कार्तिक मास - कार्तिक स्नान का महत्व - कार्तिक स्नान की विधि
जय जय श्री राधेगोविंद देव जी
कार्तिक मास के समान कोई भी मास नहीं है। स्कंद पुराण और पद्मपुराणमें वर्णित है कि यह मास धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को देने वाला है। विशेष रूप से स्नान दान, एवं तुलसी की पूजा इस मास में विशेष फलदायी है। कार्तिक मास में दीपदान करने से पाप नष्ट होते हैं। स्कंद पुराण में वर्णित है कि इस मास में जो व्यक्ति देवालय, नदी के किनारे, तुलसी के समक्ष एवं शयन कक्ष में दीपक जलाता है उसे सर्व सुख प्राप्त होते हैं। इस मास में भगवान विष्णु एवं लक्ष्मी के निकट दीपक जलाने से अमिट फल प्राप्त होते हैं। इस मास में की गई भगवान विष्णु एवं माँ लक्ष्मी की उपासना असीमित फलदायीहोती है।
तुलसी हमारी आस्था एवं श्रद्धा की प्रतीक है एवं अपरिमित औषधीय गुणों से युक्त भी। वर्ष भर तुलसी में जल अर्पित करना एवं सायंकाल तुलसी के नीचे दीप जलाना अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है। कार्तिक मास में तुलसी के समीप दीपक जलाने से मनुष्य अनंत पुण्य का भागी बनता है। इस मास में तुलसी के समीप दीपक जलाने से व्यक्ति को साक्षात लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है, क्योंकि तुलसी में साक्षात लक्ष्मी का निवास माना गया है।
पौराणिक कथा के अनुसार गुणवती नामक स्त्री ने कार्तिक मास में मंदिर के द्वार पर तुलसी की एक सुन्दर सी वाटिका लगाई उस पुण्य के कारण वह अगले जन्म में सत्यभामा बनी और सदैव कार्तिक मास का व्रत करने के कारण वह भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी बनी। यह है कार्तिक मास में तुलसी आराधना का फल। इस मास में तुलसी विवाह की भी परंपरा है जो कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को किया जाता है। इसमें तुलसी के पौधे को सजाया संवारा जाता है एवं भगवान शालग्राम का पूजन किया जाता है। तुलसी का विधिवत विवाह किया जाता है।
जो व्यक्ति यह चाहता है कि उसके घर में सदैव शुभ कर्म हो, सदैव सुख शान्ति का निवास रहे उसे तुलसी की आराधना अवश्य करनी चाहिए। कहते हैं कि जिस घर में शुभ कर्म होते हैं वहां तुलसी हरी भरी रहती हैं एवं जहां अशुभ कर्म होते हैं वहां तुलसी कभी भी हरी भरी नहीं रहतीं।
आइए मासोंमें श्रेष्ठ कार्तिक मास में श्रेष्ठ कर्म करें। स्नान, ध्यान, दान करते हुए, तुलसी आराधना करते हुए अनन्य पुण्य के भागी बनें। यही है इस मास की श्रेष्ठता का रहस्य। कार्तिक माह बहुत ही पवित्र माना जाता है. भारत के सभी तीर्थों के समान पुण्य फलों की प्राप्ति एक इस माह में मिलती है. इस माह में की पूजा तथा व्रत से ही तीर्थयात्रा के बराबर शुभ फलों की प्राप्ति हो जाती है. इस माह के महत्व के बारे में स्कन्द पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण आदि प्राचीन ग्रंथों में मिलता है.
कार्तिक स्नान का महत्व
कार्तिक माह में किए स्नान का फल, एक हजार बार किए गंगा स्नान के समान, सौ बार माघ स्नान के समान, वैशाख माह में नर्मदा नदी पर करोड़ बार स्नान के समान होता है. जो फल कुम्भ में प्रयाग में स्नान करने पर मिलता है, वही फल कार्तिक माह में किसी पवित्र नदी के तट पर स्नान करने से मिलता है. कार्तिक माह में सारा माह घर से बाहर किसी नदी अथवा सरोवर अथवा तालाब में स्नान करना चाहिए. इस माह में गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए. भोजन दिन में एक समय ही करना चाहिए. जो व्यक्ति कार्तिक के पवित्र माह के नियमों का पालन करते हैं, वह वर्ष भर के सभी पापों से मुक्ति पाते हैं. इस माह में मांस नहीं खाना चाहिए. जो व्यक्ति मांस खाता है वह चाण्डाल बनता है.
कार्तिक माह में शिव, चण्डी, सूर्य तथा अन्य देवों के मंदिरों में दीप जलाने तथा प्रकाश करने का बहुत महत्व माना गया है. इस माह में भगवान केशव का पुष्पों से अभिनन्दन करना चाहिए. ऎसा करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान पुण्य फल मिलता है.
कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि, शरद ऋतु की अंतिम तिथि होती है. यह तिथि बहुत ही पवित्र तथा पुण्यदायिनी मानी जाती है. इस दिन भारत के कई स्थानों पर मेले भी लगते हैं. कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि पर किसी भी व्यक्ति को बिना स्नान किए नहीं रहना चाहिए. इस दिन अपनी क्षमतानुसार दान भी करना चाहिए. यह दान किसी भी जरुरतमंद व्यक्ति को दिया जा सकता है. कार्तिक माह में पुष्कर, कुरुक्षेत्र तथा वाराणसी तीर्थ स्थान स्नान तथा दान के लिए अति महत्वपूर्ण माने गए हैं.
कार्तिक स्नान की विधि
कार्तिकव्रती को सर्वप्रथम गंगा, विष्णु, शिव तथा सूर्य का स्मरण कर नदी, तालाब या पोखर के जल में प्रवेश करना चाहिए। उसके बाद नाभिपर्यन्त (आधा शरीर पानी में डूबा हो) जल में खड़े होकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। गृहस्थ व्यक्ति को काला तिल तथा आंवले का चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिए. परंतु विधवा तथा संन्यासियों को तुलसी के पौधे की जड़ में लगी मृत्तिका ( मिट्टी) को लगाकर स्नान करना चाहिए। सप्तमी, अमावस्या, नवमी, द्वितीया, दशमी व त्रयोदशी को तिल एवं आंवले का प्रयोग वर्जित है। इसके बाद व्रती को जल से निकलकर शुद्ध वस्त्र धारणकर विधि-विधानपूर्वक भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। कलियुग में कार्तिक मास को मोक्ष के साधन के रूप में दर्शाया गया है। पुराणों के मतानुसार इस मास को चारों पुरुषार्थों- धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष देने वाला माना गया है। धर्मशास्त्रों के अनुसार नारायण ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु ने कार्तिक मास के सर्वगुणसंपन्न माहात्मय के संदर्भ में बताया गया है। कार्तिक मास में कुछ कार्य प्रधान माने गए हैं जो इस प्रकार हैं-
1 - दीपदान-धर्म शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास में सबसे प्रधान कार्य दीपदान करना बताया गया है। इस मास में नदी, पोखर, तालाब आदि में दीपदान किया जाता है। इससे अतुल्य पुण्य की प्राप्ति होती है।
2 - तुलसी पूजा-इस मास में तुलसी पूजन करने तथा सेवन करने का विशेष महत्व बताया गया है। वैसे तो हर मास में तुलसी का सेवन व आराधना करना श्रेयस्कर होता है लेकिन कार्तिक में तुलसी पूजा का महत्व कई गुना माना गया है।
3 - भूमि पर शयन-भूमि पर शयन करना कार्तिक मास का तीसरा प्रधान कार्य माना गया है। भूमि पर शयन करने से मन में सात्विकता का भाव आता है तथा अन्य विकार भी समाप्त हो जाते हैं।
4 - ब्रह्मचर्य- कार्तिक मास में ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक बताया गया है।
5 - द्विदलन निषेध-कार्तिक मास में द्विदलन अर्थात उड़द, मूंग, मसूर, चना, मटर, राई, हींग, मूली और हरी सब्जी आदि का सेवन निषेध है।व्रती को घीया अथवा लौकी, गाजर, बैंगन, कैथ (बेल के पेड़ जैसा, जिसके फल खट्टे होते हैं) बासी खाना तथा किसी अन्य का भोजन और दूषित खाना नहीं खाना चाहिए.अपने ही लिए बनाया भोजन अर्थात बिना भगवान के भोग लगाये तथा बिना गोग्रास निकाले भोजन को नहीं करना चाहिये व्रत रखने वाले व्यक्ति को तामसिक पदार्थों का भोजन में त्याग करना चाहिए. व्रती को दूसरे व्यक्ति का भोजन नहीं करना चाहिए. व्रती को दिन के चतुर्थ पहर में एक समय का भोजन पत्तल पर करना चाहिए.
6 - कार्तिक माह में पूरे मास में शरीर पर तेल नहीं लगाना चाहिए. वह केवल कार्तिक माह की कृष्ण चतुर्दशी को शरीर पर तेल लगा सकता है. अन्य दिनों में तेल का त्याग करना चाहिए.
7 - व्रती को संयम से काम लेना चाहिए. क्रोध का त्याग करना चाहिए. उसे साधुओं के समान व्यवहार करना चाहिए.
8 - व्रती को कम बोलना चाहिए. किसी की निंदा तथा विवाद में नहीं पड़ना चाहिए. व्रती को किसी से झगडा़ तथा परदेश में नहीं जाना चाहिए. मन की इन्द्रियों पर काबू रखना चाहिए. बुद्घिमान लोगों को चाहिये कि पराया अन्न, पराया धन, पराई नारी, पराई शय्या का भी परित्याग करना चाहिये.
9 - व्रती पुरूष अथवा स्त्री किसी भी रजस्वला स्त्री का स्पर्श भी ना करें. बडा दोष लगता है। रजस्वला स्त्री के स्पर्श से युक्त, कौओं का झूठा एवं सूतक युक्त घर का अन्न भी नहीं खाना चाहिये. इन तीनों की एक ही कोटि होती है.
तुलसी हमारी आस्था एवं श्रद्धा की प्रतीक है एवं अपरिमित औषधीय गुणों से युक्त भी। वर्ष भर तुलसी में जल अर्पित करना एवं सायंकाल तुलसी के नीचे दीप जलाना अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है। कार्तिक मास में तुलसी के समीप दीपक जलाने से मनुष्य अनंत पुण्य का भागी बनता है। इस मास में तुलसी के समीप दीपक जलाने से व्यक्ति को साक्षात लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है, क्योंकि तुलसी में साक्षात लक्ष्मी का निवास माना गया है। पौराणिक कथा के अनुसार गुणवती नामक स्त्री ने कार्तिक मास में मंदिर के द्वार पर तुलसी की एक सुन्दर सी वाटिका लगाई उस पुण्य के कारण वह अगले जन्म में सत्यभामा बनी और सदैव कार्तिक मास का व्रत करने के कारण वह भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी बनी। यह है कार्तिक मास में तुलसी आराधना का फल। इस मास में तुलसी विवाह की भी परंपरा है जो कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को किया जाता है। इसमें तुलसी के पौधे को सजाया संवारा जाता है एवं भगवान शालग्राम का पूजन किया जाता है। तुलसी का विधिवत विवाह किया जाता है। जो व्यक्ति यह चाहता है कि उसके घर में सदैव शुभ कर्म हो, सदैव सुख शान्ति का निवास रहे उसे तुलसी की आराधना अवश्य करनी चाहिए। कहते हैं कि जिस घर में शुभ कर्म होते हैं वहां तुलसी हरी भरी रहती हैं एवं जहां अशुभ कर्म होते हैं वहां तुलसी कभी भी हरी भरी नहीं रहतीं।
राधा रानी जी की तुलसी सेवा प्रसंग
एक बार राधा जी सखी से बोली सखी तुम श्री कृष्ण की प्रसन्नता के लिए किसी देवता की ऐसी पूजा बताओ जो परम सौभाग्यवर्द्धक हो. तब समस्त सखियों में श्रेष्ठ चन्द्रनना ने अपने हदय में एक क्षण तक कुछ विचार किया. फिर बोली चंद्रनना ने कहा- राधे ! परम सौभाग्यदायक और श्रीकृष्ण की भी प्राप्ति के लिए वरदायक व्रत है "तुलसी की सेवा" तुम्हे तुलसी सेवन का ही नियम लेना चाहिये. क्योकि तुलसी का यदि स्पर्श अथवा ध्यान, नाम, संकीर्तन, आरोपण, सेचन, किया जाये. तो महान पुण्यप्रद होता है. हे राधे ! जो प्रतिदिन तुलसी की नौ प्रकार से भक्ति करते है.वे कोटि सहस्त्र युगों तक अपने उस सुकृत्य का उत्तम फल भोगते है.
मनुष्यों की लगायी हुई तुलसी जब तक शाखा, प्रशाखा, बीज, पुष्प, और सुन्दर दलों, के साथ पृथ्वी पर बढ़ती रहती है तब तक उनके वंश मै जो-जो जन्म लेता है, वे सभी हो हजार कल्पों तक श्रीहरि के धाम में निवास करते है. जो तुलसी मंजरी सिर पर रखकर प्राण त्याग करता है. वह सैकड़ो पापों से युक्त क्यों न हो यमराज उनकी ओर देख भी नहीं सकते. इस प्रकार चन्द्रनना की कही बात सुनकर रासेश्वरी श्री राधा ने साक्षात् श्री हरि को संतुष्ट करने वाले तुलसी सेवन का व्रत आरंभ किया.
श्री राधा रानी का तुलसी सेवा व्रत
केतकी वन में सौ हाथ गोलाकार भूमि पर बहुत ऊँचा और अत्यंत मनोहर श्री तुलसी का मंदिर बनवाया, जिसकी दीवार सोने से जड़ी थी. और किनारे-किनारे पद्मरागमणि लगी थी, वह सुन्दर-सुन्दर पन्ने हीरे और मोतियों के परकोटे से अत्यंत सुशोभित था, और उसके चारो ओर परिक्रमा के लिए गली बनायीं गई थी जिसकी भूमि चिंतामणि से मण्डित थी. ऐसे तुलसी मंदिर के मध्य भाग में हरे पल्लवो से सुशोभित तुलसी की स्थापना करके श्री राधा ने अभिजित मुहूर्त में उनकी सेवा प्रारम्भ की.
श्री राधा जी ने आश्र्विन शुक्ला पूर्णिमा से लेकर चैत्र पूर्णिमा तक तुलसी सेवन व्रत का अनुष्ठान किया. व्रत आरंभ करने उन्होंने प्रतिमास पृथक-पृथक रस से तुलसी को सींचा "कार्तिक में दूध से", "मार्गशीर्ष में ईख के रस से", "पौष में द्राक्षा रस से", "माघ में बारहमासी आम के रस से", "फाल्गुन मास में अनेक वस्तुओ से मिश्रित मिश्री के रस से" और चैत्र मास में पंचामृत से उनका सेचन किया .और वैशाख कृष्ण प्रतिपदा के दिन उद्यापन का उत्सव किया.
उन्होंने दो लाख ब्राह्मणों को छप्पन भोगो से तृप्त करके वस्त्र और आभूषणों के साथ दक्षिणा दी. मोटे-मोटे दिव्य मोतियों का एक लाख भार और सुवर्ण का एक कोटि भार श्री गर्गाचार्य को दिया उस समय आकाश से देवता तुलसी मंदिर पर फूलो की वर्षा करने लगे. उसी समय सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान हरिप्रिया तुलसी देवी प्रकट हुई . उनके चार भुजाएँ थी कमल दल के समान विशाल नेत्र थे सोलह वर्ष की सी अवस्था और श्याम कांति थी .मस्तक पर हेममय किरीट प्रकाशित था और कानो में कंचनमय कुंडल झलमला रहे थे गरुड़ से उतरकर तुलसी देवी ने रंग वल्ली जैसी श्री राधा जी को अपनी भुजाओ से अंक में भर लिया और उनके मुखचन्द्र का चुम्बन किया तुलसी बोली कलावती राधे ! मै तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ, यहाँ इंद्रिय, मन, बुद्धि, और चित् द्वारा जो जो मनोरथ तुमने किया है वह सब तुम्हारे सम्मुख सफल हो. इस प्रकार हरिप्रिया तुलसी को प्रणाम करके वृषभानु नंदिनी राधा ने उनसे कहा देवी! गोविंद के युगल चरणों में मेरी अहैतु की भक्ति बनी रहे. तब तथास्तु कहकर हरिप्रिया अंतर्धान हो गई. इस प्रकार पृथ्वी पर जो मनुष्य श्री राधिका के इस विचित्र उपाख्यान को सुनता है वह भगवान को पाकर कृतकृत्य हो जाता है.
जय जय श्री राधेगोविंद देव जी
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