथा शिष्य को पूर्णरूपेण उनके प्रति आत्मसमर्पण करना चाहिए. दीक्षा काल में गुरु के द्बारा दिये गये तमाम निर्देशों का पूर्ण रूप से पलान करना चाहिए. यदि गुरु ने विशेष नियमों की चर्चा न की हो तो आगे दिये गये सर्व सामान्य नियमों का पालन करना चाहिए :
१. मन्त्रजप से कलयुग में इश्वर-साक्षात्कार सिद्ध होता है, इस बात पर विश्वास रखना चाहिए.
२. मंत्रदीक्षा की क्रिया एक अत्यंत पवित्र क्रिया है, उसे मनोरंजन का साधना नहीं मन्ना चाहिए. अन्य की देखादेखी दीक्षा ग्रहण करना उचित नहीं. अपने मन को स्थिर और सुदृढ़ करने के पश्चात् गुरु की शरण में जाना चाहिए.
३. मन्त्र को ही भगवान समझना चाहिए तथा गुरु में ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिए.
४. मंत्रदीक्षा को सांसारिक सुख-प्राप्ति का माध्यम नहीं बनाना चाहिए, भगवत्प्राप्ति का माध्यम बनाना चाहिए.
५. मंत्रदीक्षा के अनन्तर मंत्रजप को छोड़ देना घोर अपराध है, इससे मन्त्र का घोर अपमान होता है तथा साधक को हानि होने की सम्भावना भी रहती है.
६. साधक को आसुरी प्रवृत्तियाँ - काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि का त्याग करके दैवी संपत्ति सेवा, त्याग, दान, प्रेम, क्षमा, विनम्रता आदि गुणों को धारण करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए.
७. गृहस्थ को व्यवहार की दृष्टि से अपना कर्त्तव्य आवश्यक मानकर पूरा करना चाहिए, परन्तु उसे गौण कार्य समझना चाहिए. समग्र परिवार के जीवन को आध्यात्मिक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए.
८. मन, वचन तथा कर्म से सत्य, अहिंसा तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए.
९. प्रति सप्ताह मंत्रदीक्षा ग्रहण किये गये दिन एक वक़्त फलाहार पे रहना चाहिए और वर्ष के अंत में उस दिन उपवास रखना चाहिए.
१०. भगवान को निराकार-निर्गुण और साकर-सगुण दोनों स्वरूपों में देखना चाहिए. ईश्वर को अनेक रूपों में जानकार श्रीराम, श्रीकृष्ण, शंकरजी, गणेशजी, विष्णु भगवान, दुर्गा, लक्ष्मी इत्यादि किसी भी देवी-देवता में विभेद नहीं करना चाहिए. सभी के इष्टदेव सर्वव्यापक, सर्वज्ञ सभी के आत्मा में स्थित तथा सर्वान्तर्यामी हैं, अन्तः दूसरों के देवता के प्रति विरोधभाव प्रकट नहीं करना चाहिए.
११. अपना गुरु मन्त्र गुप्त रखना चाहिए. लिखित मंत्रजप करना चाहिए तथा उसे किसी पवित्र स्थान में सुरक्षित रखना चाहिए. इससे वातावरण शुद्ध रहता है.
१२. पति-पत्नी यदि एक ही गुरु की दीक्षा लें तो यह अति उत्तम है, परन्तु अनिवार्य नहीं है.
१३. मंत्रजप के लिए पूजा का एक कमरा अथवा कोई स्थान अलग रखना संभव हो तो उत्तम है. उस स्थान को अपवित्र नहीं करना चाहिए.
१४. प्रत्येक समय अपने गुरु तथा इष्टदेव की उपस्थिति का अनुभव करते रहने चाहिए.
१५. मंत्र की शक्ति पर विश्वास रखना चाहिए. उससे सारे विघ्नों का निवारण हो जाता है.
१६. प्रतिदिन कम से कम ११ माला का जप करना चाहिए. प्रातः और संध्याकाल को नियमानुसार जप करना चाहिए.
१७. माला फिराते समय तर्जनी, अंगूठे के पास की तथा कनिष्ठिका (छोटी) उँगली का उपयोग नहीं करना चाहिए. माला नाभि के नीचे जाकर लटकती हुई नहीं रखनी चाहिए. यदि संभव हो तो किसी वस्त्र (गौमुखी) में रखकर माला फिराना चाहिए. सुमेरु के मनके को (मुख्य मनके को) पार करके माला नहीं फेरना चाहिए. माला फेरते समय सुमेरु तक पहुँचकर पुनः माला घुमाकर ही दूसरी माला का प्रारंभ करना चाहिए.
१८. अंत में तो ऐसी स्थिति में आ जनि चाहिए कि निरंतर उठते-बैठते, खाते-पीते, चलते, काम करते तथा सोते समय भी जप चलते रहना चाहिए.
आप सभी को गुरुदेव का अनुग्रह प्राप्त हो, यह हार्दिक कामना है. आप सभी मंत्रजप के द्बारा इच्छानुसार लक्ष्य प्राप्त करने में संपूर्णतः सफल हों, ईश्वर आपको शांति, आनंद समृद्धि तथा आध्यात्मिक प्रगति प्रदान करें. यही प्रार्थना है.

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जप के नियम :
१. जहाँ तक संभव हो वहाँ तक गुरु द्बारा प्राप्त मंत्र की अथवा किसी भी मंत्र की अथवा परमात्मा की किसी भी एक नाम की १ से २०० माला जप करो.
२. रुद्राक्ष अथवा तुलसी की माला का उपयोग करो.
३. माला फिराने के लिए दाएँ हाथ के अंगूठे और बिचली (मध्यमा) या अनामिका ऊँगली का ही उपयोग करो.
४. माला नाभि के नीचे नहीं लटकनी चाहिए. मलयुक्त दायाँ हाथ ह्रदय के पास अथवा नाक के पास रखो.
५. माला ढंके रखो, जिससे वह तुम्हें या अन्य के देखने में न आये. गौमुखी अथवा स्वच्छ वस्त्र का उपयोग करो.
६. एक माला का जप पूरा हो, फिर माला को घुमा दो. सुमेरु के मनके को लांघना नहीं चाहिए.
७. जहाँ तक संभव हो वहाँ तक मानसिक जप करो. यदि मन चंचल हो जाय तो जप जितने जल्दी हो सके, प्रारंभ कर दो.
८. प्रातः काल जप के लिए बैठने के पूर्व स्नान करना उचित है. मध्यान्ह अथवा संध्या काल में यह कार्य जरूरी नहीं, परन्तु संभव हो तो हाथ-पैर अवश्य धो लेना चाहिए. जब कभी समय मिले जप करते रहो.
९. जप के साथ या तो अपने आराध्य देव का ध्यान करो अथवा तो प्राणायाम करो. अपने आराध्य देव का चित्र अथवा प्रतिमा अपने सम्मुख रखो. सबसे उचित है, सदगुरु के चरणों का ध्यान.
१०. जब तुम जप का रहे हो, उस समय मंत्र के अर्थ पर विचार करते रहो.
११. मंत्र के प्रत्येक अक्षर का बराबर सच्चे रूप में उच्चारण करो.
१२. मंत्रजप न तो बहुत जल्दी और न ही तो बहुत धीरे करो. जब तुम्हारा मन चंचल बन जाय तब अपने जप की गति बढा दो.
१३. जप करते समय मौन धारण करो और उस समय अपने सांसारिक कार्यों के साथ सम्बन्ध न रखो.
१४. पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुहँ रखो. जब तक हो सके तब तक प्रतिदिन एक ही स्थान पर एक ही समय जप के लिए आसनस्थ होकर बैठो. मंदिर, नदी का किनारा अथवा बरगद, पीपल के वृक्ष की नीचे की जगह जप करने के लिए योग्य स्थान है.
१५. अपने गुरु मंत्र को सबके सामने प्रकट न करो.
१६. जब तक जप कर रहे हो उस समय ऐसा अनुभव करो कि भगवन अथवा आपके गुरु की करुणा से तुम्हारा ह्रदय निर्मल होता जा रहा है ओर चित्त सुदृढ बन रहा है.
१७. जप का नियमित हिसाब रखो. उसकी संख्या को क्रमशः धीरे धीरे बढ़ाने का प्रयत्न करो.
१८. एक मुख्य बात - आप के द्बारा प्राप्त गुरु मंत्र का पुण्य का दसवां हिस्सा आपके गुरु का प्राप्त होता है ओर आपके द्बारा किया गया पाप का भी दसवां हिस्सा भी, तो आप सदा यह ख्याल में रखना चाहिए की हमे हमेशा सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए.

बाबा फरीद की गुरुभक्ति

पाकिस्तान में बाबा फरीद नाम के एक फकीर हो गये। वे अनन्य गुरुभक्त थे। गुरुजी की सेवा में ही उनका सारा समय व्यतीत होता था।

एक बार उनके गुरु ख्वाजा बहाउद्दीन ने उनको किसी खास काम के लिए मुलतान भेजा। उन दिनों वहाँ शम्सतबरेज के शिष्यों ने गुरु के नाम का दरवाजा बनाया था और घोषणा की थी कि आज इस दरवाजे से जो गुजरेगा वह जरूर स्वर्ग में जायेगा। हजारों फकीरों दरवाजे से गुजर रहे थे। नश्वर शरीर के त्याग के बाद स्वर्ग में स्थान मिलेगा ऐसी सबको आशा थी। फरीद को भी उनके मित्र फकीरों ने दरवाजे से गुजरने के लिए खूब समझाया, परंतु फरीद तो उनको जैसे-तैसे समझा-पटाकर अपना काम पूरा करके, बिना दरवाजे से गुजरे ही अपने गुरुदेव के चरणों में पहुँच गये।

सर्वान्तर्यामी गुरुदेव ने उनसे मुलतान के समाचार पूछे और कोई विशेष घटना हो तो बताने के लिए कहा। फरीद ने शाह शम्सतबरेज के दरवाजे का वर्णन करके सारी हकीकत सुना दी।

गुरुदेव बोलेः "मैं भी वहीं होता तो उस पवित्र दरवाजे से गुजरता। तुम कितने भाग्यशाली हो फरीद कि तुमको उस पवित्र दरवाजे से गुजरने का सुअवसर प्राप्त हुआ !"

सदगुरु की लीला बड़ी अजीबो गरीब होती है। शिष्य को पता भी नहीं चलता और वे उसकी कसौटी कर लेते हैं। फरीद तो सतशिष्य थे। उनको अपने गुरुदेव के प्रति अनन्य भक्ति थी।

गुरुदेव के शब्द सुनकर बोलेः "कृपानाथ ! मैं तो उस दरवाजे से नहीं गुजरा। मैं तो केवल आपके दरवाजे से ही गुजरूँगा। एक बार मैंने आपकी शरण ले ली है तो अब किसी और की शरण मुझे नहीं जाना है।"

यह सुनकर ख्वाजा बहाउद्दीन की आँखों में प्रेम उमड़ आया। शिष्य की दृढ श्रद्धा और अनन्य शरणागति देखकर उसे उन्होंने छाती से लगा लिया। उनके हृदय की गहराई से आशीर्वाद के शब्द निकल पड़ेः "फरीद ! शम्सतबरेज का दरवाजा तो केवल एक ही दिन खुला था, परंतु तुम्हारा दरवाजा तो ऐसा खुलेगा कि उसमें से जो हर गुरुवार को गुजरेगा वह सीधा स्वर्ग में जायेगा।"

आज भी पश्चिमी पाकिस्तान के पाक पट्टन कस्बे में बने हुए बाबा फरीद के दरवाजे में से हर गुरुवार के गुजरकर हजारों यात्री अपने को धन्यभागी मानते हैं। यह है गुरुदेव के प्रति अनन्य निष्ठा की महिमा ! धन्यवाद है बाबा फरीद जैसे सतशिष्यों को, जिन्होंने सदगुरु के हाथों में अपने जीवन की बागडोर हमेशा के लिए सौंप दी और निश्चिंत हो गये।

आत्मसाक्षात्कार या तत्त्वबोध


आत्मसाक्षात्कार या तत्त्वबोध तब तक संभव नहीं, जब तक ब्रह्मवेत्ता महापुरुष साधक के अन्तःकरण का संचालन नहीं करते। आत्मवेत्ता महापुरुष जब हमारे अन्तःकरण का संचालन करते हैं, तभी अन्तःकरण परमात्म-तत्त्व में स्थित हो सकता है, नहीं तो किसी अवस्था में, किसी मान्यता में, किसी वृत्ति में, किसी आदत में साधक रुक जाता है। रोज आसन किये, प्राणायाम किये, शरीर स्वस्थ रहा, सुख-दुःख के प्रसंग में चोटें कम लगीं, घर में आसक्ति कम हुई, पर व्यक्तित्व बना रहेगा। उससे आगे जाना है तो महापुरुषों के आगे बिल्कुल 'मर जाना' पड़ेगा। ब्रह्मवेत्ता सदगुरु के हाथों में जब हमारे 'मैं' की लगाम आती है, तब आगे की यात्रा आती है।

देवर्षि नारदजी धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं- "हृदयों में ज्ञान का दीपक जलानेवाले गुरुदेव साक्षात् भगवान ही हैं। जो दुर्बुद्धि पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र-श्रवण हाथी के स्नान के समान व्यर्थ है।
बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरणकमलों का अनुसंधान करते रहते हैं, प्रकृति और पुरुष के अधीश्वर वे स्वयं भगवान ही गुरुदेव के रूप में प्रकट हैं। इन्हें लोग भ्रम से मनुष्य मानते हैं।"

गुरुभक्ति सुखद , सुलभ और सुगम साधन
 श्री श्री १०८श्रीस्वामी सतगुरु सरनानंदजी महाराज परमहंस)  
       अतः भक्ति मुक्ति के जिज्ञासु का प्रथम कर्तव्य है कि वह सद्‌गुरु की खोज करे, उनकी प्रार्थना करके उनकी शरण प्राप्त करके उनसे नाम तत्त्व का उपदेश ले तथा उनके द्वारा बतायी विधि के उनुसार प्रेम और भक्ति के साथ उनका भजन- सुमिरन और सेवा करे। पूर्ण पुरूष सद्‌गुरु की छ्त्रछाया में जाकर जीव पूर्णकाम हो जाता है, उसे कुछ पाना शेष नहीं रहता सन्तवाणी है--
           पूर्ण पुरूष सद्‌गुरु मिले जागे भाग हमार ।
            किरपा कर सत्गुरु दिया नाम अमोलक सार ॥
            ऐसी अनुकम्पा करी सद्‌गुरु पूरण काम ।
            पल पल सुमिरे दास यह सत्गुरु तुमरो नाम ॥
वह परम पावन योगिराज श्री सद्‌गुरु महाराज निरन्तर जीव को परमात्मा में या अपने साथ लगाता हुआ सुखपूर्वक अपनी प्राप्ति करा कर भक्त को अनन्त आनन्द का अनुभव कराते रहते हैं। धन्य हैं वे जिज्ञासु भक्त जो ह्रदय में निरन्तर पूरी श्रद्धा से सद्‌गुरु महराज के नाम का भजन-सुमिरन तथा सेवा करते हुये अपने जीवन को सार्थक बना रहे हैं।
              पर ब्रह्म सत्गुरु मिले, सँवर गई तकदीर ।
              दासनदास की मिट गई जन्म जन्म की पीर ॥
सद्‌गुरुदेव की प्रशस्ति में सन्त ज्ञानेश्वर ने कहा है कि ऐसे सद्‌गुरु को कोटि कोटि प्रणाम है जो परमात्मा की प्राप्ति के साधन रूपी जंगल के बसंत,ब्रह्मविद्या के मंगलसूत्र और अकारण करूणा की प्रत्यक्ष मूर्ति हैं। श्रीसद्‌गुरु अविद्या के वन जीव-भाव को भोगने वाले चैतन्य स्वरूप जीव की पुकार पर करूणा से द्रवित हो उठते हैं। जिनकी कृपादृष्टि होने पर बन्धन मोक्ष में बदल जाता है और ज्ञानार्थी ज्ञानमय हो जाता है। श्रीसद्‌गुरु महाराज के यहाँ बड़े-छोटे का विचार नहीं है, वे सबको एकभाव से कल्याण मार्ग पर लगाकर उनका उद्धार करते हैं। सद्‌गुरु के नाम-भजन, सेवा से ही मन निर्मल बनता है और वायु की गति के समान चंचल मन स्थिर हो जाता है। जीव को सच्चे सुख और शान्ति का अनुभव होता है। सन्तवाणी है--
         चंचल मन थिर ना रहे लाख कोई समझावे ।
         गुरु शब्द का चाबुक लागे तब यह वस में आवे ॥
         पारब्रह्म पूरण गुरु धराधम पर आते ।
         देकर के निज नाम का अंकुश मन पर वार लगाते ॥
        जो कोई इनकी शरण में जाये मुक्ति भक्ति बतलाते ।
        सुमिरन सेवा ध्यान भजन का सच्चा नियम सिखाते ॥
       इस पर जो भी अमल है करता मन वश में हो जाये ।
       जीव शान्ति, सुख,  परमान्द में वास निरन्तर पावे ॥
परमपूज्य स्वामीजी कहा करते थे कि करने वाले के लिये गुरुभक्ति का मार्ग बहुत सरल है, बस पूरी श्रद्धा और निष्ठा के साथ सद्‌गुरु नाम के भजन- सुमिरन में निर्देशित विधि के अनुसार लीन रहे तथा गुरु की आज्ञा का पालन और उनकी सेवा में कभी भी तनिक भी कमी न आने दे। इतना सध जाने पर तो सद्‌गुरु की कृपा प्राप्त करने में कोई कठिनाई शेष नहीं रहती। यह ऐसा मार्ग है जिसमें केवल प्रेम से लगे रहने की आवश्यकता है। सद्‌गुरु-शरण में जाने के बाद फिर कहीं जाना है, वहीं हर कामना पूरी हो जायेंगी।
            सन्त के द्वार पर पड़ा मनमूरख तूँ कौन सी आस दस द्वार धावै ।
            दयानिधि दया की दृष्टि जब फेरिहैं, सहज ही मुक्ति फल हाथ आवै ॥
            स्वर्ग और सिद्धि की चाह को छोड़कर सन्त के चरण जो भक्ति लावै ।
            एक ना एक दिन पाइहै मुक्तिफल, नाहिं सन्देह संपूर्ण गावै ॥
सन्तमत में सद्‌गुरु की आवश्यकता, उनमें पूर्ण विश्वास, अनन्य प्रेम और उनकी निःस्वार्थ सेवा को ही साधना के सबसे आवश्यक अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। सद्‌गुरु साधना के केन्द्र और परिधि दोनों होते है, इसलिये साधना के श्री गणेश से लेकर समापन तक प्रेरक से लेकर स्वयं साध्य बन जाने तक साथ-साथ रहते हैं। सद्‌गुरु की भक्ति के सहारे उनकी मौज के अनुसार चलना वाला सेवक अवश्य ही मुक्ति का अधिकारी बन जाता है। अतः सच्चा सुख, सच्ची शान्ति और परम आनंद की प्राप्ति सद्‌गुरु की ही शरण में संभव है। नाम भक्ति से रहित व्यक्ति तीनों लोको का राज्य प्राप्त कर लेने पर भी कभी न सुखी रह सकता है और न एक क्षण के लिये भी उसे शान्ति प्राप्त हो सकती है।
            प्रभु का नाम भुलाकर जग में कौन चैन सुख पायेगा ।
            तब सुख इच्छा होगी पूरी जब दिल में नाम बसायेगा ॥
अन्यत्र कहा गया है--
            भक्ति सुख का मूल है भक्ति सुख की खान ।
            जाके मन भक्ति बसे पावे पद निर्वान ॥
सद्‌गुरु की भक्ति में किसी प्रकार की बाधा व्यवधान नहीं उत्पन्न कर सकती क्योंकि सदा रहने वाले गुरुदेव सदा भक्त की रक्षा किया करते हैं। इसकी निर्बाधता पर भक्त शिरोमणि काकभुशुण्डि जी ने कहा है कि भक्ति सुन्दर चिन्तामणि है, यह जिसके ह्रदय में बस जाती है उसके ह्रदय में दिन रात ज्ञान का प्रकाश जगमगाता रहता है। इस मणि के प्रकाश को दीपक की भाँति तेल-बाती की आवश्यकता नहीं, इसके लिये किसी सहायक साम्रगी की आवश्यकता नहीं, साथ ही इसकी यह विशेषता है कि इसे मोह, लोभ, माया रूपी झंझावात बुझा नहीं सकते तथा इसके प्रभाव से मोह रूपी दारिद्र्य निकट नहीं आ पाता। तात्पर्य यह है कि जिनका ह्रदय गुरु के प्रति अनन्य भति भाव से भरा है, उस पर सांसारिक आसक्तियों का प्रभाव नहीं पड़ता, इसलिये भक्ति मार्ग बाधा रहित होता है।
         राम भगति चिन्तामनि सुन्दर । बसई गरुड़ जाके उर अन्तर ॥
         परम प्रकास रूप दिन राती । नहिं कछु चाहिय दिया घृत बाती ॥
         मोह दरिद्र निकट नहिं आवा । लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ॥
सद्‌गुरु भक्ति से प्रकाशित ह्रदय अज्ञान मुक्त हो जाता है। भक्त के ज्ञान नेत्र खुल जाते हैं। इसी से कहा गया है कि ज्ञान- भक्ति का अनुगामी होता है जबकि भक्ति स्वतन्त्र होती है। ज्ञान- भक्ति से युक्त ह्रदय सांसारिक आसक्ति रूपी मानस रोगों से अप्रयास मुक्त हो जाता है, वह हर प्रकार से स्वस्थ मन, स्वस्थ आत्मा होता है। गुरु भक्त में संसार का कोई दुःख नहीं व्यापता। दुख-भन्जन केवल नाम है, परन्तु अज्ञानी पुरूष इसका आश्रय न लेकर दुःख निवारण के लिये निरर्थक नाना प्रकार के कर्मकाण्डों का अनुष्ठान किया करते हैं। सुखी वही है जिसे सद्‌गुरु-नाम का मजबूत सहारा मिल गया है। नानकजी ने कहा है--
             नानक दुखिया सब संसार । सुखी वही जो नाम अधार ॥
             श्रुति, पुराण तथा सभी धर्मग्रन्थ यही कहते हैं कि श्रीसद्‌गुरु महाराज के भजन-सुमिरन और सेवा-भक्ति के बिना सुख की प्राप्ति कभी भी नहीं हो सकती। रामचरित मानस में कहा गया है--
          श्रुति, पुराण सब ग्रन्थ कहाहीं । रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ॥
सन्त महापुरूष कहते है कि सद्‌गुरु के चरण कमल से प्रवाहित भक्ति-रूपी गंगा में जो भक्त श्रद्धा के साथ गोते लगाता है, उसके सभी दोष मिट जाते हैं और वह पाप रहित हो जाता है। मोह और अज्ञान का नाश हो जाता है, आत्मज्ञान का उदय होता है तथा मन के सभी संशय दूर हो जाते हैं, ऐसा सद्‌गुरुदेव की भक्ति का प्रताप है। पूर्व कर्मों के परिणाम स्वरूप एकत्रित पाप, सांसारिक वासनायें, जिनके कारण मनुष्य दुख भोगता है, सब गुरुकृपा से ही निर्बीज होते हैं और तभी सुख की प्राप्ति होती है। बिना सन्त-सद्‌गुरु के अनुकूल हुये, बिना उनकी कृपा के सुख-प्राप्ति असम्भव है। सद्‌गुरुभक्ति ही सभी सुखों का मूल है। रामचरित मानस में कहा गया है--
     तात भक्ति अनुपम सुखमूला । मिलई जो सन्त होहिं अनुकूला ॥
शाश्वत सुख देने वाली भक्ति-रूपी अमूल्य निधि बिना सद्‌गुरु की कृपा के कदापि नहीं मिल सकती। अतः सभी साधनों का सहारा छोड़कर केवल एक सद्‌गुरु की शरण ग्रहण करके उनके नाम भजन-सुमिरन और सेवा में रत हो जाना ही भक्ति प्राप्त का एकमात्र साधन है,अन्य सभी साधनाओं का फल भी इस गुरुभक्ति में ही समाया हुआ है। काकभुशुण्डि जी द्वारा गरुड़ से यही विचार व्यक्त किया गया है--
      सब कर फल हरि भगति सुहाई । बिनु सतसंगा न काहू पाई ॥
      अस बिचारि जोई कर सतसंगा । रामभगति तेहि सुलभ विहंगा ॥
जिस जिज्ञासु के ह्रदय में जीवोद्धारक गुरुभक्ति की चाह हो, उसके लिये यही श्रेयष्कर है कि वह यथा शीघ्र सन्त-सद्‌गुरु की शरण में जाकर उनकी सेवा में लग जाय। निःस्वार्थ शुद्ध सेवा से कोमल ह्रदय सन्त अवश्य द्रवित होते हैं और वे अपने सेवक को भक्ति की अनमोल सम्पदा से सम्पन्न कर देते हैं। उस भक्त का जीवन सफल हो जाता है। इसलिये सन्त-सद्‌गुरु की सविनय प्रार्थना की जाती है--
        अब तो तेरे नाम में ही मग्न यह दास रहे।
        यूँ ही नजरें करम तेरी मुझ पे खास रहे ।
        भूले से भी भूले न कभी तेरा ध्यान प्रभु॥
    हे मेरे स्वामी! दीन बन्धु, दीनानाथ मेरे ह्रदय में आपके नाम की दौलत पाने की तमन्ना बराबर बनी रहती है। आपसे यही प्रार्थना है कि आप ऐसी कृपा करें कि मेरा मन सदा आपके भजन-सुमिरन और सेवा में लगा रहे, अन्यत्र कहीं न जाय। आप मुझे मानसिक शान्ति दें और सांसारिक मोह-माया के आक्रमण से मेरी रक्षा करें। आपके दर्शन की लालसा सदा मेरे ह्रदय में बनी रहे। तथा सद्‌गुरु विषयक निर्मल ज्ञान से मेरा ह्रदय प्रकाशित रहे। आपका दर्शन करने, आपकी सेवा करने की ऐसी प्यास लगी रहे जो कभी कम न हो।

सर्वश्रेष्ठ गुरुभक्त एकलव्य

एक भील बालक जिसका नाम एकलव्य था। उसे धनुष-बाण चलाना बहुत प्रिय था। वह धनुर्विद्या सीखना चाहता था। इसीलिए वह गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचा। परंतु जब द्रोणाचार्य को मालूम हुआ कि यह बालक भील है तब उन्होंने उसे शिक्षा देने से इंकार कर दिया।
एकलव्य निराश होकर वहां से लौट आया परंतु उसने हार नहीं मानी और गुरु द्रोण की मूर्ति बनाई और उसके आगे अभ्यास करने लगा।
एक दिन गुरु द्रोण और पांडव जंगल से गुजर रहे थे। उनके साथ उनका एक कुत्ता भी था। कुत्ता भौंकते हुए आगे-आगे चल रहा था। कुत्ता भौंकते हुए थोड़ी  आगे चला गया और जब वह वापस आया तो उसका मुंह बाणों से भरा हुआ था। यह देखकर गुरु आश्चर्यचकित रह गए कि बाण इतनी कुशलता से मारे गए थे कि कुत्ते मुंह से रक्त की बूंद भी नहीं निकली।
द्रोणाचार्य ने सभी शिष्यों को उस कुशल धनुर्धर की खोज करने की आज्ञा दी। जल्द ही उस धनुर्धर को खोज लिया गया। धनुर्धर वही भील बालक एकलव्य था, उसने बताया कि गुरु द्रोणाचार्य द्वारा धनुर्विद्या सीखाने से इंकार करने के बाद मैंने इनकी मूर्ति बनाकर उसी से प्रेरणा पाई है। द्रोणाचार्य चूंकि अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे, इसलिए अर्जुन को भी पीछे छोडऩे वाले एकलव्य से उन्होंने गुरु दक्षिणा में अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने बिना विचार किए अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में अंगूठा काटकर दे दिया।
आज भी एकलव्य की गुरुभक्ति से बढ़कर ओर कोई उदाहरण दिखाई नहीं देता।

कबीर:गुरु भक्ति

सत गहे, सतगुरु को चीन्हे, सतनाम विश्वासा,
कहै कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा।

वे कहते, प्रत्येक मानव को गुरु भक्ति और साधन का अभ्यास करना चाहिए। इस सत्य की प्राप्ति से सब अवरोध समाप्त हो जाते हैं।

जो सुख राम भजन में, वह सुख नहीं अमीरी में।

सुख का आधार धन- संपत्ति नहीं है। इसके अभाव में भी मानव सुख- शांति का जीवन जी सकता है।

चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह,
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह।

वे कहते हैं, धरती पर सभी कष्टों की जड़ वासना है, इसके मिटते ही चिंता भी समाप्त हो जाती है और शांति स्वमेव आने लगती है। कबीर के कहने का तात्पर्य है कि पूजा- पाठ साधना कोई शुष्क चीज नहीं है, बल्कि इसमें आनंद है, तृप्ति है और साथ ही सभी समस्याओं का समाधान। इसलिए इसको जीवन में सर्वोपरि स्थान देना चाहिए। साधना के प्रति लोगों के हृदय में आकर्षण भाव लाने हेतु उन्होंने अपना अनुभव बताया।

इस घट अंतर बाग बगीचे, इसी में सिरजन हारा,
इस घट अंतर सात समुदर इसी में नौ लख तारा।

गुरु के बताए साधन पर चलकर ध्यान का अभ्यास करने को वे कहते हैं। इससे दुखों का अंत होगा और अंतर प्रकाश मिलेगा। गुरु भक्ति रखकर साधन पथ पर चलनेवाले सभी लोगों को आंतरिक अनुभूति मिलती है।

कबीर का प्रेम
कंलि खोटा जग अंधेरा, शब्द न माने कोय,
जो कहा न माने, दे धक्का दुई और।

महात्मा कबीर किसी भी स्थिति में हार मानने वाले नहीं थे। वे गलत लोगों को ठीक रास्ते पर लाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने दो- चार धक्के खाना भी पसंद था। इस प्रकार कहा जाता है कि कबीर लौह पुरुष थे। वे मानव को प्रेम को अपनाने कहते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर का दूसरा नाम प्रेम है। इसी तत्व को अपनाने पर जीवन की बहुत सारी समस्याएँ स्वतः सुलझ जाती है।

मैं कहता सुरजनहारी, तू राख्यो अरुझाई राखे

कबीर साहब सदा सीधे ढ़ग से जीवन जीने की कला बताते थे। उनका कहना था कि प्रेम के अभाव में यह जीवन नारकीय बन जाता है।

कबीर प्याला प्रेम का अंतर दिया लगाया,
रोम- रोम से रमि रम्या और अमल क्या लाय,
कबीर बादल प्रेम का हम पर वरस्या आई,
अतरि भीगी आत्मा, हरी भई बन आई।

यही “प्रेम’ सब कुछ है, जिसे पान कर कबीर धन्य हो गये। इस बादल रुपी प्रेम की वर्षा में स्नान कर कबीर की आत्मा तृप्त हो गई और उसका मन आनंद विभोर हो उठा। वे कहते हैं, प्रेम ही सर्व है। उसी के आधार पर व्यक्ति एक दूसरे के साथ बंधुत्व की भावना को जागृत कर सकता है। आज के परिवेश में इसी बंधुत्व की भावना के प्रसार की नितांत आवश्यकता है। कबीर साहब की वाणी आज भी हमें संदेश दे रही है कि संसार में कामयाब होने का एक मात्र मार्ग धर्म और समाज की एकता है।

हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.
ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि


स्वामी रामसुखदास जी महाराज
नारायण! नारायण! नारायण! नारायण! नारायण!
राम राम राम राम राम रामराम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम रामराम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम रामराम राम राम राम राम
श्री मन नारायण नारायण नारायण......श्री मन नारायण नारायण नारायण......
श्री मन नारायण नारायण नारायण......श्री मन नारायण नारायण नारायण...... 

ईश्वर के अंश होने के कारण हम परम आनंद को पाने के अधिकारी हैं, चेतना के उस दिव्य स्तर तक पहुंचने के अधिकारी हैं जहाँ विशुद्ध प्रेम, सुख, ज्ञान, शक्ति, पवित्रता और शांति है. सम्पूर्ण प्रकृति भी तब हमारे लिये सुखदायी हो जाती है.  इस स्थिति को केवल अनुभव किया जा सकता है यह स्थूल नहीं है अति सूक्ष्म है परम की अनुभूति अंतर को अनंत सुख से ओतप्रोत कर देती है, और परम तक ले जाने वाला कोई सदगुरु ही हो सकता है. सर्व भाव से उस सच्चिदानंद की शरण में जाने की विधि वही सिखाते हैं. हम देह नहीं हैं, देही हैं, जिसे शास्त्रों में जीव कहते हैं. जीव परमात्मा का अंश है, उसके लक्षण भी वही हैं जो परमात्मा के हैं. वह भी शाश्वत, चेतन तथा आनन्दस्वरूप है.
थोड़ी-थोड़ी देर मेँ पुकारते रहेँ-
हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैँ आपको भूलूँ नहीँ ।

एक सूरदास भगवान्‌के मन्दिरमें गये तो लोगोंने उनसे कहा ‘आप कैसे आये ?’ वे बोले ‘भगवान्‌का दर्शन करनेके लिये ।’ लोगोंने पूछा ‘तुम्हारे आँखें तो हैं नहीं, दर्शन किससे करोगे ?’ वे बोले ‘दर्शनके लिये मेरे नेत्र नहीं हैं तो क्या ठाकुरजीके भी नेत्र नहीं हैं ? वे तो मेरेको देख लेंगे न ! वे मेरेको देखकर प्रसन्न हो जायँगे तो बस, हमारा काम हो गया ।’

जब भी मन मेँ दुःख,चिन्ता,भय आदि विचार आयेँ मन ही मन भगवान का ध्यान करते हुए आर्तभाव से पुकारेँ-
हे नाथ...! हे मेरे नाथ....!!

ऐसा कहने मात्रसे सब दुःख-चिन्ता आदि दूर भाग जायेँगे।भगवान का आश्रय (सहारा) मिल जायगा।एक भगवान के आश्रय मेँ ही सदा के लिए अखंड आनंद और निर्भयता है।वास्तवमेँ ईश्वर का आश्रय सदा है,सर्वत्र है।बस स्वीकारने की आवश्यकता है। इसलिए दोनो हाथ ऊपर करके-
हे नाथ! हे मेरे नाथ!!

मानो व्याकुल गजेँद्र ने नारायण को पुकारा और नारायण सुदर्शन लेकर चल पड़े हो।
भगवान से अपनेपन के समान कुछ भी नही...कुछ भी नही....हे नाथ...! हे मेरे नाथ...!!
ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय

कैलाशी काशी के वासी अविनाशी मेरी सुध लीजो।
सेवक जान सदा चरनन को अपनी जान कृपा कीजो॥
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय अवगुण मेरे सब ढकियो।
सब अपराध क्षमाकर शंकर, सबकी की विनती सुनियो॥

ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय

सतनाम जाने बिना, हंस लोक नहिं जाए।
ज्ञानी पंडित सूरमा, कर कर मुये उपाय।।


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