वेदसार शिवस्तव
आदिगुरू श्री
शंकराचार्य द्वारा रचित यह शिवस्तव वेद वर्णित शिव की स्तुति प्रस्तुत करता है। शिव के रचयिता, पालनकर्ता एव विलयकर्ता विश्वरूप का वर्णन
करता यह स्तुति संकलन करने योग्य है।
पशूनां पतिं पापनाशं परेशं
गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्
गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्
(हे शिव आप) जो
प्राणिमात्र के स्वामी एवं रक्षक हैं, पाप का नाश करने वाले परमेश्वर हैं, गजराज का चर्म धारण करने वाले हैं, श्रेष्ठ एवं वरण करने योग्य हैं, जिनकी जटाजूट में गंगा जी खेलती हैं, उन एक मात्र महादेव को बारम्बार स्मरण करता हूँ|
महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्
हे महेश्वर, सुरेश्वर, देवों (के भी)
दु:खों का नाश करने वाले विभुं
विश्वनाथ (आप) विभुति धारण करने वाले हैं, सूर्य, चन्द्र एवं अग्नि आपके तीन
नेत्र के सामान हैं। ऎसे सदा आनन्द प्रदान करने वाले पञ्चमुख वाले महादेव मैं आपकी स्तुति करता हूँ।
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं
गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्
गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्
(हे शिव आप) जो
कैलाशपति हैं, गणों के स्वामी, नीलकंठ हैं, (धर्म स्वरूप वृष) बैल की सवारी करते हैं, अनगिनत गुण वाले हैं, संसार के आदि कारण हैं, प्रकाश पुञ सदृश्य हैं, भस्मअलंकृत हैं, जो भवानिपति हैं, उन पञ्चमुख (प्रभु) को मैं भजता हूँ।
शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले
महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप
महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप
हे शिवा (पार्वति) पति, शम्भु! हे चन्द्रशेखर! हे महादेव! आप त्रीशूल एवं जटाजूट धारण करने वाले हैं। हे विश्वरूप! सिर्फ आप ही स्मपुर्ण जगद
में व्याप्त हैं। हे पूर्णरूप आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों।
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं
निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्
निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्
हे एकमात्र परमात्मा! जगत के आदिकारण! आप इक्षारहित, निराकार एवं ॐकार स्वरूप वाले हैं। आपको सिर्फ प्रण (ध्यान)
द्वारा ही जान जा सकता है। आपके द्वारा ही सम्पुर्ण सृष्टी की उतपत्ति
होती है, आपही उसका पालन करते हैं तथा
अंतत: उसका आप में ही लय हो जाता है। हे प्रभू मैं आपको भजता हूँ।
न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायु-
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे
जो न भुमि हैं, न जल, न अग्नि, न वायु और न ही आकाश, – अर्थात आप पंचतत्वों से परे हैं। आप तन्द्रा, निद्रा, गृष्म एवं शीत से भी अलिप्त हैं। आप देश एव वेश की सीमा से भी परे हैं। हे
निराकार त्रिमुर्ति मैं आपकी स्तुति करता हूँ।
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्
हे अजन्मे (अनादि), आप शाश्वत हैं, नित्य हैं, कारणों के भी कारण हैं। हे
कल्यानमुर्ति (शिव) आप ही एक मात्र प्रकाशकों को भी प्रकाश प्रदान
करने वाले हैं। आप तीनो अवस्ताओं से परे हैं। हे आनादि, अनंत आप जो कि अज्ञान से परे हैं, आपके उस परम् पावन अद्वैत स्वरूप को नमस्कार है।
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥
हे विभो, हे विश्वमूर्ते आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे सबको आनन्द
प्रदान करने वाले सदानन्द आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे तपोयोग ज्ञान
द्वारा प्राप्त्य आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे वेदज्ञान द्वारा प्राप्त्य
(प्रभु) आपको नमस्कार है, नमस्कार है।
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः
हे त्रिशूलधारी ! हे विभो विश्वनाथ ! हे महादेव ! हे शंभो ! हे महेश ! हे त्रिनेत्र ! हे पार्वतिवल्लभ ! हे शान्त ! हे स्मरणिय ! हे त्रिपुरारे ! आपके समक्ष न कोई श्रेष्ठ है, न वरण करने योग्य है, न मान्य है और न गणनीय ही है।
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि
हे शम्भो! हे महेश ! हे करूणामय ! हे शूलपाणे ! हे गौरीपति! हे पशुपति ! हे काशीपति ! आप ही सभी प्रकार के पशुपाश (मोह माया) का नाश करने वाले हैं। हे करूणामय आप ही इस जगत के
उत्तपत्ति, पालन एवं संहार के कारण
हैं। आप ही इसके एकमात्र स्वामि हैं।
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन्
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन्
हे चराचर विश्वरूप प्रभु, आपके लिंगस्वरूप
से ही सम्पुर्ण जगत अपने अस्तित्व में आता है (उसकी उत्तपत्ती
होती है), हे शंकर ! हे विश्वनाथ
अस्तित्व में आने के उपरांत यह जगत आप में ही स्थित रहता है – अर्थात आप ही इसका पालन करते हैं। अंतत: यह सम्पुर्ण
श्रृष्टी आप में ही लय हो जाती है।
शिव
पर उस विरोधाभाष में भी एका स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है| आइए जानने की कोशिश करतें हैं आसुतोष भगवान के उन मनमोहन रूपों को जिसकी व्याख्यान प्राचीन आचार्यों तथा देवगणों ने कलमबद्ध किया है|शिव परंब्रह्म हैं
शिव अनादि हैं, अनन्त हैं, विश्वविधाता हैं| सारे संसार में एक मात्र शिव ही हैं जो जन्म, मृत्यू एवं काल के बंधनो से अलिप्त स्वयं महाकाल हैं| शिव सृष्टी के मूल कारण हैं, फिर भी स्वयं अकर्ता हैं, तटस्थ हैं| सृष्टी से पहले कुछ नहीं था – न धरती न अम्बर, न अग्नी न वायू, न सूर्य न ही प्रकाश, न जीव न ही देव। था तो केवल सर्वव्यपी अंधकार और महादेव शिव। तब शिव ने सृष्टी की परिकल्पना की ।सृष्टी की दो आवश्यकतायँ थीं – संचालन हेतु शक्ति एवं व्यवस्थापक । शिव ने स्वंय से अपनी शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं शक्ति ने व्यवस्था हेतु एक कर्ता पुरूष का सृजन किया जो विष्णु कहलाय। भगवान विष्णु के नाभि से ब्रह्मा की उतपत्ति हुई। विष्णु भगवान ने ब्रह्मदेव को निर्माण कार्य सौंप कर स्वयं सुपालन का कार्य वहन किया। फिर स्वयं शिव जी के अंशावतार रूद्र ने सृष्टी के विलय के कार्य का वहन किया। इस प्रकार सृजन, सुपालन तथा विलय के चक्र के संपादन हेतु त्रिदेवों की उतपत्ति हुई। इसके उपरांत शिव जी ने संसार की आयू निरधारित की जिसे एक कल्प कहा गया। कल्प समय का सबसे बड़ा माप है। एक कल्प के उपरातं महादेव शिव संपूर्ण सृष्टी का विलय कर देते हैं तथा पुन: नवनिर्माण आरंभ करते हैं जिसकी शुरुआत त्रिदेवों के गठन से होती है| इस प्रकार शिव को छोड शेष सभी काल के बंधन में बंधे होते हैं|
इन परमात्मा शिव का अपना कोई स्वरूप नहीं है, तथा हर स्वरूप इन्हीं का स्वरूप है। शिवलिंग इन्ही निराकार परमात्मा का परीचायक है तथा परम शब्द ॐ इन्हीं की वाणी। (अवश्य देखें शिवलिंग का महत्व)
अर्धनरनारीश्वर…
सृष्टी के निर्माण के हेतु शिव ने अपनी शक्ति को स्वयं से पृथक किया| शिव स्वयं पुरूष लिंग के द्योतक हैं तथा उनकी शक्ति स्त्री लिंग की द्योतक| पुरुष (शिव) एवं स्त्री (शक्ति) का एका होने के कारण शिव नर भी हैं और नारी भी, अतः वे अर्धनरनारीश्वर हैं|जब ब्रह्मा ने सृजन का कार्य आरंभ किया तब उन्होंने पाया कि उनकी रचनायं अपने जीवनोपरांत नष्ट हो जायंगी तथा हर बार उन्हें नए सिरे से सृजन करना होगा। गहन विचार के उपरांत भी वो किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाय। तब अपने समस्या के सामाधान के हेतु वो शिव की शरण में पहुँचे। उन्होंने शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तप किया। ब्रह्मा की कठोर तप से शिव प्रसन्न हुए। ब्रह्मा के समस्या के सामाधान हेतु शिव अर्धनारीश्वर स्वरूप में प्रगट हुए। अर्ध भाग में वे शिव थे तथा अर्ध में शिवा। अपने इस स्वरूप से शिव ने ब्रह्मा को प्रजन्नशिल प्राणी के सृजन की प्रेरणा प्रदान की। साथ ही साथ उन्होंने पुरूष एवं स्त्री के सामान महत्व का भी उपदेश दिया। इसके बाद अर्धनारीश्वर भगवान अंतर्धयान हो गए।
शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं। तो फिर क्या हैं शिव और शक्ति?
शिव कारण हैं; शक्ति कारक।
शिव संकल्प करते हैं; शक्ति
संकल्प सिद्धी।
शक्ति जागृत अवस्था हैं; शिव
सुशुप्तावस्था।
शक्ति मस्तिष्क हैं; शिव
हृदय।
शिव ब्रह्मा हैं; शक्ति
सरस्वती।
शिव विष्णु हैं; शक्त्ति
लक्ष्मी।
शिव महादेव हैं; शक्ति
पार्वती।
शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली।
शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली।
शिव सागर के जल सामन हैं। शक्ति सागर की लहर हैं।
आइये हम समझने की कोशिश करते हैं।
शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरे के सामान हैं। लहर क्या है? जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध। आएं तथा
प्रार्थना करें शिव-शक्ति के इस अर्धनारीश्वर स्वरूप का इस अर्धनारीश्वर स्तोत्र द्वारा ।विलयकर्ता रूद्र
शिव के सभी स्वरूपों में विलयकर्ता स्वरूप सर्वाधिक चर्चित, विस्मयकारी तथा भ्रामक है। सृष्टी का संतुलन बनाए रखने के लिए सृजन एवं सुपालन के साथ विलय भी अतिआवश्यक है| अतः ब्रह्मा एवं विष्णु के पुरक के रूप में शिव ने रूद्र रूप में विलयकर्ता अथवा संहारक की भुमिका का चयन किया| पर यह समझना अतिआवश्यक है कि शिव का यह स्वरूप भी काफी व्यापक है| शिव विलयकर्ता हैं पर मृत्यूदेव नहीं | मृत्यू के देवता तो यम हैं| शिव के विलयकर्ता रूप के दो अर्थ हैं|विनाशक के रूप में शिव वास्तव में भय,अज्ञान, काम, क्रोध, लोभ, हिंसा तथा अनाचार जैसे बुराईयों का विनाश करते हैं। नकारात्मक गुणों का विनाश सच्चे अर्थों में सकारात्मक गुणों का सुपालन ही होता है। इस प्रकार शिव सुपालक हो विष्णु के पुरक हो जाते हैं। शिव का तीसरा नेत्र जो कि प्रलय का पर्याय माना जाता है वास्त्व में ज्ञान का प्रतीक है जो की प्रत्यक्ष के पार देख सकता है। शिव का नटराज स्वरूप इन तर्कों की पुष्टी करता है।
दुसरे अर्थों में सृजन, सुपालन एवं संहार एक चक्र है और किसी चक्र का आरंभ या अंत नहीं होता| अतः संहार एक दृष्टी से सृजन का प्रथम चरण है| लोहे को पिघलाने से उसका आकार नष्ट हो जाता है पर नष्ट होने के बाद ही उससे नय सृजन हो सकते हैं| तो लोहे के मुल स्वरूप का नष्ट होना नव निर्माण का प्रथम चरण है| उसी प्रकार संहार सृजन का प्रथम चरण है| इस दृष्टी से शिव ब्रह्मा के पुरक होते हैं|
नटराज शिव
नटराज शिव का स्वरूप न सिर्फ उनके संपुर्ण काल एवं स्थान को ही दर्शाता है; अपितु यह भी बिना किसी संशय स्थापित करता है कि ब्रह्माण मे स्थित सारा जिवन, उनकी गति कंपन तथा ब्रह्माण्ड से परे शुन्य की नि:शब्दता सभी कुछ एक शिव में ही निहत है।नटराज दो शब्दों के समावेश से बना है – नट (अर्थात कला) और राज। इस स्वरूप में शिव कालाओं के आधार हैं| शिव का तांडव नृत्य प्रसिद्ध है| शिव के तांडव के दो स्वरूप हैं|
पहला उनके क्रोध का परिचायक, प्रलंयकारी रौद्र तांडव तथा दुसरा आनंद प्रदान करने वाला आनंद तांडव| पर ज्यदातर लोग तांडव शब्द को शिव के क्रोध का पर्याय ही मानते हैं| रौद्र तांडव करने वाले शिव रुद्र कहे जाते हैं, आनंद तांडव करने वाले शिव नटराज|
प्राचीन आचार्यों के मतानुसार शिव के आनन्द तांडव से ही सृष्टी अस्तित्व में आती है तथा उनके रौद्र तांडव में सृष्टी का विलय हो जाता है| शिव का नटराज स्वरूप भी उनके अन्य स्वरूपों की ही भातिं मनमोहक तथा उसकी अनेक व्याख्यायँ हैं।
नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मुर्ति के चार भुजाएं हैं, उनके चारो ओर अग्नि के घेरें हैं। उनका एक पावं से उन्होंने एक बौने को दबा रखा है, एवं दुसरा पावं नृत मुद्रा में उपर की ओर उठा हुआ है।
उन्होंने अपने पहले दाहिने हांथ में (जो कि उपर की ओर उठा हुआ है) डमरु पकड़ा हुआ है। डमरू की आवाज सृजन का प्रतीक है। इस प्रकार यहाँ शिव की सृजनात्मक शक्ति का द्योतक है।
उपर की ओर उठे हुए उनके दुसरे हांथ में अग्नि है। यहाँ अग्नी विनाश की प्रतीक है। इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाँथ से सृजन करतें हैं तथा दुसरे हाँथ से विलय।
उनका दुसरा दाहिना हाँथ अभय (या आशिस) मुद्रा में उठा हुआ है जो कि हमें बुराईयों से रक्षा करता है।
उठा हुआ पांव मोक्ष का द्योतक है। उनका दुसरा बांया हांथ उनके उठे हुए पांव की ओर इंगित करता है। इसका अर्थ यह है कि शिव मोक्ष के मार्ग का सुझाव करते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि शिव के चरणों में ही मोक्ष है।
उनके पांव के नीचे कुचला हुआ बौना दानव अज्ञान का प्रतीक है जो कि शिव द्वारा नष्ट किया जाता है। शिव अज्ञान का विनाश करते हैं।
चारों ओर उठ रही आग की लपटें इस ब्रह्माण्ड की प्रतीक हैं। उनके शरीर पर से लहराते सर्प कुण्डलिनि शक्ति के द्योतक हैं। उनकी संपुर्ण आकृति ॐ कार स्वरूप जैसी दीखती है। यह इस बाद को इंगित करता है कि ॐ शिव में ही निहित है।
आइये स्मरण करते हैं उन्ही नाटराज शिव को इस नटराज स्तुति में|
योगेश्वर महादेव
शिव योग के जन्मदाता तथा श्रोत हैं। योग विज्ञान का उल्लेख प्राचीनतम हिन्दु ग्रंथों में मिलता है| सभी विज्ञानों से परे, यह विज्ञान शरीर एवं आत्मा दोने का ही अध्यन करता है| स्वसन प्रणाली का प्राचीनतम एवं आधिकारिक वर्णन भी सिर्फ योग के पास ही है| योग शारीरिक एवं मानसिक दोनो ही के स्वास्थ के लिए एक सरल मार्ग है|हमारा शरीर तथा मस्तिष्क जिसमें अपार क्षमताएं हैं पर हम उनका सदोपयोग साधारणत: नहीं कर पातें हैं। योग हमें अपने अधिकतम क्षमता पर पहूँने में सहायक होता है।
शिव अपने व्यक्त स्वरूप में योगी सदृश्य हैं तथा नित योग साधना में निरत रहते हैं। उनकी योग साधना से जिस उर्जा का प्रजनन होता है उसी से यह ब्रह्माण्ड चलायमान है। तो शिव इस संसार में व्याप्त संपुर्ण उर्जा के श्रोत हैं।
महाकाल कालभैरव
तांत्रिक कलाओं के साधक एवं जानकार शिव को कालभैरव अथवा महाकाल के रूप में पूजते हैं| उन अघोरी साधकों का साधनास्थल ज्यादातर श्मशान, वन अथवा ऐसे ही विरान स्थल होते हैं जो भय उत्तपन्न करतें हैं| शिव का यह रूप भी उनके साधकों के अनुरूप ही भय उत्तपन्न करने वाला है|पशुपतिनाथ
शिव सृष्टि के स्रोत हैं| सभी प्राणीयों के अराध्य हैं| मानवों और देवों के अलावा दानवों एवं पशुओं के भी द्वारा पूज्य हैं, अतः पशुपतिनाथ हैं| प्राचीनतम हरप्पा एवं मोहनजोदारो संकृति के अवशेषों में शिव के पशुपति रूप की कई मुर्तियाँ एवं चिन्ह उपलब्ध हैं|दिगंबर शिव
दिगंबर शब्द का अर्थ है अंबर (आकाश) को वस्त्र सामान धारण करने वाला। दुसरे किसी वस्त्र के आभाव में इसका अर्थ ( या शायद अनर्थ ) यह भी निकलता है कि जो वस्त्र हिन हो (अथवा नग्न हो)। सही अर्थों में दिगंबर शिव के सर्वव्यापत चरीत्र की ओर इंगित करता है। शिव ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। यह अनंत अम्बर शिव के वस्त्र सामान हैं।शिव का एक नाम व्योमकेश भी है जिसका अर्थ है जिनके बाल आकाश को छूतें हों। इनका यह नाम एक बार फिर से उनके सर्वव्यापक चरीत्र की ओर ही इशारा करती है।
शिव सर्वेश्वर हैं। सर्वशक्तिमान तथा विधाता होने के बाद भी वे अत्यंत ही सरल हैं – भोलेनाथ हैं। वे शिघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें प्रसनन करने के लिए किसी जटील विधान अथवा आडंबर की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे तो भक्ति मात्र देखतें हैं। कोई भी किसी मार्ग द्वारा शिव को प्राप्त कर सकता है।
शिव देवाधिदेव हैं, पर उनमें कोई आडंबर नहीं है, वे सरल हैं, वस्त्र के स्थान पे बाघंबर, आभुषण के नाम पर सर्प और मुण्ड माल, श्रृंगार के नाम भस्म यही उनकी पहचान है| गिरीश योगी मुद्रा में कैलाश पर्वत पर योग में नित निरत रहते हैं| भक्तों के हर प्रकार के प्रसाद को ग्रहण करने वाले महादेव बिना किसी बनावट और दिखावा के होने के कारण दिगंबर कहे जाते हैं|
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