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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Friday, May 9, 2014

महाशक्ति ध्यानम्



महाशक्ति ध्यानम् 

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभेतेषु चेतनेत्यभिधीयते। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥
 

शैलपुत्री साधना- भौतिक एवं आध्यात्मिक इच्छा पूर्ति।
ब्रहा्रचारिणी साधना- विजय एवं आरोग्य की प्राप्ति।
चंद्रघण्टा साधना- पाप-ताप व बाधाओं से मुक्ति हेतु।
कूष्माण्डा साधना- आयु, यश, बल व ऐश्वर्य की प्राप्ति।
स्कंद साधना- कुंठा, कलह एवं द्वेष से मुक्ति।
कात्यायनी साधना- धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा भय नाशक।
कालरात्रि साधना- व्यापार/रोजगार/सर्विस संबधी इच्छा पूर्ति।
महागौरी साधना- मनपसंद जीवन साथी व शीघ्र विवाह के लिए।
सिद्धिदात्री साधना- समस्त साधनाओं में सिद्ध व मनोरथ पूर्ति। 

'हे नाथ' ! पुकार की महिमा

॥श्रीहरि:॥
नित्य प्रार्थना

कर प्रणाम तेरे चरणोंमें लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करनेको आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज॥
अन्तरमें स्थित रहकर मेरे बागडोर पकड़े रहना ।
निपट निरंकुश चंचल मनको सावधान करते रहना॥
अन्तर्यामीको अन्त:स्थित देख सशंकित होवे मन।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाजसे वह जल-भुन॥
जीवोंका कलरव जो दिनभर सुननेमें मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे॥
तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तरभर मिलूँ सभीसे तुझे निहार ॥
प्रतिपल निज इन्द्रियसमूहसे जो कुछ भी आचार करुँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस तेरा ही व्यवहार करुँ ॥

'गीता' - भगवान्‌ का गीत. सारे शास्त्रों का सार वेद है, वेदों का सार उपनिषद है और उपनिषदों का सार गीता है।
'प्रपन्न' - समर्पण। गीता का सार शरणागति।
'परिवार' - जिन्होंने भी गीता का जाने या अनजाने में शरण लिया है वे इस परिवार के सदस्य है।
गीता के प्रचार की बात कल कही ही थी। भगवान्‌ ने भी गीता में कहा है कि -

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति। भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः। भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥ (गीता १८:६८-६९)


जब मैंने गीता पढ़ी और ये श्लोक पढ़े तो उनका मेरे ऊपर बड़ा असर पड़ा कि भगवान्‌ को इसका प्रचार बहुत प्रिय है और इसके प्रचार करने की बात मेरे दिल में आयी। अतः आप लोगों को भी भगवान्‌ की भक्ति करते हुए यथाशक्ति गीता के प्रचार की चेष्टा करनी चाहिये।

गीता:
गीताजी का एक श्लोक पढ़कर भी अपना जीवन बना ले तो बेड़ा पार है। गीताजी में बताया 'न जायते म्रियते ...' (२।२०) आत्मा का नाश नहीं होता, इस बात का हमें ज्ञान हो जाय, फिर चाहे तोप के बाँध दो, न बम का भय न तोप का भय। एक श्लोक को भी समझ ले तो निर्भय हो सकते है। निर्भयता नहीं आई तो समझे नहीं। समझे कैसे? पाठ करते रहो। कोई न कोई समझानेवाला मिल ही जायेगा।

गीता का उपदेश ऐसा उपदेश है कि सूखे लकड़े को सुनाया जाय तो वो भी हरा भरा हो जाय। युद्ध में सेनापति होता है, वो जिस प्रकार संकेत करता रहता है, उसके संकेत के अनुसार सब चेष्टा करते रहते हैं, मृत्यु की भी परवाह नहीं करते। इसी प्रकार गीता भगवान्‌ के वचन हैं, उनके संकेत के माफिक हम चलें तो हमारी विजय में कोई शंका नहीं है। निश्चय हमारी विजय है। उस विजय में तो शंका भी है, पर यह भगवद्‌ क आदेश है, यह धर्म युद्ध है - इस विजय में शंका नहीं है।

युद्ध में भीम और अर्जुन की घोषना सुनकर - जो कायर थे, वो भी झूझने लग जाते थे, वीरता का वीर चढ़ जाता, उससे नाचने लग जाते मरने के लिये। जैसे युद्ध में उत्तेजना पैदा करने के लिये अर्जुन और भीम की घोषना है, इसी प्रकार काम-क्रोध भटों को मटियामेट करने के वास्ते भगवान्‌ की यह गीता रूपी घोषणा है। वो बहुत कम मूल्य में हमें मिल रही है। इसपर भी हम भगवत्‌ प्राप्ति से वंचित रह गये तो हमारा जीवन व्यर्थ है।

उद्देश्य:

जितने महात्मा हुए उन्होंने हजारों लाखो का कल्याण किया पर उनसे भी बढ़कर मनुष्य हो सकता है। जबतक हमनें यावन्मात्र जीवों का कल्याण नहीं किया, तबतक क्या किया? यह अपना उद्देश्य बनाना चाहिये।

शंकरजी का ऐसा नियम है कि काशी में जो मरता हैं उसकी मुक्ति होती है। पर हम तो ऐसा करे कि कहीं भी कोई मरे, सबकी मुक्ति होवे। असम्भव क्या है? असम्भव कुछ भी नहीं है। जानवर भी असम्भव को सम्भव कर लेता है। फिर हमारे लिये क्या कठिन है। एक पक्षी था - समुद्र किनारे अण्डे दिये, समुद्र बहा के ले गया। अब चोचों से जल बाहर निकालने लगे। उन्होंने भी अपने दृढ़ निश्चय के कारण समुद्र से अण्डे बाहर निकलवा लिये। हमारी बात तो ऐसी असम्भव भी नहीं है। यह तो सम्भव है। हमें तो ध्येय रखना चाहिये कि सब के साथ ही हमारा कल्याण हो।

ध्येय रखकर .... हीरा और काँच में क्या भेद है? ऐरण के अंदर घुस जायगा तो हीरा है और टूट जायगा तो काँच है। सोना जलने का नहीं, हीरा फूटने का नहीं। इसी प्रकार जो चीज नाश होती है उसे छॊड़ दो। अपना समय किस काम में बिताना चाहिये जो नित्य वस्तु है। सोने की पहचान है - आग में तपाओ कमती नहीं होता तो ठीक है। इसके लिये क्या कसौटी है? 'नासतो विद्यते भावो'।

गीता क अच्छी तरह ज्ञान हो जाना चाहिये। इतना नहीं तो शब्दार्थ तो हो जाय। इतना नहीं तो बारह अध्याय, यह भी नहीं तो छ: अध्याय। यह भी न हो तो तीन ही अध्याय। नहीं तो कम से कम एक अध्याय क पाठ तो रोज होना ही चाहिये। इतना भी न हो सके तो तीन श्लोक तो बालकों को याद कराना चाहिये। उस पर फिर पाश्चात्य शिक्षा क विष नहीं चढ़ सकता।

गीता साक्षात अमृत है। अमृत पिला दो फिर विष का असर हो ही नहीं सकता। फिर मृत्यु नहीं होती। जन्म मरण से छूट जाता है।

संसार में सारी गीता का नहीं तो तीन श्लोक का तो प्रचार करना ही सारे भाईयों को प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये। सारे धर्म आचरण इनमे में कूट कूट कर भर दिया है।

न जायते म्रियते वा कदाचिन नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ गीता २/२०॥


इस एक श्लोक का जिसे ज्ञान हो जाता है वह फिर मुक्त हो जाता है। फिर वह न तोप से डरता है न आग से डरता है। मैं सर्वकाल में अपनी अखण्डता में स्तिथ हूँ । मैं करता-कराता कुछ नहीं हूँ ।

मेरा कुछ नहीं हैं ।

मुझे कुछ नहीं चाहिये ।

मैं कुछ नहीं हूँ, केवल परमात्मा ही हैं ।

सर्वसमर्थ प्रभु मेरे अपने हैं ।

एक सत्ता के सिवाय और कुछ है ही नहीं । उस सत्ता में मैं-तू-यह-वह लग ही नहीं सकते

जिन्हें अहम्‌ को अभिमान शून्य रखना अभीष्ट होता है, वे आत्म ख्याति से बच कर रहते है ।

जो जीवन का सत्य है, उसे व्यक्ति के माध्यम से प्रकट करना उसका मूल्य घटाना है ।

जिन्होंने परम प्रमास्पद की सत्ता से भिन्न अपना अस्तित्व ही नहीं रखा, वे अपने नाम से कोई बात कैसे कह सकते हैं ? उन्होंने अपनी विशेषता मानने की भूल कभी नहीं की ।

शरीर विश्व के काम आ जाय, अहम्‌ अभिमान शून्य हो जाय और हृदय परम प्रेम से परिपूर्ण हो जाय ।

जो मौजूद में आस्था रखता हो, मिले हुए का सदुपयोग करता हो, दुरुपयोग न करता हो और देखे हुए की कामना न रखता हो, वह स्वाधीन हो जाता है ।

पूर्ण आस्तिकता यह है कि जगत्‍ और परमात्मा का विभाजन कभी हुआ ही नहीं । जिसका विभाजन हो जाय, उसका अस्तित्व ही नहीं है ।

भगवान्‌ कोई है या कुछ है जिन्हें हम में से कई जानते है, कईयों ने देखा है, कईयों ने सुना है, कईयों ने छुआ है, सूँघा है और चखा भी है। कई उनमें विश्वास भी करते है।

इस कार्य में हमारे प्रेरक और मार्गदर्शक केवल भगवान्‌ और उन्के सच्चे भक्त है। जिनके नियम और सिद्धान्त हमें इस कार्य में प्रेरित और मार्गदर्शन कर रहे है वे है - श्री जयदयालजी गोयन्दका (सेठजी) श्री हनुमानप्रसादजी पोद्दार (भाईजी) और स्वामी रामसुखदासजी (स्वामीजी)

इन महापुरुषों का कोई परिचय की आवश्यक्ता नही है और हमारे द्वारा इसका प्रयास करना हमारी मूर्खता ही होगी। इन्के जीवन के नियमों और उद्देश्य का पालन ही हमरा ध्येय है। इनका जीवन केवल मनुष्यमात्र के हित और कल्याण के लिये ही बीता।

इस परिवार का सदस्य होने के लिये आपको पहले ये स्वीकार करना पड़ेगा कि आप केवल भगवान्‌ के एक सेवक है (चाहे आप उन्हें जिस किसी नाम से पुकारे)और नही तो कम से कम आप उनके हाथों के एक यन्त्र बनना चाहते है। श्रद्धेय सेठजी, भाईजी और स्वामीजी की वाणी और अनुभव के आधार पर आप अगर इसको (इस उद्देश्यको) एक बार भी सरल हृदय से स्वीकार कर लेते है तो भगवान्‌ खुले हाथों से आपका अपने परिवार में स्वागत करते है।

वे आपका स्वागत करने के मौके के लिये इन्तजार कर रहे है - और वो मौका अभी आपके सामने है।

उनके परिवार के संसार में प्रवेश करने के लिये आपको केवल नीचे ये लिखना है कि 'मैं केवल आपका होना चाहता हूँ'। हमें पूर्ण विश्वास है कि आप निराश नहीं होंगे और भगवान्‌ की कृपा से आपका जीवन अच्छे के लिये अवश्य बदलेगा।

'हे नाथ' ! पुकार की महिमा

'मेरे नाथ' - इसका प्रादुर्भाव हुआ था उदयपुर में । एक दु:खी प्राणी या दु:खी साधक को देखकर यह उदित हुआ । 'मेरे नाथ' - आप मेरे हैं, इसलिये प्यारे है । 'नाथ' पद का प्रयोग मालूम है किसके लिये किया जाता है ? जो रक्षक हो और समर्थ हो ।

'मेरे नाथ' वाक्य से जो बोधार्थ नि:सृत होगा, उसके तीन रूप होंगे - प्रियता, निश्चिन्तता और निर्भयता । यदि किसी भाई या बहिन के जीवन में निश्चिन्तता और निर्भयता है तो आप ही बताइये, इससे ऊँचा जीवन और क्या हो सकता है ? परन्तु ध्यान रहे, यह निश्चिन्तता और निर्भयता नासमझी से भी होती है, और बेशर्माई से भी होती है । बेशर्माई से जो होती है, उसमें प्रियता नहीं होती, उसमें सुखासक्ति होती है । इसलिये निश्चिन्तता और निर्भयता से पहले प्रियता अपेक्षित है ।



मैं तो लोगो से कहता हूँ कि यदि तुम्हारे दिल में घबराहट हो और उस घड़ी कहीं तुम्हारे लबपर आ जाय - 'मेरे नाथ !' तो आप सच मानिये, आपकी घबराहट नाश हो जायगी । उस क्षण यदि आपको याद आ जाय कि आप अनाथ नहीं, सनाथ हैं तो भय कैसे निवास करेगा ? भय तो अनाथ के जीवन में निवास करता है । जो सनाथ है, उसके जीवन में भय कहाँ से आयेगा ? उसके जीवन में नीरसता कहाँ से आयेगी ? वह असमर्थता से पीड़ित क्यों होगा ? असमर्थता से पीड़ित वही होगा, जो अनाथ है । नन्हा-सा बालक अपनी माँ की गोद में क्या असमर्थता का अनुभव करता है ?

- जीवन दर्शन

'मेरे नाथ' से सुन्दर शब्द अपनी भाषा में नहीं हैं ।
स्वामी शरणानन्दजी
राम राम
हे नाथ! हे मेरे नाथ! - सब मन्त्रों का महामन्त्र - थोड़ी थोड़ी देर में कहते रहे - हे नाथ! हे मेरे नाथ!!
राम राम
॥श्रीहरि:॥

गीता का अर्थ जान लेने पर समस्त पुरुषार्थोंकी सिद्धी होती है - आदि शंकराचार्य
गीता उपनिषदों से चुने हुए आध्यात्मिक सत्योंके सुन्दर पुष्पोंका गुच्छा है - स्वामी विवेकानन्द
गीतसे मैं शोक में भी मुस्कुराने लगता हूँ - महात्मा गाँधी
मेरी अंतिम प्रार्थना यही है कि हर व्यक्ति बिना किसी अपवादके अपने जीवन के प्रारम्भिक क्षणों में ही गीता में दी हुई गृहस्थ धर्मकी शिक्षा भलीभाति सीख ले - बालगंगाधर तिलक
हर एक दर्शन के अलग-अलग अधिकारी होते है, पर गीता की यह विलक्षणता है कि अपना उद्धार चाहने वाले सबके सब इसके अधिकारी है - स्वामी रामसुखदासजी
गीता सार
१. सांसारिक मोह के कारण ही, मनुष्य 'मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ' - इस दुविधा में फँसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है। अतः मोह या सुखासक्ति के वशीभूत नहीं होना चाहिये।
२. शरीर नाशवान है और उसे जाननेवाला शरीरी अविनाशी है - इस विवेक को महत्त्व देना और अपने कर्तव्य का पालन करना - इन दोनों में से किसी भी एक उपाय को काम में लाने से चिन्ता-शोक मिट जाते हैं।
३. निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरों के हित के लिये अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करनेमात्र से कल्याण हो जाता है।
४. कर्मबन्धन से छूटने के दो उपाय हैं - कर्मों के तत्त्व को जानकर निःस्वार्थभाव से कर्म करना और तत्त्वज्ञान का अनुभव करना।
५. मनुष्य को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के आनेपर सुखी-दुःखी नहीं होना चाहिये; क्योंकि इनसे सुखी-दुःखी होनेवाला मनुष्य संसार से ऊँचा उठकर परम आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता।
६. किसी भी साधन से अन्तःकरण में समता आनी चाहिये। समता आये बिना मनुष्य सर्वथा निर्विकार नहीं हो सकता।
७. सब कुछ भगवान्‌ ही हैं - ऐसा स्वीकार कर लेना सर्वश्रेष्ठ साधन है।
८. अन्तकालीन चिन्तन के अनुसार ही जीव की गति होती है। अतः मनुष्य को हरदम भगवान्‌ का स्मरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करना चाहोये, जिससे अन्तकाल में भगवान्‌ की स्मृति बनी रहे।
९. सभी मनुष्य भगवत्प्राप्ति के अधिकारी हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, देश, वेश आदि के क्यों न हो।
१०. संसार में जहाँ भी विलक्षणता, विशेषता, सुन्दरता, महत्ता, विद्वत्ता आदि दीखे, उसको भगवान्‌ का ही मानकर भगवान्‌ का ही चिन्तन करना चाहिये।
११. इस जगत‌ को भगवान्‌ का ही स्वरूप मानकर प्रत्येक मनुष्य भगवान्‌ के विराट्‌रूप के दर्शन कर सकता है।
१२. जो भक्त शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने आप को भगवान्‌ के अर्पण कर देता है, वह भगवान्‌ को प्रिय होता है।
१३. संसार में एक परमात्मतत्त्व ही जाननेयोग्य है। उसको जाननेपर अमरता की प्राप्ति हो जाती है।

१४. संसार-बन्धन से छूटने के लिये सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणों से अतीत होना जरूरी है। अनन्य-भक्ति से मनुष्य इन तीनों गुणों से अतीत हो सकता है।
१५. इस संसार का मूल आधार और अत्यन्त श्रेष्ठ परमपुरुष एक परमात्मा ही हैं - ऐसा मानकर अनन्यभाव से उनका भजन करना चाहिये।
१६. दुर्गुण-दुराचारों से ही मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकों में जाता है और दुःख पाता है। अतः जन्म-मरण के चक्कर से छूटने के लिये दुर्गुण-दुराचारों का त्याग करना आवश्यक है।
१७. मनुष्य श्रद्धापूर्वक जो भी शुभ कार्य करे उसको भगवान्‌ का स्मरण करके, उनके नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ करना चाहिये।
१८. सब ग्रन्थों का सार वेद हैं, वेदों का सार उपनिशद्‌ हैं, उपनिषदों का सार भगवान्‌ की शरणागति है। जो अनन्यभाव से भगवान्‌ की शरण हो जाता है, उसे भगवान्‌ सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर देते हैं।
- ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज के गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित गीता-साधक-संजीवनी ग्रन्थ के आधार पर।

॥श्रीहरि:॥


गीता भगवान्‌का स्वरूप ही है। गीता को साक्षात्‌ भगवान्‌ मान लेवे और गीता के स्पर्श, दर्शन से भगवान्‌का स्पर्श, दर्शन माने तो फिर शीघ्र ही कल्याण हो जाता है। गीता भगवान्‌का श्वास है और भगवान्‌के प्राण है। गीता भगवान्‌ की वाङ्‌मयी मूर्ति है। गीता के पाठ में भगवान्‌की वाणी सुनने का सा प्रेम होना चाहिये। भाव की कमी के कारण लाभ से वंचित हो जाते है। भाव से मन लगाकर पाठ करने से हजारों गुणा अधिक लाभ हो सकता है।
- श्रद्धेय श्री जयदयालजी गोयन्दका
धुन १:
हे नाथ! हे प्रभु! हे मेरे प्रभु! हे मेरे नाथ!
ये पुकारो सच्चे हृदय से। सब बन्धन टूट जायेगा - सब ठीक हो जायेगा। और मैं भगवान्‌ का हूँ और भगवान्‌ मेरे है। सिवाय भगवान्‌ का मेरा कोई नहीं है। मेरा कोई नहीं है, मैं और किसी का नहीं हूँ, केवल भगवान्‌ का हूँ और भगवान्‌ ही केवल मेरे है।
ये खास बात है। ये हमारे खोज की खास बात है। मैं भगवान्‌ का हूँ भगवान्‌ मेरे है।
और कोई मेरा नहीं है और मैं किसी क ही नहीं हूँ।
मैं केवल भगवान्‌ का हूँ केवल भगवान्‌ मेरे है।
धुन २:
राम राम राम
धुन ३:
कम से कम इतनी बात तो मान लो - भगवान‌ से पुकारते रहो एकान्त में - हे नाथ! हे मेरे नाथ! मैं भूलूँ नहीं! यूं कहते रहो।
हे नाथ! भूलूँ नहीं! हे नाथ! हे मेरे प्रभु। हे मेरे नाथ! कहो।
आप गए गुजरे है, आचरण आपके अच्छे नहीं है, सब ठीक हो जायेंगे। कुसंग हो जाये - हे नाथ। पाप बन जाये - हे नाथ। हे प्रभु। कृपा करो नाथ। बचाओ नाथ बचाओ। बचाएँगे - भगवान्‌ बचाएँगे।
ये मामूली बात है - परन्तु भगवान्‌ के साथ सम्बन्ध रहेगा वक्त पर चेत हो जायेगा - रस्ते पर आ ही जाओगे। फायदा होगा, होगा, होगा।
हम भगवान्‌ के है - हम भगवान्‌ के है - भगवान्‌ हमारे है। हे नाथ मैं भूलूँ नहीं! हे प्रभु मैं भूलूँ नहीं।
ये दामी बात है - बहुत श्रेष्ठ बात है - ऐसी कृपा करो नाथ मैं भूलूँ नहीं।
हे नाथ। हे कृपानाथ। हे मेरे प्रभु - हे मेरे प्रभु। मैं भूलूँ नहीं। अपना उद्योग उतना काम नहीं आता जितना भगवान्‌ का सहारा काम करता है।
और सहारा भी क्या - हृदय से कहते रहो हे नाथ भूलूँ नहीं। केवल इतनी सी बात है।
बहुत लाभ की बात है।
धुन ४:

राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम।
सुनने में आनन्द आवे। ऐसा प्रेम से।
सीता राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम। सीता राम।
एक एक नाम में रस आता रहे।
सीता राम। सीता राम। सीता राम।
धुन ५:
हे नाथ। हे नाथ। जहा कोई आफत आवे और अपने बल से काम न चले वहा प्रबल को पुकारो। हे नाथ। हे नाथ। हे नाथ। पुकारो।
देखो भाई - सब प्रश्नों का असली उत्तर है - हे नाथ - हे प्रभु - हे प्रभु - हे मेरे नाथ - हे मेरे प्रभु। पुकारो।
सब जितनी आफत है सब सब मिट जायेगी। एक दवाई राम बाण दवाई है ये। हे प्रभु। हे मेरे प्रभु। हे मेरे नाथ। हे मेरे प्रभु। हे भगवन्‌। हे मेरे नाथ।
पुकार के तो देखो। कर के देखो। होता है की नहीं होता है। नहीं होता हो तो फिर कान पकड़ो मेरा कि तुमने बताया नहीं हुआ महाराज। हे नाथ हे नाथ पुकारो। भगवान्‌ को पुकारो।
धुन ६:
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे

धुन ७:
हे नाथ भूलूँ नहीं। हे नाथ हे नाथ मैं भूलूँ नहीं।
राम राम राम राम राम राम ...... हरदम करो हरदम। हे नाथ हे नाथ मैं भूलूँ नहीं।

दो चार मिनट हो जाये फिर कह दो हे नाथ भूलूँ नहीं - दस मिनट हो गया अरे गजब हो गया। हे नाथ दस मिनट चला गया - राम राम राम राम - भूलूँ नहीं - राम राम राम राम राम राम राम...
अब भगवान्‌ को याद करो - हे नाथ - हे नाथ - मैं भूलूँ नहीं - हे नाथ मैं भूलूँ नहीं - हे नाथ मैं भूलूँ नहीं। सच्चे हृदय से - हे नाथ हे नाथ मैं भूलूँ नहीं।
ये ही कहना है आप से। कृपा करोगे ना? करोगे? कृपा करो। सच्चे हृदय से।
धुन ८:
हरि शरणम्‌ हरि शरणम्‌ हरि शरणम्‌ हरि शरणम्‌
हरि शरणम्‌ हरि शरणम्‌ हरि शरणम्‌ हरि शरणम्‌

धुन ९:
हे नाथ। हे नाथ मैं भूलूँ नहीं। हे नाथ। हे प्रभु। हे मेरे प्रभु। हे मेरे नाथ। आपको भूलूँ नहीं हरदम कहते रहो हे नाथ भूलूँ नहीं। हे नाथ। आपको भूलूँ नहीं। परन्तु छोड़ना नहीं।

गंगास्नान, साधूदर्शन खूब आनन्द ही आनन्द हो रहा है। ऐसी जगह भी भाग्य से ही मिले है। सेवा भजन ध्यान - तीर्थ ये सब धन है। इस धन को लेजाकर धन से धन बढ़ावे। खूब साधन करनो।

मनुष्य के जन्म में इसो समय भाग्य से ही मिल है। पद पद में दया भरी पड़ी है। मानव शरीर भारत भूमि में जन्म, ये जाति, ऎसी जगह मिलनी, फिर भजन में प्रवृति, ऎसो मोको भोत कम मिल है। प्रभु कहते है हज़ारों में कोई एक यत्न करता है। यत्न करने वालों की गिनती में तो आप लोग भी आगये हैं, प्रभु के दर्शन भी कभी ना कभी हो जायेंगे।

संसार के विषय भोग विष हैं। विष खाने से तो एक बार मरता है। विषय भोगने से लाखों बार जीना मरना पड़ता है। जो भगवान के भजन रूपी अमृत को छोड़कर विषयों में रमता है वह गले में फांसी लेकर मरता है।

अत: अमृत तत्व की प्राप्ति के लिये रात दिन तत्पर होकर भजन साधन करना चाहिये। फिर सारा संसार मट्टी के समान लगेगा। रसहीन हो जायेगा। इसलिये सब तरफ से मन को हटाकर रात दिन ध्यान मे मुग्ध होकर समय बिताना चाहिये। सारी दुनिया में प्रभु का स्वरूप फैला हुआ है उसी में तन्मय हो जाना चाहिये।

न्याय को दो पैसे अच्छे, अन्याय के लाखों पैसे अच्छे नहीं। अत: न्याय से ही द्र्व्य कमाना चाहिये। पहले अपनी दुकान काशी बनानी चाहिये। घर तो पीछे काशी बनेगा। काशी का मतलब यही है की वहाँ मरने से मुक्ति हो जाती है।

पति ने जिमावे वैसे ही सब घरवालों को एक जैसी रसोई जिमावे। हाँ, बाहर वाला ने एक नम्बर खुवाकर आप बची खुची खावे तो और भी उत्तम बात है। उसका घर समझो काशी है। बचे हुए अन्न के पानी में नेवला लोटपोट हुआ, आधा शरीर सोना का हो गया। जो वहां जीमता है वह पवित्र हो जाता है। वह घर काशी के समान है।

जैसे बनिया ग्राहक को देखकर प्रसन्न होता है वैसे अतिथियों को देखकर प्रसन्न होवे। ईश्वर समझकर उनकी सेवा पूजा करें और समझें की असली लाभ आज हुआ है।

काम में आगाड़ी, भोगों में पिछाड़ी। खाने पहनने की चीजें शेष में जो बच जाये उसे आप लेले। वह प्रसाद है। बचाया हुआ अन्न विषाद है।

जगज्जननी - कंचन, कामिनी, धन रूप में, आकार में आ गई - ये सब साक्षात भगवती का रूप है। शरीर निर्वाह मात्र जो इनसे काम लेता है वह पार हो जाता है और जो अधिक भोग करता है वह डूब जाता है। सारे विषयों का जो उपभोग करते है उनकी दशा कही नहीं जा सकती। सारे वृक्ष, खड़े हैं, ये भोगी थे - नहीं तो इनकी यह दशा नहीं होती। इसलिये कहते हैं चेत करो - पर आप कहते हैं देखा जायेगा। अभी तो खाओ पीवो मौज करो।

तीनों लोक ही हमारा स्वदेश है। देश ही हमारा स्वदेश है यह तो बहुत छोटी बात है। प्रथम तो हमको अपने नज़दीक वालों की सेवा करके आगे बढ़ना चाहिये। विशेष बात यही है कि जिस देश में आपत्ति हो उसकी ही सेवा करनी चाहिये। पृथ्वी से बढ़कर चन्द्र लोक में आपत्ति होतो उनकी सेवा करना। असली तो यही है सारे ब्रह्माण्ड की सेवा करना।

एक परमात्मा के सिवाय सब कुछ उड़ा दो। याही कोशिश करो कि म्हारो सारो समय परमात्मा में ही लागे। या शर्त करो। प्राप्ति की जरूरत ही मत राखो। फिर आप ही प्राप्ति हो गयी।

अपने तो भगवान का निरन्तर चिन्तन स्मरण चालू रखना चाहिये और सात पाँच की जरूरत नहीं। अपने तो भगवान का निरन्तर स्मरण जल्दी चालू करलो। शरीर का कुछ पता नहीं कब शान्त हो जाय।

सकाम निष्काम नामजप सत्संग कोई बात की शर्त नहीं। केवल शर्त याही कि एक परमात्मा को लक्ष्य नहीं छूटे।

जिसके मरने पर सारे लोग खुश होते हैं वह नरक में गया। जिसके जाने से रोते है वह मानो स्वर्ग में गया। उसको सोचना चाहिये - शरीर की तो राख होने वाली है, इससे काम लेना चाहिये।

ईश्वर ने शरीर दिया है तो दूसरों का उपकार करना चाहिये। ईश्वर आपकी परीक्षा ले रहा है। आप उत्तीर्ण हो जाऒगे तो बड़ा राज्य दे दिया जायेगा। हम छोटे गृह्स्थ को न्यायपूर्वक नहीं चला सकते। आशा ईश्वर प्राप्ति की रखते हैं।

यही निश्चय करना चाहिये कि हमलोग रात दिन भगवान का भजन ध्यान कीर्तन करते रहें। गीता भवन में जिनका परम भाग्य है उनका यहाँ रहना होता है। हे प्रभु हे दीनबन्धु, हम लोगों को ऎसा समय कब मिलेगा कि रात दिन आपका गुण गाते हुए, भजन ध्यान करते हुए इस जगह वास करे।

सब कामा ने भगवान का काम समझना, भगवान का भजन ध्यान ने आपना काम समझना।

सहने की शक्ति खूब बढ़ावे। पाँच पाँच आदमी आपनी भूल बताव जकीन खूब राजी से स्वीकार कर लेवे। जठे ताईं भूल मंजूर करने की गुन्जाइश हो वहाँ तक स्वीकार कर लेवे। यदि कुछ सहने लायक नहीं हो तो चुप रह जावे।

मनुष्य को अपनी जवानी का विशेष ख्याल राखनी चाये। उसको बहुत नुकसान होवे। प्रभु हैं। तो उससे विष समान वचन क्यों बोलना चाहिये। ऎसे वचन बोलना चाहिये जो उद्वेग कारक नहीं। सत्य, हितप्रिय वाक्य बोलना चाहिये।

हमलोगों को गीता को रोम रोम में समाना चाहिये। हमलोगों को ऎसा अभ्यास करना चाहिये, सनीपात में बहके तो गीता बहके। हनुमानजी के माफ़िक, शरीर चीरने में राम राम। हमलोगों के रोम रोम से गीता ही निकले।

अपने द्वारा जो आज्ञा को पालन होय रयो है, वह भगवान की दया से हो रयो है। इससे भोत प्रसन्न होवे। महात्मा की तेरे पर बड़ी दया है - तेरे से यो काम लेवे है।

राग द्वेष से ही पुण्य पाप होवे। सगला राग द्वेष से दुख है। कोई ठोको पीटो, इसका उसके कुछ दुख नहीं होवे। ऎसे ही जिसके राग द्वेष नहीं है उसके दुख सुख नहीं होवेगो।

सर्वधर्मान को योभी अर्थ ले लेवे कि मेरो कोही एक चिन्तन कर। चाहे और धर्मों का पालन हो ही नहीं तो कोई आपत्ति नहीं। उसके तो केवल इतना ही लागू पड़े है कि एक परमात्मा ने याद रखनो।

सारो ब्रह्माण्ड दीखे है, उस सबने भगवान समझ लो। भेदभाव उठालो। दीखे सो भगवान, बोले सो भगवान, सुने सो भगवान। कोई भी एक भी मान लेवे तो भी काम हो जावे।

इस जगत में मनुष्य जन्म लेकर स्वार्थ रखकर काम करना लोहा खरीदना है। स्वार्थ न रखकर प्रभु के अर्पण कर देना पारस को लोहे को छुवाकर सोना बनाना है।

संसार में द्वेष आसक्ति से रहित भक्त मुझे पाता है। पर एक आदमी से द्वेष रखता है। वह मुझे नहीं प्राप्त होता। एक मनुष्य सारे शरीर को चंदन से लीपता है, फूल चढ़ाता है, पर एक अँगूली काटता है तो उससे क्या संतोष होगा? किसी से भी द्वेष करना प्रभु की अँगूली काटना है। ऐसे सोचकर किसी से द्वेष नहीं करना।

किसी से वैर हो तो जलदी समाप्त कर देना चाहिये। जिस-किस प्रकार हो, जाकर माफी माँग लेना चाहिये। जैसे भी हो वैर को समाप्त कर देना चाहिये। वैर ही जनम देने वाला है। वैर लेकर संसार में मरोगे तो दान, जप, तप - कुछ भी करो, निश्चय घोर संसार में जाओगे।

यहा से तो जाकर यथा शक्ति नियमों को पालने की चेष्ठा करनी चाहिये। एकान्त में जो ध्यान करते है उसे खूब ठीक बिताना चाहिये। एक घण्टा को अच्छी तरह से बिताने से सौ वर्ष का काम एक वर्ष दे सकता है।

गीता का खूब मन्थन करना चाहिये। उससे अमृत निकालना चाहिये। उसका पान करने से प्राप्ति हो जाती है। खूब प्रेम में मुग्ध होकर शान्ति पूर्वक ताल, राग सहित श्लोक पढ़कर, अर्थ समझकर, ध्यान करते हुए पाठ करना चाहिये।
प्रेम, भजन, सेवा - इनकी रक्षा करनी चाहिये। इनका बहुत ही उँचा दर्जा है। आपा तो छदाम भी कोनी समझा। गाजर माफिक बेचां हां। इससे बढ़कर चीज नहीं है। या समझो तभी आनन्द आवे। एक तरफ त्रिलोकी को राज्य, दूसरी तरफ एक भगवन्नाम।
घहना करा देवे तो खुषी हो जावे, तो घर में भगवन्नामोच्चारण कर लेवे तो कितनो आनन्द होनो चाहिये। नम को तो वर्षा बरसे तो आपा तो करोड़पति हो गया।
सेवा करता रहे, मुग्ध होता रहे। मानो रत्नों की वर्षा हो रही है। भजन सेवा है, सच्चो धन है। परम धाम में तो भजन, ध्यान, सेवा रूपी धन की ही टिकट मिलेगी।
रुपया ने तिजोरी में धरा वैसे ही भजन ने हृदय रूपी तिजोरी में धर लेवे। यह समझ लेवे कि सेवा धन है तो खोस खोस कर सेवा करां। उस धन ने असली समझ लेवे तो फिर या धन तो धूल के समान हो जावे। भगवान को दर्शन चावे तो थाने असली धन बता दिया है।
संयम, सेवा, साधना, सत्संग - इनमें चाहे जो एक बात जरूर पकड़ लेनी चाहिये। भगवान्‌ आवो चाहे मत आवो। बातां काम में आनी चाहिये, आपां इसी तरिया रात दिन तपस्या, भजन, ध्यान करता रवेंगा तो भगवान्‌ के मिलने की कोई जरूरत नहीं।
दिन थोड़े रह गये अथः धमड़की लगावो। सन्ध्या, गायत्री की दस और स्त्रियों के लिये हरे राम की चौदह माला, दो वक्त भोजन - एक लगावन एक खावन, कपड़े तीन। सेवा में अगाड़ी भोगों में पिछाड़ी।
घर में सबको प्रनाम करो। कोई गाली निकाले उसके साथ प्रेम का व्यवहार करो। यह बहुत उत्तम बात है। इसके होने पर प्रभु के मिलने में देर नहीं।
तर्पण, श्राद्ध करना उत्तम है। देखा देखी दूसरे की नहीं छोड़ देना चाहिये। अभ्यास नहीं है, पढ़े नहीं है या बान नहीं है - यह बाते बुरी है। यह करना उत्तम है।
पुरुष को स्त्री प्लेग के समान समझना चाहिये और स्त्री पुरुष को प्लेग के समान - ऐसे ही समझे। साँप काटने से विष चढ़ता है। स्त्री का विष चिन्तन या दर्शन, स्पर्श से ही चढ़ जाता है। जो अपना कल्याण चाहे वह उनसे दूर ही रहे।
व्यापार करते हुए राग द्वेष ना रहे यह शूरवीरता है। व्यवहार से मत डरो, राग द्वेष से डरो।
प्रभु की आज्ञा मानकर काम करने से राग द्वेष नष्ट हो जाते हैं। स्त्री पति के अनुकूल चलती है तो राग द्वेष नष्ट हो जाते हैं। पुत्र पिता के अनुकूल आज्ञा से चले तो राग द्वेष नष्ट हो जाते हैं।
निन्दा विष सी लगती है पर उसका अन्त अमृत है। ऐसे ही स्तुति अमृत सी लगती है उसका अन्त विष।
किसी को प्रभु के प्राप्त करने की इच्छा हो तो बड़ाई सर्वथा त्याग दे। यह इस विषय में सबसे बड़ा बाधा है। और भगवान के भजन ध्यान में निरन्तर सदा सम्बन्ध सब समय लगा रहे। इसीमें जीवन की सार्थकता है।
आश्रम गृहस्थ का ही रखें। आचरण से बने साधु कहावे गृहस्थी। बाहर की साधारण भीतर से बहुत ऊँची स्थिति रखें। बाहर से स्थिति जमाने से भगवान नाराज होते है। जनाना ही धारा है।
भगवान जो कुछ भी कर रहा है उसमें ये दुख मानो तो थे भगवान का प्रेमी कठे हुआ। जो भी कुछ होवे बिम आनन्द माननो चाहिये। जैसे ये वन है। इम दो चार आदमी एक गाछ आकर काट है। बिन थे पूछो कि क्यों काट रह्यो है? वो कह दे वे कि जयदयालजी कह्यो है म्हान। तब थे के बोलो? चुप रह जावो। अच्छा भाई, थान कहवे जैया कर लो।
किसी पर अत्याचार हो रह्यो है, बिन आपा रोक नहीं सका तो वो काम होन वालो थो। फिर अत्याचार करनेवाला ने क्यों रोक्या - कि वो नयो पाप कर रह्यो थो। आपन तो आपको काम कर लेवे। पिछे जो कुछ हो रह्या है जिको होने वाला था।
कोई विपरीत होवे उसमें उत्तेजना बहुत होवे। या बहुत खराब है। भक्ति, ज्ञान में खतरनाक चीज है। समय समय पर डंक भी मार है और विष भी चढ़ा लेवे। उसको सोच विवार करके एकदम हटाना चाहिये। ये परमात्मा की प्राप्ति में एकदम बाधक है।
घर में कोई अनुचित व्यवहार करे तो उसका प्रतिकार तो करे बिना उत्तेजना के और न्याययुक्त। उसके सुधार के लिये करे, अपने स्वार्थ के लिये नहीं।
किसी भाई को दो दिन में, चार दिन में, महीने में जाने का विचार है - तो इतने दिन में भगवान्‌ को प्राप्त करके ही जाना है। इतना तो मैं बहुत कह दियो यदि प्रेम हो तो भगवान्‌ एक दिन में मिल सकते है, ऐसा करे कि भगवान्‌ आपने आप ही आकर के मिले, अपने उसको नहीं बुलाना पड़े।
भगवान्‌ दीनबन्धु है। हम भी दीनों के बन्धु बन जावे तो हमको भगवान्‌ मिल जाते है। जितने धनी आदमी है वे दुखियों के दरवाजे पर जावे, देवे भले ही कुछ नहीं, परन्तु उसके पास जाना चाहिये। और अपने पास है तो फिर कन्जूस क्यों बने। जितने आपके पास है उतने तो आप हाथ रंग ले, फिर तो एक दिन जाना ही है।
भगवान हवा के रूप में आकरके रेणुका की वर्षा कर रहे हैं। महात्मा लोग जो सुनाते है, वे ज्ञान की वर्षा कर रहे हैं। भगवान राम समुद्र के समान है, महात्मा लोग वायु के समान है, भगवान क भाव लेकर के महात्मा लोग सबको भगवान क स्वरूप बना देते है। आज वायु ही भगवान क रूप धारण कर के आया है। भगवान ही मेघ क रूप धारण करके मेघ की वर्षा कर रहे है। महात्मा से हम संसार की कामना करली तो ठीक नहीं क्योंकि हमको जो मुक्ति मिलने वाली थी वह सांसारिक लाभ में रह गये। आपने अज्ञान के कारण थोड़े ही लाभ में रह गये।
भगवान की आकाशवाणी होवे थाने सब में से एक ने दर्शन दे सकू हूं - किन देऊ बताओ? कोई बोले मुझे दर्शन देदो, और न चाहे देवो चाहे नहीं, तो दर्शन नहीं होवेगा। यदि आपा या कैवा, मने छोड़कर और थारे जचे जिके ने देवो, तो स्वार्थ को त्याग करने से सबको दर्शन हो गया।
जितने संसार के प्राणी है उनकी सेवा के लिये अपना सारा शरीर उसके अर्पण कर देता है उसको ये मालूम होता है कि मैं परमात्मा की सेवा करता हूँ। एक सेवा तो शरीर की है, वह तो लौकिक है। नाम जप कीर्तन है, वह पारलौकिक सेवा है।
सत्वगुण की वृद्धि में महापुरुषों के पास रहना चाहिये। वहाँ रह कर वे जैसे कहे वैसे करता रहे। ऎसा करने से एक क्षण में परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। अपने में योग्यता आनेपर थोड़े से उपदेश से क्षणमात्र में ही उसको परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।
सिद्धान्त की जो बात है उनको पालन करने वाला, प्रचार करने वाला भगवान को पाता है। असली तो वह प्रचारक है जो आचरण में लाता है। नियम से करता है वह सर्वस्व प्रिय है। सत्संग की बातें सुनने के समय ये रखें कि मैं दूसरे को भी कहूँगा। इस भाव से जो सुनता है उसका पालन होता है।
घर के अन्दर अतिथि आवे तो उसको साक्षात नारायण के रूप में समझना चाहिये, कि भगवान ही इसी रूप में आकर भोग लगा रहे है। ऎसे ही कुत्ता, बिल्ली, गाय, बड़ वृक्ष, तुल्सी, पीपल में भी यही भाव करना चाहिये। श्रद्धा होने से आपको शान्ति मिलेगी और ऎसा मालूम पड़ेगा कि साक्षात नारायण ही इसी रूप में सेवा करा रहे है।
जीतेजी मुर्दा बन जावे उसी का नाम जीवन मुक्त है। जैसे शुकदेवजी के ऊपर चाहे धूल गेरे चाहे पुष्प, समान ही है। तृण से भी नीचो और वृक्ष की तरह सहनशील हो जाना चाहिये।
मान बड़ाई
अपने को कोई मान देवे, बड़ाई देवे इसकी चाहना स्वाभाविक बात है। अनन्तकाल से है। कोई आज की नहीं। स्वत: सिद्ध ही है। यह राग है, मनुष्य की बीमारी है। इसकी औषधी नहीं है। चेष्टा करे तो मिट सके।
मान बड़ाई जैसी खतरे की चीज से बचने के लिये गहरो विचार नहीं करा हाँ। शास्त्र इसे विष के तुल्य बतावे। इसे प्लेग की बिमारी समझे। विचार करे, सोचे कि इसका क्या नतीजा है। इसका नतीजा यही निकले कि यह बड़ी खतरनाक चीज है। विचार करे तो दोष घट नहीं सके।
जैसे पतंगे दीपक पर पड़ पड़ कर भस्म हो जाते हैं वैसे यह विष्यों के भोग हैं। सुख बुद्धि है इससे आसक्ति है। यह अज्ञान है। कैसे हटे? ईश्वर, महापुरुषों की कृपा से आसक्ति को भीतर से माजे, खूब घर्षण करे, फिर नाश हो जावे। ईश्वर दयालू है। दया आजावे तो आप ही आप कर देवे।
प्रश्न : विषयों में सुख बुद्धि कैसे हटे?
उत्तर : शास्त्रों में, महात्माओं में, किसी में श्रद्धा कर लेवे, तब भी काम बन जावे। परन्तु उसमें संशय, पदार्थों में आसक्ति, सुख बुद्धि विषयों में, यही कारण है और स्वार्थ की मात्रा इतनी बढ़ी हुई कि चकाचौंध हो रहे हैं। सूझता ही नहीं। मोहित हो रहे हैं। भगवान कहते हैं
शरण चले जावे तो बेड़ा पार है।
काम क्रोध लोभ बुरी चीज है। विचार द्वारा समझते हैं। हटाना भी चाहते हैं पर काम पड़ता है तो स्वभाव के दोष से कठिनाई पड़ जाती है। वह हटे कैसे? ईश्वर महात्मा शास्त्र में श्रद्धा करे। उसे वीरता द्वारा हटावे। निश्चय बिना शूरवीरता आवे नहीं। बार बार निश्चय करे और जोर लगावे तो हट सके।
इन्द्रियों तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं। जितने पदार्थ भोग हैं, दु:ख स्वरूप हैं, आदि अन्त वाले हैं। अनित्य हैं। जो जानते हैं वे नहीं रमते। असली चीज वैराग्य है। वैराग्य उपरति बनी रहे उसके लिये जप ध्यान स्वाध्याय सत्संग करता ही रहे। एक उपाय और है - भगवान के सामने रोवे। रोता ही रहे। इससे भी काम बन जावे। जोश देने से भी काम बन जावे। खूब जोश दिलावे। अपने तो धर्मात्मा बनना है। यह दृष्टि कायम रखें। तो फिर आत्मबल होकर काम सिद्ध हो जावे। वैराग्य, विवेक, उपरति, श्रद्धा, चारों बड़ी दामी है। वैसे ही जैसे जप ध्यान स्वाध्याय सत्संग बड़ी मददकारी हैं। श्रद्धा और विवेक हो तो वह चीजें बड़ी दामी हो जावे। यह बातें समझ बुज कर निर्णय करी हुई है। इनमें शंका सन्देह नहीं। अलीक है, हटा नहीं सके कोई। बहुत सी दामी चीजें हैं जिनको मनुष्य को इकट्ठा करनी चाहिये - कोई होने की कोई करने की है।
वैराग्य, विवेक, उपरति, श्रद्धा, चारों बड़ी दामी है। वैसे ही जैसे जप ध्यान स्वाध्याय सत्संग बड़ी मददकारी हैं। श्रद्धा और विवेक हो तो वह चीजें बड़ी दामी हो जावे। यह बातें समझ बुज कर निर्णय करी हुई है। इनमें शंका सन्देह नहीं। अलीक है, हटा नहीं सके कोई। बहुत सी दामी चीजें हैं जिनको मनुष्य को इकट्ठा करनी चाहिये - कोई होने की कोई करने की है।
ध्यान सहित माला का नीयम ले ले। पहले थोड़ा नीयम ले, फिर थोड़ा बढ़ावे। कलियुग में हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे - ये मन्त्र चोखा है। अपने इष्ट के मुखार्विन्द पर दृष्टि गढ़ावे, विनय भाव से प्रार्थना करे - प्रभो कुछ नहीं चाहिये। स्त्री धन पुत्र आदि कुछ नहीं। केवल आपका प्रेम चाहिये।
एकान्त में रहकर भगवान की शरण हो कर दीनभाव से प्रार्थना करे -

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम॥ गीता२/७॥

इस श्लोक का एकान्त में जाकर बैठकर यह श्लोक पढें। श्लोक अर्थ चित्त में बैठाने से सारे काम सिद्ध हो जावे।
आकाश की ज्यों वह परमात्मा सब जगह आनन्दरूप से विराजमान हो रहा है। चलता बैठता उठता सोता भगवान को याद रखें। कोई वेग सतावे तो भगवान को बुलावे। जैसे चोर के लिये सिपाही को बुलाते हैं। वैसे ही भगवान को पुकार लगाने से वह ठहर नहीं सकता।
काम क्रोध आदि का वेग होवे तो भगवान को पुकारे - हे नाथ हे नाथ! जैसे चोर आने पर पुलीस को पुकारे। बार बार विलाप करे - हे गोविन्द, हे दीनबन्धु, हे हरि, आपके देखते हुए यह सब मेरी दुर्दशा हो रही है। इस तरह पुकार लगाने से वे काम क्रोध ठहर नहीं सकते।
शान्ति के वचन ही जल हैं। क्रोध आने वाले के अनुकूल वचन कहे। शान्ति से कहे, तो वह ठन्डा नरम हो जाता है।
मन के विपरीत जो कुछ होता है वह हमारे पाप का फल और ईश्वर का विधान है। यह समझ जावे तो क्रोध नहीं आवे।
हमे ईश्वर का विधान को ईश्वर का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर प्रसन्न होकर सिर चढ़ाना चाहिये। यदि हम रोवेंगे, दु:ख करेंगे, तो भगवान समझेंगे कि यह मेरे भरोसे पर नहीं है।
हमारा कर्तव्य है हम तो क्रोध करे ही नहीं। पर कोई हम पर क्रोध करे तो भी उस पर क्रोध नहीं करना चाहिये। जो क्रोध करता है तो समझे कि मेरे से ही कोई कसूर हुआ है। किसी को भी क्रोध आवे तो उसका नहीं बल्कि अपना कसूर कायम करे।
दूसरे को क्रोध आने पर भक्त सोचता है कि मेरे द्वारा कोई ऐसी प्रतिकूल क्रिया हुई है जिससे इसे क्रोध आया है। यदि मुझे अपना सुधार करना है तो अपने को क्रोध नहीं आने देना चाहिये।
अतिथि को जिलाकर भूखे रहना पड़े तो उस उपवास का फल २४ एकादशीयों से भी बढ़कर है। यह महा यज्ञ है।
अतिथि सेवा महायज्ञ है क्योंकि उसकी आत्मा की तृप्ति होने से साई आत्माओं की तृप्ति हो जाती है।
वैराग्य ऐसा हो कि कोई प्रबन्ध में भी टाइम नहीं लगावे। चाहे कोई आवो चाहे कोई जाओ। वैराग्य धारण करने की चीज है। कोई वक्त बात हो गई तो हो गई नहीं तो अपने ध्यान में मस्त रहे। वैराग्य और उपरामता दोनों ही रखें तो गृहस्थ में भी सन्यास है।
गंगा तट और वट का वृक्ष दोनों यहाँ स्वाभाविक ही हैं। आजीविका का प्रबन्ध हो जाये तो यही अकेला रहे। यहाँ का स्थान वैराग्यमय है ही और इस पर गीता और महाभारत का वैराग्य का प्रसंग चले तो भोगी को भी वैराग्य हो जाय और यदि वक्ता पुरुष भी शुकदेवजी जैसा हो तब तो कहना ही क्या है। मनुष्य जैसा सुनता और देखता है वैसी ही वृत्तियाँ बन जाती है और वह भी वैसा ही बन जाता है।
देखो कैसी शान्ति है आनन्द है, वायु में कैसी भगवती गंगा की गन्ध है। क्यों न हो। क्योंकि गंगा भगवान के चरणों का जल है। जैसे हम कस्तूरी या कपूर को धोवे तो जलमें गन्ध आजाती है। इसी प्रकार इसमें भगवान के चरणों की गन्ध आगयी है।
यह युक्ति बड़ी अच्छी है। किसी तरह समझ में आजावे तो एक क्षण में कल्याण हो जाता है। जैसे स्वप्न में दु:ख पाने वाले को उठा दे तो उसी क्षण दु:ख दूर हो जाता है। वैसे ही हम भी स्वप्न में हैं। कोई महापुरुष जगा सकते हैं।
पुत्र स्त्री आदि को अपना मानना मूर्खता है। यही बन्धन है। जैसे स्वप्न की वस्तु जागृत में नहीं लाई जा सकती है उसी तरह इस जगत की चीजें मरने पर साथ नहीं चलेगी।
जब तक शरीर में मेरेपन का भाव है तभी तक दु:ख होता है। जब शरीर में मेरा पन नहीं रहेगा तो शरीर को चाहे कोई आग लगा दे या टुकड़े टुकड़े कर दे तो भी दु:ख नहीं होगा।
जो भगवान के नाम का जप और स्वरूप का ध्यान करता रहता है उसे भगवान स्वयं आकर दर्शन देते हैं।
एक बार भगवान का ध्यान हो गया तो तुम्हारे बाप की ताकत नहीं कि उधर से मन को हटा सके क्योंकि वह रस राज है। भगवान कहते हैं कि मैं वैकुण्ठ को त्याग देता हूँ पर जहाँ मेरे भक्त बैठते हैं गाते हैं मैं वहीं रहता हूँ। "नाहं वसामि वैकुण्ठ"।
असली बात तो यह कि हर जगह भगवान को देखकर प्रसन्न होवे और भगवान है, उनकी प्रेम और दया की दृष्टि है, वे हमें प्रेम दृष्टि से देख रहे हैं, ऐसा मानने से ही शान्ति मिलती है। इसमें करना कुछ नहीं है केवल मानना ही है।
भगवान दयालू है, सुहृद हैं, यह भाव मन में पक्का जम जावे तो आप ही भजन होने लगे। जैसे किसी ने हमारा बहुत अपकार किया हो तो उसकी कितनी याद आती है। उसकी सुहृदता और भगवान की सुहृदता में लाखों करोड़ों गुणा फर्क है। तो अब अन्दाज लगाये कि उसका कितना भजन होना चाहिये।
भगवान हमारे सुह्रद हैं, उनका हमारे सिर पर हाथ है। नहीं दीखने पर भी वह हमारे पास हैं। कोई कहे कि हम समझते हैं फिर भी शान्ति नहीं होती तो यह मानने में कमी है। मानने के साथ शान्ति अवश्य निश्चय मिलती है।
यदि भगवान को हम सुह्रद मान ले और वे हम पर प्रसन्न है, उनकी हम पर पूर्ण दया और प्रेम है तो हमे फिर क्या करना पड़े, फिर साधन भी क्या करना पड़े। साधन भजन ध्यान तो स्वत: होगा। करना नहीं पड़ेगा। भगवान की स्मृति बराबर रहेगी। विशेष बात - इब तो आपने सामने दो चीज है। (१) प्रेस के द्वारा पुस्तकों का प्रचार (२) व्याख्यान द्वारा प्रचार। थे लोग सत्संग वाला सात आदमी हो। सात तो भोत है। ऋषि भी सात हो गया। सात को नाम भोत चोखो है। थे लोग तत्परता से तैयार होवो तो सब कुछ कर सको हो। म्हा लोगाने के करनो चाये ८ दिशा घेर लेवो तो सगला हिन्दुस्तान ने घेर लिया है। सगला हिन्दुस्तान मायं प्रचार होवे। या दो बात रहनी चाये - (१) ईश्वर पर निर्भरता (२) स्वार्थ का त्याग।
हमे न्याय का पैसा पैदा करना चाहिये। किसी को देंगे तो वैसा ही उसपर असर पड़ेगा। जैसा खावे अन्न वैसा बने मन। भीष्मजी के उपदेस देते समय द्रौपदी हँस दी। वे कह रहे थे कि जिस सभा में अन्याय होता हो तो उसका विरोध करना चाहिये या उठकर चले जाना चाहिये। भीष्मजी ने कहा मैं हँसने का कारण जानता हूँ। मैंने दुर्योधन का अन्न खाया था। इसलिये मेरी बुद्धी भ्रष्ट हो गई थी। इससे सबको ध्यान रखना चाहिये अन्न के स्थूल अंश से शरीर, उससे सूक्ष्म से हड्डी, मन आदि बनते है और वैसी ही बुद्धी हो जाती है। जो पाप से कमा कर दुःख से दिया जाता है उससे दाता और लेनेवाले दोनों की बुद्धी भ्रष्ट होती है।
मन से भगवन्‌ के स्वरूप का स्मरण, वाणि से भगवान्‌ का नाम और शरीर से सब की सेवा करनेवाला भगवान्‌ को प्राप्त हो जाता है।
माटी डालनेवाला यदि स्वार्थ त्यागकर सेवा करता है तो उसकी मुक्ति हो जाती है। पर यदि कोई लौकिक कामना रखकर ध्यान करता है तो वह माटी डालनेवाले कर्म से नीचा है।
माता बहनों का उद्धार तो इसलिये शीघ्र हो जाता है कि उसका आधा पाप पति को चला जाता है और पति का पुण्य भी वह आधा ले लेती है। पति का पाप नहीं लगता। और पतिव्रता हुई तो पति को भी परमगति करवा देती है।
यहा आकर मन इन्द्रियों का संयम करना चाहिये। यह नहीं कि यहा खूब मालपुआ खावे और ऐश आराम करे। ऐश आराम करना हो तो घर पर ही करे, यहा आने की जरूरत नहीं है। साधु ब्राह्मणों कि तन, मन और वस्तुऒं से सेवा करे। सत्संग करना, भजन ध्यान करना, उसका प्रचार करना - ऐसा समय बितानेवाले को यहाँ आना चाहिये।
माता बहनों के लिये एक बहुत दामी बात है - उसमें सहज ही कल्याण हो सकता है। सबके साथ व्य्वहार हँस कर करना। कोई क्रोध करे तो अपने क्रोध नहीं करना। हँस करके प्रेम से बोलना और अपने व्य्वहार से मुग्ध कर देना।
विष खानेवाला एक बार ही मरता है पर विषयों का सेवन करनेवाला करोड़ो बार जन्मता और मरता रहता है। जो मनुष्य शरीर पाकर खाने पीने, स्वाद शौकीनी में समय बिताता है, उसमें और पशु में क्या अन्तर है। मखमल के गद्दे पर जो सुख आता है वही गधे को राख पर आता है।
परमात्मा की प्राप्ति को छोड़कर जो विषय ग्रहण करता है वह महा मूर्ख है। यह मनुष्य शरीर आत्मा के उद्धार के लिये मिला है। कब मृत्यु होगी, पता नहीं। आज मौत आजावेगी तो नहीं कह सकेंगे कि कल जावेंगे। जल्दि ही काम बना लेना चाहिये।
परमात्मा ने घोषना कर रखी है कि जबतक जीवन है तब तक भजन ध्यान का साधन कर के परमात्मा की प्राप्ति का लाभ उठा लेना चाहिये। समझदारी, बुद्धिमानी इसी में है कि शीघ्र से शीघ्र, अति शीघ्र भजन ध्यान का साधन करके अपना काम बना लेना चाहिये।
धन मकान आदि मेरापन याने ममता की चीज है वे दूसरों के उपकार में याने दीन दु:खी अनाथ की सेवा में लगा देवे। मर गये तो धन दौलत स्त्री सबसे सम्बन्ध उठ गया। हम पहले भी कहीं थे, वहाँ भी क्या छोड़कर आये पता नहीं। इसी तरह यहाँ से जाने पर यहाँ का भी कोई पत्ता नहीं रहेगा। इसलिये जब तक शरीर में प्राण है तब तक कल्याण कर लेना चाहिये।
सबसे बड़ी दामी बात - मनुष्य शरीर में ही कल्याण हो सकता है। उत्तम से उत्तम आनन्द मनुष्य शरीर में प्राप्त होता है। जब भगवान ने ज्ञान बुद्धि दी है तो हमे ऐसी दशा में दुखों का अत्यन्त अभाव कर के अत्यन्त आनन्द की प्राप्ति कर ले। कुत्ते को बुलाकर उपदेश करे तो वह समझेगा ही नहीं। आपको मनुष्य शरीर दिया है तो आपका पहला कर्तव्य है कि इस आनन्द के लिये प्रयत्न करे।
परमात्मा का सुख ऐसा है कि जब आप उस सुख को प्राप्त हो जावेंगेतब आपके मन में कोई इच्छा नहीं रहेगा। जैसे घड़ा जल से भर जाता है वैसे ही आनन्द पूर्ण हो जावेगा।
हमें कोई कुत्ता गधा कह दे तो नारज होते हैं पर याद रखो कि परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी तो न मालूम कितनी बार कुत्ते गधे बनोगे। जनम मृत्यु का फिर तो समुद्र ही भरा है।
तुम कहते हो आज जरूरी काम हो गया, सत्संग में जाना नहीं हुआ। आग लगे वैसे काम में, जिससे हमारा जरूरी काम बाकी रह जाये। मुझे बताओ तुम्हारा यह काम रह जायगा, तो कौन करेगा। वह तो तुम्हारे करे ही होगा। दूसरा कोइ नहीं करेगा।
ये नेत्र दो कैमरे हैं। इनसे सारा फोटो हमारे ह्रदय में इकट्ठा होता है। हरे रंग के चश्मे से सब कुछ हरा दीखता है। इसी प्रकार हरि के नाम का चश्मा चढ़ा लो तो सब संसार हरिमय दीखेगा। जर्रे जर्रे में अनु अणु में परमात्मा दीखेंगे।
भगवान ने आपको मौका दिया है, इसे मत लात मारो। यदि चेत जावोगे तो ठीक है, कबीरजी सावधान कर रहे हैं -
कबीरा नौबत आपनी दिन दश लेहु बजाय
यह पुर पट्टन यह गलि, बहुरी न देको आय।
हाड़ जले ज्यों लाकड़ी केश जले ज्यों घाँस
सब जग जलता देखके भये कबीर उदास।
मरोगे मरजावोगे, कोई न लेगा नाम
उजड़ जाय बसाओगे छाड़ी बसन्ता गाम।
यह सब सोचकर जल्दी अपना काम बना लेना चाहिये।


गंगा किनारे किनारे आप कलकत्ते तक चले जाइये पर ऐसा दृश्य नहीं मिलेगा। यहाँ तो ऐसा स्थान है कि हम बारह महीने रहे तो उत्तम है। एक तो यह कि हमारा प्रारब्ध नहीं है और दूसरे भोगों के कारण यहाँ हमेशा रहना कठिन है।
गंगा की ध्वनि वेद ध्वनि सी मालूम होती है। इस ध्वनि में नाम जप को भी जोड़ सकते हैं। गंगाजी के दर्शन से नेत्र और ह्रदय पवित्र हो जाते हैं। नेत्रों की दोष दृष्टि मिट जाती है और ह्रदय में जाकर यह बहुत काम करती है।
नारायण नारायण नारायण
नारायण के नाम की ध्वनि सारे विक्षेपो का नाश कर देता है। प्रत्यक्ष में यह बात है। विशेष एक तार ध्वनि हो जाने पर तो मन स्वाभाविक एकाग्र हो जाता है।
संसार का स्मरण करना ही मौत का, काल का या विष का चिन्तन करना है। भूल से हो जावे तो उसी वक्त त्याग कर दे।
बस एक आनन्द के सिवा कोई पदार्थ है ही नहीं। दूसरा पदार्थ प्रतीत हो तो सोचे जैसे स्वप्न में, मरू भूमि में जल या आकाश में तिरविरा दीखता है, वैसा ही समझे।
नारायण नारायण आनन्दमय आनन्दमय पूर्णानन्द। यह आनन्द की ध्वनि, आनन्द की गर्जना से आनन्द ही आनन्द परिपूर्ण हो जाती है। आनन्द से शरीर में रोमांच, धरधरी और कम्प होने लगता है।
एकान्त देश में यह ज्ञान का साधन बतलाया है। "विविक्त देश सेवित्वं मरतिर्जनसंसदि" गीता १३/१०। यहाँ एकान्त है हि। साधक जन समुदाय में नहीं गिने जाते है। यहाँ का वातावरण भी अनुकूल है और व्याख्यान भी। निराकार का व्याख्यान साकार में भी सहायक है क्योंकि निराकार साकार यह सब मिलकर ही समग्र रूप हैं।
निजी
हमे एक विज्ञानानन्द घन परमात्मा के सिवा और कोई नहीं है - ऐसा मानना चाहिये और ऐसा मानने वाली बुद्धि को भी भुला देना चाहिये। ऐसा ध्यान जहाँ लग जाता है वहाँ ही मैं बैठजाता था और समझता था कि मुझे ब्रह्म की प्राप्ति हो गई, पर बाद में घोटाला निकलता, याने हर्ष सोक होता।
आनन्दमय आनन्दमय पूर्णानन्द आनन्द ही आनन्द, आनन्द ही आनन्द। आनन्द की बार बार घोषणा करे और निश्चय करे कि आनन्द ही आनन्द है। जब आनन्द ही आनन्द हो जाता है तो फिर शरीर को जला दो तो भी क्या। ध्यान में हम घन्टों बैठे रह सकते हैं। बहुत आगे बढ़ने पर हम कीलों पर कांटों पर भी बैठ सकते हैं और कुछ भी नहीं मालूम होता। ऐसी हालत में मृत्यु भी हो जावे तो बड़ी उत्तम बात है और साधन इतना तीव्र भी हो सकता है कि हमेशा को समाधी लग जावे। जैसे मुर्दे को जलाने पर उसे नहीं मालूम होता इसी प्रकार जीवन मुक्त पुरुष को अनुभव नहीं होता। उसकी आत्मा तक कोई बात नहीं पहुँचती। आनन्दमय आनन्दमय पूर्णानन्द आनन्द ही आनन्द। कैसी प्रत्यक्ष में शान्ति आनन्द और चेतनता रोम रोम में है। यही भगवान का ज्ञानमय चेतन स्वरूप है।
जो कुछ आपके सामने हो रही है वह भगवान की लीला हो रही है। जैसे भगवान ने ब्रज में लीला करी। वही बात हम माने तो हमारे को वही बात प्रतीत होने लगेगी।
भगवान ही प्रकट होकर लीला कर रहे हैं। फिर आपके पास कोई भी विकार नहीं ठहर सकते।
शुरू में या ही प्रधानता कर लेवे कि हमारा एक क्षण भी भगवान के भजन बिना व्यर्थ नहीं जावे। वाणी से वही बोलना चाहिये जिससे भगवान मिले। वही काम करना चाहिये जिससे भगवान मिले। आपनी कोई भी क्रिया नहीं होनी चाहिये जो भगवान को मिलाने वाली न हो।
भाव का सुधार होने से सब सुधार अपने आप हो जायेगा। ईश्वर का, महात्मा की, शास्त्र की, तुम्हारी दया से भाव का सुधार हो जावे। तुम्हारी दया क्या है? कि सुनी हुई बात को जीवन में लावे, आचरण में उतारे, भजन ध्यान का साधन निरन्तर तेजी से करे।
यहाँ पर माया और माया का कटक आ नहीं सकते, यो विश्वास करने से माया आ ही नहीं सकती।
यहाँ कोई भी विघ्न आ ही नहीं सकते। यदि आ जावे तो गीता का पाठ कर दिया तो सब भाग जावे।
यदि तुम्हारे ऊपर काम क्रोध का वेग आजावे तो हे नाथ! हे नाथ! पुकारे। फिर आ ही नहीं सकते।
सब जगह शान्ति का सामराज्य है तो फिर वैसा ही हो जायेगा। आप जो कुछ मानोगे वह हो जायेगा। अप दृढ़ भावना कर लेवे।
यमराज अपने किंकरों से कहते हैं जहाँ भगवान का कीर्तन जप ध्यान होता है वहाँ मत जाना। नहाँ भगवान गुप्त रूप से रहते हैं। और कुछ भी नहीं तो सब जगह भगवान ही भगवान का दर्शन करे। "वासुदेव सर्वमिति" गीता ७/१९।
भींत की तरह सहनशील हो जावे। बोल नहीं मारे। निन्दा नहीं करे। दूसरा कोई भी करे निन्दा, सच्ची या झूठी। यदि सच्ची है तो अपने दोष ने हटावे, झूठी है तो भींत बन जावे।
अनिष्ट करने वाले का भी भला करे। बदी करने वाले के साथ बदी, नेकी के साथ नेकी, तो ये तो गधे कुत्ते में भी है। यह बात यदि मनुष्यों में भी है तो मनुष्यों की क्या विशेषता रही।
परमात्मा का भजन ध्यान साक्षात अमृत है। उस माय समय लागाने के लिये तत्परता सू कोशिश करे। मन न या बात समझावे कि संसार का, भोगा क चिन्तन करना तो जन्म मरण की बीमारी देने वाली है। जैसे रोगी ने कुपथ्य चोखी लागे। इस प्रकार भोगों का सेवन कुपथ्य है। इसलिये विचार के द्वारा विश्वास कर कर बलातकार से भजन ध्यान के काम माय लाग पड़ तो ये दोष मिटने सके छे।
प्रश्न: ऐसि कौनसी बात है जो कि म्हारे कल्याण होने में बाधक हैं?
उत्तर : अकर्मण्यता - प्रवृत्ति नहीम होना
आलस्य - कर लेस्या, कर लेस्या, काम करने में विलम्ब
दीर्घसूत्रता - थोड़ा काम माय भोत समय लगा दियो याने ढीली
निरुत्साह - प्रवृत्त होया पण उत्साह नहीं है।
तत्परता मायं बाधा करने वाला यही सब दोष हैं।
भजन ध्यान की क्रिया अच्छी है पर भाव की कमी है तो वह भोत ऊँची नहीं है। साम्सारिक व्यवहारिक क्रिया देखने माय तो नीची है पण भाव ऊँचो है तो वह ऊँची है।
भगवान माय प्रेम चाहे जद ही कर लेवो, वो तो प्रेम करने ताई तैयार है, चाहे अज ही करलो। उसने दूसरा को प्रेम अच्छो लाग नहीं।
म्हे तो सगला की भजन ध्यान करानो चावाहां। याने सगला ने भजन ध्यान मायं लगानो चावाहां। पर हमारो करो के होवे है। करसो तो आगला के ही होसी।
यह विश्वास होय जावे भगवान कह्यो है

अनन्य चेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्य युक्तस्य योगिन:। गीता ८/१४।


मैं उसके लिये सुलभता से प्राप्त हो जाऊँ - ये भगवान के वचन लोहे की लीक हैं। ये भगवान के वचन हैं। जदी भगवान ही प्राप्त हो गया जना बाकी रयो ही के।
गुप्त धन है भजन का। उसकी यहाँ भी दर है और वहाँ भी। किसी भी मार्ग में चलो विषमता मिटाने की बात भगवान सभी मर्ग में बतलावेंगे। विषमता विष है समता अमृत है। मान बड़ाई प्रतिष्ठा को अपमान सा समझे और अपमान को अच्छा समझे। यह विषमता दिखने पर भी यह समता से बढ़कर है।
नीच पुरुषां को याद करने सु, उसका कृत्य याद करने सु, आपने उसके ऊपर घृणा हुव, इससु आपनो हॊ पतन होव। घृणा से आपनो ही नुकसान है।
भगवान्‌ की निरन्तर स्मृति से फिर मन से प्रत्यक्ष भगवान्‌ दीखने लग जाते है। दीखते दीखते प्रकट हो जाते है।
हमको कोई चीज को हटाने की जरूरत नहीं है। चीजों में भगवान्‌ की भावना करनी चाहिये।
विश्वास तो हम लोगों का है पर शंकायुक्त है। जब पूरा विश्वास हो जायगा तो नुकसान के नेड़े नहीं जायगा।
मन को दौड़ने से जितनी हटानी है उतनी शरीर से नहीं है।
भजन के लिये कम से कम तीन घण्टा तो जरुर रकनी चाहिये। बात तो यही अच्छी है कि हर समय भजन ही किया करो। पण मन एक जग टिकता नहीं इसलिये इसको कुछ काम देकर फिर भजन में लग जावे। प्रधानता भजन की रखे।








सुख और दुख


सुख और दुख
सुख और दुख का संबंध मन में उठने वाले भावों और कल्पना से अधिक होता है। उसमें किसी पदार्थ और परिस्थिति की उतनी भूमिका नहीं होती। अगर सुख-दुख का पदार्थों से कोई लेना-देना होता तो एक ही पदार्थ से कभी सुख और कभी दुख का अनुभव नहीं होता। परिस्थितियों के संबंध में भी यही बात सत्य प्रतीत होती है। आखिर क्यों एक ही परिस्थिति किसी को सुखी और किसी को दुखी बनाती है?

यह स्पष्ट है कि सुख-दुख कहीं बाहर से नहीं आते और हमारे मन की अवस्था से उनका निर्धारण होता है, इसलिए हमें मनोभावों के सुधार और बदलाव पर विशेष ध्यान देना चाहिए। खास तौर से हमारे दुख और निराशा का कोई समाधान केवल बाहरी साधनों से होना संभव नहीं है। वैसे तो आज सुविधाओं का बहुत विस्तार हो रहा है। फिर भी व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तनाव, टकराव और बिखराव बढ़ रहे हैं। इसका मुख्य कारण मानसिक शांति और संतुलन का अभाव है। एक संपन्न परिवार के मुखिया ने कहा- मेरे घर में सोफा-सेट है, टी.वी. है, गोल्डन और डायमंड-सेट है लेकिन घर में शांति नहीं है। इस पर किसी ने कहा- यह तो ठीक है कि तुम्हारे पास बहुत प्रकार के 'सेट' हैं, पर तुम्हारा मन भी 'सेट' है या नहीं, जरा इस पर तो विचार करो। उसने हंसते हुए कहा- वह तो 'अपसेट' है। उसे समझाया गया- मेरे भाई! मन को 'सेट' किए बिना दूसरे 'सेट' भी हमारे जीवन के लिए अभिशाप हो जाते हैं।

जीवन में ऐसे अनेक लोगों से संपर्क होता रहा है जिन्होंने बौद्धिक और आर्थिक क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अपने पूर्वजों की अपेक्षा उन्होंने बहुत उन्नति की है, पर उनका मिजाज जल्दी बिगड़ जाता है। इससे वे स्वयं भी अशांत रहते हैं और उनका पारिवारिक जीवन भी अशांत और अव्यवस्थित रहता है। असल में मनुष्य अपने मन की भावनाओं और कल्पनाओं से ही सम्राट और भिखारी होता है। जिसका मन प्रसन्न और स्वस्थ है, वह अकिंचन होकर भी सम्राट है। जो अशांति और व्याकुलता के दवानल में जलता रहता है, वह संपन्न और समृद्ध होकर भी भिखारी के समान है।

मानसिक स्वास्थ्य के अभाव में थोड़ी-सी प्रतिकूलता भी व्यक्ति को भीतर से तोड़ देती है। उस स्थिति में जीना भी मुश्किल लगने लगता है। ऐसे लोगों पर 'मन के जीते जीत है, मन के हारे हार'- यह कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है। जब विचारों में श्रद्धा और उत्साह का भाव प्रबल होता है, तब कठिन से कठिन काम करने में कोई मुश्किल प्रतीत नहीं होती। किंतु जब मन में किसी तरह का उत्साह नहीं होता, तो छोटा-सा काम भी दुष्कर प्रतीत होने लगता है।

यदि आप जीवन में सुख-शांति चाहते हैं तो दूसरों को सुख देने की कोशिश करें। याद रखें संसार में सुख ज्यादा है दुख कम। 85 प्रतिशत दुख हम अपनी बेवकूफी से पैदा करते हैं। 15 प्रतिशत दुख दुष्कर्म से प्राप्त होता है। किसी को तीन लड़कियां हैं, लड़का नहीं, तो दुख। किसी को व्यापार में घाटा हो गया तो दुख। लड़का तो पैदा हुआ, परंतु आज्ञाकारी नहीं निकला तो और ज्यादा दुख होता है।

यह दुख तो प्रयत्न एवं पुरुषार्थ तथा मालिक की कृपा से सुख में बदल सकते हैं। लेकिन संसार में सबके दुख का कारण एक ही है। आज का इंसान अपने दुख से बहुत कम दुखी है, परंतु दूसरे के सुख को देखकर ज्यादा दुखी है।
आज का इंसान अपने बनते हुए घर को देखकर कम खुश है, परंतु दूसरे के जलते हुए घर को देखकर ज्यादा खुश है। एक बार राजा जनक के पास तत्ववेत्ता ऋषि पहुंचे। राजा अपना सिंहासन छोड़कर आए और ऋषि को दंडवत प्रणाम कर आसन पर बैठा कर कहने लगे ऋषिवर, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं? ऋषि बोले- हे राजन्‌! आपके इस नगर के समीप मेरा गुरुकुल आम है। वहां एक हजार ब्रह्मचारी विद्या अर्जन करते हैं। मुझे आम के विद्यार्थियों के दूध पीने के लिए गौ चाहिए।

राजा जनक महान ज्ञानी एवं विद्वत्‌ अनुरागी तो थे ही, जिज्ञासु स्वभाव के भी थे। ऋषिवर से बोले- मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं। बताइए कि मेरी हथेली में बाल क्यों नहीं हैं? ऋषि बोले- आप दान ज्यादा देते हैं, इसलिए आपकी हथेली में बाल नहीं हैं। राजा संतुष्ट नहीं हुए।

इसी प्रकार आदित्य ब्रह्मचारी ऋषि दयानंद ने संसार के लोगों को एक संदेश दिया कि प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में संतुष्ट नहीं होना चाहिए बल्कि सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। इस प्रकार विचारधारा रखने वाले लोग शांति को प्राप्त करते हैं।

जो व्यक्ति दूसरे के सुख को देखकर जलता हो तो यह मानना चाहिए कि वह राजयक्ष्मा रोग का शिकार है। अगर दुष्टता मनुष्य में आ जाए, तो वहीं कोढ़ है।

तुलसी जी ने इसे मानस रोग कहा है। - 'पर सुख देखि जरनि सोई छुई। कुष्ट दुष्टता मान कुटिलई।' जहां राजयक्ष्मा और कोढ़ दोनों एक ही जगह हो तो मानना सर्वनाश ही सर्वनाश है। शांति का द्वार सदा बंद है। जिसका स्वभाव दूसरे के सुख को देखकर जलने का हो तो मानना चाहिएक कि उसके जीवन में मंथरा है।

'त्रिविधं नरकस्येदं द्वारनाशमात्मनः।
काम क्रोधस्तथा लोभ तस्मादेतत्‌ त्रयं त्यजेत्‌॥'


- नरक के तीन द्वार हैं - काम, क्रोध तथा लोभ इसलिए इन तीनों को छोड़ देवें। ये तीन राक्षसियां हैं, शूर्पणखा ये काम की प्रतीक है, ताड़का, क्रोध की प्रतीक है, मंथरा लोभ की प्रतीक है। लोभी आदमी को अपना लाभ हो तो उसे शांति मिलती है, वह चाहता भी है कि पड़ोसी का जरूर घाटा हो। मंथरा, कैकेयी को सलाह देती है कि दो वरदान मांग लो- भरत को राजगद्दी और राम को वनवास।

इस प्रकार के स्वभाव वाले लोग सदा दुख, क्लेश, तनाव से ग्रसित रहते हैं। यदि जीवन में शांति, प्रसन्नता, आनंद चाहते हो तो दूसरे के सुख में सुखी रहो, दूसरे के दुख में दुखी रहने का स्वभाव बनाओ।
 
सुख और दुख का मूल कारण स्वयं व्यक्ति ही होता है

हमारे शरीर और बुध्दि से परे भी एक ऐसी प्यास और एक अभीप्सा विद्यमान है, जिसे बाहर से सब कुछ पाकर भी शान्त नहीं किया जा सकता। वस्तुतः हम अपने आप में इतने परिपूर्ण और समर्थ हैं कि बाहर से कुछ पाने की अपेक्षा ही नहीं रहती। लेकिन कृत्रिम अपेक्षाओं के जाल में हम इस कदर फंसे रहते हैं कि भीतर झांकने का अवकाश भी नहीं मिलता।
व्यक्ति की हर कामना पूरी हो जाए, यह नितांत असंभव है। ऐसी स्थिति में उसके मानस में निरन्तर एक चुभन-सी बनी रहती है जो उसे कभी भी शान्ति से नहीं सोने देती।
अपेक्षाओं को जगत् से मुड़कर ही व्यक्ति उस रसातीत रस का अनुभव कर सकता है जिसके सामने स्वादिष्ट से स्वादिष्ट पकवान भी नीरस और फीके प्रतीत होने लगते हैं। उसे बाह्य निरपेक्ष सुखद स्थिति को प्राप्त करने के लिए भगवान महावीर ने चार उपाय सुझाए हैं, जो सुख शय्या के नाम से पुकारे जाते हैं।
सत्यनिष्ठ के लिए स्वयं में विश्वास होना अत्यन्त अपेक्षित है। स्वयं अपेक्षित है। स्वयं के प्रति विश्वस्त व्यक्ति ही दूसरों के प्रति विश्वस्त रह सकता है। सबके प्रति विश्वस्त रह सकता है। सबके प्रति विश्वस्त रहने वाला सत्य के प्रति अविश्वस्त हो ही नहीं सकता।
अपने लक्ष्य, प्रवृत्ति और प्रगति के प्रति भी विश्वास होना जरूरी है। संदेहशील व्यक्ति व्यावहारिक दृष्टि से भी सफल नहीं हो सकता। वह नीरस और कटा हुआ जीवन जीता है। उसे न अपने अस्तित्व, कर्तृत्व और व्यक्तित्व पर भरोसा होता है और न दूसरों पर। संदेह मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। उससे पारस्परिक स्ेह और सौहार्द के स्रोत सूख जाता है। मन सदा भय और आशंका से भरा रहता है। दबा हुआ भय और आशंका कभी भी विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकते हैं। पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अनेक समस्याओं में यह संदेहवृत्ति ही कार्य करती है। जीवन के लिए जितना श्वास का महत्व है उतना ही महत्व समाज में विश्वास का है।
व्यक्ति को दूसरे का सुख और समृध्दि अधिक दिखती है और अपनी कम। अपनी उपलब्धि में असंतुष्ट रहने वाला व्यक्ति पराई उपलब्धि से जलता रहता है या उस पर हस्तक्षेप करता रहता है। इससे अनेक उलझनें सामने आती हैं। दूसरे की प्रगति के प्रति असहिष्णुता मानवीय दुर्बलता है। पारिवारिक, जातीय, सामाजिक, धार्मिक और भाषायी विवादों की जड़ यह असहिष्णु वृत्ति ही है। इसी वृत्ति ने न जाने कितनी बार मानव जाति के युध्दों की लपेटों में झोंका है। वस्तुतः सुख-शांति और आनन्द को पाने के लिए कहीं जाने की अपेक्षा नहीं है। वह स्वयं के भीतर हैं।
व्यक्ति का चैतन्य जागरण जितना स्वल्प होता है, मन और इन्द्रियां उतने ही बाहर दौड़ते हैं। ऊर्जा और चेतना का बहाव भीतर न होकर बाहर की ओर होने लगता है। बहिर्मुख व्यक्ति बाह्य के प्रति आसक्त रहता है। लेकिन उसे भी कभी संतोष नहीं मिलता। असंतुष्ट मानस की बगिया में आनन्द के फूल खिल नहीं सकते। इसलिए महावीर ने सुझाया ‘दृष्ट पदार्थों से उदासीन रहो।’ यह विरक्ति ही अंतर्दर्शन का मूल और आनन्द का स्रोत है।
वेदना दो प्रकार की होती है, शारीरिक और मानसिक। शारीरिक वेदना प्रगति में बाधक बन सकती है पर घातक नहीं। घातक बनती है मानसिक वेदना। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां, उतार-चढ़ाव और घुमाव प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पथ में आते हैं। दुर्बल मानस उनसे बहुत जल्दी प्रभावित हो जाता है। वह जरा सी अनुकूलता में प्रसन्न और प्रतिकूलता में खिन्न हो जाता है। दोनों परिस्थितियों में मानसिक संतुलन बनाये रखना अत्यंत अपेक्षित है। परिस्थिति विजय का सुन्दर उपक्रम है- उनसे ऊपर उठ जाना। यदि हम ऊपर उठ जायेंगे तो परिस्थितियों का प्रवाह नीचे से बह जायेगा। यदि हम उस प्रवाह में बैठ जायेंगे तो वह बहा ले जायेगा।
जो तटस्थ होकर प्रिय-अप्रिय परिस्थितियों को सहना जानता है, वह सचमुच जीना जानता है और कुछ कर गुजरना भी जानता है।
शान्ति किसी बाहरी साम्राज्य को जीतने से नहीं, आत्म साम्राज्य को पाने से उपलब्ध होती है।
सुख और दुःख का मूल कारण स्वयं व्यक्ति ही होता है। उसकी नियंत्रित वृत्तियां जहां उसकी राहों में फूल बिछाती हैं, वहां अनियंत्रित वृत्तियां शूल बन कर उसके प्राणों में प्रतिक्षण चुभन पैदा करती रहती हैं।
भगवान महावीर ने एक आध्यात्मिक औषधि अवश्य बताई है जिसके सेवन से व्यक्ति क्षण भर में अनगिनत मनोव्याधियों से छुटकारा पा सकता है। उस दिव्य औषधि का नाम है ‘समता’।
विषम मन के धरातल पर ही दुःख का अंकुरण होता है। उन अंकुरों से विक्षोभ, व्याकुलता, दुराग्रह, प्रतिशोध आदि के फूल खिलते हैं और पुनः फलते हैं अनेक प्रकार की समस्याओं के विषैले फल। समता एक ऐसा रसायन है, जिसके छिड़काव में उन विषैले पौधों का समूल उन्मूलन हो सकता है। मेधावी व्यक्ति उस रसायन से मानसिक विक्षोभ या लक्ष्य के प्रति होने वाले अनास्थाभाव के अंकुरों को पनपने से पहले ही समाप्त कर देता है।
कोई भी व्यक्ति यदि अशान्त होता है तो वह अपने ही चिंतन और गलत कार्यों से होता है। इसके विपरीत जिसके मन में समत्व प्रतिष्ठित हो जाता है, उसके पांव कभी गलत दिशा में नहीं उठते। उसके हाथ कभी गलत कार्यों में संलिप्ति नहीं होते।
विषमताओं के तूफान से जब जब जीवन नौका विपदाओं के अन्तहीन सागर में डूबने लगे तब तब यदि हम उस नौका के मस्तूल पर प्रसन्नता की पताकाएं फहरा दें और समता का लंगर डाल दें तो निश्चय ही हमारा जहाज सुरक्षित रह जायेगा और हमारा जीवन समाप्त होने से उबर जायेगा।
सचमुच समता एक ऐसा लंगर है जो हर परिस्थिति में हमारे जीवन जहाज को संतुलित और नियंत्रित रख सकता है। उसका प्रयोग हम चाहें कितनी बार करें, वह समाप्त नहीं होगा।
इन सुख शय्याओं में सोने वाले व्यक्ति काल्पनिक या अतृप्त वासनाओं के कारण उभरने वाले सपनों में नहीं खोते, अपितु दिव्य लोक में विहार करते हैं, जहां सर्वत्र आनन्द बिखरा पड़ा है।

सुख – दुख। अजीब खेल है। दुख में सुख और सुख के साथ दुख। सामान्‍यत: जीवन की सारी कहानी इन्‍हीं दो चक्रों में सिमट कर रह जाती है। दो होना यानी द्वंद। हम मजबूत द्वंद-जाल में ही तो जकडे हैं। मेरा-तेरा, धर्म-अधर्म, सच-झूठ, हार-जीत, हानि-लाभ, हेड-टेल, गरीबी-अमीरी, सफलता-विफलता, घृणा-प्रेम, अंधेरा-उजाला, जन्‍म-मृत्‍यु, जवानी-बुढापा, ऊंच-नीच, स्‍त्री-पुरुष, जड-चेतन, राग-द्वेष, धरती-आकाश, अच्‍छा-बुरा, पाप-पुण्‍य, ज्ञान-अज्ञान और जीव-ईश्‍वर वगैरह सब द्वंद ही तो हैं। द्वंद ही संसार है और संसार में सुख मृगतृष्‍णा ही है।
आदि या शायद अनादि काल से मानव दुख से बचने और सुख के रास्‍ते संधान करने में लगा है। न जाने कितने हजार साल पहले हमारे मंत्रदृष्‍टा ऋषियों ने ” सर्वे भवन्‍तु सुखिन: मा कश्चिद दुख:भाग्‍भवेत” गाया होगा । आज भी कुछ धार्मिकनुमा कार्यक्रमों में यह मंत्र हम सुनते हैं। लेकिन हम कितने सुखी हो पाए और दूसरों को दु:खरहित कर पाए , कह नहीं सकते।
आपने कभी विचार किया है, हम क्‍यों जीना चाहते हैं ? मरने से क्‍यों भागते हैं ? तमाम दुख दर्द विफलता और आघात-प्रतिघात सह कर भी क्‍यों जीते रहना चाहते हैं ? पैसे के लिए, नाम के लिए,बच्‍चों के लिए, पत्‍नी-प्रेयषी के लिए, देश के लिए ? मैं मानता हूं सुख के लिए । हम सुख-संतृप्‍त होने के लिए जीना चाहते हैं। किसी के लिए या जीते रहने के लिए नहीं जीते। सुखेच्‍छा ही जिजीविषा बढाती है।
पर क्‍या जीवन में सुख मिलता है ? हम दुखों से बचने को छटपटाते रहते हैं। सुख समेटने को करणीय- अकरणीय क्‍या-क्‍या नहीं करते। पहले जीने के लिए और फिर सुख-सुविधा से जीने के लिए ही तो सारे उद्यम-उपक्रम करते हैं। सत्‍कार्य-सत्‍संग से अत्‍याचार-अधर्म तक। हत्‍या से प्रेमालिंगन तक । फिर भी सुख पकड में नहीं आता। मिलता भी है तो जैसे मुट्ठी में पानी। सुख की प्‍यास-अग्नि बुझती नहीं और दुख पिंड नहीं छोडते।
सुख है कहां ? पैसे-सम्‍पन्‍नता में, शक्ति-यौवन में, पद-अधिकारिता में, पढालिखा-विद्वान या फिर सेलेब्रिटी-वीवीआईपी वगैरह होने में ? कह सकते हैं- अनिवार्यत: नहीं। ये सुख-साधन होने जैसा दृश्‍य तो बना सकते हैं, पर सुखी नहीं। ऐसी स्थितियों वाले अधिकांश लोग सदैव हंसते-मुस्‍कराते और ऐंठ -अकड कर चलते-बोलते दिख सकते हैं, पर उनके अंतस में सुखों का कितना सूखा है, यह वे ही जानते हैं।
हम देखते हैं कि कोई कितना प्रभावशाली-महत्‍वपूर्ण क्‍यों न हो , उसके लिए दुख न आए, सदैव सुख ही रहे ऐसा किमपि संभव नहीं होता। एक छूटा, दूसरा दुख मुंह बाए खडा रहता है। कभी कभी लगता है सुख केवल भुलावा-भ्रम है, दुख ही होता है। बचपना है, बडों की स्‍नेह छाया है। जवानी है , मन बहलाने के ढेरों साधन हैं। दोनों स्थितियों में सुख लग सकता है , पर आगे कितने दुख-दैत्‍य खडे इंतजार कर रहे हैं ,पता नहीं होता।
महात्‍मा कबीर को न सुख मिला था और न खोजने पर कोई सुखी। तभी तो उन्‍होंने कहा था-
जा दिन ते जिव जनमिया, कबहुं न पावा सुख
डालै डालै मैं फिरा, पातै पातै दुख।
सुखिया ढूंढत मैं फिरूं , सुखिया मिलै न कोय
जाके आगे दुख कहूं, पहिले उठै रोय ।

चाहने से सुख नहीं मिलता और न चाहने से दुख जाता नहीं। कई बार प्रारंभ में जो सुखदायी लगता है वह दुख का कारण बनता है। जैसे-अति बिषय भोग,व्‍यसन, शराब -सिगरेट व अन्‍य मादक पदार्थ और अयुक्‍त आहार-विहार आदि। दुख या दुखों का भी अपना एक सुख होता है। दोनों यावज्‍जीवन लगे रहते हैं। संयोग- वियोग में, सोने-जागने में, गरीबी-अमीरी में, खाने-पीने और उसके अपशिष्‍ट उत्‍सर्जन में।
दोनों महत्‍वपूर्ण हैं। दुख के साथ दर्द जुडा होता है और सुख का सजातीय आनंद है। दुख से सुख और दूसरें के दुख के महत्‍व का पता चलता है। संसार में सुख-दुख दोनों मिलते हैं, लेकिन सुख क्षणिक और आभासी लगता है। उसके साथ दुख भी लगा होता है। इसी लिए कहते हैं कि सुख पाना चाहते हो तो सुख बाटो। प्रेम बाटो। प्रेम सुख है। यही धर्म है। धर्म का फल सुख है। धर्मवान सुख पाता है। सुख देने में कोमलता रहती है और लेने में कठोरता। सुख पाने और देने का यह महत्‍वपूर्ण सूत्र लगभग सौ साल पहले अमेरिका में जब स्‍वामी राम तीर्थ ने बोला था तो सभागार तालियों से गूंज उठा था।
पुरुषार्थी दुख-दर्द से घबडाता नहीं। उनसे पार पाने के प्रयासों में वह बडे काम कर जाता है। साहित्‍य, संगीत, कला सृजन जीवनोपयोगी दर्शन -आविष्‍कार। कभी कभी शास्‍वत सुख की तलाश भी। किसी ने कहा है – ज्ञानी काटै ज्ञान से, मूरख काटै रोय। सामान्‍य और समझदार लोगों में यही अंतर है। विषय-विलासियों को दुख-सुख ज्‍यादा व्‍यापते हैं। पुरुषार्थियों को दुख के अनुभव का वक्‍त कहां ? गले में कैंसर के भयावह कष्‍ट से पीडित होने के बावजूद स्‍वामी राम कृष्‍ण परमहंस यथावत कीर्तन- ध्‍यान में लीन रहते थे।
मोटे तौर सुख सांसारिक और पारमार्थिक होता है। पहले में बिषय-काम सुख, नाम-अधिकार होने का सुख, सफलता- सम्‍पन्‍नता का सुख, पुत्र-पत्‍नी, रिश्‍ते-नातों समेत वे सभी सुख होते हैं जिनका संबंध संसार और शरीर से होता है। दूसरे में प्रेम, ज्ञान, मोक्ष, भक्ति, अर्निवचनीय,ब्रह्म सुख सत्‍संग सुख वगैरह आते हैं। इन सुखों में कहा जाता है कि दुखों से निवृत्ति हो जाती है। कहते है कि कर्तव्‍य कर्म करने ,परोपकार और धर्मपालन से सांसारिक और पारलौकिक दोनों सुख मिलते हैं। इसे स्‍वधर्म व रुचि के अनुरूप कार्य-वयवहार कर पाने का सुख भी कह सकते हैं। जैसे वीर फौजी के लिए युद्ध सुख और ज्ञानी -ध्‍यानी के लिए समाधि में जाने की स्थितियों का सुख।
सुख्‍ा-दुख का संबंध अनुकूलता-प्रतिकूलता से होता है। मनोनुकूल परिस्थिति आने पर सुख और प्रतिकूल परिस्थिति आने पर दुख भेग होता है। इन्‍हें मन का फेर या मनोगत भाव भी कह सकते हैं। विचारकों के अनुसार परिस्थितियों से अप्रभावित रहना- सम रहना सीख कर सुख-दुखों के भोग से बचा जा सकता है। सुखद हालत में पुण्‍य खर्च होते हैं और दुख में पाप कटते हैं। किसी को दुख देते हैं तो वह अपने पाप काटकर मुक्‍त हो रहा है, लेकिन हम अपने पाप बढा रहे हैं।इसी लिए – परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीडा सम नहिं अधमाई - कहा गया है।
दुख्‍ा-सुख भोग चेतन में ही होता है। जीव-जंतु, पेड-पौधे तक सभी इससे प्रभावित होते हैं। सदियों से मानव सुख-दुख की गुत्‍थी सुलझाने में लगा है। धर्म-दर्शन की उत्‍पत्ति का आधार यही गुत्‍थी है।धर्म ग्रंथों में सुख-दुख का गंभीर व विस्‍तृत विवेचन और मनोविज्ञान है। गीता , रामायण और कुरान तीनों एक मत हैं कि सांसारिक सुख क्षणिक हैं क्‍यों कि संसार मरणधर्मा और परिवर्तनशील है।
हम अनंत कामनाओं के साथ संसार सुख के लिए पागल रहते हैं, लेकिन बदले में दुख मिलता है।संसार में कुछ भी पूर्ण और स्‍थायी नहीं है। परिछिन्‍न व परिवर्तनशील से मन नहीं भरता, तृप्ति नहीं होती। हम भूख-प्‍यास, नींद, स्‍वास्‍थ्‍य व शारीरिक परिवर्तन और संतति वृद्धि आदि की प्राकृतिक आवश्‍यकताओं व सीमाओं में बंधे हुए हैं। ईश्‍वर किसी को सब कुछ नहीं देता। किसी को कुछ देता है तो बहुत कुछ नहीं देता जिसका दंश उसे सालता रहता है। यहां संतोषं परमं सुखम् का सूत्र काम आता है।
सुख और संतोष का बढा नजदीकी संबंध है। संतोष से सुख होता है। संतोष के बिना कामनायें नष्‍ट या नियंत्रित नहीं होतीं। कामनाओं के रहते सुख पास नहीं फटकता। बिनु संतोष न काम नसाहीं, काम अक्षत सुख सपनेहु नाहीं। श्रीमदभागवत का एक श्‍लोक है- सदा संतुष्‍टमन: सर्वा:सुखमयादिशा: …… जैसे पैरों में जूते पहन कर चलने वाले को कंकड- कांटों का कोई भय नहीं होता उसी तरह जिसके मन में संतोष है, उसके लिए सदैव सर्वत्र सुख ही सुख है, दुख नहीं। कुरान मजीद ने भी संतोष और धैर्य पर बडा जोर दिया है।
काम मोह-अज्ञान है और संतोष-संयम ज्ञान-भक्‍ित का फल। भजन-भक्ति से काम मिटता है- राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। रामायण कहती है कि जिसके हृदय में भक्ति मणि है उसे कभी दुख नहीं सताते।  
राम भगति मनि उर बस जाके, दुख लवलेश न सपनेहु ताके। रामायण दुखों के तह तक जाती है। काक भुशुंडि पक्षिराज गरुड को दुखों को नष्‍ट करने का अपना निष्‍कर्ष बताते हैं- निज अनुभव अब कहहुं खगेसा, बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा। और भक्ति की लिए वृत्ति बदलनी पडेगी अन्‍यथा उसमें मन नहीं लगेगा। राम कहते हैं – पापवंत कर सहज सुभाऊ, भजन मोर तेहि भाव न काऊ। कुरान में संसार-सुखों का उपभोग करते हुए कभी खत्‍म न होने वाले स्‍वर्गिक सुखों की ओर ले जाने वाने मार्ग पर चलने पर जोर दिया गया है। यह रास्‍ता है-संयम, ज्ञान और ईशभक्ति का। बिखरे व अशिक्षित समाज को व्‍यवस्थित व अनुशासित करने का उद्देश्‍य होने से कुरान में संयम , सदाचार और नैतिकता पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। धर्मनिष्‍ठों के लिए बार बार ऐसे मोहक व दिव्‍य सुखों का वर्णन किया गया है कि सुखापेक्षी लोग सहज ही आकर्षित हों। इसके विपरीत अधार्मिकों के लिए भीषण नारकीय यातनाओं और दुखों का मिलना बताया गया है। कुरान कहता है कि संसार के सुखों का उपभोग करो, लेकिन संयम- परहेजगारी के साथ। उनमें फंसो- डूबो नहीं।
यही बात गोस्‍वामी जी रामायण में कहते हैं। काम का ऐसा कौशलपूर्ण उपभोग कि वह धर्म और अर्थ का विरोधी न हो, नहीं तो उससे लोक-परलोक दोनों बिगडते हैं। काम क्रोध मद लोभ सब नाथ परक के पंथ। रामायण के अनुसार धर्मात्‍मा इन्द्रियजयी ही वस्‍तुत: वैषयिक सुख भोग करने में भी समर्थ होता है- गुनातीत अरु भोग पुरंदर।
मूर्ख लोग सुख आने पर फूल जाते हैं और दुख आने पर विलाप करते हैं। समझ‍दार दोनों में संयमित रहता है- सुख हरषहिं दुख जड बिलखाहीं, दोउ सम धीर धरहीं मन माहीं। दुख सत्‍संग से जाता और कहने से कम होता है- जामवंत अंगद दुख देखी, कही कथा उपदेस विसेषी। सीता हनुमान से कहती हैं- कहेहू ते कुछ दुख घटि जाई…।
भगवान राम ने संसार और मृत्‍युलोक दोनों में सुख पाने का सरल सूत्र बताया है। लंका विजय के बाद अयोध्‍या में हुई एक आम सभा में उन्‍हों ने सुख के लिए उनकी बातें सुन कर गांठ बांध लेने को कहा था-
जौ परलोक इहां सुख चहहू, सुनि मम बचन हृदय दृढ गहहू।
भगति पक्ष हठ नहिं सठताई, दुष्‍ट तर्क सब दूरि बहाई।
बैर न विग्रह आस न त्रासा, सुखमय ताहि सदा सब आसा।

भक्ति के प्रति तो आग्रह हो, लेकन दूसरे के मत का खंडन करे। जिसने सब कुतर्कों को बहा दिया हो, जिसके मन में किसी के प्रति लडाई -झगडा , आशा और भय आदि नहीं है उसके लिए सभी दिशायें सुख देने वाली हैं।
दुख व्‍यक्ति को तोडता , असामान्‍य बनाता है। विषाद, हताशा, निराशा, कुंठा और क्रोध लाता है। अपराध- अनाचार करा देता है। सुख बांधता है। आत्‍म प्रगति की ओर उन्‍मुख होने से रोकता है। अहंकार पैदा करता और बदले में अन्‍याय- अत्‍याचार करवा देता है। साधक सुग्रीव झटका लगने पर, सम्‍पत्ति, परिवार और प्रभुता के साथ ही (काम) सुख को भी भक्ति में बाधक बताते हैं-
सुख सम्‍पत्ति परिवार बडाई, सब तजि करिहउं तव सेवकाई।
ये सब राम भगति के बाधक , कहहिं संत तव पद आराधक।

रामायण दरिद्र को सबसे बडा दुख और संत मिलन को सब से बडा सुख बताती है।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं, संत मिलन सम सुख जग नाहीं।बिषयरत ब्‍यक्ति के लिए अर्थाभाव सबसे बडा दुख है। दरिद्र का अर्थ अज्ञान- मोह भी है जो सब दुखों की जड- मोह सकल ब्‍याधिन्‍ह कर मूला – है। मोहयुक्‍त धनवान ब्‍यक्ति भी दुखी रह सकता है । धनहीन भी सुखी रह सकता है और धनवान होकर भी दुखी रह सकता है।
कोई रोवै महल में , वन में गावै कोय, दुख सुख्‍ा तो बाहर नहीं मन ही में सब होय।
गीता दोनों स्थिति में सम रहने को कहती है। अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थिति ही हमें सुखी-दुखी बना कर बांधती है। कृष्‍ण प्रिय भक्‍तों के लक्षणों में ” सम दुखसुख:क्षमी ” कहते हैं। उन्‍हें सुख-दुख में सम रहने वाला क्षमाशील भक्‍त प्रिय है। सुख आता हुआ अच्‍छा और जाता हुआ बुरा लगता है। दुख आता हुआ बुरा और जाता हुआ अच्‍छा लगता है। इस लिए समान सोच रख कर कर्तव्‍य कर्म करना ही बुद्धिमत्‍ता है। गीता कहती है-शीतोष्‍णसुखदुखेषुसम:। सुख -दुख देने वाली अनुकूलता और प्रतिकूलता की परिस्थितियों से रहित नहीं रहा जा सकता। इस लिए कृष्‍ण अर्जुन से हानि -लाभ और जय-पराजय में समान रह कर युद्धरत होने को कहते हैं- लाभालाभौजयाजयो।
संतोष से समता आती है। समता से यानी राग-द्वेष मिटने पर सब कुछ भगवान ही हैं ( ईशावास्‍यमिदं सर्वम् यत्किंचितजगत्‍यांजगत -संसार में जो कुछ भी है सब में ईश्‍वर है- ईशोपनिषद और धरती से आकाशों तक में जो कुछ है सब का मालिक अल्‍लाह है-‍कुरान) ऐसा अनुभव हो जाता है। इस लिए भगवान भक्‍तों को समता देते हैं – ददामिबुद्धियोगम्। समता ही बुद्धियोग और कर्मयोग है – समत्‍वंयोग उच्‍यते।
जब तक राग-द्वेष रूपी द्वंद हैं तब तक दुख है। ईश्‍वर सुख स्‍वरूप-सुखपुंज है , इस लिए जीव स्‍वाभाविक रूप से सुख चाहता है। द्वंदों के रहते अनुपम ब्रह्म सुख की अनुभूति नहीं होती। राग-द्वेष संसार को महत्‍व देने से होते हैं। कुछ भी स्‍थायी न होने से संसार के राग-द्वेष भी नष्‍ट होने वाले हैं। लेकिन हम नये नये लोगों और वस्‍तुओं में इसे बनाये रखने का प्रयास करते हैं।

संतोष ही परम कल्याण है | संतोष ही परम सुख है | संतोषी को ही परम शांति प्राप्त होती है | संतोष के धनी कभी अशान्त नहीं होते | संसार का बड़े से बड़ा साम्राज्य-सुख भी उनके लिये तुच्छ तिनके के समान होता है | विषम-से-विषम परिस्थिती में भी संतोषी पुरुष क्षुब्ध नहीं होता | सांसारिक भोग-सामग्री उसे विष के समान जान पड़ती है | संतोषामृत की मिठास के सामने स्वर्गीय अमृत का उमडता हुआ समुद्र भी फीका पड जाता है |जिसे अप्राप्त की इच्छा नहीं है, जो कुछ प्राप्त हो उसी में जो समभाव से संतुष्ट है, जगत के सुख-दुःख उसका स्पर्श नहीं कर सकते | जब तक अन्त:करण संतोष की सुधा-धारा से परिपूर्ण नहीं होता तभी तक संसार की सभी विपत्तियां है | संतोषी चित्त निरंतर प्रफुल्लित रहता है , इसलिये उसी में ज्ञान का उदय होता है | संतोषी पुरुष के मुख पर एक अलोकिक ज्योति जगमगाती रहती है, इससे उसको देखकर दुखी पुरुष के मुख पर भी प्रसन्नता आ जाती है | संतोषी पुरुष की सेवा में स्वर्गीय-सम्पतिँया, विभूतियाँ, देवता, पितर और ऋषि-मुनि अपने को धन्य मानते है | भक्ति से, ज्ञान से, वैराग्य से अथवा किसी भी प्रकार से संतोष का सम्पादन अवश्य करना चाहिये |