मांगत दास कर जोरे !! बसहिं रामसिय मानस मोरे !!
ॐ श्री रामाय नमः
ॐ नमः शिवाय नमः
ॐ हनुमते रामदूतायनमः
बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार !
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार !!
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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.
रे मन कृष्ण नाम कहि लीजै गुरु के बचन अटल करि मानहिं, साधु समागम कीजै पढिए गुनिए भगति भागवत, और कथा कहि लीजै कृष्ण नाम बिनु जनम बादिही, बिरथा काहे जीजै कृष्ण नाम रस बह्यो जात है, तृषावंत है पीजै सूरदास हरिसरन ताकिए, जन्म सफल करी लीजै
राधाजी श्रीकृष्ण की अन्तरंग शक्ति हैं। श्रीकृष्ण फूल हैं तो राधाजी सुगंध हैं, श्रीकृष्ण मधु हैं तो राधाजी मिठास, श्रीकृष्ण मुख हैं तो राधाजी कांतिऔर सौन्दर्य। राधाजी श्रीकृष्ण का अभिन्न स्वरुप हैं। वह श्रीकृष्ण की आहलादिनी शक्ति हैं। श्रीकृष्ण का आनंदस्वरूप ही राधाजी के रूप में व्यक्त है। राधा ही कृष्ण हैं और कृष्ण ही राधा हैं। भक्ति का आनंद प्राप्त करने के लिए श्रीकृष्ण राधा बने हैं और रूप सौन्दर्य का आनंद प्राप्त करने के लिए राधा कृष्ण बनी हैं।राधाजी सृष्टीमयी, विश्वस्वरूपा, रासेश्वरी, परमेश्वरी और वृन्दावनेश्वरी हैं।
प्रेम से बोलो, राधे राधे ! राधे राधे, श्याम मिला दे !! एक ही नाम आधार श्री कृष्ण के श्री मुख से निकले बार बार श्री राधा श्री राधा श्री राधा श्री राधा श्री राधा श्री श्री राधा श्री राधा
श्री हरि नारायण गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे। श्री सीता राघव गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे। श्री राधा माधव गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे। श्री कमला विष्णू गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे। श्री सिया राम जय गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे। श्री प्रिया श्याम जय गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे।
गोविन्द मेरो है, गोपाल मेरो है, श्री बांके बिहारी नन्दलाल मेरो है । श्री कृष्ण:शरणम् मम:
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं। प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।। प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय। राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।
जय राधा माधव , जय कुंज बिहारी , जय गोपी जन वलभ , जय गिरधर हरी , यशोदा नन्दन , बृज जन रंजन , जमुना तीर बन चारी , हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे , हरे रामा हरे रामा रामा रामा हरे हरे
कलियुग में श्रीमद्भागवत गीता सुनने मात्र से ही मनुष्यों का कल्याण होता है। क्योंकि, श्रीमदभागवत गीता स्वयं त्रिलोकी नाथ भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण के मुख से निकली है।
भागवत कथा ज्ञान का वह भंडार है, जिसके वाचन और सुनने से वातावरण में शुद्धि तो आती ही है। साथ ही, मन और मस्तिष्क भी स्वच्छ हो जाता है।
भागवत कथा के ज्ञान से आत्मा शुद्ध होती है और बुरे विचार अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं। श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता जगत विख्यात है। विकट परिस्थितियों में एक-दूसरे के काम आना ही मित्र धर्म है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मित्र धर्म को निभाते हुए सुदामा की दरिद्रता को दूर किया।
भागवत कथा से घर और समाज में पवित्रता बनती है, जो सुख व शांति का आधार है। भागवत कथा व गीता के ज्ञान को अपने जीवन में धारण करना चाहिए, ताकि जीवन सफल हो सके।
भागवत का उद्देश्य लौकिक कामनाओं का अंत करना और प्राणी को प्रभु साधना में लगाना है। संत चलते फिरते तीर्थ होते हैं जो संसार के प्राणियों को दिशा देने व उन्हें सद्मार्ग दिखाने आते हैं। भागवत को जीवन में अपनाने व उसके अनुसार स्वयं को ढालने से ही प्राणी अपना कल्याण कर सकता है। श्री सीता राघव गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे। श्री राधा माधव गोविन्दे जै गोविन्दे श्री गोविन्दे। सीताराघव राधामाधव
जब गोस्वामी जी ने संत की जूतियाँ खीर के लिए आगे कर दी एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी वृन्दावन के कालीदह के निकट रामगुलेला के स्थान में रुके थे. उस समय वृन्दावन भक्तमाल ग्रन्थ के रचियता परम भागवत नाभा जी भी वृंदावन में निवास कर रहे थे. एक दिन श्री नाभा जी ने वृंदावन के समस्त संत वैष्णवों के लिए विशाल भंडारे का आयोजन किया.सब जगह भंडारे की चर्चा थी. तुलसीदास उस समय वृन्दावन में ही ठहरे थे , पर वे ऐसे भंडारों में विशेष रुचि नहीं रखते थे.उनका विचार वहाँ जाने का नहीं था.किन्तु श्री नाभा जी के भंडारे में संत श्रीतुलसी दास जी की उपस्थिति को आवश्यक जानकर, श्रीगोपेश्वर महादेव जी ने स्वयं जाकर उन्हें भंडारे में जाने का अनुरोध किया. तब श्री तुलसी दास जी ने श्री नाभा जी की महिमा को जाना और श्री महादेव जी की कृपा का भी अनुभव किया. तुलसीदास जी ने भगवान शंकर की आज्ञा का पालन किया और नाभा जी के भंडारे में जाने के लिया चल दिए, जब गोस्वामी जी वहाँ पहुंचे तो थोडा बिलम्ब हो गया था, संतो की पंक्ति बैठ चुकी थी,स्थान खचा खच भरा हुआ था. गोस्वामी जी एक ओर जहाँ संतो की पनहियाँ (जूतियाँ) रखी थी,वही बैठ गए. अब परोसने वाले ने पत्तल रख दी ओर परोसने वाले ने आकर पुआ, साग, लड्डू, परोस दिए, जब खीर परसने वाला आया तो वह बोला - बाबा! तेरो कुल्ल्हड़ कहाँ है? खीर किसमे लोगे ? श्री गोस्वामी जी ने पास में पड़ी एक संत की पनहियाँ आगे कर दी और बोले - लो इसमें खीर डाल दो' तो वो परोसने वाला तो क्रोधित को उठा बोला बाबा! पागल होए गयो है का इसमें खीर लोगे ? उलटी सीधी सुनाने लगा संतो में हल चल मच गई श्री नाभा जी वहाँ दौड़े आये गोस्वामी जी को देखते ही उनके चरणों पर गिर पड़े सर्व वन्ध महान संत के ऐसे दैन्य को देखकर सब संत मंडली अवाक् रह गई सबने उठकर प्रणाम किया उस परोसने वाले ने तो शतवार क्षमा प्रार्थना की.
जब ठाकुर जी ने गोस्वामी जी की प्रार्थना पर रघुनाथ के रूप में दर्शन दिए एक समय श्रीतुलसीदास जी श्रीवृन्दावन में सायंकाल को, श्रीनाभाजी एवं अनेक वैष्णवों के साथ ज्ञानगुदड़ी में विराजमान श्रीमदनमोहन जी का दर्शन कर रहे थे. इन्होंने जब श्रीमदनमोहन जी को दण्डवत प्रणाम किया तो परशुरामदास नाम के पुजारी ने व्यंग किया—
अपने अपने इष्टको, नमन करे सब कोय ! इष्ट विहीने परशुराम नवै सो निगुरा होय !!
श्रीगोस्वामीजी के मन में श्रीराम—कृष्ण में कोई भेदभाव नहीं था, परन्तु पुजारी के कटाक्ष के कारण आपने हाथ जोड़कर श्रीठाकुरजी से कहा—
कहा कहों छवि आज की, भले बने हो नाथ ! तुलसी मस्तक नवत है, धनुष बाण लो हाथ !!
भक्तवांच्छा कल्पतरु प्रभु ने भक्त का मान रखा. उनके लिए भक्त की वांछा पूरी करने में क्या देर लगनी थी -
मुरली लकुट दुराय के, धरयो धनुष सर हाथ ! तुलसी रुचि लखि दासकी, कृष्ण भये रघुनाथ !!
कित मुरली कित चन्द्रिका, कित गोपिन के साथ ! अपने जन के कारणे, कृष्ण भये रघुनाथ !!
प्रेम अमिय मन्दर विरह भरत पयोधि गँभीर। मथि प्रगटे सुर साधु हित कृपासिन्धु रघुबीर।। बिस्व भरण-पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।। गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।। जपहि नामु जन आरत भारी। मिटाई कुसंकट होहि सुखारी।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
यदि मनुष्य इन चार बातोंको दृढता से स्वीकार करले तो उसका कल्याण हो जाएगा— १- मेरा कुछ भी नहीं है । २- मेरेको कुछ भी नहीं चाहिए । ३- मेरा किसीसे कोई सम्बन्ध नहीं है । ४- केवल भगवान् ही मेरे हैं ।
वास्तवमें अनन्त ब्रह्माण्डोंमें लेश-मात्र जितनी वस्तु भी अपनी नहीं है । इसलिए ‘मेरा कुछ भी नहीं है’— ऐसा स्वीकार करनेसे जीवन में निर्दोषता आ जाती है । निर्दोषता आते ही मनुष्य धर्मात्मा हो जाता है ।
जीवमात्र परमात्माका अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ ( गीता १५/७ ) । भगवान् का अंश होनेके नाते केवल भगवान् ही हमारे हैं । भगवान् के सिवाय दूसरा कोई हमारा नहीं है । इस प्रकार भगवान् में अपनापन स्वीकार करते ही मनुष्य भक्त हो जाता है ।
‘वासुदेवः सर्वम’ का साधन कैसे सिद्ध हो ?
हाथ काम मुख राम है, हिरदै साची प्रीत । दरिया गृहस्थी साध की, याही उत्तम रीत ॥
जो भी प्राणी सामने आये, उसको साष्टांग प्रणाम करें । शरीरकी लज्जा आती हो तो उसको छोड़ दें और लोग हँसी उड़ाते हों उसकी परवाह मत करें; क्योंकि हमें उससे क्या मतलब ? हमें तो ‘वासुदेवः सर्वम्’ सिद्ध करना है । दृढ़ निश्चय हो जायगा तो ऐसा करनेमें कठिनता नहीं होगी । अगर कठिनता लगती हो तो मनसे ही दण्डवत् प्रणाम कर लें । ऐसा कोई प्राणी न छूटे, जिसको नमस्कार न किया हो । किसी भी वर्ण, आश्रम, जाति, धर्म, सम्प्रदायका मनुष्य हो, वह भगवान् ही है । इसमें चार बातें है1 १. इन प्राणियोंके भीतर भगवान् हैं, २. ये भगवान् के भीतर हैं, ३. ३. ये भगवान् के हैं और ४. ४. ये भगवान् ही हैं ऐसा मानना सबसे सुगम है । अतः ऐसा मान लें कि ये भगवान् के हैं, भगवान् को प्यारे है, इसलिए हम इनको प्रणाम करते हैं । ऐसा करनेका परिणाम क्या होगा, यह भगवान् बताते हैं— नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात् । स्पर्धाऽसूयातिरस्काराः साहङ्कारा वियन्ति हि ॥ (श्रीमद्भागवत ११/२९/१५ ) ‘जब भक्तका सम्पूर्ण स्त्री-पुरुषोंमें निरन्तर मेरा ही भाव हो जाता है अर्थात् उनमें मुझे ही देखता है, तब शीध्र ही उसके चित्तसे ईर्ष्या, दोषदृष्टि, तिरस्कार आदि दोष अहंकार-सहित सर्वथा दूर हो जाते हैं ।’ इसलिए मनुष्य मात्र में भगवान् का भाव रखें । कहीं भाव न हो सके तो मनसे माफ़ी माँग लें । किसीको कहनेकी, जनानेकी जरुरत नहीं । शरीर-मन-वाणीसे संसारकी सेवा करनी है और संसार भगवान् का विराट् रूप है । अतः भगवान् के ही शरीर-मन-वाणीसे भगवान् की ही सेवा करनी है । फिर ‘वासुदेवः सर्वम्’ सिद्ध हो जायगा; क्योंकि यह कोई नया निर्माण नहीं है, प्रत्युत पहलेसे ही है । इसके लिए विद्याध्ययन, धनसम्पत्ति, बल, अनुष्ठान आदिकी जरुरत नहीं है । इसको हरेक भाई-बहन कर सकता है । विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रिडां च दैहिकीम् । प्रणमेद् दण्डवद् भूमावाश्वचाण्डालगोखरम् ॥ ( श्रीमद्भागवत ११/२९/१६ )
‘हँसी उड़ानेवाले अपने लोगोंको और अपने शरीरकी दृष्टिको भी लेकर जो लज्जा आती है, उसको छोडकर अर्थात् उसकी परवाह न करके कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर लंबा गिरकर भगवद् बुद्धिसे साष्टांग प्रणाम करें । ‘वासुदेवः सर्वम्’
दामोदर मास
दामोदर मास को कार्तिक मास भी कहा जाता है।
भगवान श्री कृष्ण को वनस्पतियों में तुलसी, पुण्यक्षेत्रों में द्वारिकापुरी, तिथियों में एकादशी और महीनों में कार्तिक विशेष प्रिय है- कृष्णप्रियो हि कार्तिक:, कार्तिक: कृष्णवल्लभ:। इसलिए कार्तिक मास को अत्यंत पवित्र और पुण्यदायक माना गया है।
ग्रंथों के अनुसार
भविष्य पुराण
भविष्य पुराण की कथा के अनुसार, एक बार कार्तिक महीने में श्रीकृष्ण को राधा से कुंज में मिलने के लिए आने में विलंब हो गया। कहते हैं कि इससे राधा क्रोधित हो गईं। उन्होंने श्रीकृष्ण के पेट को लताओं की रस्सी बनाकर उससे बांध दियां वास्तव में माता यशोदा ने किसी पर्व के कारण कन्हैया को घर से बाहर निकलने नहीं दिया था। जब राधा को वस्तुस्थिति का बोध हुआ, तो वे लज्जित हो गईं। उन्होंने तत्काल क्षमा याचना की और दामोदर श्रीकृष्ण को बंधनमुक्त कर दिया। इसलिए कार्तिक माह 'श्रीराधा-दामोदर मास' भी कहलाता है।
पद्म पुराण
पद्म पुराण में उल्लेख है कि पूर्व जन्म में आजीवन एकादशी और कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करने से ही सत्यभामा को कृष्ण की अर्द्धांगिनी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। व्रत और तप की दृष्टि से कार्तिक मास को परम कल्याणकारी, श्रेष्ठ और दुर्लभ कहा गया है-
स्कंदपुराण
स्कंद पुराण के अनुसार, कार्तिक के माहात्म्य के बारे में नारायण ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु को अवगत कराया था। पद्मपुराण के अनुसार, रात्रि में भगवान विष्णु के समीप जागरण, प्रात: काल स्नान करने, तुलसी की सेवा, उद्यापन और दीपदान ये सभी कार्तिक मास के पांच नियम हैं। इस मास के दौरान विधिपूर्वक स्नान-पूजन, भगवद्कथा श्रवण और संकीर्तन किया जाता है। इस समय वारुण स्नान, यानी जलाशय में स्नान का विशेष महत्व है। तीर्थ-स्नान का भी असीम महत्व है। भक्तगण ब्रज में इस माह के दौरान श्रीराधाकुंड में स्नान और परिक्रमा करते हैं। 'नमो रमस्ते तुलसि पापं हर हरिप्रिये' मंत्रोच्चार कर तुलसी की पूजा की जाती है। माना जाता है कि दामोदर मास में राधा के विधिपूर्वक पूजन से भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं, क्योंकि राधा को प्रसन्न करने के सभी उपक्रम भगवान दामोदर को अत्यंत प्रिय हैं।
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय
श्री - निधि | कृष्ण - आकर्षण तत्व | गोविन्द - इन्द्रियों को वशीभुत करना गो-इन्द्रि, विन्द बन्द करना, वशीभूत | हरे – दुःखों का हरण करने वाले | मुरारे – समस्त बुराईयाँ- मुर (दैत्य) | हे नाथ – मैं सेवक आप स्वामी | नारायण – मैं जीव आप ईश्वर | वासु – प्राण | देवाय – रक्षक
“हे आकर्षक तत्व मेरे प्रभो, इन्द्रियों को वशीभूत करो, दुःखों का हरण करो, समस्त बुराईयों का बध करो, मैं सेवक हूँ आप स्वामी, मैं जीव हूं आप ब्रह्म, प्रभो ! मेरे प्राणों के आप रक्षक हैं ।”
||श्री गोपाल दोमोदर स्त्रोतम् ||
करार विन्दे न पदार्विन्दं ,मुखार्विन्दे विनिवेशयन्तम
कार्तिक मास - कार्तिक स्नान का महत्व - कार्तिक स्नान की विधि जय जय श्री राधेगोविंद देव जी
कार्तिक मास के समान कोई भी मास नहीं है। स्कंद पुराण और पद्मपुराणमें वर्णित है कि यह मास धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को देने वाला है। विशेष रूप से स्नान दान, एवं तुलसी की पूजा इस मास में विशेष फलदायी है। कार्तिक मास में दीपदान करने से पाप नष्ट होते हैं। स्कंद पुराण में वर्णित है कि इस मास में जो व्यक्ति देवालय, नदी के किनारे, तुलसी के समक्ष एवं शयन कक्ष में दीपक जलाता है उसे सर्व सुख प्राप्त होते हैं। इस मास में भगवान विष्णु एवं लक्ष्मी के निकट दीपक जलाने से अमिट फल प्राप्त होते हैं। इस मास में की गई भगवान विष्णु एवं माँ लक्ष्मी की उपासना असीमित फलदायीहोती है।
तुलसी हमारी आस्था एवं श्रद्धा की प्रतीक है एवं अपरिमित औषधीय गुणों से युक्त भी। वर्ष भर तुलसी में जल अर्पित करना एवं सायंकाल तुलसी के नीचे दीप जलाना अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है। कार्तिक मास में तुलसी के समीप दीपक जलाने से मनुष्य अनंत पुण्य का भागी बनता है। इस मास में तुलसी के समीप दीपक जलाने से व्यक्ति को साक्षात लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है, क्योंकि तुलसी में साक्षात लक्ष्मी का निवास माना गया है।
पौराणिक कथा के अनुसार गुणवती नामक स्त्री ने कार्तिक मास में मंदिर के द्वार पर तुलसी की एक सुन्दर सी वाटिका लगाई उस पुण्य के कारण वह अगले जन्म में सत्यभामा बनी और सदैव कार्तिक मास का व्रत करने के कारण वह भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी बनी। यह है कार्तिक मास में तुलसी आराधना का फल। इस मास में तुलसी विवाह की भी परंपरा है जो कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को किया जाता है। इसमें तुलसी के पौधे को सजाया संवारा जाता है एवं भगवान शालग्राम का पूजन किया जाता है। तुलसी का विधिवत विवाह किया जाता है।
जो व्यक्ति यह चाहता है कि उसके घर में सदैव शुभ कर्म हो, सदैव सुख शान्ति का निवास रहे उसे तुलसी की आराधना अवश्य करनी चाहिए। कहते हैं कि जिस घर में शुभ कर्म होते हैं वहां तुलसी हरी भरी रहती हैं एवं जहां अशुभ कर्म होते हैं वहां तुलसी कभी भी हरी भरी नहीं रहतीं।
आइए मासोंमें श्रेष्ठ कार्तिक मास में श्रेष्ठ कर्म करें। स्नान, ध्यान, दान करते हुए, तुलसी आराधना करते हुए अनन्य पुण्य के भागी बनें। यही है इस मास की श्रेष्ठता का रहस्य। कार्तिक माह बहुत ही पवित्र माना जाता है. भारत के सभी तीर्थों के समान पुण्य फलों की प्राप्ति एक इस माह में मिलती है. इस माह में की पूजा तथा व्रत से ही तीर्थयात्रा के बराबर शुभ फलों की प्राप्ति हो जाती है. इस माह के महत्व के बारे में स्कन्द पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण आदि प्राचीन ग्रंथों में मिलता है. कार्तिक स्नान का महत्व
कार्तिक माह में किए स्नान का फल, एक हजार बार किए गंगा स्नान के समान, सौ बार माघ स्नान के समान, वैशाख माह में नर्मदा नदी पर करोड़ बार स्नान के समान होता है. जो फल कुम्भ में प्रयाग में स्नान करने पर मिलता है, वही फल कार्तिक माह में किसी पवित्र नदी के तट पर स्नान करने से मिलता है. कार्तिक माह में सारा माह घर से बाहर किसी नदी अथवा सरोवर अथवा तालाब में स्नान करना चाहिए. इस माह में गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए. भोजन दिन में एक समय ही करना चाहिए. जो व्यक्ति कार्तिक के पवित्र माह के नियमों का पालन करते हैं, वह वर्ष भर के सभी पापों से मुक्ति पाते हैं. इस माह में मांस नहीं खाना चाहिए. जो व्यक्ति मांस खाता है वह चाण्डाल बनता है.
कार्तिक माह में शिव, चण्डी, सूर्य तथा अन्य देवों के मंदिरों में दीप जलाने तथा प्रकाश करने का बहुत महत्व माना गया है. इस माह में भगवान केशव का पुष्पों से अभिनन्दन करना चाहिए. ऎसा करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान पुण्य फल मिलता है.
कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि, शरद ऋतु की अंतिम तिथि होती है. यह तिथि बहुत ही पवित्र तथा पुण्यदायिनी मानी जाती है. इस दिन भारत के कई स्थानों पर मेले भी लगते हैं. कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि पर किसी भी व्यक्ति को बिना स्नान किए नहीं रहना चाहिए. इस दिन अपनी क्षमतानुसार दान भी करना चाहिए. यह दान किसी भी जरुरतमंद व्यक्ति को दिया जा सकता है. कार्तिक माह में पुष्कर, कुरुक्षेत्र तथा वाराणसी तीर्थ स्थान स्नान तथा दान के लिए अति महत्वपूर्ण माने गए हैं. कार्तिक स्नान की विधि
कार्तिकव्रती को सर्वप्रथम गंगा, विष्णु, शिव तथा सूर्य का स्मरण कर नदी, तालाब या पोखर के जल में प्रवेश करना चाहिए। उसके बाद नाभिपर्यन्त (आधा शरीर पानी में डूबा हो) जल में खड़े होकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। गृहस्थ व्यक्ति को काला तिल तथा आंवले का चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिए. परंतु विधवा तथा संन्यासियों को तुलसी के पौधे की जड़ में लगी मृत्तिका ( मिट्टी) को लगाकर स्नान करना चाहिए। सप्तमी, अमावस्या, नवमी, द्वितीया, दशमी व त्रयोदशी को तिल एवं आंवले का प्रयोग वर्जित है। इसके बाद व्रती को जल से निकलकर शुद्ध वस्त्र धारणकर विधि-विधानपूर्वक भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। कलियुग में कार्तिक मास को मोक्ष के साधन के रूप में दर्शाया गया है। पुराणों के मतानुसार इस मास को चारों पुरुषार्थों- धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष देने वाला माना गया है। धर्मशास्त्रों के अनुसार नारायण ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु ने कार्तिक मास के सर्वगुणसंपन्न माहात्मय के संदर्भ में बताया गया है। कार्तिक मास में कुछ कार्य प्रधान माने गए हैं जो इस प्रकार हैं-
1 - दीपदान-धर्म शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास में सबसे प्रधान कार्य दीपदान करना बताया गया है। इस मास में नदी, पोखर, तालाब आदि में दीपदान किया जाता है। इससे अतुल्य पुण्य की प्राप्ति होती है। 2 - तुलसी पूजा-इस मास में तुलसी पूजन करने तथा सेवन करने का विशेष महत्व बताया गया है। वैसे तो हर मास में तुलसी का सेवन व आराधना करना श्रेयस्कर होता है लेकिन कार्तिक में तुलसी पूजा का महत्व कई गुना माना गया है। 3 - भूमि पर शयन-भूमि पर शयन करना कार्तिक मास का तीसरा प्रधान कार्य माना गया है। भूमि पर शयन करने से मन में सात्विकता का भाव आता है तथा अन्य विकार भी समाप्त हो जाते हैं। 4 - ब्रह्मचर्य- कार्तिक मास में ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक बताया गया है। 5 - द्विदलन निषेध-कार्तिक मास में द्विदलन अर्थात उड़द, मूंग, मसूर, चना, मटर, राई, हींग, मूली और हरी सब्जी आदि का सेवन निषेध है।व्रती को घीया अथवा लौकी, गाजर, बैंगन, कैथ (बेल के पेड़ जैसा, जिसके फल खट्टे होते हैं) बासी खाना तथा किसी अन्य का भोजन और दूषित खाना नहीं खाना चाहिए.अपने ही लिए बनाया भोजन अर्थात बिना भगवान के भोग लगाये तथा बिना गोग्रास निकाले भोजन को नहीं करना चाहिये व्रत रखने वाले व्यक्ति को तामसिक पदार्थों का भोजन में त्याग करना चाहिए. व्रती को दूसरे व्यक्ति का भोजन नहीं करना चाहिए. व्रती को दिन के चतुर्थ पहर में एक समय का भोजन पत्तल पर करना चाहिए. 6 - कार्तिक माह में पूरे मास में शरीर पर तेल नहीं लगाना चाहिए. वह केवल कार्तिक माह की कृष्ण चतुर्दशी को शरीर पर तेल लगा सकता है. अन्य दिनों में तेल का त्याग करना चाहिए. 7 - व्रती को संयम से काम लेना चाहिए. क्रोध का त्याग करना चाहिए. उसे साधुओं के समान व्यवहार करना चाहिए. 8 - व्रती को कम बोलना चाहिए. किसी की निंदा तथा विवाद में नहीं पड़ना चाहिए. व्रती को किसी से झगडा़ तथा परदेश में नहीं जाना चाहिए. मन की इन्द्रियों पर काबू रखना चाहिए. बुद्घिमान लोगों को चाहिये कि पराया अन्न, पराया धन, पराई नारी, पराई शय्या का भी परित्याग करना चाहिये. 9 - व्रती पुरूष अथवा स्त्री किसी भी रजस्वला स्त्री का स्पर्श भी ना करें. बडा दोष लगता है। रजस्वला स्त्री के स्पर्श से युक्त, कौओं का झूठा एवं सूतक युक्त घर का अन्न भी नहीं खाना चाहिये. इन तीनों की एक ही कोटि होती है.
तुलसी हमारी आस्था एवं श्रद्धा की प्रतीक है एवं अपरिमित औषधीय गुणों से युक्त भी। वर्ष भर तुलसी में जल अर्पित करना एवं सायंकाल तुलसी के नीचे दीप जलाना अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है। कार्तिक मास में तुलसी के समीप दीपक जलाने से मनुष्य अनंत पुण्य का भागी बनता है। इस मास में तुलसी के समीप दीपक जलाने से व्यक्ति को साक्षात लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है, क्योंकि तुलसी में साक्षात लक्ष्मी का निवास माना गया है। पौराणिक कथा के अनुसार गुणवती नामक स्त्री ने कार्तिक मास में मंदिर के द्वार पर तुलसी की एक सुन्दर सी वाटिका लगाई उस पुण्य के कारण वह अगले जन्म में सत्यभामा बनी और सदैव कार्तिक मास का व्रत करने के कारण वह भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी बनी। यह है कार्तिक मास में तुलसी आराधना का फल। इस मास में तुलसी विवाह की भी परंपरा है जो कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को किया जाता है। इसमें तुलसी के पौधे को सजाया संवारा जाता है एवं भगवान शालग्राम का पूजन किया जाता है। तुलसी का विधिवत विवाह किया जाता है। जो व्यक्ति यह चाहता है कि उसके घर में सदैव शुभ कर्म हो, सदैव सुख शान्ति का निवास रहे उसे तुलसी की आराधना अवश्य करनी चाहिए। कहते हैं कि जिस घर में शुभ कर्म होते हैं वहां तुलसी हरी भरी रहती हैं एवं जहां अशुभ कर्म होते हैं वहां तुलसी कभी भी हरी भरी नहीं रहतीं। राधा रानी जी की तुलसी सेवा प्रसंग
एक बार राधा जी सखी से बोली सखी तुम श्री कृष्ण की प्रसन्नता के लिए किसी देवता की ऐसी पूजा बताओ जो परम सौभाग्यवर्द्धक हो. तब समस्त सखियों में श्रेष्ठ चन्द्रनना ने अपने हदय में एक क्षण तक कुछ विचार किया. फिर बोली चंद्रनना ने कहा- राधे ! परम सौभाग्यदायक और श्रीकृष्ण की भी प्राप्ति के लिए वरदायक व्रत है "तुलसी की सेवा" तुम्हे तुलसी सेवन का ही नियम लेना चाहिये. क्योकि तुलसी का यदि स्पर्श अथवा ध्यान, नाम, संकीर्तन, आरोपण, सेचन, किया जाये. तो महान पुण्यप्रद होता है. हे राधे ! जो प्रतिदिन तुलसी की नौ प्रकार से भक्ति करते है.वे कोटि सहस्त्र युगों तक अपने उस सुकृत्य का उत्तम फल भोगते है.
मनुष्यों की लगायी हुई तुलसी जब तक शाखा, प्रशाखा, बीज, पुष्प, और सुन्दर दलों, के साथ पृथ्वी पर बढ़ती रहती है तब तक उनके वंश मै जो-जो जन्म लेता है, वे सभी हो हजार कल्पों तक श्रीहरि के धाम में निवास करते है. जो तुलसी मंजरी सिर पर रखकर प्राण त्याग करता है. वह सैकड़ो पापों से युक्त क्यों न हो यमराज उनकी ओर देख भी नहीं सकते. इस प्रकार चन्द्रनना की कही बात सुनकर रासेश्वरी श्री राधा ने साक्षात् श्री हरि को संतुष्ट करने वाले तुलसी सेवन का व्रत आरंभ किया. श्री राधा रानी का तुलसी सेवा व्रत
केतकी वन में सौ हाथ गोलाकार भूमि पर बहुत ऊँचा और अत्यंत मनोहर श्री तुलसी का मंदिर बनवाया, जिसकी दीवार सोने से जड़ी थी. और किनारे-किनारे पद्मरागमणि लगी थी, वह सुन्दर-सुन्दर पन्ने हीरे और मोतियों के परकोटे से अत्यंत सुशोभित था, और उसके चारो ओर परिक्रमा के लिए गली बनायीं गई थी जिसकी भूमि चिंतामणि से मण्डित थी. ऐसे तुलसी मंदिर के मध्य भाग में हरे पल्लवो से सुशोभित तुलसी की स्थापना करके श्री राधा ने अभिजित मुहूर्त में उनकी सेवा प्रारम्भ की.
श्री राधा जी ने आश्र्विन शुक्ला पूर्णिमा से लेकर चैत्र पूर्णिमा तक तुलसी सेवन व्रत का अनुष्ठान किया. व्रत आरंभ करने उन्होंने प्रतिमास पृथक-पृथक रस से तुलसी को सींचा "कार्तिक में दूध से", "मार्गशीर्ष में ईख के रस से", "पौष में द्राक्षा रस से", "माघ में बारहमासी आम के रस से", "फाल्गुन मास में अनेक वस्तुओ से मिश्रित मिश्री के रस से" और चैत्र मास में पंचामृत से उनका सेचन किया .और वैशाख कृष्ण प्रतिपदा के दिन उद्यापन का उत्सव किया.
उन्होंने दो लाख ब्राह्मणों को छप्पन भोगो से तृप्त करके वस्त्र और आभूषणों के साथ दक्षिणा दी. मोटे-मोटे दिव्य मोतियों का एक लाख भार और सुवर्ण का एक कोटि भार श्री गर्गाचार्य को दिया उस समय आकाश से देवता तुलसी मंदिर पर फूलो की वर्षा करने लगे. उसी समय सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान हरिप्रिया तुलसी देवी प्रकट हुई . उनके चार भुजाएँ थी कमल दल के समान विशाल नेत्र थे सोलह वर्ष की सी अवस्था और श्याम कांति थी .मस्तक पर हेममय किरीट प्रकाशित था और कानो में कंचनमय कुंडल झलमला रहे थे गरुड़ से उतरकर तुलसी देवी ने रंग वल्ली जैसी श्री राधा जी को अपनी भुजाओ से अंक में भर लिया और उनके मुखचन्द्र का चुम्बन किया तुलसी बोली कलावती राधे ! मै तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ, यहाँ इंद्रिय, मन, बुद्धि, और चित् द्वारा जो जो मनोरथ तुमने किया है वह सब तुम्हारे सम्मुख सफल हो. इस प्रकार हरिप्रिया तुलसी को प्रणाम करके वृषभानु नंदिनी राधा ने उनसे कहा देवी! गोविंद के युगल चरणों में मेरी अहैतु की भक्ति बनी रहे. तब तथास्तु कहकर हरिप्रिया अंतर्धान हो गई. इस प्रकार पृथ्वी पर जो मनुष्य श्री राधिका के इस विचित्र उपाख्यान को सुनता है वह भगवान को पाकर कृतकृत्य हो जाता है.