श्री रामचरित मानस के सिद्ध ‘मन्त्र’
नियम-
मानस के दोहे-चौपाईयों को सिद्ध करने का विधान यह है कि किसी भी शुभ दिन की रात्रि को दस बजे के बाद अष्टांग हवन के द्वारा मन्त्र सिद्ध करना चाहिये। फिर जिस कार्य के लिये मन्त्र-जप की आवश्यकता हो, उसके लिये नित्य जप करना चाहिये। वाराणसी में भगवान् शंकरजी ने मानस की चौपाइयों को मन्त्र-शक्ति प्रदान की है-इसलिये वाराणसी की ओर मुख करके शंकरजी को साक्षी बनाकर श्रद्धा से जप करना चाहिये।
अष्टांग हवन सामग्री
१॰ चन्दन का बुरादा, २॰ तिल, ३॰ शुद्ध घी, ४॰ चीनी, ५॰ अगर, ६॰ तगर, ७॰ कपूर, ८॰ शुद्ध केसर, ९॰ नागरमोथा, १०॰ पञ्चमेवा, ११॰ जौ और १२॰ चावल।
जानने की बातें-
जिस उद्देश्य के लिये जो चौपाई, दोहा या सोरठा जप करना बताया गया है, उसको सिद्ध करने के लिये एक दिन हवन की सामग्री से उसके द्वारा (चौपाई, दोहा या सोरठा) १०८ बार हवन करना चाहिये। यह हवन केवल एक दिन करना है। मामूली शुद्ध मिट्टी की वेदी बनाकर उस पर अग्नि रखकर उसमें आहुति दे देनी चाहिये। प्रत्येक आहुति में चौपाई आदि के अन्त में ‘स्वाहा’ बोल देना चाहिये।
प्रत्येक आहुति लगभग पौन तोले की (सब चीजें मिलाकर) होनी चाहिये। इस हिसाब से १०८ आहुति के लिये एक सेर (८० तोला) सामग्री बना लेनी चाहिये। कोई चीज कम-ज्यादा हो तो कोई आपत्ति नहीं। पञ्चमेवा में पिश्ता, बादाम, किशमिश (द्राक्षा), अखरोट और काजू ले सकते हैं। इनमें से कोई चीज न मिले तो उसके बदले नौजा या मिश्री मिला सकते हैं। केसर शुद्ध ४ आने भर ही डालने से काम चल जायेगा।
हवन करते समय माला रखने की आवश्यकता १०८ की संख्या गिनने के लिये है। बैठने के लिये आसन ऊन का या कुश का होना चाहिये। सूती कपड़े का हो तो वह धोया हुआ पवित्र होना चाहिये।
मन्त्र सिद्ध करने के लिये यदि लंकाकाण्ड की चौपाई या दोहा हो तो उसे शनिवार को हवन करके करना चाहिये। दूसरे काण्डों के चौपाई-दोहे किसी भी दिन हवन करके सिद्ध किये जा सकते हैं।
सिद्ध की हुई रक्षा-रेखा की चौपाई एक बार बोलकर जहाँ बैठे हों, वहाँ अपने आसन के चारों ओर चौकोर रेखा जल या कोयले से खींच लेनी चाहिये। फिर उस चौपाई को भी ऊपर लिखे अनुसार १०८ आहुतियाँ देकर सिद्ध करना चाहिये। रक्षा-रेखा न भी खींची जाये तो भी आपत्ति नहीं है। दूसरे काम के लिये दूसरा मन्त्र सिद्ध करना हो तो उसके लिये अलग हवन करके करना होगा।
एक दिन हवन करने से वह मन्त्र सिद्ध हो गया। इसके बाद जब तक कार्य सफल न हो, तब तक उस मन्त्र (चौपाई, दोहा) आदि का प्रतिदिन कम-से-कम १०८ बार प्रातःकाल या रात्रि को, जब सुविधा हो, जप करते रहना चाहिये।
कोई दो-तीन कार्यों के लिये दो-तीन चौपाइयों का अनुष्ठान एक साथ करना चाहें तो कर सकते हैं। पर उन चौपाइयों को पहले अलग-अलग हवन करके सिद्ध कर लेना चाहिये।
मानस के दोहे-चौपाईयों को सिद्ध करने का विधान यह है कि किसी भी शुभ दिन की रात्रि को दस बजे के बाद अष्टांग हवन के द्वारा मन्त्र सिद्ध करना चाहिये। फिर जिस कार्य के लिये मन्त्र-जप की आवश्यकता हो, उसके लिये नित्य जप करना चाहिये। वाराणसी में भगवान् शंकरजी ने मानस की चौपाइयों को मन्त्र-शक्ति प्रदान की है-इसलिये वाराणसी की ओर मुख करके शंकरजी को साक्षी बनाकर श्रद्धा से जप करना चाहिये।
अष्टांग हवन सामग्री
१॰ चन्दन का बुरादा, २॰ तिल, ३॰ शुद्ध घी, ४॰ चीनी, ५॰ अगर, ६॰ तगर, ७॰ कपूर, ८॰ शुद्ध केसर, ९॰ नागरमोथा, १०॰ पञ्चमेवा, ११॰ जौ और १२॰ चावल।
जानने की बातें-
जिस उद्देश्य के लिये जो चौपाई, दोहा या सोरठा जप करना बताया गया है, उसको सिद्ध करने के लिये एक दिन हवन की सामग्री से उसके द्वारा (चौपाई, दोहा या सोरठा) १०८ बार हवन करना चाहिये। यह हवन केवल एक दिन करना है। मामूली शुद्ध मिट्टी की वेदी बनाकर उस पर अग्नि रखकर उसमें आहुति दे देनी चाहिये। प्रत्येक आहुति में चौपाई आदि के अन्त में ‘स्वाहा’ बोल देना चाहिये।
प्रत्येक आहुति लगभग पौन तोले की (सब चीजें मिलाकर) होनी चाहिये। इस हिसाब से १०८ आहुति के लिये एक सेर (८० तोला) सामग्री बना लेनी चाहिये। कोई चीज कम-ज्यादा हो तो कोई आपत्ति नहीं। पञ्चमेवा में पिश्ता, बादाम, किशमिश (द्राक्षा), अखरोट और काजू ले सकते हैं। इनमें से कोई चीज न मिले तो उसके बदले नौजा या मिश्री मिला सकते हैं। केसर शुद्ध ४ आने भर ही डालने से काम चल जायेगा।
हवन करते समय माला रखने की आवश्यकता १०८ की संख्या गिनने के लिये है। बैठने के लिये आसन ऊन का या कुश का होना चाहिये। सूती कपड़े का हो तो वह धोया हुआ पवित्र होना चाहिये।
मन्त्र सिद्ध करने के लिये यदि लंकाकाण्ड की चौपाई या दोहा हो तो उसे शनिवार को हवन करके करना चाहिये। दूसरे काण्डों के चौपाई-दोहे किसी भी दिन हवन करके सिद्ध किये जा सकते हैं।
सिद्ध की हुई रक्षा-रेखा की चौपाई एक बार बोलकर जहाँ बैठे हों, वहाँ अपने आसन के चारों ओर चौकोर रेखा जल या कोयले से खींच लेनी चाहिये। फिर उस चौपाई को भी ऊपर लिखे अनुसार १०८ आहुतियाँ देकर सिद्ध करना चाहिये। रक्षा-रेखा न भी खींची जाये तो भी आपत्ति नहीं है। दूसरे काम के लिये दूसरा मन्त्र सिद्ध करना हो तो उसके लिये अलग हवन करके करना होगा।
एक दिन हवन करने से वह मन्त्र सिद्ध हो गया। इसके बाद जब तक कार्य सफल न हो, तब तक उस मन्त्र (चौपाई, दोहा) आदि का प्रतिदिन कम-से-कम १०८ बार प्रातःकाल या रात्रि को, जब सुविधा हो, जप करते रहना चाहिये।
कोई दो-तीन कार्यों के लिये दो-तीन चौपाइयों का अनुष्ठान एक साथ करना चाहें तो कर सकते हैं। पर उन चौपाइयों को पहले अलग-अलग हवन करके सिद्ध कर लेना चाहिये।
१॰ विपत्ति-नाश के लिये
“राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।”
२॰ संकट-नाश के लिये
“जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”
३॰ कठिन क्लेश नाश के लिये
“हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥”
४॰ विघ्न शांति के लिये
“सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥”
५॰ खेद नाश के लिये
“जब तें राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥”
६॰ चिन्ता की समाप्ति के लिये
“जय रघुवंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥”
७॰ विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिये
“दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥”
८॰ मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिये
“हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।”
९॰ विष नाश के लिये
“नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।”
१०॰ अकाल मृत्यु निवारण के लिये
“नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।”
११॰ सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये / भूत भगाने के लिये
“प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥”
१२॰ नजर झाड़ने के लिये
“स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।”
१३॰ खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्त करने के लिए
“गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।”
१४॰ जीविका प्राप्ति केलिये
“बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।”
१५॰ दरिद्रता मिटाने के लिये
“अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।”
१६॰ लक्ष्मी प्राप्ति के लिये
“जिमि सरिता सागर महुँ जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।”
१७॰ पुत्र प्राप्ति के लिये
“प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।’
१८॰ सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये
“जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।”
१९॰ ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये
“साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।”
२०॰ सर्व-सुख-प्राप्ति के लिये
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।
२१॰ मनोरथ-सिद्धि के लिये
“भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।”
२२॰ कुशल-क्षेम के लिये
“भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।”
२३॰ मुकदमा जीतने के लिये
“पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।”
२४॰ शत्रु के सामने जाने के लिये
“कर सारंग साजि कटि भाथा। अरिदल दलन चले रघुनाथा॥”
२५॰ शत्रु को मित्र बनाने के लिये
“गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।”
२६॰ शत्रुतानाश के लिये
“बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥”
२७॰ वार्तालाप में सफ़लता के लिये
“तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥”
२८॰ विवाह के लिये
“तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥”
२९॰ यात्रा सफ़ल होने के लिये
“प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥”
३०॰ परीक्षा / शिक्षा की सफ़लता के लिये
“जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥”
३१॰ आकर्षण के लिये
“जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥”
३२॰ स्नान से पुण्य-लाभ के लिये
“सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।”
३३॰ निन्दा की निवृत्ति के लिये
“राम कृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।
३४॰ विद्या प्राप्ति के लिये
गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥
३५॰ उत्सव होने के लिये
“सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।”
३६॰ यज्ञोपवीत धारण करके उसे सुरक्षित रखने के लिये
“जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।”
३७॰ प्रेम बढाने के लिये
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
३८॰ कातर की रक्षा के लिये
“मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।”
३९॰ भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लिये
रामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग ।
सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत न जानइ नाग ॥
४०॰ विचार शुद्ध करने के लिये
“ताके जुग पद कमल मनाउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।”
४१॰ संशय-निवृत्ति के लिये
“राम कथा सुंदर करतारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।।”
४२॰ ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये
” अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।”
४३॰ विरक्ति के लिये
“भरत चरित करि नेमु तुलसी जे सादर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।”
४४॰ ज्ञान-प्राप्ति के लिये
“छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।”
४५॰ भक्ति की प्राप्ति के लिये
“भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।”
४६॰ श्रीहनुमान् जी को प्रसन्न करने के लिये
“सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।”
४७॰ मोक्ष-प्राप्ति के लिये
“सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। काल सर्प जनु चले सपच्छा।।”
४८॰ श्री सीताराम के दर्शन के लिये
“नील सरोरुह नील मनि नील नीलधर श्याम ।
लाजहि तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥”
४९॰ श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये
“जनकसुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।”
५०॰ श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये
“केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।”
५१॰ सहज स्वरुप दर्शन के लिये
“भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।”
मानस के मन्त्र“राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।”
२॰ संकट-नाश के लिये
“जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”
३॰ कठिन क्लेश नाश के लिये
“हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥”
४॰ विघ्न शांति के लिये
“सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥”
५॰ खेद नाश के लिये
“जब तें राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥”
६॰ चिन्ता की समाप्ति के लिये
“जय रघुवंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥”
७॰ विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिये
“दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥”
८॰ मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिये
“हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।”
९॰ विष नाश के लिये
“नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।”
१०॰ अकाल मृत्यु निवारण के लिये
“नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।”
११॰ सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये / भूत भगाने के लिये
“प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥”
१२॰ नजर झाड़ने के लिये
“स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।”
१३॰ खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्त करने के लिए
“गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।”
१४॰ जीविका प्राप्ति केलिये
“बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।”
१५॰ दरिद्रता मिटाने के लिये
“अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।”
१६॰ लक्ष्मी प्राप्ति के लिये
“जिमि सरिता सागर महुँ जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।”
१७॰ पुत्र प्राप्ति के लिये
“प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।’
१८॰ सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये
“जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।”
१९॰ ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये
“साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।”
२०॰ सर्व-सुख-प्राप्ति के लिये
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।
२१॰ मनोरथ-सिद्धि के लिये
“भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।”
२२॰ कुशल-क्षेम के लिये
“भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।”
२३॰ मुकदमा जीतने के लिये
“पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।”
२४॰ शत्रु के सामने जाने के लिये
“कर सारंग साजि कटि भाथा। अरिदल दलन चले रघुनाथा॥”
२५॰ शत्रु को मित्र बनाने के लिये
“गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।”
२६॰ शत्रुतानाश के लिये
“बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥”
२७॰ वार्तालाप में सफ़लता के लिये
“तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥”
२८॰ विवाह के लिये
“तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥”
२९॰ यात्रा सफ़ल होने के लिये
“प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥”
३०॰ परीक्षा / शिक्षा की सफ़लता के लिये
“जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥”
३१॰ आकर्षण के लिये
“जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥”
३२॰ स्नान से पुण्य-लाभ के लिये
“सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।”
३३॰ निन्दा की निवृत्ति के लिये
“राम कृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।
३४॰ विद्या प्राप्ति के लिये
गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥
३५॰ उत्सव होने के लिये
“सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।”
३६॰ यज्ञोपवीत धारण करके उसे सुरक्षित रखने के लिये
“जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।”
३७॰ प्रेम बढाने के लिये
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
३८॰ कातर की रक्षा के लिये
“मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।”
३९॰ भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लिये
रामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग ।
सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत न जानइ नाग ॥
४०॰ विचार शुद्ध करने के लिये
“ताके जुग पद कमल मनाउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।”
४१॰ संशय-निवृत्ति के लिये
“राम कथा सुंदर करतारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।।”
४२॰ ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये
” अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।”
४३॰ विरक्ति के लिये
“भरत चरित करि नेमु तुलसी जे सादर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।”
४४॰ ज्ञान-प्राप्ति के लिये
“छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।”
४५॰ भक्ति की प्राप्ति के लिये
“भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।”
४६॰ श्रीहनुमान् जी को प्रसन्न करने के लिये
“सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।”
४७॰ मोक्ष-प्राप्ति के लिये
“सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। काल सर्प जनु चले सपच्छा।।”
४८॰ श्री सीताराम के दर्शन के लिये
“नील सरोरुह नील मनि नील नीलधर श्याम ।
लाजहि तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥”
४९॰ श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये
“जनकसुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।”
५०॰ श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये
“केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।”
५१॰ सहज स्वरुप दर्शन के लिये
“भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।”
१॰ प्रभु की कृपा पाने का मन्त्र
“मूक होई वाचाल, पंगु चढ़ई गिरिवर गहन।
जासु कृपा सो दयाल, द्रवहु सकल कलिमल-दहन।।”
विधि-प्रभु राम की पूजा करके गुरूवार के दिन से कमलगट्टे की माला पर २१ दिन तक प्रातः और सांय नित्य एक माला (१०८ बार) जप करें।
लाभ-प्रभु की कृपा प्राप्त होती है। दुर्भाग्य का अन्त हो जाता है।
२॰ रामजी की अनुकम्पा पाने का मन्त्र
“बन्दउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।”
विधि-रविवार के दिन से रुद्राक्ष की माला पर १००० बार प्रतिदिन ४० दिन तक जप करें।
लाभ- निष्काम भक्तों के लिये प्रभु श्रीराम की अनुकम्पा पाने का अमोघ मन्त्र है।
३॰ हनुमान जी की कृपा पाने का मन्त्र
“प्रनउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन।
जासु ह्रदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।”
विधि- भगवान् हनुमानजी की सिन्दूर युक्त प्रतिमा की पूजा करके लाल चन्दन की माला से मंगलवार से प्रारम्भ करके २१ दिन तक नित्य १००० जप करें।
लाभ- हनुमानजी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। अला-बला, किये-कराये अभिचार का अन्त होता है।
४॰ वशीकरण के लिये मन्त्र
“जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेहि।।”
विधि- सूर्यग्रहण के समय पूर्ण ‘पर्वकाल’ के दौरान इस मन्त्र को जपता रहे, तो मन्त्र सिद्ध हो जायेगा। इसके पश्चात् जब भी आवश्यकता हो इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर गोरोचन का तिलक लगा लें।
लाभ- इस प्रकार करने से वशीकरण होता है।
५॰ सफलता पाने का मन्त्र
“प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देव।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब।।”
विधि- प्रतिदिन इस मन्त्र के १००८ पाठ करने चाहियें। इस मन्त्र के प्रभाव से सभी कार्यों में अपुर्व सफलता मिलती है।
६॰ रामजी की पूजा अर्चना का मन्त्र
“अब नाथ करि करुना, बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म, बस तहँ रामपद अनुरागऊँ।।”
विधि- प्रतिदिन मात्र ७ बार पाठ करने मात्र से ही लाभ मिलता है।
लाभ- इस मन्त्र से जन्म-जन्मान्तर में श्रीराम की पूजा-अर्चना का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
७॰ मन की शांति के लिये राम मन्त्र
“राम राम कहि राम कहि। राम राम कहि राम।।”
विधि- जिस आसन में सुगमता से बैठ सकते हैं, बैठ कर ध्यान प्रभु श्रीराम में केन्द्रित कर यथाशक्ति अधिक-से-अधिक जप करें। इस प्रयोग को २१ दिन तक करते रहें।
लाभ- मन को शांति मिलती है।
८॰ पापों के क्षय के लिये मन्त्र
“मोहि समान को पापनिवासू।।”
विधि- रुद्राक्ष की माला पर प्रतिदिन १००० बार ४० दिन तक जप करें तथा अपने नाते-रिश्तेदारों से कुछ सिक्के भिक्षा के रुप में प्राप्त करके गुरुवार के दिन विष्णुजी के मन्दिर में चढ़ा दें।
लाभ- मन्त्र प्रयोग से समस्त पापों का क्षय हो जाता है।
९॰ श्रीराम प्रसन्नता का मन्त्र
“अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदान न आन।।”
विधि- इस मन्त्र को यथाशक्ति अधिक-से-अधिक संख्या में ४० दिन तक जप करते रहें और प्रतिदिन प्रभु श्रीराम की प्रतिमा के सन्मुख भी सात बार जप अवश्य करें।
लाभ- जन्म-जन्मान्तर तक श्रीरामजी की पूजा का स्मरण रहता है और प्रभुश्रीराम प्रसन्न होते हैं।
१०॰ संकट नाशन मन्त्र
“दीन दयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”
विधि- लाल चन्दन की माला पर २१ दिन तक निरन्तर १०००० बार जप करें।
लाभ- विकट-से-विकट संकट भी प्रभु श्रीराम की कृपा से दूर हो जाते हैं।
११॰ विघ्ननाशक गणेश मन्त्र
“जो सुमिरत सिधि होइ, गननायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोई बुद्धिरासी सुभ गुन सदन।।”
विधि- गणेशजी को सिन्दूर का चोला चढ़ायें और प्रतिदिन लाल चन्दन की माला से प्रातःकाल १०८० (१० माला) इस मन्त्र का जाप ४० दिन तक करते रहें।
लाभ- सभी विघ्नों का अन्त होकर गणेशजी का अनुग्रह प्राप्त होता है।
बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग
बजरंग बाण
भौतिक मनोकामनाओं की पुर्ति के लिये बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग
भौतिक मनोकामनाओं की पुर्ति के लिये बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग
अपने इष्ट कार्य
की सिद्धि के लिए मंगल अथवा शनिवार का दिन चुन लें। हनुमानजी का एक चित्र या मूर्ति जप करते समय सामने रख लें। ऊनी अथवा कुशासन बैठने के लिए प्रयोग करें। अनुष्ठान के लिये शुद्ध स्थान
तथा शान्त वातावरण आवश्यक है। घर में यदि यह सुलभ न हो तो कहीं एकान्त
स्थान अथवा एकान्त में स्थित हनुमानजी के मन्दिर में प्रयोग करें।
हनुमान जी के अनुष्ठान मे अथवा पूजा आदि में दीपदान का विशेष महत्त्व होता है। पाँच अनाजों (गेहूँ, चावल, मूँग, उड़द और काले तिल) को अनुष्ठान से पूर्व एक-एक मुट्ठी प्रमाण में लेकर शुद्ध गंगाजल में भिगो दें। अनुष्ठान वाले दिन इन अनाजों को पीसकर उनका दीया बनाएँ। बत्ती के लिए अपनी लम्बाई के बराबर कलावे का एक तार लें अथवा एक कच्चे सूत को लम्बाई के बराबर काटकर लाल रंग में रंग लें। इस धागे को पाँच बार मोड़ लें। इस प्रकार के धागे की बत्ती को सुगन्धित तिल के तेल में डालकर प्रयोग करें। समस्त पूजा काल में यह दिया जलता रहना चाहिए। हनुमानजी के लिये गूगुल की धूनी की भी व्यवस्था रखें।
हनुमान जी के अनुष्ठान मे अथवा पूजा आदि में दीपदान का विशेष महत्त्व होता है। पाँच अनाजों (गेहूँ, चावल, मूँग, उड़द और काले तिल) को अनुष्ठान से पूर्व एक-एक मुट्ठी प्रमाण में लेकर शुद्ध गंगाजल में भिगो दें। अनुष्ठान वाले दिन इन अनाजों को पीसकर उनका दीया बनाएँ। बत्ती के लिए अपनी लम्बाई के बराबर कलावे का एक तार लें अथवा एक कच्चे सूत को लम्बाई के बराबर काटकर लाल रंग में रंग लें। इस धागे को पाँच बार मोड़ लें। इस प्रकार के धागे की बत्ती को सुगन्धित तिल के तेल में डालकर प्रयोग करें। समस्त पूजा काल में यह दिया जलता रहना चाहिए। हनुमानजी के लिये गूगुल की धूनी की भी व्यवस्था रखें।
जप के प्रारम्भ
में यह संकल्प अवश्य लें कि आपका कार्य जब भी होगा, हनुमानजी के निमित्त नियमित कुछ भी करते रहेंगे। अब शुद्ध उच्चारण से हनुमान जी की छवि पर ध्यान केन्द्रित करके बजरंग बाण का जाप
प्रारम्भ करें। “श्रीराम–” से लेकर “–सिद्ध करैं हनुमान” तक एक बैठक में ही इसकी एक माला जप करनी है।
गूगुल की सुगन्धि
देकर जिस घर में बगरंग बाण का नियमित पाठ होता है, वहाँ दुर्भाग्य, दारिद्रय, भूत-प्रेत का
प्रकोप और असाध्य शारीरिक कष्ट आ ही नहीं पाते।
समयाभाव में जो व्यक्ति नित्य पाठ करने में असमर्थ हो, उन्हें कम से कम प्रत्येक मंगलवार को यह जप अवश्य करना
चाहिए।
बजरंग बाण ध्यान
श्रीराम
अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं।
दनुज वन कृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।
रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।।
अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं।
दनुज वन कृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।
रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।।
दोहा
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।।
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।।
चौपाई
जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।।
जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।।
जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।।
आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।।
जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।।
बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।।
अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।।
लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।।
अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।।
जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।।
जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।।
ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।।
गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।।
सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब न लावो।।
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।।
सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।।
जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।।
पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।।
वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।।
पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।।
जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।।
बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।।
भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।।
इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।।
जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब न लाओ।।
जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।।
उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।।
ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।।
ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल दल।।
अपने जन को कस न उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।।
ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।।
ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस न हरहु दुःख संकट मोरा।।
हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।
हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।।
जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।।
जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।।
जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।।
जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।।
जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।।
ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।।
राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।।
विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।।
तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।।
यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।।
सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।।
एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।।
याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।।
मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।।
पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।।
डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।।
भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।।
प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।।
आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।।
दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।।
यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।।
शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।।
तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।।
दोहा
प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।
तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।।
जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।।
जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।।
जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।।
आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।।
जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।।
बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।।
अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।।
लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।।
अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।।
जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।।
जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।।
ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।।
गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।।
सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब न लावो।।
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।।
सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।।
जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।।
पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।।
वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।।
पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।।
जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।।
बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।।
भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।।
इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।।
जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब न लाओ।।
जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।।
उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।।
ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।।
ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल दल।।
अपने जन को कस न उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।।
ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।।
ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस न हरहु दुःख संकट मोरा।।
हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।
हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।।
जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।।
जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।।
जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।।
जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।।
जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।।
ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।।
राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।।
विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।।
तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।।
यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।।
सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।।
एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।।
याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।।
मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।।
पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।।
डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।।
भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।।
प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।।
आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।।
दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।।
यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।।
शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।।
तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।।
दोहा
प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।
तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।।
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