अब शब्द स्वरूपी आगये, धर निष्कलंक अवतार ||
सतगुरु जी की आरती
टेक: शब्द स्वरूपी राम बोलो, शब्द स्वरूपी राम |
निराधार सतपुरुष इनामी सब करता सिद्ध काम || बोलो शब्द .......
01) अगम अलख सतलोक रचे, म्हारे शब्द गुरु दातार | म्हारे शब्द .......
तीन लोक में कला नूर की, सब शब्दों का भंडार || बोलो शब्द .......
02) सत शब्द से शब्द निरंकारा, सुन महासुन रचे | हे सतगुरु सुन .......
अमर लोक में सोलह निर्गुण, तेरा ही जाप जपे || बोलो शब्द .......
03) भँवर गुफा पर खडा निरंजन, धरता तेरा ध्यान | हे सतगुरु धरता.......
ॐ, हरी, इश्वर, परमेश्वर, सब रटते तेरा ही नाम || बोलो शब्द .......
04) ब्रह्मा, विष्णु, शिव, शक्ति, सब तेरा ही ध्यान धरे | हे सतगुरु तेरा .......
भँवर गुफा पर अणहद गरजे, परिया नाच करे || बोलो शब्द .......
05) डाकनी शाकनी भो किलकारणी, हक्क सत्कार करे | हे सतगुरु हक्क.......
त्रिकुटी महल में शब्द ओंकारा, जय जय कार करे || बोलो शब्द .......
06) सतर युग भक्ति करी निरंजन, तीन वचन भरवाए | हे सतगुरु तीन.......
सुन समाध में जीव का बासा, सब जीव मांग लाये || बोलो शब्द .......
07) धुंधुकार आदी का मेला, धरा ॐ अवतार | हे सतगुरु धरा .......
शब्द से धरती शब्द से अंबर, शब्द से सब संसार || बोलो शब्द .......
08) स्थावर, उस्मज, अंडज, पिंडज, रचदी चारो खान | हे सतगुरु रचदी.......
पांच पच्चीस का मेल मिलाकर, रच दिया पिंड और प्राण || बोलो शब्द .......
09) धर्मराज भी तेरे हुकूम से, करता सब का न्याय | हे सतगुरु करता.......
जैसा कोई करम करे जी, तू वैसा ही दे भुगताय || बोलो शब्द .......
10) बेहमाता लिखे कर्म लेख भाई, सत की कलम उठाय | हे सतगुरु सत.......
अगन पुत्री भी अगन खंब के देती अगन तपाय || बोलो शब्द .......
11) जम के दूत भी सैल मारेंगे, और देंगे नरक डुबाय | हे सतगुरु देंगे .......
तू मेरा सतगुरु प्यारा जी, इस दुःख से मुझे बचाए || बोलो शब्द .......
12) काल जाल से बचना चाहो, तो करो शब्द का जाप | बन्दे करो शब्द .......
प्रेमगुरु का ध्यान धरो तो, सोहंग आपो ही आप || बोलो शब्द .......
13) में सेवक नादान तुम्हारा, किस विद्ध ध्यान धरु | हे सतगुरु किस ......
में मंगता तु दाता सतगुरु, तेरी ही आस करू || बोलो शब्द .......
14) करम धरम सब करके हारया, कोन्या पार पड़ी | हे सतगुरु कोन्या......
जन्म मरण मेरा छुटया कोन्या, सिर पर मौत खड़ी || बोलो शब्द ........
15) काल जाल से मुझे बचाओ, तुम सतगुरु दाता | हो म्हारे तुम.......
तुम बिन मेरा ओर ना कोई, तुम्ही पिता और माता || बोलो शब्द .......
16) शब्द स्वरूपी राम हमारा, बन मस्ताना आया | हे सतगुरु बन.......
ऐसा खेल करया म्हारे सतगुरु, कोई लखन ना पाया || बोलो शब्द .......
17) निष्कलंक अवतार धरया, म्हारे शब्द स्वरूपी राम | म्हारे शब्द .......
छे:सो मस्तानाजी गावे आरती, करो सुबह ओर शाम || बोलो शब्द .......
|| धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा ||
प्रशन-उत्तर
1.पूर्ण परमात्मा कोन है? कैसा है ? व कहाँ रहता है? और उसको मिलने की अथवा प्राप्त करने की विधि अर्थात तरीका क्या है ?
पूर्ण परमात्मा परमअक्षरपुरुष है | अर्थात पूर्णब्रह्म वो साकार रूप में है, और वो सत
लोक व अनामी धाम में रहता है, उसको प्राप्त करने की विधि पूर्ण सतगुरु व शास्त्र ही प्रमाण है गीता के अ:16 के श :23 में प्रमाण है | जो पुरुष शास्त्र विधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मन माना आचरण करता है व न तो सिद्धि को प्राप्त होता है न परमगति को और न सुख को ही, और उस जीवआत्मा को पूर्ण परमात्मा व पूर्ण सत गुरु तो छोड़ो उस जीव आत्माको तो अपूर्ण परमात्मा व अपूर्ण सतगुरु भी नहीं मिल सकता गीता के अ :4 के श:34 में प्रमाण है | उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियो के पास जाकर समझ अर्थात पूर्ण सतगुरु, परमसंत उनको भलीभाँती दण्डवत- प्रणाम करने से, उन की सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलता पूर्वक प्रशन करने से वे परमात्मतत्त्व को भलीभाँती जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्व ज्ञान का उपदेश करेंगे और इसका गीता के अ :2 के श :15,16 में भी स्पष्ट प्रमाण है | पूर्ण सतगुरु जीवआत्मा को सारनाम अर्थात सारमंत्र का सुमरण करवाकर ब्रह्म काल निरंजन के त्रिलोकी की कारागृह अर्थात कैद से छुडाकर अपने पूर्ण परमात्मा के निजीलोक यानि सतलोक सुखसागर में ले जायेगा फिर इस संसार में लोट कर वापिस नहीं आना पड़ेगा और हमेशा - हमेशा के लिए हमे मोक्ष की प्राप्ति होगी |
गुरु किया हे देहका, सतगुरु जाना नाय | कहाँ कबीर ताँ दास को, काल कहा ले जाय
2. पूर्ण सतगुरु, परमसंत व वक्त का सतगुरु किसे कहते है ? और उसे कैसे पाया जा सकता है ? और उसकी पहचान क्या है ?
पूर्ण सतगुरु परमसंत व वक्त का सतगुरु उसे कहते है | जिस के पास पूर्ण परमात्मा
से मिलने का मंत्र अर्थात सारनाम उपलब्ध हो और वो मंत्र अर्थात सारनाम उसीके पास उपलब्ध होता है | जो सभी पूजाओ को छोड़कर दुःख और सुख में केवल एक प्रभुकी ही साधना अर्थात पूजा करता है | श्रीमदेवीभागवत देवी पुराण में प्रमाण है | सातवा स्क न्ध पेज न : 563 पर उस एक मात्र परमात्मा को ही जाने दूसरी सब बातो को छोड़ दे | यही अमृतरूप परमात्माके पास पहुचाने वाला पुल है | संसार समुन्दर से पार होकर अमृत स्वरुप परमात्माको प्राप्त कराने का यही सुलभ साधन है | और उसकी पहंचान है | जैसे सूरज निकलता है तो अँधेरा नहीं रहता इसी प्रकार वक्त के औरपुरे सतगुरु से सार नाम मिलने के बाद किसी भी प्रकार का अज्ञान रूपी अँधेरा नहीं रह सकता | और मनु ष्य सीधा अपने परमात्मा के पास उसके स्थान सतलोक में जायेगा और फिर कभी भी इस दुःख के संसार में लोट कर नहीं आता | और जो भी इंसान बाकी सभी पूजाओं को छोड़कर केवल एक प्रभु की ही पूजा करता है उसको पूरा सतगुरु व वक्त का सतगुरु मिल गया ऐसा समझो क्योंकि पुरे और वक्त के सतगुरु मिले बिना कोई ऐसा कर ही नहीं सक ता यही उनकी पहचान है | पंथ में पड़ने वालो को पूरा व वक्त का सतगुरु नहीं मिलता इस बात को सत्य जानना | कबीरजी कहते है |
राम कृष्ण से कौन बड़ा, उन्होंने तो गुरु कीन्न | तीन लोक के नाथ थे गुरु आगे आधीन
3. त्रेता युग में श्री राम चन्द्रजी व द्वापर युग में श्री कृष्णजी अवतार रुपमे आये थे क्या ये पूर्ण ब्रह्म थे ? क्या इनकी पूजा करने से आत्मा इस संसार से पूर्ण मुक्त हो सकती है ?
त्रेता युग में श्री राम चन्द्रजी व द्वापर युग में श्री कृष्णजी अवतार रुपमे आये थे लेकिन ये पूर्ण ब्रह्म नहीं थे इनकी पूजा करने से आत्मा इस संसार से पूर्ण मुक्त नहीं हो सकती क्योंकि पवित्र गीता में भी उलेख है अ:न :4 के श: 5 है परन्तप अर्जुन मेरे और तेरे बहुत से जनम हो चुके है उन सब को तू नहीं जानता किन्तु में जानता हूँ | अ:न :2 के श: 12 में भी उलेख है ने तो ऐसा ही है की किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और ऐसा भी नहीं है की इसके आगे हम सब नहीं रहेंगे | इसे स्पष्ट जा हिर होता है की राम और कृष्ण भी जन्म मरण में ही है अथवा ये पूर्ण ब्रह्म नहीं है ये श्री विष्णुजी के अवतार है | इनको ऐसा समझो जैसे पुलिस का सबसे बड़ा ऑफिसर क्योंकि विष्णु जी का काम केवल स्तिथि बनाये रखना ही है जब जब धर्म की हानि होती है यानी रावण व कंस जैसे राक्षस अत्याचार करने लगते है | तब विष्णुजी अपने अवतार भेज कर उन राक्षसों को पकडवाकर धर्मराज की अदालत में पेश करवाते है | इनका काम केवल इतना ही है |
कोन ब्रह्मा के पिता है ? कोन विष्णु की माँ ? शंकर के दादा कोन है ? हमको दे बता ?
4 . अगर श्री राम चन्द्रजी व श्री कृष्णजी पूर्ण ब्रह्म नहीं है और श्री विष्णु जी के अवतार है तो क्या ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी पूर्ण ब्रह्म है ? क्या इनकी पूजा करने से आत्मा इस संसार से पूर्ण मुक्त हो सकती है ?
श्री ब्रह्माजी, श्री विष्णुजी व श्री शिवजी भी पूर्ण ब्रह्म नहीं है और इनकी भी पूजा करने से आत्मा संसार से पूर्ण मुक्त नहीं हो सकती क्योंकि ये स्वयं श्रीमद देवी भागवत पुराण में पेज न :28 व पहला स्कन्ध पर स्पष्ट प्रमाण है महा भाग व्यासजी ने नारदजी से यही प्रशन पुछा था फिर नारदजी ने कहा महाभाग व्यास जी तुम इस विषय में जो पूछ रहे हो ठीक यही प्रशन मेरे पिताजी अर्थात ब्रह्माजी ने भगवान् श्री हरी से किया था देवाधीदेव भगवान् जगत के स्वामी है लक्ष्मीजी उनकी सेवा में उपस्थित रहती है | दिव्य कोस्तुभ मणि उनकी शोभा बदती है व शंख, चक्र और, गदा लिये रहते है पीताम्बर धारण करते है चार भुजाएँ है | वक्ष: स्थलपर श्रीवत्सका चिन्ह चमकता रहता है | वे चराचर जगत के आश्रयदाता है | जगतगुरु एवं देवतओंके भी देवता है | ऐसे जगत प्रभु भगवान् श्री हरी महान तपकर रहे थे | उनकी समाधी लगी थी यह देखकर मेरे पिता ब्रह्माजी को बड़ा आ श्चर्य हुआ अत: उन्होंने उनसे जानेकी इच्छा प्रकट की | ब्रह्माजी ने पूछा प्रभो आप देवता ओनके अध्यक्ष जगत के स्वामी और भुत, भविष्य एवं वर्त्तमान सभी जीवो के एकमात्र शासक हैं | भगवान् आप क्यों तपस्या कर रहे हैं और किस देवताकी आराधना में ध्यान मग्न हैं ? मुझे असीम आश्चर्य तो ये हो रहा हैं की आप देवेश्वर एवं सारे संसार के शासक होते हुवे भी समाधि लगाये बेठे हैं | प्रभो आपके नाभि-कमल से तो मेरी उत्पति हुई और व में अखिल विश्वका रचियता बन गया | फिर आप जैसे सर्व समर्थ पुरुष से बढ़कर कौन विशिष्ठ देवता हैं, उसे बताने की कृपा अवश्य कीजिये | ब्रह्माजी के ये विनीत वचन सुन कर भगवान् श्री हरी उनसे कहने लगे ब्रह्मन् ! सावधान होकर सुनो | में अपना मनका विचार व्यक्त करता हूँ | देवता, दानव और मानव सब यही जानते है की तुम सृष्टि करते हो, में पालन करता हूँ और शंकर सहार किया करते हैं, किन्तु फिर भी वेद के पारगामी पुरुष अपनी युक्ति से यह सिद्ध करते हे की रचने, पालने और सहांर करने की ये योग्यता जो हमे मिली है इसकी अधिष्ठात्री शक्ति देवी है | वे कहते है की संसार की शरुष्टि करने के लिये तुममें राजसी शक्ति का संचार हुआ है | मुझे सात्विकी शक्ति मिली है और रुद्रमें ता मसी शक्ति का आविर्भाव हुआ हैं | उस शक्ति के अभावमें तुम इस संसार की श्रुष्टि नहीं कर सकते, में पालन करने में सफल नहीं हो सकता और रूद्रसे सहार कार्य होना भी संभव नहीं ब्रह्माजी ! हम सभी उस शक्ति के सहारे ही अपने कार्य में सदा सफल होते आये है | सुव्रत ! प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों उदहारण में तुम्हारे सामने रखता हूँ सुनो यह निश्चित बात हे कि उस शक्ति के आधीन हो कर ही में (प्रलयकालमें) इस शेषनागकी सय्यापर सोता और सृष्टि करने का अवसर आते ही जग जाता हूँ | में सदा तप करने में लगा रहता हूँ उस शक्ति के शासन से कभी मुक्त नहीं रह सकता कभी अवसर मिला तो लक्ष्मी के साथ सुख-पूर्वक समय बिताने का सोभाग्य प्राप्त होता हैं | में कभी तो दानवोंके साथ युद्ध कर ता हूँ | अखिल जगत को भय पहुंचानेवाले दैत्योके विकराल शरीरोंको शांत करना मेरा परम कर्त्तव्य हो जाता है |मुझे सभ प्रकार से शक्ति के आधीन होकर रहना पड़ता है उन्ही भगवती शक्ति का में निरंतर ध्यान किया करता हूँ | ब्रह्माजी ! मेरी जानकारी में इन भग वती शक्ति से बढकर दुसरे कोई देवता नहीं है | यानी ब्रह्मा विष्णु शिवजी से भी ऊपर दुर्गा देवी अर्थात प्रकृति है | और पेज न: 123 स्कन्ध तीसरा पर भी प्रमाण है | ब्रह्मा विष्णु शिवजी कह रहे है | दुर्गा से तुम शुद्ध स्वरुप हो ये सारा संसार तुम्ही से उधासित हो रहा है | मैं, ब्रह्मा और शंकर हम सभी तुम्हारे कृपासे ही विधमान हैं | हमारा आविर्भाव और तिरोभाव हुआ करता है | अर्थात हमारा तो जन्म मरण होता है | केवल तुम्ही नित्य हो, जगजननी हो, प्रकृति और सनातनी देवी हो भगवान् शंकर बोले देवी यदि महाभाग वि ष्णु तुम्ही से प्रकट हुए है तो उनके बाद उत्पन होनेवाले ब्रह्मा भी तुम्हारे ही बालक हुए फिर में तमोगुणी लीला करने वाला शंकर क्या तुम्हारी संतान नहीं हुआ अर्थात मुझे भी उत्पन करने वाली तुम्ही हो | इससे स्पष्ट हो गया कि ब्रह्मा विष्णु शिवजी पूर्णब्रह्म नहीं है और ये भी जन्म मरण में ही है और ये तीनो देवता प्रकृति अर्थात दुर्गा देवी के ही पुत्र है |
माया री तू साँपनी, जगत रही लिपटाय | जो तेरी पूजा करे, तू उसी शख्स को खाय
5. अगर प्रकृति देवी श्री ब्रह्माजी, श्री विष्णुजी व श्री शिवजीकी माता है ! तो क्या प्रकृति देवी ही पूर्णब्रह्म है ? क्या प्रकृति देवी की पूजा करने से आत्मा इस संसार से पूर्ण मुक्त हो सकती है ?
श्रीमद देवी भागवत पुराण में पेज न :562 व सातवाँ स्कन्ध पर स्पष्ट प्रमाण है | प्रकृति देवी पर्वत राज को ब्रह्म स्वरुप का वर्णन इस प्रकार बता रही है | पर्वत राज उस ब्रह्म का क्या स्वरुप है | वो प्रजा के ज्ञान से परे है | अर्थात किसी की बुद्धि में आने वाला नहीं है | ये तुम जानो जो परम प्रकाश रूप है | जो सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है जिस मे सम्पूर्ण लोक और उन लोको में निवास करने वाले प्राणी स्थित है, वही यह अक्षर ब्रह्म है, वही सबके प्राण है, व्ही सबकी वाणी है, और वाही सबके मन है व यह परम सत्य और अमृत अविनाशी तत्त्व है सोम्य उस वेधनेयोग्य लक्ष का तुम वेधन करो मन लगाकर उसमें तन्मय हो जाओ सोम्य ! उपनिषद में कथित महान अस्त्ररूप धनुष लेकर उस पर उपासना द्वारा तीक्ष्ण किया हुवा बाण संधान करो और फिर भावानुगत चित्तके द्वारा उस बाण को खीच कर उस अक्षर रूप भ्रम को ही लक्ष्य बनाकर वेधन करो प्रणव (ॐ) धनुष है, जीव आत्मा बाण है और ब्रह्म को उसका लक्ष कहा जाता है | उस एक मात्र परमात्मा को ही जाने दूसरी सब बातोको छोड़ दे | यही अमृत रूप परमात्माके पास पोहचाने वाला पुल है |संसार समुन्दर से पार होकर अमृत स्वरुप परमात्माको प्राप्त करनेका यही सुलभ साधन है | इस आत्माका ॐ के जप के साथ ध्यान करो इससे अज्ञानमय अन्धकार से सर्वथा परे और संसार समुन्दर से उस पार जो ब्रह्म है उसको पा जाओगे तुम्हारा कल्याण हो वह यह सबका आत्मा ब्रह्म ब्रह्मलोकरूप दिव्य आकाश में सिथत है | (निष्कलंक अवतार की आरती में भी आता है की भवर गुफ्फा पर खड़ा निरंजन धर्ता तेरा ध्यान ) उस आकाश को ही ब्रह्मलोक कहते है | लेकिन पवित्र गीता में उलेख है की ब्रह्मलोक तक सब लोक पुनरावृति में ही है | यानी नाशवान है अविनाशी नहीं |
अक्षर पुरुष एक पेड़ है,निरंजन वाकी डार | तीन देव शाखा भये, पात रूप संसार
6. क्या प्रकृति देवी के कहे अनुसार क्या ब्रह्म ही पूर्ण ब्रह्म है ? क्या आत्मा ब्रह्म अर्थात ॐ का जाप करने से पूर्ण रूप से मुक्त हो सकती है ?
नहीं ब्रह्म पूर्ण ब्रह्म नहीं है | और ब्रह्म अर्थात ॐ का सुमरण करने से केवल ब्रह्म लोक तककि ही प्राप्ति हो सकती है | यानी केवल स्वर्ग लोक तक ये पूर्ण मुक्ति नहीं है इसका पवित्र गीता में भी उलेख है | अ: 8 के श: 16 में की हे अर्जुन ब्रह्मलोक पर्यंत सब लोक पुनरावृति में ही है | यानी जन्म मरण में ही है | जब तक आत्मा जन्म मरण में है सम झो लाख चोरासी नरक और स्वर्ग के ही चक्र में ही है | पूर्ण मुक्त होने के बाद फिर कभी जन्म मरण नहीं होता और ऐसा पूर्ण ब्रह्म अर्थात पूर्ण परमात्मा की जानकारी और उस की साधना के बिना नहीं हो सकता |
पंथ पड़े सो बह गए, हमारी बात अपंथ | वचन हमारा मानियो, सेवा सतगुरु संत
7. अगर ब्रह्म पूर्णब्रह्म नहीं है तो पूर्णब्रह्म कोन है ? और पूर्णब्रह्म की पूजा करने से अर्थात साधना करने से आत्मा पूर्ण रूपसे मुक्त हो सकती है क्या ?
जैसे | ब्रह्म तीन है 1. क्षर पुरुष 2. अक्षर पुरुष 3. परम अक्षर पुरुष (परम अक्षर पुरुष ही पूर्ण परमात्मा है) और ये कविर्देवजी है | इनका पवित्र वेदों में पवित्र गीता में और पवित्र कुरआन में भी स्पस्ट उलेख है की वो पूर्ण परमात्मा कविर्दे वजी ही है | जो सन 1398 लहर तारा नामक तालाब काशी शहर में माँ के गर्भ से पैदा न हो कर शरीर के साथ अपने सतलोक से चल कर कमल के फूल पर नन्हे बालक के रूप में प्रगट हुए थे | और 64 लाख शिष्य बनाकर और उन्हें यही पर छोड़कर और ये कहकर गए की हम वक्त-वक्त पर परमसंतो के रुपमे प्रकट होते रहेंगे और सत्यज्ञान का प्रचार करते रहेंगे, फिर आखिर में शिवलानगरी में आकर वापिस प्रगट होंगे और सब 64 लाख शिष्यों को सतलोक को लेकर जायेंगे | फिर सन 1518 में मगहरगाव में शरीर के साथ ही अपने सत्यलोक को चले गए थे| कबीर जी से लेकर रोहिदास, गरीब दास, घिसासंत, दादू, पल्टूदास, गुरुनानक, व दसोगुरु गुरु गोविन्द तक व राधास्वामी, जैमलशाह, शाव नशाह, व शाहमस्तानाजी बेपरवाह और निष्कलंक अवतार परमसंत छे:सो मस्तानाजी व प्रेमगुरु: ये सब के सब कबीरजी के ही रूप है|जो इस बात को समझ गए वो इस संसार सागर से पार हो गए इस में किंचित मात्र भी संशय नही समझना | जो जिस काल में जो परमसंत आये और उस काल में जिसने भी उनसे सत्यनाम लिया और साधना की और वो सेवक उस संत से पहले शरीर छोड़कर गया तो वो सतलोक को गया यानी पूर्ण रूपसे मुक्त हो गया अगर उस सेवक से पहले वो परमसंत जिससे सत्यनाम लिया था वो शरीर छोड़कर चला गया और वो सेवक उसी पंथ में पडा रहा वो मुक्त नही हो सकता उस सेवक को अगले वक्त परमसंत के शरण में जाना पड़ेगा अगर ऐसा किया तो पूर्ण मुक्त हो सक ता है वर्ना नहीं यही कविर्देवजी की भी चेतावनी है | अर्थात वक्त गुरु की शरण में जाना चाहिए तो ही मनुष्य पूर्ण रूपसे मुक्त हो सकता है अगर पंथ में पड़ने से मनुष्य मुक्त हो सकता था तो कविर्देव जी को ये दोहा कहने की क्या अवशाकता थी की (पंथ पड़े सो बह गए, हमारी बात अपंथ | वचन हमारा मानियो, सेवा सतगुरु संत) जब तक शिष्य गुरु की बात को नहीं मानेगा वो कितना भी बड़ा पंथी क्यों न हो चाहे वो कबीर पंथी हो चाहे कोई भी संत का पंथी हो वो कभी भी इस संसार से मुक्त नही हो सकता अगर मुक्ति चाहि ए तो पंथ को छोड़कर वक्त के सतगुरु की व संत की शरण में आना ही पड़ेगा और ये ज्ञान परमसंत कबीर सतगुरु का ही है फिर अभिमान कैसा और क्यों ? अभी सच में सेवक बने और अपने बिछड़े हुए पूर्ण ब्रह्म को मिले और अपने सतलोक में जाकर आराम करे इस काल के मृतलोक को सदा-सदा के लिए छोड़ दे जो सुख अपने घर में मिलता है | वो सुख बाहर कभी नहीं मिल सकता जरा सोचिये और बनाये अपना मनुष्य जन्म सफल ऐसा मोका फिर नही मिलेगा | और बोलिए
|| धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा ||
शिष्य तो ऐसा चाहिए ,जो गुरु को सबकुछ दे | पर गुरु भी तो ऐसा चाहिए, जो शिष्य से कुछ ना ले
8. वक्त के गुरु परमसंत का क्या मतलब है ? और पूर्ण परमसंत सतगुरु की क्या पहचान है |जो जीव आत्मा को संसार से मुक्त करके अपने पूर्ण परमात्मासे मिलादे ?
वक्त के गुरु परमसंत का मतलब है न्यू टेकनोलोजी अर्थात नयी सुविधा पूर्णब्रह्म की प्राप्ति का सरल तरीका और फुल ग्यारंटी | और जैसे सूरज निकलने के बाद अँधेरा नहीं रहता और पानी पीने के बाद प्यास नही रहती और खाने के बाद भूख नही रहती इसी प्रकार पूर्ण परमसंत मिलने के बाद किसी से भी नफरत नहीं रहती और चाहत भी नही रहती और पूर्णसंत वही होते है जो शब्द स्वरूपी होते है अर्थात शब्द और सूरत के मिलने का ही ज्ञान देते है शब्द मतलब राम सूरत मतलब आत्मा जो संत इस प्रकार का ज्ञान करवाते है सिर्फ उन्हीको ही परमसंत व पूरा सतगुरु जानो इस ज्ञान के विरुद्ध अगर कोई संत ज्ञान देते है वो जीव आत्मा को गुमराह करने के लिए काल के भेजे हुए संत है ऊपर से भगवान् और अंदर से ठग है | ऐसा समझो लेकिन इस बात का सच्चा ज्ञान उन काल के भेजे हुए संतो को भी नहीं होता वो दूसरोका तो नुकशान करते ही है लेकिन अपना भी नुकशान करते है | अर्थात स्वयं भी नर्क में जाते है और दुसरो को भी नर्क में भेज देते है ब्रह्म काल ने पूर्णब्रह्म दयाल से कहा था की जब तुम जीव आत्मा को ले जाने के लिए इस मेरे मृतलोक में आओगे और सतगुरु का प्रचार करोगे तो में भी इतने नकली गुरु व संत भेज दूंगा की कोई भी सत्य और असत्य की पहचान नही कर सकेगा और तुम जीव को तीन बंधन लगा कर सतलोक में ले जाओगे तो में सब लोगो को इन तीन विकारो में ही लगा दूंगा जैसे 1. शराब पीना 2. मॉस खाना 3. पर पुरुष और पर स्त्री में सबको विचलि त कर दूंगा चेतावनी: तो अभी नकली गुरुवो को छोड़कर सतगुरु की शरण में इन तीन बंधनो को रखकर और सारनाम लेकर बनाए अपना मनुष्य जन्म सफल और बोले -
|| धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा ||
आये एको ही देश ते, उतरे एको ही घाट | समझो का मत एक है, मुरख बारा बाट||
श्रुष्टि रचना
सर्व प्रथम केवल एक ही प्रभु था और उसका नाम है कविर्देव | अर्थात (कविम) चारो
वेद पवित्र गीता व पवित्र कुरान में भी इसका स्पष्ट प्रमाण है | वो अकह अनामी अर्थात
(अनामय) लोक में रहता है | और हम सभी जीव प्राणी भी उसी परमेशवर कविर्देव में
ही समाये हुए थे | कबीरदेवजी को इन नामो से भी जाना जाता है | निक्षरपुरुष परमअ
क्षरपुरुष शब्दस्वरूपीराम अकालमूरत पूर्णब्रह्म इत्यादि उसके बाद उस परमात्मा ने अप
ने अनामी लोक के नीचे स्वयं प्रकट होकर अपनी शब्द शक्ति से और तीन लोको की रच
ना की 1 अगमलोक 2 अलखलोक 3 सतलोक उसका नाम अगमलोक में अगमपुरुष
अलखलोक में अलखपुरुष सतलोक में सतपुरुष और अकह:अनामी में परमअक्षरपुरुष
अर्थात पूर्णब्रह्म यानी पूर्ण परमात्मा ऐसा जानो फिर सतलोक में आकर के उस परमेश
वर ने अन्य रचना की जो इस प्रकार है सर्व प्रथम अपने एक शब्द से 16 द्वीपों की रचना
की उसके बाद 16 शब्द फिर उचारण किये उनसे अपने 16 पुत्रो की उत्पति की उनके
नाम इस प्रकार है 1 कुर्म 2 धैर्य 3 दयाल 4 ज्ञानी 5 योगसंतायन 6 विवेक 7 अचिन्त
8 प्रेम 9 तेज 10 जलरंगी 11 सुरति 12 आनन्द 13 संतोष 14 सहज 15 क्षमा 16
निष्काम | ये सब निर्गुण प्रभु है |फिर कविर्देव पूर्ण परमात्माने अपने सभी 16 पुत्रो को
अपने अपने 16 द्वीपों में रहने की आज्ञा दी फिर अपने एक पुत्र अचिन्त को अन्य श्रुष्टि
रचना करो मेरी शब्द शक्ति से ऐसी आज्ञा दी फिर अचिन्त ने श्रुष्टि की रचना का काम
आरंभ किया सर्वप्रथम अक्षरपुरुष अर्थात परब्रह्म की उत्पति की और परब्रह्म से कहा सत
लोक में सृष्टि की रचना करने में आप मेरा सहयोग दो | सतलोक में अमृत से भरा हुआ
मानसरोवर भी है | सतलोक में स्वांसो से शरीर नहीं है और वहा का जल भी अमृत है |
एक दिन परब्रह्म मानसरोवर मेंप्रवेश कर गए और वहा आनंद से विश्राम करने लगे अक्षर
पुरुष को निंद्रा आ गई और बहुत समय तक सोते रहे तब सतपुरुष ने अपनी शब्दशक्ति
से अमृत तत्त्व से एकअंडा बनाया और उसमे एक आत्मा को प्रवेश किया फिर उस अंडे
को आत्मा सहित मानसरोवर में डाल दिया जब वो अंडा गड गड कर के मानसरोवर में
नीचे जा रहा था उस आवाज से अक्षरपुरुष अर्थात परब्रह्म की निंद्रा भंग हुई और जब कोई
अधूरी निंद्रा से जागता है उसके अन्दर कुछ कोप होता है | जैसे ही परब्रह्म कोप दृष्टी से
उस अंडे की तरफ देखा तो उस अंडे के दो भाग होकर उस में से एक क्षरपुरुष अर्थात ब्रह्म
निकला इसको ज्योत स्वरूपी निरंजन भी कहते है वास्त व में इसका नाम कैल है और
यही आगे चल कर काल कहलाया फिर सतपुरुष ने आकाशवाणी की तुम दोनों परब्रह्म
और ब्रह्म मानसरोवर से बाहर आजा ओ और दोनों अचिन्त के लोक में हम अचिन्त के
लोक में जाकर रहने लगे | फिर बहुत समय के बाद इस क्षरपुरुष अर्थात ब्रह्म के मन में
कोन ब्रह्मा के पिता है ? कोन विष्णु की माँ ? शंकर के दादा कोन है ?हमको दे बता?
एक युक्ति सुज्जि की क्यों न में अपना अलग राज्य बनाऊ मेरे सब अन्य भाई अलग अल ग एक एक द्वीप में अकेले रहते है और हम एक द्वीप में 3 रहते है अचिन्त, परब्रह्म और में ब्रह्म ज्योतनिरंजन ने ऐसा सोचकर पिताजी यानी पूर्णब्रह्म की 70 युग तक एक पैर पर खड़ा होकर तपस्या की और जब ये ब्रह्म तपस्या कर रहा था हम सभी आत्मा जो आज काल के लोक में दुःख पा रहे है चाहे कोई देव बना है चाहे कोई महादेव बना है चाहे कोई शुकर बना है चाहे कोई गधा बना है चाहे कोई राजा बना है चाहे कोई रंक बना है पशु या पक्षी बना हुआ है ये सभी की सभी आत्माए हम इस काल अर्थात ब्रह्म के ऊपर आक्षक्त हो गए थे और वही बिमारी आज हमारे अन्दर विधमान है | यही परक्रिया जैसे ये नादान बच्चे किसी हीरो या हेरोइन को देख कर उनकी अदाओ के ऊपर इतने आक्ष्क्त हो जाते है अगर आस पास किसी शहर में वो हीरो अभीनेता या अभीनेत्री आजाये तो लाखो की संख्या में उनके द्रुशनार्थ भीड़ उमड़ जाये और लेना एक ना देने दो कुछ मिलना नहीं उन से ऐसी वृति हमारी वहाँ बिगड़ी थी हम सतलोक में रहा करते थे अपने पिता के साथ कुछ दुःख नहीं था कोई मृत्यु नहीं थी हमारे परिवार थे हम प्यार से रहा करते थे लेकिन वहाँ हम अपने पतिव्रता पद से गिर गए अपने मूल मालिक उस पूर्णब्रह्म जो सदा सुखदाई जो सदासहाई आत्मा का आधार वास्तव में भगवान् है जो जीवो को दुखी नहीं करता जनम मरण के कष्ट में नहीं डालता कुत्ते और गधे नहीं बनाता उस पूर्ण ब्रह्म को छोड़कर हम इस काल ब्रह्म के उपर आक्ष्क्त हो गए थे |जब इस काल ने 70 युग तप कर लिया तब पूर्ण परमात्मा ने काल ब्रह्म से पूछा भाई क्या चाहता है तू तब इस ज्योत निरंजन काल ने कहा की पिताजी जहाँ में रह रहा हूँ ये स्थान मुझे कम पड़ता है तथा मुझे अलग से राज्य दो तब उस पूर्णब्रह्म ने इस ब्रह्म के तप के बदले में 21 ब्रह्मांड प्रदान कर दिए जैसे 21 प्लाट दे देता है कोई साहूकार पिता अपने पुत्र को 21 ब्रह्मांडो को पाकर ये ज्योत निरंजन बड़ा प्रसन्न हुआ कुछ दिनों के बाद इसके मन में आया की इन ब्रह्मांडो में कुछ और रचना करू और उस के लिए अन्य सामग्री पिताजी से मांगू इस उदेश्य से इसने फिर 70 युग तप किया फिर पूर्ण ब्रह्म ने पूछा ज्योत निरंजन अब क्या चाहते हो तुमको 21 ब्रह्मांड तो दे चूका हु तब इस ब्रह्म ने कहा की पिताजी में इन ब्रह्मांडो में कुछ अन्य रचना करना चाह ता हूँ कृपया रचना करने की सामग्री भी दीजिये फिर सतपुरुष ने इस ब्रह्म को 5 तत्त्व और 3 गुण और प्रदान कर दिये बाद में ब्रह्म ने सोचा की यहाँ कुछ जीव भी होने चाहिए और मेरा अकेले का मन कैसे लगेगा इस उदेश्य से फिर 64 युग तप किया सतपुरुष ने पूछा अब क्या चाहता है ज्योत निरंजन अब तुझे मेने जो माँगा सो दे दिया तब ब्रह्म ने कहा पिताजी मुझे जीव भी प्रदान करो मेरे अकेले का दिल कैसे लगेगा उस समय सतपु रुष कबीर परमेशवर ने कहा की ज्योत निरंजन तेरे तप के बदले में राज्य दे सकता हूँ और ब्रह्मांड चाहिए वो दे सकता हूँ परन्तु ये अपनी प्यारी आत्मा अपना अंश नहीं दूंगा
अक्षर पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार | तीन देव शाखा भये, पात रूप संसार
तुझे ये तो तेरे किसी भी क्रिया धर्म धार्मिक क्रिया से तप से किसी भी जप से नहीं दूंगा हां यदि वो स्वयं कोई हंस आत्मा अपनी इच्छा से तेरे साथ कोई जाना चाहता है तो में स्वीकृति दे सकता हूँ वर्ना नहीं ये सुनकर ब्रह्म ज्योत स्वरूपी निरंजन अर्थात जो भविष्य में काल कह लाया ये हमारे पास आया आज हम जितनी भी दुखी आत्मा इसके 21 ब्रह्मां डो में पीड़ित है और फिर इस काल ने हमसे कहा की मेने तपस्या करके पिताजी से 21 ब्रह्मांड प्राप्त किये हे में वहा पर स्वर्ग बनाऊंगा महास्वर्ग बनाऊंगा और दूध की नदिया और झरने बहाऊंगा ऐसे हमको सपने दिखाये और हमको पूछा की आप मेरे साथ चलना चाहते हो तब हम सब ने कहा अगर पिताजी अनुमति दे तो हम चलने को तैयार है |फिर ये ब्रह्म पिताजी अर्थात पूर्णब्रह्म कबीरजी के पास गया और बोला इन सभी जीव आतमा ओं को में पूछकर आया हूँ वो सब मेरे साथ चलने के लिए तैयार है | ये सुनकर पिताजी अर्थात पूर्ण ब्रह्म कबीर जी हम सब आत्माओ के पास आकर पूछा इस ज्योत निरंजन के पास कोन कोन जाना चाहता है अपनी सहमति हमारे सामने व्यक्त करे | उस समय पि ताजी के सामने हम सब आत्मा घबरा गए और किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ी अपनी स्वीकृति देने की फिर कुछ समय के बाद एक आत्मा ने सर्व प्रथम हिम्मत की और कहा की पिताजी में इस ब्रह्म के साथ जाना चाहता हूँ फिर पिताजी ने उस आत्माका अंक लिख लिया फिर इसको देखकर हम सभी आत्माओं ने ब्रह्म के साथ जाने की स्वीकृति दे दी जो आज हम इस ब्रह्म अर्थात काल की त्रिलोकी की कारागृह अर्थात कैद में बंद है |और बहुत दुखी भी है | फिर पिताजी अर्थात पूर्णब्रह्म कबीरजी ने ज्योत निरंजन को कहा की तुम अब अपने लोक में चले जाओ में इन सभी आत्माओ को विधिवत तेरे लोक में भेज दूंगा फिर सतपुरुष ने अपनी शब्द शक्ति से सर्व प्रथम स्वीकृति देने वाली आत्माको एक लड़ की का रूप बनाया और उसको एक शब्द शक्ति भी दे दी और हम सभी जीव आत्माओं को उस लड़की के अंदर प्रवेश कर दिया उस लड़की का नाम प्रकृति अष्टगी महामाया आदि भी कहते है और आगे चल कर ये त्रिदेवोकी माता भी कहलायी फिर पिताजी ने इसको कहा बेटी मेने आपको शब्द की शक्ति दी है ये काल ब्रह्म जितने जीव कहे तू अपने शब्द से बना देना एक बार मुख से उचारण करेगी उतने ही नर मादा जोड़ी की जोड़ी उत्पन हो जायेंगे फिर सतपुरुष ने अपने पुत्र सहजदास को आज्ञा दी की अपनी बहन प्रकृति को लेकर जाओ और ज्योत स्वरूपी निरंजन के पास छोड़आओ और उसको कहना पिताजी ने प्रकृति को शब्द शक्ति दी हे जितने जीव तुम कहोगे ये बना देगी और जितनी भी आ त्माओ ने स्वीकृति दी थी उन सभी आत्माओं को इस प्रकृति देवी में प्रवेश कर दिया है फिर सहजदास प्रकृति देवी को लेकर ज्योतनिरंजन के पास गया और अपने पिताजी की
चंदन जैसा संत है, सर्प है सब संसार | ताके संग लगा रहे, करत नहीं विचार
आज्ञा अनुसार सारा काम कर के अपने द्वीप अर्थात लोक में लोट आया | युवा होने के कारण लड़की का रूप निखरा हुआ था | इस ज्योत निरंजन अर्थात क्षरपुरुष ब्रह्म के मन में नीचता उत्पन हुई जो आज हम सब प्राणियों में विधमान है वही वृति वही प्रक्रिया अर्थात वही बुरी आदत लड़की को देखकर ज्योत निरंजन ने बदतमीजी करनेकी चेष्टा अर्थात इच्छा प्रगट की प्रकृति ने कहा निरंजन तू जो सोच रहा है वो ठीक नहीं है क्योंकि तू और में एक ही पिता की संतान है पहले अंडे से तेरी उत्पति हुई और फिर पिताजी ने मुझे उत्तपन किया इस नाते से में और तू बहन भाई हुए | बहन और भाई का ये कर्म पाप का भागी होता है तू मानजा मेरी बात | ज्योत निरंजन ने एक भी बात उस लड़की की नहीं मानकर और मदहोश व कामवश व विषयवासना के बस में होकर उस लड़की को पकड़ने की चेष्टा की दुष्कर्म करने के लिए | फिर लड़की ने उस निरंजन से बचने के लिए और कही स्थान ना पाकर जो ही उस काल ने मूह खोला हुआ था आलिंगन करने के लिए बाजू फेलाई थी उसी समय लड़की ने छोटा सा रूप शुक्ष्म रूप बनाया अति सूक्ष्म उसके खोले हुए मूहँ द्वारा उसके पेट में प्रवेश कर गई और अपने पिताजी से पुकार की प्रभु मेरी रक्षा करो मुझे बचाओ ये सुनकर उसी समय कबीरजी ने अपने बेटे योगजीत का रूप बनाकर इस ज्योत निरंजन के लोक में आये और कहा ज्योत निरंजन आपने ये जो नीच काम किया इस सच्चे लोक में ऐसे दुष्ट पापआत्मा को श्राप लगता है | की एक लाख मनुष्य शरीरधारी जीवो का रोज आहार करेगा और सवा लाख जीवो की उत्पति करेगा ये आदेश दिया और कहा के इस सतलोक से अपने 21 ब्रह्मांड और पाँच तत्त्व व तीनो गुणों को और इस प्रकृति देवी को लेकर इस सतलोक से निकल जाओ इतना कहकर प्रकृति को इस ब्रह्म के पेट से निकाल दिया और सतलोक से निष्काषित कर दिया और प्रकृति को भी कहा की तुने इस काल के साथ जाने की स्वीकृति दी थी अभी इसके साथ रहकर तू अपनी सजा भोग इतना कहते ही 21 ब्रह्मांड पाँच तत्त्व तीनो गुण काल और माया वायुयान की तरह वहाँ से चल पड़े और सतलोक से 16 शंख कोस की दुरी पर 21 ब्रह्मांड व इन सबको लाकर शिथर कर दिया | कबीर परमात्माने अपनी शब्द शक्ति द्वारा फिर इस काल निरंजन के मन में वही नीचता फिर उत्तपन हुई और कहा की प्रकृति अब मेरा कोन क्या बिगाड़ सकता है अब में मनमाना करूँगा फिर प्रकृतिदेवी ने इसे प्रार्थना की ज्योत निरंजन मुझे पिताजी ने प्राणी उत्तपन करने की शक्ति दी हुई है तुम जितने जीव प्राणी कहोगे में उतने उत्पन कर दूंगी तुम मेरे साथ ये दुशकर्म मत करो लेकिन इस काल निरंजन ने प्रकृति की एक भी बात न मानकर प्रकृतिदेवी अर्थात दुर्गा से जबरदस्ती शादी कर ली |और एक ब्रह्मांड में इस काल ने तीन प्रधान स्थान बनाये अर्थात तीन गुण
माया सब कहे, माया लखे न कोय | जो मनसे ना उतरे, मया कहिये सोय
1 रजोगुण 2 सतोगुण 3 तमोगुण फिर रजोगुण प्रधान क्षेत्र में अपनी पत्नी प्रकृति के साथ रहकर एक पुत्र की उत्पति की उसका नाम ब्रह्मा रखा और ब्रह्माजी में रजोगुण प्रकट हो गये |उसी प्रकार सतोगुण क्षेत्र में रहकर जो पुत्र उत्पन हुआ उसका नाम विष्णु रखा और विष्णु में सतोगुण प्रकट हो गये | फिर तमोगुण क्षेत्र में जो पुत्र उत्पन हुआ उसका नाम शिव रख देता है | और शिव में तमोगुण प्रकट हो जाते है |इसी प्रकार सभी ब्रह्मांडो की रचना की हुई है फिर तीनो पुत्रो की उत्पति करने के पशचात ब्रह्म काल ने अपनी पत्नी दुर्गा से कहा की में प्रतिज्ञा करता हूँ की भविष्य में वापिस में किसी को अपने वास्तविक रूप में दर्शन नहीं दूंगा जिस कारण से में अव्यक्त अर्थात निरंकार माना जाऊंगा दुर्गा से कहा की आप मेरा भेद किसी को मत देना में गुप्त रहूँगा दुर्गा ने कहा क्या आप अपने पुत्रो को भी दर्शन नहीं दोगे ? ब्रह्म अर्थात काल ने कहा में अपने पुत्रो को तथा अन्य किसी को भी कोई भी साधना से दर्शन नहीं दूंगा ये मेरा अटल नियम रहेगा | दुर्गा ने कहा ये आप का उत्तम नियम नहीं हे जो आप अपनी संतान से भी छुपे रहोगे तब काल ने कहा दुर्गा ये मेरी विवशता है मुझे एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों का आहार करने का शाप लगा है यदि मेरी इस सत्यता का पता मेरे तीनो पुत्रो को पता लग गया तो ये उत्पति सिथ्ती तथा सहार का कार्य नहीं करेंगे | इसलिए यह मेरा अनुतम अर्थात घटिया नियम सदा ही बना रहेगा|जब ये तीनो पुत्र जब बड़े हो जाये तो इन्हें अचेत कर देना मेरे विषय में कुछ नहीं बताना नहीं तो में तुझे भी दंड दे दूंगा इस डर के मारे दुर्गा अपने तीनो पुत्रो को वास्तविकता नहीं बताती | जब तीनो पुत्र युवा हो गए तब माता प्रकृति ने कहा की तुम सागर मंथन करो प्रथम बार सागर मंथन किया तो ज्योत निरंजन ने अपने स्वासो द्वारा चार वेद उत्पन किये | उनको गुप्त वाणी द्वारा आज्ञा दी की सागर में निवास करो वो चारो वेद निकले वो चार वेदों को लेकर तीनो बच्चे माता के पास आये तब माता ने कहा की चारो वेदों को ब्रह्मा रखे व पढ़े | नोट: वास्तव में पूर्णब्रह्म ने, ब्रह्म अर्थात काल को पांच वेद प्रदान किये थे लेकिन ब्रह्म काल ने केवल चार वेदों को ही प्रकट किया पांचवा वेद छुपा लिया जो पूर्ण परमात्माने स्वयं प्रकट होकर (कविगिर्भी) अर्थात (कविर्वाणी) कबीर वाणी लोकोकित्यों व दोहों के माध्यम से प्रकट किया है | और इन अज्ञानी नकली गुरुवो और महेंतो ने अपनी अटकल लगाकर और एक वेद बनाया हे जिसको कहते है लोकवेद जिसका पवित्र गीता में वर्णन है | अ : न: 15 के श : 18 में सुना सुनाया ज्ञान अर्थात शास्त्र विरुद्ध साधना |
दूसरी बार सागर मंथन किया तो तीन कन्याये मिली माता ने तीनो को बाँट दिया प्रकृतीने अपने ही अन्य तीन रूप सावि त्री, लक्ष्मी तथा पार्वती धारण किये तथा समु न्दर में छुपा दी सागर मंथन के समय बाहर आ गई वही प्रकृति तीन रूप हुई तथा भग वान् ब्रह्मा को सावित्री भगवान् विष्णु को लक्ष्मी भगवान् शंकर को पार्वती दी | फिर
सेवक सेवा में रहे, सेवक कहिये सोय | कहे कबीरा मुर्ख, सेवक कभी ना होय
तीनो ने भोग विलास किया सुर तथा असुर दोनों पैदा हुए जब तीसरी बार सागर मंथन किया तो 14 रतन ब्रह्मा को तथा अमृत विष्णु को व देवताओंको मध् अर्थात शराब असु रोंको तथा विष परमारथ शिव ने अपने कंठ में ठहराया जब ब्रह्मा वेद पड़ने लगा तो कोई सर्व ब्रह्मांडो की रचना करने वाला कुल मालिक पुरुष प्रभु तो कोई और है तब ब्रह्माजी ने विष्णुजी व शंकर जी से बताया की वेदों में वर्णन है की सर्जनहार कोई और ही प्रभु है परन्तु वेद कहते है की उस पूर्ण परमात्मा का भेद हम भी नहीं जानते उसके लिए संकेत है की किसी तत्वदर्शी संत से पूछो तब ब्रह्मा माता प्रकृति के पास आया और सब वृतांत कह सुनाया माता कहा करती थी की मेरे अतिरिकत और कोई नहीं हे | में ही कर्ता हूँ और में ही सर्वशक्तिमान हूँ परंतु ब्रह्मा ने कहा वेद इश्वर कृत है ये झूट नहीं हो सकते फिर दुर्गा ने कहा की बेटा ब्रह्मा तेरा पिता तुझे दर्शन नहीं देगा क्योकि उसने प्रतिज्ञा कि हुई है |तब ब्रह्माजी ने कहा की माताजी अब आप की बात पर मुझे अविश्वास हो गया है में उस पुरुष प्रभु का पता लगाकर ही रहूँगा दुर्गा ने कहा की यदि व तुझे दर्शन नहीं देगा तो तुम क्या करोगे?तब ब्रह्माजी ने कहा की में आपको शकल नहीं दिखाऊंगा दूसरी तरफ ज्योत निरंजन ने कसम खाई है की में अव्यक्त ही रहूँगा किसीको दर्शन नहीं दूंगा अर्थात 21 ब्रह्मांड में कभी भी अपने वास्तविक काल रूप आकार में नहीं आऊँगा इस काल भगवान् अर्थात ब्रह्म क्षरपुरुष में त्रुटीया है इसलिए ये अपना साकार रूप प्रकट नहीं करता इसने अपने ब्रह्मलोक में जो तीन स्थान बना रखे है जैसे महाब्रह्मा, महाविष्णु और महाशिव ज्यादा से ज्यादा इन रुपो मे प्रकट होकर इनका साकार रूप में दिखाई दे सकता है पर अपना वास्तविक रूप को छुपाकर रखता है | और किसी को भी अपना ज्ञान होने नहीं देता|सभी रूषीमुनि, महारुषीमुनि बस यही कहते है की वो प्रभु प्रकाश है पर देखने वाली बात यह है की जिसका भी प्रकाश है आखिर वो भी तो अपने वास्तविक रूप में होगा | उदहारण जैसे सूरज का प्रकाश हे तो सूरज भी तो अपने वास्तविक रूप में है | चाँद का प्रकाश हे तो चाँद भी अपने वास्तविक रूप में है | पर ज्ञान न होने के कारण सभी कहते है परमात्मा तो निराकार है जब की वेद कह रहे है की परमात्मा साकार रूप में है वेदों में लिखा हुआ है अग्नेस्तनुअसि अर्थात परमात्मा शहशरीर है | पर जब तक हमको पूर्ण परमात्मा व् श्रुष्टि रचना का ज्ञान नहीं होगा तब तक हम इस अश्रेष्ठ काल के यानी ब्रह्म के जाल में ही फसे रहेंगे तो अभी चक्कर में न पड़कर आइये पूर्ण परमात्मा का साक्षा त्कार करने के लिए और अपने बिछड़े हुवे परमात्मा से फिर वापिस मिलने के लिये और अपनी आत्मा को हमेशा हमेशा के लिए इस क्षरपुरुष ब्रह्म काल अर्थात ज्योतनिरंजन के जाल से मुक्त करे और जाये अपने सतलोक | प्रभु परम अक्षरपुरुष अर्थात पूर्णब्रह्म परमे श्वर पूर्ण परमात्मा के पास | सारनाम यानी सारशब्द का सुमरण करके | और ये मनुष्य जनम बहुत ही अनमोल है समझदार मनुष्य को इशारा ही काफी होता है |
ब्रह्माजी का अपने पिता ब्रह्म (काल) की खोज में जाना
तब दुर्गा ने ब्रह्म जी से कहा की अलख निरंजन तुम्हारा पिता है परन्तु वह तुम्हें दर्शन नहीं देगा | ने कहा की में दर्शन करके ही लौटूंगा | माता ने पुचा की यदि तुझे दर्शन नहीं हुए तो क्या करेगा ? ब्रह्मा ने कहा मैं प्रतिज्ञा करता हूँ | यदि पिता के दर्शन नहीं हुए मै आपके समक्ष नहीं आऊंगा | यह कह कर ब्रह्माजी व्याकुल होकर उत्तर दिशा की तरफ चल दिया जहाँ अन्धेरा ही अन्धेरा है | वहा ब्रह्मा ने चार युग तक ध्यान लगाया परन्तु कुछ भी प्राप्ति नहीं हुई | काल ने आकाश वाणी की कि दुर्गा सृष्टी रचना क्यों नहीं की ? भवानी ने कहा कि आप का जयेष्ट पुत्र ब्रह्मा जिद करके आप कि तलाश मै गया है | ब्रह्म (काल) ने कहा उसे वापिस बुला लो | मै उसे दर्शन नही दूँगा | ब्रह्मा के बिना जिव उत्प ति का कार्य सब कार्य असम्भव है | तब दुर्गा (प्रकृति) ने अपनी शब्द शक्ति से गायत्री नाम कि लड़की उत्पन्न कि तथा उसे ब्रह्मा को लौटा लाने को कहा | गायत्री ब्रह्मा जी के पास गयी परंतु ब्रह्मा जी समाधि लगाये हुए थे उन्हें कोई आभास नहीं था कि कोई आया है | तब आदि कुमारी (प्रकृति) ने गायत्री को ध्यान द्वारा बताया कि इस के चरण स्पर्श कर | तब गायत्री ने ऐसा ही किया | ब्रह्माजी का ध्यान भंग हुआ तो क्रोध वश बोले कि कौन पापिन है जिसने मेरा ध्यान भंग किया है | मै तुझे शाप दूँगा | गायत्री कहने लगी कि मेरा दोष नही है पहले मेरी बात सुनो तब शाप देना | मेरे को माता ने तुम्हें लोट लाने को कहा है क्योंकी आपके बिना जीव उत्पति नहीं हो सकती | ब्रह्मा ने कहा कि मैं कैसे जाऊँ? पिता जी के दर्शन हुए नही, ऐसे जाऊँ तो मेरा उपहास होगा | यदि आप माताजी के समक्ष यह कह दें कि ब्रह्मा ने पिता (ज्योति निरंजन) के दर्शन हुए हैं, मैंने अपनी आँखों से देखा है तो मै आपके साथ चलूं | तब गायत्री ने कहा कि आप मेरे साथ संभोग करोगे तो मैं आपकी झूठी साक्षी (गवाही) भरुंगी | तब ब्रह्मा ने सोचा कि पिता के दर्शन हुए नहीं, वैसे जाऊँ तो माता के सामने शर्म लगेगी और चारा नहीं दिखाई दिया, फिर गायत्री से रति क्रिया (संभोग) कि |
तब गायत्री ने कहा कि क्यों न एक गवाह और तैयार किया जाए | ब्रह्मा ने कहा बहुत ही अच्छा है | तब गायत्री ने शब्द शक्ति से एक लड़की (पुहपवती नाम कि) पैदा कि तथा उससे दोनों ने कहा कि आप गवाही देना कि ब्रह्मा ने पिता के दर्शन किए है |तब पुहपवती ने कहा कि मै क्यों झूटी गवाही दूँ ? हाँ, यदि ब्रह्मा मेरे से रति क्रिया (संभोग) करे तो गवाही दे सकती हूँ | गायत्री ने ब्रह्मा को समझाया (उकसाया) कि और कोई चारा नहीं है तब ब्रह्म ने पुहपवती से संभोग किया तो तीनों मिलकर आदि माया (प्रकृति) के पास आए | दोनों देवियों ने उपरोकत शर्त इसलिए रखी थी कि यदि ब्रह्मा माता के सामने हमारी झूठी गवाही को बता देगा तो माता हमें शाप दे देगी | इसलिए उसे भी दोषी बना लिया |
माता (दुर्गा) द्वारा ब्रह्मा को शाप देना
तब माता ने ब्रह्मा से पुच्छा क्या तुझे तेरे पिता के दर्शन हुए ? ब्रह्मा ने कहा हाँ मुझे पिता के दर्शन हुए हैं | दुर्गा ने कहा साक्षी बता तब ब्रह्मा ने कहा के इन दोनों के समक्ष साक्षा त्कार हुआ है तब दोनों ने कहा कि हाँ, हमने अपनी आँखों से देखा है | फिर भवानी (प्रकृति) को संशय हुआ कि मुझे तो ब्रह्म ने कहा था कि मैं किसी को दर्शन नही दूँगा, परन्तु ये कहते हैं कि दर्शन हुए हैं | ताप अष्टंगी ने ध्यान लगाया और काल ज्योति निरं जन से पुचा कि यह क्या कहानी है ? ज्योति निरंजन जी ने कहा कि ये तीनों जहत बोल रहे हैं | तब माता ने कहा तुम जहत बोल रहे हो | आकाशवाणी हुई है कि इन्हें कोई दर्श न नही हुए | यह बात सुनकर ब्रह्मा ने कहा कि माता जी मै सोगंध खाकर पिता कि तला श करने गया था | परन्तु पिता (ब्रह्म) के दर्शन हुए नहीं | आपके पास आने में शर्म लग रही थी | इसलिए हमने झूठ बोल दिया | तब माता (दुर्गा) ने कहा कि अब मैं तुम्हें शाप देती हूँ |
ब्रह्मा को शाप: तेरी पूजा जग मे नहीं होगी | आगे तेरे वंशज होंगे वे बहुत पाखण्ड करेंगे | झूठी बात बना कर जग को ठगेंगे | ऊपर से तो कर्म काण्ड करते दिखाई देंगे अन्दर से विकार करेंगे | कथा पुराणों को पड़कर सुनाया करेंगे, स्वयं को ज्ञान नहीं होगा कि सद् ग्रंथो में वास्तविकता क्या है, फिर भी मान वश तथा धन प्राप्ति के लिए गुरु बनकर अनु याइयों को लोकवेद (शास्त्र विरुद्ध दंत कथा) सुनाया करेंगे | देवी- देवों कि पूजा करके तथा करवाके, दुसरो कि निन्दा करके कष्ट पर कष्ट उठायेंगे | जो उनके अनुयाई होंगे उनको परमार्थ नही बताएंगे | दक्षिणा के लिए जगत को गुमराह करते रहेंगे | अपने आपको सबसे अच्छा मानेंगे, दुसरो को नीचा समझेंगे | जब माता के मुख से यह सुना तो ब्रह्मा मुर्छित होकर जमीं पर गिर गया | बहुत समय उपरान्त होश मे आया |
गायत्री को शाप: तेरे कई सांड पति होंगे | तु मृतलोक मैं गाय बनेगी |
पुहपवती को शाप: तेरी जगह गंदगी मैं होगी | तेरे फूलो को कोई पूजा मैं नहीं लाएगा | इस झूठी गवाही के कारण तुझे यह नरक भोगना होगा | तेरा नाम केवड़ा केतकी होगा | (हरियाणा मे कुसोंधी कहते हैं | यह गंदगी (कुरडियों) वाली जगह पर होती है |)
सारांश: इस प्रकार तीनों को शाप देकर माता भवानी बहुत पछताई | {इस प्रकार पहले तो जीव बिना सोचे मन काल निरंजन के प्रभाव से गलत कार्य कर देता है परन्तु जब आत्मा के प्रभाव से उसे ज्ञान होता है तो पीछे पछताना पड़ता है | जिस प्रकार माता पिता अपने बच्चो को छोटी सी गलती के कारण तोड़ते हैं (क्रोधवश होकर) परन्तु बाद में बहुत पछताते हैं | यही प्रक्रिया मन (काल-निरंजन) के प्रभाव से सर्व जीवो में क्रिया वान हो रही है | } हाँ, यहाँ एक बात विशेष है की निरंजन (काल-ब्रह्म) ने भी अपना कानून बना रखा है की यदि कोई जीव किसी दुर्बल जीव को सताएगा तो उसे उसका बद ला देना पड़ेगा | जब आदि भवानी (प्रकृति अष्टंगी) यह आपने अच्छा नहीं किया | अब में (निरंजन) आपको शाप देता हूँ की द्वापर यग में तेरे भी पाँच पति होंगे | द्रोपदी ही आदिमाया का अवतार हुयी है |) जब यह आकाश वाणी सुनी तो आदि माया ने कहा की हे ज्योति निरंजन (काल) मैं तेरे वश पड़ीं हूँ जो चाहे सो कर ले |
गहरा राज
मनुष्य ज्ञानी होकर और सब भगवानो की साधना करते हुए भी आज तक इस संसार रूपी नरक में क्यों पड़ा है ? आखिर इसके पीछे कुछ तो राज है | तो आईये जाने उस राज को ताकी हम सच्चाई को जानकर अपने पूर्ण परमात्मा के सत्यलोक को जाए और हमे शा हमेशा के लिए अपना जीवन मुक्त करे पवित्र गीता के अ: 8 के श: 13 में स्पष्ट वर्णन है की ब्रह्म प्राप्ति का केवल एक ही मंत्र है और वो है "ॐ" मनुष्य इस ॐ नाम का सुमरण करके ब्रह्मलोक तक की प्राप्ति कर सकता है अर्थात स्वर्ग व महास्वर्ग तक जा सकता है लेकिन पवित्र गीता ज्ञान दाता ने अ: 8 के श: 16 में फिर स्पष्ट वर्णन किया है की ब्रह्म लोक पर्यन्त सब लोक पुनरावर्ती में ही है | पवित्र गीता के अ:15 के श:16 ,17 में स्पष्ट वर्णन है की इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी ये 2 प्रकार के पुरुष अर्थात भगवा न् है एक क्षरपुरुष यानी ब्रह्म और दूसरा अक्षरपुरुष यानी परब्रह्म और इन दोनों भगवानो से भी अलग उतम पुरुष तो अन्य ही है जो तीनो लोको में प्रवेश करके सबका धारण पोष ण करता है (एवं) अविनाशी परमेश्वर परमात्मा इस प्रकार कहा गया है |पवित्र गीता के अ: 15 के श: 4 में स्पष्ट वर्णन है की उस परमपदरूप परमेश्वर को भली भाँती खोजना चाहिए जिसमे गए हुए पुरुष फिर वापिस लोटकर संसार में नहीं आते और गीता ज्ञान दाता यानी ब्रह्म कह रहा है की में भी उसकी ही शरण में हूँ सब लोग आज तक यही सम झते है की गीता श्री कृष्ण जी ने बोली थी लेकिन ऐसा नहीं है गीता जिसने बोली थी वो गीता के अ: 7 के श: 24 में स्पष्ट कह रहा है की बुद्धिहीन अर्थात मुर्ख लोग मेरे अश्रेष्ट अटल परमभाव को न जानते हुए अद्रुश्यमान मुझ काल को मनुष्य की तरह आकार में श्री कृष्ण अवतार प्राप्त हुआ मानते है अर्थात में श्री कृष्ण नहीं हूँ | उस श्रेष्ट पूर्ण परमात्मा का मंत्र गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने अ: 17 के श: 23 में स्पष्ट किया है की ब्रह्म का मंत्र ॐ पारब्रह्म का मंत्र तत और पूर्ण ब्रह्म का मंत्र सत यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है | ब्रह्म का ॐ मंत्र तो साफ़ है लेकिन तत और सत ये सांकेतिक है इनके बारे में गीता ज्ञान दाता ने अ:4 के श:34 में स्पष्ट किया है की उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ उनको भली भाँती दंडवत प्रणाम करने से (उनकी) सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलता पूर्वक प्रशन करने से वे परमात्मतत्त्व को भली भाँती जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्व ज्ञान का उपदेश करेंगे कबीर जी भी कहते है
संत मिलन को चालिए, तज माया अभिमान | एक एक पग आगे धरे, कोटन यज्ञं समान
गीता ज्ञान दाता ब्रह्म अ:15 के श:1 में संकेत दे रहा है की इस उलटे लटके हुए संसाररूपी वृक्ष को जो पुरुष (मूलसहित) तत्त्व से जानता है वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है | फिर अ:15 के श: 6, 7 में संकेत दिया है की जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूपसे नष्ट हो गयी है व सुख-दुःखनामक द्वन्द्वोसे विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परमपदको प्राप्त होते है | जिसको प्राप्त हो कर मनुष्य फिर कभी वापिस लोटकर संसार में नहीं आते उस (स्वयं प्रकाश परमपदको) न सूर्य प्रकाशित कर सकता है न चन्द्रमाँ और न अग्नि ही और मेरा भी वही परमधाम है अर्थात में भी उसी परमधाम यानी सतलोक से ब्रह्मलोक में आया हूँ कबीरजी ने भी कहा है की: दोहा "चाह गई चिंता मिटी, मनवा बे परवाह | और जिसको कुछ नहीं चाहिए, वही तो हे शावणशाह || और ज्ञानी पुरुष उसीको कहा जाता है जो सत्य का ज्ञान जानकार अपनी मंजिल को प्राप्त करे | और जिस मनुष्य ने सत्य का ज्ञान जानकर भी अपनी मंजिल को प्राप्त नहीं किया उससे तो अज्ञानी पुरुष ही बेहतर है तो अभी जानिये की गीता ज्ञान दाता ब्रह्म अर्थात क्षरपुरुष कोन है और इसकी पोहोंच कहा तक ही सिमित है ये ब्रह्म काल है और इसका नाम ज्योत निरंजन है और ये 21 ब्रह्मांड का स्वामी है और इसकी पहुँच स्वर्ग और महास्वर्ग तक ही सिमित है | और इस की पत्नी प्रकृति देवी है अर्थात दुर्गा और इनके तीन पुत्र है 1 ब्रह्माजी 2 विष्णुजी 3 शिव जी इन पांचो ने मिलकर जीव को त्रिलोकी में फँसाकर रखा हुआ है | गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने अ:4 के श: 6 में स्पष्ट किया है की में मेरे 21 ब्रह्मांडो के प्राणीयो का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति अर्थात दुर्गा को आधीन करके अर्थात पत्नी रूप में रखकर अपने अंश अर्थात पुत्र श्री ब्रह्माजी, विष्णुजी, व शिवजी उत्पन करता हूँ और अ:14 के श:5 में और स्पष्ट किया है की है अर्जुन रजोगुण ब्रह्मा सतोगुण विष्णु और तमोगुण शिवजी ये मेरी प्रकृति अर्थात दुर्गा से उत्पन तीनो गुण अविनाशी जीवआत्माको शरीर में बांधकर अर्थात फँसाकर रखते है ये पांचो काल माया और तीनो गुण मनुष्य को मुक्त होने नहीं देते | तो अभी इस गहरे राज को जानकर और उस पूर्ण परमात्मा को समझकर और उसकी साधना करके अपना मनुष्य जनम सफल बनाये और अपने ही ऊपर दया अर्थात रहम कीजिये पूर्ण परमात्मा उसे कहते है जो अविनाशी है और कभी भी जन्म मरण में नहीं आता यानी वो परमात्मा इस संसार में अवतार लेकर भी आता है तो माँ के गर्भ से पैदा नहीं होता और सहशरीर आता है और अपना सत ज्ञान देकर सहशरीर ही अपने सतलोक व अनामी धाम में चला जाता है | कबिर्देव ने ये भी कहा है की दोहा:
वेद हमारा भेद है, पर हम वेदों में नाही | और जिन वेदो से हम मिले, वो इन वेदों में नाही
तो आईये जानिये वो सतपुरुष कोन है जो माँ के गर्भ से पैदा न होकर इस संसार में प्रकट हुआ था वो कविर्देव जी है जिनका प्रमाण पवित्र वेद और पवित्र गीता व पवित्र कुरआन में भी उल्लेख हे ये पूर्ण परमात्मा कविर्देव सन 1398 में काशी शहर में लहर तारा नाम क तालाब पर माँ के गर्भ से पैदा ना होकर कमल के फूल पर बच्चे के रूपमें प्रकट हुए थे और जुलाहे के रूप में लीला करके और 64 लाख शिष्य बनाकर सन 1518 में मगहर गावं में शरीर के साथ अपने सतलोक व अनामीधाम में चले गए थे और फिर आकाशवा णी भी हुई थी की देखो हम स्वर्ग और महास्वर्ग से भी ऊपर अपने सतलोक व अनामी धाम में जा रहे है | फिर लोगो ने चादर उठा कर देखी तो कविर्देव जी के शरीर की जगह सिर्फ सुगंदित फूल ही मिले थे तो इसका स्पष्ट मतलब है की कविर्देव सहशरीर आए थे और सहशरीरही चले गए थे | इसका मतलब स्पष्ट है की पूर्ण परमात्मा कबिर्देव ही है और वो ये भी कह कर गए थे की हम शिवलानगरी में निष्कलंक अवतार लेकर फिर प्रक ट होंगे और सब शिष्योंको एक सारनाम का सुमरण करवाकर और तीन बंधन रखवाकर इस काल यानि ब्रह्म के जाल से छुडाकर अपने सत्यलोक को लेकर जायेंगे गुरु नानक जी ने भी ये भविष्य वाणी की हुई है की निष्कलंक हो उतरसी, महाबली अवतार | नानक कलयुग तारसी, कीर्तन नाम आधार || ये भविष्यवाणी गुरुग्रंथ साहब में भाई बाले वाली जन्म साखी पेज 544 पर लिखी हुई है | कीजिये पड़कर अपने मनकी तसल्ली तो अब वही कविर्देवजी 17 अप्रैल सन 1960 को निष्कलंक अवतार लेकर परमसंत छ:सो मस्तानाजी में आकर प्रकट हो गए हे और अब प्रेमगुरु के रूप में काम कर रहे है | और जीव प्राणियों को पूर्ण परमात्माका का सारनाम का सुमरण करवाकर और तीन बंधनों में जीव को रखकर इस काल और माया के जाल से मुक्त करवा रहे हे तो अभी थोडा भी समय न गवाकर और उस सारनाम को जानकर और सुमरण करके बनाये अपना मनुष्य जन्म सफल यानी इस दुःख के सागर को त्याग कर सुख के सागर में जाकर विश्राम करे वहा पर किसी भी प्रकार का दुःख देखने को भी नहीं मिलेगा और संत रविदास, गरीबदा स, घिसासंत, दादू, पलटू, गुरुनानक सहित दसो गुरु गोविन्द तक, आगे राधास्वामी, जैमलशाह, शावणशाह व शाह मस्तानाजी और निष्कलंक अवतार परमसंत छ: सो मस्तानाजी व प्रेमगुरु ये सब पूर्ण परमात्मा कविर्देव जी के ही रूप है जो वक्त-वक्त पर परम संतो के रूप में आकर जीवो को समझाते है | जो जीव इस ज्ञान को समझ जाते है उनको अपने पूर्ण परमात्मा के सतलोक में जाने से कोई भी ताकत रोक नही सकती इतने सरल और प्रमाणिक तरीके से इस सत्य ज्ञान को समझाने के बाद भी अगर समझ में नहीं आता है, तो कबीर जी ने सत्य ही कहा है की दोहा:
हमने बाणी इतनी कही, जितना बारू रेत | फिर भी इस काल के जीव को, एक ना आती हेत
गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन करते दान | गुरु बिन दोनों निष्फल है चाहे पुछो वेद पुराण ||
अमृत वचन
सब संसार के प्राणी, जीवआत्मा, भगवान् क्षरपुरुष अर्थात ब्रह्म काल ज्योत निरंजन
की कारागृह अर्थात कैद में बंद है | इस काल के जाल से छुटने के लिए अवश्य पड़े अमृ
त वचन शास्त्र, और चारो वेद व पवित्र गीता |ये ब्रह्म अर्थात काल निरंजन अपनी पत्त्नी
प्रकृति देवी के साथ अपने तीनो पुत्रो द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी | रजोगुण ब्रह्मा से-
रोज सवा लाख जीवो की उत्पत्ति, सतोगुण विष्णु से सब जीव प्राणियों की सिथति
बनाए रखना और तमोगुण शिव से एक लाख जीवो का संहार करवा कर रोज इन एक
लाख जीवो के सूक्ष्म शरीरों को तपत शिला पर भून कर खाता है और फिर सब के कर्मो
के अनुसार फल देता है यानी किसी को नरक, स्वर्ग, महास्वर्ग और लाख चोरासी में
भेज देता है इसकी पहुँच केवल यहाँ तक ही सिमित है | सायुज मोक्ष यानी सतलोक जो
अपना और अपने पूर्ण परमात्मा का निजी लोक है वहाँ जाने के बाद वापिस इस अश्रेष्ठ
काल के लोक में नहीं आना पड़ता क्योंकि यहाँ शांति और सुख तो है ही नहीं अब पुरे सत
गुरु निष्कलंक अवतार से सारनाम लेकर अर्थात सार शब्द का सुमरण करके इस खतर
नाक अर्थात खलनायक काल और माया के लोक से अपनी आत्मा की मुक्ति करवाये,
और बनाये अपना मनुष्य जन्म सफल | ऐसा मोका फिर नहीं मिलेगा परमसंत तो सब
के भले की ही कहते है | इस बात को सत्य मानो |
गुरु को मनुष्य जानते, तेनर कहिये अंध | होवे दुखी संसार में, आगे यम के फंद
अक्षर पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार | तीन देव शाखा भये, पात रूप संसार
कबीरजी कहते है परमात्मा तीन है और वो इस प्रकार है | न: 1 क्षरपुरुष अर्थात ब्रह्म
यानी ईश जो केवल 21 ब्रह्मांडो का मालिक है | न: 2 अक्षरपुरुष अर्थात परब्रह्म यानी
ईशवर जो 7 शंख ब्रह्मांडो का मालिक है | इनके भी ऊपर न: 3 परमअक्षरपुरुष अर्थात
पूर्णब्रह्म यानी परमेशवर पूर्ण परमात्मा जो अशंख ब्रह्मांडो के मालिक वो कविर्देव है |
और जिनका तेजोमय शरीर है जिनके एक रूमकूपका प्रकाश इतना है की एक हजार
सूरज और चाँद को मिलाकर भी उस रूमकूप प्रकाश के सामने फीका पड़ता है | जो सन
1398 काशी शहर में लहर तारा नामक तालाब पर गर्भ से पैदा ना होकर कमल के फूल
पर बच्चे के रूपमें प्रकट हुए थे और 64 लाख शिष्य बनाकर यही पर छोड़कर और कह
कर गए थे की हम फिर वापिस आकर शिवलानगरी में प्रकट होंगे और सभी 64 लाख
जीव आत्माओंको सतलोक में लेकर जायेंगे ये कहकर सन 1518 में मगहर गावं में
शरीर के साथ अपने सतलोक व अनामीधाम में चले गए थे फिर आकाश वाणी हुई थी
देखो हममहास्वर्ग से भी ऊपर अपने सतलोक व अनामी धाम में जा रहे है | अभी वही
कबीरसा हब 17 अप्रैल सन 1960 को महाबली निष्कलंक अवतार लेकर शिवलानगरी
में आकर फिरप्रकट हो गये है | परमसंत छ:सो मस्तानाजी के नाम से जो गुरु नानकजी
की भी भविष्यवाणी है जो भाई बाले वाली जन्मसाखी पेज न: 544 पर लिखी हुई है की
निष्कलंक हो उतरसी, महाबली अवतार | नानक कलयुग तारसी, कीर्तन नाम आधार||
निष्कलंक अवतार का मतलब होता है प्रभु को पानेवाला सारनाम अर्थात सारशब्द जि
सको गुरुनानक जी ने सत्यनाम वाहेगुरु भी कहा है | जो मीराबाई को भी पा गया था
और मीराबाई ने बड़े जोर से आवाज भी दी थी की पायो जी मेने नाम रतन धन पायो |
17 अप्रैल सन 1960 के पहले सब परमसंत 3 व 5 नाम देकर इस सारनाम को पाने की
भक्ति करवाते थे, फिर किसी किसी को यह सारनाम मिलता था | जिसको ये सारनाम
मिला उसको पूर्ण परमात्मा मिल गया ऐसा समझो | कबीरजी के बारे में चारो वेद,गी
ता व कुरान में प्रमाण है और स्पष्ट शब्दों में लिखा है की वो पूर्णब्रह्म परमात्मा कविर्देव
ही है गीता व कुरान में स्पष्ट प्रमाण भी है की किसी तत्वदर्शी संत व किसी बाखबरसे
पूछकर तो देखो ? और बायबल में भी प्रमाण है की उस परमेश्वर ने 6 दिन में सृष्टि रची
और 7 वे दिन आराम किया अर्थात अपने स्थान पर चले गए यानी इसका मतलब हुआ
की परमेश्वर साकार रुप मे ही है | और सब त्रिलोक, ब्रह्मलोक और परब्रह्मलोक वपूर्ण
ब्रह्मलोक तक उनकी ताकत निरंकार रूप में काम करती है| जैसे देश का प्रधानमंत्री
साकार रुप मे राजधानी में है और उनकी ताकत निरंकार रूप में पुरे देश में काम करती
है ऐसा समझो | और किसी भी धर्मशास्त्र में मॉस खाना व शराब पीना नहीं लिखा है |
फिर भी लोग इस थोडे से जीभ के स्वाध के लिए नहीं समझते | और आज सब साधू,
पंडित, ज्योतशी, तांत्रिक गुरु व पीर ज्ञानी होकर भी इस सारनाम से वंचित है खुद स्व
यं गुमराह है और अपने स्वार्थ के लिए समाज को भी गुमराह कर रहे है इनकी बातो में
न आकर पूर्ण सतगुरु के पास जाकर सारनाम लीजिये और अपना मनुष्य जन्म सफ
बनाने की अपने ही ऊपर दया अर्थात रहम कीजिये |
कबीर ये तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान | शीश दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान
विशेष प्रवचन
मनुष्य जन्म सफल बनाने का और इस संसार सागर से मुक्ति पाने का केवल एक ही तो मार्ग है और वो है सतगुरु व सत्संग लेकिन सतगुरु किसे कहते है ये भी तो जानना बहुत ही जरुरी है |
कैसे जाने सत्संग व सतगुरु जी को ?
सतगुरु को जानने के लिए साधू एवं संतो की बातो को मानना होगा, नाकि उनके शरीर को क्योकि शरीर तो नाशवान होता है और वाणी अविनाशी सतगुरु साधू संतो की वाणी में छुपा होता है | जैसे- मेहँदी में रंग, प्रत्येक साधू और संतो ने जोर देकर यही कहा है की अगर मुक्ति पानी है | और अपना मनुष्य जन्म सफल बनाना है तो वक्त का यानी आज का सतगुरु खोज कर उनकी शरण में जाना पड़ेगा |
उदा: जिस प्रकार न्यायलय में न्याधिकारी, ऑफिस में ऑफिसर, मंत्रालय में मंत्री बदल ते है उसी प्रकार परमसंत सतगुरु भी बदलते है | देखना यह है की आज खुर्सी पर कोन न्याधिकारी विराजमान है | आखिर न्याय वही तो कर सकता है | परमसंतो में भी यही प्रथा लागु होती है आज के समय के परमसंत सतगुरु खुर्सी पर आज कोन विराजमान है| उनको खोज कर जाईये उनकी शरण में और बनाए अपना मनुष्य जन्म सफल बाहर भटकने व अपने मन के मते से चलने में अपना ही बहुत बड़ा नुकशान करना है | संत कबीर जी कहते है |
मन के मते न चालिए, मन के मते अनेक | ले डूबे मझँधार में, बळी लगेगी ना टेक
मनुष्य को गुरु जानते, ते नर कहिये अंध | होवे दुखी संसार में, आगे यम के फंद
पंथ पड़े सो बह गए, हमारी बात अपंथ | वचन हमारा मानियो, सेवा सतगुरु संत
गुरु किया है देह का, सतगुरु जाना नाय | कह कबीर उस दास को काल कहा ले जाय
कबीर जी ने खुले शब्दों में कहा है और चेतावनी भी दी है की जो लोग शरीर को गुरु बनायेगे व लोग यहाँ संसार में तो दुखी रहेंगे ही और आगे भी उनको यम के दूत पकड़कर नर्कलोक में ले जाकर पटक देंगे और आज के वक्त के गुरु निष्कलंक अवतार परमसंत छ:सो मस्ताना प्रेमगुरु है जो स्वयं शब्द स्वरूपी राम है तो जल्दी करके उनकी शरण में जाईये और बनाईये अपना मनुष्य जनम सफल |
चेतावनी: और ध्यान रखे सतगुरु सारे विश्व का और सारी त्रिलोकी व ब्रह्मांड का एक ही होता है | पचास और सो नही होते फिर तेरा गुरु कोन और मेरा गुरु वो कोन फिर इतने सारे गुरु अलग-अलग कहाँ से आगये जरा सोचिये ? और जानिये उस सतगुरु को जो सब का एक ही है | नहीं तो हमको बहुत पछताना पड़ेगा कबीरजी कहते है | फिर पछताए क्या होए, जब चिड़िया चुग गई खेत
सुचना: कुछ लोग बेचारे सतगुरु की जय बोलकर ही बहुत खुश होते है | उन लोगो को ये पता नहीं की जय उसकी बोली जाती है जो अनेक हो सतगुरु तो भला एक ही है और जय तो वो स्वयं ही है | यह तो सूर्य को दीपक दिखाने वाली बात हुई | सूर्य के प्रकाश से अपना जीवन प्रकाशमय बनाए ना की दीपक दिखाए इसी प्रकार सतगुरु जी की शरण में जाकर अपना मनुष्य जन्म सफल बनाए और इसी में हमारी सबकी भलाई है |
कसोटी: जिस प्रकार सूरज के सामने अँधेरा नहीं टिक सकता उसी प्रकार प्रेमगुरु के सा मने भी कोई बुराई व नफरत नही टिक सकती और यही तो हे| पुरे और वक्त के सतगुरु की पहचान | अपने आप को जाँचते रहिये - और बनाईये अपना - मनुष्य जन्म सफल और बोलिए -
|| धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा ||
मनुष्य जन्म सफल-बनाने का सरल मार्ग और बहुत ही आसन तरीका जो नर नारी बच्चे जवान और बूढ़े सब के लिए एक ही है | तो आईये अपना मनुष्य जन्म सफल बना ये, कैसे बनेगा ?हम आज तक अपना चित (ध्यान) सत्य को छोड़कर असत्य में लगाये हुए है|अभी हमको सिर्फ इतना करना है के अपना चित(ध्यान)असत्य से हटाकर सत्य में लगाना है | जैसे ही हमारा चित (ध्यान) सत्य में लगा तो समझो हो गया हमारा मनु ष्य जन्म सफल | क्योंकि सत्य ही अविनाशी होता है | सत्य कहा है ? सत्य सब मनु ष्यों के घाट -घाट में बोल रहा है | संत कबीर जी कहते है ....
है घट में पर दूर बतावे दूर की बात निराशी- मोहे सुन सुन आवे हाँसी
जैसे मृग नाँभि कुन्डल बसे मृग डूंडे बन माय-ऐसे घट-घट ब्रह्म है दुनिया जाने नाय
जिस प्रकार सूरज सब हिन्दू मुस्लिम, सिख, इसाई, आमिर और गरीब का एक ही है | इसी प्रकार वो प्रेमगुरु सत्य भी सब का एक ही है | जो प्राणी अपने घट वाले सत्य को जान लेगा, तो वो हो जायेगा सैट चित आनंद | संत सुखदेव जी कहते है सैट चित आनंद रूप गुरु का सखी कहा न जाये है | तो आईये सत्य की खोज करे ताकि हम अपना चित सत्य में लगाकर सच्चा आनंद और सच्ची शांति प्राप्त करके अपना मनुष्य जन्म सफल बनाकर अपने सत्य के देश सत्यलोक को जाये और हमेशा-हमेशा के लिए अपना जीवन मुक्त करे | और इसीमे हमारी सबकी भलाई है, सत्य क्या है ?जब मनुष्य शरीर छोड़कर जाता है, और हम उस मनुष्य के शरीर को दाहँ संस्कार के लिए उठाकर चलते है, और कहते है- राम नाम सत्य है | तो सत्य हुआ राम नाम, अभी प्रशन उठता है, राम नाम क्या है ? राम नाम को मनुष्य का मन-चित-बुद्धि-अहंकार नहीं जान सकते, अगर जान सकते होते तो अब तक नर-नर नहीं रहता, बल्कि नारायण होकर अपने सत्य के देश सत्यलोक को चला जाता | मनुष्य जन्म कितना कीमती है | इसको संतो ने कहा है "कल्पवृक्ष " उस प्रभु के सँविधान में लिखा है |मनुष्य जिस भी चीज की कल्पना करेगा प्रभु उसको देगा और दे रहा है | पर मनुष्य सत्य की कल्पना कभी नहीं करता इसलिए मनुष्य दुखी है | और जिस भी मनुष्य की कल्पना की उसको तो सत्य मिल गया | और वो तो हो गया संत | और संतो के वचनों को ही तो कहते है प्रवचन क्योंकि संत संसार में रहकर भी हमेशा संसार के परे सत्य की ही बाते करते है | और संतो के सब्द होते है सत्य और जो मनुष्य संतो के सत्य शब्दों का संग करते है उनको तो ही कहते है सत्संगी पंथ में पड़ने वाला कभी सत्संगी नहीं हो सकता | संत कबीर जी कहते है | पंथ पड़े सो बह गए, हमारी बात अपंथ-वचन हमारा मानियो, सेवा सतगुरु संत || कबीर जी फिर कहते है | गुरु किया है देह का, सतगुरु जाना नाय-कह कबीर उस दास को काल कहा ले जाय | तो अभी जाना जरुरी हो गया है की सतगुरु किसे कहते है | गुरु नानक जी ने कहा है की सत्यनाम वोही गुरु तो गुरु नानक जी के कहे अनुसार सतगुरु हुआ सत्यनाम और तुलसीदास ने भी कहा है कीकलयुग केवल नाम आधारा सुमार-सुमार नर उतरो पारा
गुरु नानक जी फिर कहते है नानक दुखिया सब संसारा- सुखिया केवल नाम आधारा
और इसी सत्य राम नाम के बारे में मीराबाई ने बहुत जोर से आवाज दी है और कहा है पायोजी मैंने (राम) नाम रतन धन पायो | तो अभी सब मनुष्यों का फर्ज बनता है, की अब वो नाम रतन धन जान ले जो अपने ही घट में है | वो नाम रतन धन जानकर हम हमेशा-हमेशा के लिए सच्चे धनवान बन जायेंगे झुठा धनवान बनकर और सत्य को न जानकार अपना हीरा सा जन्म गवां देना है | और भला ये हीरा सा जन्म क्या गवां देने की चीज है? नहीं, ये हीरा सा जन्म तो सच्चा आनंद और सच्ची शांति पाने की चीज है | जो बहुत ही अनमोल है | तो अब आप जान गए होंगे की राम नाम ही सतगुरु होता है | शरीर सतगुरु नही हो सकता क्योंकि सतगुरु अविनाशी होता है | और शरीर का तो नाश होगा | अभी इतना समझने के बाद हमको चाहिए जिस भी मनुष्य ने शरीर को गुरु बना या हुआ है | उस शरीर गुरु को जल्द से जल्द छोड़ दे | नहीं तो अपने साथ बहुत बड़ा धोका हो जायेगा जो हम सोच भी नही सकते | संत कबीर जी कहते है |
फिर पछताय क्या होय, जब चिड़िया चुग गई खेत तो भी फिकर करने की कोई बात नहीं अभी भी हमारे पास समय है | और समझदार मनुष्य समय की कीमत जानते ही है | तो हम अब चलेगें सत्य क तरफ | सत्य जो स्वयं प्रभु है | जो इस भूमंडल से परे है| मनुष्य अपने मन जानते है | अगर आप भी ये मन को जानना चाहते है | तो चक्कर में ना पड़कर आईये सतगुरु के दरबार सच्चा सौदा शिवला नगरी अगमपुर धाम में और जा निये उस राम नाम सतगुरु को जो आपके ही पास है | आप राम नाम को जानकार अचम बा करेंगे और कहेंगे अरे ये नाम तो मेरे पास सदा सेही है | और में ही इससे दूर था | तो अब देखिये उस राम नाम को जो निष्कलंक सतगुरु जिन्दराम अविनाशी पुरुष है | और जिसकी राजधानी अकह:अनामी है | अकह: का मतलब है-जो कहने में नहीं आता अना मी का मतलब है-जो नाम होकर भी नाम नहीं है अनाम है | खुद साहब है | प्रभु है और नाम यानी सतगुरु उस मालिक तक जाने का रास्ता और रासते को कहते है सतगुरु और स्वयं प्रभु को कहते है मंजिल अभी स्वयं मालिक प्रभु आकर आवाज दे रहे है | की हे मनुष्य जाग और देख अपनी मंझिल को-जो स्वयं चलकर प्रभु तेरे पास आ गये है | और कहते है याद कर अपनी मंझिल को और पकड़ रास्ता राम नाम जहाज सतगुरु का और चल अपनी मंझिल को सच्चा ज्ञानी बन और लगा ध्यान अपने सतगुरु में जो तेरे ही घट में विराजमान है |वो प्रभु निष्कलंक अवतार लेकर 17 अप्रैल सन 1960 (सम्वत 2017) में इस संसार में आकर प्रकट हो गए है जो स्वयं निराधार अविनाशी पुरुष जिंदाराम प्रेम गुरु है | वो निष्कलंक अवतार लेकर आ गये है | और इस निष्कलंक अवतार आने की कुछ संतो की भविष्य वाणी भी है जैसे कबीरदासजी-रविदासजी जो मीरा जी के गुरु थे, गुरुनानकजी-गुरुगोविन्द जी की अगर विश्वास न हो तो इन संतो के ग्रन्थ पड़कर करिए अपने मनकी तसल्ली और प्रत्यक्ष को क्या प्रमाण और इस निष्कलंक प्रभु का अवतार सिर्फ कलयुग में ही होता है कुछ वचनों के अनुसार अभी उन वचनों का जिक्र नही किया जायेगा क्योंकि कथा बहुत बड़ी है | तुलसीदास जी भी कहते है (कलयुग केवल नाम आधारा)आपने सीता पति राम की रामायण तो पड़ी है | जिस शरीर रूपी राम ने शरीर रूपी रावण को मार कर थोड़े से समय के लिए हमको मुक्त किया था अभी पदिये आज के वक्त के सतगुरु जिंदाराम निष्कलंक प्रेमगुरु की रामायण जिसमे प्रेमगुरु शब्दस्वरूपीराम हमारे अंदर मन रूपी राम को सत्य नाम की जंजीर में बांधकर (रूह) आत्मा को हमेशा -हमेशा के लिए मुक्त करा रहे है |और इतने सरल तरीके से समझाने के बाद भी अगर समझ में नही आता है| तो संत कबीरजी ने सत्य ही कहा है | हमने वाणी इतनी कही जितना बारू रेत- फिर भी इस काल के जीव को एक ना आती हेत | जो प्रेमी इस सच्चे आनंद और सच्ची सन्ति को पाकर हमेशा-हमेशा के लिए जन्म मरण से मक्त होना चाह ते है तो आईये ये सत्यनाम हर महीने 17 तारीख को मिलता है | और इस सत्यनाम के तीन सख्त बंधन भी है |जैसे शराब न पीना, माँस न खाना, पर ओरत और पर पुरुष को बहन और भाई समझना और जो इन तीनो बन्धनों को नहीं मानेगा वो इस सत्यनाम की तरफ भूलकर भी न सोचना कुछ फ़ायदा उठाकर अपना मनुष्य जन्म सफल बनाये ऐसा मोका बार-बार नहीं आता | और यह सत्संग गावं गंगुवा गावं कुराड़, पानीपत, हरियाणा, दिल्ली,प्राधिकरण, निगडी, पुणे, महाराष्ट्र में भी होता है| सत्यनाम जहाज जरुरी है कही से भी जान कर नाम जहाज पर बैठकर जाईये अपने सतलोक और बनाईये अपना -मनुष्य जन्म सफल और बोलिए-धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा |
सुचना: इस सत्यनाम रूपी सत्संग व सत्य नाम संदेश को स्वयं भी रोज सुबह शाम पढना और दुसरों को भी पढाना इसी को ही तो- परमार्थ कहते है |
|| धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा ||
दोहा: साथी हमारे सब चले गए, हम भी जावन हार |
कोई कागज़ पे कुछ बाकी है, इसलिए लगरी है वार ||
प्रार्थना
टेक:गुरु चरण संकट हरण, करण सिद्ध सब काम |
शवाँस शवाँस में सुमरिए, बंन्दे अपने सतगुरु का नाम ||
=> धन सतगुरु तेरा आसरा, धन सच्चा सौदा धाम |
जंगल में मंगल कर दिए, म्हारे परमसंतो के न्यारे राम ||
=> तन मन धन तीनो तेरा, मेरा हे कुछ नाय |
मेरा तो एक सतगुरु तुही, अपना मंदिर रहा आप चलाए ||
=> फिर इस मंदिर में बैठकर, देख रहा भला बुरा सब काम |
में पापी पढकर सो गया, तो लिया न तेरा नाम ||
=> पिछली गलती माफ़ करो, जो कुछ हो गई भूल |
मुझ पापी गुन्हेगार की, सतगुरु विनती करो कबूल ||
=> विषय विकारो में भूल गया, मै सतगुरु तेरा नाम |
करो नम्बेढा मुझ दास का, सतगुरु अपना ही सूत जान ||
=> तुम ही बक्शन हार हो, बक्शोगे कब आए कर |
तुम्हारे सिवा दिखे नहीं, तो में जाँचू किसको जाए कर ||
=> छ:सो मस्ताना जी अब आगए, बन निष्कलंक अवतार |
प्रेमगुरु को घट में दिखाए दो, हे सतगुरु सर्जनहार ||
|| धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा ||
दोहा: सुनियो संत सुजान भाई, दिया हम हेला रे |
और जन्म बहुतेरे होंगे ये मानुस जन्म दुहेला रे ||
सतगुरु महिमा
टेक: तेरे चरणों में बलिहार सो सो बार सतगुरुजी | तेरे चरणों में ....
01) संतकबीर गरीब ध्याऊ, शीश में चरणों बीच झुकाऊ |
श्रद्धा साथ करू प्रणाम, बारम्बार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
02) धन ओह देश धाम कुल ग्राम, सतगुरु उतरे है | जिसठाम |
में तो बल-बल सब तो जाऊ, श्रद्धा धार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
03) बिशाख की पूर्णमाशी आई, ब्रह्म मुहूर्त साथ मिलाई |
सतरा सो चोहातर सम्वत, लिया अवतार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ......
04) माता रानी पिटा बलराम, प्रगट सतगुरु जिनके धाम |
नाम गरीब धराया अपना, अपरमपार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
05) गरीब कबीर भेद नही कोई, एक ही रूप नाम शुभदोई |
आप कबीर गरीब कहाया, धर अवतार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
06) जागे हरयाणे के भाग, धर अवतार आये महाराज |
सुते हंसा आण जगाये, करके प्यार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
07) सतगुरु हंस उदहारण आये, आसन आन छुडानी लाये |
किये सेवक बहुत निहाल, दे दीदार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
08) सतगुरु पर पट्टन के बाशी, आये तोड़न यम की फाँसी |
जो कोई शरण आन के पडा, किया वो तो पार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
09) श्री गुरुग्रंथसाहेब महाराज रच्या, जीव उदहारण काज |
जो कोई पाठ प्रेम से करता, दिया वो तो तार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
10) शब्द स्वरूपी सतगुरु मेरा, जिसका घट-घट बीच बसेरा |
जो कोई खोजे सोई पावे, मन को मार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
11) धाम छुडानी अजब अनूप, मानो सत्य लोक का रूप |
जो कोई दरश आन के करता, होता वो तो पार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
12) जिसने मानता मानी तेरी, कट गई उसके दुखो की बेडी |
पुरे होवे मनोरथ सारे, किये जो धार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
13) श्रद्धा साथ छुडानी आवे, मुहो मांगीया मुरादा पावे |
इसमें संशय मूल ना करना, बात है सार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
14) सेवा सतगुरु की जो करता, वो तो भवसागर से तरता |
सीधा प्रेमनगर में जावे, जहा दरबार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
15) जो कोई सतगुरु-सतगुरु करता, उसका जन्म मरण दुःख कटता |
फिर चोरासी बीच ना आवें, हो जावे पार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
16) पतित पावन है सतगुरु मेरे, तारे पापी बहुत घनेरे |
इस सेवक को पार उतारो, कृपा धार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
17) सतगुरु मेरे मेहरबान, दीजो दान परम कल्याण |
कट गए यम के बंधन सारे, हो जावे पार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
18) बंदी छोड़ नाम हे तेरा, बंध छुड़ाओ सतगुरु मेरा |
बहुर न होवे गर्भ बसेरा, करो उदार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
19) चेतन चाकर तेरे घरदा, विनती हाथ बाँध के करता |
दीजियो दर्शन कृपा करके, एक तो बार सतगुरुजी || तेरे चरणों में ....
|| धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा ||
दुःख में सुमरण सब करे, सुख में करे न कोय | जो सुख में सुमरण करे, तो दुःख काहे को होय
चेतावनी
अरे बावले भाई जरा सोच कर देख इस दुनिया में हमेशा के लिए कोई रहा है ? जो तू हमेशा के लिए रहेगा | कोई कुछ साथ में लेकर गया है | जो तू साथ में लेकर जाएगा | यहाँ कोई सुखी है ? जो तू सुखी रहने के सपने देख रहा है | यहाँ का प्रेम सब स्वार्थी और मतलबी है |यहाँ जिस भी इंसान के लिए तू कुछ अच्छा करता है |आखिर वही इन्सान तेरा दुश्मन बन जाता है | आखिर क्यों? सोचा कभी-क्योंकि बिना मतलब के किसी का हम कुछ अच्छा करते ही नहीं | और तेरे को सिर्फ खाने पीने के लिए ही नहीं जीना है| बल्कि खाना पीना तेरे लिए बना है | पर जीना किस लिए? यह सोचा है कभी, नहीं सो चा तो अभी सोच ले | अब सतगुरु जी तेरे को याद दिला रहे है के अब निष्कलंक अवतार प्रेमगुरु का सत्संग व भजन करके अपनी मंजिल को पा, और अब तेरे लिए सिर्फ और सिर्फ यही तो-एक सुनहरी मोका है |
|| धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा ||
सतगुरु ऐसा चाहिए, जो दिवे की लो | आवे पड़ोसन चास ले, तुरंत चाँदना हो
मनुष्य को गुरु जानते, तेनर कहिये अंध-होवे दुखी संसार में, आगे यम के फंद
आत्मा (शिष्य) व परमात्मा (गुरु) दोनों हमारे अपने ही शरीर में मोजूद है |
जैसे: तिल में तेल, मेहँदी में रंग, दूध में मक्खन, लकड़ी में आग व बादल में पानी,
जानिए समझये, और - प्रत्यक्ष को क्या प्रमाण |
राम कृष्ण से कौन बड़ा,उन्होंने तो गुरु कीन्न-तीन लोक के नाथ थे गुरु आगे आधीन
प्रभुराम की जानकारी
01) जग में चार राम है, तीन राम व्यवहार |
चोथा राम निज नाम है | ताका करो रे विचार |
02) एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट-घट में बैठा |
एक राम का शकल पसारा, एक राम परमसंतो का न्यारा |
03) कोन राम दशरथ का बेटा, कोन राम घट-घट में बैठा |
कोन राम का शकल पसारा, कोन राम परमसंतो का न्यारा |
04) शरीररूपीराम दशरथ का बेटा, मनरूपीराम घट-घट में बैठा
बिन्दुरूपीराम का शकल पसारा, शब्दस्वरूपीराम संतो का न्यारा |
|| धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा ||
सुनियो संत सुजान भाई दिया हम हेला रे-और जन्म बहूतेरे होंगे माणूस जन्म दुहैला रे
कबीरजी की बाणी
01) निर्धन कहे धनवान सुखी है, धनवान कहे सुखी राजा हमारा |
राजा कहे महाराजा सुखी है, महाराजा कहे सुखी ईन्दर प्यारा ||
ईन्दर कहे ब्रह्माजी सुखी है, ब्रह्माजी कहे सुखी सर्जनहारा |
सतगुरु कहे एक भगत सुखी है, बाकी दुखिया सब संसारा ||
02) कोई आवे बेटा मांगे, दान रुपये लीजो जी |
कोई आवे दोलत माँगे, संत गुसाई दीजो जी ||
कोई आवे दुःख का मारा, मारपे कृपा कीजियो जी |
कोई मांगे विवाह रे सगाई, संत गुसाई कीजो जी ||
सच्चे का कोई ग्राहक नहीं, जूठया जगत पतिजे जी ||
03) चल भाई हंसा सत्संग में चले, तने ज्ञान कराऊ जी |
चाले ना जिभ्या फरके ना ओठा, अजपाजाप जपाऊ जी ||
सहजे मेहर होवे सतगुरु की, सत्यलोक ले जाऊ जी |
कहे कबीर सुनो भाई साधो, ज्योत में ज्योत मिलाऊ जी ||
|| धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा ||
कबीर इस संसार को, समझाऊ कितनी बार | पूंछ तो पकडे भेड़ की, उतरा चाहवे पार
राग वियोग
01) सुनियो संत सुजान भाई, गर्व नहीं करना रे |
चार दिनों की चेहर बनी, हे आखिर को तू मरना रे |
तू जो कह मेरी ऐसे निभेगी, हर दम लेखा भरना रे |
खाले पीले बिसरले हंसा, जोड़ जोड़ नहीं धरना रे |
दास गरीब सकल में साहेब, नही किसी से अरना रे ||
02) सुनियो संत सुजान भाई, दिया हम हेला रे |
और जन्म बहु तेरे होंगे, माणूस जन्म दुहेला रे |
तू जो कह में लश्कर जोडू, चलना तुझे अकेला रे |
अरब ख़राब लग माया, जोड़ी संगना चलसी धेला रे |
यह तो मेरी सत की नवरिया, सतगुरु पार पहेला रे |
दास गरीब कहे भाई साधू, शब्दगुरु चित चेला रे ||
03) हम सैलानी सतगुरु भेजे सैल करण को आये जी |
ना हम जन्मे ना हम मरना शब्दे शब्द समाये जी |
हमरे मरया कोई ना रोयो जो रोवे पछतावेजी |
हंसो कारण देह धरी है | सो परलोक पठायेजी |
कह कबीर सुनो भय साधो अजर अमर घर पायो जी ||
॥ श्री कबीर दास जी ॥
कर नैनों दीदार महल में प्यारा है।
काम क्रोध मद लोभ बिसारो शील सन्तोष क्षमा सत धारो,
मद्य मांस मिथ्या तज डारो हो ज्ञान अश्व असवार भरम से न्यारा है॥
धोती नेती बस्ती पाओ आसन पद्म युक्ति से लाओ,
कुंभक कर रेचक करवाओ पहले मूल सुधार कारज हो सारा है॥
मूल कँवल दल चतुर बखानो क्लीँ जाप लाल रँग मानो,
देव गणेश तँह रूपा थानो ऋद्धि सिद्धि चँवर डुलारा है॥
स्वाद चक्र षट दल विस्तारो ब्रह्म सावित्री रूप निहारो,
उलटि नागिनी का सिर मारो, तहाँ शब्द ओंकारा है॥
नाभी अष्ट कमल दल साजा, स्वेत सिंहासन बिष्णु विराजा,
हृी ँ जाप तासु मुख गाजा लक्ष्मी शिव आधारा है।
द्वादश कमल हृदय के माहीं, संग गौर शिव ध्यान लगाहीं,
सोऽहं शब्द तहाँ धुनि छाई गण करते जै कारा है॥
षोड़स कमल कंठ के माहीं, तेहि मध्य बसे अविद्या बाई,
हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई जहँ श्रीँ नाम उच्चारा है॥
तापर कँज कमल है भाई, बक भौरा दुइ रूप लखाई,
निज मन करत तहाँ ठकुराई सो नैनन पिछवारा है॥
कमलन भेद किया निर्वारा यह सब रचना पिण्ड मंझारा,
सत्संग करि सत्गुरु सिर धारा वह सतनाम उचारा है॥
आँख कान मुख बन्द कराओ अनहद भींगा शब्द सुनाओ,
दोनों तिल एक तार मिलाओ तब देखो गुलज़ारा है।
चन्द्र सूर एकै घर लाओ सुषमन सेती ध्यान लगाओ,
तिरबेनी के संग समाओ भौंर उतर चल पारा है॥
घंटा शंख सुनो धुन दोई सहस कमल दल जग-मग होई,
ता मध्य करता निरखो साईं बंक नाल धस पारा है॥
डाकिनी साकिनी बहु किलकारें जम किंकर धर्म-दूत हँकारे,
सत्तनाम सुन भागे सारे जब सतगुरु नाम उचारा है॥
गगन-मंडल बिच अमृत कुइया, गुरुमुख साधू भर भर पीया,
निगुरा प्यास मरे बिन कीया जा के हिये अंधियारा है॥
त्रिकुटी महल में विद्या सारा घनहर गरजें बजे नगारा,
लाल वर्ण सूरज उजियारा चतुर कंवल मंझार शब्द ओंकारा है।
साधु सोई जो यह गढ़ लीना नौ दरवाज़े परगट कीन्हा,
दसवाँ खोल जाय जिन्ह दीन्हा जहाँ कुफल रहा मारा है॥
आगे स्वेत सुन्न है भाई मानसरोवर पैठि अन्हाई,
हंसन मिलि हंसा होइ जाई मिले जो अमी अहारा है॥
किंगरी सारंग बजे सितारा अक्षर ब्रह्म सुन्न दरबारा,
द्वादश भानु हंस उजियारा षट दल कमल मंझार शब्द ररंकारा है॥
महा सुन्न सिंध विषमी घाटी बिन सतगुरु पावे नहिं बाटी,
व्याघर सिंघ सर्प बहु काटी तहँ सहज अचिंत अपारा है॥
अष्टदल कमल पार ब्रह्म भाई दहिने द्वादश अचिंत रहाई,
बाँये दस दल सहज समाई यूँ कमलन निरवारा है।
पांच ब्रह्म पांचों अण्डबीनो पांच ब्रह्म नि:अक्षर चीन्हों,
चार मुकाम गुप्त तहँ कीन्हों जा मध्य बन्दीवान पुरुष दरबारा है॥
दो पर्बत के संघ निहारो भँवर गुफा तहँ सन्त पुकारो,
हंसा करते केलि अपारो वहाँ गुरुन दरबारा है॥
सहस अठासी दीप रचाये हीरा पन्ना लाल जड़ाये,
मुरली बजत अखण्ड सदाये तहँ सोऽहं झुनकारा है।
सोऽहं हद्द तजी जब भाई सत्त लोक की हद पुनि आई।
उठत सुगन्ध महा अधिकाई जाको वार न पारा है।
षोड़श भानु हंस को रूपा बीना सत्त धुन बजे अनूपा,
हंसा करत चंवर सिर भूपा सत्त पुरुष दरबारा है।
कोटिन भानु उदय जो होई एते ही पुनि चन्द्र खलोई,
पुरुष रोम सम एक न होई ऐसा पुरुष दीदारा है।
आगे अलख लोक है भाई अलख पुरुष की तहँ ठकुराई,
अरबन सूर रोम सम नाहीं ऐसा अलख निहारा है।
तापर अगम महल एक साजा अगम पुरुष ताही को राजा,
खरबन सूर रोम एक लाजा ऐसा अगम अपारा है।
ता पर अकह लोक है भाई पुरुष अनामी तहाँ रहाई,
जो पहुँचे जानेगा वोही कहन सुनन से न्यारा है।
काया भेद किया निर्बारा यह सब रचना पिण्ड मंझारा,
माया अविगत जाल पसारा सो कारीगर भारा है।
आदि माया कीन्हीं चतुराई झूठी बाज़ी पिण्ड दिखाई,
अविगत रचनरची अण्ड माहीं ता का प्रतिबिंब डारा है।
शब्द विहंगम चाल हमारी कहें कबीर सतगुरु दइ तारी,
खुले कपाट शब्द झुनकारी पिण्ड अण्ड के पार सो देश हमारा है।
॥ श्री गोस्वामी तुलसी दास जी ॥
कलयुग काम धेनु रामायन।
बछरा सन्त पियति निसि बासर,सदा रहत मुद दायन।
ज्ञान विराग श्रिंग दोउ सुन्दर, नेत्र अर्थ समुझायन।
चारिव खुर सोइ मुक्ति मनोहर, पूँछ परम पद दायन।४।
चारौं थन सोइ चारि पदारथ, दूध दही बरसायन।
शिव ने दुही, दुही सनकादिक, याग्यवलिक मन भायन।
निकली बिपुल बिटप बन चरि के, राम दास चरवायन।
तुलसी दास गोबर के पाछे सदा रहत पछुवायन।
कहत गोसांई दास राम नाम में मन रंगौ।
भव दुख होवै नाश तन छूटै निज पुर भगौ॥
॥ श्री चालीदास जी का कीर्तन ॥
पद:-
तन समय स्वाँस अनमोल मिला सिया राम भजो सिया राम भजो।
चाली कहैं गुरु से नाम मिला सिया राम भजो सिया राम भजो।
सबसे आसान यह मार्ग मिला सिया राम भजो सिया राम भजो।
तन छोड़ि सो राम का धाम मिला सिया राम भजो सिया राम भजो।४।
पद:-
बचन जो गुरु का है माना वही सिया राम का प्यारा।
कहैं चाली सुनौ भक्तौं जियति ही तर गया तारा।
देव मुनि सब उसे चहते द्वैत का मूँह किया कारा।
दया उसके भरी उर में लोभ को करि दिया छारा।४।
शेर:-
जानै वही मानै वही सुख जिसके आँखी कान है।
चाली कहैं सुमिरन बिना हटता नहीं अज्ञान है॥
पद:-
महाबीर बजरंग पवन सुत राम दूत हनुमान।
अंजनी पुत्र केशरी नन्दन विद्या बुद्धि निधान।
राम सिया सन्मुख में राजत सुनत नाम की तान।
चाली पर अस दाया कीनी मुक्ति भक्ति दियो दान।४॥
पद:-
सिया राम की सेवा के हित शंकर रूप धरयो हनुमान।
एक रूप ते जग को देखत मुक्ति भक्ति दें दान।
बीज मंत्र की धुनी सुनत औ अजर अमर गुन खान।
राम सिया सन्मुख में राजत जिनका रचा जहान।
ऐसा दानी देव न दूसर सुर मुनि कीन बखान।
चाली कहैं मिलै जेहि यह पद आवागमन नसान।६।
दोहा:-
गुरु से जाको भाव नहिं ताको जानो दुष्ट।
चाली कह शुभ काम में कैसे होवै पुष्ट॥
अहंकार और कपट संग माया चोरन गुष्ट।
चाली कह जियतै नरक मति वा की है कुष्ट॥
संगति जब अच्छी नहीं बुद्धि गई ह्वै भ्रष्ट।
चाली कह वे हर समय बने रहत हैं नष्ट॥
बुरे काम हित खरचते दया धरम में रुष्ट।
चाली कह नैनन लखा ऐसे मन के चुष्ट॥
मातु पिता को नर्क भा मिली ऐसि औलादि।
चाली कह धिक्कार है दोनों कुल बरबादि॥
इनकी संगति जो करै सीधै नर्कै जाय।
चाली कह तलफ़ै गिरै बार बार गश खाय॥
दोहा:-
राम कृष्ण औ बिष्णु के सहस नाम परमान।
चाली कह जपि जानि लो सब से हो कल्यान॥
भेद खेद को छोड़िये या से होगा नर्क।
चाली कह सुर मुनि बचन या मे नेक न फर्क॥
शेर:-
दीनता औ शान्ति बिन भगवान से तुम दूर हो।
चाली कहैं थू थू तुम्हैं दोनों तरफ़ से कूर हो॥
दोहा:-
दुष्ट की संगति जो करै सो दुष्टै ह्वै जाय।
चाली कह सुर मुनि बचन चौरासी चकराय॥
परस्वारथ परमार्थ बिन भव से होत न पार।
वेद शास्त्र सुर मुनि बचन चाली कहत संभार॥
पद:-
राम श्याम नारायण भजिए सीता राधा कमला।
चाली कहैं शान्त मन होवै चोर करैं नहिं हमला।
राम कृष्ण औ बिष्णु को भजिये रमा राधिका सीता।
चाली कहैं चेतिये भक्तौं जीवन जात है बीता।४।
राघौ केशव गोविन्द भजिए सीता कमला राधा।
चाली कहैं देव मुनि बानी काटै कोटिन बाधा।
माधौ रघुपति जदुपति भजिए लछिमी राधे रामा।
चाली कहैं मिलै तब निज घर सुफ़ल भयो नर चामा।८।
दोहा:-
दया धर्म हिरदय धरै दीन बने गहि शाँति।
चाली कह तेहि भक्त की छूटि जाय सब भ्राँति।३।
कीर्तन:-
रसना रटि ले राधेश्याम राधेश्याम राधेश्याम।
चाली कहते सहश्रनाम सहश्रनाम सहश्रनाम॥
पद:-
क्रोध को है जिसने जीता वही सच्चा बहादुर है।
कहैं चाली सुनौ भक्तौं वही मेरा बिरादर है।
जियति ही सब किया करतल दोऊ दिसि उसका आदर है।
देव मुनि वेद की बानी न मानै तौन कादर है।४।
शेर:-
निरादर उसका दोनों दिसि जो आलस नींद में रहेता।
कहैं चाली तजै तन जब तो जा कर नर्क में ढहेता।
सत्य का मार्ग जो गहेता वही सच्चा भगत जानो।
कहैं चाली उसे जियतै मुक्ति औ भक्ति भा ज्ञानो।४।
दोहा:-
साँचा झूँठ को झूँठ मानता झूँठा झूँठ को साँच।
चाली कहैं अन्त में जम गण आय के लेते टाँच॥
छन्द:-
शुभ कारज करि लेव जियत में कर्म की भूमी बनी यही।
चाली कहैं पदारथ चारिउ इसी रीति से मिलत सही॥
No comments:
Post a Comment