सुख और दुख
सुख और दुख का संबंध मन में उठने वाले भावों और कल्पना से अधिक होता है। उसमें किसी पदार्थ और परिस्थिति की उतनी भूमिका नहीं होती। अगर सुख-दुख का पदार्थों से कोई लेना-देना होता तो एक ही पदार्थ से कभी सुख और कभी दुख का अनुभव नहीं होता। परिस्थितियों के संबंध में भी यही बात सत्य प्रतीत होती है। आखिर क्यों एक ही परिस्थिति किसी को सुखी और किसी को दुखी बनाती है?
यह स्पष्ट है कि सुख-दुख कहीं बाहर से नहीं आते और हमारे मन की अवस्था से उनका निर्धारण होता है, इसलिए हमें मनोभावों के सुधार और बदलाव पर विशेष ध्यान देना चाहिए। खास तौर से हमारे दुख और निराशा का कोई समाधान केवल बाहरी साधनों से होना संभव नहीं है। वैसे तो आज सुविधाओं का बहुत विस्तार हो रहा है। फिर भी व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तनाव, टकराव और बिखराव बढ़ रहे हैं। इसका मुख्य कारण मानसिक शांति और संतुलन का अभाव है। एक संपन्न परिवार के मुखिया ने कहा- मेरे घर में सोफा-सेट है, टी.वी. है, गोल्डन और डायमंड-सेट है लेकिन घर में शांति नहीं है। इस पर किसी ने कहा- यह तो ठीक है कि तुम्हारे पास बहुत प्रकार के 'सेट' हैं, पर तुम्हारा मन भी 'सेट' है या नहीं, जरा इस पर तो विचार करो। उसने हंसते हुए कहा- वह तो 'अपसेट' है। उसे समझाया गया- मेरे भाई! मन को 'सेट' किए बिना दूसरे 'सेट' भी हमारे जीवन के लिए अभिशाप हो जाते हैं।
जीवन में ऐसे अनेक लोगों से संपर्क होता रहा है जिन्होंने बौद्धिक और आर्थिक क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अपने पूर्वजों की अपेक्षा उन्होंने बहुत उन्नति की है, पर उनका मिजाज जल्दी बिगड़ जाता है। इससे वे स्वयं भी अशांत रहते हैं और उनका पारिवारिक जीवन भी अशांत और अव्यवस्थित रहता है। असल में मनुष्य अपने मन की भावनाओं और कल्पनाओं से ही सम्राट और भिखारी होता है। जिसका मन प्रसन्न और स्वस्थ है, वह अकिंचन होकर भी सम्राट है। जो अशांति और व्याकुलता के दवानल में जलता रहता है, वह संपन्न और समृद्ध होकर भी भिखारी के समान है।
मानसिक स्वास्थ्य के अभाव में थोड़ी-सी प्रतिकूलता भी व्यक्ति को भीतर से तोड़ देती है। उस स्थिति में जीना भी मुश्किल लगने लगता है। ऐसे लोगों पर 'मन के जीते जीत है, मन के हारे हार'- यह कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है। जब विचारों में श्रद्धा और उत्साह का भाव प्रबल होता है, तब कठिन से कठिन काम करने में कोई मुश्किल प्रतीत नहीं होती। किंतु जब मन में किसी तरह का उत्साह नहीं होता, तो छोटा-सा काम भी दुष्कर प्रतीत होने लगता है।
यदि आप जीवन में सुख-शांति चाहते हैं तो दूसरों को सुख देने की कोशिश करें। याद रखें संसार में सुख ज्यादा है दुख कम। 85 प्रतिशत दुख हम अपनी बेवकूफी से पैदा करते हैं। 15 प्रतिशत दुख दुष्कर्म से प्राप्त होता है। किसी को तीन लड़कियां हैं, लड़का नहीं, तो दुख। किसी को व्यापार में घाटा हो गया तो दुख। लड़का तो पैदा हुआ, परंतु आज्ञाकारी नहीं निकला तो और ज्यादा दुख होता है।
यह दुख तो प्रयत्न एवं पुरुषार्थ तथा मालिक की कृपा से सुख में बदल सकते हैं। लेकिन संसार में सबके दुख का कारण एक ही है। आज का इंसान अपने दुख से बहुत कम दुखी है, परंतु दूसरे के सुख को देखकर ज्यादा दुखी है।
आज का इंसान अपने बनते हुए घर को देखकर कम खुश है, परंतु दूसरे के जलते हुए घर को देखकर ज्यादा खुश है। एक बार राजा जनक के पास तत्ववेत्ता ऋषि पहुंचे। राजा अपना सिंहासन छोड़कर आए और ऋषि को दंडवत प्रणाम कर आसन पर बैठा कर कहने लगे ऋषिवर, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं? ऋषि बोले- हे राजन्! आपके इस नगर के समीप मेरा गुरुकुल आम है। वहां एक हजार ब्रह्मचारी विद्या अर्जन करते हैं। मुझे आम के विद्यार्थियों के दूध पीने के लिए गौ चाहिए।
राजा जनक महान ज्ञानी एवं विद्वत् अनुरागी तो थे ही, जिज्ञासु स्वभाव के भी थे। ऋषिवर से बोले- मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं। बताइए कि मेरी हथेली में बाल क्यों नहीं हैं? ऋषि बोले- आप दान ज्यादा देते हैं, इसलिए आपकी हथेली में बाल नहीं हैं। राजा संतुष्ट नहीं हुए।
इसी प्रकार आदित्य ब्रह्मचारी ऋषि दयानंद ने संसार के लोगों को एक संदेश दिया कि प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में संतुष्ट नहीं होना चाहिए बल्कि सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। इस प्रकार विचारधारा रखने वाले लोग शांति को प्राप्त करते हैं।
जो व्यक्ति दूसरे के सुख को देखकर जलता हो तो यह मानना चाहिए कि वह राजयक्ष्मा रोग का शिकार है। अगर दुष्टता मनुष्य में आ जाए, तो वहीं कोढ़ है।
तुलसी जी ने इसे मानस रोग कहा है। - 'पर सुख देखि जरनि सोई छुई। कुष्ट दुष्टता मान कुटिलई।' जहां राजयक्ष्मा और कोढ़ दोनों एक ही जगह हो तो मानना सर्वनाश ही सर्वनाश है। शांति का द्वार सदा बंद है। जिसका स्वभाव दूसरे के सुख को देखकर जलने का हो तो मानना चाहिएक कि उसके जीवन में मंथरा है।
'त्रिविधं नरकस्येदं द्वारनाशमात्मनः।
काम क्रोधस्तथा लोभ तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत्॥'
- नरक के तीन द्वार हैं - काम, क्रोध तथा लोभ इसलिए इन तीनों को छोड़ देवें। ये तीन राक्षसियां हैं, शूर्पणखा ये काम की प्रतीक है, ताड़का, क्रोध की प्रतीक है, मंथरा लोभ की प्रतीक है। लोभी आदमी को अपना लाभ हो तो उसे शांति मिलती है, वह चाहता भी है कि पड़ोसी का जरूर घाटा हो। मंथरा, कैकेयी को सलाह देती है कि दो वरदान मांग लो- भरत को राजगद्दी और राम को वनवास।
इस प्रकार के स्वभाव वाले लोग सदा दुख, क्लेश, तनाव से ग्रसित रहते हैं। यदि जीवन में शांति, प्रसन्नता, आनंद चाहते हो तो दूसरे के सुख में सुखी रहो, दूसरे के दुख में दुखी रहने का स्वभाव बनाओ।
सुख और दुख का मूल कारण स्वयं व्यक्ति ही होता है
हमारे शरीर और बुध्दि से परे भी एक ऐसी प्यास और एक अभीप्सा विद्यमान है, जिसे बाहर से सब कुछ पाकर भी शान्त नहीं किया जा सकता। वस्तुतः हम अपने आप में इतने परिपूर्ण और समर्थ हैं कि बाहर से कुछ पाने की अपेक्षा ही नहीं रहती। लेकिन कृत्रिम अपेक्षाओं के जाल में हम इस कदर फंसे रहते हैं कि भीतर झांकने का अवकाश भी नहीं मिलता।
व्यक्ति की हर कामना पूरी हो जाए, यह नितांत असंभव है। ऐसी स्थिति में उसके मानस में निरन्तर एक चुभन-सी बनी रहती है जो उसे कभी भी शान्ति से नहीं सोने देती।
अपेक्षाओं को जगत् से मुड़कर ही व्यक्ति उस रसातीत रस का अनुभव कर सकता है जिसके सामने स्वादिष्ट से स्वादिष्ट पकवान भी नीरस और फीके प्रतीत होने लगते हैं। उसे बाह्य निरपेक्ष सुखद स्थिति को प्राप्त करने के लिए भगवान महावीर ने चार उपाय सुझाए हैं, जो सुख शय्या के नाम से पुकारे जाते हैं।
सत्यनिष्ठ के लिए स्वयं में विश्वास होना अत्यन्त अपेक्षित है। स्वयं अपेक्षित है। स्वयं के प्रति विश्वस्त व्यक्ति ही दूसरों के प्रति विश्वस्त रह सकता है। सबके प्रति विश्वस्त रह सकता है। सबके प्रति विश्वस्त रहने वाला सत्य के प्रति अविश्वस्त हो ही नहीं सकता।
अपने लक्ष्य, प्रवृत्ति और प्रगति के प्रति भी विश्वास होना जरूरी है। संदेहशील व्यक्ति व्यावहारिक दृष्टि से भी सफल नहीं हो सकता। वह नीरस और कटा हुआ जीवन जीता है। उसे न अपने अस्तित्व, कर्तृत्व और व्यक्तित्व पर भरोसा होता है और न दूसरों पर। संदेह मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। उससे पारस्परिक स्ेह और सौहार्द के स्रोत सूख जाता है। मन सदा भय और आशंका से भरा रहता है। दबा हुआ भय और आशंका कभी भी विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकते हैं। पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अनेक समस्याओं में यह संदेहवृत्ति ही कार्य करती है। जीवन के लिए जितना श्वास का महत्व है उतना ही महत्व समाज में विश्वास का है।
व्यक्ति को दूसरे का सुख और समृध्दि अधिक दिखती है और अपनी कम। अपनी उपलब्धि में असंतुष्ट रहने वाला व्यक्ति पराई उपलब्धि से जलता रहता है या उस पर हस्तक्षेप करता रहता है। इससे अनेक उलझनें सामने आती हैं। दूसरे की प्रगति के प्रति असहिष्णुता मानवीय दुर्बलता है। पारिवारिक, जातीय, सामाजिक, धार्मिक और भाषायी विवादों की जड़ यह असहिष्णु वृत्ति ही है। इसी वृत्ति ने न जाने कितनी बार मानव जाति के युध्दों की लपेटों में झोंका है। वस्तुतः सुख-शांति और आनन्द को पाने के लिए कहीं जाने की अपेक्षा नहीं है। वह स्वयं के भीतर हैं।
व्यक्ति का चैतन्य जागरण जितना स्वल्प होता है, मन और इन्द्रियां उतने ही बाहर दौड़ते हैं। ऊर्जा और चेतना का बहाव भीतर न होकर बाहर की ओर होने लगता है। बहिर्मुख व्यक्ति बाह्य के प्रति आसक्त रहता है। लेकिन उसे भी कभी संतोष नहीं मिलता। असंतुष्ट मानस की बगिया में आनन्द के फूल खिल नहीं सकते। इसलिए महावीर ने सुझाया ‘दृष्ट पदार्थों से उदासीन रहो।’ यह विरक्ति ही अंतर्दर्शन का मूल और आनन्द का स्रोत है।
वेदना दो प्रकार की होती है, शारीरिक और मानसिक। शारीरिक वेदना प्रगति में बाधक बन सकती है पर घातक नहीं। घातक बनती है मानसिक वेदना। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां, उतार-चढ़ाव और घुमाव प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पथ में आते हैं। दुर्बल मानस उनसे बहुत जल्दी प्रभावित हो जाता है। वह जरा सी अनुकूलता में प्रसन्न और प्रतिकूलता में खिन्न हो जाता है। दोनों परिस्थितियों में मानसिक संतुलन बनाये रखना अत्यंत अपेक्षित है। परिस्थिति विजय का सुन्दर उपक्रम है- उनसे ऊपर उठ जाना। यदि हम ऊपर उठ जायेंगे तो परिस्थितियों का प्रवाह नीचे से बह जायेगा। यदि हम उस प्रवाह में बैठ जायेंगे तो वह बहा ले जायेगा।
जो तटस्थ होकर प्रिय-अप्रिय परिस्थितियों को सहना जानता है, वह सचमुच जीना जानता है और कुछ कर गुजरना भी जानता है।
शान्ति किसी बाहरी साम्राज्य को जीतने से नहीं, आत्म साम्राज्य को पाने से उपलब्ध होती है।
सुख और दुःख का मूल कारण स्वयं व्यक्ति ही होता है। उसकी नियंत्रित वृत्तियां जहां उसकी राहों में फूल बिछाती हैं, वहां अनियंत्रित वृत्तियां शूल बन कर उसके प्राणों में प्रतिक्षण चुभन पैदा करती रहती हैं।
भगवान महावीर ने एक आध्यात्मिक औषधि अवश्य बताई है जिसके सेवन से व्यक्ति क्षण भर में अनगिनत मनोव्याधियों से छुटकारा पा सकता है। उस दिव्य औषधि का नाम है ‘समता’।
विषम मन के धरातल पर ही दुःख का अंकुरण होता है। उन अंकुरों से विक्षोभ, व्याकुलता, दुराग्रह, प्रतिशोध आदि के फूल खिलते हैं और पुनः फलते हैं अनेक प्रकार की समस्याओं के विषैले फल। समता एक ऐसा रसायन है, जिसके छिड़काव में उन विषैले पौधों का समूल उन्मूलन हो सकता है। मेधावी व्यक्ति उस रसायन से मानसिक विक्षोभ या लक्ष्य के प्रति होने वाले अनास्थाभाव के अंकुरों को पनपने से पहले ही समाप्त कर देता है।
कोई भी व्यक्ति यदि अशान्त होता है तो वह अपने ही चिंतन और गलत कार्यों से होता है। इसके विपरीत जिसके मन में समत्व प्रतिष्ठित हो जाता है, उसके पांव कभी गलत दिशा में नहीं उठते। उसके हाथ कभी गलत कार्यों में संलिप्ति नहीं होते।
विषमताओं के तूफान से जब जब जीवन नौका विपदाओं के अन्तहीन सागर में डूबने लगे तब तब यदि हम उस नौका के मस्तूल पर प्रसन्नता की पताकाएं फहरा दें और समता का लंगर डाल दें तो निश्चय ही हमारा जहाज सुरक्षित रह जायेगा और हमारा जीवन समाप्त होने से उबर जायेगा।
सचमुच समता एक ऐसा लंगर है जो हर परिस्थिति में हमारे जीवन जहाज को संतुलित और नियंत्रित रख सकता है। उसका प्रयोग हम चाहें कितनी बार करें, वह समाप्त नहीं होगा।
इन सुख शय्याओं में सोने वाले व्यक्ति काल्पनिक या अतृप्त वासनाओं के कारण उभरने वाले सपनों में नहीं खोते, अपितु दिव्य लोक में विहार करते हैं, जहां सर्वत्र आनन्द बिखरा पड़ा है।
सुख – दुख। अजीब खेल है। दुख में सुख और सुख के साथ दुख। सामान्यत: जीवन की सारी कहानी इन्हीं दो चक्रों में सिमट कर रह जाती है। दो होना यानी द्वंद। हम मजबूत द्वंद-जाल में ही तो जकडे हैं। मेरा-तेरा, धर्म-अधर्म, सच-झूठ, हार-जीत, हानि-लाभ, हेड-टेल, गरीबी-अमीरी, सफलता-विफलता, घृणा-प्रेम, अंधेरा-उजाला, जन्म-मृत्यु, जवानी-बुढापा, ऊंच-नीच, स्त्री-पुरुष, जड-चेतन, राग-द्वेष, धरती-आकाश, अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य, ज्ञान-अज्ञान और जीव-ईश्वर वगैरह सब द्वंद ही तो हैं। द्वंद ही संसार है और संसार में सुख मृगतृष्णा ही है।
आदि या शायद अनादि काल से मानव दुख से बचने और सुख के रास्ते संधान करने में लगा है। न जाने कितने हजार साल पहले हमारे मंत्रदृष्टा ऋषियों ने ” सर्वे भवन्तु सुखिन: मा कश्चिद दुख:भाग्भवेत” गाया होगा । आज भी कुछ धार्मिकनुमा कार्यक्रमों में यह मंत्र हम सुनते हैं। लेकिन हम कितने सुखी हो पाए और दूसरों को दु:खरहित कर पाए , कह नहीं सकते।
आपने कभी विचार किया है, हम क्यों जीना चाहते हैं ? मरने से क्यों भागते हैं ? तमाम दुख दर्द विफलता और आघात-प्रतिघात सह कर भी क्यों जीते रहना चाहते हैं ? पैसे के लिए, नाम के लिए,बच्चों के लिए, पत्नी-प्रेयषी के लिए, देश के लिए ? मैं मानता हूं सुख के लिए । हम सुख-संतृप्त होने के लिए जीना चाहते हैं। किसी के लिए या जीते रहने के लिए नहीं जीते। सुखेच्छा ही जिजीविषा बढाती है।
पर क्या जीवन में सुख मिलता है ? हम दुखों से बचने को छटपटाते रहते हैं। सुख समेटने को करणीय- अकरणीय क्या-क्या नहीं करते। पहले जीने के लिए और फिर सुख-सुविधा से जीने के लिए ही तो सारे उद्यम-उपक्रम करते हैं। सत्कार्य-सत्संग से अत्याचार-अधर्म तक। हत्या से प्रेमालिंगन तक । फिर भी सुख पकड में नहीं आता। मिलता भी है तो जैसे मुट्ठी में पानी। सुख की प्यास-अग्नि बुझती नहीं और दुख पिंड नहीं छोडते।
सुख है कहां ? पैसे-सम्पन्नता में, शक्ति-यौवन में, पद-अधिकारिता में, पढालिखा-विद्वान या फिर सेलेब्रिटी-वीवीआईपी वगैरह होने में ? कह सकते हैं- अनिवार्यत: नहीं। ये सुख-साधन होने जैसा दृश्य तो बना सकते हैं, पर सुखी नहीं। ऐसी स्थितियों वाले अधिकांश लोग सदैव हंसते-मुस्कराते और ऐंठ -अकड कर चलते-बोलते दिख सकते हैं, पर उनके अंतस में सुखों का कितना सूखा है, यह वे ही जानते हैं।
हम देखते हैं कि कोई कितना प्रभावशाली-महत्वपूर्ण क्यों न हो , उसके लिए दुख न आए, सदैव सुख ही रहे ऐसा किमपि संभव नहीं होता। एक छूटा, दूसरा दुख मुंह बाए खडा रहता है। कभी कभी लगता है सुख केवल भुलावा-भ्रम है, दुख ही होता है। बचपना है, बडों की स्नेह छाया है। जवानी है , मन बहलाने के ढेरों साधन हैं। दोनों स्थितियों में सुख लग सकता है , पर आगे कितने दुख-दैत्य खडे इंतजार कर रहे हैं ,पता नहीं होता।
महात्मा कबीर को न सुख मिला था और न खोजने पर कोई सुखी। तभी तो उन्होंने कहा था-
जा दिन ते जिव जनमिया, कबहुं न पावा सुख
डालै डालै मैं फिरा, पातै पातै दुख।
सुखिया ढूंढत मैं फिरूं , सुखिया मिलै न कोय
जाके आगे दुख कहूं, पहिले उठै रोय ।
चाहने से सुख नहीं मिलता और न चाहने से दुख जाता नहीं। कई बार प्रारंभ में जो सुखदायी लगता है वह दुख का कारण बनता है। जैसे-अति बिषय भोग,व्यसन, शराब -सिगरेट व अन्य मादक पदार्थ और अयुक्त आहार-विहार आदि। दुख या दुखों का भी अपना एक सुख होता है। दोनों यावज्जीवन लगे रहते हैं। संयोग- वियोग में, सोने-जागने में, गरीबी-अमीरी में, खाने-पीने और उसके अपशिष्ट उत्सर्जन में।
दोनों महत्वपूर्ण हैं। दुख के साथ दर्द जुडा होता है और सुख का सजातीय आनंद है। दुख से सुख और दूसरें के दुख के महत्व का पता चलता है। संसार में सुख-दुख दोनों मिलते हैं, लेकिन सुख क्षणिक और आभासी लगता है। उसके साथ दुख भी लगा होता है। इसी लिए कहते हैं कि सुख पाना चाहते हो तो सुख बाटो। प्रेम बाटो। प्रेम सुख है। यही धर्म है। धर्म का फल सुख है। धर्मवान सुख पाता है। सुख देने में कोमलता रहती है और लेने में कठोरता। सुख पाने और देने का यह महत्वपूर्ण सूत्र लगभग सौ साल पहले अमेरिका में जब स्वामी राम तीर्थ ने बोला था तो सभागार तालियों से गूंज उठा था।
पुरुषार्थी दुख-दर्द से घबडाता नहीं। उनसे पार पाने के प्रयासों में वह बडे काम कर जाता है। साहित्य, संगीत, कला सृजन जीवनोपयोगी दर्शन -आविष्कार। कभी कभी शास्वत सुख की तलाश भी। किसी ने कहा है – ज्ञानी काटै ज्ञान से, मूरख काटै रोय। सामान्य और समझदार लोगों में यही अंतर है। विषय-विलासियों को दुख-सुख ज्यादा व्यापते हैं। पुरुषार्थियों को दुख के अनुभव का वक्त कहां ? गले में कैंसर के भयावह कष्ट से पीडित होने के बावजूद स्वामी राम कृष्ण परमहंस यथावत कीर्तन- ध्यान में लीन रहते थे।
मोटे तौर सुख सांसारिक और पारमार्थिक होता है। पहले में बिषय-काम सुख, नाम-अधिकार होने का सुख, सफलता- सम्पन्नता का सुख, पुत्र-पत्नी, रिश्ते-नातों समेत वे सभी सुख होते हैं जिनका संबंध संसार और शरीर से होता है। दूसरे में प्रेम, ज्ञान, मोक्ष, भक्ति, अर्निवचनीय,ब्रह्म सुख सत्संग सुख वगैरह आते हैं। इन सुखों में कहा जाता है कि दुखों से निवृत्ति हो जाती है। कहते है कि कर्तव्य कर्म करने ,परोपकार और धर्मपालन से सांसारिक और पारलौकिक दोनों सुख मिलते हैं। इसे स्वधर्म व रुचि के अनुरूप कार्य-वयवहार कर पाने का सुख भी कह सकते हैं। जैसे वीर फौजी के लिए युद्ध सुख और ज्ञानी -ध्यानी के लिए समाधि में जाने की स्थितियों का सुख।
सुख्ा-दुख का संबंध अनुकूलता-प्रतिकूलता से होता है। मनोनुकूल परिस्थिति आने पर सुख और प्रतिकूल परिस्थिति आने पर दुख भेग होता है। इन्हें मन का फेर या मनोगत भाव भी कह सकते हैं। विचारकों के अनुसार परिस्थितियों से अप्रभावित रहना- सम रहना सीख कर सुख-दुखों के भोग से बचा जा सकता है। सुखद हालत में पुण्य खर्च होते हैं और दुख में पाप कटते हैं। किसी को दुख देते हैं तो वह अपने पाप काटकर मुक्त हो रहा है, लेकिन हम अपने पाप बढा रहे हैं।इसी लिए – परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीडा सम नहिं अधमाई - कहा गया है।
दुख्ा-सुख भोग चेतन में ही होता है। जीव-जंतु, पेड-पौधे तक सभी इससे प्रभावित होते हैं। सदियों से मानव सुख-दुख की गुत्थी सुलझाने में लगा है। धर्म-दर्शन की उत्पत्ति का आधार यही गुत्थी है।धर्म ग्रंथों में सुख-दुख का गंभीर व विस्तृत विवेचन और मनोविज्ञान है। गीता , रामायण और कुरान तीनों एक मत हैं कि सांसारिक सुख क्षणिक हैं क्यों कि संसार मरणधर्मा और परिवर्तनशील है।
हम अनंत कामनाओं के साथ संसार सुख के लिए पागल रहते हैं, लेकिन बदले में दुख मिलता है।संसार में कुछ भी पूर्ण और स्थायी नहीं है। परिछिन्न व परिवर्तनशील से मन नहीं भरता, तृप्ति नहीं होती। हम भूख-प्यास, नींद, स्वास्थ्य व शारीरिक परिवर्तन और संतति वृद्धि आदि की प्राकृतिक आवश्यकताओं व सीमाओं में बंधे हुए हैं। ईश्वर किसी को सब कुछ नहीं देता। किसी को कुछ देता है तो बहुत कुछ नहीं देता जिसका दंश उसे सालता रहता है। यहां संतोषं परमं सुखम् का सूत्र काम आता है।
सुख और संतोष का बढा नजदीकी संबंध है। संतोष से सुख होता है। संतोष के बिना कामनायें नष्ट या नियंत्रित नहीं होतीं। कामनाओं के रहते सुख पास नहीं फटकता। बिनु संतोष न काम नसाहीं, काम अक्षत सुख सपनेहु नाहीं। श्रीमदभागवत का एक श्लोक है- सदा संतुष्टमन: सर्वा:सुखमयादिशा: …… जैसे पैरों में जूते पहन कर चलने वाले को कंकड- कांटों का कोई भय नहीं होता उसी तरह जिसके मन में संतोष है, उसके लिए सदैव सर्वत्र सुख ही सुख है, दुख नहीं। कुरान मजीद ने भी संतोष और धैर्य पर बडा जोर दिया है।
काम मोह-अज्ञान है और संतोष-संयम ज्ञान-भक्ित का फल। भजन-भक्ति से काम मिटता है- राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। रामायण कहती है कि जिसके हृदय में भक्ति मणि है उसे कभी दुख नहीं सताते।
राम भगति मनि उर बस जाके, दुख लवलेश न सपनेहु ताके। रामायण दुखों के तह तक जाती है। काक भुशुंडि पक्षिराज गरुड को दुखों को नष्ट करने का अपना निष्कर्ष बताते हैं- निज अनुभव अब कहहुं खगेसा, बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा। और भक्ति की लिए वृत्ति बदलनी पडेगी अन्यथा उसमें मन नहीं लगेगा। राम कहते हैं – पापवंत कर सहज सुभाऊ, भजन मोर तेहि भाव न काऊ। कुरान में संसार-सुखों का उपभोग करते हुए कभी खत्म न होने वाले स्वर्गिक सुखों की ओर ले जाने वाने मार्ग पर चलने पर जोर दिया गया है। यह रास्ता है-संयम, ज्ञान और ईशभक्ति का। बिखरे व अशिक्षित समाज को व्यवस्थित व अनुशासित करने का उद्देश्य होने से कुरान में संयम , सदाचार और नैतिकता पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। धर्मनिष्ठों के लिए बार बार ऐसे मोहक व दिव्य सुखों का वर्णन किया गया है कि सुखापेक्षी लोग सहज ही आकर्षित हों। इसके विपरीत अधार्मिकों के लिए भीषण नारकीय यातनाओं और दुखों का मिलना बताया गया है। कुरान कहता है कि संसार के सुखों का उपभोग करो, लेकिन संयम- परहेजगारी के साथ। उनमें फंसो- डूबो नहीं।
यही बात गोस्वामी जी रामायण में कहते हैं। काम का ऐसा कौशलपूर्ण उपभोग कि वह धर्म और अर्थ का विरोधी न हो, नहीं तो उससे लोक-परलोक दोनों बिगडते हैं। काम क्रोध मद लोभ सब नाथ परक के पंथ। रामायण के अनुसार धर्मात्मा इन्द्रियजयी ही वस्तुत: वैषयिक सुख भोग करने में भी समर्थ होता है- गुनातीत अरु भोग पुरंदर।
मूर्ख लोग सुख आने पर फूल जाते हैं और दुख आने पर विलाप करते हैं। समझदार दोनों में संयमित रहता है- सुख हरषहिं दुख जड बिलखाहीं, दोउ सम धीर धरहीं मन माहीं। दुख सत्संग से जाता और कहने से कम होता है- जामवंत अंगद दुख देखी, कही कथा उपदेस विसेषी। सीता हनुमान से कहती हैं- कहेहू ते कुछ दुख घटि जाई…।
भगवान राम ने संसार और मृत्युलोक दोनों में सुख पाने का सरल सूत्र बताया है। लंका विजय के बाद अयोध्या में हुई एक आम सभा में उन्हों ने सुख के लिए उनकी बातें सुन कर गांठ बांध लेने को कहा था-
जौ परलोक इहां सुख चहहू, सुनि मम बचन हृदय दृढ गहहू।
भगति पक्ष हठ नहिं सठताई, दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।
बैर न विग्रह आस न त्रासा, सुखमय ताहि सदा सब आसा।
भक्ति के प्रति तो आग्रह हो, लेकन दूसरे के मत का खंडन करे। जिसने सब कुतर्कों को बहा दिया हो, जिसके मन में किसी के प्रति लडाई -झगडा , आशा और भय आदि नहीं है उसके लिए सभी दिशायें सुख देने वाली हैं।
दुख व्यक्ति को तोडता , असामान्य बनाता है। विषाद, हताशा, निराशा, कुंठा और क्रोध लाता है। अपराध- अनाचार करा देता है। सुख बांधता है। आत्म प्रगति की ओर उन्मुख होने से रोकता है। अहंकार पैदा करता और बदले में अन्याय- अत्याचार करवा देता है। साधक सुग्रीव झटका लगने पर, सम्पत्ति, परिवार और प्रभुता के साथ ही (काम) सुख को भी भक्ति में बाधक बताते हैं-
सुख सम्पत्ति परिवार बडाई, सब तजि करिहउं तव सेवकाई।
ये सब राम भगति के बाधक , कहहिं संत तव पद आराधक।
रामायण दरिद्र को सबसे बडा दुख और संत मिलन को सब से बडा सुख बताती है।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं, संत मिलन सम सुख जग नाहीं।बिषयरत ब्यक्ति के लिए अर्थाभाव सबसे बडा दुख है। दरिद्र का अर्थ अज्ञान- मोह भी है जो सब दुखों की जड- मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला – है। मोहयुक्त धनवान ब्यक्ति भी दुखी रह सकता है । धनहीन भी सुखी रह सकता है और धनवान होकर भी दुखी रह सकता है।
कोई रोवै महल में , वन में गावै कोय, दुख सुख्ा तो बाहर नहीं मन ही में सब होय।
गीता दोनों स्थिति में सम रहने को कहती है। अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थिति ही हमें सुखी-दुखी बना कर बांधती है। कृष्ण प्रिय भक्तों के लक्षणों में ” सम दुखसुख:क्षमी ” कहते हैं। उन्हें सुख-दुख में सम रहने वाला क्षमाशील भक्त प्रिय है। सुख आता हुआ अच्छा और जाता हुआ बुरा लगता है। दुख आता हुआ बुरा और जाता हुआ अच्छा लगता है। इस लिए समान सोच रख कर कर्तव्य कर्म करना ही बुद्धिमत्ता है। गीता कहती है-शीतोष्णसुखदुखेषुसम:। सुख -दुख देने वाली अनुकूलता और प्रतिकूलता की परिस्थितियों से रहित नहीं रहा जा सकता। इस लिए कृष्ण अर्जुन से हानि -लाभ और जय-पराजय में समान रह कर युद्धरत होने को कहते हैं- लाभालाभौजयाजयो।
संतोष से समता आती है। समता से यानी राग-द्वेष मिटने पर सब कुछ भगवान ही हैं ( ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किंचितजगत्यांजगत -संसार में जो कुछ भी है सब में ईश्वर है- ईशोपनिषद और धरती से आकाशों तक में जो कुछ है सब का मालिक अल्लाह है-कुरान) ऐसा अनुभव हो जाता है। इस लिए भगवान भक्तों को समता देते हैं – ददामिबुद्धियोगम्। समता ही बुद्धियोग और कर्मयोग है – समत्वंयोग उच्यते।
जब तक राग-द्वेष रूपी द्वंद हैं तब तक दुख है। ईश्वर सुख स्वरूप-सुखपुंज है , इस लिए जीव स्वाभाविक रूप से सुख चाहता है। द्वंदों के रहते अनुपम ब्रह्म सुख की अनुभूति नहीं होती। राग-द्वेष संसार को महत्व देने से होते हैं। कुछ भी स्थायी न होने से संसार के राग-द्वेष भी नष्ट होने वाले हैं। लेकिन हम नये नये लोगों और वस्तुओं में इसे बनाये रखने का प्रयास करते हैं।
संतोष ही परम कल्याण है | संतोष ही परम सुख है | संतोषी को ही परम शांति प्राप्त होती है | संतोष के धनी कभी अशान्त नहीं होते | संसार का बड़े से बड़ा साम्राज्य-सुख भी उनके लिये तुच्छ तिनके के समान होता है | विषम-से-विषम परिस्थिती में भी संतोषी पुरुष क्षुब्ध नहीं होता | सांसारिक भोग-सामग्री उसे विष के समान जान पड़ती है | संतोषामृत की मिठास के सामने स्वर्गीय अमृत का उमडता हुआ समुद्र भी फीका पड जाता है |जिसे अप्राप्त की इच्छा नहीं है, जो कुछ प्राप्त हो उसी में जो समभाव से संतुष्ट है, जगत के सुख-दुःख उसका स्पर्श नहीं कर सकते | जब तक अन्त:करण संतोष की सुधा-धारा से परिपूर्ण नहीं होता तभी तक संसार की सभी विपत्तियां है | संतोषी चित्त निरंतर प्रफुल्लित रहता है , इसलिये उसी में ज्ञान का उदय होता है | संतोषी पुरुष के मुख पर एक अलोकिक ज्योति जगमगाती रहती है, इससे उसको देखकर दुखी पुरुष के मुख पर भी प्रसन्नता आ जाती है | संतोषी पुरुष की सेवा में स्वर्गीय-सम्पतिँया, विभूतियाँ, देवता, पितर और ऋषि-मुनि अपने को धन्य मानते है | भक्ति से, ज्ञान से, वैराग्य से अथवा किसी भी प्रकार से संतोष का सम्पादन अवश्य करना चाहिये |
Very nice thoughts!
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