जब में था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नायँ |
प्रेम-गली अति साँकरी, यामे दो न समायँ ||
सिय राममय सब जग जानी | करहु प्रनाम जोरि जग पानी ||
मर्यादापुरुषोत्तम
श्रीराम की कृतज्ञता
जब श्रीहनुमानजी सीताजी का पता लगाकर भगवान् रामसे मिले हैं, उस समय उनके कार्यकी बार-बार प्रंशसा
करके अन्तमें रघुनाथजी ने यहाँ तक कहा है कि `हनुमान ! जानकी का पता लगाकर तुमने मुझे, समस्त रघुवंशको और लक्ष्मण को भी बचा लिया । इस प्रिय कार्यके बदले मे कुछ दे सकूँ, ऐसी कोई वस्तु मुझे नहीं दिखायी देती । अत:
अपना सर्वस्व यह आलिंगन ही मैं तुम्हे देता हूँ ।` इतना कहकर हर्षसे पुलकित श्रीरामने हनुमान् को ह्रदय से लगा लिया । राज्याभिषेक हो जानेके बाद हनुमान् को विदा करते समय हनुमान् कि सेवा और कार्यों को स्मरण करके भगवान् राम कहते हैं
`हनुमान् तुम्हारे एक-एक उपकार के बदले में मैं अपने प्राण दे दूँ तो भी इस विषय में शेष उपकारों के लिये तो मैं तुम्हारा ऋणी ही बना रहूँगा । तुम्हारे द्वारा किये हुए उपकार मेरे शरीर में ही विलीन हो जायँ—उनका बदला चुकाने का मुझे कभी अवसर ही न मिले, क्योंकि आपत्तियाँ आने पर ही मनुष्य प्रत्युपकारों का पात्र होता है ।` इससे पता चलता है कि भगवान् श्रीरामका कृतज्ञता का भाव कितना आदर्श था।
`हनुमान् तुम्हारे एक-एक उपकार के बदले में मैं अपने प्राण दे दूँ तो भी इस विषय में शेष उपकारों के लिये तो मैं तुम्हारा ऋणी ही बना रहूँगा । तुम्हारे द्वारा किये हुए उपकार मेरे शरीर में ही विलीन हो जायँ—उनका बदला चुकाने का मुझे कभी अवसर ही न मिले, क्योंकि आपत्तियाँ आने पर ही मनुष्य प्रत्युपकारों का पात्र होता है ।` इससे पता चलता है कि भगवान् श्रीरामका कृतज्ञता का भाव कितना आदर्श था।
मर्यादापुरुषोत्तम
श्रीराम ( शरणागतवत्सलता )
यों तो श्रीराम कि शरणागतवत्सलता का वर्णन वाल्मीकीय रामायण मे स्थान स्थान पर आया है, कित्नु जिस समय रावण से अपमानित होकर विभीषण भगवान् श्रीराम कि शरण मे आया है, वह प्रसंग तो भक्तों के हृदय मे उत्साह और आनन्द कि लहरें उत्पन्न कर देता है ।
धर्मयुक्त और न्यायसंगत बात कहने पर भी जब रावण ने विभीषण कि बात नहीं मानी, बल्कि भरी सभा में उसका अपमान कर दिया, तब विभीषण वहाँ से निराश और दू:खी होकर श्रीराम कि शरण मे आया । उसें आकाश मार्ग से आते देखकर सुग्रीव ने सब वानरों को सावधान होने के लिये कहा । इतने में ही विभीषण ने वहाँ आकर आकाश में ही खड़े-खड़े पुकार लगाई कि मैं दुरात्मा पापी रावण का छोटा भाई हूँ । मेरा नाम विभीषण है । मैं रावण से अपमानित होकर भगवान् श्रीराम कि शरण में आया हूँ । आप लोग समस्त प्राणियों को शरण देने वाले श्रीराम को मेरे आने कि सूचना दें ।
यह सुनकर सुग्रीव तुरन्त ही भगवान् श्रीराम के पास गये और राक्षस स्वभाव का वर्णन कर श्रीराम को सावधान करते हुए रावण के भाई विभीषण के आने कि सूचना दी । साथ ही यह भी कहा कि ` अच्छी तरह परीक्षा करके, आगे पीछे कि बात सोचकर जैसा उचित समझें, वैसा करें । इसी प्रकार वहाँ बैठे हुए दुसरे बंदरों ने भी अपनी-अपनी सम्मति दी । सभी ने विभीषण पर सन्देह प्रगट किया, पर श्रीहनुमानजी ने बड़ी नम्रता के साथ बहुत सि युक्तियों से विभीषण को निर्दोष और सचमुच शरणागत समझाने की सलाह दी । इस प्रकार सबकी बातें सुनाने के अन्नतर भगवान् श्रीराम ने कहा
मित्र भाव से आये हुए विभीषण का मैं कभी त्याग नहीं कर सकता । यदि उसमें कोई दोष हो तो भी उसे आश्रय देना सज्जनों के लिये निन्दित नहीं है ।` इसपर भी सुग्रीव को संतोष नहीं हुआ । उसने शंका और भय उत्पन्न करनेवाली बहुत-सी बातें कही । तब श्रीराम ने सुग्रीव को फिर समझाया
वानरगणाधीश ! यदि मैं चाहूँ तो पृथ्वी भर के उन पिशाच, दानव, यक्ष, और राक्षसों को अंगुली के अग्रभाग से ही मार सकता हूँ।( अत: डरने कि कोई बात नहीं है ।)
परंतप ! यदि कोई शत्रु भी हाथ जोड़कर दीन भाव से शरण मे आकर अभय-याचना करे तो दया धर्म का पालन करने के लिये उसे नहीं मारना चाहिये । मेरे तो यह विरद है कि जो एक बार मैं आपका हूँ यों कहता हुआ शरण मे आकर मुझसें रक्षा चाहता है, उसें मैं समस्त प्राणियों से निर्भय कर सकता हूँ । वानरश्रेष्ठ सुग्रीव ! ( उपर्युक्त निति के अनुसार ) मैंने इसें अभय दे दिया, अत: तुम इसे ले आओ—चाहे यह विभीषण हो या स्वयं रावण ही क्यों न हो ।
बस फिर क्या था । भगवान् कि बात सुनकर सब मुग्ध हो गये और भगवान् कि आज्ञानुसार तुरन्त ही विभीषण को ले आये । विभीषण अपने मंत्रियों सहित आकर श्रीराम के चरणों मे गिर पड़ा और कहने लगा- भगवान् ! मैं सब कुछ छोड़कर आपकी शरण में आया हूँ । अब मेरा राज्य, सुख और जीवन सब कुछ आपके ही अधीन है । इसके बाद श्रीराम ने प्रेमभरी दृष्टि और वाणी सें उसें धैर्य दिया और लक्ष्मण से समुद्र का जल मांगकर उसका वहीँ लंकाके राज्य पर अभिषेक कर दिया
यों तो श्रीराम कि शरणागतवत्सलता का वर्णन वाल्मीकीय रामायण मे स्थान स्थान पर आया है, कित्नु जिस समय रावण से अपमानित होकर विभीषण भगवान् श्रीराम कि शरण मे आया है, वह प्रसंग तो भक्तों के हृदय मे उत्साह और आनन्द कि लहरें उत्पन्न कर देता है ।
धर्मयुक्त और न्यायसंगत बात कहने पर भी जब रावण ने विभीषण कि बात नहीं मानी, बल्कि भरी सभा में उसका अपमान कर दिया, तब विभीषण वहाँ से निराश और दू:खी होकर श्रीराम कि शरण मे आया । उसें आकाश मार्ग से आते देखकर सुग्रीव ने सब वानरों को सावधान होने के लिये कहा । इतने में ही विभीषण ने वहाँ आकर आकाश में ही खड़े-खड़े पुकार लगाई कि मैं दुरात्मा पापी रावण का छोटा भाई हूँ । मेरा नाम विभीषण है । मैं रावण से अपमानित होकर भगवान् श्रीराम कि शरण में आया हूँ । आप लोग समस्त प्राणियों को शरण देने वाले श्रीराम को मेरे आने कि सूचना दें ।
यह सुनकर सुग्रीव तुरन्त ही भगवान् श्रीराम के पास गये और राक्षस स्वभाव का वर्णन कर श्रीराम को सावधान करते हुए रावण के भाई विभीषण के आने कि सूचना दी । साथ ही यह भी कहा कि ` अच्छी तरह परीक्षा करके, आगे पीछे कि बात सोचकर जैसा उचित समझें, वैसा करें । इसी प्रकार वहाँ बैठे हुए दुसरे बंदरों ने भी अपनी-अपनी सम्मति दी । सभी ने विभीषण पर सन्देह प्रगट किया, पर श्रीहनुमानजी ने बड़ी नम्रता के साथ बहुत सि युक्तियों से विभीषण को निर्दोष और सचमुच शरणागत समझाने की सलाह दी । इस प्रकार सबकी बातें सुनाने के अन्नतर भगवान् श्रीराम ने कहा
मित्र भाव से आये हुए विभीषण का मैं कभी त्याग नहीं कर सकता । यदि उसमें कोई दोष हो तो भी उसे आश्रय देना सज्जनों के लिये निन्दित नहीं है ।` इसपर भी सुग्रीव को संतोष नहीं हुआ । उसने शंका और भय उत्पन्न करनेवाली बहुत-सी बातें कही । तब श्रीराम ने सुग्रीव को फिर समझाया
वानरगणाधीश ! यदि मैं चाहूँ तो पृथ्वी भर के उन पिशाच, दानव, यक्ष, और राक्षसों को अंगुली के अग्रभाग से ही मार सकता हूँ।( अत: डरने कि कोई बात नहीं है ।)
परंतप ! यदि कोई शत्रु भी हाथ जोड़कर दीन भाव से शरण मे आकर अभय-याचना करे तो दया धर्म का पालन करने के लिये उसे नहीं मारना चाहिये । मेरे तो यह विरद है कि जो एक बार मैं आपका हूँ यों कहता हुआ शरण मे आकर मुझसें रक्षा चाहता है, उसें मैं समस्त प्राणियों से निर्भय कर सकता हूँ । वानरश्रेष्ठ सुग्रीव ! ( उपर्युक्त निति के अनुसार ) मैंने इसें अभय दे दिया, अत: तुम इसे ले आओ—चाहे यह विभीषण हो या स्वयं रावण ही क्यों न हो ।
बस फिर क्या था । भगवान् कि बात सुनकर सब मुग्ध हो गये और भगवान् कि आज्ञानुसार तुरन्त ही विभीषण को ले आये । विभीषण अपने मंत्रियों सहित आकर श्रीराम के चरणों मे गिर पड़ा और कहने लगा- भगवान् ! मैं सब कुछ छोड़कर आपकी शरण में आया हूँ । अब मेरा राज्य, सुख और जीवन सब कुछ आपके ही अधीन है । इसके बाद श्रीराम ने प्रेमभरी दृष्टि और वाणी सें उसें धैर्य दिया और लक्ष्मण से समुद्र का जल मांगकर उसका वहीँ लंकाके राज्य पर अभिषेक कर दिया
श्रीराम का अपने मित्रों के
साथ भी अतुलनीय प्रेम का बर्ताव था । वह अपने मित्रों के लिये जो कुछ भी करते, उसें कुछ नहीं समझते थे, परन्तु मित्रों के छोटे से
छोटे कार्य कि भी भूरि-भूरि प्रशंशा किया करते थे । इसका एक छोटा सा उदाहरण यहाँ
लिखा जाता है । अयोध्या में भगवान् का राज्याभिषेक होने के बाद बन्दरोंको विदा
करते समय मुख्य मुख्य बंदरों को अपने पास बुलाकर प्रेम भरी दृष्टि सें देखते हुए
श्रीरामचन्द्रजी बड़ी सुन्दर और मधुर वाणी मे कहने लगे
वनवासी वानरों ! आप लोग मेरे मित्र हैं, भाई हैं तथा शरीर हैं । एवं
आप लोगों ने मुझे संकट से उबारा है, अत: आप सरीखे श्रेष्ठ
मित्रों के साथ राजा सुग्रीव धन्य हैं ।इसके सिवा और भी बहुत जगह श्रीराम ने अपने
मित्रों के साथ प्रेम का भाव दिखाया है । सुग्रीवादि मित्रों ने भी भगवान् के सख्य
प्रेम कि बारम्बार प्रशंशा कि है । वह अपने बर्ताव सें इतने मुग्ध रहते थे कि उनको
धन,जन और भोगों की स्मृति भी नहीं होती थी । वह हर समय
श्रीरामचन्द्र के लिये अपना प्राण न्यौछावर करने को प्रस्तुत रहते थे । श्रीराम और
उनके मित्र धन्य है । मित्रता हो तो ऐसी हो ।
श्रीराम का भ्रातृ-प्रेम भी अतुलनीय था । लड़कपन
से ही श्रीराम अपने भाइयों के साथ बड़ा प्रेम करते थे । सदा उनकी रक्षा कारते थे
और उन्हें प्रसन्न रखने की चेष्टा करते थे । चारों भाई एक साथ घोड़े पर चढ़कर
विचरण किया करते थे । रामचन्द्रजी को जो भी कोई भोजन या वस्तु मिलती थी, उसे वे पहले अपने भाइयों को
देकर पीछे स्वयं खाते या उपयोग में लाते थे । यद्यपि श्रीराम का सभी भाइयों के साथ
सामान भाव से ही पूर्ण प्रेम था, उनके मन में कोई भेद नहीं था, तथापि लक्ष्मण का श्रीराम
के प्रति विशेष स्नेह था । वे थोड़ी देर के लिये भी श्रीराम से अलग रहना नहीं
चाहते थे । श्रीराम का वियोग उनके लिये असह्य था, इसी कारण विश्र्वामित्र के
यज्ञ की रक्षा के लिये भी वे श्रीराम के साथ ही वन में गये । वहाँ राक्षसों का नाश
करके दोनों भाई जनकपुर पहुँचे । धनुषभंग हुआ । तदनन्तर विवाह की तैयारी हुई और
चारों भाइयों का विवाह साथ-साथ ही हुआ । विवाह के बाद अयोध्या में आकर चरों भाई
प्रेमपूर्वक रहे ।
कुछ दिनों के बाद अपने मामा के साथ भरत-शत्रुघ्न
ननिहाल चले गये । श्रीराम और लक्षमण पिता की आज्ञानुसार प्रजा का कार्य करते रहे ।
श्रीराम के प्रेम भरे बर्तावसे, उनके गुण और स्वभाव से सभी नगर-निवासी और बाहार
रहने वाले ब्राह्मणादि वर्णों के मनुष्य मुग्ध हो गये । फिर राजा दशरथ ने मुनि
वसिष्ठ की आज्ञा और प्रजा की सम्मतिसे श्रीरामके राज्याभिषेक का निश्चय किया ।
राजा दशरथजीके मुख से अपने राज्याभिषेक की बात सुनकर श्रीराम माता कौसल्या के महल
में आये । माता सुमित्रा और भाई लक्ष्मण भी वहीँ थे । उस समय अपने छोटे भाई
लक्ष्मण से कहते हैं
‘लक्ष्मण । तुम मेरे साथ इस पृथ्वी का शासन करो ।
तुम मेरे दूसरे अन्तरात्मा हो । यह राज्यलक्ष्मी तुझे ही प्राप्त हुई है ।
सुमित्रानन्दन ! तुम मनोवांछित भोग और राज्य-फलका उपभोग करो । मैं जीवन और राज्य
भी तुम्हारे लिये ही चाहता हूँ ।’
इसके बाद इस लीला-नाटक का पट बदल गया । माता
कैकेयी के इच्छानुसार राज्यभिषेक वन-गमन के रूप में परिणत हो गया । सुमन्त्र के
द्वारा बुलाये जाने पर जब श्रीराम महलमें गये और माता कैकेयी से बातचीत करने पर
उन्हें वरदान की बात मालूम हुई, तब उन्होंने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की । तदनन्तर
वे माता कौसल्या से विदा माँगने गये,वहाँ भी बहुत बातें हुई ; परन्तु श्रीरामने एक भी
शब्द भरत या कैकयी के विरुद्ध नहीं कहा, बल्कि भरतजी की बड़ाई करते
हुए माता को धैर्य दिया और कहा कि ‘भरत मेरे ही समान आपकी सेवा
करेगा ।’ उसी समय सीताको घरपर रहने के लिये समझाते हुए कहते हैं
‘सीते ! मेरे भाई भरत-शत्रुघ्न मुझे प्राणों से
भी बढ़कर प्रिय है । अत: तुम्हे उनको अपने भाई और पुत्रके समान या उससे भी बढ़कर
प्रिय समझना चाहिये ।’
वन गमन का समाचार सुनकर लक्ष्मण के मनमें भारी
दुःख और क्रोध हुआ । उसे भी श्रीराम ने नीति और धर्म से परिपूर्ण बहुत ही मधुर और
कोमल वचनों से शान्त किया । फिर जब लक्ष्मण ने साथ चलने के लिये प्रार्थना की, उस समय उनको वहीँ रहने के
लिये समझाते हुए श्रीराम ने कहा है लक्षमण ! तुम मेरे स्नेही, धर्मपरायण, धीर और सदा सन्मार्ग मे
स्थित रहने वाले हो । मुझे प्राणों के समान प्रिय, मेरे वश मे रहने वाले, आज्ञापालक और सखा हो ।
बहुत समझाने पर भी जब लक्ष्मण ने अपना
प्रेमाग्रह नहीं छोड़ा, तब भगवान् ने उनको संतुष्ट करने के लिये अपने साथ ले जाना
स्वीकार किया । वन में रहते समय भी श्रीरामचन्द्रजी सब प्रकार से लक्ष्मण और
सीता को सुख पहुँचाने तथा प्रसन्न रखने की चेष्टा किया करते थे ।
भरत के सेना सहित चित्रकूट आने का समाचार पाकर
जब श्रीराम-प्रेम के कारण लक्ष्मण क्षुब्ध होकर भरत के प्रति न कहने योग्य शब्द कह
बैठे, तब श्रीराम ने भरत की प्रशंसा करते हुए कहा- “लक्ष्मण ! मैं सच्चाई से अपने आयुध की शपथ लेकर कहता हूँ कि
मैं धर्म,अर्थ,काम, और साडी पृथ्वी-सब कुछ
तुम्ही लोगों के लिये चाहता हूँ । लक्ष्मण ! मैं राज्य को भी भाईयों कि भोग्य
सामग्री ओर उनके सुख के लिये ही चाहता हूँ । तथा मेरे विनयी भाई ! भरत, तुम और शत्रुघ्न को छोड़कर
यदि मुझे कोई भी सुख होता हो तो उसमें आग लग जाये । मैं समझता हूँ कि मेरे वन मे
आने की बात कानों मे पड़ते ही भरत का हृदय स्नेह सें भर गया है, शोक सें उसकी इन्द्रियाँ
व्याकुल हो गयी है, अत: वह मुझे देखने के लिये आ रहा है ।उसके आने का कोई दूसरा
कारण नहीं है ।”
इसी प्रकार श्रीराम की पितृ-भक्ति भी बड़ी
अद्भुत थी ।रामायण पढ़नेवालों से यह बात छिपी नहीं है कि पिता का आज्ञा पालन करने
के लिये श्रीराम के मन में कितना उत्साह, साहस और दृढ निश्चय था ।
माता कैकयी से बातचीत करते समय श्रीराम कहते हैं
“मैं महाराज के कहने से आगमें भी कूद सकता हूँ, तीव्र विषका पान कर सकता
हूँ और समुद्र में भी गिर सकता हूँ, क्योंकि जैसे पिता की सेवा
और उनकी आज्ञा का पालन करना है, इससें बढ़कर संसार में दूसरा कोई धर्म नहीं है ।”
इसी तरह के वहाँ और भी बहुत-से वचन मिलते हैं ।
उसके बाद माता कौसल्या से भी उन्होंने कहा है
मैं चरणों में सिर रखकर आपसे प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना करता हूँ । मुझमें पिता की वचन टालने की शक्ति नहीं है । अत: मैं वनको ही जाना चाहता हूँ ।”
मैं चरणों में सिर रखकर आपसे प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना करता हूँ । मुझमें पिता की वचन टालने की शक्ति नहीं है । अत: मैं वनको ही जाना चाहता हूँ ।”
इसके सिवा लक्ष्मण, भरत, और भरत और ऋषि-मुनियों सें
बात करते समय भी राम ने पितृ-भक्ति के विषय में बहुत कुछ कहा है । श्रीरामचन्द्र
के बालचरित्र का संक्षेप में वर्णन करते हुए भी यह बात कही गयी है कि श्रीराम सदा
अपने पिता की सेवा में लगे रहते थे ।
‘एकपत्नीव्रत’ श्रीरामका एकपत्नीव्रत भी
बड़ा ही आदर्श था । श्रीरामने स्वप्न में भी कभी श्रीजानकीजी के सिवा दूसरी स्त्री
का वरण नहीं किया । सीता को वनवास देने के बाद यज्ञ में स्त्री की आवश्यकता होनेपर
भी उन्होंने सीताकी ही स्वर्णमयी मूर्ति से काम चलाया । यदि वे चाहते तो कम-से-कम
उस समय तो दूसरा विवाह कर ही सकते थे । उससे संसार में भी उनकी कोई अपकीर्ति नहीं
होती, परन्तु भगवान् तो मर्यादापुरुषोत्तम ठहरे । उनको तो यह बात
चरितार्थ करके दिखानी थी कि जिस प्रकार स्त्री के लिये पतिव्रत्यका विधान है, उसी तरह पुरुषका सम्बन्ध
भोग भोगनेके लिये नहीं, अपितु धर्माचरण के लिये है ।
भगवान् श्रीराम सीताके साथ
प्रेम था, इसका कुछ दिग्दर्शन सीता-हरण के बाद का प्रसंग पढ़ने से हो
सकता है । श्रीराम परमवीर, धीर और सहिष्णु होते हुए भी उस समय एक साधारण विरहोन्मत
पागल कि भाँती पशु-पक्षी, वृक्ष-लता और पर्वतों से सीता का पता पूछते और नाना प्रकार
के विलाप करते हुए एक वनसे दुसरे वनमें भटकते फिरते है एवं “हा सीते ! हा सीते !!” पुकार उठाते हैं । उस समय
वर्णन बड़ा ही करुणापूर्ण और हृदयविदारक है ।
श्रीराम श्रीराम श्रीराम श्रीराम श्रीराम श्रीराम श्रीराम श्रीराम श्रीराम श्रीराम श्रीराम…….
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
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