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Friday, September 27, 2013

गीता सार शब्द



गीता सार शब्द
प्रश्न- सार शब्द क्या है ?

उत्तर- सार शब्द की चर्चा से पहले श्री भगवान द्वारा भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में कहे वचनों का स्मरण आवश्यक है.

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।16।

इस संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं एक क्षर अर्थात नाशवान दूसरा अक्षर अविनाशी। इनमें जो भूत हैं जो देह है जो जड़ प्रकृति है वह नाशवान पुरुष है क्षर है। जो जीव है वह अविनाशी है।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।17।

इसमें भी अधिक आश्चर्य की बात यह कि इन क्षर अक्षर दो पुरुषों के अलावा एक तीसरा पुरुष भी है। यह पुरुष अत्यन्त श्रेष्ठ है और जब यह होता है तो दोनों पुरुष क्षर और अक्षर के अस्तित्व को समाप्त कर देता है. सर्वत्र यही उत्तम पुरुष व्याप्त हो जाता है। जब द्रष्टा भाव और दृश्य का लोप हो जाता है तो यह पुरुषोत्तम ही रहता है। यह पुरुषोत्तम तीनों लोकों में अर्थात सृष्टि के कण कण में व्याप्त होकर सृष्टि को एक अंश से धारण किये है। यह उत्तम पुरुष ही अव्यक्त परमात्मा अथवा विशुद्ध आत्मा है।

अब उक्त वचनों को लेते हुए सार शब्द की चर्चा करते हैं.

जब सार शब्द -ज्ञान प्रगट होने लगता है तो जीव स्वभाव और अज्ञान सब नष्ट होने लगता है और यह ज्ञान फैलता हुआ पूर्ण हो जाता है तब न अज्ञान रहता है न जीव. सृष्टि पूर्ण रूप से ज्ञान के परमाणुओं से बनी है शुद्ध व पूर्ण रूप में परमात्मा है. जड़ रूप में पदार्थ है और बीच की मिलीजुली स्थिति जीव है.
इस पूर्ण व शुद्ध ज्ञान - सार शब्द की अनुभूति होनी आवश्यक है. यह ईश्वरी आवाज है जिसमें कोई ध्वनि नहीं है. किसी भी मन्त्र द्वारा आप ईश्वर को पुकारते हैं, याद करते हैं, सुमिरन करते हैं पर जब इसका उलटा हो जाय प्रभु तुम्हारा सुमिरन करने लगें तब जानो तुम्हारी प्रार्थना, सुमिरन कबूल होने लगा है. प्रभु के सुमिरन का आभास मात्र होते ही आप आनंद में आने लगते हो. अब सुमिरन जो तुम करते थे वह उलट गया. अब प्रभु सुमिरन करने लगे हैं.
इसलिए बाल्मीकि जी के लिए कहा जाता है-
उलटा नाम जपत जग जाना बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना.
मरा मरा की तो कहानी बना दी लोगों ने.
अब उलटे सुमिरन की स्थिति बडती जाती है तब अपने मजे का मजा आता है. इस स्थिति में कबीर कहते हैं-
सुमिरन मेरा प्रभु करें मैं पाऊं विश्राम.
अब आपको स्पस्ट हो गया होगा सार शब्द क्या है जिसके लिए कबीर कहते हैं-
सार शब्द जाने बिना कागा हंस न होय.
कोवा अज्ञान और जीव का प्रतीक है, हंस ज्ञान का. इसलिए हंस वही हो सकता है जिसे महसूस होने लगे की उसके अन्दर बैठकर परमात्मा उसे सुमिरन करने लगे हैं. अब यह उलटा सुमिरन बड़ने लगता है और आप की असली आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ हो जाती है.
इस सुमिरन का ज्ञान कराने के लिए श्री भगवान् कृष्ण चन्द्र जी ने उद्धव जी को ब्रज में गोपियों के पास भेजा था. यही असल में सुरत की धार है जिसे पाकर जीव आनंदित हो उठता है.
हनुमान जी के ह्रदय में बैठ कर श्री राम का हनुमान जी का सुमिरन ही सार शब्द है. यह सार शब्द सबके लिए है. इसका कोई नाम नहीं है. बिना ध्वनि के अन्दर प्रगट होता है. इसी के कारण आपके जीवन में रोनक है. बस आपको पता नहीं है. आपके छोटे से छोटे कार्य में वह परमात्मा आपसे बात करते हैं. अभी आपको पता नहीं है. उलटा सुमिरन होते ही आपकी परमात्मा से बात होने लगेगी. कोशिश करें. यह रहस्य आपको स्वयं अनुभूत होगा.

ऊँ तत् सत् (ॐ, ततोऽहं, सतोऽहं)

प्रश्न- भगवद्गीता में ईश्वर के तीन नाम आये है ऊँ तत् सत्, इनका गूड रहस्य क्या है? ॐ शब्द का तो स्वास के साथ जप किया जा सकता है पर तत्, सत्, का जप तो संभव नहीं है, यदि कोई करना चाहे तो किस प्रकार करे?

उत्तर- भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में ऊँ तत् सत् विषय पर भगवान् श्री कृष्ण जी ने ॐ के साथ वेदान्त के चार महावाक्यों की और संकेत किया है. तत्वमसि – वह तुम हो, अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूँ, प्रज्ञानं ब्रह्म –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, अयमात्मा ब्रह्म – यह आत्मा ही ब्रह्म है. श्री भगवान् कहते हैं-
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।23।
आत्मतत्व रूपी परब्रह्म परमात्मा का नाम ‘ऊँ’ ‘तत्’ ‘सत्’ है। ऊँ परमात्मा का मूल नाम है। स्वर विज्ञानी जानते हैं कि शरीर में इसकी स्थिति भृकुटि के मध्य आज्ञा चक्र में है। परमात्मा सृष्टि से परे है अतः उसका दूसरा नाम तत् है। सत् अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है यह परमात्मा का तीसरा नाम है। अव्यक्त रूप में परमात्मा का कोई नाम नहीं है परन्तु उसको जानने, बताने के लिए उसे शब्द (नाम) से बांधा गया है। ऊँ तो परमात्मा का शुद्ध अहंकार है इसलिए वही उसका यथार्थ नाम है। परमात्मा के इन तीन नाम ऊँ तत् सत् को आधार मान धर्म के तत्व को जानने वाले ब्राह्मणों ने उपनिषद, वेद और परमात्मा के निमित्त कर्म का विधान किया है।
ॐ परमात्मा का शुद्ध अहंकार है. ॐ कोई ध्वनि नहीं है. ॐ शब्द पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल की अवस्था को दिया गया नाम है. इस पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल होते ही अव्यक्त अवस्था जन्म, स्थिति और लय में रूपांतरित हो गयी. हिन्दुओं में जन्म, स्थिति और लय ही त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव शंकर की द्योतक है. बाइबिल भी कहती है की जब सृष्टि नहीं थी तब शब्द था. यहाँ शब्द का अर्थ ध्वनि से न होकर ज्ञान है. इस ज्ञान में हलचल की अवस्था को ॐ ही नाम क्यों दिया गया. ॐ अ, उ, म तीन अक्षरों से बना है. अ की ध्वनि करते हुए मुंह खुलता है, उ की ध्वनि करते हुए ध्वनि का विस्तार होता है और मुंह खुला रहता है म की ध्वनि के साथ मुंह बंद हो जाता है. यह तीन अवस्था सृष्टि का जन्म, विस्तार जिसे स्थिति कहा है और अंत है. इसके अलावा ॐ में बिंदु भी लगा होता है जो अव्यक्त परमात्मा का द्योतक है.
ॐ शब्द परम ज्ञान जिसे परमात्मा कहते हैं के वास्तविक स्वरुप और विशेषताओं को पूर्ण रूप से स्पष्ट करता है इसलिए यह परमात्मा का वास्तविक नाम है. इसी कारण हिन्दू बच्चे का संस्कार करते समय गायत्री मंत्र के साथ ॐ की दीक्षा देते हैं. वास्तव में ॐ ही गायत्री है. श्री भगवन भगवद गीता में कहते हैं -ओम इति एकाक्षरं ब्रह्म. ओम ही ब्रह्म है और इसे व्यवहार में स्वीकारते हुए सदा परमात्मा का चिंतन करना चाहिए.
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌ ।24।

इसलिए ईश्वर के लिए उच्चारण करने वाले जो शास्त्र विधि सम्मत ईश्वर के निमित्त कर्म दान और तप आदि करते हैं वह सदा ऊँ प्रणव का उच्चारण करके अपनी क्रिया आरम्भ करते हैं।
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ।25।

आत्म स्वरूप परब्रह्म परमात्मा इस जगत से परे है और सबका साक्षी है जो यह जानते हैं वह ‘तत्‘- ततोऽहं शब्द का उच्चारण करते हैं। ‘तत्‘ वेदान्त वाक्य तत्वमसि – वह तुम हो के लिए आया है. वह तत् स्वरूप परब्रह्म, को उसके निमित्त समस्त कर्म, तप, यज्ञ, दान आदि अर्पण कर निष्काम हो जाते हैं। इसे भाव से विचारते हुए चिंतन करना है, यदि आप जप करना चाहें तो ततोऽहं का स्वास के साथ उचारण करें. इसका अर्थ है वह मैं हूँ.
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।26।

सत अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है, यथार्थ के दर्शन होते हैं, जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता जो निश्चित है यह जानकर कल्याण के लिए, सरल आचरण करते हुए सत् का प्रयोग किया जाता है। वेदान्त के तीन वाक्य अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूँ, प्रज्ञानं ब्रह्म –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, अयमात्मा ब्रह्म – यह आत्मा ही ब्रह्म है. एक सत को ही बताते हैं. इसे आप जप करना चाहें तो सतोऽहं का स्वास के साथ उचारण करें. इसका अर्थ है परम सत जो आत्मा है, ब्रह्म है, जो पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है वह मैं हूँ.
यह इसी प्रकार उत्तम कर्म अर्थात जो कर्म परमात्मा के लिए हैं, जिन कर्मों से परमात्मा में एकता का भाव प्राप्त होता है, के लिए सत् रूपी परमात्मा के सम्बोधन सतोऽहं का प्रयोग किया जाता है। ऊँ तत् सत् तीनो का अलग अलग अथवा एक साथ भाव चिंतन सर्वश्रेष्ठ एवं शीघ्र परिणामकारी है.

साधू और संत कितने प्रकार के होते हैं.

उत्तर- वास्तव में साधू और संत का कोई प्रकार नहीं होता, कोई किस्म और भेद नहीं होता. यथार्थ अनुभूत ज्ञान ही उनकी पहिचान है परन्तु ज्ञान और त्रिगुणात्मक प्रकृति के आधार पर चार प्रकार के साधू संत समाज में दिखाई देते हैं.

1 - परमहंस

2-सतोगुणी साधू

3- रजोगुणी साधू

4- तमोगुणी साधू


1 - परमहंस -आज के युग में परमहंस का मिलना कठिन है.जो कोई परम हंस के नाम से जाने जाते हैं वह गड़बड़ साधू हैं. परमहंस कोई डिग्री नहीं है वह तो दिव्य कमल की भांति सर्वत्र सभी को अपनी सुगंध से आकर्षित करता है. भगवद्गीता में परमहंस योगी के लक्ष्ण बताये गए हैं.

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।56-2।


जिसका मन दुखः में उद्विग्नता को प्राप्त नहीं होता, जिसकी सुखों से कोई प्रीति नहीं है, दोनो अवस्थाओं में जो निस्पृह है, जिसके राग, क्रोध, भय समाप्त हो गये हैं, जो अनासक्त हो गया है, उसकी बुद्धि स्थिर कही जाती है।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।

नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।57-2।


जो इस संसार में उदासीन होकर विचरता है, सभी वस्तुओं में वह स्नेह रहित होता है शुभ और अशुभ की प्राप्ति होने पर उसे न हर्ष होता है न वह द्वेष रखता है, वह स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।

पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ।8-5।

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ।9-5।


तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है।

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।10-5।।


जो सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके आसक्ति का त्यागकर कर्म करता है और कभी भी कर्म बन्धन में लिप्त नहीं होता है, जैसे कमल का पत्ता जल में रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता है।

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।12-5।


कर्म योगी कर्म फल की आसक्ति का पूर्णतया त्याग करके निरन्तर शान्ति को प्राप्त होता है। क्योंकि वह पूर्ण ज्ञान को प्राप्त हो जाता है; उस सम्पूर्ण ज्ञान की शान्तावस्था में निरन्तर रमण करता है और जो सकाम पुरुष हैं वह विभिन्न इच्छाओं के लिए फल में आसक्त होकर कर्म बन्धन में फॅसते हैं।

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ।13-5।


जो मनुष्य नवद्वार वाले शरीर में सभी कर्मो को मन से त्यागकर अर्थात अकर्ता भाव से कर्म करते हुए फल की इच्छा त्याग देता है और शरीर में रहते हुए भी नहीं रहता है, ऐसा वशी पुरुष जिसने मन से इन्द्रियों का निग्रह कर लिया है; जिसकी बुद्धि स्थिर है, जो कर्म फल की इच्छा से मुक्त है, न करता हुआ, न करवाता हुआ आत्मानन्द में रहता

इससे आप यह न समझ लें कि पृथ्वी परमहंस योगी विहीन है. हाँ इनका दर्शन दुर्लभ है और इनकी स्थिति रमता जोगी बहता पानी की तरह है.



2-सतोगुणी साधू - इस कोटि के साधू भी नगण्य हैं. इस कोटि के संत अपनी साधना में लगे रहते है. यह प्रचार प्रसार से दूर सरल हृदय पुरुष बड़े भाग्य से मिलते हैं. टीवी प्रसारित सत संग में जबरन विवश कर लाये हुए ही यदा कदा दिख सकते हैं.



3- रजोगुणी साधू - यह दूरदर्शन के साधू हैं जो सदा प्रचार प्रसार में रहते हैं. आज कल इनका ही बोल बाला है. भीड़ इकठी करना, भिन्न भिन्न भेष धारण करना इनका स्वभाव होता है. इनके विषय में तुलसीदासजी लिख गए हैं.

'हरइ सिष्य धन सोक न हरई सो गुरु घोर नरक महुं परई.'
'मिथ्यारंभ दंभ रत जोई ता कहुं संत कहइ सब कोई.' '
तपसी धनवंत दरिद्र गृही कलि कोतुक तात न जात कही.' आदि.


यह सब वी आई पी साधू हैं. इनका पहनावा कुछ भी हो सकता है. यह आधे गड़बड़ साधू हैं. इनके अन्दर सब गड़बड़ है पर इनके बाहर सब अच्छा है.

इनके विषय में एक महात्मा प्रवचन देते हुए कह रहे थे सतयुग, त्रेता, द्वापर में जो असुर थे वह कहते थे मुझको पूजो, केवल मेरी बात मानो वही इस जन्म में रजोगुणी टीवी बाबा होकर जन्में हैं. आप खुद निर्णय करें केमरे के सामने एक्टिंग तो हो सकती है पर सत्संग होना विलक्ष्ण ही कहा जाएगा.

इनमें कुछ विरले साधुओं में रज की मात्रा कम और सत अधिक होता है यह अच्छे चिन्तक और विद्वान् तो होते हैं पर उपाधि रुपी व्याधि से ग्रस्त लोकेषणा के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन गवां देते हैं. कोई कोई इस वृत्ति से विमुख हो सतोगुण की और बड़ते हैं. आजकल तो कथावाचक भी राष्ट्रीय संत कहलाने लगे हैं. वेश चाहे गेरुआ हो, सफेद हो या सामान्य गृहस्थ का उपाधि और लोकेषणा छोड़े बिना परम पद नहीं पाया जा सकता है.

वी आई पी आडम्बर छोड़ना होगा. सिंहासन त्यागने होंगे, अपने पीछे कट आउट लगाने और टीवी मोह को छोड़ना होगा. दूर दर्शन विद्वानों आचार्यों, कथावाचक और दार्शनिकों के लिए छोड़ दें.



तमोगुणी साधू- यह अधर्म को धर्म मानते हैं. शास्त्रों के विपरीत वचन बोलते हैं. भय दिखाते हैं.अशुभ वेश धारण करते हैं. भूत, प्रेत को पूजनेवाले, अपने को ईश्वर से बड़ा मानने वाले, भक्ष अभक्ष खाने वाले अपनी आत्मा से ही शत्रुता रखते हैं.

कुछ मत्वपूर्ण बाते

उत्तर-१- यह महत्वपूर्ण नहीं है कि बूँद सागर में मिल जाए, महत्वपूर्ण यह है कि सागर बूँद में समा जाए. यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम परमात्मा में विलीन हो जाओ, महत्वपूर्ण यह है कि परमात्मा तुम में समा जाए.

२- शान्ति, आनंद, प्रेम पूर्णता न होकर पूर्णता का प्रसाद हैं.

3- जब तक आप अपने नियंता नहीं हो जाते तब तक सब व्यर्थ है.

४- नियंता का प्रसाद ही शान्ति, आनंद और प्रेम है.

५- पूर्ण विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति से ही मनुष्य अपना नियंता हो सकता है.

६- तुम्हारे अन्दर ही सम्पूर्ण अस्तित्व छिपा है.

७- तुम नित्य शुद्ध बुद्ध हो.

८- जो यह सृष्टि है वह मैं हूँ जो सृष्टि से परे है वह भी मैं हूँ.

९- सृष्टि जब तक तुम्हारे बाहर है तुम सृष्टि की जेल में कैद हो जैसे ही तुम इस जेल को तोड़ डालते हो, तुम मुक्त हो जाते हो और तुम इतने विराट हो जाते हो कि सृष्टि तुम्हारे अन्दर आ जाती है.

१०- जड़ और चेतन दोनों परमात्मा से ही उपजे हैं.

११- कुछ भी कर लो यथार्थ ज्ञान अनुभूति के बिना कोई तुमको मुक्त नहीं कर सकता.

१२- सृष्टि के प्रत्येक परमाणु में उसका अस्तित्व छिपा है जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता.

तत्त्व ज्ञान
प्रश्न- मृत्यु क्या है?
उत्तर- जीव और जड़ प्रकृति का अलग हो जाना मृत्यु है.

प्रश्न- जीवन क्या है?
उत्तर- जीव और जड़ प्रकृति का संयोग जीवन है.

प्रश्न- बुद्धि क्या है?
उत्तर- आत्मा की निश्चयात्मक अवस्था अवस्था बुद्धि है. निश्चयात्मक ज्ञान बुद्धि है. यह वह ज्ञान है जो आत्मा और जीवात्मा के बीच रहता है. यह जड़ प्रकृति कही जाती है.

प्रश्न- अहंकार क्या है?
उत्तर- आत्मा की अस्मिता प्रतीति अहंकार है.

प्रश्न- मन क्या है?
आत्मा की चंचल अवस्था मन है. संशयात्मक ज्ञान मन है. यह वह ज्ञान है जो जीवात्मा और इन्द्रियों के बीच रहता है. यह जड़ प्रकृति कही जाती है.

प्रश्न- शरीर क्या है?
उत्तर- आत्मा की जड़ अवस्था शरीर है. यह प्रकृति विकृति का समूह कहा गयाहै.

प्रश्न- प्राण क्या है?
आत्मा में स्फुरण से कर्म को गति प्रदान करने वाली ऊर्जा जो जड़ चेतन के संयोग होने पर उत्पन्न होती है, प्राण है.

उत्तर- धृति क्या है?
आत्मा की जड़ शक्ति जिसके द्वारा जड़ प्रकृति के तत्त्व जुड़े होते हैं

प्रश्न- चेतना क्या है?
आत्मा की जड़ शक्ति जिसके द्वारा जड़ प्रकृति के तत्त्व सर्दी गर्मी, पीड़ा, स्वाद आदि संवेदना महसूस करते हैं.

प्रश्न- संघात क्या है.
आत्मा की जड़ शक्ति जिसके द्वारा जड़ प्रकृति देह के विस्तार को प्राप्त होती है. इसे स्थूल देह का पिंड भी कहते हैं.

प्रश्न- यथार्थ ज्ञान जिसे बोध कहा है क्या है?
जीव और जड़ प्रकृति का अलग होते हुए देखना . यह वह ज्ञान है जिसका वैज्ञानिक आधार हो अर्थात जो आपके द्वारा प्रयोग से सिद्ध किया गया हो.
कोइ भी ग्रन्थ, उपदेशक, गुरु का दिया ज्ञान आपके लिए मात्र विद्या है. उस विद्या को जब आप अपने में प्रयोग कर अनुभूत करते हैं तो वह आपका बोध हो जाता है.

प्रश्न- यदि हम अपने को पदार्थ मान लें. परमाणुओं का समूह मान लें तो क्या हानि है?
उत्तर- आप परमाणुओं का समूह तो हैं पर आपके पदार्थ के परमाणु विशुद्ध ज्ञान के परमाणुओं से निर्मित हैं. विशुद्ध ज्ञान मूल कारण है.आपके द्वारा मात्र पदार्थ को मूल कारण मान लेने से चेतन्य अथवा ज्ञान की नित्य स्थिति प्रमाणित नहीं होगी.

प्रश्न- आत्मा और जीवात्मा का भेद क्या है?
आत्मा जब जड़ प्रकृति को अपनाकर स्वीकार कर लेता है तो वह सीमित होकर जीवात्मा कहलाता है.



वास्तव में मुक्ति की स्थिति ये है की जब चित्त समस्त विछेपो और कामनाओं से शांत हो जाय I क्योंकी चित्त मैं उठने वाली विभिन्न प्रकार की भाव रूपी तरंगे ही मुक्ति के मार्ग मे बाधक है I इस संसार का सभी मानव अभिलाषाओ और आकान्छाओ मे जीता है I चाहे वो मुक्ति की अभिलाषा हो या सांसारिक वस्तुओं की साधारण शब्दों मे मुक्ति का तो अर्थ है सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्तिI जो मुक्ति के अभिलाषी हैं वो ये समझते हैं की ये संसार और इससे जुडी सभी वस्तुए मुक्ति के मार्ग में बाधक है और इन्हें छोड़ कर ही मुक्ति के मार्ग को प्रसस्त किया जा सकता है I पर कोई भी इस रहस्य को समझने का प्रयास नहीं करता की ये संसार बंधन नहीं है बल्कि इसके प्रति जो ममता है स्मृति है वो ही बंधन है जो संसार और संस्कार के फलस्वरूप उत्पन्न होता है I इस ममता और स्मृति को ही विस्मरण कर देना ही मुक्ति है I संसार को छोड़ देने से धुनी लगाने से भूखे रहने से यदि इस्वर या मुक्ति की प्राप्ति हो सकती तो इस संसार के सभी भिखमंगो और डाकुओं को मिल जाती I क्योंकी डाकू जंगल में और भिखारी भूखा और नंगा रहता हैI जंगल में भी चले जाने से क्या संसार की स्मृति और ममता समाप्त हो जाएगी कदापि नहीं I यदि ये ममता और स्मृति समाप्त हो जाये तो तो कहीं भी जाने की या सरीर को कास्ट देने की कोई आब्सयाकता नहीं है I आज कल साधू संतो के माध्यम से ही सभी लोगों के जुबान पैर ये सब्द मुक्ति मोक्छ जब तब निकलता है इसी की अभिलाषा में लोग प्रति दिन नए नए गुरु बना रहे है गुरु मन्त्र ले रहे हैं गुरु की पूजा सुरु कर रहे हैं इसका फल भी बंधन ही है फर्क ये है की सांसारिक बंधन से निकल कर गुरुभक्ति रूपी बंधन में बांध रहे हैं I बंधन तो बंधन है चाहे वो गुरुभक्ति की हो या सांसारिक जो मुक्ति के अभिलाषी हैं उन्हें विषयों को विष से सामान परित्याग कर छमा आर्च व दया संतोष सत्य को अमृत के सामान मानकर सेवन करना चाहिए I








Saturday, September 21, 2013

तत्त्वज्ञानका सहज उपाय



तत्त्वज्ञानका सहज उपाय
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
वाग् गद्गादा द्रवते यस्य चित्तं रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ।।

'मेरा नाम-गुण-कीर्तन करते समय जिसका गला भर आता है, हृदय द्रवित हो जाता है, जो बार-बार मेरे प्रेममें आँसू ढालता है, कभी हँसने लगता है, कभी लाज-शर्म छोड़कर उच्च स्वरसे गाने और नाचने लगता है, ऐसा मेरा भक्त त्रिलोकीको पवित्र कर देता है ।'
हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं हैयह बात यदि समझमें आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ! इसमें समय लगनेकी बात नहीं है । समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है । जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे
संकर सहज सरूपु सम्हारा लागि समाधि अखंड अपारा
(रामचरितमानस, बालकाण्ड ५८/४)

दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ। इसमें मैंप्रकृतिका अंश है और हूँपरमात्माका अंश है । मैंजड़ है और हूँचेतन है । मैंआधेय है और हूँआधार है ।मैंप्रकाश्य है और हूँप्रकाशक है । मैंपरिवर्तनशील है और हूँअपरिवर्तनशील है । मैंअनित्य है और हूँनित्य है । मैंविकारी है औरहूँनिर्विकार है । मैंऔर हूँको मिला लिया यही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है । मैंऔर हूँको अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है । यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि मैंको साथ मिलानेसे ही हूँकहा जाता है । अगर मैंको साथ न मिलायें तो हूँनहीं रहेगा, प्रत्युत हैरहेगा । वह हैही अपना स्वरूप है ।
एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि मैं बेटा हूँ’, बेटेके सामने कहता है कि मैं बाप हूँ’, दादाके सामने कहता है कि मैं पोता हूँ’, पोताके सामने कहता है कि मैं दादा हूँ’, बहनके सामने कहता है कि मैं भाई हूँ’, पत्नीके सामने कहता है कि मैं पति हूं’, भानजेके सामने कहता है कि मैं मामा हूँ’, मामाके सामने कहता है कि मैं भानजा हूँआदि-आदि । तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, परहूँसबमें एक है । मैंतो बदला है, पर हूँनहीं बदला । वह मैंबापके सामने बेटा हो जाता, बेटेके सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है । अगर उससे पूछें कि तू कौन हैतो उसको खुदका पता नहीं है ! यदि मैंकी खोज करें तो मैंमिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी । कारण कि वास्तवमें सत्ता हैकी ही है, ‘मैंकी सत्ता है ही नहीं ।
बेटेकी अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयंके नाम नहीं हैं । स्वयंका नाम तो निरपेक्ष हैहै । वह है’ ‘मैंको जाननेवाला है । मैंजाननेवाला नहीं है और जो जाननेवाला है, वह मैंनहीं है । मैंज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और हैज्ञाता (जाननेवाला) है । मैंएकदेशीय है और उसको जानने वाला हैसर्वदेशीय है । मैंसे सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैंकी सत्ता नहीं है । सत्ता हैकी ही है । परिवर्तन मैंमें होता है, ‘हैमें नहीं । हूँभी वास्तव में हैका ही अंश है । मैंपनको पकड़नेसे ही वह अंश है । अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह अंश (हूँ’) नहीं है, प्रत्युत है’ (सत्ता मात्र है) मैंअहंता और मेरा बाप, मेरा बेटाआदि ममता है । अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
(गीता २/७१)

यहीब्राह्मी स्थितिहै । इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् हैमें स्थितिका अनुभव होने पर शरीरका कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीरको मैंमेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता ।
मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर हैइस प्रकार वस्तुओंमें तो फर्क है, पर हैमें कोई फर्क नहीं है । ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँइस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है । अनेक शरीरोंमें, अनेक अवस्थाओंमें चिन्मय सत्ता एक है । बालक, जवान और वृद्धये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओंमें सत्ता एक है । कुमारी, विवाहिता और विधवाये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है । जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है । अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता । ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवालेमें कोई फर्क नहीं पड़ता ।

यदि जाननेवाला भी बदल जाय तो इन पाँचोंकी गणना कौन करेगा ? एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तनका ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तनका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । सबका इदंतासे भान होता है, पर अपने स्वरूपका इदंतासे भान कभी किसीको नहीं होता सबके अभावका ज्ञान होता है, पर अपने अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । तात्पर्य है कि है’ (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है । भूल यह होती है कि हम संसार हैइस प्रकार नहींमें हैका आरोप कर लेते हैं । नहींमें हैका आरोप करनेसे ही नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और हैकी तरफ दृष्टि नहीं जाती । वास्तवमेंहै में संसारइस प्रकार नहींमें हैका अनुभव करना चाहिये । नहींमें हैका अनुभव करनेसे नहींनहीं रहेगा और हैरह जायगा । भगवान् कहते हैं। 
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। (गीता २/१६)

असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत् का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है ।एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदिमें अपनी जो परिच्छिन्न सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, एकदेशीयता) को लेकर ही दीखती है । जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपनेको एक देश, काल आदिमें देखता है । अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदिमें परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत अपरिच्छिन्न सत्तामात्र रहती है ।
वास्तवमें अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है । सांसारिक पदार्थोंकी जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है । सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है । इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है ।
अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है । इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं । अहम् ज्ञानीमें होता है, ज्ञानमें नहीं । अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है । उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है । कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयंसे ही स्वयंका ज्ञान होता है । वास्तवमें ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है । अज्ञान मिटानेको ही तत्त्वज्ञानका होना कह देते हैं ।
एक प्रकाश्य (संसार) है और एक प्रकाशक (परमात्मा) है अथवा एक यहहै और एक उसका आधार, प्रकाशक, अधिष्ठान सत्ताहै । अहम् न तो प्रकाश्य (यह’) में है और न प्रकाशक (सत्ता) में ही है, प्रत्युत केवल माना हुआ है । जिसमें संसार (यह’) की इच्छा भी है और परमात्मा (सत्ता) की इच्छा भी है, उसका नामअहम्है और वही जीवहै । तात्पर्य है कि जडके सम्बन्धसे संसारकी इच्छा अर्थात् भोगेच्छाहै और चेतनके सम्बन्धसे परमात्माकी इच्छा अर्थात्जिज्ञासाहै । अतः अहम् (जड-चेतनकी ग्रंथि) में जड-अंशकी प्रधानतासे हम परमात्माको चाहते है  
माने हुए अहम् का नाश होनेपर भोगेच्छा मिट जाती है और जिज्ञासा पूरी हो जाती है अर्थात् तत्व रह जाता है । वास्तवमें परमात्माकी इच्छा भी संसारकी इच्छाके कारण ही है । संसारकी इच्छा न हो तो तत्वज्ञान स्वतःसिद्ध है ।

साधनकी ऊँची अवस्थामें मेरेको तत्वज्ञान हो जाय, मैं मुक्त हो जाऊँ’—यह इच्छा भी बाधक होती है । जबतक अंतःकरणमें असत् की सत्ता दृढ़ रहती है, तबतक तो जिज्ञासा सहायक होती है, पर असत् की सत्ता शिथिल होनेपर जिज्ञासा भी तत्वज्ञानमें बाधक होती है । कारण कि जैसे प्यास जलसे दूरी सिद्ध करती है, ऐसे ही जिज्ञासा तत्वसे दूरी सिद्ध करती है, जब कि तत्व वास्तवमें दूर नहीं है, प्रत्युत नित्यप्राप्त है । दूसरी बात, तत्वज्ञानकी इच्छासे व्यक्तित्व (अहम्) दृढ़ होता है, जो तत्वज्ञानमें बाधक है । वास्तवमें तत्वज्ञान, मुक्ति स्वतःसिद्ध है । तत्वज्ञानकी इच्छा करके हम अज्ञानको सत्ता देते है, अपनेमें अज्ञानकी मान्यता करते है, जब कि वास्तवमें अज्ञानकी सत्ता है नहीं । इसलिए तत्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४/३५); क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं । मिटता वही है, जो नहीं होता और मिलता वही है, जो होता है ।
साधकको स्वतःस्वाभाविक एकमात्र है’ (सत्ता) का अनुभव हो जाय इसीका नाम जीवन्मुक्ति है, तत्वबोध है । कारण कि अन्तमें सबका निषेध होनेपर एक हैही शेष रह जाता है । वह हैअपेक्षावाले नहींऔर हैदोनोंसे रहित है अर्थात् उस सत्तामें नहींभी नहीं है और हैभी नहीं है । वह सत्ता ज्ञानस्वरूप है, चिन्मयमात्र है । वह सत्ता नित्य जाग्रत् रहती है । सुषुप्तिमें अहंसहित सब करण लीन हो जाते है, पर अपनी सत्ता लीन नहीं होती यह सत्ताकी नित्यजागृति है । वह सत्ता कभी पुरानी नहीं होती, प्रत्युत नित्य नयी ही बनी रहती है; क्योंकि उसमें काल नहीं है । उस सत्तामात्रका ज्ञान होना ही तत्वज्ञान है और सत्तामें कुछ भी मिलाना अज्ञान है ।

 मैं सदा जीता रहूँ, कभी मरुँ नहींयह सत्की इच्छा है; मैं सब कुछ जान लूँ, कभी अज्ञानी न रहूँयह चित्की इच्छा है और मैं सदा सुखी रहूँ, कभी दुःखी न होऊयह आनंदकी इच्छा है । इस प्रकार सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्माकी इच्छा जीवमात्रमें रहती है । परन्तु जड़से सम्बन्ध माननेके कारण उससे भूल यह होती है कि वह इन इच्छओंको नाशवान् संसारसे ही पूरी करना चाहता है; जैसेवह शरीरको लेकर जीना चाहता है, बुद्धि लेकर जानकार बनना चाहता है और इन्द्रियोंको लेकर सुखी होना चाहता है।