राजस्थान का गणगौर पर्व
'गण' का अर्थ है शिव और 'गौर' का अर्थ गौरी या पार्वती।
स्पष्ट है कि गणगौर पर्व का संबंध शिव-पार्वती की
पूजा-अर्चना से है।
भारत ही नहीं, विश्व
के पर्यटन मानचित्र पर महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले राजस्थान में आयोजित होने वाले
मेले एवं उत्सव इसे और विशिष्ट रूप प्रदान करते हैं। अब जब कि हवाओं
पर वसंत का मौसम राज कर रहा है तब राजस्थान में इस ऋतु पर और रंगोत्सव होली
का रंग लगातार छाया हुआ है।
वसंत के आगमन की खुशी में उदयपुर में मेवाड़ उत्सव तथा जयपुर में देवी पार्वती को समर्पित गणगौर उत्सव की धूम अभी से व्याप्त है। आप इस दृश्य की कल्पना करें ! होली के दूसरे दिन से ही गणगौर का त्योहार आरंभ हो चुका है जो पूरे 18 दिनों तक लगातार चलता रहेगा। बड़े सवेरे ही गाती-बजाती स्त्रियां होली की राख अपने घर ले गईं। मिट्टी गलाकर उससे सोलह पिंडियां बनाईं, दीवार पर सोलह बिंदियां कुंकुम की, सोलह बिंदिया मेहंदी की और सोलह बिंदिया काजल की प्रतिदिन लगा रही हैं - कुंकुम, मेहंदी और काजल तीनों ही श्रृंगार की वस्तुएं हैं, सुहाग का प्रतीक ! शंकर को पूजती कुंआरी कन्याएं प्रार्थना कर रही हैं मनचाहा वर प्राप्ति की। खूबसूरत मौसम उनकी कामना को अपना मौन समर्थन देता जान पड़ रहा है।
जयपुर में गणगौर महिलाओं का उत्सव नाम से भी प्रसिद्ध है। कुंवारी लड़कियां मनपसंद वर की कामना करती हैं तो विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। अलग-अलग समूहों में महिलाओं द्वारा लोकगीत गाते हुए फूल तोड़ने तथा कुओं से पानी भरने का दृश्य लोगों की निगाहें ठहरा रहा है तो कहीं मोड़ रहा है। लोक संगीत की धुनें पारंपरिक लोक नृत्य पर हावी हो रही हैं।
मां पार्वती की स्तुति का सिलसिला होली ही शुरू है और अभी करीब दो सप्ताह और चलेगा। अंतिम दिन भगवान शिव की प्रतिमा के साथ सुसज्जित हाथियों, घोड़ों का जुलूस और गणगौर की सवारी आकर्षण का केंद्र बन रही हैं। राजस्थान पर्यटन विभाग के सौजन्य से हर वर्ष मनाए जाने वाले इस गणगौर उत्सव में अनेक देशी-विदेशी पर्यटक पहुंच रहे हैं।
झीलों की नगरी उदयपुर में पिछौला झील में सजी नौकाओं का जुलूस सैलानियों के आकर्षण का केंद्र बन रहा है। उदयपुर में गणगौर नाव प्रसिद्ध है। पारंपरिक परिधानों में महिलाएं शहर के मुख्य मार्गों से होते हुए पिछौला झील के गणगौर घाट पर देवी पार्वती की मूर्तियों की पूजा-अर्चना करती हैं।
राजस्थान के अन्य स्थानों में भी गणगौर उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। गणगौर त्योहार को उमंग, उत्साह और जोश से मनाया जाता है। स्त्रियां गहने-कपरहती हैं। उनकी आपसी चुहलबाजी सरस-सुंदर हैं। साथ ही शिक्षाप्रद छोटी-छोटी कहानियां, चुटकुले नाचना और गाना तो इस त्योहार का मुख्य अंग है ही। घरों के आंगन में सालेड़ा आदि नाच की धूम मची रहती है।
वसंत के आगमन की खुशी में उदयपुर में मेवाड़ उत्सव तथा जयपुर में देवी पार्वती को समर्पित गणगौर उत्सव की धूम अभी से व्याप्त है। आप इस दृश्य की कल्पना करें ! होली के दूसरे दिन से ही गणगौर का त्योहार आरंभ हो चुका है जो पूरे 18 दिनों तक लगातार चलता रहेगा। बड़े सवेरे ही गाती-बजाती स्त्रियां होली की राख अपने घर ले गईं। मिट्टी गलाकर उससे सोलह पिंडियां बनाईं, दीवार पर सोलह बिंदियां कुंकुम की, सोलह बिंदिया मेहंदी की और सोलह बिंदिया काजल की प्रतिदिन लगा रही हैं - कुंकुम, मेहंदी और काजल तीनों ही श्रृंगार की वस्तुएं हैं, सुहाग का प्रतीक ! शंकर को पूजती कुंआरी कन्याएं प्रार्थना कर रही हैं मनचाहा वर प्राप्ति की। खूबसूरत मौसम उनकी कामना को अपना मौन समर्थन देता जान पड़ रहा है।
जयपुर में गणगौर महिलाओं का उत्सव नाम से भी प्रसिद्ध है। कुंवारी लड़कियां मनपसंद वर की कामना करती हैं तो विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। अलग-अलग समूहों में महिलाओं द्वारा लोकगीत गाते हुए फूल तोड़ने तथा कुओं से पानी भरने का दृश्य लोगों की निगाहें ठहरा रहा है तो कहीं मोड़ रहा है। लोक संगीत की धुनें पारंपरिक लोक नृत्य पर हावी हो रही हैं।
मां पार्वती की स्तुति का सिलसिला होली ही शुरू है और अभी करीब दो सप्ताह और चलेगा। अंतिम दिन भगवान शिव की प्रतिमा के साथ सुसज्जित हाथियों, घोड़ों का जुलूस और गणगौर की सवारी आकर्षण का केंद्र बन रही हैं। राजस्थान पर्यटन विभाग के सौजन्य से हर वर्ष मनाए जाने वाले इस गणगौर उत्सव में अनेक देशी-विदेशी पर्यटक पहुंच रहे हैं।
झीलों की नगरी उदयपुर में पिछौला झील में सजी नौकाओं का जुलूस सैलानियों के आकर्षण का केंद्र बन रहा है। उदयपुर में गणगौर नाव प्रसिद्ध है। पारंपरिक परिधानों में महिलाएं शहर के मुख्य मार्गों से होते हुए पिछौला झील के गणगौर घाट पर देवी पार्वती की मूर्तियों की पूजा-अर्चना करती हैं।
राजस्थान के अन्य स्थानों में भी गणगौर उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। गणगौर त्योहार को उमंग, उत्साह और जोश से मनाया जाता है। स्त्रियां गहने-कपरहती हैं। उनकी आपसी चुहलबाजी सरस-सुंदर हैं। साथ ही शिक्षाप्रद छोटी-छोटी कहानियां, चुटकुले नाचना और गाना तो इस त्योहार का मुख्य अंग है ही। घरों के आंगन में सालेड़ा आदि नाच की धूम मची रहती है।
परदेश गए
हुए इस त्यौहार पर घर लौट आते है, जो नहीं आते हैं उनकी बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा की जाती है। आशा रहती है कि गणगौर की रात वे जरूर
आएंगे। झुंझलाहट, आह्लाद और आशा भरी प्रतीक्षा की मीठी पीड़ा
व्यक्त करने का साधन नारी के पास केवल उनके गीत ही तो हैं।
ये गीत उनकी मानसिक दशा के बोलते चित्र हैं -
गोरडयां गणगौरयां त्यौहार आ गयो
पूज रही गणगौर
सुणण्यां सुगण मना सुहाग साथै
सोला दिन गणगौर
हरी-हरी दूबा हाथां में पूज रही गणगौर
फूल पांखडयां दूब-पाठा माली ल्यादैतौड़
यै तो पाठा नै चिटकाती बीरा बेल बंधावै ओर गोरडयां..!
चैत्र कृष्ण तीज को गणगौर की प्रतिमा एक चौकी पर रख दी जाती है। यह प्रतिमा लकड़ी की बनी होती है, उसे जेवर और वस्त्रा पहनाए जाते हैं। उस प्रतिमा की सवारी या शोभायात्रा निकाली जाती है। नाथद्वारा में सात दिन तक लगातार सवारी निकलती है। सवारी में भाग लेने वाले व्यक्तियों की पोशाक भी उस रंग की होती है जिस रंग की गणगौर की पोशाक होती है। सात दिन तक उलग-अलग रंग की पोशाक पहनी जाती हैं। आम जनता के वस्त्र गणगौर के अवसर पर निःशुल्क रंगें जाते हैं।
जोधपुर में लोटियों का मेला लगता है। कन्याएं कलश सिर पर रखकर घर से निकलती हैं। किसी मनोहर स्थान पर उन कलशों को रखकर इर्द-गिर्द घूमर लेती हैं। वस्त्रा और आभूषणों से सजी-धजी, कलापूर्ण लोटियों की मीनार को सिर पर रखे, हजारों की संख्या में गाती हुई नारियों के स्वर से जोधपुर का पूरा बाजार गूंज उठता है।
राजघरानों में रानियां और राजकुमारियां प्रतिदिन गवर की पूजा करती थी। पूजन के स्थान पर दीवार पर ईसर और गवरी के भव्य चित्र अंकित कर दिए जाते हैं। ईसर के सामने गवरी हाथ जोड़े बैठी रहती है। ईसरजी काली दाढ़ी और राजसी पोशाक में तेजस्वी पुरुष के रूप में अंकित किए जाते हैं। मिट्टी की पिंडियों की पूजा कर दीवार पर गवरी के चित्र के नीचे सोली कुंकुम और काजल की बिंदिया लगाकर हरी दूब से पूजती हैं। साथ ही इच्छा प्राप्ति के गीत गाती हैं।
एक बुजुर्ग औरत फिर पांच कहानी सुनाती हैं। ये होती है शंकर-पार्वती के प्रेम की, दांपत्य जीवन की मधुर झलकियों की कथाए। शंकर और पार्वती को आदर्श दंपति माना गया है। दोनों के बीच के अटूट प्रेम के संबंध में एक कथा भी है जो गणगौर के अवसर पर सुनी जाती है। तो पधारिए कि जयपुर आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।
गणगौर पर्व की धूम
ये गीत उनकी मानसिक दशा के बोलते चित्र हैं -
गोरडयां गणगौरयां त्यौहार आ गयो
पूज रही गणगौर
सुणण्यां सुगण मना सुहाग साथै
सोला दिन गणगौर
हरी-हरी दूबा हाथां में पूज रही गणगौर
फूल पांखडयां दूब-पाठा माली ल्यादैतौड़
यै तो पाठा नै चिटकाती बीरा बेल बंधावै ओर गोरडयां..!
चैत्र कृष्ण तीज को गणगौर की प्रतिमा एक चौकी पर रख दी जाती है। यह प्रतिमा लकड़ी की बनी होती है, उसे जेवर और वस्त्रा पहनाए जाते हैं। उस प्रतिमा की सवारी या शोभायात्रा निकाली जाती है। नाथद्वारा में सात दिन तक लगातार सवारी निकलती है। सवारी में भाग लेने वाले व्यक्तियों की पोशाक भी उस रंग की होती है जिस रंग की गणगौर की पोशाक होती है। सात दिन तक उलग-अलग रंग की पोशाक पहनी जाती हैं। आम जनता के वस्त्र गणगौर के अवसर पर निःशुल्क रंगें जाते हैं।
जोधपुर में लोटियों का मेला लगता है। कन्याएं कलश सिर पर रखकर घर से निकलती हैं। किसी मनोहर स्थान पर उन कलशों को रखकर इर्द-गिर्द घूमर लेती हैं। वस्त्रा और आभूषणों से सजी-धजी, कलापूर्ण लोटियों की मीनार को सिर पर रखे, हजारों की संख्या में गाती हुई नारियों के स्वर से जोधपुर का पूरा बाजार गूंज उठता है।
राजघरानों में रानियां और राजकुमारियां प्रतिदिन गवर की पूजा करती थी। पूजन के स्थान पर दीवार पर ईसर और गवरी के भव्य चित्र अंकित कर दिए जाते हैं। ईसर के सामने गवरी हाथ जोड़े बैठी रहती है। ईसरजी काली दाढ़ी और राजसी पोशाक में तेजस्वी पुरुष के रूप में अंकित किए जाते हैं। मिट्टी की पिंडियों की पूजा कर दीवार पर गवरी के चित्र के नीचे सोली कुंकुम और काजल की बिंदिया लगाकर हरी दूब से पूजती हैं। साथ ही इच्छा प्राप्ति के गीत गाती हैं।
एक बुजुर्ग औरत फिर पांच कहानी सुनाती हैं। ये होती है शंकर-पार्वती के प्रेम की, दांपत्य जीवन की मधुर झलकियों की कथाए। शंकर और पार्वती को आदर्श दंपति माना गया है। दोनों के बीच के अटूट प्रेम के संबंध में एक कथा भी है जो गणगौर के अवसर पर सुनी जाती है। तो पधारिए कि जयपुर आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।
गणगौर पर्व की धूम
सुख की कामना को लेकर जवारों का पूजन
'गण' का अर्थ है शिव और 'गौर' का अर्थ गौरी या पार्वती। स्पष्ट है कि गणगौर पर्व का संबंध शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना से है। कथा के अनुसार गौर अर्थात पार्वती का एक नाम रणुबाई भी है। रणुबाई का मायका मालवा और ससुराल राजस्थान में था। उनका मन मालवा में इतना रमता कि ससुराल रास नहीं आता था, पर विवाह के बाद उन्हें ससुराल जाना पड़ा। जब-जब भी वे मायके मालवा में आती थीं, मालवा की महिलाओं के लिए वे दिन एक उत्सव का माहौल रच देते थे। तभी से यह पर्व मनाने की परंपरा का उल्लेख मिलता है।
शिव-पार्वती का पर्व है गणगौर
गणगौर पर्व भगवान शिव ओर पार्वती के आपसी रिश्तों व भगवान गणेश के जन्म से जु़ड़ी हुई पौराणिक मान्यताओं पर आधारित है। जब पार्वती माता ने शिवजी से पुत्र की कामना की तो उन्होंने माता को 12 साल तक तपस्या करने को कहा। इस तपस्या के बाद उनके यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ। इसके बाद शुरु होती है गणेशजी के जन्म की कथा। इसी कथा से गणगौर पर्व की शुरुआत होती है।
गणगौर पर्व के अंतर्गत ग्यारस को माताजी के मूठ धराते हैं। इस दौरान पंडित के यहाँ जाकर टोकरियों में गेहूँ के जवारे बोते हैं। परिवार में खुशी या मन्नत होने पर माताजी को अमावस के दिन बाड़ी से लाते हैं। तीन दिन तक रखकर रात्रि जागरण और भजन-कीर्तन किया जाता है।
नखराली गणगौर अमो नाच दिखला दे जाणे,
नाचे वन में मोर म्हारा छैल भंवर चितचोर,
जयपुरिया देखला दो, माने एक वारी हो।
उक्त गीत गणगौर पर्व के दौरान महिलाओं द्वारा गाया जाता है।
सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा मनाए जाने वाले इस पर्व को नई पीढ़ी की महिलाओं ने भी जस का तस अपना लिया है। इसे लेकर महिलाओं में अपार उत्साह है। श्रृंगार के प्रतीक इस त्योहार में महिलाएं समूह बनाकर गीत गाती है, पूजा-अर्चना करती है और नृत्य करते हुए खुशियां मनाती हैं। साथ ही शिव-पार्वती की तरह अपने दांपत्य जीवन को खुशहाल बनाने की कामना करती हैं।
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