तत्त्वज्ञानका सहज उपाय
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
वाग् गद्गादा द्रवते यस्य चित्तं रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ।।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ।।
'मेरा नाम-गुण-कीर्तन करते समय जिसका गला भर आता है, हृदय द्रवित हो जाता है, जो बार-बार मेरे प्रेममें आँसू ढालता है, कभी हँसने लगता है, कभी लाज-शर्म छोड़कर उच्च स्वरसे गाने और नाचने लगता है, ऐसा मेरा भक्त त्रिलोकीको पवित्र कर देता है ।'
हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं है—यह बात यदि समझमें आ जाय तो इसी क्षण
जीवनमुक्ति है ! इसमें समय लगनेकी बात नहीं है । समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है । जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना
है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे—
संकर सहज सरूपु सम्हारा लागि समाधि अखंड अपारा
(रामचरितमानस, बालकाण्ड ५८/४)
दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’ । इसमें ‘मैं’ प्रकृतिका अंश है और ‘हूँ’ परमात्माका अंश है । ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है । ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है । ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है । ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है । ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है । ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है । ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया यही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है । ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है । यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘मैं’ को साथ मिलानेसे ही ‘हूँ’ कहा जाता है । अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा । वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है ।
(रामचरितमानस, बालकाण्ड ५८/४)
दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’ । इसमें ‘मैं’ प्रकृतिका अंश है और ‘हूँ’ परमात्माका अंश है । ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है । ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है । ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है । ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है । ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है । ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है । ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया यही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है । ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है । यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘मैं’ को साथ मिलानेसे ही ‘हूँ’ कहा जाता है । अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा । वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है ।
एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटेके सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादाके सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोताके सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहनके सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नीके सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, भानजेके सामने कहता है कि ‘मैं मामा हूँ’, मामाके सामने कहता
है कि ‘मैं भानजा हूँ’ आदि-आदि । तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो
अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है । ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला । वह ‘मैं’ बापके सामने बेटा हो जाता, बेटेके सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है । अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुदका पता
नहीं है ! यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी । कारण कि वास्तवमें सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं
।
बेटेकी अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयंके नाम नहीं हैं । स्वयंका नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है । वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है । ‘मैं’ जाननेवाला नहीं है और जो जाननेवाला है, वह ‘मैं’ नहीं है । ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में
आनेवाला) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है । ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने
वाला ‘है’ सर्वदेशीय है । ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है । सत्ता ‘है’ की ही है । परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं । ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है । ‘मैं’ पनको पकड़नेसे ही वह अंश है । अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह
अंश (‘हूँ’) नहीं है, प्रत्युत ‘है’ (सत्ता मात्र है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है । अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
(गीता २/७१)
यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है । इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थितिका अनुभव होने पर शरीरका कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीरको मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
(गीता २/७१)
यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है । इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थितिका अनुभव होने पर शरीरका कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीरको मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता ।
मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है—इस प्रकार
वस्तुओंमें तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है । ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है । अनेक शरीरोंमें, अनेक अवस्थाओंमें चिन्मय सत्ता एक
है । बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग
हैं, पर तीनों अवस्थाओंमें सत्ता
एक है । कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है । जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है । अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता । ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवालेमें
कोई फर्क नहीं पड़ता ।
यदि जाननेवाला भी बदल जाय तो इन पाँचोंकी गणना कौन करेगा ? एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तनका ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तनका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । सबका इदंतासे भान होता है, पर अपने स्वरूपका इदंतासे भान कभी किसीको नहीं होता सबके अभावका ज्ञान होता है, पर अपने अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । तात्पर्य है कि ‘है’ (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है । भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’ इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं । ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करनेसे ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती । वास्तवमें ‘है में संसार’ इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये । ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करनेसे ‘नहीं’ नहीं रहेगा और ‘है’ रह जायगा । भगवान् कहते हैं।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। (गीता २/१६)
‘असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत् का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है ।’एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदिमें अपनी जो परिच्छिन्न सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, एकदेशीयता) को लेकर ही दीखती है । जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपनेको एक देश, काल आदिमें देखता है । अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदिमें परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत अपरिच्छिन्न सत्तामात्र रहती है ।
वास्तवमें अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है । सांसारिक पदार्थोंकी जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है । सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम्
उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है । इसलिये तत्त्वबोध होने पर
शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता
है ।
अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है । इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव
ही नहीं । अहम् ज्ञानीमें होता है, ज्ञानमें नहीं । अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है । उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है । कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयंसे ही स्वयंका ज्ञान होता है । वास्तवमें ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है । अज्ञान मिटानेको ही तत्त्वज्ञानका होना कह देते हैं ।
एक प्रकाश्य (संसार) है और एक प्रकाशक (परमात्मा) है अथवा एक ‘यह’ है और एक उसका आधार, प्रकाशक, अधिष्ठान ‘सत्ता’ है । अहम् न तो प्रकाश्य (‘यह’) में है और न प्रकाशक
(सत्ता) में ही है, प्रत्युत केवल माना हुआ है । जिसमें संसार (‘यह’) की इच्छा भी है और परमात्मा (सत्ता) की इच्छा भी है, उसका नाम ‘अहम्’ है और वही ‘जीव’ है । तात्पर्य है कि जडके सम्बन्धसे संसारकी इच्छा अर्थात् ‘भोगेच्छा’ है और चेतनके सम्बन्धसे परमात्माकी इच्छा अर्थात् ‘जिज्ञासा’ है । अतः अहम्
(जड-चेतनकी ग्रंथि) में जड-अंशकी प्रधानतासे हम परमात्माको चाहते है।
माने हुए अहम् का नाश होनेपर भोगेच्छा मिट जाती है और जिज्ञासा पूरी हो जाती है अर्थात् तत्व रह जाता है । वास्तवमें परमात्माकी इच्छा भी संसारकी इच्छाके कारण ही है । संसारकी इच्छा न हो तो तत्वज्ञान स्वतःसिद्ध है ।
माने हुए अहम् का नाश होनेपर भोगेच्छा मिट जाती है और जिज्ञासा पूरी हो जाती है अर्थात् तत्व रह जाता है । वास्तवमें परमात्माकी इच्छा भी संसारकी इच्छाके कारण ही है । संसारकी इच्छा न हो तो तत्वज्ञान स्वतःसिद्ध है ।
साधनकी ऊँची अवस्थामें ‘मेरेको तत्वज्ञान हो जाय, मैं मुक्त हो जाऊँ’—यह इच्छा भी बाधक होती है । जबतक अंतःकरणमें असत् की सत्ता दृढ़ रहती है, तबतक तो जिज्ञासा सहायक होती है, पर असत् की सत्ता शिथिल होनेपर जिज्ञासा भी तत्वज्ञानमें बाधक होती है । कारण कि जैसे प्यास जलसे दूरी सिद्ध करती है, ऐसे ही जिज्ञासा तत्वसे दूरी सिद्ध करती है, जब कि तत्व वास्तवमें दूर नहीं है, प्रत्युत नित्यप्राप्त है । दूसरी बात, तत्वज्ञानकी इच्छासे व्यक्तित्व (अहम्) दृढ़ होता है, जो तत्वज्ञानमें बाधक है । वास्तवमें तत्वज्ञान, मुक्ति स्वतःसिद्ध है । तत्वज्ञानकी इच्छा करके हम अज्ञानको सत्ता देते है, अपनेमें अज्ञानकी मान्यता करते है, जब कि वास्तवमें अज्ञानकी सत्ता है नहीं । इसलिए तत्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता ‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४/३५); क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं । मिटता वही है, जो नहीं होता और मिलता वही है, जो होता है ।
साधकको स्वतःस्वाभाविक एकमात्र ‘है’ (सत्ता) का अनुभव हो जाय इसीका नाम जीवन्मुक्ति है, तत्वबोध है । कारण कि अन्तमें सबका निषेध होनेपर एक ‘है’ ही शेष रह जाता है । वह ‘है’ अपेक्षावाले ‘नहीं’ और ‘है’ दोनोंसे रहित है अर्थात् उस
सत्तामें ‘नहीं’ भी नहीं है और ‘है’ भी नहीं है । वह सत्ता ज्ञानस्वरूप है, चिन्मयमात्र है । वह सत्ता नित्य जाग्रत् रहती है । सुषुप्तिमें अहंसहित सब करण लीन हो जाते है, पर अपनी सत्ता लीन नहीं होती यह सत्ताकी नित्यजागृति है । वह सत्ता कभी पुरानी नहीं होती, प्रत्युत नित्य नयी ही बनी
रहती है; क्योंकि उसमें काल नहीं है । उस सत्तामात्रका ज्ञान होना ही तत्वज्ञान है और सत्तामें कुछ भी मिलाना
अज्ञान है ।
मैं सदा जीता रहूँ, कभी मरुँ नहीं—यह ‘सत्’ की इच्छा है; मैं सब कुछ जान लूँ, कभी अज्ञानी न रहूँ—यह ‘चित्’ की इच्छा है और मैं सदा सुखी रहूँ, कभी दुःखी न होऊ—यह ‘आनंद’ की इच्छा है । इस प्रकार सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्माकी इच्छा जीवमात्रमें रहती है । परन्तु जड़से सम्बन्ध माननेके कारण उससे भूल यह होती है कि वह इन इच्छओंको नाशवान् संसारसे ही पूरी करना चाहता है; जैसे—वह शरीरको लेकर जीना चाहता है, बुद्धि लेकर जानकार बनना चाहता है और इन्द्रियोंको लेकर सुखी होना चाहता है।
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