॥ जय श्री सीता राम ॥
रामायण
जानकी लै दोउ कर जयमाल चलीं हर्षाय प्राण पति ओर।
संग सखी बहु मंगल गावैं सुन्दरि बयस किशोर।
देखत बनै कहै छबि को कबि आनन्द हिये हिलोर।
बिधि हरि हर के ईश जहाँ पर बैठे धनुष को तोर।
देखत छटा कटा सब ह्वैगे मुनि संग श्यामल गौर।५।
जनक क प्रण पूरन जिन कीन्हो ऐसे हैं बर जोर।
अभिमानिन के मूँह मसि लागी सूझत नहिं निशि भोर।
परशुराम को गर्भ खींचि उर में धरि लियो बटोर।
करि प्रणाम उत्तर दिशि चलि भे छूट्यौ तोर व मोर।
मौन भये पर्बत पर जाय के भजन कियो चित जोर।१०।
ठाढ़े एक पाँव कर जोरे प्रेम में सुधि बुधि छोर।
सात सहस्र बर्ष जब बीते शिव ने किये निहोर।
बाणी नभ ते भई ऐसि तँह गरजैं जिमि घनघोर।
मुक्ति भक्ति तुमको हम दीन्हीं अजर अमर तन तोर।
श्री किशोरी जी की लीला सुनिये तत्व निचोर।
पहुँचि गईं जँह श्याम सुहावन मन भावन चित जोर।
प्रेम बिबश कर उठैं नहीं दोउ लागी चरनन डोर।
पलक परैं नहिं नयन नीर झरि तन ह्वै गो सर बोर।
फेरि स्वरूप सँभारि लीन सिय पहिरायो दृग जोर।
कृष्ण दास कहैं सुमन बृष्टि नभ ते सुर करते शोर।२०।
बजावैं दुन्दुभि बाजा भाय। कहैं देवन से बिष्णु सुनाय॥
काम अब तुम सब का हो भाय। कृपा करि आये सब सुखदाय॥
जानते शिव ब्रह्मा कछु भाय। कहैं हम जौन बचन सुखदाय॥
सुफ़ल कीन्ही मुनि यज्ञ को भाय। अहिल्या तरी चरन रज पाय॥
होय अब ब्याह सिया संग भाय। जाँय श्री अवध दीन सुखदाय।१०।
रहैं तेरह बरसै रघुराय। अवधपुर बासी अति सुख पाय॥
केकयी नृप से कहैं सुनाय। हमै कछु माँगे दीजै राय॥
कहैं दशरथ जो मन में भाय। माँगिये देहैं हम हर्षाय॥
कहैं केकयी सुनो सुखदाय। त्रिबाचा कीजै कहौं सुनाय॥
करैं त्रिबाचा दशरथ राय। खुशी हो कहैं केकयी माय।२०।
राम को पठय देहु बन राय। भरथ को राज देहु हर्षाय॥
सुनत ही राजा तब घबराय। गिरैं धरनी पर होश न भाय॥
खबरि यह सब रानिन ह्वै जाय। पुरी भर में फिर जावै छाय॥
सुनैं श्री राम खबरि यह भाय। धरैं शिर अज्ञा मन हर्षाय॥
चलैं संग सीता लछिमन भाय। तनिक नहिं प्रेम शोक उमगाय।३०॥
चरन मातन के पकरैं धाय। फेरि नृप के ढिग पहुँचैं जाय॥
करैं परनाम चित्त हर्षाय। निरखि राजा मन दुख अधिकाय॥
मांगि के बिदा चलैं जब भाय। नृपति के मुख से बोलि न जाय॥
दृगन के ओट होंय जब भाय। सिंहासन से राजा गिरि जाय॥
होय तँह भीड़ बड़ी दुखदाय। कहै को शोक की बातैं भाय।४०।
चलैं पंखा नृप पर सुखदाय। अर्क शीतल गुलाब छिड़काय॥
होश हो दो घंटे में भाय। दुःख से घायल हों नृप राय॥
राम कहि राम राम कहि भाय। देंय सुर पुर को प्राण पठाय॥
नगर का हाल कहैं क्या भाय। जाय सब के तन ज़रदी छाय॥
प्राण तो राम ले गये भाय। कहैं सब पुर नर नारी हाय।५०।
भरथ जी क्रिया करैं तब भाय। जहाँ बिल्व औ हर शम्भु सुखदाय॥
राम का हाल सुनो चित लाय। अवध का हाल कहत दुख आय॥
पहुँचिगे गंगा तट पर जाय। मिले केवट चरनन लपटाय॥
उठाय के उर प्रभु लीन लगाय। निरखि सीता औ लछिमन भाय॥
कहैं प्रभु पार उतारो भाय। सुनै केवट अति मन हर्षाय।६०॥
कहे केवट सुनिये रघुराय। धुवावो चरन भक्त सुखदाय॥
धोय मैं चरन लेंव जब भाय। तुरत ही पार करौं सुख पाय॥
कहैं प्रभु धोवो जलदी भाय। सुनत ही लावै जल हर्षाय॥
कठौता कच्छप पीठि क भाय। नुरखि किरपा निधि मन मुसुकाय॥
संग में सीता लछिमन भाय। न बोलैं मन ही मन सकुचाय।७०।
बढ़ावैं पग तब श्री रघुराय। धोय ले केवट प्रेम से भाय।
धोवावैं सिया लखन सुखदाय। छकै चरणोदक हिय हर्षाय॥
चढ़ावै पार तुरत लै जाय। कहैं प्रभु उतराई ले भाय॥
निकारैं मुंदरी सिय सुखदाय। दाहिने कर से मन हर्षाय॥
हंसै औ चरनन में परि जाय। नहीं कछु लेहौं सब कछु पाय।८०।
सुनैं यह प्रेम बचन रघुराय। चितै सीता औ लछिमन भाय॥
कहैं प्रभु तुम्हैं दीन हम भाय। रिधि सिधि सम्पति गृह भरि जाय॥
रहौ जब तक तुम जग में भाय। करो सुख सदा मगन गुन गाय॥
अन्त में ऐहौ मम ढिग भाय। सिंहासन चढ़ि सुन्दर सुखदाय॥
पहुँचिहैं चित्रकूट जब जाय। मुदित मुनि नर नारी बन राय।९०।
फूल फल बे रितु के फरि जाँय। बिपिन की शोभा कही न जाय॥
मनो ऋतुराज मदन हर्षाय। कीन है बास वहीं पर भाय॥
जाइहैं मिलन भरथ सुखदाय। अवध से चित्रकूट को धाय॥
सहित पुरवासिन संग सब माय। शत्रुहन गुरु वशिष्ठ सुखदाय॥
पहुँचि जब भरथ राम ढिग जाँय। उठैं प्रभु भेटैं मन हर्षाय।१००।
शत्रुहन को भेटैं रघुराय। गुरु के चरन परैं हर्षाय॥
मिलैं सब मातन को सुखदाय। अवध के नर नारिन हर्षाय॥
राम सब के उर गये समाय। हरयौ सब सोच मुदित सब भाय॥
भरथ औ लखन शत्रुहन भाय। मिले उर में नहिं प्रेम समाय॥
भरथ शत्रुहन दोउ सुखदाय। परैं सीता के चरनन धाय।११०।
उठावैं सिया लेंय उर लाय। भये अति प्रेम विवश दोउ भाय॥
मिलैं श्री वशिष्ठ को सिय जाय। परैं चरनन में हिय हर्षाय॥
गुरु आशीष देंय तब भाय। रहौ सिय सदा सोहागिन जाय॥
मिलैं फिरि सब सासुन सिय धाय। परैं चरनन में अति हर्षाय॥
मिलैं तीनों बहनैं अस भाय। मानो एकै में प्रगटीं भाय।१२०।
पुरी के नर नारिन हर्षाय। मिलैं क्षण ही भर में सुखदाय॥
लखन श्री गुरु व मातन धाय। मिलैं पुर नर नारिन हर्षाय॥
कहैं कछु भरत बचन मुद दाय। राम हंसि भरतै दें समुझाय॥
सुनो ज्ञानी विज्ञानी भाय। प्रीति हम हीं तुमरी लखि पाय॥
न जानैं बिधि हरि हर अंसाय। नहीं मन बानी वँह पर जाय।१३०।
प्रेम क पन्थ बड़ा है भाय। बसे हो मेरे उर सुखदाय॥
सम्हारो निज स्वरूप को भाय। कहीं कोइ दूसर परत देखाय॥
जनम जो तुमरो होत न भाय। पाप से मही जात गरुआय॥
जाय के राज सम्हारो जाय। अवधि बीते हम आउब भाय॥
सुनैं यह बचन राम के भाय। भरथ जी परैं चरनन में धाय।१४०।
राम कर गहि भरथहिं उर लाय। मिलैं फिरि प्रेम बढ़ै अति भाय॥
पिघिल पाथर ऐसा ह्वै जाय। बनैं तँह चरन चिन्ह सुखदाय॥
बनै तँह चरन चिन्ह सुखदाय। देहिं प्रभु चरन पादुका लाय॥
भरथ शिर पर धरि लें हर्षाय। आय कर नन्दिग्राम पधराय॥
करैं पूजन तन मन चित्तलाय। सम्हारैं राज काज सुखदाय।१५०।
करैं सेवा शत्रुहन अघाय। जाँय फिरि पंचवती सुखदाय॥
देखि बन चित् शान्त ह्वै जाय। कहैं प्रभु सुनिये लछिमन भाय॥
कुटी एक यहँ पर लेहु बनाय। सुनत ही लछिमन हिय हर्षाय॥
बनावैं पर्ण कुटी सुखदाय। रहैं ता में तीनों जन भाय॥
वहाँ की शोभा अति सुखदाय। बिपिन कुसमय को देय भुलाय।१६०।
फलैं फूलैं सुन्दर सुखदाय। तोड़िये आज फूल फल भाय॥
एक शाखा के रहन न पाय। कलहि फिर देखौ मन हर्षाय॥
वही शाखा में वैसै भाय। वहाँ के पशु पक्षी सब भाय॥
बैर आपस का देंय हटाय। राम की छबि देखन हित भाय॥
कुटी के पास में बैठैं आय। लखन सिय निरखि निरखि सुख पाय।१७०।
डरैं नहिं धनुष बाण दिखलाय। लाय सिय कन्द मूल कछु भाय॥
तोड़ि कै सब ढिग देंय बहाय। पाय कै सब पूरन ह्वै जाँय॥
पियै जल सरिता में हर्षाय। मगन रहैं निशि बासर सब भाय॥
दरिद्री को ज्यों धन मिलि जाय। कछुक दिन बीते वँह पर भाय॥
राक्षसी शूर्प नखा एक आय। भयानक रूप बड़ी दुखदाय।१८०।
बाल दोउ पगन तलक हैं भाय। नगन तन दशन बड़े मूँह बाय॥
जीह नाभी तक लटकै भाय। श्रवण दोउ बड़े बड़े हैं भाय॥
एक ओढ़ै एक लेय बिछाय। कहैं लछिमन ते बचन सुनाय॥
ब्याह हमरे संग कीजै भाय। बनाओ अपनी बनिता भाय॥
करैं सेवा हम चित्त लगाय। न पैहौ ऐसी नारी भाय।१९०।
तीन्हू लोक फिरौ चहै धाय। तुम्हारा दुःख देखि कै भाय॥
दया मेरे उर में गई आय। आप महलन के बासी भाय॥
बदन में कोमलता अधिकाय। बिपिन के हम बासी हैं भाय॥
कार्य ये छाजै हम को भाय। लै आवैं कन्द मूल फल धाय॥
पवन सम बिलम्ब न होवै भाय। रहौ तीनो जन बैठे भाय।२००।
कन्द औ मूल फलन को खाय। पिलावैं ठौरै जल हम लाय॥
बीच धारा का निर्मल भाय। कहो कछु मुख ते लछिमन भाय॥
देर काहे को रहे लगाय। समय फिर ऐसा मिलै न भाय॥
फेरि मन में पछितै हौ जाय। तपस्वी जैसे तुम हो भाय॥
वैस ही हमको जानो भाय। काम को जीति लीन हम भाय।२१०।
नहीं कोइ तन पर बसन सुहाय। शान्ति सन्तोष शीलता आय॥
क्षिमा दाया सरधा अधिकाय। दीनता प्रेम सत्यता भाय॥
यही लक्षण ते सन्त कहाय। मिलेव तन पर स्वारथ हित भाय॥
होय तन सुफल लेहु अपनाय। खड़ी हौं कर जोरे मैं भाय॥
आप ही के हित तन यह पाय। दया के सागर आप कहाय।२२०।
दया अब कीजै हम पर भाय। अतिथि वह कहलावत है भाय॥
जौन कोइ पहले पहले जाय। रुची अनुकूल मिलैं तेहि भाय॥
नहीं तो मिटै न तन की हाय। आप सब जग दाता कहवाय॥
लेत सुधि निशिदिन हित करि भाय। मनोरथ जा को जैसी भाय॥
करत हौ पूरन मन हर्षाय। ऐस स्वामी जो जावै पाय।२३०।
छाड़ि सो अन्त कहाँ को जाय। करै सेवा तन मन चित लाय॥
अन्त के समय स्वर्ग सो जाय। करै छल जो कोइ उनसे भाय॥
फटै धरती सो जाय समाय। सुनैं यह बचन राम रघुराय॥
कहैं लछिमन से सुनिये भाय। राक्षसी बड़ी दुष्ट यह भाय॥
बतकही कैसी करत बनाय। काटि लेहु नाक कान उठि भाय।२४०।
कहेन हम तुमसे सत्य सुनाय। सुनैं जब लखन बचन अस भाय॥
चलैं क्रोधातुर चला न जाय। लिहे दहिने कर छूरी भाय॥
बाम कर केश पकड़ि लें धाय। झिटकि कै महिपर देंय गिराय॥
बैठि छाती पर जावैं भाय। काटि लें नाक कान तब भाय॥
छोड़ि दें भागै अति बिलखाय। रुधिर सब तन में अस लगि जाय।२५०।
जानिये अग्नि देव गे आय। जाय खर दूषण ढिग चिल्लाय॥
देखि कर चीन्ह न पावैं भाय। कहै तब आपन चरित सुनाय॥
तुम्हारे जियत हमैं दुख भाय। नाक औ कान लीन कटवाय॥
श्याम बालक कहि गौर से भाय। निहारैं भगिनी यह मम आय॥
क्रोध उर में तब नहीं समाय। कहैं सब निश्चर कटक बुलाय।२६०।
चलो देखें हम दोनौ भाय। कहाँ से आये कौ हैं भाय॥
काल के गाल में पहुँचे आय। चलैं सब प्रभु के ढिग को धाय॥
लखैं हरि निश्चर सेना आय। कहैं प्रभु सुनिये लछिमन भाय॥
शरासन बान सम्हारो लाय। कटक निश्चरन का आवत भाय़॥
मारि हम तुम मिलि देहिं गिराय। उठावैं राम धनुष को भाय।२७०।
चढ़ावैं चाप भक्त सुखदाय। करैं टंकोर जबै रघुराय॥
जाँय सब दुष्ट तबै घबड़ाय। कटक खर दूषण का गिरि जाय॥
होश नहिं रहै कहै का भाय। राम संग लछिमन चाप चढ़ाय॥
खड़े यह कौतुक देखैं भाय । घड़ी जब पांच बीति जाँय भाय॥
चेत हों सब को उठैं रिसाय। रहै आधी तन ताक़त भाय।२८०।
लेय आधी भय तहँ पर खाय। परैं पग डग मग चला न जाय॥
गिरैं औ उठैं चलैं फिरि भाय। मनै मन खऱ दूषण दुख पाय॥
कहै क्या पड़ी बिपत्ति यह भाय। जानि कछु पड़ौ नहीं मोहिं भाय॥
करुँ क्या धीर धरा नहि जाय। पलटि जो परौं हंसी हो भाय॥
सुनै रावण तो अति रिसि आय। यही अव सूझत और न भाय।२९०।
कहै सेना में हांक सुनाय। सुनो सब बीरों मम सुखदाय॥
पाँव पीछे कोइ धरय्यौ न भाय। नहीं तो होई बड़ी हंसाय॥
चलै लै सब को कहि सुनि भाय। पहुँचतै युद्ध करैं रघुराय॥
राम औ लछिमन के शर भाय। एक ते लाखन होवैं जाय॥
भरा हुंकार बीज दुखदाय। भागि कै कोइ उबरै नहिं भाय।३००।
हतैं सब सेना दोनो भाय। चलैं फिरि पर्ण कुटी सुखदाय॥
देखि कै सीता मन हर्षाय। प्रेम वश बोल न मुख से आय॥
हाल यह रावन जब सुनि पाय। हर्ष करि मन ही मन मुसुकाय॥
जीति को सकै बिना रघुराय। बली खर दूषण मो सम भाय॥
बैर करिहौं हठि प्रभु सों जाय। मारिहैं कर कमलन ते आय।३१०।
तरौं भवसागर मरतै भाय॥ सहित परिवार मनै हर्षाय॥
रचै तब रावण एक उपाय। कहै मारीच से सुनिये भाय॥
बनो तुम कपट मृगा बनि जाय। सोबरन कैसा रूप बनाय॥
जहाँ पर राम लखन सिय माय। वहाँ पर ह्वै कर निकस्यो जाय॥
देखिहैं सीता तब सुखदाय। कहैं रघुबर से बचन सुनाय॥३२०।
सोबरन मृग यह पकड़ो धाय। पालने योग्य प्राण पति आय॥
मिलै गर नहीं तो बाण चलाय। मारि के छाल दिहेव मोहिं लाय॥
अवध जब चलब सबै देखराय। देखि सब के तन मन हर्षाय॥
लखन यह जानि न पैहैं भाय। करैं जो चरित राम सिय माय॥
सिया हरि के उर जाँय समाय। हरैं हम माया की तब भाय।३३०।
श्राप मोहिं तीन जन्म की भाय। मिटी है एकै दुइ रहि जाय॥
एक का योग लग्यो अब आय। एक द्वापर में मिटिहै जाय॥
श्री सनकादिक चारों भाय। जात रहै बैकुण्ठै मुद दाय॥
श्री उर प्रेरक इच्छा भाय। दिहेन लौटारि जाय नहिं पाय॥
श्राप उन दीन्ही रिसि करि भाय। राक्षस तीनि जन्म हो आय।३४०।
कहेन हम नारायण से जाय। भई प्रभु खता बड़ी दुखदाय॥
कह्यौ प्रभु सुनिये मन चित लाय। बचन भक्तन के बृथा न जाँय॥
प्रेरना हरि की से सब भाय। होत है खेल जक्त गुन गाय॥
कई संघटन होंय जब आय। लेंय औतार तबै हरि जाय॥
मानि लीजै हम तुम्हैं बताय। उबारैं हरि तीनौ जन्माय।३५०।
फेरि जय बिजय होहु तुम आय। पारषद मेरे प्रिय दोउ भाय॥
सुनेन यह बचन हरी के भाय। गई चिन्ता दुख दूरि पराय॥
राज दुइ सै छप्पन युग भाय। किहेन लंका में अति सुख पाय॥
दैत्य सतयुग में ह्वै कर भाय। हिरण्य कश्यप हिरण्याक्ष कहाय॥
वहाँ से हम दोउन को भाय। उबारय्यौ आपै हरि सुखदाय।३६०।
धरय्यौ बाराह रूप हरि जाय। फेरि नर सिंह रूप को भाय॥
आइहैं द्वापर में फिरि भाय। नाम शिशुपाल दन्त बक्राय॥
उबारैं आपै फिरि हरि आय। जाँय बैकुण्ठ वही दर्जाय॥
यहाँ पर कुम्भ करण रवणाय। नाम हम दोउन का है भाय॥
भक्त हित प्रणतपाल हरि भाय। धरत हैं रूप बहुत बिधि आय।३७०।
दया के सागर आप कहाय। देखि दुख हरि से रहा न जाय॥
अधम ते अधम होय जो भाय। लेंय हरि वाको चट अपनाय॥
रहै साँचा तन मन ते भाय। बास पासै में पावै जाय॥
काटि कै कोटि दफ़े शिर भाय। चढ़ायन शिव को मन हर्षाय॥
शीश फिर नये प्रगट भे आय। शम्भु परताप न देर लगाय।३८०।
शम्भु ने दीन्हेव मोहिं चेताय। गया था कछु परदा उर आय॥
तरौ औ तारौ कुल सब भाय। भाग्य अब उदय बिधाता दाँय॥
हमारे मामा तुम कहवाय। कार्य ये जाय के सारो भाय॥
करैं प्रभु इच्छा पूरी भाय। प्रेम तन मन ते देइ लगाय॥
मारिहैं चलिहैं रघुबर धाय। संग तुमरे करिहैं खेलवाय।३९०।
जिधर तुम जैहौ तिधरै जाँय। करैं संग पांच कोश दौराय॥
मारिहैं बान जबै लगि जाय। पुकारय्यौ लछिमन को तब भाय॥
कहैं सीता लछिमनै सुनाय। रहे हैं राम तुम्हैं गोहराय॥
जानि कछु जावैं लछिमन भाय। कहैं मारीच कपट मृग आय॥
मारि प्रभु दीन्हेव उसे गिराय। हाँक यह कपट कि हमैं बुझाय।४००।
न मानैं सीता कहैं सुनाय। बटकही लछिमन यह न स्वहाय॥
खबरि लै आवो जलदी धाय। कहाँ पर मारय्यौ मृग रघुराय॥
चलैं लछिमन एक लीक खँचाय। कहैं याही में रहियो माय॥
निकसिहौ बाहेर जो कहुँ माय। तुम्हैं कोइ राक्षस लेय उठाय॥
चलैं कहि लछिमन खोजन धाय। रहैं बैठी माया की माय।४१०।
जाँय रथ लै हम जंगल भाय। यहाँ से तुमरे साथे धाय॥
बैठि जाय छिपि कै रथ ठहराय। भेष अभ्यागत का करि भाय॥
खेल जब तुम्हरे संग हो भाय। जाँय हम माता के ढिग आय॥
उधारन अधमन के हित भाय। करैं क्या लीला मातु पिताय॥
मांगिहै भिक्षा हम हर्षाय। मातु कहिहैं यहँ लीजै आय।४२०।
जाव नेरे तब देखब जाय। लीक एक बनी चौतरफ भाय॥
कहब मातु सुनिये चित लाय। भीख हम बंधी न लेवैं भाय॥
आइहैं बहरे जब श्री माय। कन्द फल मूल लिये सुखदाय॥
उठाय कै काँधे पर लै धाय। फेरि रथ पर बैठारब जाय॥
उड़ाउब रथ वायू सम भाय। बाटिका अशोक पहुँचब जाय।४३०।
कहै यह भविष्य रावण गाय। तुरत मारीच हिया हर्षाय॥
करै लीला वह वैसै आय। जाँय हरि माता तब ही भाय॥
जाय कर गीध लड़ै तहँ भाय। हरावै छीनै जानकी माय॥
चोंच से घाव करै वहु भाय। रुधिर तन बहै बिकल ह्वै जाय॥
सम्हरि कर रावण उठै रिसाय। काटि पर दे कृपाण से भाय।४४०।
धरणि पर गिरै राम कहि भाय। उड़ै नहिं पावै अति दुख पाय॥
जाय लै रावण सीता माय। धरै आशोक बाटिका जाय॥
निश्चरी बहुत लेय बुलवाय। दिखावैं भय सब मूँह को बाय॥
राक्षसी त्रिजटा एक कहाय। धैर्य्य माता को देवै भाय॥
जाँय तहँ राम लखन सुखदाय। जटायूँ कहैं हाल सब गाय।४५०।
देखि कै गीध के दुख को भाय। राम तेहिं उर में लेहिं लगाय़॥
कहैं तुम प्राण को राखो भाय। देंय हम दिब्य स्वरूप बनाय॥
कहै तब गीध प्रभु सुखदाय। हमारी भाग्य उदय भै आय॥
जन्म भर मुर्दा आमिष खाय। आज हरि गोद में लियो बिठाय॥
नहीं कोइ त्रिभुवन मम सम भाय। रूप नयनन ते निरख्यौ भाय।४६०।
श्रवण ते सुनौ बचन सुखदाय। मुनी जन करते तप अति भाय॥
देत प्रभु तब कहुँ दर्शन जाय। आज धनि भाग्य हमारी आय॥
पठओ धाम आपने भाय। कहै अस चलै राम कहि भाय॥
बैठि सिंहासन मन हर्षाय। गीध की कृपा उबीध बनाय॥
पिता सम जानै श्री रघुराय। जाइहैं सबरी के गृह भाय।४७०।
राम औ लखन हिय हुलसाय। खाइहैं कन्द मूल फल भाय॥
प्रेम की प्रीति कही ना जाय। आइहैं ऋषि मुनि तहँ बहु भाय॥
सरोबर जल के कारण भाय। करैं परनाम सबै रघुराय॥
पूँछि कै प्रभु सब से कुशलाय। कहैं सब कृपा करो मुददाय॥
सरोवर जल निर्मल ह्वै जाय। सुनैं प्रभु मन्द मन्द मुसुकाय।४८०।
कहैं लै चलिए सेवरी माय। चलैं ऋषि मुनि संग दोनो भाय॥
संग लै सेवरी अति सुखदाय। जाँय पंपा सर पहुँचैं जाय॥
कहैं लछिमन ते राम सुनाय। उतारो चरनोदक सुखदाय॥
ऋषी औ मुनिन क प्रेम लगाय। परै जब यामे सुनिये भाय॥
होय जल निर्मल दुख सब जाय। सुनत ही लछिमन हिय हर्षाय।४९०।
उतारैं चरनोदक सुख दाय। छोड़तै चरनोदक के भाय॥
न होवै शुद्ध और गन्धाय। लखन ते कहैं राम मुसक्याय॥
छोड़िये आपन लछिमन भाय। लखन अपनौ तब छोड़ैं जाय॥
न होवै शुद्ध रहै वैसाय। राम तब कहैं लखन ते भाय॥
छोड़ि कर हमरौ देखौ जाय। लखन लै चरणोदक तब जाँय।५००।
छोड़ि दें शुद्ध न होवै भाय। कहैं ऋषि मुनिन ते राम सुनाय॥
चहैं सेबरी तो यह दुख जाय। न बोलैं ऋषि मुनि ज्ञान हेराय॥
खड़े कर जोरे सन्मुख भाय। चलैं नैनन ते आँसू भाय॥
दया हरि के उर तब अति आय। कहैं सेवरी से हरि हर्षाय॥
छोड़िये चरणोदक सुखदाय। परै जब सेबरी का सुखदाय।५१०।
तुरत ही जल निर्मल ह्वै जाय। कहैं ऋषि मुनिन ते राम सुनाय॥
भक्ति परभाव देखिये भाय। फंसे हो कर्म काण्ड में भाय॥
करो सुमिरन तन मन चित लाय। जाँय अभिमान सबत के भाय॥
कहैं सेबरी धनि धनि सुखदाय। मिलैं हनुमान वहाँ पर आय॥
बिप्र को रूप धरे सुखदाय। देंय सुग्रीब को आपु मिलाय।५२०।
देंय सुग्रीब हाल बतलाय। जात आकाश में देखा भाय॥
कहत श्री राम राम चिल्लाय। निरखि मम तन पट दियो चलाय॥
लीन मैं धरय्यौ प्रेम से भाय। कहैं प्रभु लाओ पट वह भाय॥
लाय कै तुरतै देवैं आय। शोच करि उर में लेंय लगाय॥
बोल कछु मुख से कढ़ै न भाय। कहैं सुग्रीब सुनो सुखदाय।५३०।
शोच काहे को करत हौ भाय। काज एक करो हमारो भाय॥
देंय हम सिया को पता लगाय। सुनत ही राम कहैं हर्षाय॥
कहौ सुग्रीब काज का भाय। देंय सब हाल अपन बतलाय॥
सुनैं प्रभु कहैं क्रोध करि भाय। एक ही बाण से देंव गिराय॥
सकैं नहिं ब्रह्मा शम्भु बचाय। कहैं सुग्रीब सुनो रघुराय।५४०।
परीक्षा हमैं दिखाओ भाय। पड़ै परतीति मेरे मन आय॥
करौं सेवकाई तन मन लाय। कहैं प्रभु कहौं करैं तो भाय॥
होय परतीत जौन से आय। जाय के सप्त ताड़ दिखराय॥
कहैं प्रभु एकै बार दहाय। मारिहै बालि क सोई भाय॥
नहीं तो मोहिं प्रतीत न आय। सुनत प्रभु देवैं बाण चलाय।५५०।
गिरैं एक दम सातौं अरराय। होय सुग्रीब खुशी अति भाय॥
परै चरनन पर उठा न जाय। उठाय के प्रभु लेवैं उर लाय॥
मित्र कहि बार बार हर्षाय। कहैं प्रभु जावो बालि गृह भाय॥
यहाँ हम खड़े बिटप तर भाय। जाँय सुग्रीब डेरातै भाय॥
निरखि के दौरे शोर मचाय। बिकल करि सुग्रीवै दे आय।५६०।
भागि करि आवै हरि ढिग भाय। देंय एक सुमन माल रघुराय॥
कहैं हम तुम्हैं चीन्ह नहिं पाय। दोऊ जन एकै रंग हौ भाय॥
जाव अबकी हम करब उपाय। चलैं सुग्रीब भिरैं फिरि जाय॥
पकड़ एकै जस हो दुखदाय। बिटप के ओट से श्री रघुराय॥
हिये में मारैं शर कसि भाय। लागतै तुरत पार ह्वै जाय।५७०।
गिरै वह बिकल मही पर भाय। आय शर तरकस में घुसि जाय॥
मन्न प्रभाव मानिये भाय। मनै मन सुमिरै श्री सुखदाय॥
राम तब जाँय पास में धांय। लखत ही करुणा उर में आय॥
कहैं तब बालि सुनो रघुराय। बध्यौ कौने कारण मोहिं भाय॥
कहैं प्रभु सुनिये मन चित लाय। नीति त्यागे कर फल यह आय।५८०।
बालि कहैं जानि गयन हम भाय। सिया हरि रावण लै गयो भाय॥
कार्य्य हित सुग्रीवहिं मित्राय। आप की अर्द्धाङ्गी सिय आय॥
हाल हमसे जो कहतेव भाय। देखतेव बल मेरा हर्षाय॥
मारि सब निश्चर रावण भाय। सिया को देतेंव तुम्हैं गहाय॥
कौन था काम बड़ा रघुराय। लंक को मूली के सम भाय।५९०।
उखारि समुद्र में डरतेंव धाय। सुनैं यह बचन राम रघुराय॥
बीर रस भरे बालि के भाय। कहैं प्रभु तुमको देंय जिआय॥
राज्य कीजै पंपा पुर जाय। अमर औ अचल करौं सुनु भाय॥
फेरि तुमको कोइ मारि न पाय। कहैं तब बालि सुनो सुखदाय॥
मुनी बहु बिधि ते करैं उपाय। दरश कहुँ मुशिकल से हो भाय।६००।
अन्त में रूप न सन्मुख आय। सामने खड़े आप मम आय॥
निरखि कै शोभा हिय हर्षाय। अन्त में नाम आप का भाय।
कढ़ै जो मुख से भव तरि जाय। कहत हौ प्राण राखिये भाय॥
हमै अस समय न मिलिहै आय। तयारी मेरी है रघुराय॥
सिंहासन आवत परत दिखाय। टहलुआ अंगद लिहेव बनाय।६१०।
राज सुग्रीव को दीन्हेव भाय। चलै कहि राम नाम सुखदाय॥
चतुर्भुज रूप हिये हर्षाय। करै रोदन तारा बिलखाय॥
खींचि माया प्रभु दें समुझाय। परै अंगद प्रभु चरनन धाय॥
उठाय के हरि उर लेंय लगाय। राज सुग्रीव को दें रघुराय॥
कहैं अंगद से बचन सुनाय। रहौ तुम सतयुग तक हर्षाय।६२०।
आइहौ फिर मेरे पुर भाय। कहैं सुग्रीव से श्री रघुराय॥
सिया को पता लगावो भाय। लेंय सुग्रीव कपिन बोलवाय॥
कहैं सब उनसे हाल सुनाय। जाँय सब दिशि बानर बहु धाय॥
खोजि आवैं कहुँ पता न पाय। कहैं तब जाम्ब वन्त हर्षाय॥
बिना हनुमान कौन सुधि लाय। देंय मुंदरी तब श्री रघुराय।६३०।
कहैं यह सिया को दीन्हेव जाय। लेन सुधि पवन तनय तहँ जाँय॥
जाय लंका में पहुँचैं जाय। घूमि सब भवन भवन लें जाय॥
लेंय तहँ बहुत रूप धरि भाय। जौन जैसे पौढ़ा बैठाय॥
लखैं सब को वह देखि न पाय। नाम परताप बड़ा मुद दाय॥
बने शिव प्रभु के हित कपि भाय। बिभीषण को गृह परै देखाय।६४०।
लखैं बहु तुलसी के बृन्दाय। लिखा गृह राम नाम सुखदाय॥
विभीषण सोये रहै सुख पाय। समय दो पहर क जानो भाय॥
करैं आराम सबै कोइ पाय। निरखि बाहेर तब बैठें आय॥
रूप तब एकै राखैं भाय। कहैं अब कारज सब बनि जाय॥
राम का दास यहाँ कोइ भाय। कीर्तन राम नाम का भाय।६५०।
करैं हनुमान हिये हर्षाय। सुनत ही जागि बिभीषण आय। ।
धाय कर चरनन में गिरि जाँय। उठावैं पवन तनय सुखदाय।
लगावैं उर में अति हर्षाय। हाल सब बिधिवत देंय बताय।
बिभीषण सुनैं शान्त चित भाय। बिभीषण पता देंय बतलाय॥
पहुँचि तब माता के ढिग जाँय। अशोक के बृक्ष पैं बैठि के भांय।६६०।
लखैं माता को मन हर्षाय। देंय मुँदरी तब वहाँ गिराय॥
ढनगि के माता के ढिग जाय। देखि कै सुन्दर मुँदरी माय॥
उठावैं दहिने कर सुखदाय। मुद्रीका दस माशे की भाय॥
सोवरण अति उत्तम सुखदाय। जड़ाता में अमोल नग भाय॥
नगै में झाँकी सुघर सुहाय। बनी सिय राम की झाँकी भाय।६७०।
देखतै बनै कौन कहि पाय। निरखि के कहैं कौन लैं आय॥
रची माया से ऐसि न जाय। मनै मन कहैं जानकी माय॥
प्राण पति की यह मुँदरी आय। कहैं मुँदरी से श्री सिय माय॥
कहौ मुँदरी तुम कहाँ से आय। कौन लै आयो देव बताय॥
होय परतीति हिया हर्षाय। कहैं मुँदरी सुनि लीजै माय।६८०।
शम्भु मोहिं इच्छा ते प्रगटाय। लियो गिरिजा शिव ते मुददाय॥
पूजती रहीं प्रेम ते माय। ब्याह के समय राम हर्षाय।
प्रथम गिरिजा पूज्यौ सुखदाय। दीन हमको श्री गिरिजा माय॥
राम के दहिने कर पहिराय। छगुनियाँ की शोभा अधिकाय॥
देखि सब सुर मुनि मन हर्षाय। फेरि गणपति को पूज्यौ माय।६९०।
दीन गणपति मणिमाल पिन्हाय। राम के गले कि छजि अधिकाय॥
देव मुनि कहि न सकैं कोइ भाय। आपने पूज्यौ गिरिजा माय॥
दीन चूड़ामणि शीश सुहाय। बनी झाँकी शिव उमा कि माय।
शीश पर धारयौ मन हर्षाय। फेरि गणपति को पूज्यौ माय॥
गजानन दीन्ह्यो माल पिन्हाय। शुकुल रंग गजमुक्ता सुखदाय।७००।
चमक अति गले माझ लहराय। ब्याह करि चले अवध रघुराय॥
बिष्णु धनुबान दीन सुखदाय। दीन बिधि कुण्डल मुकुट लगाय॥
इन्द्र दियो चंवर छत्र पंखाय। लक्ष्मी ब्रह्मणी दियो आय॥
घेंघरा सारी चोली माय। इन्द्राणी दियो सिंहासन लाय॥
आपके बैठन हित सुखदाय। दीप मणि दियो शेष हर्षाय।७१०।
भवन परकाश हेतु सुखदाय। दियो बेड़ा श्री शंकर आय॥
सोबरण के नग जड़े स्वहाय। करन चारों भाइन सुखदाय॥
लखत आँखिन परकाश समाय। सरस्वती गंगा यमुना आय॥
दीनि टिकुली झूमड़ि टीकाय। बेनी पान कोथली पकपानाय॥
दीन श्री दुर्गा जी हर्षाय। दीन काली सेंदुर सुरमाय।७२०।
सोबरण मणी जड़ित डिबिआय। शम्भु ने दीन चन्द्रिका लाय॥
लगायो माथे तुम सुखदाय। दीन काली खाँड़ा एक लाय।
राम ने लीन प्रेम से माय। दुधारा कहैं जिसे सब माय।
काल के काल को देय नशाय। फेरि दुर्गा कटार लै आय॥
राम को दीन्हीं मन हर्षाय। बसन भूषन सिंगार कहाय।७३०।
दीन पृथ्वी देवी बहु लाय। नरमदा कज्जल दीन्हों लाय॥
सोबरण की डिब्बी सुखदाय। दन्त मंजन सुगन्ध सुखदाय।
दीन श्री धेनु मती हर्षाय। दीन कंघा गोदावरी आय॥
और ताम्बूल सुघर डिब्बाय। फुलेलो इत्र दियो हर्षाय॥
श्री सरयू सौ किसिम क लाय। भरा सिंगार दान सुखदाय।७४०।
सोबरन सीसिन की छबि छाय। जनक के न्योंतहरी सुर आय॥
दीन जाके जो मन में भाय। रूप दुइ सब सुर लीन बनाय॥
एक नभ एक मिथिला पुर आय। गये सब अवध तलक संग भाय॥
पठै कर लौटे निज गृह आय। दीन हम हाल सांच बतलाय॥
समुझिये अपने मन में भाय। लै आये हमै पवन सुतं माय।७५०।
राम के खबरि के हेतु पठाय। कह्यौ कछु चीन्ह जाउ लै भाय॥
दिहेव तब सिया क हिया जुड़ाय। बैठि अशोक बृक्ष पर माय॥
सघन पत्तन की ओट लुकाय। बैन मुँदरी के सुनि सिय माय॥
भईं अति मगन प्रेम उर छाय। लीन मुंदरी शिर में धरि माय॥
मनो श्री राम मिले सुखदाय। आय हनुमान चरण परि जाँय।७६०।
कहैं सब हाल मातु से भाय। देर अब नहीं होय कछु माय॥
आइहैं नाथ जाव हम धाय। मारि सब निश्चर देंय नशांय॥
चलैं संग लै आनन्द गुण गाय। धर्म की युद्ध करैं रघुराय॥
हुकुम मोहिं दीन्हेव नहीं है माय। नहीं तो लै चलतेंव हर्षाय॥
मारि सब निश्चर रावण राय। देखतिउं आँखिन यह सुख माय।७७०।
बीच समुद्र में लंक डुबाय। चिन्ह तक रहन न पावत माय॥
नाम परताप रहेउ उर छाय। सुनैं यह बैन जानकी माय॥
लेंय हनुमान को हृदय लगाय। कहैं हनुमान सुनो मम माय॥
भूख अब हमको रही सताय। हुकुम अब हमको दीजै माय॥
खाँय फल तूरिकै खूब अघाय। कहैं सिय रखवारे बहु भाय।७८०।
खाहु कैसे फल तुम सुख पाय। कहैं हनुमान मनै हर्षाय॥
देव अज्ञा हमको तुम माय। खाँय फल सब को देखैं जाय॥
कौन है बीर यहाँ पर माय। कहैं माता जाओ हर्षाय॥
चलैं हनुमान चरन शिर नाय। सुमिरि मन राम नाम को भाय॥
बढ़ावै रूप कौन कहि पाय। खाय फल बृक्षन देंय ढहाय।७९०।
निशाचर मारैं पकरि के धाय। लड़ाई अक्ष कुमार ते आय॥
होंय अति घोर थकै वह भाय। पकरि दोउ करन ते लेंय उठाय॥
उतानै पटकैं मही पर भाय। होश ताको कछु रहै न भाय॥
धरैं दाहिन पग छाती धाय । टूटि छाती पग धरनि में जाय॥
मनहुँ तरबूज फूटिगा भाय। खबरि जब रावण पास में जाय।८००।
पठावै मेघनाद को भाय। आय के युद्ध करै अधिकाय॥
बाँधि कै ब्रह्म फाँस लै जाय। मानि मर्य्याद फाँस की भाय॥
न बोलैं तनकौ चुप्प ह्वै जाँय। सनातन की मर्य्यादा भाय॥
तोड़ने से महिमा घटि जाय। राम ने मर्य्यादा हित भाय॥
बालि को बध्यौ ओट बिट पाय। नाम परताप उन्हीं के भाय।८१०।
देंय सुरमुनि शापो अशिषाय। बँधायो कार्य हेतु हर भाय। ।
मनै मन पवन तनय हर्षाय। जाँय लै दशमुख के ढिग भाय॥
धरैं अंजनि सुत को तहँ जाय। कहैरावन हनुमान से भाय॥
बृक्ष क्यों तूरे फलन को खाय। पकरि फिरि अक्ष कुमार उठाय॥
मही पर पटके अति रिसिआय। निशाचर मारे तहँ बहु धाय।८२०।
किये यह कौन काम तू आय। जान से मारे मम पुत्राय॥
शोक की उठत कलेजे हाय। कहैं हनुमान सुनो चित लाय॥
भला कहुँ निज स्वभाव मिटि जाय। भूख बस फल हम लीन्हें खाय॥
बृक्ष गे कूदत चढ़त ढहाय। बड़े कमज़ोर रहे बिट पाय॥
सह्यौ नहिं तनकौ भार को भाय। हमारे यहाँ के जो बृक्षाय।८३०।
घूमि हम आवैं उऩ पर भाय। न टूटैं कबहूँ हैं वैसाय॥
भई नहि भेंट ऐस बिट पाय।अहैं हम जंगल बासी भाय॥
रहैं बृक्षन ही पर सुख पाय। निशाचर मारेन तब हम भाय॥
लियो उन पहले दाँव चलाय। सुनो कहूँ ऐसा होत है भाय॥
चोर क करी क कटारी खाय। पेट ही भरेन न बाँधेन भाय।८४०।
डाटते हो हम को गुर्राय। पढ़ेव तुम चारिउ वेद को भाय॥
किहेव टीका सुर मुनि मन भाय। नीति को तन मन से बिसराय॥
दिहेव तुम रावण मद में आय। हरेयौ माता को बन में जाय॥
भेष साधू का धरि के भाय। कपट का कार बुरा है भाय॥
मृत्यु तुमरी अब गइ नगचाय। सामने हरतिउ जो कहुँ आय।८५०।
परत तब तुमको मालुम भाय। बनत हौ बीर चोर हौ भाय॥
शरम तुमको तनकौ नहिं आय। हुकुम नहिं दियो हमैं रघुराय॥
नहीं तो देखतेव मम बल भाय। मारि सब कटक निशाचर भाय॥
तुम्हैं सब देतेंव खेल देखाय। तुम्हैं औ कुम्भ करण को भाय॥
पकरि घननाद को संग मिलाय। पगन दोनो से काँड़ि के भाय।८६०।
गिलावा करतेंउ खूब बनाय। बाँधने से क्या बिगरेय्यौ भाय॥
कार्य के हेतु प्रभु बँधवाय। ब्रह्म शर तोड़ि देंय जो भाय॥
घटै महिमा हरि दीन बड़ाय। दिखाउ कछु लीला दुखदाय॥
किह्यौ तुम जौन तुम्हैं बिन आय। राम के भक्तन के दुखदाय॥
तुम्हैं नहिं कोइ सुर सकै बचाय। ठानि हरि हूँ से बैर को भाय।८७०।
रहौगे कहाँ कहौ तुम जाय। चहौ जो अपनी सुनो भलाय॥
दीन ह्वै मिलौ राम से जाय। प्रभू मम दीनानाथ कहाय॥
दीन को तुरतै लें अपनाय। कपट तजि निर्मल जो ह्वै जाय॥
पास ही बास करै सो भाय। बड़े पण्डित तुम तौ कहलाय॥
गई पाण्डित्य कहाँ वह भाय। सुनै रावण यह बचन रिसाय।८८०।
कहै यह बानर हमै सिखाय। बीरता देख लेव हम भाय॥
आइहैं लै बानर ऋक्षाय। चबैना भरे के हैं नहि भाय॥
रहै समुझाय हमै क्या आय। भला कहुँ बानर भालू जाय॥
लड़ाई कीन्ही दे बतलाय। सकै को जीति हमन सुत भाय॥
नाम जिनका घननाद कहाय। जक्त में सबको दीन हराय।८९०।
मुकबिल जंग कीन को भाय। दण्ड हम लीनेन सब से भाय॥
भया को ऐसा जग उमराय। पड़े बन्दी खानेन में आय॥
देखि तो आओ को को भाय। कहौ स्वामी तुम राम को भाय॥
हमारे स्वामी शम्भु कहाय। कृपा से उनकी हम सुखदाय॥
कमी नहि कोई बात की भाय। हमैं तो आवत बड़ी हंसाय।९००।
ऋक्ष बानर का करिहैं आय। नहीं कोइ अस्त्र सिखे हैं भाय॥
रहैं जंगल फल पाती खांय। आपके स्वामी की बुधि भाय॥
गई कहुँ चली पता नहिं पाय। लै आयन जब से सिया उठाय॥
तभी से सुधि बुधि गई हेराय। राम तो रमें हैं सब में भाय॥
दूसरे राम कहाँ ते आय। सदा निर्गुण निर्लेप कहाय।९१०।
कामना राम में कहाँ ते आय। पढ़ा नहि लिखा मूर्ख तू आय।
बतकही सिखि लीन्हें कहुँ जाय। कहैं हनुमान सुनो दुखदाय॥
ऋक्ष औ बानर तुम्हें हराय। बालि को जानत हौ तुम भाय॥
रह्यौ कखरी छ महीना जाय। कहाँ बल गवा रहा तब भाय॥
बोलि नहिं सक्यो बड़े बलदाय। समाधि में रह्यौ कि ध्यान में भाय।९२०।
कि डर से स्वाँसा लिहेव चढ़ाय॥ कहैं मसला सब जग में भाय॥
जौन गरजे सो बरसि न पाय। लड़ै को ऋक्ष गणन ते भाय॥
तुम्हारी सेना देखि पराय। अकेले जाम्वन्त संग भाय॥
नहीं कोइ सन्मुख में ठहराय। बालि सुत अंगद जब चलि आय॥
देखिहौ वा के बल को भाय। पूछिये मेघनाद ते भाय।९३०।
कीन्ह अति युद्ध मेरे संग आय। नहीं कोइ चोट मेरे तन आय॥
चोट उनके तन शालै भाय। बुलाय के देंय छुऔ तो भाय॥
छुअत ही मूँह पीला पड़ि जाय। शरम के मारे कहत न भाय॥
झूठ ही इन्द्र जीत कहवाय। जीति जो इन्द्रिन लेवै भाय॥
उसै को जग में सकै हराय। भजन में युद्ध में बल अधिकाय।९४०।
होय तेहि अंग बज्र सम भाय। इन्द्र अपसरन में परि के भाय॥
दीन सब तन मन अपन गंवाय। सिपाही बिषय भोग के भाय॥
कहावैं इन्द्र औ जल बरसाय। पड़ै कोइ उनपर आफ़त आय॥
जाय हरि के ढिग रोवैं जाय। दया आवै बिष्णु के भाय॥
काम उनका तब सब बनि जाय। शम्भु के सेवक तुम कहवाय।९५०।
इसी से बिष्णु न बोलैं भाय। एकता बिष्णु व शम्भु की भाय॥
जानते हम कछु हैं सुखदाय। लै आय मेघनाद जो भाय॥
शेष की सुलोचना कन्याय। नाग थे लड़े कौन शस्त्राय ॥
बताओ हमको तुम समुझाय। परय्यौ संग्राम नहीं कहुँ भाय॥
रह्यौ गल मुंदरी खूब बजाय। अरे मति मन्द अभागे राय।९६०।
रहै नहि धन बल यह तन जाय। देर मोहिं जाने की है राय॥
कहत ही प्रभु चढ़ि आवैं धाय। किहेव तुम समर लखब हम भाय॥
काल के काल श्री रघुराय। मरैं पर हो जब चींटी भाय॥
देंय हरि वाके पंख जमाय। खता कछु तुमरी है नहिं भाय॥
समय जैसा बुद्धी वैसाय। दशानन दसौं दिसन ते आय।९७०।
तुम्हैं अब लीन अँधेरिया छाय। परत है यासे नहीं देखाय॥
नैन धोखे के बने हैं भाय। जानकी जगत मातु को लाय॥
जान की कुशल चहत हौ भाय। न बचिहौ कहूँ पै जाइ के भाय॥
कहौं मैं सत्य तुम्हैं समुझाय। सुनै यह बैन दशानन राय॥
क्रोध में देही सब कपि जाय। कहै रावण तब अति रिसिआय।९८०।
इसै अब जान से मारो भाय। बाँटि के रत्ती रत्ती भाय॥
धरौ मुख में जहँ तक अटि जाय। रहै हड्डी तक एक न पाय॥
पीसि दशन ते लीलेउ भाय। चिन्ह कहुँ तनिक रहै जो भाय॥
बधब हम तुम सबको रिसिआय। सभासद बहुत रहैं तहँ भाय॥
कहैं रावण से बैन सुनाय। दूत कहुँ मारा जाय न भाय।९९०।
बात यह युगुन चलि आय। दण्ड कछु दै दीजै मन भाय॥
कहै नहिं कहूँ भागि बनि जाय। सुनत रावण अति हिय हर्षाय॥
ठीक सब कह्यौ बात सुखदाय। बिचारौ सब मिलि जौन उपाय॥
वही होवै क्यों देर लगाय। बिभीषण कहैं सुनो बड़भाय॥
बात एक हमरे उर में आय। पूँछ में जीण बसन बँधवाय।१०००।
तेल में तर दीजै करवाय। फेरि दीजै अग्नी लगवाय॥
जाय जरि पूँछ चिन्ह हो भाय। न जावै फिर रघुबर ढिग भाय॥
जाय जंगल में रहै लुकाय। शरम के मारे बदन छिपाय॥
निशा में निकसै दिवस न भाय। कहै रावण तुम ठीक बताय॥
हमारे भाई अति सुखदाय। कहै लै आओ वीरौं जाय।१०१०।
धाम मेरे से बसन उठाय। तेल चाँदी पात्रन में भाय ॥
लै आओ देर न कीजै धाय। लगावो लूम में अग्नी भाय॥
तमाशा देखौ सब हर्षाय। सुनत ही दौड़े निश्चर भाय॥
लै आवैं वसन व तेल उठाय। पूँछ में बसन लपेटैं आय॥
बढ़ै वह धीरे धीरे भाय। बसन जीरन रावन गृह भाय।१०२०।
रहै नहिं नये लेय मँगवाय। चुकैं जब नये कहै रिसिआय॥
जाओ गृह गृह से लाओ जाय। सबन को थोड़ी देर बिताय॥
देहों चौगुन बसन मँगवाय। लै आवैं गृह गृह ते सब धाय॥
रहैं नहिं नये पुरानौ भाय। पूँछ में जाँय सबै खपि भाय॥
ज्ञान पर सब के परदा आय। रहैं नहिं बसन लंक में भाय।१०३०।
जौन जो पहिरे वही देखाय़। कहैं रावन ते सबै सुनाय॥
वस्त्र चुकि गये कहाँ ते लाय़। कहै रावन सुनिये सब भाय॥
तेल अब डारौ पूँछ पै जाय। तेल जब परै पूँछ पै भाय॥
पता नहि लगै कहाँ को जाय। मँगावै तेल बहुत फिरि भाय॥
न होवै तर तब अति रिसिआय। लै आओ घृत हण्डा बहु भाय।१०४०।
सोबरन के सुन्दर सुखदाय। भिजावो पूँछ को खूब अघाय॥
चुवै जब धरती तर ह्वै जाय। लै आवैं घी सब बीर उठाय॥
न भीजै राम दूत लूमाय। कहै रावन तब बचन सुनाय॥
पूरी भर से लै आओ जाय। सबन से कहि दीजै समुझाय॥
उन्हें हम दस गुन देव मंगाय। चलैं लै लै आवैं सब भाय।१०५०।
तेल घृत नगर रहन नहि पाय। पूँछ पर छोड़त जितनै भाय॥
नाम परताप खपत सब जाय। चुकै जब रहै न पुर में भाय॥
कहै तब रावन अति रिसिआय। पूँछ में आगी देहु लगाय॥
चलै अब और न कोइ उपाय। आय तहँ शारद माता जाँय॥
न जानै निश्चर रावन राय। करैं परनाम पवन पूताय।१०६०।
देंय आशिष माता हर्षाय। बिजै होवै तुम्हरी पुत्राय॥
देर अब नहीं समय गो आय। छोरि कै ब्रह्म फाँस को भाय॥
जाँय बिधि के कर देंय गहाय। मनै मन पवन तनय हर्षाय॥
कहैं अम्ब शारद भई सहाय। धूप की लकड़ी जलदी भाय॥
लै आवै मेघनाद हर्षाय। शोच तन अक्षय कुमार को छाय।१०७०।
क्रोध करि पूँछ में देय लगाय। उठैं हनुमान हृदय हर्षाय॥
सुमिरि कै राम नाम सुखदाय। चहुँ दिशि घूमैं उछरैं भाय॥
हँसै रावण समाज सुख पाय। धरैं फिर बिकट रूप दुख दाय॥
काल को काल देखि डरि जांय। करैं तहँ शब्द जोर से भाय॥
निशाचर सुनि कै सब थर्राय। चढ़ैं फिर कूदि लंक शिखराय।१०८०।
घुमावैं लूम को खूब बढ़ाय। पुरी के चारों तरफ से भाय॥
अगिनि की ज्वाल बढ़ै दुखदाय। भगैं सब हाय हाय चिल्लाय॥
न सूझे अपन परावो भाय। जान अपनी अपनी लै भाय॥
भगैं औ गिरैं उठैं घबराय। कहैं यह दूत नहीं है भाय॥
काल सब का पहुँचा है आय। हंसी रावन ने कीन्हीं भाय़।१०९०।
उसी का फल सब को मिलि जाय। बड़ा पण्डित रावण कहलाय॥
गई सब विद्या कहाँ हेराय। बचन यह रावण सुनि लेय भाय॥
कहै मेघन से देव बुझाय। क्रोध करि मेघ जुटैं तब आय॥
होय नहिं शान्त और अधिकाय। चलै बस नहीं किसी का भाय॥
देव सब अपने मनहिं मनाय। दिवस दुइ घण्टा का तब भाय।११००।
लंक पर खेल कीन कपिधाय। प्रेरणा हरि की तेजो भाय॥
लीन बजरंग को मन में ध्यान। वही उबरे जानो सब भाय॥
और तो जरि स्वाहा ह्वै जाय। निकसि वै गये उदधि तट भाय।
रहे हनुमानै हिय सब ध्याय। दौरि रावण घननाद गे आय॥
सोय रहे कुम्भकर्ण जहँ भाय। पकरि कर एक रफ दोउ भाय।१११०।
घसीटि कै बाहेर ले गये धाय। बिभीषण को गृह जरय्यौ न भाय॥
अनल हरि की भक्तौं हरिकाय। लाल सब भवन ऐस ह्वै जाँय॥
देखतै बनै कहै को भाय। मणी चिटकैं बहु शब्द सुनाय॥
दगै गोला जस खुशी में भाय। पिघिल सोना चाँदी बहि जाय॥
पुरी के डगर डगर में भाय़। एक गज ऊँचा भरा है भाय।११२०।
निरखि कै नैन नहीं ठहराय। घरी ढाई में पुरी को भाय॥
जरायो घूमि घूमि गोहराय। आय कोइ पुरी को लेय बचाय॥
होय योधा तेहि कहौं सुनाय। पुरी लंका कर जोरि के आय॥
कहै अब कृपा करो मुददाय। आप सम कौन दास जग भाय॥
राम में रमें शम्भु रूपाय। आँच हम से अब सही न जाय।११३०।
शरनि हौं बार बार शिर नाय। सुनैं यह बैन लंक के भाय॥
दया उर में अति जावै आय। उदधि तट कूदि के पहुँचैं जाय॥
बुझावा चाहैं पूँछ को भाय। करै बिन्ती समुद्र शिर नाय॥
हाथ जोरै सुनिये सुखदाय। जाय जल खौलि सबै दुख पाय॥
जीव सब मरैं जलहु गन्धाय। कृपा करि रहौ किनारे भाय।११४०।
बुझावैं हम लहरिन हर्षाय। बहुत जलदी हम देंय बुझाय॥
आप की कृपा से मानो भाय। खड़े हों दक्षिण मुख सुखदाय॥
पूँछ उत्तर मुख रही सहाय। उदधि सुमिरै अँजनि सुत भाय॥
लूम पर लहरैं दे सुखदाय। मिनट पन्द्रह में देय बुझाय॥
भक्त का बल समुद्र उर आय। दीनता से समुद्र फिर आय।११५०।
परै चरनन में तन पुलकाय। उठाय के कपि उर लेंय लगाय॥
कहैं सब आगे कि बात सुनाय। आइहैं कटक संग रघुराय॥
परै डैरा तुम तट पर भाय। करौ नित दर्शन प्रेम लगाय॥
और क्या चाहत हौ तुम भाय। बांधिहैं सतु पार तक भाय॥
तुम्हारे ऊपर नल नीलाय। श्राप मुनि की उनको है भाय।११६०।
छुवो जो पत्थर जल उतिराय। जाव हम तुम से कहेन सुनाय़॥
हमारे ठाकुर खेलि बहाय। रोज तुम जल में देत डुबाय॥
देर पूजन में होवै भाय। भोग में बारह तक बज जाय॥
उपदर व हमका यह न सुहाय। श्राप वह यहाँ पर होय सहाय॥
देखिहौ आपौ हिय हर्षाय। सन्त होवैं नाखुश जो भाय।११७०।
तहँ कछु देते हैं गुन भाय। मारि रावण परिवार को भाय॥
बिभीषण अभय करैं हरिआय। बिभीषण करैं राज लंकाय॥
प्रजा को होवै सुख अति भाय। छुटैं बन्धन उनके अब भाय॥
जिन्हैं है रावन रहा सताय। सुनै यह बैन उदधि सुखदाय॥
हर्ष हिरदय में नहीं समाय। करै परनाम फेरि बहु भाय।११८०।
भेंट बहु रतनन की लै भाय। दूत तुम जिनके अति बल भाय॥
भला स्वामी की को कहि पाय। कृपा करि भेंट लीजिये भाय॥
भक्त भगवंत न अन्तर आय। कहैं हनुमान सुनो मम भाय॥
हमारा धर्म नहीं यह आय। भाव स्वामी औ सेवक भाय॥
निबाहै जब तक जगत रहाय। नहीं तो धब्बा तन लगि जाय।११९०।
मुक्ति औ भक्ति मिलै नहि भाय। काम यह स्वामी का है भाय॥
आइहैं तब दीजै हर्षाय। देंय समुझाय पवन सुत भाय॥
उदधि तब जल भीतर जाय। चलैं हनुमान मातु ढिग जाँय॥
परैं चरनन में अति हर्षाय। मातु सिर पर कर देंय फिराय॥
कहैं तुम अजर अमर सुखदाय। कहैं फिर पवन तनय हुलसाय।१२००।
देहु कछु चीन्ह मोहिं अब माय। जाय कर प्रभुहि दिखावैं माय॥
देखि कर धीरज हरि को आय। देंय शिर से चूड़ामणि माय॥
बनी झाँकी शिव उमा कि भाय। लेंय तेहि पवन तनय हर्षाय॥
जाय कर प्रभु को देंय गहाय। निरखि कै हरि उर लेंय लगाय॥
कहैं तब चूड़ामणि हँसि भाय। चलौ जलदी हरि देर न लाय।१२१०।
मातु का बदन सूखिगा भाय। राति औ दिवस रहै चिन्ताय॥
आपु के बिना उन्हैं दुख भाय। खान औ पान न बचन सोहाय॥
गईं जब से हरि तब से भाय। नहीं भोजन जल तन नहवाय॥
दन्त धावन तक कीन न भाय। आपु पर रहीं अपन चित लाय॥
कान्ति दिन पर दिन बढ़तै जाय। आप का नाम बड़ा सुखदाय।१२२०।
गये अंजनि सुत तहाँ पै धाय़। बैठि अशोक बृक्ष चुपकाय॥
देखि कै माता का दुख भाय। नैन से नीर रहे झरि लाय॥
घड़ी दुइ बाद होश कछु आय। दीन मुंदरी तँह पर ढनगाय॥
गई आगे मुंदरी सुखदाय। निरखि कै माता लीन उठाय॥
मनै मन कहैं जानकी माय। मुद्रीका प्राण पती की आय।१२३०।
रची माया से ऐसि न जाय। दिब्य मुंदरी यह है सुखदाय॥
कहैं मुदरी से सिया सुनाय। कहौ तुम को यहँ पर को लाय॥
कहैं मुंदरी तब बैन सुनाय। होय परतीति मगन हों माय॥
जाँय तब उतरि पवन सुतधाय। परैं चरनन में उठा न जाय॥
परे कछु देर रहैं सुख पाय। मातु के चरनन नैन लगाय।१२४०।
उठैं कर जोरि के बैठें भाय। कहैं सब हाल आपका गाय॥
होय औरौ धीरज मन आय। कि जैसे रंक को धन मिलि जाय॥
मनै मन फूलो नहीं समाय। कह्यो माता हम से मुद दाय॥
सुनो चूड़ामणि तुम हर्षाय। कह्यो कछु हाल हमारो जाय॥
बिना पूँछे प्रभु के हर्षाय। कहेसि मुंदरी जब कहेन सुनाय।१२५०।
संदेसिया कच्चा ऐस कहाय। कहै तुरतै जस पहुँचै जाय॥
काम दूसर कोइ और न भाय। संदेसिया पक्का तौन कहाय॥
बिना पूँछे सब देय बताय। बचन चूड़ामणि के सुनि भाय॥
हँसे श्री राम लखन मरुताय। कहैं फिरि पवन तनय सब गाय॥
लंक जेहि बिधि जारय्यौ फल खाय। खुशी ह्वै राम लखन सुखदाय।१२६०।
लेंय मारुत सुत को उर लाय। कहैं लछिमन सुनिये मम भाय॥
कार्य्यतुम किहेव बड़ा सुखदाय। उऋण हम तुमसे हैं नहिं भाय॥
और क्या कहैं सुनो चितलाय। लै आये माता की सुधि धाय॥
बली तुम सम जग को है भाय। प्रभु चूड़ामणि को हर्षाय॥
धरय्यौ फेंटा में सुख से भाय। कहैं रघुनाथ भक्त सुखदाय।१२७०।
सुनो लछिमन भाई हर्षाय। बचन कपि ऋक्षन देव सुनाय॥
तयारी करैं लंक पर भाय। कहैं लछिमन सुनिये सब भाय॥
चलौ रावनपुर जीतन धाय। सुनत ही निर्भय कपि ऋक्षाय॥
खड़ें हों आकर कहा न जाय। एक ते एक बीर हैं भाय॥
नाम परताप बड़ा सुखदाय। कूदते ऊपर को सब भाय।१२८०।
उस समय की लीला को गाय। करैं गर्जना मेघ सम भाय॥
मार ही मार क शब्द सुनाय। आवते नीचे को जब भाय॥
धरनि पग एक हाथ धंसि जाय। आयकर पृथ्वी जी मुददाय॥
कहैं श्री राम से बचन सुनाय। कृपानिधिं इनहिं देउ समुझाय॥
सहायक मेरे सब घबड़ाँय। लगत सब के तन धक्का जाय।१२९०।
काँपि जाते तन मन घबराय। हमारे तन सब बोझा आय॥
आप की किरपा ते थमि जाय। नहीं तो हमैं न ताकति भाय॥
कहौं कर जोरि के सत्य सुनाय। जगत हित लीला श्री रघुराय॥
करत हौ कौन कभी कहि पाय। बनाये आपै के सब भाय॥
समाये हो सब में सुखदाय। जानकी जगत की मातु कहाय।१३००।
पिता प्रभु आप सबै गुन गाय। अगोचर गोचर हौ सुखदाय़॥
भक्त हित नाना रूप बनाय। आप की दया से सुर मुनि भाय।
मान पायो जग में यश छाय। मातु प्रगटीं मिथिला पुर आय॥
सिंहासन मेरे शिर सुखदाय। पूर बारह महिना रघुराय॥
कीन सेवकाई जो बनि आय। मुनिन के रुधिर से घट भरवाय।१३१०।
दीन रावन तहँ पर गड़वाय। आपके नाम की महिमा जाय।
मातु के देखि के दुख उर आय। भईं परवेश उसी में माय।
बनीं सरगुन मूरति सुखदाय।चलायो रानी राजा आय॥
हलै परजा के कारन धाय। पूर्व से पश्चिम मुख हल आय॥
लग्यौ हल का घट लोहा भाय। फूटि घट प्रगटीं ताते माय।१३२०।
रूप की शोभा को कहि पाय। सामने नजर नहीं ठहराय॥
खड़े कर जोरे रानी राय। देव तहँ पहुँचै तुरतै धाय॥
आरती करैं पुष्प बरषाय। करैं अस्तुति तन मन हर्षाय॥
तेज तब खींचि लेंय उरमाय। होय तब दरशन अति सुखदाय॥
करैं दंडवत सबै गुन गाय। कहैं धन्य जनक सुनयना भाय।१३३०।
कीन तप ताको फल यह आय। जगत हित मातु लीन प्रगटाय॥
बड़े परतापी दोउ सुखदाय। बिष्णु तब लियो सिंहासन धाय॥
मेरे शिर पर था रहा सोहाय। चले लै जनक भवन समुदाय॥
देव सब संग चलै हर्षाय। सुनयना जनक मनै मन भाय॥
खुशी अति मख से बोलि न जाय। भई अति भीड़ जनक गृह आय।१३४०।
नगर में हाल गयो यह छाय। कह्यौ बिधि हरि हर मन हर्षाय॥
जानकी नाम मातु को भाय। खड़े तहँ सुरपति मन हर्षाय॥
चंवर औ छत्र लिये पंखाय। मातु सब सुरन से कह्यौ सुनाय॥
जाव गृह गृह अब तुम सब धाय। प्रगट श्री अवध में भे मुददाय॥
एक महीना बीते पर हम आय। काम तुम सब हो मन भाय।१३५०।
रहौ निर्भय प्रभु को गुन गाय। सुनैं यह बैन मातु के भाय॥
सुरन के हर्ष न हृदय समाय। चले तन मन से शीश नवाय॥
जोरि कर सूरति हिय पधराय। कियो माता तब रोदन भाय॥
भुलायो माया करि पितु माय। खेलावैं चुपकावैं पितु माय॥
घरी भर रोवैं नहीं चुपाय। आप ही आप शाँत हों माय।१३६०।
नगर नर नारी गृह गृह जाँय। नार को प्रगट्य्यौ जानकी माय॥
जगत मर्य्यादा के हित भाय। अयोध्या देवी पहुँची जाय॥
रूप धनुकुनि का लीन बनाय। छीनि कै नार को गईं हर्षाय॥
जनक दियो मणि पट भूषण लाय। जाय दै दीन जनक पुर भाय॥
रहै जो धनुकुनि जनक प्रजाय। कहै धनुकुनि मात सुखदाय।१३७०।
कहाँ ते आईं तुम बतलाय। न कोई चीन्ह न परिचय माय॥
आप पट मणि भूषण दियो आय। कहैं श्री अवध पुरी सुखदाय॥
जनक गृह प्रगटीं जगत की माय। नार हम छीनेन उनको आय॥
रूप हम तुमरो लीन बनाय। न जान्यो वहँ पर रानी राय॥
मिला जो नेग दीन सब आय। जन्म भर सब जन मंगल गाय।१३८०।
खाव पहिनौ खरचौ हर्षाय। न होवै घटती बढ़तै जाय॥
मानिये धनुकुनि मम बचनाय। तेल उबटन हम नित प्रति आय॥
लगाउब तीनि बर्ष हर्षाय। रूप तुमरो हम धरि कै आय॥
जाय के करब मातु सेवकाय। निछावर मिली हमैं जो आय॥
दब सब तुम को मन हर्षाय। बर्ष जब चौथी लागी आय।१३९०।
जानिहैं तब बिदेह सुखदाय। परैं चरनन में तब लपटाय॥
कहैं तब हम सुन लीजै राय। कुँवर भे दशरथ के गृह आय॥
राम शत्रुहन भरथ लखनाय। नार हम उनका छीनेन राय॥
जानकी जगत मातु सुखदाय। दिब्य संग दिब्य की शोभा आय॥
सुनो राजा तन मन हर्षाय। भई बाणी मोहिं नभते राय।१४००।
कीन तैसै हम मन चितलाय। कुँवारी कन्याँ सँग बहु भाय॥
खेलिहैं तब देख्यो सुख पाय। देखि धनुकुनि तब हिय हर्षाय॥
नैन फल पैहो पाप नशाय। मास बैसाख शुक्ल पक्षाय॥
रहा दिन गुरुवार सुखदाय। समय दोपहर जगत की माय॥
भई परगट नौमी तिथि आय। सुने यह बचन मही के भाय।१४१०।
कहैं रघुबर भक्तन सुखदाय। सुनो कपि ऋक्ष गणन सब भाय॥
शान्त ह्वै जाव सुनो चितलाय। आवरण पर जिनके सुख पाय॥
रहें हम तुम सब ही हर्षाय। सहायक इनके गे घबराय॥
इन्हैं भी दुख व्याप्यौ कछु जाय। कूदना ऊपर का यह भाय॥
न होवै चलो लंकपर धाय। बन्द उछर व तब होवै भाय।१४२०।
जाँय पृथ्वी आवरण समाय। चलैं लै सैना दोनों भाय॥
हाथ धनुबाण लिये हर्षाय। उड़ै तहँ धूरि पगन की भाय॥
अंधेरिया ह्वै गई नहीं देखाय। नाम की सिद्धि रूप बनाय॥
चलै संग मार्ग न भूलै भाय। गर्द गुब्बार कहा नहि जाय॥
सूर्य्य के तेज क पता न भाय। पहुँचि सब उदधि के तटपर जाँय।१४३०।
पवन से कहैं राम सुखदाय। बेग तुम आपन खींचो भाय॥
करै स्नान मेरा कटकाय। खींचि लै पवन बेग हर्षाय॥
करैं अस्नान ऋक्ष कपि धाय। लगावैं डुब्बी पैरैं धाय॥
उदधि लहरी नहि लेवै भाय। डफैया खेलैं कपि ऋक्षाय॥
जीव हों दुखी बारि के भाय। लगै नख जिनके तन पर भाय।१४४०।
मनहुँ बरछी कोइ दीन चलाय। उदधि तब आवै प्रभु ढिग धाय॥
रूप ब्राह्मण का बृद्ध बनाय। परै चरनन में कहै सुनाय॥
प्राण के प्राण आपु सुखदाय। जीव बहु व्याकुल हैं दुख पाय॥
फटकते इधर उधर मूँह बाय। कृपा करि लीजै सबै बोलाय॥
प्राण उन सबके तो बचि जाँय। रोज़ हम लहरिन दें नहवाय।१४५०।
न पेलैं भीतर हे सुखदाय। तरंगैं बन्द किहेन रघुराय॥
रहै सो कारन देंय बताय। बिचारेन कटक थका है भाय॥
शान्ति से लेहैं सबै नहाय। सुनैं यह बचन उदधि के भाय॥
कहैं लक्षिमन ते श्री सुखदाय। कहौ सब से तुम हाँक सुनाय॥
निकसि आवैं जलदी सब भाय। सुनत ही निकसि के आवैं धाय।१४६०।
बैठि जाँय सब तन मन हर्षाय। करैं हरि सुमिरन चित्त लगाय॥
खेल देखैं नाना बिधि भाय। जाँय अस्नान करन दोउ भाय॥
चलैं संग उदधि रूप बृद्धाय। चरन परसैं जस जल रघुराय॥
सबै जीवन के दुख हरि जाँय। घाव कोइ तन में नहिं रहि जाय॥
बढ़े बल दूना हरि किरपाय। करैं अस्नान दीन सुखदाय।१४७०।
लखन तब मलैं अंग हर्षाय। नहाय के निकसैं दोनों भाय॥
खड़े होवैं तन मन हर्षाय। वस्त्र बदलैं तब श्री रघुराय॥
लखन बदलैं अपनौ तब भाय। राम के बसन धोय लें धाय॥
फेरि अपनौ धोवैं तब जाय। दिब्य वै बलकल बसन सोहाय॥
दीन नन्दन बन अति सुखदाय। फटैं नहि मैल होंय चमकाय।१४८०।
जलौ नहि बेधै है वैसाय। जक्त की मर्यादा हित आय॥
धोवते बिधि निषेद को भाय। चलैं श्री राम लखन तब भाय॥
आय सेना में पहुँचैं आय। उदधि तब पीछे फिरि चलि जाय॥
धार में रतन भरे हर्षाय। दोऊ कर साधे खड़ा है भाय॥
दहिन पग ऊपर लेय उठाय। कहै हरि से सुनिये सुखदाय।१४९०।
भेंट यह लीजै दीन की भाय। सुफल मम तन मन नैन हैं भाय॥
पवन सुत कह्यौ रहै गुनगाय। सुनैं यह बैन जगत सुखदाय॥
दया के सागर हैं रघुराय। कहैं लछिमन से सुनिये भाय॥
लेहु लै भेंट दीन दुख जाय। लेंय लै लखन कहैं समुझाय॥
सुनौ तुम उदधि बचन चित लाय। ज़ोर से शब्द न होवै भाय।१५००।
रहै जब तक यहँ पर कटकाय। भजन में बिघन कपिन ऋक्षाय॥
होय तो हम से सहा न जाय। एक ही बाण ते देंव सुखाय॥
न मानौं बचन फेरि मैं भाय। कहै तब उदधि दीन बचनाय॥
दिह्यौ अज्ञा सो करब उपाय। शीश धरि लीन बचन हर्षाय॥
आप के हम अधीन हैं भाय। जिआओ मारो तुम सुखदाय।१५१०।
देंह औ प्राण तुम्हारो आय। लखन यह बैन सुनैं हर्षाय॥
उदधि को उर में लेंय लगाय। कहैं तुम जाव आवरण भाय॥
करैं हम सुमिरन हरि उरलाय। होय निश्चिन्त कटक दोउ भाय॥
आय तब चण्डी देवी जाँय। मिठाई भाँति भाँति सुखदाय॥
कन्द फल मूल व मेवा लाय। संग में बीर योगिनी भाय।१५२०।
धरे सब शिरन पै मन हर्षाय। खड़े होवैं दोनों सुखदाय॥
करैं परनाम चरन शिर नाय। देंय आर्शीबाद तब माय॥
विजय होवै तुम्हरी रघुराय। थार सब प्रभु ढिग धरि दें आय॥
कहैं दोउ भाई मन हर्षाय। मातु बड़ि किरपा कीन्हेउ आय॥
बिना माता के कौन सहाय। करैं घर बन बिदैश में आय।१५३०।
नहीं निशि वासर भूलैं माय। कहैं चण्डी तन मन हर्षाय॥
रोज़ सब वस्तु देव पठवाय। लड़ाई जब तक हो रघुराय॥
हमारे तरफ से भोजन आय। चलत में छाती लेंय लगाय॥
राम औ लखन को चण्डी माय। देंय सब कटक को आशिषाय॥
जीतिहौ सब रावण दुखदाय। प्रेम से पावैं सब हर्षाय।१५४०।
स्वाद अति ही बिचित्र सुखदाय। आय सामुद्र कहैं रघुराय॥
संदेशा सुनिये चित्त लगाय। कह्यौ है राघव मच्छ सुनाय॥
सुनाओ मेरी बिन्ती जाय। राति औ दिवस रहौं गुन गाय॥
दर्श के खातिर मन ललचाय। ध्यान में दर्शऩ होत हैं भाय॥
आप अब साक्षात गये आय। कृपा करि हुकुम देंय सुखदाय।१५५०।
आप जल ऊपर दर्शन पाय। होय तब मन नेत्रन सुफ़लाय॥
निरखि छबि श्याम सुहावन भाय। सेतु मेरे तन का ह्वै जाय॥
उतरि जाँय कटक सहित सुखदाय। कृपा निधि के परताप से भाय॥
परा मैं रहौं जलै पर आय। नहीं ताकत है मेरी भाय॥
नाम प्रभुहीं के बल कछु भाय। प्राण तन मन सब हरि का आय।१५६०।
और दूसर को है सुखदाय। सुनै प्रभु बचन मच्छ के भाय॥
कहैं धनि धन्य भक्त मच्छाय। दर्श हम उनको देवैं जाय॥
करैं इच्छा पूरी हर्षाय। आइहैं इसी देह से भाय॥
कह्यौ जब अर्द्ध रात्रि ह्वै जाय। अगर जो वै ऊपर चलि आय॥
सबै जीवन को दुख हो भाय। रास्ता सब जीवन रुकि जाय।१५७०।
इधर ते उधर जाँय किमि भाय। जाय के उदधि देंय समुझाय॥
सुखी तन मन से हो दुख जाय। कहैं लछिमन सुनिये सुखदाय॥
सेतु एक या में देव बंधवाय। बड़ा परतापी रावण भाय॥
न बांध्यौ सेतु कौन कठिनाय। कहैं प्रभु सुनिये लछिमन भाय॥
बिधाता की इच्छा नहि आय। समय पर काम होय सब आय।१५८०।
ठीक संघटन सबै भिड़ि जाय। जानते हौ सब लछिमन भाय॥
बात लरिकन कस करत बनाय। कहै लछिमन सुनिये सुखदाय॥
आप की माया देत भुलाय। लोक बिधि के हर के शेषाय॥
इन्द्रपुर चारौं बैकुण्ठाय। रही सब जग में धूम मचाय॥
नहीं पहुँचै साकेत को भाय। करै अभिमान नेक जो भाय।१५९०।
गिराय के छाती बैठै धाय। आपके चरणन चित्त लगि जाय॥
बचै सोई प्राणी सुखदाय। न ज्ञानी ध्यानी कोई भाय॥
आप चाहैं तस देंय बनाय। कहैं रघुनाथ सुनो मम भाय॥
प्रेम की बात तुम्हैं समुझाय। प्रेम जा के तन मन ह्वै जाय॥
निरखि कै लीला कहि नहि पाय। हमारा रूप प्रेम है भाय।१६००।
रहै सब जगह सुनो चित लाय। जगत के कार्य्य में प्रेम लगाय॥
न पावै हम को कोई भाय। प्रेम यह दुनियावीहै भाय॥
फंसावै अधिक अधिक अरुझाय। प्रेम सांचा जौ करत है भाय॥
उसी को हर दम हम दर्शाय। प्रेम से ठौरे हम प्रगटाँय॥
प्रेम में प्रेम मिलै जब भाय। अखण्डित धुनी नाम मम पाय।१६१०।
जाय वह अमर पुरी हर्षाय। गुरु के बचन हृदय में लाय॥
करै कामना न कोई भाय। उसी के संग खेलैं हम जाय॥
खाँय जल पीवैं तन लपटाय। लेव तुम नल नीलै बोलवाय॥
जानते हैं वे सेतु उपाय। कार्य्य यह कौन कठिन है भाय॥
बड़ी आसानी से बंधि जाय। बुलावैं लछिमन दोनो भाय।१६२०।
आय के चरन परैं हर्षाय। उठैं औ कहैं सुनो सुखदाय॥
हमै क्या आज्ञा कहौ सुनाय। करैं हम दोउ तन मन हर्षाय॥
न लावैं देर नेकहू भाय। कहैं लछिमन सुनिये दोनों भाय॥
सेतु तुम उदधि में देहु बनाय। पार सब चलौ कटक सुखदाय॥
जगत में कीरति तुमरी छाय। कहैं दोउ भाई शीश नवाय।१६३०।
आप की किरपा सब बनि जाय। कहौ सब कपि ऋक्षन से भाय॥
गिरिन को लावैं झट पट धाय। वाँधने में नहि देरी भाय॥
देखिहौ स्वामी मन हर्षाय। श्राप की आशिष ह्वै गई आय॥
कृपा निधि की इच्छा यह भाय। कहैं तब लछिमन कटक ते भाय॥
लै आओ पर्वत जहँ तहँ धाय। बांधिहैं सेतु को नल नीलाय।१६४०।
उतरि सब चल्यौ पार सुख पाय। सुनत ही धावैं कपि ऋक्षाय॥
छुवैं पर्वत को हरि कहि भाय। उठावैं जस पर्वत को धाय॥
उठै वह रूस फूल सम भाय। लै आवैं गहैं नील नल भाय॥
धरैं जल पर धरतै उतराँय। इधर और उधर हठै कछु भाय॥
शान्त हो उदधि ठीक ह्वै जाय। बध्यौ पुल सवा पहर में भाय।१६५०।
नाम परताप कहा नहिं जाय। आँय तँह शम्भु संग गिरिजाय॥
परैं प्रभु लखन चरन पर धाय। कटक सब बार बार शिर नाय॥
परै चरनन में तन उमगाय। शम्भु गिरिजा दें आशिष भाय॥
कार्य सब सिद्ध होय रघुराय। कहैं प्रभु सुनिये जग पितु माय॥
लालसा एक मेरे उर आय। आपकी मूर्ति यहाँ पधराय।१६६०।
नाम रामेश्वर धरिहैं भाय। नाम हमार तो राम कहाय॥
हमारे ईश्वर तुम सुखदाय। इसी से रामेश्वर मैं भाय॥
धरौं यह नाम बड़ा मुददाय। हमारे पूर्वज भयो जो भाय॥
पूजते थे तुम को हर्षाय। आप तो भोलानाथ कहाय॥
दया के सागर हौ सुखदाय। नहीं तनकौ परदा है भाय।१६७०।
बसे हौ मम हिरदय सुखदाय। कहैं शिव बार बार हर्षाय॥
किह्यौ तुमरे मन में जो आय। करत हौ भूतल प लीलाय॥
कहैं कछु ताते हमहूँ भाय। नहीं तो कौन तुम्हैं लखि पाय॥
देव मुनि ध्यान समाधि लगाय। धरत हौ भक्तन हित तन आय॥
निरखि कै शोभा हृदय समाय। आपके सबै अंश कहवाय।१६८०।
बड़ाई आपै देत हौ भाय। राव को रंक करौ छिन भाय॥
रंक को राव न देर लगाय। नाम परताप तुम्हारो भाय॥
रहे सुर मुनि तन मन हर्षाय। बड़ेन का काम यही है भाय॥
आप छोटे बने और बड़ाय। लिह्यौ हरि रावन को बुलवाय॥
और सीता माता सुखदाय। बड़ा मम भक्त है रावन राय।१६९०।
करावै स्थापन सुखदाय। वेद की कृत्य जौन कछु आय॥
जानता सब रावण है भाय। आइहै खुशी से रावण धाय॥
प्रेम उर में अति नहीं समाय। आइहैं संग जानकी माय॥
प्रतिष्ठा बाद फेरि फिरि जाँय। बिजय करि चलो अवध हर्षाय॥
संग लै चलो जानकी माय। बात इतनी कहि हर गिरजाय।१७००।
होंय अन्तर वँह ते तब भाय। कहैं प्रभु सुनिये लछिमन भाय॥
लै आओ रावण संग सीताय। बुलाये और किसी के भाय॥
न आवै मानो मन हर्षाय। भक्त शिव गिरिजा का है भाय॥
फेरि ब्राह्मण शरीर को पाय। दीन बनिकै तुम जाओ भाय॥
किहेव परनाम दोऊ कर लाय। धनुष औ बान को कान न भाय।१७१०।
खालि ही हाथ जाओ तुम धाय। सुनैं यह बचन लखन हर्षाय॥
चलैं शिर चरनन धरि सुख पाय। पवन सुत लक्षिमन के ढिग जाय॥
कहैं तन मन ते अति हर्षाय। प्रथम मिलि लिहेव बिभीषण जाय॥
संग में जावैंगे वे भाय। भक्त हैं शान्त शील सुखदाय॥
प्रभू का भजन करैं चितलाय। शुकुल स्फटिक क गृह हैं भाय।१७२०।
देखिकै नैन जाँय चौधांय। खुदे अक्षर रंग भरा है भाय॥
कीन यह लीला विश्वकर्माय। राम के नाम में चहुँ दिश भाय॥
भरा है लाल रंग सुखदाय। वहाँ बहु तुलसी के बृक्षाय॥
मनोहर हरे हरे सुखदाय। मुहारा तीनि बने हैं भाय॥
पूर्व पश्चिम उत्तर सुखदाय। वही गृह उनका जान्यौ भाय।१७३०।
और गृह रंग रंग परैं दिखाय। पुरी ढिग लछिमन पहुँचैं जाँय॥
लिखा तँह नाके नाके भाय। जहाँ जो जाना चाहै भाय॥
वहाँ को चला जाय पढ़ि पाय। गई रावण गृह सन्तर भाय॥
मध्य लंका में भवन सोहाय। गड़ा ऊपर झण्डा फहराय॥
लाल रंग रेशम शोभा छाय। कसीदा सोने तार क भाय।१७४०।
बना सुन्दर ता में चमकाय। लिखा दिग्बिजयी रावण भाय॥
नागपुर सुर पुर नर पुरजाय। भवन के दक्षिण दिशि पर भाय॥
बिभीषण का गृह परत दिखाय। पढ़ैं औ चलैं लखन सुखदाय॥
बिभीषण के गृह पहूचैं जांय। बिभीषण बैठ तख्त पर भाय॥
रहे मन राम नाम को ध्याय। देखि लछिमन को हिय हर्षाय।१७५०।
मिलैं चट उर में उर को लाय। कहैं सब हाल लखन समुझाय॥
बिभीषण सुनैं ध्यान दै भाय। बिभीषण कहैं सुनो सुखदाय॥
कार्य प्रभु किरपा सब बनि जाय। करौ जल पान कृपा करि भाय॥
दूध फल मेवा लीजै पाय। वस्तु सब आपकी कृपा भराय॥
नहीं कछु कमती सुनिये भाय। कहैं लछिमन कछु भूख न भाय।१७६०।
न मानै लै धरि देवै आय। अगर कछु भेद मानिहौ भाय॥
न पैहैं हम दुख तन अधिकाय। बैन लछिमन सुनि के भाय॥
लेंय कछु फल मेवा को पाय। आरती करैं कपूर को लाय॥
बिभीषण तन मन ते हर्षाय। छटा गइ हिरदय माहिं समाय॥
भक्त दोनों प्रभु के सुखदाय। चलैं रावण के गृह को भाय।१७७०।
बिभीषण लखन मनै हर्षाय। कहैं लछिमन तब बचन सुनाय॥
बिभीषण सुनो बताओ भाय। फूँकिगे लंका हनुमत आय॥
कहूँ कछु चिन्ह न परत दिखाय। बिभीषण कहैं सुनो सुखदाय॥
दीन विशकर्मा फेरि बनाय। पहुँचिगे रावण भवन में जाय॥
लिखा तँह शिव शिव भवन सुहाय। हरे स्फ़टिक के भवन पै भाय।१७८०।
सोवरन पत्र जड़े सुखदाय। रुपहरे अक्षर क्या बनवाय॥
भजन हित रावण कीन उपाय। बैठ तहँ भजन में रावण राय॥
दैखतै ठाढ़ भयो हर्षाय। दोऊ कर जोरि के लछिमन भाय॥
कीन परनाम शीश निहुराय। दशानन आशिष दीन्हों भाय॥
कामना सब पूरन ह्वै जाय। फेरि उर में उर लीन लगाय।१७९०।
नये सिंहासन पर बैठाय। बिभीषण करि प्रणाम को भाय॥
बैठिगे लखन निकट हर्षाय। कहै रावण सुनिये सुखदाय॥
दर्श भे बहुत दिनन पर आय। जनकपुर धनुष यज्ञ में जाय॥
कीन दर्शन हम दोनों भाय। आज कँह कृपा करी मुददाय॥
राम जी कुशल से हैं सुखदाय। लखन सब हाल कहैं हर्षाय।१८००।
प्रतिष्ठा हेतु बुलावन आय। शम्बु गिरिजा कहिगे हर्षाय॥
काम यह रावण दे करवाय। जानकी मातु को लै कर भाय॥
संग चलिये मेरे हर्षाय। होय गठि बन्धन संग रघुराय॥
नहीं तो कार्य्य सरै नहिं भाय। फेरि संग में लै आओ भाय॥
युद्ध करि जीति कै प्रभु लै जाँय। सुनै ये बैन दशानन राय।१८१०।
हर्ष हिरदय में नहीं समाय। कहै कछु पावो लछिमन भाय॥
चलैं अबही नहिं देर लगाय। कहैं लछिमन हम आये पाय॥
बिभीषण से तुम पूछौ भाय। न मानै फल औ मेवा लाय॥
देय शिव मूर्ति को भोग लगाय। प्रगट शिव गिरिजा होवैं आय॥
कहै को शोभा भवन कि भाय। शम्भु कर थार को लेंय उठाय।१८२०।
करैं अर्पन श्री राम को भाय। आय प्रगटैं सुन्दर सुखदाय॥
जानकी संग में रहीं सोहाय। पाय प्रभु लेवैं प्रेम से भाय॥
फेरि सीता माता हर्षाय। शम्भु तब सब को दें हर्षाय।
आपु गिरिजा पावैं हर्षाय। देखि यह चरित दशानन भाय॥
कहैं धनि धनि लछिमन सुखदाय। आपकी किरपा से मोहिं भाय।१८३०।
आज यह प्राप्त भयो सुख आय। कहैं लछिमन सुनिये चित लाय॥
शम्भु की दाया है यह भाय। बिना शिव की सेवा कोइ भाय॥
प्रभु को नहीं सकै अपनाय। आप की सच्ची भक्ती आय॥
दरस करवायो हम को भाय। भाव तुम्हरा जस शिव में भाय॥
वैस जग में को करिये आय। चढ़ायो कोटि दफे शिर भाय।१८४०।
आपकी सरबरि को करि पाय। शम्भु औ प्रभु की लीला भाय॥
तौन जानै जेहिं देंय जनाय। नहीं तो अति दुस्तर है भाय॥
जीव छिन ही में जाय भुलाय। दशानन चरन परै हर्षाय॥
राम सीता शिव उमा के भाय। देंय आशिष चारों सुखदाय॥
जौन इच्छा सोई फल पाय। बिभीषण लखन दोऊ हर्षाय।१८५०।
परैं चारों देवन पग धाय। मिलै आशिष तन मन हर्षाय॥
होंय अन्तर चारों सुखदाय। लखन के पगन को रावण राय॥
छुवन चाह्यौ पर छुवन न पाय। कहैं लछिमन सुनिये मम भाय॥
आप ब्राह्ण हम ठाकुर आँय। जगत की मर्य्यादा यह आय॥
मेटि हम नहीं सकत हैं भाय। राम शिव सीता गिरिजा भाय।१८६०।
पूज्य सब जग के हैं सुखदाय। हमारा दास भाव है भाय॥
हमैं यह अनुचित परत दिखाय। टहलुआ स्वामी बनै जो भाय॥
नरकहू गये ठौर नहिं पाय। आप तो वेद शास्त्र को भाय॥
पढ़े हौ तुमको को समुझाय। तयारी करो चलन की भाय॥
प्रतिष्ठा होवै शिव पधराय। सुनै रावण तन मन हर्षाय।१८७०।
प्रतिष्ठा की ले वस्तु मंगाय। चलै रथ को लै लखन बिठाय॥
बिभीषण जाँय भवन हर्षाय। बाटिका अशोक रथ ठहराय॥
उतरि कै लखन संग हर्षाय। चलै आगे रावण तब भाय॥
लखन पीछे पीछे सुखदाय। मातु के ढिग जब पहुँचैं जाय॥
परैं दोऊ जन चरनन धाय। देंय आशिष कहैं सिय सुनाय।१८८०।
कहाँ आये रावण लखनाय। देंय लछिमन सब हाल बताय॥
हर्ष से चलैं जानकी माय। बैठ जाँय रथ में सीता आय॥
गोद में लछिमन रहे सुहाय। उड़ावै रथ रावण हर्षाय॥
जाय के प्रभु ढिग पहुँचैं जाय। कूदि के रथ पर ते तब भाय॥
चरन में परै हिया हर्षाय। उठाय के प्रभु उर लेंय लगाय।१८९०।
फेरि कर शिर पर पास बिठाय। लखन औ माता उतरिं के आय॥
चरन पर परैं बोलि नहिं जाय। उठैं औ बैठैं मन हर्षाय॥
कहैं तब राम लखन ते भाय। बहुत जलदी आयो सुखदाय॥
कौन बिधि गयो देव बतलाय। देर कछु नहीं लगी सुखदाय॥
कहैं लछिमन आपै किरपाय। देव मोहिं पवन लै गयो धाय। १९००।
न मान्यौ पीठि पै लीन चढ़ाय। उतारय्यौ लंक निकट पै जाय॥
वहाँ की शोभा कही न जाय। वहाँ पर लिखा देखि हम भाय॥
बिभीषण के गृह पहुँचेन जाय। बिभीषण देखि हिया हर्षाय॥
प्रेम से मिलै नैन झरि लाय। कीन जलपान वहाँ सुखदाय॥
चले संग रावण के गृह भाय। गयन जब रावण भवन को भाय।१९१०।
वहाँ की शोभा अति सुखदाय। सोबरन पत्र जड़े सुखदाय॥
हरे स्फटिक के भवन पै भाय। लिखा चाँदी के सम शुकुलाय॥
शम्भु का नाम बिचित्र सुहाय। भीतरौ बाहर छत में भाय॥
देखतै बनै कहन नहिं आय। गयन याही बिधि ते हम भाय॥
दीन साँची प्रभु सब बतलाय। कहैं श्री राम सिया सुखदाय।१९२०।
करौ अस्नान उदधि हर्षाय। चलैं सीता लछिमनहिं लिवाय॥
संग हनुमानहुँ चलि दें भाय। करैं अस्नान मातु सुख पाय॥
फेरि लछिमन हनुमान नहाँय। आय के उदधि चरण परि जाय॥
भेष ब्राह्मण ग्यारह बर्षाय। एक जोड़ी कंगन सुखदाय॥
सोबरण के मणि जड़ित सोहाय। चमक तिनमें ऐसी है भाय।१९३०।
नयन देखत जावैं चौंध्याय। दोऊ चरनन पर धरि के भाय॥
खड़ा कर जोरे शीश नवाय। कहैं माता जग की सुखदाय॥
दीन की भेंट लेहु यह माय। आज धन्य भाग्य हमारो आय॥
चरण परसैं हमहूँ सुख पाय। आवरण के सब जीवन माय॥
भयो अति सुक्ख कहा नहिं जाय। किलोलैं सब मिलि रहे मचाय।१९४०।
एक ते एक लिपटि हर्षाय। सुनैं यह बैन जानकी माय॥
कहैं लछिमन ते लेहु उठाय। उठावैं लखन दोऊ कँगनाय॥
देंय हनुमान को फेरि गहाय। उदधि ते कहैं मातु सुखदाय॥
करौ आवरण में आनन्द जाय। घटै नहिं बढ़ै आवरण भाय॥
सदा अनइच्छित तुम सुख पाय। कहैं समुद्र सुनो मम माय।१९५०।
बचन एक और मेरे मन आय। बंधायो सेतु श्री सुखदाय॥
चरण परिगे हैं प्रभु के आय। युद्ध तक रहै सेतु यह भाय॥
फेरि या को दीजै तुड़वाय। नहीं तो दुष्ट लोग यहँ आय॥
धरैंगे चरण सहा नहिं जाय। टूटि जाई तो हम हर्षाय॥
करब नित पूजन प्रेम से माय। कहैं माता तब बचन सुनाय।१९६०।
तुम्हारी इच्छा दें पुरवाय। चलैं जब जीति अवध सुखदाय॥
पवन सुत तोड़ि दें यहि आय। पवन सुत सुनैं कहैं हर्षाय॥
कौन यह कार्य्य बड़ा है माय। एक ही पग दाहिन धरि माय॥
तूरि हम बीच में देंय गिराय। रहै तब ही तक पुल सुखदाय॥
फेरि रहि सकै नहीं यह जाय। लड़ाई हो समाप्त जहँ माय।१९७०।
श्राप का योग निकल तहँ जाय। फेरि नल नील की नहीं उपाय॥
धरैं पाथर जो जल उतिराय। प्रभू सब हमैं दीन बतलाय॥
दास से स्वामी कहूँ छिपाय। होय सच्चा सेवक सुखदाय॥
भीतरौ बाहेर सब लखि पाय। नहीं कोइ अन्तर हमसे माय॥
लोक मर्य्यादा हित प्रभु आय। जौन कछु मन में प्रभु के आय।१९८०।
एकता आतम की ह्वै जाय। तार एक तार होय सुखदाय॥
कहैं पीछे से बचन सुनाय। आप माता औ पितु रघुराय॥
आप ते सब कोइ उपज्यौ माय। आपका नाम मकार कहाय॥
रकार के संग में शोभा छाय। राम अस नाम बन्यौ सुखदाय॥
जपैं जाको हरि शिव शेषाय। रकार के अन्तरगत भी माय।१९९०।
मकार के अन्तरगत रा आय। एकता छूटि सकै नहि माय॥
रकार मकार नहीं बिलगाय। मंत्र का नाम पुरुष है माय॥
मंत्र की शक्ती मातु कहाय। रकार को बीज कह्यौ शिव गाय॥
बृक्ष अन्तरगत वा के माय। राम अस नाम बृक्ष भा माय॥
बीज ता में फिर प्रगटे आय। रकार के अन्तरगत तुम माय।२०००।
जपै मुक्ती भक्ती सो पाय। जपै जो दुइ अक्षर चित लाय॥
रहै जग में दर्शन हों माय। नाम निर्गुण एक अक्षर आय॥
नाम सर्गुण दुइ अक्षर माय। जपैं जोगी जन रा को माय॥
और सब जपैं मकार मिलाय। एक ते सत्य लोक देव माय॥
औ दुइते बैकुण्ठै तक जाय। अकथ यह लीला को कहि पाय।२०१०।
जहाँ तक बतलायो सो गाय। सुनै यह बचन उदधि सुखदाय॥
हर्ष करि चरण परै फिर धाय। बिहंसि कर माता उर में लाय॥
दीन कर शिर पर दहिन फिराय। चह्यो लछिमन हनुमान के धाय॥
छुवैं हम चरन छुवन नहिं पाय। लखन ने रोक दीन समुझाय॥
बड़ा अनुचित होई यह भाय। समुझि कै हाथ जोड़ शिर नाय।२०२०।
गयो आवरण में तुरत समाय। चलैं सीता माता सुखदाय॥
लखन पीछे हनुमान सहाँय। आयकै कटक मध्य हर्षाय॥
बैठि जाँय शान्ति रूप सुखदाय। जाय रावण स्नान को भाय॥
लौटि आवै बैठे हर्षाय। लखन ते कहैं राम सुखदाय॥
मंगावो कन्द मूल फल भाय। मिठाई मेवा बहु बिधि आय।२०३०।
रोज चण्डी माता पठवाय। चुकै नहिं कटक के पाये भाय।
शाम को दें समुद्र ढिलवाय। खाँय जल जीव खुशी से भाय॥
रहे हैं जल में अति सुख पाय। धरी सुग्रीव के पास में भाय॥
बाँटते अंगद हैं हर्षाय। हुकुम दें जाम्वन्त सुखदाय॥
पवन सुत देवैं हाँक सुनाय। आय सब कटक लेय हर्षाय।२०४०।
पाय के पूरण हों सब भाय। देव सीता रावण को भाय॥
आपु पावो तन मन हर्षाय। लेंय दुइ लछिमन तार मंगाय॥
लै आवैं अंगद तहँ हर्षाय। एक मैं कन्द मूल फल भाय॥
एक में मेवा और मिठाय। कहैं श्री राम भक्त सुखदाय॥
पाइये रावन मन हर्षाय। कहै रावन वैसे नहि पाय।२०५०।
आपु पहिले कछु लीजै पाय। फेरि सीता माता लें पाय॥
मिलै परसादी तब सुखदाय। लखन कि किरपा ते रघुराय॥
मिला आनन्द कहा नहिं जाय। राम फल कन्द मूल कछु पाय॥
मिठाई मेवा कर परसाय। सिया तब कन्द मूल फल पाँय॥
छुवैं मिष्ठान्न व मेवा भाय। लखन को देंय मातु हर्षाय।२०६०।
पवन सुत को दें जगत की माय। कटक में बंटै सबै हर्षाय॥
करैं सब जय जय कपि ऋक्षाय। राम सीता नाम सुनाय॥
रहा सब लोकन शब्द सुनाय। हर्ष रावन के तन मन आय॥
प्रेम से पावै खूब अघाय। शाम को सन्ध्या बन्दन भाय॥
करैं सब कटक सहित रघुराय। बजैं जब ग्यारह श्री रघुराय।२०७०।
कहैं हनुमान से बचन सुनाय। कटक में दीजै हाँक सुनाय॥
करैं सब शयन ऋक्ष कपि भाय। देंय हनुमान हाँक तहँ भाय॥
शयन कीजै सब जन सुखदाय। राम सीता को मन में ध्याय॥
शान्ति से सोय जाँय सुख पाय। पवन सुत पास में बैठैं जाय॥
राम के चरण पकरि हर्षाय। चापते लछिमन हैं सुखदाय।२०८०।
लगे बजरंग चापने भाय। कहैं हनुमान ते लछिमन भाय॥
दहिन सब अंग हमारो आय। कहैं हनुमान लखन सुखदाय॥
बाम यह अंग बड़ा वीराय। दहिन तो अंग वड़ा कहवाय॥
सिर्फ भोजन जल आदर भाय। युद्ध में बाम अंग सुखदाय॥
रहै आगे पीछे नहिं जाय। कहैं प्रभु मन्द मन्द मुसुकाय।२०९०।
दोऊ जन समता के हौ भाय। सुनै रावण औ बैठै आय॥
चरण प्रभु के पकड़ै हर्षाय। कहैं हनुमान लखन सुखदाय॥
आप तो रोज़ करत सेवकाय। प्रार्थना हमरी मानौ भाय॥
जाँय हमहूँ कछु तन फल पाय। सुनैं हनुमान लखन सुखदाय॥
दीन अति बचन दशानन राय। दोऊ जन प्रभु चरनन परि भाय।२१००।
हर्ष करि उठैं प्रेम उर छाय। लखन तो पास में पौढ़ै भाय॥
ध्यान में निद्रा जाय हेराय। पवन सुत राम नाम सुखदाय॥
सुमिरि के बैठैं लूम बढ़ाय। किनारै कटक के मानो भाय॥
किहे मुख लंका की तरफ़ाय। कोट अस बनै लूम को भाय॥
न कोई भीतर बाहेर जाय। ध्यान में मस्त रहैं सुखपाय।२११०।
रहैं सन्मुख प्रभु सीता माय। चरण दावै रावण हर्षाय॥
कहै प्रभु काहे देर लगाय। दिवस एक कल्प समान बिताय॥
नहीं कछु हमको यहाँ सोहाय। कृपा करि पठवो श्री सुखदाय॥
विनय यह मानो मन हर्षाय। कहैं प्रभु सुनो बचन चित लाय॥
समय पर सबै काम हो आय। समय के बिना करैं जो भाय।२१२०।
तुम्हारी कीरति को जग गाय। धरौ धीरज मन में हर्षाय॥
देर अब कछू नहीं है भाय। सुनै रावन प्रभु बचन को भाय॥
होय अति सुखी बोलि नहिं पाय। कहैं प्रभु करौ शयन अब जाय॥
बजे बारह मानो बचनाय। बजैं जहँ दुइ सब कटक नहाय॥
इष्ट अपने को सुमिरै आय। सुनै यह बचन राम के भाय।२१३०।
करै तब शयन दशानन जाय। बजैं जँह दुइ तहँ शब्द सुनाय॥
हाँक हनुमान कि जानौ भाय। उठैं सब शौच क्रिया को जाँय॥
फेरि सामुद्र के तट पर आय। हाथ पग धोवैं मिट्टी लाय॥
करैं परभाती कुल्ला भाय। फेरि अस्नान करैं हर्षाय॥
जाँय सब निज निज आसन धाय। उठैं तब राम लखन सीताय।२१४०।
संग रावण हनुमान सोहाँय। करैं नित की किरिया जो आंय॥
फेरि अस्नान मनै हर्षाय। आय के बैठैं आसन भाय॥
इष्ट अपने में सब चित लाय। प्रगट शिव गिरिजा होवैं जाय॥
राम ही लखैं और नहिं भाय। करैं परनाम श्री रघुराय॥
कहाँ किरपा कीन्हीं सुखदाय। कहैं हर सुनिये सब के राय।२१५०।
मूर्ति मैदान में मम पधराय। प्रगट हों लव कुश तव पुत्राय॥
बनावैं मन्दिर मन हर्षाय। श्याम रंग लव तुम सम सुखदाय॥
मातु के रंग के कुश हो भाय। होंय अति शूर बीर दोउ भाय॥
सकै को जीति जगत यश छाय। कहैं शिव उमा बचन हर्षाय॥
होंय अन्तर कैलाश की जाँय। होय जब प्रातकाल सुखदाय।२१६०।
करैं अस्नान सबै हर्षाय। दशानन कहै सुनो रघुराय॥
प्रतिष्ठा होय न देर लगाय। जौन वस्तू लागत जँह भाय॥
तौन हम लाये हैं सुखदाय। आप गठि बन्धन करि हर्षाय॥
मातु संग बैठो मन चित लाय। सुनैं यह बचन जगत सुखदाय॥
कहैं रावन से बचन सुनाय। करो गठि बन्धन तुम हर्षाय॥२१७०।
कृत्य तुम सम को जानत राय। जाँय जब अवध पुरी हम भाय॥
केश सरयू तट उतरैं जाय। तपस्वी भेष में नाऊ आय॥
हमैं गठि बन्धन नहीं कराय। आप सब जानत हौ बिधि भाय॥
तुम्हैं फिर कौन सकै समुझाय। बचन सुनि रावन शीश नवाय॥
करै गठि बन्धन मन हर्षाय। बैठि जाँय पूरब मुख रघुराय।२१८०।
दहिनि दिशि सीता रहीं सोहाय। दशानन पश्चिम मुख करि भाय॥
बैठिजाय तन मन प्रेम लगाय। रेणुका गंगा जी का भाय॥
दूध गोधृत काले तिल लाय। मिलाय के एक में मूर्ति बनाय॥
सहित अर्घा सुन्दर सुखदाय। वस्त्र एक शुकुल ओढ़ाय के भाय॥
पढ़ै फिरि वेद मंत्र हर्षाय। देय गंगा जल छींटा लाय।२१९०।
कहै प्रभु खोलौ मन हर्षाय। देंय प्रभु खोलि प्रेम से भाय॥
सहित अर्घा शिव मूर्ति सोहाय। श्याम रंग चमकीली सुखदाय॥
सहित अर्घा पत्थर ह्वै जाय। मूर्ति यकइस अंगुल सुखदाय॥
नाम रामेश्वर राम सुनाय। करावै बिधिवत कृत्य को भाय॥
तीन दिन में धुनि वेद सुनाय। धूम तहँ जय जय कार कि भाय।२२००।
फूल तहँ बरसैं सुर हर्षाय। करैं पैकरमा श्री रघुराय॥
सहित सीता के मन हर्षाय। फेरि दंडवत करैं शिरनाय॥
बैठि जाँय कर जोरे सुखदाय। लखन रावन सब कटकहु भाय॥
करै पैकरमा मन हर्षाय। दंडवत करि सब बैठैं भाय॥
प्रेम से तन मन अति पुलकाय। कहैं श्री राम दशानन राय।२२१०।
आप पण्डित पूरन सुखदाय। जौन माँगौ सो देवैं भाय॥
हमारे ईश को तुम पधराय। कहै रावन सुनिये सुखदाय॥
आपु की किरपा रहै सदाय। पुत्र धन ग्रह परिवार रजाय॥
सबै मिथ्या प्रभु तुम बिन आय। जाल यह महा कठिन रघुराय॥
आप जेहि चाहैं सो बचि जाय। यही दीजै माँगे सुखदाय।२२२०।
मेरा परिवार तरै हर्षाय। मेरा परिवार तरै हर्षाय॥
मरै जो समर भूमि में आय। जाँय बैकुण्ठ मनै हर्षाय॥
हमैं औ कुम्भकर्ण को भाय। कृपा निधि सुधि न दियो बिसराय॥
याद द्वापर की राख्यौ भाय। जन्मिहैं हम दोनों तहँ आय॥
रहस लीला में परिकै भाय। बिसरि न जायो श्री सुखदाय।२२३०।
सुनैं यह बैन राम रघुराय। प्रेम के भरे हृदय हर्षाय॥
कहैं तब एवमस्तु रघुराय। दीन तुम को माँग्यौ राय॥
बंटै परसाद तहाँ फिर भाय। कौन कहि सकै खात बनि आय॥
पाय सब जल पीवैं हर्षाय। शान्त चित्त सबै कटक सुखपाय॥
कहै रावन तब बचन सुनाय। जाँय प्रभु गृह को अब हम भाय।२२४०।
काम अब रह्यौ नहीं कोइ भाय। शम्भु प्रतिमा पधरी सुखदाय॥
कहैं प्रभु महिमा हर की गाय। करै तन मन से जो सेवकाय॥
दरश पावै शिव उमा के भाय। शम्भु फिर मम ढिग देंय पठाय॥
चढ़ावै गंगोत्री जल लाय। मुक्ति भक्ती ता को मिलि जाय॥
प्रेम निश्चय जा को ह्वै जाय। उसी का काम सरै सब भाय।२२५०।
द्रोह जो शिव से करिहै भाय। नर्क वह एक कल्प भुगताय॥
शम्भु में हम में भेद न भाय। आत्मा एक देह दुई आय॥
भेद करने से नर्क को जाय। अभेद को मुक्ति भक्ति हो भाय॥
सुनै रावन तन मन हर्षाय। चरण पर परै नैन जल छाय॥
उठावैं प्रभु उर लेवैं लाय। बरनि को सकै शेष नहिं गाय।२२६०।
कहैं प्रभु सुनो दशानन राय। गाँठि अब छोरौ हर्ष से आय।
जौन माँगेव सो पायो राय। देर अब काहे रहेव लगाय॥
सुनैं यह बैन दशानन राय। छोरि गठि बन्धन दे हर्षाय॥
कहैं प्रभु सुनिये लछिमन भाय। जाव रावण संग सिय लै भाय॥
देर अब नहीं करो सुखदाय। पठय कर लौटो मन हर्षाय।२२७०।
जानकी प्रभु चरनन परि जाँय। चलैं लछिमन संग मन हर्षाय॥
बैठि जावैं रथ पर तब भाय। परै रावन प्रभु चरनन धाय॥
उठै औ रथ पर बैठै जाय। उड़ावै रथ को फिरि हर्षाय॥
पहुँचि अशोक बाटिका आय। उतरि माता बैठें सुखदाय॥
उतरि लछिमनहुँ परैं हर्षाय। बैठि जाँय माता ढिग सुखपाय।२२८०।
दशानन सिया चरन शिर नाय। लखन को उर में लेंय लगाय।
चलैं लंका में पहुँचैं जाय। युगुल छबि नैनन गई समाय॥
लखन माता से कहैं सुनाय। जाव हम प्रभु ढिग सुनिये माय॥
परैं चरनन में मन हर्षाय। मातु लें लखन को उर में लाय॥
चलैं जस सौ पग लछिमन भाय। देव तहँ पवन पहुँचि जाँय आय।२२९०।
चढ़ावैं काँधे पर हर्षाय। उतारैं उदधि निकट में आय॥
करैं अस्नान लखन हर्षाय। फेरि प्रभु के ढिग पहुँचैं आय॥
चरन परि बैठैं मन हर्षाय। राम के बांये दिशि सुख पाय॥
देंय प्रभु कन्द मूल फल भाय। पाय लेवैं अति प्रेम लगाय॥
कटक से पूछि सलाह को भाय। कहैं प्रभु दूत लंक कोइ जाय।२३००।
कहै वह रावन से समुझाय। नीति की बातें मन चित लाय॥
न मानै तब यह होय उपाय। लड़ाई ठनै युद्ध हो भाय॥
कहैं तब जाम्वन्त हर्षाय। पठै दीजै अंगद वीराय॥
प्रथम हनुमान गये सुखदाय। काम अस कीन्हो कहा न जाय॥
फेरि लछिमन जी गे हर्षाय। लै आये रावन सीता भाय।२३१०।
प्रतिष्ठा शिव की ह्वै गई आय। भयो आनन्द जगत सुखदाय॥
बालि का तनय बड़ा बलदाय। काम करि आवै देर न लाय॥
कहैं अंगद से श्री रघुराय। जाव गढ़ लंक मनै हर्षाय॥
परैं चरनन में अंगद धाय। चलैं मन सुमिरि राम सीताय॥
जाय माता ढिग पहुँचैं जाय। परैं चरनन में तन उमगाय।२३२०।
सिया कर शिर पर देंय फिराय। उठैं तब उर में लेंय लगाय॥
कहैं जेहि हेतु लंक पुर जाँय। सुनैं माता तन मन हर्षाय॥
चलैं शिर नाय लंक में जाय। बिभीषण के गृह पहुँचैं आय॥
मिलैं दोउ प्रेम से अति हर्षाय। कहैं सब हाल उन्हैं समुझाय॥
बिभीषण कहैं सुनो मम भाय। न मानै रावण यह बचनाय।२३३०।
बड़ा अभिमानी रावण राय। दया को लंक से दीन भगाय॥
कहैं अंगद हम जाय के भाय। चूर मद करिहौं प्रभु किरपाय॥
चलैं अंगद रावण गृह धाय। जाय कर पहुँचि जाय हर्षाय॥
बैठि तहँ बड़े बड़े योधाय। देखि के बोलि सकैं नहिं भाय॥
लगा दरबार कसा कस भाय। बीच में अंगद उड़ि के जाय।२३४०।
दशानन के समुहै पर जाय। खड़े भे नैन में नैन मिलाय॥
कहै रावण तुम कहाँ ते आय। बीच दरबार खड़े न डेराय॥
बिना मम हुकुम न कोई आय। बड़े ताजुब की बात है भाय॥
रोकि नहिं सका तुम्हैं कोइ भाय। पहरुआ सोय गये का भाय॥
खाल उऩ सब की लेंव खिंचाय। अग्नि में जियतै देंव फुँकाय।२३५०।
कहैं अंगद सुनिये बचनाय। नीति को त्यागि के को फल पाय॥
करै राजा अनीति जब भाय। प्रजा के हवा लगै बौराय॥
जाय आँखिन में माड़ा छाय। प्रजा राजा एकै सम भाय॥
दूत हम रामचन्द्र के भाय। संदेशा कहने के हित आय॥
कहै रावन कहिये का लाय। संदेशा हम से कहौ सुनाय।२३६०।
कहैं अंगद तन मन हर्षाय। नीति की बातैं अति सुखदाय॥
सुनै औ हंसे कहै क्या भाय। जाति बानर की हमैं सिखाय॥
न मानै एकौ बचन को भाय। जाँय अंगद तब अति रिसिआय॥
क्रोध ते बदन में लाली छाय। नेत्र अति अरुण कहा नहिं जाय॥
कहैं रावन ते बचन सुनाय। न मानै काल गयो नियराय।२३७०।
राम से कौन लड़ै रण जाय। नाम परताप देखावैं राय॥
काल के काल अकाल कहाय। सर्व व्यापक सुर मुनि गुन गाय॥
चरण दाहिन मैं रोपौं भाय। हटावै जो कोइ योधा आय॥
राम फिरि जाँय अवध को राय। हारि मैं जाऊँ जानकी माय॥
भिड़ैं तहँ शूर वीर बहु आय। टरै पग नहीं चलैं खिसिआय।२३८०।
चलै तब मेघनाद उठि धाय। उठावै नेक न जुम्मस खाय॥
उठै रावन तब अति रिसिआय। गिरैं सब मुकुट धरनि पर आय॥
उठाय के अंगद देंय चलाय। होत परकाश बाँण सम जाँय॥
देखि कै कटक ऋक्ष कपि भाय। कहैं क्या आवत है यह धाय॥
अग्नि सम बरत बहुत लहराय। बड़ी अद्भुत यह लीला भाय।२३९०।
पवन सुत कहैं बचन हर्षाय। दशानन के क्रीटि हैं भाय॥
बालि सुत पग रोप्यौ है भाय। उठाय न सकै कोई योधाय॥
उठा रावन तब क्रोध में भाय। मुकुटि सब गिरे धरनि पर जाय॥
दशौं अंगद ने लीन उठाय। फेंकि दीन्हें कसि जोर से भाय॥
पवन ने हाथ में लीन्हों धाय। पास प्रभु के आवत हैं भाय।२४००।
आय जब पास गये नियराय। पवन सुत दोउ हाथन लियो धाय॥
धरयो श्री राम ब्रह्म ढिग जाय। उजेरिया छाय मणिन की भाय॥
कहैं अंगद रावण से राय। भयो अति अशकुन तुम्हरो आय॥
राज अब गई हाथ से भाय। दशौं शिर सूने ह्वै गये राय॥
भयो यह अनुभव हम को राय। विभीषण राज्य करैं हर्षाय।२४१०।
गहें मम चरण न उबरौ भाय। परौ प्रभु के चरनन तुम आय।
माफ़ सब खता करैं सुखदाय। दीन की सदा सुनत रघुराय॥
बचन अंगद के सुनि कै भाय। बैठि जाय रावण शिर निहुराय॥
उठैं बहु निश्चर रिसि कर भाय। लपटि अंगद के तन में जाँय॥
बदन अंगद का नहीं देखाय।चहुँ दिशि ते बहु लपटैं आय।२४२०।
उड़ैं सब को लै अंगद भाय। जाँय एक योजन ऊपर आय॥
झिटकि दें सब तन कसि के भाय। गिरैं सब फटा फट मरि जाँय॥
उड़ैं अंगद माता ढिग जाँय। परैं चरनन में अति हर्षाय॥
कहैं सब आपन हाल सुनाय। खुशी होवैं सुनि कै सिय माय॥
पिता जा को जैसा बलदाय। वैस ही पुत्र होत है आय।२४३०।
काज तुम्हीं से यह बनि आय। और से नहीं बनत पुत्राय॥
चरन परि अंगद कहैं सुनाय। जाव अब प्रभु ढिग माता धाय॥
चलैं करि जोरि उड़ैं फिरि भाय। पहुँचि जाँय सागर तट हर्षाय॥
करैं अस्नान चलैं सब धाय। जाय के कटक में पहुँचैं आय॥
करैं परनाम धरनि गिरि भाय। राम के चरन कमल पर आय।२४४०।
बैठि फिरि कहैं हाल सब गाय। सुनैं सब कटक बीर रिसिआँय॥
कहैं रघुनाथ लखन सुखदाय। सेन सब सागर उतरै भाय॥
युद्ध की ठना ठनी हो भाय। देरि मत करौ कहौं समुझाय॥
लखन हनुमान से कहैं सुनाय। हाँक एक कटक में देहु लगाय॥
पवन सुत देवैं हाँक सुनाय। चलौ वीरौं उतरौ पुल धाय।२४५०।
होय तय्यार सबै हर्षाय। राम सीता की जय करि भाय॥
पवन सुत राम लखन को धाय। लेंय दोउ काँधेन पर बैठाय॥
चलैं आगे हनुमत सुखदाय। राम सिय नाम लेत हर्षाय॥
सैन सब पीछे हरि गुन गाय। चलैं आनन्द वरनि नहिं जाय॥
पार में पहुँचि जाँय सब धाय। सवा घंटे में मानो भाय।२४६०।
स्वच्छ मैदान मनोहर भाय। बैठि तहुँ जाँय पवन पूताय॥
उतरि काँधेन पर से दोउ भाय। कहैं बैठो सब जन हर्षाय॥
कहैं औ बैठैं प्रभु लखनाय। बैठि सब कटक जाय सुख पाय॥
शीत औ उष्ण न परत बुझाय। नाम परताप रह्यौ तहँ छाय॥
दु:ख औ सुक्ख की समता आय। एक ही तत्व ऋक्ष कपि भाय।२४७०।
मंदोदरि रावन के ढिग जाय। बैठि शत खण्डा पर शिर नाय॥
दोऊ कर जोरि दीनता लाय। कहैं पिय सुनिये मम बचनाय॥
कहै रावन कहिये सुखदाय। जौन इच्छा होवै हर्षाय॥
वही हम करैं न देर लगाय। शोच काहे को तुम मन लाय॥
राज्य धन पुत्र पौत्र बहु आय। कौन कमती तुम को बतलाय।२४८०।
प्रिया मम प्राणन सम सुखदाय। बताओ देर रहीं क्यो लाय॥
कहै मन्दोदरि मन हर्षाय। प्रभु से बैर न कीजै राय॥
चराचर सब के मालिक आँय। सर्व व्यापक सब को उपजाय॥
बिष्णु शिव ब्रह्मा जिनको ध्याय। रहे हैं सुर मुनि सब गुन गाय॥
कृपा प्रभु की से सब बल पाय। देत हैं श्राप औ आशिष राय।२४९०।
एक हनुमान लंक में आय। नाम परताप को दीन देखाय॥
फूँकि सब लंका दीन्हेव राय। चल्यौ नहिं आप को कोइ उपाय॥
आप औ मेघनाद योधाय। बीरता बेचि लिहेव का राय॥
मनै जो पवन तनय को ध्याय। बचे सो हैं सब जानत राय॥
पुरी लंका जब विनय सुनाय। कूदि तब पवन तनय गे राय।२५००।
मारि आधे निश्चरन को धाय। फूँकि कै खाक कीन कपि आय॥
जरी गर्भिणी बहुत दुख पाय। कहाँ तक कहौं कहा नहिं जाय॥
जियति में आप के यह दुख आय। पुरी में परय्यौ बिचारौ राय॥
आप तो पण्डित ह्वै सुखदाय। नीति को लंक से दिहेव भगाय॥
एक निशि सब चपरे में राय। पड़े भूखे प्यासे अकुलाय।२५१०।
कीन विश्वकर्मा फिर किरपाय। पुरी सब वैसे दीन बनाय॥
आय फिरि अंगद पाँव अड़ाय। दीन सब वीरन गर्व लचाय॥
उठाय न सक्यौ कोई पग राय। रहे तहँ बैठे बहु योधाय॥
सुनो जिनके अस दूत हैं राय। भला मालिक से को लड़ि पाय॥
बचन मेरे मानो हर्षाय। नहीं अब हीं कछु बिगरय्यौ राय।२५२०।
सिया को दीजै प्रभुहिं गहाय। परौ चरनन में सब बनि जाय॥
उधारन अधमन के रघुराय। दीन की सदा सुनत सुखदाय॥
चलौ जानकी मातु लै राय। चलैं पीछे हमहूँ हर्षाय॥
दर्श करि मातु पिता के राय। होय तन सुफ़ल कार्य्य बनि जाय॥
विनय हम करिहैं हरि से राय। आप की खता माफ़ ह्वै जाय।२५३०।
आप संग खड़े रहेव शिरनाय। बीसहूँ कर जोरे मम राय॥
चढ़ावो रथ पर सीता माय। चलौ लै देर न कीजै राय॥
रथै सामुद्र के तट ठहराय। चलब फिर पैदर वहँ से राय॥
देखतै कृपा करैं रघुराय। अर्ज यह आप से मेरी राय॥
पकरि कर कहैं पिया सुखदाय। देर अब काहे रहे लगाय।२५४०।
राज धन पुत्र संग नहिं जाय। समै फिर ऐसा मिला न राय॥
सृष्टि का खेल बड़ा दुखदाय। फँसे सो इसी चक्कर खाय॥
चित्त प्रभु चरनन देय लगाय। उसी का आवागमन नशाय॥
जिन्दगी थोड़े दिन की राय। बोय बिष अमृत फल को खाय॥
बचन सुनि मन्दोदरि के राय। क्रोध ऊपर से लीन बनाय।२५५०।
नैन बीसौं की पलक चढ़ाय। झिटिक कर दिहेव डाटि कै राय॥
परी गिरि धरनि डरी अति भाय। भई मुरछा दुइ घरी कि भाय॥
चेति जब भयो बैठि उठि भाय। कह्यो रावन तब बचन सुनाय॥
जाति अबला तू हमैं सिखाय। कहाँ से नीति के पढ़ि कै आय॥
सामने से हटि जा दुखदाय। हमारे समुहे कभी न आय।२५६०।
जैस बतखाव कीन तुइ आय। आज तक हमैं न कोई सिखाय॥
आज तक तू रानी मैं राय। दिखाय मुख नहिं आज से आय॥
पुरुष की नारि होय दुखदाय। त्यागि देवै पर बधै न भाय॥
कहत जो शूर बीर कोइ आय। जीभ मुख ते लेतेंऊ खिचवाय॥
फेरि चौहद्दा पर गड़वाय। निशाना तीरन शिर लगवाय।२५७०।
प्राण यम पुर को फेरि पठाय। देखतेंऊ बैठि हिया हर्षाय॥
बचन रावन के सुनि दुखदाय। मंदोदरि उठि गै शीश नवाय॥
भवन में पहुँचि गई जब जाय। बन्द करि पट भीतर बिलखाय॥
बदन मन व्याकुल रहा न जाय। कण्ठ में खुस्की घेरयौ आय॥
प्रगट भईं सीता माता जाय। शीश पर कर फेरय्यौ हर्षाय।२५८०।
फेरतै कर दुख गयो हेराय। परी चरनन में तन पुलकाय।
उठाय के माता उर में लाय। दीन सब ठीक भविष्य बताय॥
देव कन्याँ जो पाँच कहाँय। बड़ी सब में तुम ही कहवाय॥
समय अब आय गयो सुखदाय। चलो मम पुर बैठौ हर्षाय॥
बड़ा परदा जो यँह पर आय। ठीक हम तुम को दीन बताय।२५९०।
नाम जय विजय पुरातन आय। विष्णु के द्वारपाल दोउ भाय॥
श्राप सनकादिक दीन्हेव आय। पास गे बिष्णु के दोनो भाय॥
बिष्णु ने दीन भविष्य बताय। शम्भु का भजन कीन्ह यहँ आय॥
शम्भु ने परदा दीन हटाय। दशानन सब जानत बचनाय॥
दशानन कुम्भकर्ण दोउ भाय। फेरि प्रगटैं द्वापर में जाय।२६००।
नाम शिशुपाल दन्त बक्राय। होय वँह पर दोउन को जाय॥
लेंय अवतार प्रभू तहँ जाय। नाम श्रीकृष्ण जगत यश छाय॥
मरैंगे हरि हाथन दोउ भाय। जाँय बैकुण्ठ मगन गुन गाय॥
बनावत की रिसि तुम्हैं देखाय। सुनो मन्दोदरि दिहेव हटाय॥
संभारो निज स्वरूप हर्षाय। दीनता उर में रहै सदाय।२६१०।
हुवा संसार में जो कोइ आय। लागि कछु जाति जीव अकुलाय॥
फेरि पर वश यह जीव कहाय। गयो घर भूलि कौन बिधि जाय॥
गुरु हरि किरपा जब मिलि जाय। बतावैं भेद हिया हर्षाय॥
रूप हरि का हर दम सुखदाय। रहै सन्मुख देखत बनि आय॥
नाम धुनि रोम रोम खुलि जाय। रहै निर्भय निर्बैर सदाय।२६२०।
तत्व यह ज्ञान यथारथ आय। नाम में सूरति लेव लगाय॥
एक रस रहौ सदा सुख पाय। शोच को लेश न तन में लाय॥
कीन उपदेश मातु हर्षाय। मन्दोदरि गई परम निधि पाय॥
दिब्य अनुपम सीता रघुराय। सामने सुक्ख न हदय समाय॥
रोम प्रति रोम राम धुनि भाय। निकरती र रंकार सुखदाय।२६३०।
मंदोदरि तन मन ते हर्षाय। करै बिन्ती धनि धनि सिय माय॥
आप की लीला अगम है माय। शेष शारद नहिं सकत बताय॥
आप को आप जानतीं माय। करौ क्या लीला यश जग छाय॥
दीन औ अधमन पर सुखदाय। और को ेकिरपा करिहै आय॥
आपको फिकरि बड़ी है माय। जौन जेहि लायक जीव कहाय।२६४०।
देव जल भोजन वैसे माय। कर्म अनुकूल खात सुख पाय॥
करौ पल में परलय को माय। देव पल में सब फेरि बनाय॥
शरनि में अपनी लिहेव लगाय। बई किरतार्थ आज मैं माय॥
फूटिगा भरम का भाँड़ा माय। अखण्डानन्द आप किरपाय॥
प्रेम का सागर उमरय्यौ आय। मंदोदरि के मुख बोलि न जाय।२६५०।
गिरीं चरनन में मातु के धाय। मातु ने लीन्हेव तुरत उठाय॥
लगायो हिरदय में फिर माय। बैठि गईं माता मन हर्षाय॥
पकरि करि बैठारय्यौ तब माय। मन्दोदरि खड़ी नैन झरि लाय॥
भईं अन्तर माता सुखदाय। मन्दोदरि चली पिया ढिग धाय॥
नहीं शंका चनकौ तन आय। फ़ौज लै चलै लड़ै जिमि राय।२६६०।
नीति से चरन गह्यौ दोउ जाय। जैन मरजाद सनातन आय॥
खड़ी कर जोरि शीश निहुराय। करै बिनती दीनता सुनाय॥
आप स्वामी मेरे सुखदाय। खता मम माफ़ होय दुख जाय॥
कहेन जो अनुजित हम बचनाय। भयो आवेश हमैं कछु आय॥
तरंग में उसकी आप को राय। कहेन अनुचित सो देव भुलाय।२६७०।
आठ अवगुन अबलन उर लाय। पतिब्रत में पूरन जे राय॥
वेद औ शास्त्र आप कण्ठाय। आप को कौन सकै बतलाय॥
खता जो तीन बार ह्वै जाय। माफ़ सुर मुनि करते हर्षाय॥
आप की चेरी मैं सुखदाय। आप मम प्राण के प्राण हो राय॥
सदा आधीन आप के राय। जौन चाहै सो देव सजाय।२६८०।
सुनै यह बैन दशानन राय। लेय मन्दोदरि को उर लाय॥
करै फिर भोजन रावण राय। पदारथ भाँति भाँति सुखदाय॥
मन्दोदरि धरै सामने लाय। थार सोवरण का अति चमकाय॥
जड़े नग बाहेर शोभा छाय। उठै परकाश नैन चौंधाय॥
पियाला सोने के बहु लाय। थार में चहूँ दिशि दीन लगाय।२६९०।
जड़ी हीरन की कनी देखाय। श्वेत परकाश निकलती भाय॥
धरी झारी दस हेम कि भाय। पियै जल तिनमे रावण राय॥
समीप में रानी बैठी आय। चुकै जो वस्तु देय हर्षाय॥
पाय के कीन आचमनि राय। मन्दोदरि बीड़ा बीस लै आय॥
धरय्यौ थाली में समुहे आय। दशानन लीन उठाय के पाय।२७००।
कहै रानी सुनिये सुखदाय। बजे ग्यारह निशि के अब आय॥
जाव तुम उतरि भवन हर्षाय। करौ आराम वहीं सुखदाय॥
यहाँ हम रहैं बहुत सुखपाय। अकेले सुनो प्रिया चित लाय॥
युद्ध करि जीतैं हम रघुराय। प्रेम तब तुम से हो हर्षाय॥
कहै औ चलै दशानन राय। शैन के भौन में पहुँचै जाय।२७१०।
करै तँह शैन शान्त चित लाय। राम छबि नैनन गई समाय॥
मन्दोदरि चलै मनै हर्षाय। करै आराम भवन में जाय॥
निरखि छबि रही न निद्रा आय। भयो तब प्रात काल सुखदाय॥
दशानन नित्य क्रिया करि आय। शम्भु पूजन करि प्रेम लगाय॥
भोग मेवा फल दूध लगाय। पाय परसाद चल्यौ हर्षाय।२७२०।
गयो दरबार में बैठय्यौ जाय। बैठ तहँ बहुत बीर हैं आय॥
बीरता पवन तनय की भाय। ख्याल करि मन ही मन अकुलाय॥
उदासी चेहरन ऊपर छाय। श्री हत भई कहौं का भाय॥
कहै रावन बीरौं सुखदाय। शोच तुम्हरे मन में क्या भाय॥
राति भर जागे हो क्या भाय। रुखाई मूँह पर परत देखाय।२७३०।
न वौलैं कोई तहँ कछु भाय। लीन शिर नीचे को लटकाय॥
बिभीषण उसी समय गे आय। जाय के निकट चरण शिर नाय॥
कहै रावन बैठो सुखदाय। बिभीषण बैठ पास में जाय॥
कहै रावन सुनिये मम भाय। आज सब सभा सुस्त देखलाय॥
न बोलैं कोई मम समुहाय। बिभीषण कहैं सुनौ सुखदाय।२७४०।
शंकइन सबके गई समाय। सुनावौं आप को सुनिये भाय॥
फूँकिगे लंका जिन दूताय। लड़ै तिनसे को समुहे भाय॥
चली कछु किसी कि नहीं उपाय। एक यह सोच सबन जिय छाय॥
दूसरे अंगद आये भाय। सभी बिच पग को दीन अड़ाय॥
उठे तब बड़े बड़े बीराय। हट्यौ पग नहीं गये खिसिआय।२७५०।
समायो डर इनके उर भाय। हारि हिम्मत सब गये हैं राय॥
आपके डर के मारे आय। सभा में बैठे हैं चुपकाय॥
आप ते भागि कहाँ ये जाँय। ठौर इनको कहुँ नहीं है भाय॥
अगर कहुँ भागि के जावैं राय। ढुंढ़ाय के जान से देव मराय॥
मनै मन सब दुखिया पछिताँय। समुझिगे काल गयो नियराय।२७६०।
गयो बल तन से आधा भाय। न मानो पूँछि लेव समुझाय॥
दीन हम सत्य सत्य बतलाय। भला अस जग में को है भाय॥
लड़ै जो सन्मुख प्रभु से भाय। लंक में हमैं न कोई देखाय॥
प्रलय पालन उत्पति जो राय। खेल हरि के बाँये कर आय॥
बिष्णु शिव ब्रह्मा औ शेषाय। जपैं निशि बासर हरि को भाय।२७७०।
नाम परताप से प्रभु के राय। आप को दीन शम्भु बर आय॥
लड़ौ जो प्रभु से बनै न भाय। शरनि में चलौ कार्य्य बनि जाय॥
शरनि जो कोई प्रभु कि जाय। न त्यागैं दीन बन्धु रखुराय॥
मातु को रथ पर लेहु चढ़ाय। चलैं हम आप के संग में भाय॥
करैं दर्शन फिर विनय सुनाय। सुनत ही हरि लेवैं अपनाय।२७८०।
राज्य फिर करौ अचल सुख पाय। प्रभु की शरनि क फल मिलि जाय॥
मने मन गुनिरावन अकुलाय। कहै यह जानत कछु नहिं भाय॥
चरण तब रावन दहिन उठाय। चलायो उर पै धीरे जाय॥
गिरे धक्का लगतै लघु भाय। उतानै परे बोलि नहिं जाय॥
कहै रावन वीरों सुखदाय। चारि जन मिलि यहि लेव उठाय।२७९०।
हाथ पग एक एक गहि भाय। भवन के द्वार पै धरिये भाय॥
होश जब होवै दिहेव सुनाय। जाय लंका से जहँ मन भाय॥
बिभीषण सुनै न बोलैं भाय। बिचारैं केहि बिधि बाहेर जाँय॥
उठैं तो मारै रावन राय। क्रोध वश कौन सकै समुझाय॥
होय हरि की जस इच्छा भाय। वैस ही करैं कौन गुनि पाय।२८००।
बिभीषण मनै रहै समुझाय। आइगे चारि तहाँ योधाय॥
पकरि कै पग फिर लीन उठाय। तुरत लै गे गृह के दर धाय॥
तख्त पर दीन तहाँ पौढ़ाय। पहुँचिगे सभा में सब फिर जाय॥
बजे ग्यारह रावन उठि जाय। गये सब अपने गृह सुभटाय॥
बिभीषण उठि कै गृह में जाय। कहै माता से हाल सुनाय।२८१०।
कहैं माता तुमरो बड़ भाय। पिता तुल्य शास्त्र बतलाय॥
शोच मत कीजै तन दुख पाय। भजन में मन नहिं लागै आय॥
भक्त हरि के कहवाय के हाय। परिक्षा तनिक में गयो डेराय॥
हमै अब मालुम ह्वै गो आय। भक्त तुम कच्चे मम पुत्राय॥
मान अपमान को डर जहँ आय। ग्रन्थि नहिं सुरझी अरुझत जाय।२८२०।
जाव हरि के ढिग दुःख नशाय। देर काहे तुम रहेव लगाय॥
ध्यान सुर मुनि करते चित लाय। देत हरि दर्शन तब कहुँ जाय॥
आयगे साक्षात सुखदाय। उधारन अधमन को हर्षाय॥
भाग्य हम सब की खुलिगै आय। नैन भरि देखैं सिय रघुराय॥
मातु के बचन सुनैं सुखदाय। बिभीषण चलैं चरण शिर नाय।२८३०।
पहुँचिगे अशोक बाटिक जाय। मातु के चरण परैं शिर नाय॥
कहैं सब आपन चरित सुनाय। दृगन दोउ आँसू टपकत जाँय॥
मातु ने कह्यौ सुनौ भक्ताय। करैं इच्छा पूरन रघुराय॥
राज्य तुमको देहैं सुखदाय। शरनि जहँ गयो तिलक ह्वै जाय॥
बिभीषण चरनन में परि जाँय। चलैं तन मन ते अति हर्षाय।२८४०।
पहुँचि जाँय उदधि पास में आय। करैं अस्नान हर्ष हिय छाय॥
जाँय जब कटक निकट नियराय। लखैं हनुमान निकट चलि जाँय॥
मिलैं दोउ प्रेम प्रीत ते धाय। कहैं हनुमान कहाँ तुम आय॥
कीन किरपा अतिशय सुखदाय। हाल सब आपन देव बताय॥
देंय सब चरित ठीक बतलाय। सुनैं हनुमान शान्त चित लाय।२८५०।
कहैं हनुमान सुनो मम भाय। आप की पुण्य़ उदय भइ आय॥
लखन ते कहैं पवन सुत जाय। बिभीषण आये प्रभु शरनाय॥
बैठ हैं थोड़ी दूर पै आय। हुकुम होवै तो लावैं जाय॥
सभा के मध्य में रावण राय। लात उर मारय्यौ गिर गे भाय॥
चारि निश्चरन ते कह्यौ सुनाय। धरौ या को गृह के दर जाय।२८६०।
चेत जब या के तन ह्वै जाय। कह्यौ मम पुरी से हट ये जाय॥
सामने कभी ने मेरे आय। नहीं तो जान से देंव मराय॥
सुनैं यह बचन लखन मन लाय। कह्यौ जाय प्रभु से बचनाय॥
सुनत ही हरि नैनन जल आय। कहैं लछिमन ते लाओ जाय॥
चलैं श्री लखन पवन सुत धाय। पहुँचिगे निकट कहौं का भाय।२८७०।
लखन को लपटि बिभीषण धाय। मिले उर में उर प्रेम से लाय॥
लखन हंसि कहैं बिभीषण भाय। बुलायो आपको प्रभु सुखदाय॥
भयो सब सुर मुनि आय सहाय। रहैगी कीरति तब जग छाय॥
बिभीषण चलैं संग हर्षाय। नाम हरि का सुमिरत चित लाय॥
लखन आगे पीछे मरुताय। बिभीषण मध्य में चलते भाय।२८८०।
निकट हरि के जब पहुँचैं जाय। खड़े प्रभु भे नैनन जल छाय॥
बिभीषण साष्टाँग परि जाँय। उठाय के प्रभु उर लेंय लगाय॥
पकरि कर बैठारें सुखदाय। बिभीषण छबि में जाँय लुभाय॥
पूछते प्रभु सब हैं कुशलाय। प्रेम वश बोलि न पावैं भाय॥
दहिन कर शिर फेरैं सुखदाय। मिटै आवेश होश ह्वै जाय।२८९०।
बिभीषण चरित कहैं सब गाय। जौन कछु कीन्ह्यौ रावण राय॥
कह्यौ हरि निर्भय ह्वै अब भाय। राज्य लंका कि करिहौ जाय॥
रहौ मम संग यहाँ सुख पाय। बधौं सब सेना रावण राय॥
दहिन कर हरि ने दीन उठाय। खड़े हो कहैं सुनो सब आय॥
बिभीषण के शिर तिलक लगाय। बनावैं लंक पुरी को राय।२९००।
लखन ते कहैं राम हर्षाय। मंगावो सब समान सुखदाय॥
पवन सुत जाँय अवध पुर धाय। श्री गुरु वशिष्ठ पास में भाय॥
लखन ने कह्यौ बीर सुखदाय। आप समरथ हरि किरपा भाय॥
जाइहौ आप न देर लगाय। आप की सरबरि को करि पाय॥
लै आवैं सिंहासन छत्राय। सबै सामान तिलक की भाय।२९१०।
परैं हरि के चरनन में धाय। उठैं औ उड़ैं बीर मरुताय॥
पहुँचि जाँय गुरु वशिष्ठ गृह आय। परैं चरनन में हिय हर्षाय॥
हाल सब देंय प्रेम से गाय। मगन मन होंय मुनी सुखदाय॥
ढिंढोरा अवध में देहिं पिटाय। खबरि गृह गृह में पहुँचै जाय॥
जाँय रनिवास में मुनि सुखदाय। संग हनुमान को लै हर्षाय।२९२०।
परीं कौशिल्या चरनन धाय। दीन मुनि आशिष हिय हर्षाय॥
पवन सुत राम भक्त सुखदाय। परैं माता के चरनन आय॥
बैठि गुरु के ढिग शान्ति से जाँय। कहैं मुनि प्रभु के पायक आँय॥
देंय सब चरित मुनीश बताय। जाय अति हर्ष मातु उर छाय॥
खबरि यह सब रानिन मिलि जाय। बढ़ै अति हर्ष न हृदय समाय।२९३०।
सुमित्रा कैकेयी तँह आय। गुरु के चरनन में परि जाँय॥
पाय आशिष बैठैं हर्षाय। पवन सुत चरन छुवैं उठि जाय॥
देंय मुनि सब चरित्र बतलाय। सुमित्रा कैकेयी हर्षाय॥
आय पुर वासी भवन में जाँय। हाल सुनि सब तन मन हर्षाय॥
चलैं मुनि अपने गृह को जाँय। संग में पवन तनय सुखदाय।२९४०।
मिठाई फल औ दूध को लाय। लगावैं भोग ध्यान करि भाय॥
प्रगट हों राम जानकी माय। प्रेम से लेवैं चट कछु पाय॥
जलै पी अन्तर हों सुखदाय। निरखि हनुमान लेंय यह भाय॥
देंय परसाद मुनीश्वर आय। पाय जल पियैं बीर मरुताय॥
देंय मुनि सब समान को लाय। कहैं यह बचन हिये हर्षाय।२९५०।
जाव अब नन्दि गाम ह्वै धाय। भरत शत्रुहन जहाँ दोउ भाय॥
भरत प्रभु के रंग रूप सोहाय। शत्रुहन लखन रंग सुखदाय॥
प्रभु की चरण पादुका लाय। भरत तप करते तन मन लाय॥
शत्रुहन करैं भरत सेवकाय। देखतै बनै कहौं का भाय॥
सम्हारैं राज काज सुखदाय। प्रजा कोइ दुःख न तनकौ पाय।२९६०।
चारि भाई संग प्रगटे आय। राम जी सब से बड़े कहाय॥
भरत जी हरि से छोटे आय। लखन से छोटे शत्रुहन भाय॥
देंय या को सब हाल बताय। प्रगट कौशिल्या से रघुराय॥
भरत कैकेयी ते सुखदाय। लखन शत्रुहन सुमित्रा जाय॥
चलैं हनुमान चरन शिर नाय। पहुँचि जाँय नन्दिग्राम में जाय।२९७०।
धरैं सामान हिये हर्षाय। परैं शत्रुहन के चरनन धाय॥
कहैं शत्रुहन कहाँ ते आय। हाल सब देंय तुरत बतलाय॥
लपटि शत्रुहन लेंय उर लाय। दृगन ते नीर चलै सुखदाय॥
शत्रुहन जाँय भरत ढिग धाय। कहैं सब चरित मधुर स्वर गाय॥
सुनत ही भरत उठैं हर्षाय। गुफा के बाहर जावैं आय।२९८०।
निरखि कै पवन तनय सुखदाय। चरन पर परैं उठा नहिं जाय॥
उठाय के भरत लेंय उर लाय। पकरि कर बैठारें हर्षाय॥
कुशल माता सीता की भाय। कहौ श्री हरि की लखन की गाय॥
कहैं हनुमान सुनैं चित लाय। प्रेम में गद्गद बोलि न जाय॥
कहैं हनुमान सुनो सुखदाय। होय हमको अज्ञा चलि जाँय।२९९०।
कहैं श्री भरथ शत्रुहन भाय। भोग कछु दीजै इन्हैं पवाय॥
कहैं हनुमान चरन शिर नाय। श्री गुरु गृह ते आयन पाय॥
हमैं कछु इच्छा नहिं सुखदाय। दरश करि आपु की अति सुख पाय॥
चरन दोउ स्वामिन के परि धाय। लेंय सामान को तुरत उठाय॥
उड़ैं लै कटक में पहुँचैं जाय। धरैं सब वस्तु प्रभु ढिग आय।३०००।
परैं चरनन में तन उमगाय। उठाय के प्रभु उर लेंय लगाय॥
लखन हँसि लपटि मिलैं हर्षाय। कहैं सब हाल अवध का गाय॥
सुनैं सब कटक संग सुखदाय। लखन तन मन ते अति हर्षाय॥
देंय सिंहासन तहँ पधराय। छत्र तेहि ऊपर देंय लगाय॥
जड़े नग सुघर उजेरिया छाय। देंय सामान सबै धरि भाय।३०१०।
देखि कै सब के हिय हर्षाय। बिभिषण ते प्रभु कहैं सुनाय॥
करो अस्नान उदधि में जाय। जाँय अस्नान करैं हर्षाय॥
लौटि कर आवैं प्रभु ढिग धाय। कहैं प्रभु सुनो बिभीषण राय॥
बैठिये सिंहासन पर आय। बिभीषण कहैं सुनो सुखदाय॥
आपके सन्मुख अनुचित आय। कहैं प्रभु मन्द मन्द मुसक्याय।३०२०।
लखन हनुमान ते सैन से भाय। जानि यह लखन पवन सुत जाँय।
पकरि कर दोउ जन लेवैं धाय। बिठावैं सिंहासन पर लाय॥
बिभीषण मन ही मन सकुचाँय। बोलि नहिं सकैं करैं का भाय।
लखन हनुमान कृत्य करवाय। कहैं धुनि वेद मधुर स्वर गाय॥
प्रभु दाहिन पग अपन उठाय। करैं औंठा से शिर तिलकाय।३०३०।
धुनी तहँ जय जय कार कि भाय। करैं कपि ऋक्ष हिय हर्षाय॥
उतरि सिंहासन ते हर्षाय। बिभीषण प्रभु चरनन परि जाँय॥
उठाय के उर में लेंय लगाय। मिलैं फिर सब से मन हर्षाय॥
बटै परसाद सबै कोइ पाय। बचै सो उदधि में देंय छोड़ाय॥
सुमन बरसावैं सुर मुनि जाय। कहैं धुनि धन्य बिभीषण राय।३०४०।
कहैं रघुनाथ लखन सुखदाय। बिभीषण के गृह हनुमत जाँय॥
बिभीषण की माता हरषाँय। कहैं सब उनसे हाल सुनाय॥
छत्र सिंहासन लेते जाँय। बिभीषण के गृह देंय धराय॥
सुनैं हनुमान चलैं हर्षाय। छत्र सिंहासन लेंय उठाय॥
उड़ैं लै पहुँचि लँक में जाँय। बिभीषण के गृह देंय धराय।३०५०।
कहैं दरबानिन ते हर्षाय। सिंहासन छत्र देव भितराय॥
बिभीषण की माता से जाय। संदेशा सब कह दें हर्षाय॥
राज प्रभु दीन्ह उन्हैं हर्षाय। करैं आनन्द राम गुण गाय॥
सुनत ही दरबानी दोउ धाय। सिंहासन छत्र को लेंय उठाय॥
पहुँचि जाँय भवन मध्य हर्षाय। कहैं सब हाल मातु से गाय।३०६०।
देंय सिंहासन छत्र धराय। बिभीषण की माता हुलसाय॥
आय हनुमान को शीश नवाय। बैठि जाँय दोउ कर जोरि के भाय॥
कहैं हनुमान बचन सुखदाय। बिभीषण अभय भये अब माय॥
देर अब नहीं दशानन राय। लंक तजि बिष्णु पुरी को जाँय॥
नीति से राज्य बिभीषण आय। करैं सब प्रजा सुखी ह्वै जाय।३०७०।
बिभीषण मातु कहैं हर्षाय। प्रभु सम को समरथ सुखदाय॥
अंश प्रभु का यह जीव कहाय। परय्यौ माया में चक्कर खाय॥
बासना नाना बिधि की आय। प्रगट होवै औ फेरि बिलाय॥
नाचता मन तिन बीच सदाय। इसी में आयू जात सेराय॥
पाँच ठग तन में बसिगे आय। लेंय ठगि धन सब द्वैत लगाय।३०८०।
द्वैत जादू यह अति दुःखदाय। दीनता मंत्र बिना नहिं जाय॥
दीनता की सेना सुखदाय। शान्ति औ शील सत्यता आय॥
छिमा सरधा दाया हर्षाय। धर्म संतोष प्रेम लपटाय॥
नाम अधिकारी तब कहवाय। धुनी तब खुलै नाम की आय॥
रूप सिया राम जगत सुखदाय। रहैं सन्मुख तब मन हर्षाय॥३०९०।
गृहस्थाश्रम अति सुखदाय। होय हरि किरपा तब बनि जाय॥
ब्रह्मचारी सन्यासी आय। वैष्णव बानप्रस्थ कहाय॥
इसी से प्रगटे सब हैं आय। रहैं हरि सुमिरि निशंक सदाय॥
त्याग सब मन ते तब ह्वै जाय। ज्ञान वैराग सहायक आय॥
होय अनुराग तबै सुख पाय। रहै आसक्त न किसी में भाय।३१००।
कि जैसे नीरज बारि सहाय। करै तन से तो कार्य्य सदाय॥
सुनैं धुनि छबि देखै पितु माय। तरैं औ तारैं और को आय॥
भक्त सियराम को सो मुददाय। एक रस रहै नहीं बिलगाय॥
आप हौ राम भक्त सुखदाय। आप को आप लिहेव अपनाय॥
लख्यौ मैं जस तब रूप को आय। आत्मा मिल्यो देर नहिं लाय।३११०।
कहैं हनुमान हिये हर्षाय। मातु यह तत्व ज्ञान कहवाय॥
बिभीषण मातु कहैं हर्षाय। श्री नारद मुनि दीन बताय॥
कहैं हनुमान धन्य हौ माय। भयो तन सुफल दरश तव पाय॥
होय अज्ञा अब कटक को जाँय। काज हरि का कछु देखैं माय॥
बिभीषण मातु कहैं हर्षाय। दूध फल मेवा लीजै पाय।३१२०।
कहैं हनुमान न कछु इच्छाय। समय तीसर अस्नान को आय॥
उठैं कर जोरि के शीश नवाय। बिभीषण मातु भवन को जाँय॥
उड़ैं हनुमान बेग से भाय। आय सीता माता ढिग जाँय॥
परैं चरनन में अति सुख पाय। मातु हर्षैं उर लेवैं लाय॥
हाल सब बतलावैं हर्षाय। सुनैं माता तन मन हुलसाय।३१३०।
चरन परि उड़ैं उदधि तट आय। करैं अस्नान हिये हर्षाय॥
आय प्रभु के चरनन परि जाँय। प्रभु हंसि उर में लेंय लगाय॥
कहैं सब चरित पवन सुत गाय। बिभीषण मातु बड़ी भक्ताय॥
गयन हम धैर्य्य देन प्रभु धाय। धैर्य्य रूप मातु सुखदाय॥
कहैं प्रभु सुनो बीर चित लाय। मातु जैसी पुत्रौ वैसाय।३१४०।
नारि सुत गृह धन त्यागि के आय। मातु के बचन मानि सुखदाय॥
बिभीषण सुनैं चरन परि जाँय। कहैं प्रभु आप की किरपा आय॥
आपके चरित मोहिं बतलाय। बाल पन मांहि नित्य मम माय॥
उसी का फल अब प्रगट्यौ आय। अधम को आप लीन अपनाय॥
भई फिर शाम सुनो चित लाय। करैं सब सन्ध्यो पासन भाय।३१५०।
करैं फिर भजन नाम मन लाय। इष्ट आपने अपने को भाय॥
बिभीषण प्रभु के निकट में आय। बैठि जाँय चरण पकड़ि हर्षाय॥
लगैं सेवा करने मन लाय। प्रीति रीति बढ़ी अधिकाय॥
कहन कछु चलैं बोलि नहिं आय। जानि प्रभु जाँय मनै की भाय॥
कहैं हरि मन्द मन्द मुसुकाय। बिभीषण कहौ जौन मन भाय।३१६०।
करौ इच्छा सो पूरन राय। होय नहिं नेक देर सुखदाय॥
बिभीषण कहैं सुनो सुखदाय। भजन की बिधि मोहिं देहु बताय॥
रहौं जब तक जग में हर्षाय। निरन्तर नाम में चित्त लगाय॥
रूप सीता माता सुखदाय। आपके बाम भाग दिखलायं॥
रहै हरदम मम सन्मुख आय। यही मैं चाहत हूँ सुखदाय।३१७०।
कहैं प्रभु सुनो बिभीषण राय। देंय हनुमान तुम्हैं बतलाय॥
मातु सब तुमरी जानत राय। दीन नारद मुनि उन्हें सुझाय॥
नाम है सुखी सुखी हैं राय। जैस है नाम गुणै वैसाय॥
जाव हनुमान के पास में राय। भजन में बैठे परत दिखाय॥
जाय के बैठि रह्यौ चुपकाय। उठैं तब मम ढिग चलिहैं धाय।३१८०।
सामने झट ह्वै जायो राय। खड़े ह्वै है हनुमत हर्षाय॥
दीन ह्वै कह्यौ कार्य्य सरि जाय। बैन हरि के सुनि मन हर्षाय॥
बिभीषण चले चरण परि धाय। बैठि जहँ पवन तनय सुखदाय॥
ख्याल में तत्पर धुनि के भाय। राम सिय झाँकी सन्मुख छाय॥
नहीं सुधि तनकौ कहँ को आय। बिभीषण पहुँचि गये हर्षाय।३१९०।
बैठिगे शान्त चित्त तहँ राय। उठे हनुमान बजे दश आय॥
चलैं हनुमान प्रभू ढिग धाय। सामने लखैं बिभीषण राय॥
निरखि के शान्त खड़े ह्वै जाँय। कहैं तब पवन तनय हर्षाय॥
कहाँ किरपा करि आये राय। बिभीषण कहैं आप शरणाय॥
प्रभू ने पठ्यो हम को भाय। नाम के जप की बिधि बतलाय।३२००।
करो इच्छा पूरण सुखदाय। जानिगे पवन तनय तब भाय॥
प्रभू की लीला मंगल दाय। पकरि कर बैठि गये हर्षाय॥
दीन फिर नाम की जप बतलाय। नाम धुनि खुली देर नहिं लाय॥
बदन के सब रोवन ते भाय। उठै धुनि र रंकार सुखदाय॥
राम सिय झाँकी सन्मुख आय। भई सो बरणौं को छबि भाय।३२१०।
बिभीषण मस्त नाम रंग छाय। भूलिगे प्रेम में कहँ ते आय॥
पकरि कर पवन तनय हर्षाय। लै गये प्रभु के ढिग भाय॥
निरखि के कहैं भक्त सुखदाय। पवन सुत काह भयो बतलाय॥
बिभीषण तव कर पकरि के आय। यहाँ से गये रहे हर्षाय॥
कहैं हनुमान आप किरपाय। जैस चाहो तस देव बनाय।३२२०।
बिभीषण पवन तनय संग आय। चरन पर परैं मनै हर्षाय॥
बिभीषण के शिर कर रघुराय। फेरि देवैं उर लेंय लगाय॥
बिभीषण बिनय करैं हर्षाय। जयति जय जय भक्तन सुखदाय॥
धन्य धनि धन्य देव मुनि राय। रहे सब नाम आप को गाय॥
तिमिर हट गई उजेरिया छाय। कहौं का मुख से अपनि बड़ाय।३२३०।
भागि के भरम शरम दोउ भाय। नाम धुनि खुली चित्त हर्षाय॥
रूप हरि आप औ सीता माय। भयो सन्मुख में तुरतै आय॥
कहौं मैं सत्य बचन सुखदाय। स्वपन में कभी न परय्यौ लखाय॥
कहैं प्रभु सुनो बिभीषण राय। पवन सुत की तुम पर किरपाय॥
जैस इच्छा उनके मन आय। वैस ही वा को देंय बनाय।३२४०।
सहारे भक्तन के हम राय। रहैं हर दम सुनिये चित लाय॥
पधारैं जैसे प्रतिमा लाय। लगावैं भोग तवै वह पाय॥
वैस ही हाल हमारो राय। प्रेम की फाँस फँस्यो मैं भाय॥
पवन सुत कीन्ह लीन मोहिं राय। प्रेम की प्रीति बड़ी सुखदाय॥
कहैं लछिमन तब बचन सुनाय। पवनसुत का ऋण कौन चुकाय।३२५०।
हमारी समरथ है नहि भाय। जैस इन कीन्ह हमहूँ करि पाँय॥
खाय फल रावण बाग में जाय। निशाचर मारे बृक्ष ढहाय॥
पकरि कर अक्षय कुमार को धाय। उठाय के पटक्यौ महि पर भाय॥
धरय्यौ दाहिन पग उर पर धाय। प्राण हरि पुर को दीन पठाय॥
बीरता लंक पुरी में जाय। दिखायो अपनी हाँक सुनाय।३२६०।
निशाचर आधे लंक के भाय। मारि कै अग्नि में दीन जलाय॥
मातु सुधि लाये देर न लाय। अंजनी पुत्र धन्य हैं भाय॥
कहैं हनुमान चरण शिर नाय। आप की किरपा ते बल आय॥
भला हम में क्या ताकत आय। करैं कोइ कार्य ठीक ह्वै जाय॥
आप उर प्रेरक हौ सुखदाय। नचावौ जस तस नाचैं भाय।३२७०।
आप सर्वस्व त्यागि संग आय। करत हौ राति दिवस सेवकाय॥
धन्य माता हैं आप की माय। धन्य पतनी की कीरति गाय॥
लखन तब कहैं पवन सुत भाय। बहुत तारीफ किहे का पाय॥
प्रभु के समुहे करत ढिठाय। प्रभु उर प्रेरक हमैं बताय॥
कहैं हनुमान सुनो सुखदाय। देव मुनि वेद शास्त्र सब गाय।३२८०।
भक्त भगवन्त न अन्तर आय। बात हम या में कौन बनाय॥
कहैं प्रभु सुनो लखन चित लाय। भक्त तुम दोनो अति सुखदाय॥
बिभीषण के दरबारी जाँय। घरै अपने जब बदलैं भाय॥
करैं भोजन तन मन हर्षाय। देंय अपनी अबलन बतलाय॥
कहैं कहुँ कह्यौ न यह बचनाय। सुनै रावन तो देय मराय।३२९०।
बात जो अपनै में रहि जाय। तौन तो आपै जानै भाय॥
परै जहँ और के कान में जाय। चलै फिरि घटै न बढ़तै जाय॥
दोऊ अबला रावण गृह जाँय़। मन्दोदरि से सब देंय बताय॥
मन्दोदरि सुनै मन हर्षाय। देय दोउ अबलन पट धन लाय॥
खुशी ह्वै अपने गृह दोउ जाय। धरैं धन पट बैठैं हर्षाय।३३००।
मन्दोदरि रावन के ढिग जाय। पहुँचि धौरहरा पर सुखदाय॥
चरित रावन को देय सुनाय। सुनै रावन तन मन हर्षाय॥
उतरि शिव मन्दिर में चलि जाय। लेय तहँ मेघनाद बोलवाय॥
कहै सब हाल पुत्र से गाय। हँसै तब मेघनाद योधाय॥
कहै पितु सुनिये मम बचनाय। दोऊ लड़िकन कीन्ह्यौ खेलवाय।३३१०।
संग में बानर औ ऋच्छाय। नहीं कोइ बुद्धिमान कटकाय॥
बिभीषण भागि मिल्यौ तहँ जाय। स्वाँग सब मिलि करि लीन बनाय॥
भला ऐसा कहुँ सुने हौ राय। पुत्र नहि भयो पिता कहवाय॥
कहै रावन सुनिये सुखदाय। तयारी करो समर की जाय॥
सुनै औ चलै तुरत उठि धाय। सजावै दल डंका बजवाय।३३२०।
चलै रथ पर बैठै हर्षाय। गरद असमान की ओर को जाय॥
कुड़ुक धुम डंका बजतै जाय। शब्द सुनि कहैं बिभीषण राय॥
प्रभू घननाद पहुँचिगा आय। बड़ा है शूरबीर दुखदाय॥
और मायावी अति चतुराय। जहाँ जस मौका देखै जाय॥
वहाँ वैसै वह रचत उपाय। सुनो प्रभु सत्य दीन बतलाय।३३३०।
कहैं प्रभु सुनो लखन सुखदाय। संग सेना लै देखो जाय॥
लखन सुनि चरनन में परि जाँय। उठैं औ चलैं कटक लै धाय॥
संग में बड़े बड़े योधाय। पवन सुत जाम्वन्त नीलाय॥
नलौ अंगद सुग्रीव सुहाय। मयन्दौ द्विविद गवाक्षौ भाय।
नाम सब के कँह तलक गिनाय। बिभीषण चले संग में भाय।३३४०।
फासिला थोड़ा जब रहि जाय। रुकैं दोउ सेना तँह पर भाय॥
क्रोध करि मेघनाद गोहराय। कहै अब संभरो सब हम आय॥
मारि बानर औ ऋच्छन धाय। मसलिहौं हाथन गर्द मिलाय॥
सुनैं कपि ऋच्छ क्रोध उर आय। कूदि के कटक में पहुँचैं जाय॥
पकरि निश्चरन को लेंय उठाय। एक पर एक को पटकैं धाय।३३५०।
भूमि पर किसी को देंय गिराय। फेरि उर नखते फारैं भाय॥
चटकने किसी के मारें धाय। किसी पर मुष्टिक देंय चलाय॥
क्रोध लखि मेघनाद को आय। चलावै बाण बड़े दुखदाय॥
बहुत कपि ऋच्छन देय गिराय। परैं मूर्च्छा में बोलि न जाय॥
ऋच्छ कपि निरखि हाल यह भाय। पहुँचि फिर अपनी सेन में जाँय।३३६०।
लखन घननाद की होय लड़ाय। देखतै बनै दोऊ सुभटाय॥
बाण से बाण कटैं गिरि जाँय। पास तक पहुँचि सकैं नहिं भाय॥
निशाचर ऋच्छ कपिन ते धाय़। लपटि कै लड़ैं क्रोध तन छाय॥
मुखन ते नोचैं माँस को धाय। गिरैं औ भिरैं न मानैं भाय॥
क्रोध अति लखन के तन में आय। चलावैं बाण कटक बिल्लाय।३३७०।
भागि अपनी सेना में जाँय। फटकते परे देखि घबराय॥
मनै मन मेघनाद वीराय। कहै मम समता के लखनाय॥
बिभीषण को निरखै तहँ भाय। लखन के पीछे परैं दिखाय॥
क्रोध अति बाढ़ै रहा न जाय। साँग रथ पर से लेय उठाय॥
मनै मन कहै हतौ यहि धाय। तिलक यहि प्रथम कीन रघुराय।३३८०।
बनावैं चहैं लंक को राय। मरै यह तो छुट्टी मिलि जाय॥
बचन बिरथा रघुबर के जाँय। भागि सब जावैं लड़ैं न भाय॥
लखन के निकट बिभीषण आय। देंय सब हाल तुरत बतलाय॥
सांगि यह महा कठिन है भाय। लागतै प्राण संग लै जाय॥
जानिगे लच्छिमन हरि किरपाय। बिभीषण को यह मारै आय़।३३९०।
शक्ति यह खाली सकै न जाय। बचन दै तिलक कीन प्रभु आय॥
बचन प्रभु का को सकै मिटाय। करैं अब जो हमरे मन भाय॥
लखन तब कहैं बिभीषण राय। होय वैसै जस हरि इच्छाय॥
प्रेरना जैस करैं सुखदाय। वैस ही तन मन में बसि जाय॥
बिभीषण लखन निकट लखि पाय। चलै घननाद क्रोध करि धाय।३४००।
आय दुइसै पग पर रुकि जाय। शक्ति दहिने कर लीन्हे भाय॥
पकरि दुइ करन ते मंत्र सुनाय। चलावै मेघनाद वीराय॥
बिभीषण को पीछे कर धाय। लखन सन्मुख में होवैं जाय॥
लगै उर शक्ति पार ह्वै जाय। जाय कर शक्ति लोक ठहराय॥
उतानै लखन गिरैं महि आय। रुधिर बहु गिरै धरनि पर भाय।३४१०।
ऋच्छ कपि चारौं ओर ते आय। खड़े होवैं निरखैं अकुलाय॥
बिभीषण दौरि प्रभू ढिग जाँय। कहैं सब हाल चलैं हरि धाय॥
आय तहँ देखैं लछिमन भाय। पड़े हैं स्वाँस न नेकौ आय॥
दोऊ कर कमलन शीश उठाय। धरैं जंघा पर प्रभु दुख पाय॥
करैं तहँ रुदन कहा नहि जाय। रुधिर नैनन जल सब बहि जाय।३४२०।
कहैं प्रभु उठिये मम सुखदाय। हमै तुम बिन कछु नहीं सुहाय॥
जानकी हरे का शोक न भाय। शोक अति तुमरो उर दहकाय॥
जानि जो पाइति हम यह भाय। बिछुड़ि यहँ हमते जैहौ आय॥
पिता के बचन न मानित भाय। होत चहै हमै नरक दुखदाय॥
बचन हमरे पर आय के भाय। घाव उर शक्ती को लीन वेधाय।३४३०।
बाँह दाहिन मम टूटी भाय। अवध को जाव कवन मूँह लाय॥
सुनैं सब कहैं हमैं का भाय। सिया के हित प्रिय बन्धु गंवाय॥
यहाँ का हाल जानि सब भाय। जाय घननाद लंक हर्षाय॥
दशानन ते सब हाल सुनाय। कहैं पितु करौ राज्य हर्षाय॥
अवध का हाल सुनो अब भाय। उदासी नगर भरे में छाय।३४४०।
भरत शत्रुहन के उर धड़काय। वशिष्ठ औ सुमन्त गये घबड़ाय॥
मातु तीनो बैठीं अकुलाय। कहैं का भयो जानि नहिं जाय॥
पशू पक्षिन तन सुस्ती छाय। सकैं नहि बोलि बैठि समुझाँय॥
भरथ जी कहैं शत्रुहन भाय। जाव श्री गुरु ढिग पूछौ जाय॥
चलैं शत्रुहन चरण शिर नाय। पहुँचि जाँय गुरु वशिष्ठ गृह आय।३४५०।
करैं दंडवत चरन में धाय। उठाय के गुरु उर लेंय लगाय॥
शत्रुहन हाल देंय बतलाय। सुनैं गुरु कछू न बोलैं भाय॥
चलैं शत्रुहन को लै संग धाय। आय कौशिल्या भवन में जाँय॥
परैं कौशिल्या चरनन धाय। देंय आशिष बैठैं घबड़ाय॥
शत्रुहन माता चरनन धाय। परैं औ बैठैं गोद में जाय।३४६०।
सुमित्रा कैकेयी तहँ आय। परैं चरनन में गुरु के धाय॥
सुमन्तौ आय जाँय तहँ धाय। गुरु के चरनन में परि जाँय॥
पाय आशिष बैठैं मुरझाय। गुरु से कहैं सबै बचनाय॥
काह गुरु भयो दुःख उर छाय। बिचारौ करि किरपा सुखदाय॥
आप बिन कौन सकै बतलाय। बड़ी घबड़ाहत सबन उर छाय।३४७०।
राम सच्चिदानन्द मुद दाय। सुमिरि गुरु करैं ध्यान को भाय॥
ध्यान जब टूटै कहैं सुनाय। लखन के शक्ति लगी उर आय॥
बचन मम मानो सब हर्षाय। राम सब देहैं दुःख हटाय॥
धरय्यौ नर तन जग में हरि आय। करत लीला भक्तन सुखदाय॥
मारि को सकै लखन को भाय। शेष को अंश बड़े वीराय।३४८०।
भ्रात दोउ रावण वंश नशाँय। आइहैं सिया सहित कटकाय॥
दिवस अब थोड़े रहिगे आय। धरो धीरज व्याकुलता जाय॥
शम्भु का रूप पवन सुत आय। संजीवन लैहैं तुरतै जाय॥
नासिका के दोउ स्वरन सुँघाय। धरैं कछु मलिकैं उर पर जाय॥
परै मुख में उठि बैठैं भाय। राम हंसि के उर लेंय लगाय।३४९०।
आज ही पवन तनय सुखदाय। सजीवन लै लौटैं कटकाय॥
भरत को देहैं भेद बताय। शत्रुहन ऐहैं फिर यँह धाय॥
कहैंगे हाल यही सब आय। जौन हम सबै दीन बतलाय॥
समाये सब उर गुरु बचनाय। बोध ह्वै गयो शान्ति गै आय॥
मातु तीनों को शीश नवाय। शत्रुहन जाँय भरत ढिग भाय।३५००।
हाल सब कहैं शान्त ह्वै भाय। सुनैं श्री भरत धीर्य्य उर आय॥
जाँय श्री वशिष्ठ गृह को धाय। कहैं अरुन्धती से हाल सुनाय॥
अवध में शान्ति भई कछु भाय। कटक का हाल सुनो चित लाय॥
प्रभु के शोक को देखि के भाय। भये ब्याकुल कपि औ ऋच्छाय॥
बिभीषण कहैं प्रभु कोइ जाय। वैद्य लंका में एक रहाय।३५१०।
नाम श्री सुखेन वा को आय। आइहैं जहाँ कार्य्य बनि जाय॥
कहैं तब जाम्वन्त उठि भाय। प्रभू हनुमान को देव पठाय॥
कहैं प्रभु पवन तनय सुखदाय। बिपति यह पड़ी कठिन है भाय॥
लंक को जाव बेग से धाय। वैद्य को लावो देंय देखाय॥
पवनसुत चरन परैं हर्षाय। जोरि कर चलन चहैं जस भाय।३५२०।
बिभीषण भेद देंय बतलाय। भवन है हरे रंग सुखदाय॥
मोहारा चारिउ दिशन ते भाय। सुखेन का नाम लिखा समुहाय॥
रंग काले अक्षर भरवाय। पताका भवन के मध्य सुहाय॥
शुकुल रंग अक्षर श्याम हैं भाय। भवन के चौतरफा सुखदाय॥
बृक्ष दस बट के रहे सोहाय। सुनैं औ उठैं पवन सुत भाय।३५३०।
उड़ैं फिर लंक में पहुँचैं जाय। घूमि सब लंक को लेवैं धाय॥
लखैं गृह पृथ्वी पर फिरि आय। परै कोइ बाहेर नहीं दिखाय॥
सुमिरि श्री राम नाम सुखदाय। सुखेन के भवन को लेंय उठाय॥
उड़ैं लै कटक में पहुँचैं जाय। धरैं तहँ भवन को धीरे भाय॥
परैं हरि के चरनन हर्षाय। राम उर में चट लेंय लगाय।३५४०।
सुखेन के भवन बिभीषण जाँय। लखैं तहँ सोय रहे सुख पाय॥
मातु पितु भगिनी दुहिता भाय। नारि सुत सोये अति निद्राय॥
बिभीषण दोउ कर पकरय्यौ जाय। चौंकि उठि बैठे आलस छाय॥
हाल सब देंय बिभीषण गाय। धोय मुख हाथ चलें संग धाय॥
निकसि गृह से जब बाहेर आय। पड़े आश्चर्य में बोलि न जाय।३५५०।
बिभीषण कहैं कौन दुख भाय। शोच जो आप के उर में आय॥
लखन को देखि लेव चलि भाय। भवन फिर लंक में देंय धराय॥
चलैं फिर निकट में पहुँचैं जाय। परैं प्रभु के चरनन हर्षाय॥
राम शिर पर कर देंय फिराय। उठैं औ बैठैं मन हर्षाय॥
दहिन कर पकड़ि के देखैं भाय। बन्द नाड़ी किमि करैं उपाय।३५६०।
स्वाँस नासिका कि परखैं भाय। पता नहिं लगै जाँय मुरझाय॥
प्रभु से कहैं सुखेन सुनाय। प्राण का पता लगत नहिं भाय॥
कान्ति मुख की वैसै चमकाय। बड़े ताजुब की बात देखाय॥
दवा दूसरि लगिहै नहि भाय। सजीवनि लता मिलै दुख जाय॥
नहीं तो भोर होत सुखदाय। लखन नहिं जियैं दीन बतलाय।३५७०।
कहैं हरि कहाँ लता वह भाय। बताओ मिलै तो लेंय मंगाय॥
कहैं तब वैद्य सुखेन सुनाय। उत्तराखण्ड दूर गिरि भाय॥
नाम दौनागिरि तासु कहाय। जड़ी नाना बिधि की तहँ भाय॥
सजीवनि में परकाश देखाय। और सब में परकाश न भाय॥
कहैं प्रभु चारि बजे हैं भाय। जहाँ तक बनिहै करब उपाय।३५८०।
कहैं तहँ जाम्वन्त सुखदाय। पवन सुत सब समरथ हैं भाय॥
लाइहैं भोर न होने पाय। पवन सम पवन तनय चलि जाँय॥
सुनैं हनुमान बचन यह भाय। फूल तन अष्ट गुणा ह्वै जाय॥
कहैं हरि से चरनन शिर नाय। आप की कृपा से हम चलि जाँय॥
कौन अस कार्य्य जगत में आय। जौन नहिं होय आप किरपाय।३५९०।
कहन की देर प्रभु सुखदाय। करन में देर न सकौं लगाय॥
कहैं प्रभु जाव बीर सुखदाय। सजीवनि लता लै आओ धाय॥
चलै बजरंग चरन शिर नाय। पवन के तनय पवन सम धाय॥
जाय गिरि ऊपर पहुँचैं जाय। घूमि कर लखैं लता को भाय॥
नहीं परकाश कहूँ दिखलाय। कई रंग लता वहाँ पर भाय।३६००।
निरखतै तन मन अति हर्षाय। मनै मन कहैं पवन सुत भाय॥
चलैं लै गिरि के सहित उठाय। चीन्ह तँह वैद्य लेंय हर्षाय॥
फेरि गिरि धरैं यहाँ पर लाय। सुमिरि कै राम सिया सुखदाय॥
गदा को खोंसि जांघिया भाय। पकरि कै पर्वत लेंय उठाय॥
बाम कर पर धरि लें सुखदाय। गदा दहिने कर साधैं भाय।३६१०।
उड़ैं लै चलैं बेग से धाय। आय फिरि अवध के ऊपर जाँय॥
शब्द फिरि हा हा कार सुनाय। भरत सुनि गुफा के बाहेर आय॥
लखैं कोइ राक्षस सम दिखलाय। बाण थोथा एक देंय चलाय॥
गिरैं हनुमान तहाँ पर आय। राम को नाम सुमिरि सुखदाय॥
पवन पर्वत को पकड़ैं धाय। गिरै नहि ऊपर ही रुकि जाय।३६२०।
भरत पहुँचैं तुरतै तहँ धाय। लखैं हनुमान शोक उर छाय॥
उठाय के छाती लेंय लगाय। कहैं अब जाओ बेग से धाय॥
बाण पर तुम्हैं देंव पठवाय। सहित गिरि देर न लागै भाय॥
कहैं हनुमान सुनो सुखदाय। आप सब समरथ हरि सम भाय॥
बाण एक थोथा दिहेव चलाय। गिरेन हम धरनि में तुरतै आय।३६३०।
बाण पर देहौ आप पठाय। वेग हम में वैसा नहिं भाय॥
जाव हम शर समान चलि धाय। आप की कृपा न देर लगाय॥
देव अब अज्ञा मोहिं सुखदाय। जाँय हरि के ढिग गिरि लै धाय॥
भरत जी उर में लेंय लगाय। शत्रुहन मिलैं लपटि हर्षाय॥
चरण दोनो भाइन सुखदाय। परैं उठि चलैं पवन सुत धाय।३६४०।
पवन से लै कर गिरि को भाय। बाण सम चलैं बीर सुखदाय॥
यहाँ श्री भरत शत्रुहन भाय। पठावैं गुरु के पास में जाय॥
चरण में परैं कहैं सब गाय। गुरु संग राज सदन में जाय॥
आय रानी चरनन परि जाँय। पाय आशिष बैठैं हर्षाय॥
शत्रुहन चरन छुवैं हर्षाय। देंय आशिष माता सुखदाय।३६५०।
हाल सब गुरु देंय बतलाय। सुनैं सब शान्त चित्त से माय॥
पुरी भर में देवैं जनवाय। सबन के उर में धीरज आय॥
शत्रुहन गुरु मातन शिर नाय। भरत के पास में पहुँचैं जाय॥
चरन में परि उठि कहैं सुनाय। श्री गुरु सब को दीन जनाय॥
बिकलता सब की मिटि गई भाय। पवन सुत की सब करतव आय।३६६०।
श्री गुरु अपने भवन को जाँय। बैठि जाँय शान्त चित्त हर्षाय॥
पवन सुत पहुँचि जाँय कटकाय। धरैं पर्वत को तहँ पर भाय॥
आय प्रभु के चरनन परि जाँय। प्रभु हंसि उर में लेंय लगाय॥
कहैं हनुमान सुनो सुखदाय। लता नहि चीन्हेन गिरि लै आय॥
अवध के ऊपर निकसेन आय। शब्द सुनि भरत लख्यो तहँ धाय।३६७०।
बाण एक थोथा दीन चलाय। गिरेन तुरतै तहँ हम महि जाय॥
पवन ने पर्वत रोक्यो धाय। न आयो नीचे वह सुखदाय॥
आप का नाम मेरे मुख आय। भरत सुनि तुरतै पहुँचैं धाय॥
निरखि मोहिं उर में लीन लगाय। मिट्यौ सब दुःख हर्ष तन छाय॥
कह्यौ हम बाण पै देव पठाय। देर नहिं लागै सुनिये भाय।३६८०।
कहेन हम कृपा करो सुखदाय। जाँय हम अब हीं गिरि लै धाय॥
बड़े बलवान तेजसी भाय। भरत यश कौन सकै मुख गाय॥
संदेशा अवध में दीन पठाय। शत्रुहन गये गुरु ढिग धाय॥
कहैं प्रभु सुनो वीर सुखदाय। भरत मम प्राण के प्राण हैं भाय॥
कहैं हरि श्री सुखेन सुखदाय। चीन्हिये लता आप गिरि जाय।३६९०।
लता को खोजि सुखेन लै आँय। पहुँचि लछिमन के ढिग को जाँय॥
नासिका के सन्मुख मलि भाय। धरैं अरु कछु छाती पर लाय॥
फेरि मलि मुख में छोड़ैं भाय। लखन उठि बैठैं देर न लाय॥
शब्द तहँ जय जयकार सुनाय। सुखेन औ पवन तनय यश गाय॥
लखन ते कहैं राम सुखदाय। गोद में लिहे बैठि कटकाय।३७००।
घाव उर में जो लागेव भाय। दवा से तुरत पूरिगो आय॥
दर्द कछु भीतर तो नहिं भाय। देव मोहिं अब हीं सब बतलाय॥
वैद्य यह बड़े सुखेन हैं भाय। आय के तुमको दीन जिलाय॥
कहैं लछिमन सुनिये सुखदाय। हमारे उर कछु नहिं पिराय॥
मातु के पास गयन हम भाय। बाटिका अशोक में सुख पाय।३७१०।
मातु मोहिं गोद में लीन बिठाय। सोय हम गयन वहीं सुखदाय॥
नींद जागेन जस हम भाय। कहेन माता से बचन सुनाय॥
जाव अब हम प्रभु के ढिग भाय। भई कछु देर नींद गइ आय॥
कह्यो माता जाओ हर्षाय। चरन पर परि यँह पहुँचेन आय॥
यही हम जानित दीन बताय। आपसे कछु छिपा नहिं भाय।३७२०।
कहैं सुग्रीव से प्रभु सुखदाय। सुखेन को भेंट देव तुम लाय॥
रत्न का भरा थार जो भाय। दीन मोहिं भेंट उदधि जो लाय॥
सुनैं सुग्रीव लै आवैं धाय। धरैं प्रभु के आगे हर्षाय॥
सुखेन को तब प्रभु देंय गहाय। हर्ष से लें सुखेन सुखदाय॥
कहैं हरि तुम से उऋण न भाय। जिलायो मम भाई सुखदाय।३७३०।
देंय आशिष हम तुमको भाय। रहौ ब्रह्मा के दिन भार जाय॥
बिभीषण औ तुम संघै भाय। आइहौ मेरे पुर हर्षाय॥
चरन में परि सुखेन तहँ जाँय। उठैं तब हरि उर लेंय लगाय॥
कहैं हरि भवन में बैठो जाय। भवन को लंक में देंय धराय॥
चलैं तब सुखेन भवन को धाय। पहुँच के बैठैं सुख से जाय।३७४०।
शरासन बाण लेंय रघुराय। चढ़ावैं धनुष हिये हर्षाय॥
बाण एक भवन को देंय चलाय। भवन लै चलै बाण सन्नाय॥
सुखेन के भवन को धरि दे जाय। जहाँ से पवन तनय लै आय॥
लौटि कर बाण प्रभु ढिग जाय। फेरि तरकस में बैठै भाय॥
प्रभु फिर गिरि के ऊपर जाँय। देंय आशिष तन मन हर्षाय।३७५०।
रहौ तुम हरे भरे सुखदाय। होय नहिं नाशा तुम्हारी भाय॥
देव गन्धर्व अपसरा आय। बास तुम पर करिहैं सुख पाय॥
तुम्हैं अब पठै देंय सुखदाय। जहाँ से आये तहाँ को भाय॥
सुनैं यह बचन राम के भाय। आवरण ते गिरि प्रगतै आय॥
रूप ब्राह्मण का बृद्ध बनाय। परै चरनन में मन हर्षाय।३७६०।
उठै हरि उर में लेंय लगाय। प्रेम गिरि के उर नहीं समाय॥
कहै जय धन्य धन्य सुखदाय। जाय आवरण में फेरि समाय॥
प्रभु गिरि पर से उतर के भाय। चढ़ावैं धनुष दीन सुखदाय॥
बाण एक मारैं गिरि उठि जाय। पहुँचि जहँ से आयो तँह भाय॥
बाण फिरि आय पास में जाय। फेरि तरकस में बैठै भाय।३७७०।
बाण एक लेंय राम रघुराय। हाल सब वाको देंय बताय॥
जाव श्री अवध गुरु ढिग जाय। परय्यौ चरनन पहिले हर्षाय॥
फेरि परिकरमा कीन्हेउ धाय। परय्यौ फिरि चरनन में हर्षाय॥
संदेशा उठि कै श्रवण सुनाय। लौटि के आयो जलदी धाय॥
सुनाय के प्रभु शर देंय चलाय। चलै गुरु के ढिग पहुँचै जाय।३७८०।
परै चरनन में पहिले भाय। पांच फिरि फेरी लेय लगाय॥
परै चरनन में फिरि हर्षाय। उठै औ कहै संदेशा गाय॥
श्रवण बाँये ढिग शब्द सुनाय। सुनैं गुरु तन मन अति हर्षाय॥
लखन जी गये गुरु सुखदाय। संदेशा यही कहन हम आये॥
परै फिरि चरनन में हर्षाय। चलै प्रभु पास में पहुँचै आय।३७९०।
चरन में परि उठि कहै सुनाय। संदेशा कहि आयन सुखदाय॥
प्रभु कर लै उर लेंय लगाय। धरैं तरकस में मन हर्षाय॥
गुरु श्री राज भवन में जाँय। कहैं सब हाल प्रेम से गाय॥
संदेशा पुरी में देंय फिराय। खुशी सब में मुद मंगल छाय॥
बधाई गृह गृह बाजै भाय। गान धुनि से आकाश गुँजाय।३८००।
सुमित्रा कौशिल्या सुखदाय। केकयी संग में रहीं सुहाय॥
आय सातौं सै रानी जाँय। लुटावैं पट धन मणि भुषणाय॥
संदेशा भरत के पास में जाय। खुशी होवैं सुनि दोनो भाय॥
गुरु को सब रानी हर्षाय। देंय पट मणि भूषण धन लाय॥
चलैं गुरु भवन को मन हर्षाय। संग में धीमर सब लै जाँय।३८१०।
पहुँचि जब भवन में श्री गुरु जाँय। लेंय सामान सबै धरवाय॥
लौटि धीमर अपने गृह जाँय। मगन तन मन ते को कहि पाय॥
खबरि यह रावण को लगि जाय। लखन जी गये युद्ध हो भाय॥
पहुँचि तब कुम्भकरण ढिग जाय। जागने की बिरिआ गइ आय॥
भये पूरे छा महिना भाय। बैठि उठि तन में आलस छाय।३८२०।
बीचि में जागि सकै किमि भाय। सकै बरदान को कौन मिटाय॥
लखै ठाढ़ो रावण तहँ भाय। करै परनाम दोऊ कर लाय॥
कहै रावण सब चरित सुनाय। आदि से अन्त तलक सब गाय॥
लड़ाई राम से ठनि गइ भाय। उठौ अब चलौ लड़ौ सुखदाय॥
भखौ महिषा मेढ़ा चट भाय। पिओ मद तन में बल अधिकाय।३८३०।
कहै तब कुम्भकर्ण हर्षाय। सुनो भाई मेरे सुखदाय॥
कह्यौ जो हम से बचन सुनाय। तौन हम स्वप्न में देखा भाय॥
आपसे ज्ञानी को है भाय। रच्यौ सब के हित ठीक उपाय॥
मरै जो हरि के सन्मुख जाय। चलै बैकुण्ठ हिये हर्षाय॥
ऋच्छ बानर का रूप बनाय। राम संग सुर बहु आये भाय।३८४०।
लड़ैं हम उनके संग में भाय। श्राप सनकादिक की सुखदाय॥
नाम जय आप का सुनिये भाय। विजय अस नाम हमार कहाय॥
रहैं बैकुण्ठ के फाटक भाय। बिष्णु के द्वारपाल कहवाय॥
देव मुनि हरि दर्शन को जाँय। दूर ते कर जोरैं तब भाय॥
चरण स्पर्श करन हित भाय। लालसा रहै न चलै उपाय।३८५०।
आज धन्य भाग्य हमारो आय। करैं स्पर्श सुरन हर्षाय॥
योग अस सतयुग परय्यौ न भाय। भयन जब हिरण कश्यप जाय॥
लड़ाई हरि के संग भइ आय। मारि बैकुण्ठ को दीन पठाय॥
आप हिरणाक्ष भयो बड़ भाय। योग आपौ फिर ऐस न पाय॥
लड़ाई हरि ही से भई भाय। मारि बैकुण्ठ दियो सुखदाय।३८६०।
रूप बाराह आप हित भाय। बनायो हरि जग में यश छाय॥
हमारे हित नर सिंह कहाय। कीन क्या लीला हरि सुखदाय॥
योग तीसर द्वापर में भाय। होव शिशुपाल नाम हम जाय॥
आप का नाम दन्त बक्राय। होय जग नर औ नारी गाय॥
प्रकट हरि होइहैं तहँ पर जाय। नाम श्री कृष्ण तहाँ कहवाय।३८७०।
मारिहैं कर कमलन ते भाय। चलैं बैकुण्ठ फेरि हर्षाय॥
श्राप मिटि तीनौं जन्म की जाय। होंय फिर द्वारपाल दोउ भाय॥
खेल बाजीगर कैसा भाय। नचावैं जैसे बानर लाय॥
राम से कौन लड़ै मम भाय। अंश सब उनके जीव कहाय॥
शेष शिव ब्रह्मा हरि सुखदाय। रहे निशि बासर जिनको ध्याय।३८८०।
लड़ै चक्री से घट किमि भाय। देंय जहँ धक्का चट ह्वै जाय॥
सनातन की मर्य्याद है भाय। कार्य्य सब होत निमित्त लगाय॥
महिष मेढ़ा मदिरा को भाय। खाँय नहिं पियैं सुनो चित लाय॥
प्याज लहसुन मसूर गजराय। माँस मदिरा जो कोई खाय॥
असर यकइस दिन तक तन भाय। रहत है धर्म शास्त्र बतलाय।३८९०।
मरै जो बीच में नर्कै जाय। भेद हम ठीक दीन बतलाय॥
आप सब जानत हौ मम भाय। आप को कौन सकै समुझाय॥
मँगावो गंगा जल कछु भाय। पियैं औ चलैं लड़न हित भाय॥
सुनै यह बैन दशानन राय। भवन को चलै हिये हर्षाय॥
सहस योधन ते कहै सुनाय। संग मेरे चलिये सब धाय।३९००।
सुनैं सब चलैं संग हर्षाय। पहुँचि श्री गंगा भवन को जाँय॥
कहै रावण तब बचन सुनाय। उठावो दुइ दुइ घट सब भाय॥
लै चलो कुम्भकर्ण ढिग धाय। पियैंगे गंगा जल लघु भाय॥
चलैं सहसौ योधा लै धाय। धरैं घट कुम्भकर्ण ढिग जाय॥
लखै औ तन मन ते हर्षाय। सोवरन कलशन जल सुखदाय।३९१०।
कलश दुइ दोनों करन उठाय। नाय लेवै मुख में जल भाय॥
इसी बिधि सब कलशन जल भाय। पाय कर खड़ा होय हर्षाय॥
कलश सब योधा लेंय उठाय। धरैं रावन के भवन में जाय॥
श्री गंगा जल कलशन भाय। एक सौ मन एक कलश में आय॥
वजन में कलश जानिये भाय। एक ही एक चालिस मन आय।३९२०।
कोस दुइ ऊँचा लम्बा भाय। मील भर चौड़ा उदर दिखाय॥
इसी का आधा रावण राय। ऊँच लम्बा चौड़ा था भाय॥
दशानन का आधा पुत्राय। नाम घननाद जासु का भाय॥
शम्भु औ देबी को बर भाय। घटै औ बढ़ै औ जाय बिलाय॥
राक्षस वंश को बर यह भाय। होय परगट फिर तरुण दिखाय।३९३०।
राक्षसी एक एक सहस्त्र प्रगटाय। चरित अब कुम्भकर्ण को भाय॥
कहैं कछु सुनिये तन मन लाय। कहै वीरन से हाँक सुनाय॥
तयारी करो लड़न की भाय। सुनत ही शूरबीर सब धाय॥
पास में आवैं मन हर्षाय। गर्जना करैं जोर से भाय॥
चलै नारायण को मन ध्याय। गर्द अस्मान में जावै छाय।३९४०।
सूर्य्य छिपि गये अँधेरिया आय। जहाँ मुर्चा बन्दी है भाय॥
आय रुकि जाँय पताक देखाय। बिभीषण कहैं श्री सुखदाय॥
आय गयो कुम्भकर्ण वीराय। बड़ा बलवान कहा नहि जाय॥
देखिहौ या के बल को भाय। कहैं रघुनाथ लखन सुखदाय॥
जाय के समर करौ हर्षाय। लखन धरि शिर चरनन पर धाय।३९५०।
चलैं लै रिच्छ कपिन हर्षाय। गर्द से कोइ न परै देखाय॥
शब्द सुनि परै तहाँ पर भाय। लखन जल बाण को देंय चलाय॥
होय जल बृष्टि कटक में जाय। गर्द गुब्बार का पता न भाय॥
परै सब सैना साफ देखाय। कहैं तब कुम्भकर्ण हर्षाय॥
लखन हौ धन्य धन्य सुखदाय। मास षट सोयन हम सुख पाय।३९६०।
जागि कै युद्ध करन हित आय। समय नहि मिल्यौ नहान को भाय॥
कृपा करि आप दिहेव नहवाय। गई सब सुस्ती तन की भाय॥
युद्ध करिहौं जो कछु बनि आय। सुनैं यह बैन ऋच्छ कपि भाय॥
दौरि कर चपटैं तन में जाय। सामने पहुँचि जाँय जे धाय॥
समेटि के मुख में छोड़ैं भाय। नाक औ कान औ मुख से भाय।३९७०।
निकसि के भागैं कपि ऋच्छाय। शीश पर खेल करैं बहु भाय॥
कूदि फिर कटक में पहुँचैं जाय। भालु कपि उदर के भीतर भाय॥
नासिका मुख कानन ह्वै जाँय। लगावैं दौरि हिये हर्षाय॥
निकसि फिर भागैं हँसि कै भाय। हँसै औ कहै सुनो तब भाय॥
लड़ै आयो की खेलन आय। लपटि कै काह करत हौ भाय।३९८०।
मैल क्या तन में रह्यौ छोड़ाय। नहीं बल तुम सब के कछु भाय॥
चहैं हम नहीं ऐसि सेवकाय। लै आवैं पत्थर के टुकड़ाय॥
लाखहू मन के एक एक भाय। ऋच्छ कपि संगै पहुँचैं जाय॥
शीश पर पटकैं हटै न भाय। गिरैं पत्थर जब नीचे आय॥
परैं जेहि पर सोई पिसि जाय। कहैं तब कुम्भकर्ण हंसि भाय।३९९०।
मसखरी हमका यह न सोहाय। मदार के बोड़िन कुञ्जर भाय॥
मारि कै कोई सकत भगाय। लड़न हम आये समर में भाय॥
यहाँ सब करत तमाशा आय। शूर कोइ परत नहीं देखलाय॥
भला कछु देर तलक समुहाय। सुनैं तब अंगद अति रिसिआँय॥
क्रोध करि पहुँचैं समुहे जाय। भिड़ैं कछु देर बालि सुत भाय।४०००।
फेरि गिर परैं मूर्च्छि महि जाय। चलैं फिरि कटक मध्य में जाय॥
भिरैं तहँ द्विविद नील नल आय। होंय ब्याकुल महि पर गिरि जाँय॥
रहै नहि सुधि बुधि मुर्च्छा आय। गवाक्षौ दधिबल गव रिसिआय॥
लड़ैं औ आखिर में गिरि जाँय। भिरैं सुग्रीव मयन्दौ धाय॥
लड़ैं कछु देर गिरैं महि आय। चलैं तब जाम्वन्त हंसि धाय।४०१०।
करैं रे दुष्ट सम्हरु मैं आय। लखै औ कहै सुनो बृद्धाय॥
हंसी हम नहि करवै है भाय। बृद्ध से जीतै हारै भाय॥
होति है हानि शास्त्र बतलाय। आप चतुरानन अंश कहाय॥
सृष्टि के करता पितु सुखदाय। आप से लड़िकै बैर बढ़ाय॥
बंश की उत्पति जाय नशाय। कृपा अब कीजै हम पर भाय।४०२०॥
लड़ैं हम आप से कैसे धाय। सुनैं हनुमान पहुँचि तहँ जाँय॥
होय फिर युद्ध बेग से भाय। मारु मुष्टिकन तमाचन भाय॥
होय तहँ शब्द दूरि तक जाय। कहैं तब कुम्भकर्ण हर्षाय॥
शम्भु का रूप आपु सुखदाय। इसी से दया जाति कछु आय॥
नहीं तो देखतेव मम बल आय। शम्भु है विष्णु के प्रिय अति भाय।४०३०।
करत नित बिष्णु से हर चरचाय। याद बैकुण्ठ कि आवत भाय॥
क्रोध आवत औ जात हेराय। सत्य मैं आप से कह्यौं सुनाय॥
आप संग युद्ध न हमै सुहाय। कहैं हनुमान विजय सुखदाय॥
बिष्णु के द्वार पाल तुम भाय। याद हमहूँ को सब है भाय॥
क्रोध ऊपर से करौ बनाय। बिष्णु हर को निशि बासर ध्याय।४०४०।
रहै हैं एकतार मन लाय। एकता ऐसी कहा न जाय॥
शेष नारद नहिं सकैं बताय। जगत हित खेल होत यह भाय॥
तरैं नर नारी कीरति गाय। आप हम में हम आप में भाय॥
आप ही आप करत खेलवाय। आप ही खेलैं बहु बनि भाय॥
आप ही आप रहै बतलाय। एक ही हरि दूसर को भाय।४०५०।
जानते सब हौ रहै बकाय। कहैं तब कुम्भकर्ण हर्षाय॥
होय अब पकड़ एक फिरि भाय। भिरैं दोउ बीर परस्पर आय॥
लड़ैं कछु देर गिरैं नहिं भाय। पकड़ि हनुमान को उर में लाय॥
छोड़ि कर गिरै उतानै भाय। प्रेम आवेश मिटै जब भाय॥
खड़ा होवै तब हिय हर्षाय। कहैं तब लछिमन हाँक सुनाय।४०६०।
संभरु रे दुष्ट काल गो आय। चलावैं बाण मंत्र पढ़ि भाय॥
एक ते शत सहस्त्र ह्वै जाँय। बेधि सब तन में जावैं धाय॥
रुधिर से तर शरीर ह्वै जाय। कहै तब कुम्भकर्ण हर्षाय॥
मरौं नहिं आपके मारे भाय। आप हौ धरणी धर अंशाय॥
लड़न का हाल न जानौ भाय। जाय अब धरणी थाम्हौ जाय।४०७०।
नाम धुनि रूप में चित्त लगाय। राम की सेवा के बल भाय॥
बाण कछु मम तन मारय्यौ आय।नींद अरु नारि क त्यागेव भाय॥
किहेव चौदह बर्षै सेवकाय। भेष तापस का लिहेव बनाय॥
वीर्य्य रक्षा खूब कीन्हेव भाय। इसी से मारय्यौ शर तन भाय॥
नहीं तो नेक न लागत आय। हमारौ अंग वज्र सम भाय।४०८०।
बाण तौ बेधि सकैं नहिं आय। बेधिहैं हरि निज बाणन भाय॥
देखिहौ आप सत्य हम गाय। करौ जो आप कि चलै उपाय॥
प्रभु के सन्मुख अब हम जाँय। लखन हंसि कहैं कुम्भकर्णाय॥
धन्य तव मातु पिता जन्माय। मारि सब तन हम बेधेन भाय॥
तुम्हैं कछु दुख न परत बुझाय। शूर रणधीर बड़े तुम भाय।४०९०।
दीन बिधि ने तुम को बर आय। बर्ष में दुइ दिन जागौ भाय॥
दिवस निशि सोवौ पग फैलाय। अगर कहुँ दुइ दिन सोवतेउ भाय॥
और सब निशि दिन जागतेव आय। पेट भर भोजन मिलत न भाय॥
कहाँ तक रावण करत उपाय। दीन मति बिधि ने तब उलटाय॥
शारदा जिह्वा पर बैठाय। लखन के सुनि सब बैन बड़ाय।४१००।
चलै श्री राम ब्रह्म ढिग धाय। लखैं रघुनाथ उठैं हर्षाय॥
चढ़ावैं धनुष बान कर लाय। पहुँचि सन्मुख चरनन गिरि जाय॥
चलैं दोउ दृगन ते आँसू आय। फेरि कर शिर पर दें सुखदाय॥
खड़ा होवै कर जोरि के भाय। कहै प्रभु धन्य दीन सुखदाय॥
देत अधमन के पाप नशाय। भक्त वत्सल हरि आप कहाय।४११०।
हेतु मेरे जग प्रगटयौ आय। उबारयौ सतयुग में प्रभु जाय॥
समय अब फेरि रह्यौ नगचाय। कृपा निधि द्वापर में दोउ भाय॥
जाँय हम ख्याल न दिहेव भुलाय। भेजिये जलदी अब सुखदाय॥
सामने खड़ा हूँ शिर निहुराय। लड़ौं मैं कासे हे सुखदाय॥
देव सब ऋच्छ कपी बनि आय। आप का नाम सुमिरि सुखदाय।४१२०।
धरैं बहु रूप कौन कहि पाय। रूप दूसर धरि देखन आय॥
रहै सब आसमान में छाय। सिंहासन हमै परत देखलाय॥
बहुत हैं कौन उन्हैं गिनि पाय। आप मालिक सब के सुखदाय॥
देर अब करौ न देव पठाय। कहैं प्रभु कुम्भकर्ण वीराय॥
क्रोध करि युद्ध करौ कछु धाय। भालू बानरन को मारौ जाय।४१३०।
क्रोध तब हमरे तन में आय। नहीं तो मारैं हम किमि धाय॥
साँच हम तुमसे कहैं सुनाय। बिना कोइ कारन कारज भाय॥
होत नहिं वेद शास्त्र कहैं गाय। ऋच्छ कपि मरैं न एकौ भाय॥
लौटि सब अवध मेरे संग जाँय। वंश तव जो संग लड़िहै आय॥
छोड़ि तनु बिष्णु पुरी को जाय। सुनै हरि के अमृत बचनाय।४१४०।
लड़ै तब भालु कपिन ते धाय। दोउ कर कसिकै देय घुमाय॥
गिरैं बहु तर ऊपर महि आय। क्रोध तन में प्रभु के तब आय॥
चलावैं बाण शीश कटि जाय। गिरै शिर महि में मानो भाय॥
धमाका उठै तोप सम आय। हंसै शिर कहै राम सुखदाय॥
सिंहासन नभ ते आवत धाय। फेरि हरि मारैं शर एक भाय।४१५०।
दहिन भुज कटि कै महि गिरि जाय। तीसरे बाण से बाम भुजाय॥
काटि हरि देवैं धरणि गिराय। बाण चौथा हरि देंय चलाय॥
नाभि से धड़ कटि महि गिरि जाय। बाण पंचवां प्रभु मारैं भाय॥
गिरैं पग जुदे जुदे दोउ भाय। उसी क्षण दिब्य रूप ते भाय॥
बैठि जावै बिमान हर्षाय। कहै पारषदन से सुनिये भाय।४१६०।
राम ढिग चलौ यान लै धाय। चलैं पारषद प्रभु ढिग जाँय॥
धरैं उतरै तहँ पर हर्षाय। करै पैकरमा पाँचौ धाय॥
गिरै चरनन में हिय हर्षाय। उठाय के हरि उर लेंय लगाय॥
न जानैं भालु कपी लखनाय। बैठि के सिंहासन में भाय॥
करै फिरि राम नाम धुनि गाय। उड़ैं पारषद जाँय लै धाय।४१७०।
देव मुनि जै जै करैं सुनाय। फूल बरसावैं नभ ते भाय॥
दुन्दभी बाजा अपन बजाय। सिंहासन श्री बैकुण्ठ में जाय॥
धरैं पारषद हिय हर्षाय। उतरि फिर रमा बिष्णु ढिग जाय॥
परै चरनन में अति सुख पाय। मातु पितु कर शिर देंय फिराय॥
कहैं बैठो आसन पर जाय। संग ही देंय तुम्हैं दरजाय।४१८०।
आय बड़ भ्रात तुम्हारो जाय। रही अब द्वापर की श्रापाय॥
प्रभू किरपा वह भी मिटि जाय। सुनै यह बैन चलै हर्षाय॥
जाय सिंहासन बैठै जाय। दशानन सुनै हिये हर्षाय॥
बुलावै मेघनाद पुत्राय। कहै लघु भ्रात कुम्भकर्णाय॥
मारि हरि दीन सुनो सुखदाय। जाव अब लड़ौ समर में धाय।४१९०।
देखावो छल बल सब को जाय। चलै संग सेना लै बहु धाय॥
पहुँचि फिरि समर भूमि में जाय। लखन लखि कहैं प्रभु सुखदाय॥
आयगो मेघनाद योधाय। कृपा से आप कि मारौं जाय॥
बचै नहि अबकी कहूँ लुकाय। राम हसि कहैं लखन सुखदाय॥
मारिहौ अब नहिं बचि कै जाय। लखन प्रभु चरनन परि उठि धाय।४२००।
चलैं लै कटक भालु कपि भाय। जाँय सन्मुख में होय लड़ाय॥
सरासर बाण चलैं दुखदाय। राक्षस बाण सिखे बहु भाय॥
चलावैं खूब ज़ोर करि धाय। राक्षस मारैं बहु लखनाय॥
लखै घननाद क्रोध तन छाय। मारि बाणन ते कपि ऋच्छाय॥
देय महि ऊपर तहाँ गिराय। नील नल अंगद द्विविदौ भाय।४२१०।
गिरैं दधिबल मयन्द मुर्च्छाय। गिरैं सुग्रीव गवाक्षौ भाय॥
गिरैं गव और बिभीषण राय। होश कछु पवन तनय को भाय॥
कटक सब तितिर बितिर ह्वै जाय। चलै तब जाम्वन्त समुहाय॥
कहै अब मोर तोर युद्धाय। कहै घननाद जानि बृद्धाय॥
छोड़ि हम दीन न मारेन भाय। कहै तब जाम्वन्त रिसिआय।४२२०।
कीन तुइ कौन बीरता आय। भालु कपि बिना अस्त्र के आय॥
शस्त्र से मारे कौन बड़ाय। बहादुरी तब जानित हम भाय॥
लड़त तुइ बिना अस्त्र के आय। अस्त्र जा के कर होवै भाय॥
लड़ै वह उससे समता आय। अस्त्र गिरि परै टूटि जो जाय॥
न मारै उसे धर्म युद्धाय। मारिहैं लखन तोहिं अब भाय।४२३०।
काल तेरे शिर पर मड़राय। सुनै घननाद बचन यह भाय॥
क्रोध तन में अति जावै आय। धनुष औ बान डारि महि धाय॥
कहै आओ देखैं बल भाय। पकरि के फेकौं ऊपर जाय॥
प्राण लौटत में तन से जाँय। मारिहौं या बिधि ते तोहिं भाय॥
रहे जो धर्म शास्त्र बतलाय। पहुँचि सन्मुख कर करन भिराय।४२४०।
करै अति ज़ोर न चलै उपाय। घसोटा जाम्वन्त दैं भाय॥
गिरावैं पट महि ऊपर आय। होय मुर्च्छा कछु होश न भाय॥
बालुका मुख में कछु भरि जाय। भालु कपि होश में आवैं भाय॥
लखैं यह कीन युद्ध बृद्धाय। उठै तो फेरि लड़ै यह धाय॥
बिकल करिहै छल बल ते भाय। अभी मुर्च्छा में पड़ा देखाय।४२५०।
पीटि लीजै खुब आह बुताय। शक्ति श्री लखन के मारेसि धाय॥
वही यह दुष्ट पड़ा महि भाय। लेव सब मिलि बदला वह भाय॥
दाह सब के तन की बुझि जाय। कहैं तब जाम्वन्त सब भाय॥
शान्त ह्वै सुनो बचन दुख जाय। मरै नहिं हम तुम से यह भाय॥
लखन के हाथन मरिहै आय। नहीं कछु होश इसे है भाय।४२६०।
मारना अनुचित हमैं बुझाय। सोवते बालक का मुख भाय॥
चूमिये का जानै को आय। सूर का धर्म नहीं यह आय॥
मूड़ सोवत में काटै जाय। करै विश्वास घात जो भाय॥
मिलै फल देर न लागै आय। जौन जस करै तैस फल पाय॥
मानिये सब यह मम बचनाय। इसे हम लंक को देंय पठाय।४२७०।
होश जब ह्वै है तब फिरि आय। लड़य्यौ फिरि जा के मन जस आय॥
अभी तो पड़ा होश नहिं भाय। सुमिरि सिय राम नाम बृद्धाय॥
दहिन पग पकड़ैं झुकि कै भाय। घुमावैं सात बार तेहि भाय॥
फेंकि दें लंक द्वार पर जाय। लगै ठोकर फाटक गिरि जाय॥
शब्द पुर भर में जावै छाय। चेत कछु देर में होवै आय।४२८०।
लखै लंका कोहि बिधि हम आय। उठै निज भवन में पहुँचै जाय॥
यज्ञ की सब समान भरवाय। जाय देबी मठ के समुहाय॥
निशाचर चारों तरफ से भाय। खड़े होवैं कर लै शस्त्राय॥
करै तब हवन धूम से भाय। शब्द स्वाहा का परै सुनाय॥
धुवाँ असमान में छायो जाय। उठैं लपटैं सुगन्ध की भाय।४२९०।
महक बहु दरि तलक बहि जाय। बिभीषण कहैं प्रभू सुखदाय॥
यज्ञ घननाद करत लंकाय। पूर जो होवै मरै न भाय॥
मातु काली को बर हो जाय। करो जलदी अब प्रभू उपाय॥
यज्ञ विध्वंश होय दुख जाय। कहैं प्रभु पवन तनय सुखदाय॥
जाव कछु वीर संग लै धाय। यज्ञ विध्वंश करावो जाय।४३००।
कार्य्य यह होय विलम्ब न लाय। चलैं चरनन धरि शिर मरुताय॥
संग नल नील सुभट मरुताय। अंगदौ गव गवाक्ष संग जाय॥
चलैं सुग्रीव दधिबल धाय। मयन्दौ जाम्वन्त संग जाय॥
पहुंचि श्री लंक पुरी हर्षाय। सरोवर एक बना तहँ भाय॥
भरा निर्मल जल मीन देखाय। राक्षस चहुँ दिशि घेरे भाय।४३१०।
खड़े हैं अस्त्र लिहे दुखदाय। हवन का कुण्ड बड़ा गहिराय॥
सामने मंदिर के हैं भाय। टाल तन्दुल यव तिलन क भाय॥
धूप जयफर औ लौंग मिलाय। शुद्ध मल्यागिरि गूगुर भाय॥
नारियल और कपूर मिलाय। सुगन्धैं कई भाँति की भाय॥
सबै मेवा ता में ढिलवाय। सोवरन कलशन घी भरवाय।४३२०।
धरायो शोभा कही न जाय। पताका बन्दन लागे भाय॥
पवन से फहर फहर फहराय। बना मंदिर लाले पथराय॥
मोहारा यकइस ता में भाय। झरोखा दस चहुँ ओर देखाय॥
हवा खुब भीतर आवै जाय। सोबरन के दरवाजा भाय॥
केंवारा चाँदी के चमकाय। कोस ढाई के गिर्द में भाय।४३३०।
गोल चहुँ दिशि ते भवन सोहाय। लिखा श्री काली नाम देखाय॥
भवन के भीतर बाहेर भाय। बना पैकरमा चहुँ तरफ़ाय॥
चहुँ दिशि दर गोले सुखदाय। उँचाई लखत शीश चकराय॥
भवन अति सुन्दर मानौ भाय। भवन के दर जो यकइस भाय॥
बराबर इनके हैं सुखदाय। पुरी भर के सब नित प्रति आय।४३४०।
करत हैं दर्शन प्रेम लगाय। साल भर में दुइ दिन हर्षाय॥
दर्श हित कुम्भकर्ण तहँ जाय। मूर्ति काले पाषाण कि भाय॥
हाथ चौदह ऊँची सुखदाय। बैठि पच्छिम मुख मठ में भाय॥
लगाय वीरासन तहँ माय। भुजा हैं सौ ता में सुखदाय॥
बने खप्पर पचास भुज भाय। पचास में असि को दीन बनाय।४३५०।
धन्य विशकर्मा की लीलाय। जड़ा मस्तक में हीरा भाय॥
लखत ही नैन जाँय चौंधाय। बने सब वस्त्र मूर्ति में भाय॥
तैल मृग मद युत लागै आय। भाल में तैल सिंदूर मिलाय॥
लगै नित देखत ही बनि आय। जीह मुख लाली बाहेर भाय॥
लटकती देखि के होश उड़ाय। जलैं बहु दिया राति दिन भाय।४३६०।
गऊ घृत और कपूर मिलाय। मणी ताखेन में धरी देखाय॥
राति में दुति अति जावै छाय। भोग नाना बिधि के तहँ लाय॥
लगावैं पुर वासी नित आय। रचा मय दानव लंक बनाय॥
नहीं कमती कोइ चीज़ कि भाय। भरी सब रिद्धि सिद्धि सुखदाय॥
खाय जा के जो मन में आय। नाग पुरी इन्द्र पुरी शरमाय।४३७०।
बनी ऐसी सुन्दर सुखदाय। आरती अपनी अपनी लाय॥
करैं पुरवासी नित हर्षाय। बैठि तहँ मेघनाद हर्षाय॥
करावै यज्ञ प्रेम से भाय। लख्यौ यह भालु कपिन तहँ जाय॥
लीन सब मातु को शीश नवाय। सरोवर में पहुँचैं सब धाय॥
भरय्यौ मुख में जल जो कछु आय। जाय तहँ ऊपर ते मूँह बाय।४३८०।
दीन जल छोड़ि हवन में भाय। निशाचर ऊपर ताकैं भाय॥
लखै संग मेघनाद रिसिआय। कहै इन सब को मारो धाय॥
यज्ञ यह भ्रष्ट कीन यहँ आय। तयारी करो युद्ध हित भाय॥
चलो इन सब को देंय नशाय। वाद्य सब युद्ध के देंय बजाय॥
सेन सुनतै तयार ह्वै जाय। चलैं सब क्रोधातुर ह्वै धाय।४३९०।
जहाँ पर मुर्चा बन्दी आय। करै घननाद गरजना भाय॥
शब्द द्वै योजन तक मँड़राय। राम तब कहैं लषण सुखदाय॥
जाव लै कटक लड़न हित भाय। मारिहौ अब की तुम लघु भाय॥
आयगा समय कहाँ भगि जाय। सुनैं यह बैन लखन वीराय॥
परैं चरनन में प्रभु के धाय। राम शिर पर कर देंय फिराय।४४००।
लखन उठि धनुष बाण लै धाय। चलै कपि ऋक्ष कपी सेनाय॥
एक से एक महा सुभटाय। लड़ाई ठनै तहाँ पर भाय॥
दोऊ दिशि हा हा कार सुनाय। ऋक्ष कपि पकड़ि राक्षसन भाय॥
मही पर पटकैं देंय बहाय। मृतक जेहि निशिचर के लगि जाय॥
गिरै सेना में होश न भाय। लखै घननाद अती रिसिआय।४४१०।
उठावै अग्नि बाण दुखदाय। कहै सेना सब देऊँ जलाय॥
लषन का करैं हमारो भाय। चलावै बाण अगिनि लगि जाय॥
अनी सब तितिर बितिर ह्वै जाय। लखन जल बाण को देंय चलाय॥
शांति सब पावक तहँ ह्वै जाय। चलैं बजरंग क्रोध करि धाय॥
खड़ा घननाद जहाँ दुखदाय। पकड़ि ले किटकिटाय के भाय।४४२०।
कहै अब तुम को कौन छुड़ाय। बड़े तुम वीर कहावत भाय॥
बीरता अब ही देंउ नशाय। उड़ै लै आसमान को जाय॥
करै द्वै घंटा खूब लड़ाय। तमाचा मुष्टिक बहु पेचाय॥
करै नाना बिधि माया भाय। पवन सुत दाहिन चरण उठाय॥
देंय उर में तब चक्कर खाय। आय नीचे फिरि ऊपर जाय।४४३०।
कहै धनि धन्य पवन पूताय। लड़ै फिरि अस्त्र लै कर दुखदाय॥
पवन सुत के नहि नेक बिसाय। अंग सब वज्र का सुर मुनि गाय॥
समुझि मन भागि मही पर जाय। पकड़ि अंगद से होवै भाय॥
बहुत कुछ दाँव करै दुखदाय। पकड़ि कर अंगद पीठी लाय॥
मही पर पटकैं चटि उड़ जाय। उछरि सुग्रीव गगन में जाय।४४४०।
करैं तँह मारि तमाचन भाय। लड़ै दुइ घड़ी वहाँ रिसिआय॥
चलै बस नहीं भूमि पर आय। मयंदौ द्विविद पकड़ि लें धाय॥
गिरावैं तस अन्तर ह्वै जाय। करैं माया बहु रूप बनाय॥
कपी औ ऋक्षन ते भिड़ जाय। मारि व्याकुल करि दे दुखदाय॥
ऋक्ष कपि मूर्च्छि गिरैं महिं भाय। नील नल के सन्मुख जस आय।४४५०।
पकड़ि लें दोनों कर तहँ धाय। चहैं अब मारैं खूब अघाय॥
निबुकि के दूर परै दिखराय। न जानैं माया का तन आय॥
क्रोधि करि किटकिटाय रहि जाँय। चलै तब ऋक्षराज समुहाय॥
अनेक ते एक होय शरमाय। कहैं तब जाम्वन्त गोहराय॥
खड़ा रह भागि कहाँ को जाय। कहै कर जोरि सुनो बृद्धाय।४४६०।
लड़ैं हम आप से का मूँह लाय। पकड़ि पग फिंक्यो अति बलदाय॥
गयो सब हमरो होश उड़ाय। लड़ेन हम बड़े बड़े शूराय॥
न हारेन कहीं विजय करि आय। कीन मद चूर आप बृद्धाय॥
थाह तव बल की कही न जाय। पिता की आज्ञा ते हम आय॥
नहीं तो छिपि कहीं बैठित जाय। मरैं प्रभु सन्मुख रण में भाय।४४७०।
पाप सब नाश होंय दुख जाय। हाँक दै चलै लषण पर धाय॥
दोऊ कर भाला लीन्हे भाय। चलावै बड़े बेग से आय॥
काटि चट बाण ते दें लषनाय। उठावै बरछी फेंकै भाय॥
लषण तेहि शर दे देंय पराय। गदा औ साँग बहुत अस्राय॥
चलावै चलै न एक उपाय। समुझि जाय मन में बचैं न भाय।४४८०।
समय अब हमरा गा नियराय। कहैं तब लषण सुनो दुखदाय॥
वार हमरा अब रोकौ भाय। चलावैं लषण बाण रिसिआय॥
काटि कृपाण से देय गिराय। फिरै फिरकी सम ठौरै भाय॥
देखत बने कौन कहि पाय। दोऊ कर साधे असि चमकाय॥
बाण की सान न नेरे जाय। लषण के बाण एक से भाय।४४९०।
होंय दस दस से सहस्त्र देखाँय। सहस से दस सहस्त्र ह्वै जाँय॥
फेरि सौ सहस चलैं सन्नाय। न बेधैं मेघनाद तन भाय॥
दुरावै अति ते अति रिसिआय। कहै हे बीर सुनो लषनाय॥
न बेधैं बाण अंग मम भाय। सिखेन हम तात से बहु बिद्याय॥
जौन अब समर में होत सहाय। फेरि उड़ि के अकाश को जाय।४५००।
वहाँ से गरजत भूमि को आय। सेन बहु गिरै मही कपि जाय॥
उदधि का जल बाहर बहि जाय। कच्छ औ मच्छ मरैं बहु भाय॥
एक ते एक जाँय टकराय। गिरैं बहु बिटप भूमि पर आय॥
मरैं पक्षी मुख पर फैलाय। पंख कितनेन के कटि भाय॥
फटकते कितने चोंच को बाय। लषण तब सिया मातु को ध्याय।४५१०।
चलावैं शर सन्नाते जाँय। नाभि में लगैं पार ह्वै जाँय॥
गिरै महि मुर्च्छित ह्वै के भाय। चेत कछु होय भजे रघुराय॥
कहै प्रभु पठवौ बैकुण्ठाय। सिंहासन दिब्य आय तहँ जाय॥
त्यागि तन रूप चतुर्भुज पाय। बैठि सिंहासन अति हर्षाय॥
कहै जै जै श्री रघुपति राय। पारषद चलैं यान लै धाय।४५२०।
देव नभ बाजा रहै बजाय। पहुँचि बैकुण्ठ बिष्णु ढिग जाय॥
रमा हरि आशिष दें हर्षाय। जाव अब सुख भोगो वीराय॥
चलै तब क्षीर समुद्र ते धाय। पहुँचि जाय जहाँ भक्त बहु भाय॥
यान तहँ पड़ा सुभग सुखदाय। बैठि कहि राम राम सुखदाय॥
खबरि यह रावण के ढिग जाय। जूझिगा मेघनाद पुत्राय।४५३०।
सुनत ही उठै गिरै बिलखाय। चेत नहिं रहै देर तक भाय॥
मँदोदरि रानी तहँ पर आय। देय मुख गंगा जल को लाय॥
करै पंखा मुख पर मन लाय। होश में आवै रावण राय॥
कहै रानी तब बैन सुनाय। कहा नहि मान्यौ सो फल पाय॥
युद्ध की करो तयारी जाय। देर अब काहे रह्यौ लगाय।४५४०।
प्रभु के हाथन तन बिनशाय। चलो हरिपुर बैठो हर्षाय॥
सुनै यह बैनि नारि के राय। उठै शिव सुमिरि चलै बलदाय॥
पहुँचि दरवाजे पर जब जाय। हुकुम तब कटक में देय कराय॥
सजै बहु सेन दौरि तहँ आय। दशानन जहाँ खड़ो देखराय॥
सवारी रथ की पर तब भाय। बैठि कै चलै संग सेनाय।४५५०।
पहुँचि कै समर भूमि में भाय। कहै अब लड़ौ संग शेषाय॥
सुनत ही चलैं लषण हर्षाय। राम के चरनन शीश नवाय॥
संग बहु बानर ऋक्ष सहाय। लखै तब दशमुख हंसै ठठाय।
मूल फल पाती पेट भराय। भिड़ैं मम सन्मुख कैसे आय॥
सुनत बजरंग उछरि कै जाँय। होय तब पकड़ि जोर से भाय।४५६०।
तमाचा मुष्टिक मारैं राय। पवन सुत के नहिं कछु बिसाय॥
कहैं हनुमन्त सँभरि अब राय। हनौं मुष्टिक तब छाती भाय॥
कहैं औ मुष्टिक देंय चलाय। लगै तब छाती पर मुरछाय॥
गिरै धरती पर चेत न भाय। निशाचर बहुत तरे दब जाँय॥
मरैं चट पहुँचैं हरि पुर जाय। होश में आवै रावण राय।४५७०।
बैठि चट रथ पर देय उड़ाय। पहुँचि रथ लंक पुरी में जाय॥
उतरि बैठै तन मन शरमाय। कहै मम अहंकार दुखदाय॥
छानि बल लियो न चलत उपाय। मनै मन बार बार पछिताय॥
चलै फिरि रथ को देय घुमाय। कटक में पहुँचि कहै रिसिलाय॥
लड़ाई करौ लषण ते भाय। बैन सुनि कहैं लषण हे राय।४५८०।
संभरिये बाण हमारो आय। खैंचि धनु मारैं शर रिसियाय॥
चलें भन्नाय सर्प सम धाय। दशानन बाण ते बाण को भाय॥
काटि महि ऊपर देय गिराय। लषण छा घंटा बाण चलाय॥
काटि दश मुख सब देय हटाये। लषण ते कहैं दशानन राय॥
न लागै बार तुम्हारो भाय। लड़ैं हम प्रभु के संग में भाय।४५९०।
बेधिहैं शर मेरे तन आय। बाण बहु कटक में देय चलाय॥
गिरैं कपि रिक्ष बिकल मुख बाय। बिभीषण कहैं प्रभू सुखदाय॥
आप बिन को अब करै सहाय। तुरत ही धनुष बाण ले धाय॥
युद्ध में पहुँचि जाँय रघुराय। निरखि रावण शर देय चलाय॥
काटि दुइ खण्ड करैं रघुराय। बाण तब कोटिन रावण राय।४६००।
चलावैं काटैं श्री सुखदाय। खींचि धनुबाण श्रवण ढिग लाय॥
चलावैं प्रभु पहुँचैं सर्राय। मंत्र पर भाव बड़ा है भाय॥
एक ते एक लाख ह्वै जाँय। बेधि सब तन में जावैं भाय॥
रुधिर की धार चलाय हहराय। देखि तन दशा दशानन राय॥
खेंचि शर भूमि में देय गिराय। बाण प्रभु दूसर देंय चलाय।४६१०।
काटि सब शिर भुज देवै जाय। फेरि शिर भुज तुरतै हरियाय॥
कहै रावण तन नम: शिवाय। प्रगट ह्वै शम्भु राम ढिग जाँय॥
कहैं वाको बरदान सुनाय। शीश यह कोटि बार रघुराय॥
चढ़ाइस हम पर है बलिदाय। दीन आशिष तब हम हर्षाय॥
एक से कोटि क फल मिलि जाय। कटैं या बिधि ते जब सुखदाय।४६२०।
मरै तब रावण आशिष जाय। होंय हर अन्तर भेद बताय॥
प्रभू जानैं कोइ जान न पाय। बाण रघुनाथ के अति बिकटाय॥
काल के काल को देंय नशाय। लागतै शिर भुज चट कटि जाँय॥
देरि नहिं लागै फिर उगि जाँय। भुजा शिर आसमान मंडराँय॥
निरखतै बनै गिनै को भाय। देव मुनि तन मन से रहे ध्याय।४६३०।
हतौ अब बेगि श्री सुखदाय। पूर आशिष शिव को भै भाय॥
कटैं भुज शिर फिर नहिं दिखलाय। मारि कै बाण श्री रघुराय॥
बेधि धड़ टांगैं दीन्हों भाय। गिरै फिर उठै रुँड बलदाय॥
मरै नहिं दोउ दल देखैं भाय। सुरति सीता माता में भाय॥
लगी यह जान्य्यौ श्री रघुराय। बाण नाभी पर छाँड्यौ भाय।४६४०।
लागतै ध्यान गयो बिसराय। गिरत ही धरनि छूटि तन भाय॥
रूप तब मिल्यौ दिब्य सुखदाय। राम सिय राम राम कहि भाय॥
सिंहासन पर बैठ्यौ मुसक्याय। उठा सिंहासन तब सुखदाय॥
देव नभ ते लखि लखि हर्षाय। फूल प्रभु के ऊपर बरसाय॥
बजावैं बाद्य रहै गुण गाय। कटे सब के बंधन रघुराय।४६५०।
करैं अब निर्भय जप पूजाय। पहुँचिगा दशमुख हरिपुर जाय॥
यान ते उतरि परयौ हर्षाय। गयो पितु मातु के ढिग तब धाय॥
निरखि हरि उठि उर में लिये लाय। परसि पितु मातु के चरनन भाय॥
बैठिगा चट आशिष को पाय। दूध तब एक कटोरा भाय॥
पिलायो पीठी पर कर लाय। कह्यौ अब द्वार पाल हो जाय।४६६०।
दोऊ भ्राता मिलि कछु कालाय। रही बाकी एकै शापाय॥
वह मिटि जैहै समय पै आय। उठय्यौ तब दशमुख अति हर्षाय॥
गयो जहँ कुम्भकरण बैठाय। निरखतै उठि लपट्यौ हर्षाय॥
मनो मणि फर्ण कै मिलिगै भाय। पकरि कर से कर दोउ सुखदाय॥
चले फाटक पर पहुँचैं जाय। भये दोऊ द्वार पाल सुखदाय।४६७०।
कहैं जै जै जै त्रिभुवन राय। रहै दुइ द्वारपाल जो भाय॥
गये बैकुण्ठ में बैठे जाय। सिया बर पावक बाण उठाय॥
चलावैं सब निशिचर जरि जाँय। मिलै तन दिब्य सबै सुखदाय॥
चढ़ैं यानन पर अति सुख पाय। पहुँचि जाँय बैकुण्ठै हर्षाय॥
उतरि बैठैं सब हरि गुण गाय। कहैं प्रभु सुनो बिभीषण राय।४६८०।
चलो सीता ढिग लषण लिवाय। चलैं प्रभु लषण बिभीषण राय॥
पहुँचि जाँय बन अशोक में आय। परै सिय चरण राम के भाय॥
देंय आशिष प्रभु तन पुलकाय। बिभीषण लषण सिया के जाय॥
परैं चरनन तन मन हर्षाय। सिया कर सिर पर देंय फिराय॥
कहैं प्रभु चरनन प्रीति दृढ़ाय। यान बहु हरि पुर से मंगवाय।४६९०।
कहैं प्रभु बैठैं कपि ऋक्षाय। बैठि जाँय ऋक्ष कपी हर्षाय॥
बिभीषण लषण संग में भाय। राम सिया एक यान में आय॥
बैठि जाँय शोभा कही न जाय। उठैं तब यान चलैं सर्राय॥
पहुँचि जाँय अवधपुरी में आय। लखैं पुरवासी यह सुख भाय॥
बजै घर घर में अनन्द बधाय। उतरि यानन ते कपि ऋक्षाय।४७००।
परैं गुरु वशिष्ठ के पग धाय। राम सिया लषण बिभीषण राय॥
परैं श्री गुरु के चरनन जाय। उठाय के गुरु उर लेंय लगाय॥
कहैं आनन्द करौ अब जाय। राम सिया लषण चलैं हर्षाय॥
परैं माता के चरनन आय। देंय आशिष माता मन भाय॥
फरौ फूलौ सब जन सुख पाय। सुनैं तब भरत शत्रुहन भाय॥
पहुँचि जाँय नन्दि ग्राम ते आय। चरन पर राम सिया के धाय।
देंय आशिष बैठैं हर्षाय। कहैं यश कृष्ण दास यह गाय॥
पढ़ैं औ सुनै गुनै बनि जाय।४७१५।
'श्री राम जी के 'राज्य तिलक' की कथा वर्णन'
कजरी:-
सोहैं रतन सिंहासन ऊपर प्रभु के संग किशोरी जी।
नख सिख दिब्य सिंगार अनूपम प्रेम कि बोरी जी।
झाँकी देख के सुर मुनि मोहे परी ठगोरी जी।
बिधि ने मानहु छबि त्रिभुवन की लीन बटोरी जी।
बाँटि दीन है राम सिया को कर बर जोरी जी।५।
राज्य तिलक के समय मुदित पुर के नर गोरी जी।
सातौं सै रानी दशरथ की भईं चकोरी जी।
रहीं झरोखन झाँकि छकैं छबि तृण को तोरी जी।
श्री वशिष्ठ जी कीन्ह तिलक फिर द्विजन हंकोरी जी।
मातु कौशिल्या और सुमित्रा कैकेयी इक ठौरी जी।१०।
बार बार आरती उतारैं मानहु भोरी जी।
गद्गद कण्ठ बोलि नहिं पावैं प्रेम फंसोरी जी।
देहिं अशीष मनै मन माता चित छबि जोरी जी।
करैं निछावर मणि पट भूषण भरि भरि झोरी जी।
याचक सब तन मन से हर्षित इच्छा तोरी जी।१५।
सुर मुनि जै जै करैं सुमन फेंकैं दोउ ओरी जी।
गावैं सुर गन्धर्व अपसरा तानैं तोरी जी।
नाना बिधि के साज बजैं तँह घन घुमण्ड चहुँ ओरी जी।
चारौं वेद शेष शिव शारद गणपति जोरी जी।
स्तुति करैं प्रेम तन मन से सब कर जोरी जी।२०।
बिनती करि सुर नर मुनि माँग्यौ बिदा बिदौरी जी।
कृष्ण दास कहैं युगुल रूप पर सूरति मोरी जी।२२।
सावन शुक्ल पक्ष तृतिया को झूला झूल्यो सीता राम।
इच्छा भई किशोरी जी के झूलैं संग मेरे अभिराम।
अन्तर्यामी जानि गये प्रभु घट घट व्यापक राम।
गरुड़ से कह्यो लै आओ मणि गिरि जो है पड़ा अकाम।
लायो गरुड़ मणिन का पर्वत उत्तर खण्ड मुकाम।५।
मानुष पक्षी पशुन कि गति नहिं जहाँ रह्यो विश्राम।
श्री अवध में लाइ पधारय्यौ धन्य धन्य यह धाम।
तब से नाम पड़ा मणि पर्वत बचन मानिये आम।
बृक्ष कदम्ब हिंडोला गिरि पर प्रकट्यौ शुभग सकाम।
कोटिन भानु समान उजेरिया छाई निशिबासर तेहि ठाम।१०।
सब के मातु पिता तहँ राजैं कहत जिन्हैं गुण ग्राम।
ढारैं स्वयं आप ही जारी प्रभु इच्छा बसु याम।
सखा सखिन का काम नहीं कछु केवल श्री सिया बाम।
मर्यादा पुरुषोत्तम मंगल मूरति हैं श्री राम।
झाँकी की छबि अद्भुद सोहै अगणित लज्जित काम।१५।
सुर मुनि चढ़ैं बिमानन निरखैं बर्षैं सुमन तमाम।
पुरवासिन रानिन दशरथ को सुर मुनि करैं प्रणाम।
भाग्य सराहैं बलि बलि जावैं हम सब बड़े निकाम।
इन सबको नित दर्शन देते करुणानिधि घनश्याम।
प्रेम भाव के भूखे स्वामी भजन करै निष्काम।२०।
नाना चरित मनोहर देखै सकै कौन तेहि थाम।
कृष्ण दास कहैं हर दम दर्शन जपै निरन्तर नाम।२२।
इति
जय श्री सीता राम
॥ अथ धनुष भङ्ग वर्णन ॥
कह्यौ श्री विश्वामित्र सुनाय। उठौ श्री राम भक्त सुखदाय॥
धनुष को खण्डन कीजै जाय। जनक परिताप मिटै सुख पाय॥
खड़े भे सहजै श्री रघुराय। निरखि अभिमानिन दुख अति पाय॥
गये वे सकुचि बोलि नहिं जाय। लीन मुख नीचै को लटकाय।
चले गुरु चरनन शीश नवाय। सिंह जैसे गज ऊपर जाय।१०।
लखन ने लख्यौ राम को भाय। जानि गे धनु तोरैं सुखदाय॥
दाबि दहिने पग धरनि को धाय। आवरण जौन लखत सब भाय॥
कह्यौ पृथ्वी देबी मुद दाय। कृपा करि संभरि के बैठौ माय।
कमठ श्री शेष दिग्गजौ भाय। सुनौ दिगपाल बराहौ भाय॥
साधिये सब जन चित्त लगाय। सहायक पृथ्वी जी के भाय।२०।
देव मुनि सब से कहौं सुनाय। चित्त हरि चरनन लेव लगाय॥
नहीं तो बड़ा गज़ब ह्वै जाय। मही आवरण उलटि जो जाय॥
लखन यह सब को बिनय सुनाय। खड़े भे प्रभु चरनन उर लाय॥
नगर नर नारी बिनवैं भाय। इष्ट अपने अपने सुखदाय॥
सुनयना जनक सिया मुद दाय। मनै शिव गणपति गिरिजै ध्याय।३०।
राम जब पहुँचे धनु ढिग जाय। दृष्टि एक सिया पै कीन्हों भाय॥
बिकलता प्रेम की ऐसी आय। मिलैं कब प्राणनाथ सुखदाय॥
राम ने धनु दहिनायो धाय। सूर्य्य भे पीठी पर मुददाय॥
दिवस था पांच घरी तब भाय। खड़े भे पूरब मुख सुखदाय॥
ताकि के राँ बीज को भाय। खींचि दृष्टी से उर पधराय।४०।
नाम आपै का जौन कहाय। प्रलय पालन उत्पति सुखदाय।
शम्भु ने भरयौ बीज यह भाय। सकै को तोरि बिना रघुराय॥
धनुष को जौन उठायो जाय। गँवायो आधी ताक़त भाय॥
उसी से अधिक अधिक गरुवाय। कीन हर लीला हरि हित भाय॥
श्री गुरु द्विजन को शीश नवाय। लियो मन ही मन कोशल राय।५०।
उठायो धनुष दीन सुखदाय। आप ही आप चाप चढ़ि जाय॥
पकरि कै दोउ गोसन को भाय। चह्यौ एकै में देंय भिड़ाय॥
टूटि दो खण्ड भये तब भाय। गयो सब लोकन शब्द सुनाय॥
डिगी सुर मुनिन समाधी भाय। कहैं का भयो जानि नहि जाय॥
कमठ औ शेष गये घबड़ाय। गये दिग्पालन होश उड़ाय।६०।
दिग्गजौ बाराहौ अकुलाय। गिरे कछु होश रह्यौ नहि भाय॥
संभारयौ पृथ्वी देवी भाय। सुमिरि उर राम नाम सुखदाय॥
आवरण बच्यो न उलट्यो भाय। नाम परताप बड़ा मुददाय॥
लखन श्री राम चरण उर लाय। खड़े थे महि दाबे सुखदाय॥
जनकपुर व्यापेव कछु नहि भाय। भक्त की सदा सुनत हरि आय।७०।
धनुष में चाप रही जो भाय। हरे मखमल की अति सुखदाय॥
टूटि कै आधी धनु संग भाय। गई श्री इन्द्रपुरी हर्षाय॥
करैं पूजन सुर पति नित भाय। प्रेम तन मन करि हिय हर्षाय॥
दूसरा खण्ड मही धंसि जाय। एक योजन पर ठहरयो भाय॥
पूजतीं पृथ्वी जी नित आय। जानते सुर मुनि सब हैं भाय।८०।
होत अवतार जबै जब भाय। काम तब वही धनुष दे आय॥
शम्भु तब वही भूमि पर जाय। जहाँ कछु चिन्ह जगत हित भाय॥
परत झाँवा सा है दिखलाय। दरश करते तँह पर सब जाय॥
करैं सुर मुनि नित फेरी जाय। भूमिका है पुनीत अति भाय॥
खड़े हों शिव हरि सुमिरि के भाय। करैं आकर्षण धनु चित लाय।९०।
खण्ड दोउ पहुँचैं आपै आय। चमकते वैसे जैस रहाय॥
पढ़ै हर राम मन्त्र हर्षाय। जुरैं दोउ खण्ड आप ही जाय।
प्रवेशैं बीज फेरि हर्षाय। उठैं कैलाश में पहुँचैं जाय॥
करैं शिव पूजन नित प्रति आय। लगावैं फेरी अति सुख पाय॥
देव सब दर्शन को नित जाँय। करैं पैकरमा मन हर्षाय।१००।
राम का हाल सुनो अब भाय। तूरि धनु गुरु ढिग बैठै आय॥
भावना जा की जैसी आय। लख्यौ हरि को सो वैसै भाय॥
लखन तब बैठि संग में जाय। गुरु के बाँये मन हर्षाय॥
बैठि सब सभा के जन तब जाँय। खड़े थे सब के सब तँह भाय॥
उठावत तानत तोरत भाय। रहै सब ठाढ़ न परयौ दिखाय।११०।
भये दुख गाढ़े नहीं सुझाय। मनो जादू कोइ दीन चलाय॥
टूटि कै धनुष गिरयौ महि भाय। परयौ नैनन से सबै दिखाय॥
कियो ये चरित राम ने भाय। जानिगे सुर मुनि प्रेम लगाय॥
फूल बरसैं सुर नभ ते भाय। करैं जै जै की धुनि हर्षाय।११८।
॥ अथ नगर भ्रमण वर्णन॥
राग कजरी:-
देखन चले नगर गुरु अज्ञा शिर धरि राम लखन लै संग।
वय किशोर एक श्याम गौर एक कर धनु कसे निषङ्ग।
सुन्दर परम अनूप रूप दोउ लाजैं अमित अनङ्ग।
सुर मुनि निरखि चकित छकित भे होश भये सब दंग।
चाल चलत कुंजर सम झूमत उर अति भरा उमंग।५।
गुल गुलाब से कोमल मानो बज्र समान हैं अंग।
शूर बीर रणधीर धुरन्धर होय काल लखि तंग।
विश्वामित्र कि यज्ञ सुफल कियो करि कै निश्चर भंग।
चरनन रज परि तरी अहिल्या रही पषाण अपंग।
स्वयं आप अवतरे जगत हित बिष्णु शेष शिव संग।१०।
कारन करन अकर्ता आपै नहीं रूप औ रंग।
रूप रंग बनि जात छिनक में कौन करै जग जंग।
पहुँचि गये जब जनक नगर में बालक बहु भे संग।
गली गली औ थली थली औ भवन भवन यह रंग।
जँह देखो तँह घूमि रहे हैं राम लखन दोउ संग।१५।
ज्ञान गुमान शान सब जन की उड़ि गई मनहुँ पतंग।
भये अचेत नहीं कछु सुधि बुधि मानहु डस्यौ भुजंग।
सात घरी पर सब की मुरछा जागी फिरि भे चंग।
आये गुरु के ढिग दोउ भाई करुणा निधि सुख अंग।
कृष्णदास कहैं सन्मुख रहते रंगौ नाम के रंग।२०।
जनक फुल बगिया अति सुखदाय।
भाँति भाँति फल फूल लगे तँह शोभा बरनि न जाय।
चातक कीर सारिका कोकिल बोलत आनन्द छाय।
हंस मयूर महरि औ होरिल रहे किलोल मचाय।
चकई चकवा बहु रंग पच्छी कँह लगि तुम्है बताय।५।
षट रंग मृगा तँहा पर देखा नाभि से महक उड़ाय।
दादुर कमठ मीन सागर में करत बास सुख पाय।
एक सहस फुल बगिया जनक के सत्य तुम्हैं समुझाय।
दस दस सहस बीगहा केरी निरखत मन ललचाय।
दुइ दुइ सहस रहैं तँह माधौ सेवा के हित भाय।१०।
यह आनन्द कहाँ तक बरनौ कहत कहत अधिकाय।
सुर मुनि घूमन को नित आवैं मानुष रूप बनाय।
एक एक बगिया के मध्य में पोखर एकै एक सुहाय।
निर्मल बारि भरा अति गहरा पृथ्वी तलक देखाय।
कन्द मूल अति मधुरे चिक्कन लम्बे गोल हैं भाय।
नृप ने ऐसे बाग संवारे कृष्ण दास कहैं गाय।१६।
॥ अथ फुलवारी भ्रमण वर्णन॥
कह्यौ मुनि विश्वामित्र सुनाय। फूल पूजन हित लाओ जाय॥
श्री गुरु चरनन शीश नवाय। चले फुल बगिया दोनौ भाय॥
पहुँचि फुलवारी गे जब आय। देखि सुन्दर छबि अति सुखदाय॥
चहूँ दिशि घूमन लागे जाय। देखि माली गन पहुँचे आय॥
कह्यौ हरि फूल उतारन आय। श्री गुरु पूजन के हित भाय।१०।
सुनत सब माली हिय हुलसाय। कहैं प्रभु आप कि बगिया आय॥
उतारौ फूल जौन मन भाय। कहौ हम सब देवैं उतराय॥
कहत हरि मन्द मुसुक्याय। उतारैं हम औ लछिमन भाय॥
लीन एक कदली पत्र मंगाय। सरोवर में तहँ लीन धोवाय॥
बनायो दुइ दोना हरि भाय। दीन एक लछिमन को पकराय।२०।
बाम कर दोनो लीन्हे भाय। टहलने लगे चमन पर जाय॥
छुवैं जो कली तुरत खिलि जाय। तूरि लें वाको दोनो भाय॥
धरैं दोनों में मन हर्षाय। महक फूलन की अति सुखदाय॥
गये मालिन के ज्ञान हेराय। कहन चाहैं कछु कहा न जाय॥
फूल लै खड़े भये दोउ भाय। खिला गुलशन एकदम हर्षाय।३०।
दौरि कर माली सब तँह आय। खड़े कर जोरे बोलि न जाय॥
केतकी केंवड़ा है तँह भाय। नेवारी बेला औ मोतिआय॥
गुलाब गुल बाँस व चम्पा भाय। मालती जूही औ मोगराय॥
हीना और कदम्ब हैं भाय। तुलसी रामा श्यामा आय॥
सेवती गुल सब्बो तँह भाय। दुपहरी गुल मेहंदी सुख दाय।४०।
चाँदनी कुंद व गोड़हर भाय। गुलाचीनो कचनार सुहाय॥
अगस्त पिय बास कुरैया भाय। विष्णु क्रान्ता गल गल मल आय॥
बैजन्ती सूर्य मुखी तँह भाय। कटहरी गुल फिरंग सुख दाय॥
गलैंधा मिलौनिया सुख दाय। कनैरो मौलसिरी तँह भाय॥
मनहरन सदा सुहागिन भाय। दिल लगा गुलअनार सुखदाय।५०।
पाँड़री अमिलतास सुखदाय। लगे गुलशन बहार बृक्षाय॥
तरंग योजन छबि छावन भाय। पचरंग सोहन श्याम घटाय॥
संकोचन दल देवन तँह भाय। कनक मन्दार गोल गुल आय॥
पहाणी फूल बहुत रँग भाय। कहाँ तक नाम कौन कहि पाय॥
देख कर मन प्रसन्न ह्वै जाय। मँहक से तर दिमाग ह्वै जाय॥
बृक्ष जंगल में बहु रंग भाय। ग्राम के सब कोइ जानत आय॥
कन्द फल मूल व मेवा भाय। मिठाई इनकी कही न जाय॥
डेकारैं आवैं जो कोइ खाय। मस्त तन मन से होवै भाय।
कहैं समुझावैं कैसे भाय। श्री गुरु किरपा कछु कहि जाय॥
शब्द पक्षिन का मधुर सुनाय। सरोवर की शोभा अधिकाय।७०।
रंग रंग कमल खिले सुखदाय। भँवर गुंजार कही ना जाय॥
हंस चकई चकवा तँह भाय। कमठ मछली दादुर सुखदाय॥
मोर होरिल चातक मन भाय। कोकिला कीर रंग रंग आय॥
लालमुनिया तूती सुख पाय। दहिंगला श्यामा फुदकी भाय॥
दुबचरा धौर बनेवा भाय। पेरुल्ला कौड़िल्ला सुख दाय।८०।
सीक पर लेदुका सावन भाय। सारिका सारस मौज उड़ाय॥
टिटिहिरी कर बानक तँह भाय। घाघ चानक लावा सुखदाय॥
छपटुआ चाहा है तहँ भाय। गलारैं औ खञ्जन सुखदाय॥
भुजैला बुल बुल कड़रा भाय। पतेना कठ फोरवा हुलसाय॥
कबूतर कई रंग के भाय। परेई तड़ बुड़की सुख दाय।६०।
मुरगाबी गौरैया तँह आय। सुरखाव कि शोभा कही न जाय॥
बैगमा शारदूल कहवाय। तीनि कुञ्जर लै जो उड़ि जाय॥
शुतुर हैं मुर्ग वहाँ पर भाय। तेज घोड़ा नहि जिनको पाय॥
गीध ढेल बाँस खट खटा भाय। बत्तक औ तीतिर अति सुखदाय॥
बाज बहरी जुर्रा तँह आय। कुही मँगवा सिकरा तँह भाय।१००।
मुसरिहा महरि छटा गुरिन भाय। शुवक औ भाद बकुल चुपकाय॥
धोबिनिया बेहना हैं तँह भाय। काक कटनास औ गादुर भाय॥
चील्ह औ अवाबील तँह आय। तहाँ पर शोभन चिड़िया भाय।
देंय कछु वाको शकुन बताय। जाय कोइ रोज़गार हित भाय॥
मिलै गर मारग में वँह आय। खड़ा हो सर्प फनै फैलाय।११०।
बैठिहौ वा के ऊपर भाय। देखिकै फिरि लौटै नहिं भाय।
होयगा बादशाह वह जाय। सृष्टी का खेल विचित्र है भाय॥
कहाँ तक कौन सकै बतलाय। सूँसि घरियाल मगर सुख पाय॥
खेल करैं जल में धूम मचाय। जंगली जीव जौन कोइ भाय॥
रहै आनन्द सबै सुख पाय। सिंह औ शेर कुञ्जरौ भाय।१२०।
तेंदुवा बन कुत्ता बन आय। अरना भैंसा औ गैड़ा भाय॥
हडूर औ भालू बिगवा आय। सिमिटुआ पेट चोर तँह भाय॥
डाँढ़ औ झाँर व जमबुकौ आय। हिरन घोड़राह नील तँह गाय॥
लोमड़ी शशा रहै हर्षाय। साहि औ बन बिलार सोंधिआय॥
चिलार बराह नकुल तँह आय। गोह सल्हू बिष खोपड़ा आय।१३०।
डाँग सुरवार औ बानर भाय। घूस औ मूस साँप बिछुआय॥
ऊसरौ साँड़ा गोजर आय। गिलहरी बृक्षन पर हैं भाय॥
कभी नीचै खेलैं सुखपाय। ओद सरिता के तट पर भाय॥
रहत हैं मानो मन हर्षाय। ग्राम के पशुन क हाल बताय॥
रहे अब थोरे देहिं लिखाय। गाय औ भैंस व घोड़ा भाय।१४०।
ऊँट खर मेढ़ा अजा कहाय। फील औ सुअर श्वान तँह भाय॥
ग्राम के सिंह जौन कहवाय। बिलारैं मूष कई रंग भाय॥
खेलते आपस में हर्षाय। कलित्तुर फूल बिरंजौ भाय॥
नगर में घूमैं मन हर्षाय। सरोवर तहाँ बने हैं भाय॥
पियैं जल हलुआ खाँय अघाय। पालकी औ गज रथ तहँ भाय।१५०।
नाल की बूचा पीनस आय। मियाना डोला है सुख दाय॥
चलैं लै धीमर मन हर्षाय। झिलमिला जाकट करतब भाय॥
बिना जाने कोइ खोल न पाय। मझोली गाड़ी अद्धा भाय॥
फिरिक रब्बा लहकड़ा कहाय। सिंहासन भाँति भांति के भाय॥
बनत हैं देखत कहा न जाय। अठारह खण्ड जनक गृह भाय।१६०।
बना है सुन्दर अति सुखदाय। पुरी के बासिन का है भाय॥
सात ही सात खण्ड मुद दाय। नगर के चारों दिशि फुलवाय॥
पूर्व दिशि फुलवारी मधि आय। बना श्री गिरिजा भवन सुहाय॥
सरोवर दक्षिण दिशि सुखदाय। मोहारा आठ बने तँह भाय॥
झरोखा नौ लागे सुखदाय। बना लाले पत्थर का भाय।१७०।
सोवरन पत्र बने चमकाय। मूर्ति काले पत्थर की भाय॥
पधारी पश्चिम मुख सुख दाय। होति पूजा अति प्रेम से भाय॥
भोग बहु बिधि के लागैं आय। बड़ा आनन्द कहा नहि जाय॥
जात ही सुधि बुधि जाय हेराय। वहाँ सब जीवन मेल सोहाय।
कहाँ तक कहौं कहा नहि जाय। दूध मोती हंसन हित भाय।१८०।
और सब फल और हलुआ पाय। घास चित बहलावन हित खाँय॥
रहे निशिबासर मौज उड़ाय। कोटि चाकर हैं जनक के भाय॥
करैं सब कार्य हिये हर्षाय। पवन तहँ मन्द चलत सुखदाय॥
रहैं सब जीव सुखी तँह भाय। जनकपुर शोभा कही न जाय॥
जहाँ पर आदि शक्ति भईं आय। होय नहिं कमती बढ़तै जाय।१९०।
बाँटने से सौ गुन हो जाय। एकता ऐसी कही न जाय॥
चलैं संग दौरैं बैठैं आय। सत्यता ऐसी वँह पर भाय॥
जीव जल पक्षिन पशुन सगाय। स्वराज्य हम इसको कहते भाय॥
चोर कहिं परत नहीं दिखराय। राति औ दिन एकै रस भाय॥
खजाने पड़े खुले सुखदाय। जीव को जीव न कोई खाय।२००।
ऐसि हरि की इच्छा वँह भाय। जनक योगी ऋषिराज कहाय॥
भजन परताप बड़ा है भाय। राम अनुकूल सदा सुखदाय॥
नहीं आसक्त किसी पर भाय। सदा अनइच्छित जनक कहाय॥
भजन में मस्त रहैं ऋषि राय। धुनी अभ्यन्तर सुनते भाय॥
रूप हरदम सन्मुख सुखदाय। समाधी सहज यही कहलाय।२१०।
तार एक तार होय जब भाय। ध्यान जप संगै होतै जाय।
देय सुर मुनि नित दर्शन आय। हंसैं खेलैं संगै बतलाँय॥
कहैं यहि राज योग सब भाय। सुरति जौ शब्द में लेय लगाय॥
जाप अजपा यह है सुखदाय। चलै कर जिह्वा नैन न भाय॥
नाम धुनि रोम रोम खुलि जाय। एकता हो तब सब में भाय।२२०।
जिधर देखैं तहँ वही देखाय। गुरू से मिलत ज्ञान यह भाय॥
और कोइ नहीं सकै बतलाय। अधिक जो कहैं लिखा नहिं जाय॥
लिखत में आलस तुम को आय। चरित कहैं रनिवास का भाय॥
सुनयना लीन्ह सिया बोलवाय। जाव गिरिजा पूजन सुखदाय॥
चलीं लै संग सखी हर्षाय। आय गईं गिरिजा मन्दिर माय।२३०।
पगन दोउ धोये सखी यक आय। पोंछि साफ़ी से दीन सुखाय॥
गईं मन्दिर में शीश नवाय। बन्द चहुँ दिशि ते पट करवाय॥
झरोखन प्रतिमा परत देखाय। सखी सब जग मोहन में भाय॥
खड़ी कोइ बैठी अति सुख पाय। कीन पूजन बहु बिधि ते भाय॥
प्रेम वश मुख से बोलि न जाय। दोऊ कर माला रहीं उठाय।२४०।
बढ़ा अति प्रेम उठै नहि भाय। बड़ी कोशिश करि लीन उठाय॥
उठैं कर ऊपर को नहिं जाँय। झुकी हैं खड़ी नैन झरि लाय॥
छूटि कर माल अवनि गिरि जाय। श्याम मूरति पाषाण कि भाय॥
हँसीं औ प्रगटीं ताते माय। पकरि कै छाती लीन लगाय॥
होश कीजै सिया अति सुखदाय। मिलैं बर तुमको जो मन भाय।२५०।
खुशी सिय भईं बैन सुनि माय। परीं चरनन में तन उमगाय॥
उठीं कर जोरि बोलि नहीं जाय। भईं परवेश मूर्ति में भाय॥
चलीं सिय आईं बाहेर धाय। भेद यह और कोई नहिं पाय॥
दीन पट फेरि तुरत खोलवाय। गई सखि देखन एक फुलवाय॥
चतुर वह बड़ी सलोनी भाय। देखि कर आई रहा न जाय।२६०।
आय सीता से दीन बताय। चलौ दोउ देखौ रूप अघाय॥
सुघरता जिनकी कही न जाय। चलीं सिय लीन सखी कर धाय॥
लता की ओट देखायो जाय। देखि छबि छकीं मनो निधि पाय॥
मणी फणि की जैसे मिलि जाय। सखी सब देखि के गईं लोभाय॥
बिरह के बाण चुभे उर आय। भई मूरछा उन सब को भाय।२७०।
पड़ीं बेहोश कहा नहि जाय। राम ने सिया को देखा भाय॥
नैन से नैन मिले सुख पाय। राम के उर में सीता आय॥
सिया के उर में राम समाय। कहै लीला वँह की को भाय॥
देव मुनि नहीं सकैं बतलाय। कह्यौ लछिमन ते राम सुनाय॥
जनक की तनया यह है भाय। स्वयम्बर रचा इसी हित भाय।२८०।
जो तोरै धनुष बरै लै जाय। जनक प्रण कीन्हों है यह भाय॥
तुम्हैं हम साँची दीन बताय। लखन ने लख्यौ सिया सुखदाय॥
भाव माता को उर में लाय। चलौ अब श्री गुरु के ढिग भाय॥
देर करने का समय न आय। पहुँचिगे गुरु ढिग दोनो भाय॥
दीन दोउ दोना मन हर्षाय। करन पूजा लागे मुनि राय।२९०।
बैठि दोनो भाई सुख पाय। गये सब माली अति सुख पाय॥
काम अपने अपने पर आय। होश में सीता सब सखि आय॥
उठीं फिर मन्दिर पहुँचीं जाय। कियो पूजन फिरि वैसै भाय॥
जैस पहले हम दीन बताय। भईं परसन्न बहुत ही माय॥
प्रेम की रीति कही नहि जाय। प्रगट फिरि मूर्ति ते ह्वै के माय।३००।
लीन तब सीतै उर में लाय। कह्यौ मिलिहैं तुम को रघुराय॥
जिन्हैं तुम बाग में देखा जाय। सखी एक तुम्हैं गई लै धाय॥
सबी सखि पीछे पहुँचीं जाय। देखि सब सुधि बुधि गई हेराय॥
वही पति तुमको मिलिहैं आय। धनुष को तोड़ैं छिन में भाय॥
रहै यश जग में उनको छाय। डारिहौ उर जय माला आय।३१०।
ब्याह तब उन संग ह्वै है जाय। करावैं बिधि तँह ब्याह को आय॥
पढ़ैंगे वेद मधुर स्वर गाय। प्रथम हो हमरी पूजन आय॥
फेरि गणपति की हो सुखदाय। चढ़ाओ चन्दन अक्षत लाय॥
फूल शिर माल गले सुखदाय। दान तँह बहु प्रकार करवाय॥
नृपति रानी पग पूजैं आय। परैं भाँवरि तब मन हर्षाय।३२०।
बरैं संग तीनौ बहिनी आय। भरत औ लखन शत्रुहन भाय॥
बिदा ह्वै अवधपुरी में जाय। करौ आठौं आनन्द अघाय॥
पुत्र तुमरे दो होवैं आय। नाम लव कुश उनको कहवाय॥
बड़े हों शूर बीर सुखदाय। देंय सब प्रजा क दुःख नशाय॥
जगत बिजयी होवैं दोऊ भाय। कह्यौ यह गिरिजा बचन सुनाय।३३०।
भईं मन मगन न प्रेम समाय। सिया को उमा माल पहिराय॥
गले का अपने दीन्हों भाय। भईं परवेश मूर्ति में माय॥
गईं सिय बाहेर तब फिरि आय। कह्यौ सब सखिन से चलिये धाय॥
भई कछु देर मातु रिसिआय। गईं सब संग सखी सुखदाय॥
भवन में पहुँचि गईं हर्षाय। जाय माता ढिग बैठीं जाय।३४०।
सुनयना देखि के अति सुख पाय। खुशी हौ आज बहुत मुददाय॥
कह्यौ गिरिजा दियो दर्शन माय। भेद कछु सकैं नहीं बतलाय॥
मातु के सन्मुख कहत लजाय। बढ़ा परवाह प्रेम का भाय॥
राम छबि सन्मुख परत देखाय। शक्ती औ शक्ति मान कहाय॥
करी यह लीला जग हित आय। जौन हम लीला तुम्हैं सुनाय।३५०।
भई सब पाँच घरी में भाय। कहैं पद कृष्णदास यह गाय॥
पढ़ै या सुनै प्रेम बढ़ि जाय।३५३।
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