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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Saturday, July 27, 2013

||शिवताण्डवस्तोत्रम् ||


||शिवताण्डवस्तोत्रम् ||

||श्रीगणेशाय नमः ||

जटा टवी गलज्जल प्रवाह पावितस्थले, गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं, चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ||१||
जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी, विलो लवी चिवल्लरी विराजमान मूर्धनि |
धगद् धगद् धगज्ज्वलल् ललाट पट्ट पावके किशोर चन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ||२||
धरा धरेन्द्र नंदिनी विलास बन्धु बन्धुरस् फुरद् दिगन्त सन्तति प्रमोद मानमानसे |
कृपा कटाक्ष धोरणी निरुद्ध दुर्धरापदि क्वचिद् दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ||३||
लता भुजङ्ग पिङ्गलस् फुरत्फणा मणिप्रभा कदम्ब कुङ्कुमद्रवप् रलिप्तदिग्व धूमुखे |
मदान्ध सिन्धुरस् फुरत् त्वगुत्तरीयमे दुरे मनो विनोद मद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ||४||
सहस्र लोचनप्रभृत्य शेष लेखशेखर प्रसून धूलिधोरणी विधूस राङ्घ्रि पीठभूः |
भुजङ्ग राजमालया निबद्ध जाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोर बन्धुशेखरः ||५||
ललाट चत्वरज्वलद् धनञ्जयस्फुलिङ्गभा निपीत पञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम् |
सुधा मयूखले खया विराजमानशेखरं महाकपालिसम्पदे शिरोज टालमस्तु नः ||६||
कराल भाल पट्टिका धगद् धगद् धगज्ज्वल द्धनञ्जयाहुती कृतप्रचण्ड पञ्चसायके |
धरा धरेन्द्र नन्दिनी कुचाग्र चित्रपत्रक प्रकल्प नैक शिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम |||७||
नवीन मेघ मण्डली निरुद् धदुर् धरस्फुरत्- कुहू निशीथि नीतमः प्रबन्ध बद्ध कन्धरः |
निलिम्प निर्झरी धरस् तनोतु कृत्ति सिन्धुरः कला निधान बन्धुरः श्रियं जगद् धुरंधरः ||८||
प्रफुल्ल नीलपङ्कज प्रपञ्च कालिम प्रभा- वलम्बि कण्ठकन्दली रुचिप्रबद्ध कन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छि दांध कच्छिदं तमंत कच्छिदं भजे ||९||
अखर्व सर्व मङ्गला कला कदंब मञ्जरी रस प्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्त कान्ध कान्त कं तमन्त कान्त कं भजे ||१०||
जयत् वदभ्र विभ्रम भ्रमद् भुजङ्ग मश्वस – द्विनिर्ग मत् क्रमस्फुरत् कराल भाल हव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ||११||
स्पृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्- – गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृष्णारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः ( समं प्रवर्तयन्मनः) कदा सदाशिवं भजे ||१२||
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ||१३||
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ||१४||
पूजा वसान समये दशवक्त्र गीतं यः शंभु पूजन परं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः ||१५||
इति श्रीरावण- कृतम् शिव- ताण्डव- स्तोत्रम् सम्पूर्णम्

Monday, July 22, 2013

प्रेमी भक्त उद्धव

प्रेमी भक्त उद्धव 

'हे उद्धव! शंकर, ब्रम्हा, बलराम, लक्ष्मी और स्वंय अपना आत्मा भी मुझे उतना प्रिय नहीं है,जितने प्रियतम तुम हो!'

भगवान् श्रीकृष्णमें परमप्रेमका होना ही भक्ति है! यों तो भक्तिके अवान्तर भेद बहुत-से हैं परन्तु साधारणतः भक्तिके दो भेद हैं -- एक साधनभक्ति और दूसरी साध्यभक्ति! साधानभक्तिके  द्वारा अन्तः करण शुद्ध होता है, उसके सुद्ध होनेपर आत्मतत्त्वका, भगवत् -तत्त्वका बोध होता है और उसके बाद पराभक्ति अथवा साध्यभक्तिकी प्राप्ति होती है! पराभाक्तिसे रहित जो ज्ञान है, वह परम ज्ञान नहीं है, केवल साधानज्ञान है, परोक्षज्ञान है! पराभक्ति और परमज्ञान एक ही वस्तु हैं, इनमें तनिक भी भेद नहीं है! परमज्ञान अथवा परमभक्तिका प्राप्त होना ही जीवनकी सफलता है! जबतक यह प्राप्त नहीं होती तबतक जीव भटकता रहता है! यह किस प्रकार प्राप्त होते हैं, इस प्रश्नका उत्तर उद्धवका जीवन है! उनके जीवनमें क्रमशः साधनभक्ति, साधनज्ञान, पराभक्ति और परमज्ञानका उदय हुआ है! वे भगवान् के प्रेमी भक्त हैं, उनके तत्त्वके परमज्ञानी हैं, उनके पार्षद हैं और उनके स्वरुप ही हैं!

मथुराके यदुवंशियोंमें वासुदेवके सगे भाई देवभाग बहुत ही प्रसिद्ध  थे! वे भगवान् के भक्त थे, देवता और ब्राम्हणोंके उपासक थे, संतोंपर उनकी अपार श्रद्धा थी और उनकी धर्मपत्नी भी उन्हींके अनुकूल आचरण करनेवाली सती साध्वी थीं! जिन दीनों भगवान् श्रीकृष्ण मथुरामें अवतीर्ण हुए,उन्हीं दीनों इन दम्पतिके गर्भसे उद्धवका जन्म हुआ! उद्धव भगवान् के नित्य पार्षद हैं! जब भगवान् मथुरामें आये तब वे कैसे न आते? वे आये जबतक रहे, भगवान् की सेवामें लगे रहे! उनके मनमें दूसरी कोई इच्छा ही नहीं थी, यंत्रकी भाँती भगवान् की इच्छाका पालन करते थे!

बचपनमें ही ये भगवान् के परमभक्त थे! खेलमें भी भगवान् के ही खेल खेलते! किसी पेड़के नीचे भगवान् की मिट्टीकी मूर्ति बना लेते! यमुनामें स्नान कर आते! लताओंसे सुन्दर-सुन्दर फूल तोड़ लाते! फलोंसे भगवान् को भोग लगाते और उनकी पूजामें इतने तल्लीन हो जाते कि शारीरकी सुधि नहीं रहती! कभी उनके नामोंका कीर्तन करते , कभी उनके गुणोंका गायन करते और कभी उनकी लीलाओंके चिंतनमें मस्त हो जाते! सारा दिन बीत जाता, उन्हें भोजनकी याद भी नहीं आती! माता बुलाने जातीं - 'बेटा! देर हो रही है, चलो कलेवा कर लो! भोजन ठंडा हो रहा है, दिन बीत गया, क्या तुम मेरी बात ही नहीं सुनते! आओ लल्ला! में तुम्हें अपनी गोदमें उठाकर ले चलूँ, अपने हाथोंसे खिलाऊँ !' परन्तु उद्धव सुनते ही नहीं, भगवान् की पूजामें तन्मय रहते! कभी सुनते भी तो तोतली जबानसे कह देते -- ' माँ, अभी तो मेरी पूजा ही पूरी नहीं हुई है, मेरे भगवान् ने अभी खाया ही नहीं, में कैसे चलूँ? में कैसे खाऊँ? पांच बरसकी अवस्थामें उद्धवकी यह भक्तिनिष्ठा देखकर माता चकित रह जाती! पूजा पूरी हो जानेपर प्रेमसे गोदमें उठा ले जाती और खिलाती- पिलाती!

उद्धव आठ बरसके हुए! यज्ञोपवीत-संसकार हुआ! विद्याध्ययन करनेके  लिये गुरुकुलमें गए! साधारण गुरुकुलमें नहीं, देवताओंके गुरुकुलमें, देवताओंके पुरोहित आचार्य बृहस्पतिके पास! सम्पूर्ण विद्याओंका रहस्य प्राप्त करते इन्हें विलम्ब नहीं हुआ! सम्पूर्ण विद्याओंका रहस्य है -- भगवान् से प्रेम! वह इन्हें प्राप्त था ही! अब उसको समझनेमें क्या विलम्ब होता! वास्तवमें जिनकी बुद्धि सुद्ध है;जपसे,तपसे,भजनसे जिन्होंने अपने मस्तिष्क को साफ़ कर लिया है, सभी बाते उनकी समझमें शीघ्र ही आ जाती हैं! यह देखा गया है की सन्ध्या न करनेवालोंकी अपेक्षा सन्ध्या करनेवाले विद्यार्थी अधिक समझदार होते हैं! भगवान् सविता उनकी बुद्धि सुद्ध कर देते हैं! उद्धवमें भगवान् की भक्ति थी, साधना थी, वे बृहस्पतिसे बुद्धिसम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञातव्योंका ज्ञान प्राप्त करके उनकी अनुमतिसे मथुरा लौट आये!

मथुरामें  उनका बड़ा ही सम्मान था! सब लोग उनके ज्ञानके, उनकी नीतिके और उनकी मन्त्रणाके कायल थे! यदुवंशियोंमें जब कोई काम करनेमें मतभेद होता, कोई उलझन सामने आ जाती, उनसे कोई समस्या हल न होती तो वे उद्धवके पास जाते और उद्धव बड़ी ही योग्यताके साथ उलझनोंको सुलझा देते, सारी समस्याको हल कर देते! सब उनकी बुद्धिपर, उनके शास्त्रज्ञानपर लट्टू थे, उनका पूरा विश्वास करते थे! और वे भी सबकी सेवा करते हुए, सबका हित करते हुए कंसकी दुर्नीतियोंसे लोगोंको बचाते हुए भगवान् के भजनमें तल्लीन रहते थे!

भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावनसे मथुरामें आये, कंसका उद्धार हुआ और संस्कारसंपन्न होकर वे उज्जयिनीके गुरुकुलमें अध्ययन करने चले गये! जब वे वहाँसे लौटे और मथुरामें रहने लगे तब उद्धव प्रायः उनके साथ ही रहते थे! वे श्रीकृष्णके साथ ही सोते, श्रीकृष्णके साथ ही बैठते, उनके साथ ही टहलते, उनके साथ ही स्नान करते, मनोरंजन और भोजन भी साथ ही करते! उन्होंने अपना ह्रदय खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया था, वे श्रीकृष्णके एक अन्तरंग सखा थे! उन्हें भगवान् के दर्शनमें, संनिद्धिमें, आलापमें और आज्ञापालनमें इतना आनंद आता कि वे सारे जगतको भूले रहते! श्रीकृष्णके साथ उनका सम्बन्ध सखाका सम्बन्ध था, वे श्रीकृष्णके  एकान्त -प्रेमी थे!

भगवान् किस उद्देश्यसे कौन-सी लीला करते हैं, इस बात को स्वयं भगवान् जानते हैं या उनके कृपापात्र  संत जानते हैं! हम लोग तो उस लीलाका केवल बाह्यरूप देखते हैं और अपनी बुद्धिके अनुसार उसका अर्थ कर लेते  हैं! भगवान् ने  एक दिन ऐसी ही लीला रची! पता नहीं गोपियोंके प्रेमसे आकर्षित होकर रची, अपनी दयालुतासे रची, उद्धवके हितके लिए रची अथवा गोपियोंका प्रेम प्रकाशमें लाकर उससे जगतका कल्याण करनेके लिये रची! सभी बातें ठीक हैं, भगवान् की लीलामें भक्तोंकी अभिलाषा, भगवान् की दयालुता, किसी भक्तका हित और जगतका कल्याण रहता ही हैं! हाँ, तो भगवान् ने एक लीला रची!

श्रीकृष्णने अपने परम प्रेमी सखा उद्धवको एकांतमें ले जाकर उनका हाथ अपने हाथमें लेकर बड़े ही प्रेमसे कहा! उस समय श्रीकृष्णके मुखमण्डलपर करुनाका संचार हो गया था! उनकी आँखें प्रेमसे भरी हुई थीं! उन्होंने उद्धवसे कहा -' प्यारे उद्धव! तुम्हें मेरा एक काम करना होगा! यह काम केवल तुम्हारे ही करनेयोग्य है! तुम व्रजमें जाओ! वहाँ मेरे सच्चे माता-पिता रहते हैं! मैं उनकी गोदमें खेलता था, वे दुलारके साथ मुझे अपने हाथों खिलाते थे, आँखोंकी पुतलीकी भाँती मुझे जोगवते ही उनका सारा समय बीतता था! यदि मेरे कलेवा करनेमें तनिक भी देर हो जाती थी तो वे छटपटा उठते थे! मैं हठ करके गौओंको चराने चला जाता था तो दिनभर उनकी आँखें वनकी ही और लगी रहती थीं! मेरे बिना उनका जीवन भार हो गया होगा! मक्खन-मिश्री देखकर उन्हें मेरी याद आती होगी, बाँसुरी देखकर वे बेसुध हो जाते होंगे, मेरी प्यारी गौएँ जब मुझे ढूँढती  हुई -सी इधर -उधर भटकती होगीं, तब उनका कलेजा फटने लगता होगा! उन्हें केवल तुम्हीं सांत्वना दे सकते हो! मेरे ह्रदयकी बात जाननेवाले  उद्धव! उन्हें प्रसन्न करनेकी क्षमता केवल तुममें ही है!

'मेरी गोपियाँ हैं, उन्हें मेरे वियोगका कितना दुःख है, वे मेरे लिये बिना पानीकी मछलीकी भाँती किस प्रकार तडफड़ा रही होंगी, इसका अनुमान और वर्णन नहीं किया जा सकता! उद्धव! मैंने कई बार एकांतमें तुमसे उनकी चर्चा की है! उन्होंने अपना सर्वस्व मुझे समर्पित कर दिया है, उनका जीवन मेरी प्रसन्नताके लिये है! उन्होंने अपनी आत्मा, अपना ह्रदय मुझे दे दिया हैं! वे मुझे सोचा करती हैं, मन-ही-मन मेरी सेवाकी भावना करके अपना समय बिताया करती हैं! उन्होंने अपने प्राणोंको मेरे प्राणोंमें मिला दिया है और उन सब कामोंको छोड़दिया है जो मेरी प्रीतिके बाधक हैं! और तो क्या , उन्होंने मेरे लिये दुस्त्यज स्वजन और दुस्त्याज आर्यपथका त्याग कर दिया है! वे मुझे ही अपना प्रियतम समझती हैं, मेरे विरहमें उनकी आत्मा छटपटा रही होगी! वे विरहसे, उत्कंठासे विह्वल हो रही होंगी! उन्हें यमुना देखकर मेरे जल- विहारकी याद आती होगी, लता-कुंज और वन -वीथियोंको देखकर उन्हें मेरी रहस्य -क्रीडाका ध्यान आ जाता होगा! कहाँतक कहूँ! व्रजकी एक-एक वस्तु वहाँका एक-एक  अणु, एक -एक परमाणु उन्हें मेरी याद दिलाकर बड़ी व्यथा देता होगा! उद्धव ! तुम निश्चय समझो, वे आँख उठाकर उनकी और देखतीतक नहीं, अबतक उन्होंने प्राणत्याग कर दिया होता यदि पुनः उन्हें मेरे व्रजमें जानेकी आशा नहीं होती! वे मेरी गोपियाँ हैं, उनकी आत्मा मेरी आत्मा है! वे बड़े कष्ट से जीवित रह रही हैं! जाओ, तुम उन्हें मेरा सन्देश सुनाओ और समझा -बुझाकर किसी प्रकार उनकी विरह- व्याधि कुछ कम करनेकी चेष्टा करो!

'मेरे वे सखा, मेरे संगी, जिनके साथ मैं खेलता था, जिनसे मेरा ऊँच-नीचका तनिक भी व्यवहार नहीं था, जो घुल-मिलकर मुझसे एक हो गये थे, आज भी गौओंको लेकर जंगलमें चराने आते होंगे! और दिनभर टकटकी लगाकर मथुराकी और देखते रहते होंगे! उद्धव! वे मेरे जीवन-सखा हैं! सहचर हैं! मेरी लीलाके सहकारी हैं! उनके साथ मैं जंगलमें खता था! वे अपने घरसे अच्छी-अच्छी चीजें ला-लाकर पहले मुझे खिलाया करते थे! गौएँ दूर चली जाती तो वे मुझे नहीं जाने देते, स्वयं ही जाकर हाँक लाते थे! उनपर तनिक सी भी आपत्ति आती तो वे मुझे पुकारने लगते, सच्चे ह्रदय से पुकारते! ब्रह्मा उन्हें हर ले गये! मैंने वर्षभरतक उनका रूप धारण किया! ब्रह्मा छक गये! इन्द्र ने उनका अनिष्ट करना चाहा, मैंने सात दिनोंतक अपनी ऊँगलीपर गौवर्धन उठा रखा! उनके साथ मैं उछलता था, कूदता था, खेलता था, उनकी स्मृति मुझे रह -रहकर आया करती है! तुम जाओ! उन्हें केवल तुम्हीं समझा सकते हो!

'मेरी गौएँ हैं! मैं जब उनके पीछे -पीछे चलता था तो वे सर घुमा-घुमाकर मुझे देख लिया करती थीं! जब मैं बाँसुरीमें उनका नाम लेकर पुकारता तब वे चाहे कहीं भी होतीं, मेरे पास दौड़ चली आतीं! जब मैं उनकी ललरियोंको सहलाने लगता, तब वे अपना सिर उठाकर प्रेमसे मुझे देखा करतीं और उनके थनोंसे दूध गिरने लगता था! जब मैं बाँसुरी बजाता, तब मुझे घेरकर खड़ी हो जातीं  और उनके मुँहमें जो घास होती, उसे उगलना और निगलना भी भूल जातीं! उस दिन जब मैं कालिय- कुण्डमें कूद गया था, तब वे सब मेरे पीछे उसमें घुसने जा रही थीं! वे बड़े बलसे रोकी जा सकीं और जबतक मैं निकला नहीं, तबतक किनारे खड़ी होकर रोती तथा रँभाती रहीं! वे अब मुझे न देखकर कितनी पीड़ित, कितनी व्यथित होंगी? उद्धव! वे तुम्हें देखकर कुछ सान्त्वना प्राप्त करेंगी! मेरी ही -जैसी आकृति और मेरे ही -जैसे वस्त्रोंको देखकर वे तुमसे प्रेम करेंगी और जब तुम उन्हें सहलाओगे तब वे प्रसन्नता -लाभ  करेंगी!'

'उद्धव! व्रजका एक-एक स्थान, वहाँका एक-एक वृक्ष, एक -एक लता मुझे स्मरण आ रही है, मैं उन्हें भूल नहीं रहा हूँ! वहाँके सारस, हंस, मयूर, कोकिल सभी मुझे याद आ रहे हैं! वहाँकी वे हरिण और हरिणीयाँ, जो मेरे पास आकर मेरा शरीर खुजलाती थीं, मेरे ह्रदयमें वैसी ही चेष्टा करती हुई दीख रही हैं! वहाँके भौरोंकी गुंजार अब भी मेरे कानोंको भर रही है! वहाँके पक्षियोंका  कलरव अब भी मेरे मनको मोहित कर रहा है! उद्धव! तुम जाओ, अब तनिक भी विलम्ब मत करो!'

सम्भव है, गोपियोंके प्रेमका वर्णन सुनकर उद्धवके मनमें यह अभिलाषा रही हो की मैं व्रजमें जाकर उनका प्रेम देखूँ! अथवा शायद वे ज्ञानमें ही डूबते रहे हों, भगवान् ने प्रेमरसके आस्वादनके लिये उन्हें व्रजमें भेजा हो; कुछ भी हो, भगवान् ने उन्हें व्रजमें भेजा और उन्होंने अविलम्ब आज्ञाका पालन किया! उद्धव भगवान् का सन्देश लेकर रथपर सवार हुए और संध्या होते-होते वे व्रजकी सीमामें पहुँच  गए! वहाँकी हरी-हरी वनपंक्तियाँ सुर्यकी लाल-लाल किरणोंसे अनुरंजित हो रही थीं, मानों व्रजभुमिने उद्धवके स्वागतके लिये सहस्त्र -सहस्त्र लाल पताकाएँ फहरा दी हों! उद्धवका रथ वृन्दावनकी और बढ़ रहा था!

व्रजभूमि प्रेमकी भूमि है! लीलाकी भूमि है! वहाँके एक-एक रजकण पूर्ण रसमय हैं, वहाँके एक-एक अणुसे अनन्त-अनन्त आनन्दकी धारा प्रवाहित होती है! वहाँकी लताएँ साधारण नहीं है! मृदुलताकी लताएँ हैं! वहाँके वृक्षोंकी पंक्ति रसिकोंकी जमात है! वहाँकी नदियाँ प्रेमके अमृतसे भरी रहती हैं! वहाँके वायु-मंडलमें श्रीकृष्णके विग्रहकी दिव्य सुरभि प्रवाहित हुआ करती है! वहाँकी गौएँ साक्षात उपनिषदें हैं! वहाँका गौरस ब्रह्मरस है! वहाँके ग्वाल, गोपियाँ सब श्रीकृष्णके अंग हैं! श्रीकृष्ण ही व्रजके रूपमें प्रकट हैं! श्रीकृष्ण व्रजमय हैं,श्रीकृष्णमय व्रज है! वहाँ प्रेम,आनन्द, शांतिके अतिरिक्त और कुछ नहीं है!

सन्ध्याका समय था, गौएँ वृन्दावनकी  और लौट रही थीं! उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल श्रीकृष्णकी लीलाओंका गायन करते हुए जा रहे थे! किसीकी दृष्टि दुरसे उड़ती हुई धुलपर पड़ी, मानो व्रजकी रजरासी पहले स्नान कराकेकिसीको व्रजमें आनेका अधिकार बना रही हो! जब रथ दिखने लगा तब किसीने कहा --' देखो वह रथ आ रहा है!' किसीने कहा --'श्रीकृष्ण ही होंगे!' किसीने कहा -- 'हाँ,हाँ, देखो पीताम्बर, माला और कुण्डल दिखने लगे हैं! शरीर भी श्यामवर्णका ही है! वही रथ, वही घोड़े परन्तु श्रीकृष्ण अकेले क्यों हैं? क्या दाऊ भैया वहीं रह गये? कन्हैयासे आये बिना नहीं रहा गया होगा, इसीसे वे अकेले चले आये होंगे!' सब-के-सब ग्वालबाल उद्धवके रथकी और दौड़ पड़े! उस समय उनके मनमें कितना उल्लास रहा होगा!

ग्वालबालोंने पास जाकर पहचाना! ' ये तो श्रीकृष्ण नहीं हैं! हमारे ऐसे भाग्य कहाँ की वे आवें! परन्तु उसी रथपर वैसे ही वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित यह कौन है?' वे इस प्रकार सोच ही रहे थे की उद्धव रथ खड़ा करके नीचे उतर पड़े, मन-ही-मन उन्हें प्रणाम करके ह्रदयसे लगा लिया! उन्होंने कहा -- 'मैं श्री कृष्ण का सेवक उनके रहस्यसंदेशोंको लेकर यहाँ आया हुआ हूँ! उन्होंने बड़े प्रेमसे तुमलोगोंका स्मरण करके मुझे यहाँ भेजा है! घबरानेकी कोई बात नहीं है, एक-न-एक दिन श्रीकृष्ण तुम्हें मिलेंगे ही! भला तुमलोगोंको छोड़कर वे कैसे रह सकते हैं?'  

श्रीदामाने कहा -- 'क्या श्रीकृष्ण इतने निर्मोही हो गये? परन्तु ऐसी सम्भावना नहीं है! उनका ह्रदय बड़ा कोमल है! वे जब गौओंको चराकर लौटते थे, रातमें हमलोग अपने घर चले जाते थे और वे अपनी माँके पास जाकर सोते थे तब रातमें भी वे हमारे लिये छटपटाया करते थे! स्वप्नमें भी हमारा नाम लेकर पुकारा करते थे! प्रातः काल होते  ही हमलोगोंके पास आनेके लिये उतावले हो उठते थे! यदि माँ यशोदा सावधान न रहतीं तो वे बिना कुछ खाये-पिये हमलोगोंके पास दौड़ आते थे! दिनभर हमारे साथ खेलते थे, खाते थे,हमें तनिक भी कष्ट नहीं होने देते थे! वे ही हमारे श्रीकृष्ण, वही हमारा कन्हैया मथुरामें जाकर इतना निष्ठुर हो गया! यह कैसे सोचें,कैसे समझें, कैसे विश्वास करें?'

'उद्धव! तुम कहते  हो की एक-न -एक दिन वे हमें अवश्य मिलेंगे! परन्तु तुम जानते नहीं की उनके बिना एक क्षण युगके समान, एक घड़ी मन्वन्तरके समान,एक पहर कल्पके समान और एक दिन द्वीपरार्धके समान व्यतीत होता है! हम एक क्षण भी उन्हें नहीं भूल सकते! जब वे हमारे साथ खेलते थे, तब दिन-का-दिन पलक मारते बीत जाता था! आज उनके बिना हमारा  जीवन भार हो गया है! सारा संसार शून्य -सरीखा मालुम होता है! वे ही वन हैं, वे ही वृक्ष-लताएँ है, जिनके निचे कोमल कोंपलोंकी शय्यापर श्रीकृष्ण लेट जाते थे, हम बड़े-बड़े पत्तोंसे हवा करके उनके श्रमबिंदु सुखाते थे! उनके चरण-कमलोंको अपनी गोदमें लेकर अपने ह्रदयसे सटाते थे! उनके हाथ अपने हाथमें लेकर दिव्य सुखका अनुभव करते थे! वही यमुना है जिसमें हमलोग घण्टों जलक्रीडा करते थे! वही व्रजभूमि है जिसमें हमलोग लोटते थे! परन्तु वही सब रहनेसे क्या हुआ, श्रीकृष्णके बिना सब काटने दौड़ता हैं, उनकी और आँखें उठाकर देखातक नहीं जाता! उद्धव! हुम सत्य कहते   हैं, हमारी पीड़ा तब और भी बढ़ जाती है जब ये गौएँ रँभाती हुई अपना सिर उठाकर मथुराकी और देखती हैं! ये बछड़े जब किसीको दुरसे आते देखते हैं तो अपनी माँका दूद पीना छोड़कर मानो श्रीकृष्ण ही आ रहे हों, इस भावसे उधर देखने लगते हैं! यदि हमें उनके आनेकी आशा न होती तो अबतक हमारे प्राण न रहते!'

इन ग्वालबालोंका प्रेम देखकर उद्धव तो मुग्ध हो रहे थे! वे पुनः रथपर सवार नहीं हुए! ग्वालबालोंके साथ ही बातचीत करते हुए व्रजकी दशा* देखते हुए नंदबाबाके दरवाजेके पास आ पहुँचे! ग्वालबाल दुसरे दिन मिलनेकी बात कहकर अपनी गौओंको ले-लेकर अपने-अपने घर चले गये! उद्धवने जाकर नंदबाबाको प्रणाम किया! नंदबाबाने उठकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और बड़ी प्रसन्नतासे, बड़े प्रेमसे उन्हें साक्षात श्री कृष्ण समझकर उनका सत्कार किया! जब वे नित्य-कृत्य और भोजन-भजनसे निवृत्त हुए तथा प्रसन्न होकर आसनपर बैठे तब नंदबाबाने बड़े प्रेमसे उनके पास बैठकर मथुराका कुशल-समाचार पूछा! नंदबाबाने कहा - 'उद्धव! मेरे प्रिय बंधू वासुदेव कुशलसे हैं न? उनके पुत्र, मित्र, भाई, बंधू सब प्रसन्न हैं न? बहुत दुःखके बाद उन्हें सुखके दिन देखनेको मिले हैं, यह भगवान् की बड़ी कृपा है! पापी कंस पापके परिणामस्वरूप अपने साथियोंके साथ मारा गया! वह धार्मिक यदुवाशियोंसे बड़ा ही द्वेष रखता था! अब तो सब लोग स्वतंत्रासे धर्माचरण कर पाते हैं न?'

नन्दने आगे कहा -- 'उद्धव! क्या श्रीकृष्ण कभी अपनी माँका स्मरण करते हैं? क्या वे अपने साथ खेलनेवाले ग्वालबालोंको भूल गये? क्या वे अपनी प्यारी गौओंको कभी स्मरण नही करते? उनके ही आने की आशासे जीवित रहनेवाले व्रजवासियोंको क्या वे भूल सकेंगे? वृन्दावन, यमुना, गोवर्धन आज भी उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं! गोवर्धन सिर उठाकर उनका मार्ग देख रहा है! वृन्दावन और यमुना उनके विरहमें सूखते जा रहे हैं! उद्धव! क्या सचमुच वे आयेंगे? क्या उनका सुन्दर मुखड़ा, उनकी तोतेकी ठोर-सी नाक, उनकी मुस्कान और उनकी चितवनका आनंद मेरी इन आँखोंको प्राप्त हो सकेगा?

                          कुंजनमें भौंरपुंज गुंजरत स्याम स्याम, 
                                      बोलत बिहंग त्यों कुरंग स्याम नाम है!
                        धेनु तृन मुख धरि स्यामई पुकारती हैं,       
                                   जमुना-तरंग सोर स्याम सब जाम है!!
बैठतमें बागतमें सोवतमें जागतमें,        
                स्याम-रट लागत न रागत बिराम है!
कृष्णचन्द्र बिरह मवासी व्रजबासी सबै,      
           'रघुराज' हेरी रहे स्याम स्याम स्याम है!!

श्रीकृष्ण केवल मेरे बालक ही नहीं हैं, वे हमारे और सम्पूर्ण व्रजके जीवनदाता हैं! उन्होंने दावाग्निसे, बवण्डरसे, वर्षासे, वृषासुरसे और अघासुरसे हमारी रक्षा की है, हमें मृत्युके मुँहसे बचाया है! हम इनके इस दृष्टिसे भी आभारी हैं! परन्तु क्या उन्होंने इसी दिनके लिये हमें बचाया था? क्या यही दुःख देनेके लिये उन्होंने हमें सुखी किया था? उद्धव! क्या कहूँ? मैं उनकी शक्ति का स्मरण करता हूँ, उनके खेल का स्मरण करता हूँ, उनका मुखड़ा, उनकी टेढ़ी-टेढ़ी भौहें, उनके वे काली घुँघराली अलकें मेरे सामनेसे नाच जाती हैं, वे मेरे सामने हँसते हुए -से दीखते हैं! मेरी गोदमें बैठकर मुझे 'पिताजी' 'पिताजी' पुकारते हुए जान पड़ते हैं! वे मेरे पीछेसे आकर मेरी आँखें बंद कर लेते थे, मेरी गोदमें बैठकर मेरी दाढ़ी खींचने लगते थे, ये सब बातें मुझे, आज भी याद आती हैं, आज भी मैं उसी रसमें डूबा जाता हूँ! परन्तु हा देव, कहाँ है वे? मैं लाल-लाल ओठोंवाले कमलनयन  श्यामसुन्दरको बलराम और बालकोंके साथ यहीं इसी चबूतरेपर खेलते हुए कब देखूँगा? मेरे जीवन को धिक्कार हैं! मैं उनके बिना भी जीवित हूँ! सच कहता हु उद्धव! यदि उनके आने की आशा न होती, वे मेरे मरनेका समाचार सुनकर दुखी होंगे, यह बात मेरे मन में न होती तो अबतक मैं मर गया होता! सुनता हूँ, गर्गने बतलाया था; और कंस आदिको मारते समय मैंने भी अपनी आँखोंसे उनका बल-पौरुष देखा था कि वे भगवान् हैं! यह सत्य होगा और सत्य हैं! तथापि वे मेरे पुत्र हैं न! चाहे जो हो जाय मुझे तो उन दिनोंकि याद बनी ही रहेगी, जिन दिनों वे नन्हें-से बच्चे थे, मैं उन्हें अपनी गोदमें लेकर खेलता था, वे धूलभरे शारीरसे आकर मेरे कपड़े मैले कर देते थे! मेरे तो वे पुत्र हैं! मैं और कुछ नहीं जनता!

इतना कहते -कहते नन्द वात्सल्यस्नेहके समुद्रमें डूब गये! नेत्रोंसे आँसुओंकि धारा बह चली! उनकी बुद्धि श्रीकृष्णकी लीलामें प्रवेश कर गयी और वे कुछ बोल न सके, चुप हो गये! यशोदा वहीँ बैठकर नंदबाबाकी सभी बातें सुन रही थीं! उनकी आँखोंसे आँसू और स्तनोंसे दूध बहा जा रहा था! नंदबाबाको प्रेम्मुग्ध देखकर वे उनके पास चली आयीं और संकोच छोड़कर उद्धवसे पूछने लगीं -- 'उद्धव! तुम तो मेरे लल्लाके पास रहते हो, उसके सखा हो, वह सुखसे तो है न? सोकर उठा नहीं की दहीके लिये, मक्खनके लिये मेरे पास दौड़ आया! वहाँ उतने सबेरे उसे कौन खानेको देता होगा? क्या मेरा मोहन दोपहरको ही खाता है? वह दुबला तो नहीं हो गया है? क्या वहाँके पचड़ोंमें  पड़कर मुझे भूल तो नहीं गया ?  

क्या अपनी माँको भी कोई भूल सकता है? मेरा वही इकलौता लाल है! जब वह मुझसे हठ करता था, किसी बातके लिये मुझसे अड़ जाता था तो बिना वह काम कराये मानता ही नहीं था! वहाँ किसके सामने हठ करता होगा, मेरी ही भाँती कौन उसका दुलार करता होगा? कौन उसकी जिद्दको पूरी करता होगा? मेरा नन्हा व्रजका सर्वस्व है! कुलका दीपक है! उसे खिला-पिलाकर मैंने बहुत -से दिन पलके समान बिता दिये हैं! उस दिनकी बात तुमने भी सुनी होगी!

       मैं दही मथ रही थी, मैं तन्मय होकर दही मथनेमें  लगी थी और ऐसा सोच रही थी की मेरा कन्हैया अभी सो  रहा है! एकाएक वह आया और पीछेसे उसने मेरी आँखें बंद कर लीं! मैं उसके कोमल करोंका मधुर स्पर्श पाकर आनंदके मारे सिहर उठी! मैंने धीरेसे अपनी बाँहोंमें लपेटकर उसे अपनी गोदमें ले लिया और दूध पिलाने लगी! कभी-कभी वह दूध पीना छोड़कर मेरी और देखता, कितना सुन्दर, कितना कोमल, मरकतमणि -सा चिक्कन उसका कपोल है! लाल-लाल ओठोंमेंसे सफ़ेद-सफ़ेद दंतुलियाँ कितनी सुन्दर लग रही थीं! मैं मुग्ध होकर दिग्धके समान स्निग्ध उसके मुखड़ेको देखती रहती और वह फिर दूध पिने लगता! उद्धव! मुझे वह दिन नहीं भूलता! उस दिन मैंने अपने मोहनको उख्हलसे बाँध दिया था,क्यों? एक छोटे-से अपराधपर! उसने दूधके बर्तन फोड़ दिए थे, मक्खन वानरोंको खिला दिया था! उस बात की याद करके मेरा कलेजा अब भी काँप उठता है! क्या मैं दूध और मक्खनको कन्हैयासे अधिक चाहती हूँ! नहीं, उद्धव! यह बात स्वप्नमें भी नहीं है! आज भी मेरे पास दही है, दूध है, मक्खन है परन्तु मेरे ह्रदयका टुकड़ा, मेरी आँखोंका ध्रुवतारा, अंधेका सहारा मेरा कन्हैया मेरे पास नहीं है! उसके न होनेसे अब यह सब रहकर मुझे जलाते हैं! देखो, यह वहीं आँगन है, वही दरवाजा है, वही घर है और वही गलियाँ हैं! ये सब मोहनके बिना मुझे काटने दौड़ते हैं! मेरी आँखें कृष्णको ढूँढती हुई इनपर पड़ती  हैं परन्तु उसे न देखकर ये लौट आती हैं और मनमें यह बात आती है कि यदि ये आँखें न होतीं तो अच्छा होता !

यमुना -किनारे जाती हूँ, घण्टों बैठकर उसकी लहरियाँ गिनती रहती हूँ! ऐसा मालूम पड़ता है कि इसी नीले जलमें वह कहीं छिपा होगा परन्तु जब घण्टों नहीं निकलता तो आँखोंपर बड़ा क्रोध आता है! मैं अपने हाथोंसे ही इन आँखोंको फोड़ डालती, अपने श्यामसुन्दरके अतिरिक्त और किसीको देखना ही क्या है परन्तु उसीको देखनेकी लालसासे इन्हें बचा रखा है! क्या कभी मेरी अभिलाषा पूरी होगी, क्या दो दिनके लिए भी वह मेरे पास आवेगा? क्या मैं फिर उसे अपनी गोदमें ले सकूँगी? उद्धव! क्या मेरा जीवन, मेरी आँखें कभी सफल हो सकेंगी?'

यशोदाकी आँखोंसे झर-झर आँसूके निर्झर बह रहे थे! उनका गला भर आया, वे चुप होकर उद्धवकी  और देखने लगी! नन्द और यशोदाके इस अलौकिक प्रेमको देखकर उद्धव अवाक् हो गये! उनसे कुछ बोला नहीं गया! उद्धवमें शांत भक्ति पहलेसे ही थी, दास्यभाव भी था, सख्यका भी कुछ अंकुर उग  आया था; उनकी ऐसीही मानसिक स्थितिमें श्रीकृष्णने उन्हें वृन्दावन भेजा था! वृन्दावनमें प्रवेश करते ही उद्धवको सख्य-रसकी पूर्णता प्राप्त हुई! श्रीदामा आदि गोपोंसे मिलकर उन्होंने जाना कि सख्य -रसकी पूर्णता क्या है? व्रजमें प्रवेश करनेपर उन्होंने देखा, व्रजके घर -घरमें, वन-वनमें, वहाँके पशु-पक्षी-मनुष्य सभी श्रीकृष्णका गुणानुवाद गा रहे हैं! वहाँके एक-एक अणुसे श्रीकृष्णके नामकि ध्वनि निकल रही थी! नन्द और यशोदाके पास आकर उन्होंने वात्सल्य -रसका दर्शन किया! उनकी समझमें  ही नहीं आता था कि इन्हें क्या समझावें, इनसे क्या कहें? अन्तमें उन्होंने सोचा कि इन्हें श्रीकृष्णका ऐश्वर्य सुनाना चाहिये! वे कहने लगे ! अबतक नंदबाबा भी संभलकर बैठ गए थे!

          उद्धवने कहा --'बाबा नन्द! माँ यशोदा! आपलोग धन्य हैं! आपका जीवन सफल है! यदि मेरे रोम-रोम जीभ बन जायँ तो भी मैं आपकी पूरी प्रशंसा नहीं कर सकता! परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णमें -क्षरक्षरातीत पुरुषोत्तममें आपलोगोंका इतना सुन्दर भाव है, आपकी ऐसी भक्ति है, इसकी महिमा कौन गावे? तीर्थयात्रा, तपस्या, दान,ज्ञान और समाधिसे जिस वस्तुकी प्राप्ति कि जाती है, वह प्रेमलक्षण भक्ति आपको स्वयं ही प्राप्त हो गयी  है! श्रीकृष्ण केवल आपके बालक ही  नहीं  हैं! वे सम्पूर्ण पिताओंके पिता हैं! वे संसारके मूल कारण हैं! बलराम उन्हींकी शक्ति हैं! उन्हींकी प्रेरणासे संसारमें ज्ञान होता है और सब वस्तुएँ चेष्टा करती हैं! कोई भी प्राणी मृत्युके समय एक क्षण भी उनका चिंतन कर ले तो उसके सारे कर्म धुल जाते हैं और वह ब्रह्मा -स्वरुपको प्राप्त हो जाता हैं! आपलोगोंका उनसे सम्बन्ध तो है ही, उन्हें केवल अपना  पुत्र  न समझें, उन्हें सबका कारण, सबकी आत्मा समझें! यदि आप ऐसा कर सकेंगे तो फिर आपका कोई कर्तव्य शेष नहीं रहेगा! '

'वे सीघ्र ही यहाँ आयेंगे भी! यदि आप उन्हें शरीरसे  देखना चाहते हैं तो यह भी होगा, आप उनसे प्रेम करें और वे आपके पास न आवें, ऐसा नहीं हो सकता! कंस आदि दुष्टोंको मारनेके बाद यदुवंशियोंकी रक्षा- दीक्षाका सारा भार उन्हींपर आ पड़ा है! उनकी व्यवस्था करके वे यहाँ आ सकते हैं! गोपोंके वहाँसे चलनेके समय जो कुछ उन्होंने कहा था उसे श्रीकृष्ण अवश्य पूरा करेंगे! आपलोग बड़े ही भाग्यवान हैं! आप अपने निकट ही श्रीकृष्णका दर्शन प्राप्त करेंगे! वे आपसे दूर थोड़े ही हैं! वे आपके अंतरात्मा हैं, वे काष्टमें अग्निकी भाँती सर्वत्र व्यापक हैं! उनके लिये खिन्न होनेकी आवश्यकता नहीं! उनका न तो कोई प्रिय हैं और न तो अप्रिय! उनकी दृष्टिमें न कोई ऊँचा है, न नीचा! वे सर्वत्र समान हैं, अभिमान उनका स्पर्श नहीं कर पाता! न तो उनकी कोई माता है, न पिता है, न पत्नी है और न पुत्र! न कोई अपना है, न पराया! न शरीर है और न तो जन्म! न उनका कोई कर्म है और न तो उन्हें कर्मोंका फल भोगना है! वे अपने प्रेमी भक्तोंकी रक्षाके लिये लीलावतार ग्रहण करते हैं!

           'सत्त्व,रज और तम ये तीन गुण हैं! वे निर्गुण होनेपर भी क्रीडाके लिये इन गुणोंको स्वीकार करते हैं और संसारकी सृष्टि, रक्षा तथा प्रलय करते हैं! जैसे घुमती हुई वस्तुपर चढ़कर देखें तो साड़ी पृथ्वी घुमती हुई-सी दीख पड़ती है, वैसे ही चित्त करता-भोक्ता है और उसका आरोप आत्मापर किया जाता है! श्रीकृष्ण केवल तुम दोनोंके ही पुत्र नहीं है, वे भगवान् हैं, सबके पुत्र हैं, सबके पिता-माता हैं, सबके ईश्वर है और सबके आत्मा हैं, जो कुछ कभी हुआ है, जो कुछ है या हो रहा है, जो कुछ होगा या हो सकता है, जो कुछ देखा या सुना गया है, जो कुछ जड़ या चेतन है, जो कुछ बड़ा या छोटा है, सब कुछ श्रीकृष्ण हैं, श्रीकृष्णके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है! वे सब हैं, केवल वही हैं, एकमात्र वही परमार्थ वस्तु हैं!'
         इस प्रकार उन लोगोंमें बात होते-होते सारी रात बीत गयी! गोपियाँ अपने-अपने घर उठकर घरके देवताओंको नमस्कार करके दही मथने लगीं! वे एक स्वरसे 'गोविन्द, दामोधर, माधव' इत्यादि श्रीकृष्णके नामोंका समुधर गायन कर रही थीं! उनके इस प्रेम-गायनको सुनकर उद्धवने अपनी बात समाप्त की और नित्यकृत्य करनेके लिये वे यमुना-तटपर गये!
भगवत्सम्बंधके जितने भाव हैं, उनमें सख्य, वात्सल्य और माधुर्य --ये तीन भाव प्रधान हैं! यों तो भगवान् के साथ होनेवाले सभी सम्बन्ध उत्तम ही हैं परन्तु व्रजभूमिमें इन्हीं तीनोंकी विशेषता है! इन तीनोंमें भी माधुर्यभाव परम भाव है और वह रहस्य रस है! जो भगवान् के सख्य और वात्सल्यभावसे परिचित नहीं, इस मधुरतम रसमें उनका प्रवेश नहीं हो सकता! मधुर भाव क्या हैं? आत्माका आत्मामें रमण! भगवान् का अपनी आत्मस्वरूपा एवं अंतरंगा शक्तियोंके साथ, जो  की भगवन्मय ही हैं, दिव्य क्रीडा! आनंद और प्रेमका संयोग! त्रिगुणसे परे, प्रकृतिसे परे जो आत्माका आत्मस्वरूप ही रस है उसका आस्वादन! इसे उज्जवल रस भी कहते हैं!

इस उज्जवल रसमें एक होनेपर भी दो प्रकारकी अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं! एक मिलनकी और दूसरी बिछोहकी! भगवान् से मिलन और उनके साथ रस-क्रीडाका अवसर विरलेही भाग्यवानोंको मिलता है! उसे चाहनेपर भी गोपियोंका पद- रज ह्रदयमें धारण किये बिना कोई नहीं पा सकता! अधिकांश लोग ऐसे ही हैं, जो भगवान् से बिछुड़े हुए हैं और यदि चाहें तो इस बिछोहके द्वारा ही भगवान् के उस दिव्य रसका लाभ कर सकते हैं! बिछोहके मार्गमें भी कई  बाधाएँ हैं, इस मार्गका साधक पद-पदपर निराश हो सकता है, उसके मनमें यह भाव आ सकता है कि इतने दिन हो गये, परन्तु श्रीकृष्ण नहीं आये! अब वे नहीं आवेंगे! यह सोचकर वह साधनासे विरत हो सकता है! परन्तु ऐसा होना ठीक नहीं है! इस बातको हम गोपियोंसे सीख सकते हैं!

मथुरा वृन्दावनसे तीन ही कोसपर थी! श्रीकृष्ण वहाँ दो दिनके लिये आ सकते थे अथवा गोपियाँ ही कुछ दिनोंके लिये वहाँ जा सकती थीं! परन्तु ऐसा करनेसे उनके जीवनमें वियोगका आदर्श पूरा नहीं उतरता! गोपियाँ श्रीकृष्णसे अलग थोड़े ही हैं! श्रीकृष्ण गोपियोंसे अलग थोड़े ही हैं! यह वियोगकी लीला वियोगी साधकोंके आदर्शके लिये है! यदि बीचमें ही श्रीकृष्ण और गोपियोंका मिलन हो जाता तो वियोग-साधनाका आदर्श नहीं बनता! इसी आदर्शसे सिक्षा ग्रहण करनेके लिये या यों कहिये कि इसी आदर्शको जगतमें प्रकट करनेके लिये उद्धव व्रजभूमिमें गोपियोंके पास आये हुए हैं!

हम इन दोनों बातोंकी परिणति उद्धवके जीवनमें पायेगें! अभी तो उद्धव सीख रहे हैं, सिखने आये हैं! आगे चलकर श्रीकृष्णने वियोगमें भी इन्हें जीवन धारण करना पड़ेगा और संसारके  सामने प्रेमभक्तिका आदर्श स्थापित करना होगा तथा उसका रहस्य बतलाना होगा! व्रजमें उन्होंने गोपियोंमें क्या देखा, क्या सीखा, अभी तो यही चर्चा प्रासंगिक है!

सूर्योदयका समय था! दूद दुहा जा चूका था! दही मथनेकी ध्वनि अब कम हो चली थी! हरे-हरे वृक्षोंपर रंग-विरंगे पक्षी चहक रहे थे! बछड़े भी कूदक-कूदककर अपने हमजोलियों और माताओंसे खेल रहे थे! प्रेमकी करुनामिश्रित धारा चारों और फैली हुई थी, सब कुछ था परन्तु वह रौनक न थी जो श्रीकृष्णके रहनेपर रहती थी! सभीके आँखें किसीका अन्वेषण कर रही थीं! सबको एक अभाव-सा खटक रहा था! और जहाँ दृष्टि पड़ती थी वहाँ सुना-सा जान पड़ता था! मशीनकी भाँती सब अपने-अपने काममें लगे हुए थे परन्तु उनमें उत्साह नहीं था, स्फूर्ति नहीं थी! वे उन कामोंकी ओरसे कुछ उदासीन, कुछ सिथिल और कुछ खींचे हुए-से-जान पड़ते थे!

गोपियाँ घरसे बाहर निकलीं! उन्होंने देखा की नन्दके द्वारपर एक बहुत सुन्दर सोनेका रथ खड़ा है! सभीके मनमें कुतूहल हुआ कि यह किसका रथ है! किसीने कहा रथ तो वही है जिसपर श्रीकृष्ण गये थे! तब यह फिर क्यों आया है! कृष्णका नाम सुनकर बहुतोंकी आँखोंसे आँसू चू पड़े! कई मन मसोसकर  रह गयीं! उनकी कुछ सोयी हुई-सी कसक उभर आयी! किसीने कहा-'अब किसको ले जायगा? यहाँ ले जानेके लिए है ही क्या? श्रीकृष्ण गये हमारी आत्मा गयी! हमारे प्राण गये, अब यहाँ सूखे हाड़ोंकी ठटरी है! इसे कोई क्या करेगा? हाँ, हम श्रीकृष्णकी हैं! उन्होंने कहा है की हम आयेंगे! उनकी बात झूठी नहीं हो सकती! वे आवेंगे और हमें न पावें तो उन्हें क्लेश होगा! बस, इसीलिये हमें जीवित रहना है!'

इसी समय यमुनामें स्नान करके आते हुए उद्धव दिख पड़े! उद्धवको देखकर उन्हें और भी आश्चर्य हुआ! वैसा ही शरीर, वैसी ही बाँहें, वैसी ही कमलके समान नेत्र, गलेमें कमलकी माला और पीताम्बर धारण किये हुए! मुखपर वैसी ही प्रसन्नता खेल रही थी! परन्तु ये श्रीकृष्ण नहीं थे! ये दर्शनीय पुरुष कौन हैं, कहाँसे आये और श्रीकृष्ण के समान ही इन्होनें वेष-भूषा क्यों धारण कर रखी है? हो-न-हो ये उन्हींके अनुचर है! उन्हींके सहचर हैं! उन्होंनेही इन्हें भेजा होगा! तब क्या वे हमारा स्मरण करते हैं? जैसे उनके लिए हम छटपटाती रहती हैं, क्या वैसे ही हमारे  लिये वे छटपटाते रहते हैं? हो सकता है, छटपटाते हों! परन्तु नहीं, तब क्या वे दो दिनके लिये आ नहीं सकते थे? फिर इन्हें भेजा क्यों हैं? माता-पिताकी सांत्वनाके लिये! अच्छी बात है! पर क्या केवल बातोंसे ही उनका ह्रदय शांत हो जायगा? उन्हें आश्वासन मिल जायगा? यह असंभव है! शायद हमारे लिये भी कुछ सन्देश कहला भेजा हो! न भी कहलाया हो तो क्या,ये अनुचर तो हैं न! इनसे बात करनेपर उनकी कोई बात सुननेको मिलेगी! चलो हम सब इनके पास चलें! अबतक उद्धव पास आ गए थे!

गोपियोंने श्रीकृष्णके सदृश समझकर ही उद्धवका सत्कार किया! एकांतमें ले जाकर उन्होंने पूछा -'उद्धव! तुम तो श्रीकृष्णके प्रेमी अन्तरंग सखा हो! क्या उनके ह्रदयकी कुछ बात कह सकते हो? उन्होंने केवल नन्द-यशोदाके लिये ही तुम्हें भेजा होगा, अन्यथा व्रजमें उनके स्मरण करनेकी और कौन-सी वस्तु है? क्या उन्होंने हमें सचमुच छोड़ दिया? अब वे यहाँ न आवेंगे? परन्तु यह कैसे हो सकता हैं? वे आवेंगे, अवश्य आवेंगे! उद्धव! हमारे ह्रदय की क्या दशा है! हमारी आत्मा कितनी पीड़ित हो रही है, इसे कोई क्या जान सकता हैं? क्या इस वेदनाका कहीं अंत भी हैं? हमें तो नहीं दीखता! हम जितना  उपाय करती हैं, उतना ही अधिक यह बढती जाती है! किससे कहें, कहनेसे लाभ ही क्या है?

'उद्धव! जिस दिनसे हमने उनके सौन्दर्यका वर्णन सुना था, उनकी रूपमाधुरी देखि थी, उनकी मधुर वंसीध्वनि सुनी थी उसी दिनसे और वास्तवमें तो उसके पहले ही हम उनके हाथो बिक गयीं! उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवनसे, मंद-मंद मुस्कानसे, अनुग्रहभरी भौहोंके इशारेसे हमें स्वीकार कर  लिया! वे स्वीकार न करते तो भी हम उनकी ही थीं, उनकी ही रहतीं! 

परन्तु जब उन्होंने स्वीकार कर लिया तब तो उनपर हमारा हक़ हो गया, हमारा दावा हो गया! चाहिये  तो यह था की वे हमारी इच्छाके विपरीत एक क्षणके लिए भी हमसे अलग नहीं होते! परन्तु हम यह नहीं चाहतीं! हृदयसे भी चाहनेपर भी उनपर कोई दबाव नहीं डालतीं, उनसे कहतीं नहीं परन्तु हम इसी प्रकार कितने दिनोंतक घुल-घुलकर मरती रहेंगी? हम बहुत दिनोंतक शान्तिसे प्रतीक्षा भी करती रहतीं यदी ये दिन शीघ्रतासे बीतते होते! एक-एक दिन पहाड़ से भारी होते जा रहे हैं! समुद्र -से अपार होते जा रहे हैं! हम क्या करें, ये दिन कैसे बितावें? एक पलक युग हो गया, आँखोंसे आँसुओंकी धारा रूकती ही नहीं, सब सुना-ही-सुना दीखता है! हमारा यह सूनापन क्या कभी बीतेगा ही नहीं?

'उद्धव! हमें अपने वे दिन स्मरण हैं, जब हमारे प्रियतम, हमारे श्रीकृष्ण गौओंको चरानेके लिये जंगलमें जाया करते थे! एक-एक पल हम विकल होकर बितातीं और ह्रदय हहरता रहता की कहीं उनके कमल-से कोमल चरणोंमें काँटे-कुश न गड जायँ! उनके लाल-लाल तलुओंमें पीड़ा न पहुँच जाय! उद्धव! हमारा हृदय  जानता  है, परमात्मा इस बातका साक्षी है कि जब हम उनके चरणकमलोंको अपने कठोर हृदयपर रखती थीं, तब हमें बड़ा डर लगता था कि कहीं चोट न पहुँच जाय! वे जब गौओंको चरानेके लिये जंगलमें जाने लगते तब हम नंदबाबाके दरवाजेपर पहुँच जातीं, रस्तेमें जाकर खड़ी हो जातीं और जबतक वे आँखोंसे ओझल न हो जाते तबतक एकटक उन्हें देखती रहतीं! काम करनेके लिये घर लौटतीं तो काम-काजमें मन नहीं लगता और करते समय भी ऐसा मालुम होता कि मानो वे हमारे सामने ही खड़े हैं! हम धान कुटती होतीं तो वे आकर मुसल पकड़ लेते! हम दही  मथती होतीं तो वे मथानी पकड़कर रोक देते, हम झाड़ू लगाती होतीं तो वे आकर सामने खड़े हो जाते!

हम यमुनाका जल लानेका, दही बेचनेका और भी किसी काम-काजका बहाना बनाकर कई बार वनमें जातीं और उन्हें देख आतीं! जब वे शामको लौटते, हम पहलेसे ही रास्तेपर खड़ी होतीं और उनका मार्ग देखा करती! वे जब बाँसुरी बजाते हुए ग्वालबालोंके साथ लौटते थे, उनके घुँघराले काले केशोंपर व्रजराज पड़ी होती थी, उनके कपोलोंपर श्रमबिंदु उग आये होते थे तो देखकर हमें कितनी प्रसन्नता होती, कितना आनंद होता, कह नहीं सकतीं! हम रातमें भी नंदबाबाके घर जातीं! वे बाँसुरी बजाकर हमें वन में बुलाते, हमारे साथ क्रीडा करते! वह सब कहनेसे अब कोई लाभ नहीं! हमने व्रत करके, उपवास करके, देवी-देवताओंकी मानता करके, हृदयसे आत्मासे यही चाह था कि श्रीकृष्ण ही हमारे स्वामी हों, वे हुए भी परन्तु  उद्धव! अब वे कहाँ हैं? अब हम उनकी बातें कह रही हैं, उनका सन्देश हम पा रहीं हैं, उनका सुमिरन हम कर रही हैं, परन्तु अब वे कहाँ हैं? हमारे बीचमें वे नहीं है! हमारा जीवन भार हैं, व्यर्थ है!' कहते -कहते गोपियाँ तन्मय हो गयीं! उनका बाह्यज्ञान जाता रहा!

गोपियोंमें जब कुछ-कुछ चेतना आयी, यब वे पागलोंकी भाँती चेष्टा करने लगीं! कोई वृक्षको श्रीकृष्ण समझकर उसे उलाहना देने लगी, कोई लताकुञ्जमें श्रीकृष्णकी उपस्थिति मानकर वहाँसे मुँह फेरकर लौटने लगी, कोई पत्तेकी खडखडाहटसे श्रीकृष्णके आगमनकी अपेक्षा करने लगी और कोई चम्पा, मालती, जूही, गुलाब, कमल आदि फूलोंसे श्रीकृष्णका दूत मानकर उसीको डाँट-फटकार सुनाने लगी! उनकी विचित्र दशा हो गयी! वे संसारको, शरीरको, प्राणकोऔर आत्माको भूलकर श्रीकृष्णमें ही तल्लीन हो गयी! वे श्रीकृष्णकी लीलाओंका गायन करते-करते संकोच छोड़कर रोने लगीं! उद्धवका हृदय द्रवित हो गया, वे गोपियोंके विरहकी ऊँची दशा देखकर मुग्ध हो गये! उन्होंने किसी प्रकार गोपियोंको सांत्वना देकर कहना शुरू किया!

उद्धवने कहा-'गोपियों! तुम्हारा जीवन सफल है सारे लोक और लोकाधिपति तुम्हारी पूजा करते हैं! श्रीकृष्णमें इतना प्रेम, श्रीकृष्णमें इतनी तन्मयता और कहीं देखि नहीं गयी! और कहीं हो नहीं सकती! बड़े-बड़े दान, व्रत, तप, होम, जप, स्वाध्याय, संयम और दुसरे भी कल्याणकारी उपायोंसे भगवान् श्रीकृष्णकी भक्ति प्राप्त की जाती है! बड़े-बड़े मुनियोंको जिस प्रेमकी प्राप्ति दुर्लभ है, सौभाग्यवश वह प्रेम तुम्हें प्राप्त हुआ है! भगवान् के साथ तुम्हारा वह सम्बन्ध हुआ है! यह बड़े ही सौभाग्य और तपस्याका फल है कि तुमलोगोंने अपने पुत्र, पति, स्वजन, देह, गेह और सर्वस्वका त्याग करके पुरषोत्तमभगवान् श्रीकृष्णको पतिरूपमें वरण किया है!

भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे तुम्हें सर्वात्मभावकी प्राप्ति हो गयी है! तुम्हें हर जगह श्रीकृष्ण-ही श्रीकृष्ण दीखते हैं! तुम्हारे पास भेजकर श्रीकृष्णने मुझपर बड़ा ही अनुग्रह किया है! मैं तुम्हारे दर्शनसे धन्य हो गया! कल्याणी गोपियो! उन्होंने तुम्हारे लिए जो सन्देश कहा है, मैं वही सुनाता हूँ! वह सुनकर तुम्हें बड़ा ही आनंद होगा! उनका यही एकांत सन्देश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ!'

'श्रीकृष्णने कहा है-- मेरी प्रिय गोपियों! मैं कभी तुमलोगोंसे अलग नहीं रह सकता! जैसे पृथ्वी,  जल, वायु ये आकाशसे अलग नहीं हो सकते वैसे ही तुम हमसे अलग नहीं हो सकती! तुम्हारा मन, तुम्हारा प्राण, तुम्हारा शरीर, तुम्हारी इन्द्रियाँ, तुम्हारे गुण और जो कुछ तुम हो, सब मुझमें है, अपने-आपका ही पालन करता हूँ और अपने -आप ही अपने-आपका संहार करता हूँ! मैं अपनी ही मायासे, अपनी ही शक्तिसे स्वयं ही इन रूपोंमें बन जाता हूँ! आत्मा ज्ञानस्वरुप है! वह मायासे, रहित और गुणोंसे परे है! स्वप्न, सुषुप्ति, जाग्रत  इन तीनों अवस्थाओंसे परे और इनका साक्षी हैं! वियोग  तो तब है, जब इस मिथ्या संसारकी और दृष्टी है! उसकी ओरसे इन्द्रियोंको, मनोवृत्तियों खींचकर आत्मामें लगाओ! उन्हें अंतर्मुख करो, सारे सिद्धांतोंसाधनों का यही उदेश्य हैं! वेद, योग, सांख्य, त्याग, तपस्या, दम और सत्य इनका यही लक्ष्य है! मैं बाह्य दृष्टीसे तुमलोगोंसे दूर अवश्य हूँ परन्तु केवल आँखोंसे ही दूर हूँ न! आँखकी दुरी दुरी नहीं है! दुरी तो मनकी होती है! वहाँ रहनेकी अपेक्षा मेरे यहाँ रहनेसे तुम्हारा मन मुझमें अधिक लगेगा! मेरा विशेष चिंतन होगा! ऐसा होता आया है और ऐसा ही होता है! सम्पूर्ण वृतियोंको छोड़कर अपने मनको केवल मुझमें लगा दो! मेरा स्मरण करते रहो! शीघ्र ही तुम मुझे प्राप्त कर लोगी! तुम्हें पता हैं न? जिस दिन मैं रास कर रहा था, कई गोपियाँ शरीरसे मेरे पास नहीं आ सकीं; उन्होंने सच्चे ह्रदयसे प्रेमसे मेरा स्मरण किया और शरीरसे पहुँचनेवाली गोपियोंके पहले ही वे मेरे पास पहुँच आयीं!

मैं तुम्हारे पास ही हूँ! तुम्हारे हृदयमें हूँ, तुम्हारी आत्माके रूपमें हूँ! वियोग क्या वस्तु है? इसके लिये पीड़ित होनेकी क्या आवश्यकता? मुझे ढूँढो मत, मेरा अनुभव करो, मैं तुम्हारे पास हूँ!

उद्धव इतना कहकर चुप हो गये! अपने प्रियतमका आदेश, अपने प्राणोंका सन्देश सुनकर गोपियोंको बड़ा ही आनंद हुआ! उनके सन्देशसे उनकी स्मृति ताज़ी हो गयी, वे प्रसन्न होकर उद्धवसे बोलीं -- 'श्रीकृष्ण प्रसन्न हैं, आनंदसे हैं, यह बड़ी अच्छी बात हैं! कंस और उसके अनुचर मर गये, जगतका बड़ा कल्याण हुआ! जैसे हम उन्हें देख-देखकर प्रसन्न होती थी, वैसे ही मथुरावासी भी उन्हें देख-देखकर प्रसन्न होते होंगे! वहाँके लोग विशेष प्रेमी होंगे, उनके प्रेमपाशमें श्रीकृष्ण बँध जायँ, यह स्वाभिविक ही है! क्या वे उनमें रहकर हमारी याद रख सकेंगे? रखते हैं? क्या उन्हें वह रात्री याद है, जब उन्होंने चन्द्रिकाचर्चित वृन्दावनमें हमलोगोंके साथ गा- गाकर, नाच-नाचकर रासलीला की थी! क्या वे हमारे प्राणोंको जीवित करनेके लिये यहाँ आवेंगे? अब वे हम वनवासियोंके पास क्यों आने लगे? वे आत्माराम हैं, पूर्णकाम हैं, उन्हें हमारी क्या अपेक्षा हैं? हम जानती हैं की आशा से निराशा अच्छी है! तथापि श्रीकृष्णकी और हमारी आँखें लगी हैं, हमारी आशाकी, अभिलाषाकी लड़ियाँ नहीं टूटती! भला, उन्हें कौन छोड़ सकता है? उनके न चाहनेपर भी लक्ष्मी एक क्षणके लिये भी उन्हें नहीं छोड़ सकतीं! उद्धव! यमुनाके पुलिन, गोवर्धनके सिखर, क्रिड़ाके वन, उनकी दुलारी हुई गौएँ, उनकी बाँसुरीकी ध्वनि बार-बार उनकी याद दिला देती हैं! अब भी वृन्दावनकी भूमि उनके चरण-चिह्नोंसे रहित नहीं हुई है! हम भला उन्हें कैसे भूल सकती हैं? उनका स्मरण ही हमारा जीवन है! उनकी ललित गति, मधुर मुस्कान, लीलाभरी चितवन और प्रेमसनी वाणीसे मोहित होकर हमने अपना हृदय हार दिया है, अपना सर्वस्व उनके चरणोंमें निछावर कर दिया है! 

हम भला उन्हें कैसे भूल सकती हैं? हे नाथ, हे रमानाथ, हे व्रजनाथ, हे दीनबन्धो! हम दुःखके समुद्रमें डूब रही हैं! हमें बचाओ! हमारा उद्धार करो!

श्रीकृष्णके  संदेशोंसे गोपियोंकी  विरहज्वाला बहुत कुछ शान्त हुई! वे उद्धवको श्रीकृष्णस्वरुप मानकर उनका सत्कार करने लगीं! उन्होंने कहा -' उद्धव! तुम राधिकाके पास चलो! भगवान् के विरहमें उनकी क्या दशा हो रही है, चलकर देखो! वे मर-मरकर जीती हैं, जी-जीकर मरती है! चिंता, जागरण, मूर्छा, प्रलय इन्हींका क्रम चालू रहता है, वे कभी मत्त हो जाती हैं, कभी मोहित हो जाती हैं, चलो उनके दर्शन करो, उनके चरणोंमें सर नवाकर कुछ सीखो! उद्धवने उनके साथ श्रीराधाके पास जानेके लिये प्रस्थान किया!

सारे जगतमें आत्मा भगवन श्रीकृष्ण हैं! यह जगत तभी सुखी होता हैं, शांति पाता हैं, जब अपनी आत्मा भगवान् की सन्निधिका अनुभव करता है! बिना उनके इसमें सुख नहीं, शांति नहीं, आनंद नहीं! परन्तु श्रीकृष्णकी आत्मा क्या है, कौन- सी ऐसी वस्तु है, जिसके बिना श्रीकृष्ण भी छटपटाते रहते हैं और जिसे पाकर उनका आनंद अनंत-अनंत गुना बढ़ जाता है! वह हैं श्रीराधा! श्रीराधा ही श्रीकृष्णकी आत्मा हैं और उन्हींके  साथ रमण करनेके कारण श्रीकृष्णको आत्माराम कहा गया है! श्रीकृष्णके बिना राधा प्राणहिन हैं और राधाके बिना श्रीकृष्ण आनंदहिन हैं! ये दोनों कभी अलग होते ही नहीं! अलग होनेकी लीला करते हैं और इसलिये करते हैं कि लोग परम प्रेमका, परम  आनंदका साक्षात् दर्शन करें! इनके दर्शन श्रीकृष्णमें, श्रीराधामें ही सम्पूर्ण रूपसे प्राप्त हो सकते हैं!

जबसे श्रीकृष्ण मथुरा गये, तबसे राधाकी विचित्र दशा थी! रातको नींद नहीं आती, दिनको शान्तिसे बैठा नहीं जाता, कभी वृत्तियाँ लय हो जाती हैं तो कभी मूर्छित! कभी पागल-सी होकर नाना प्रकारके प्रलाप करती हैं तो कभी सुरीली वानिके तारोंको छोड़कर मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरके गुनानुवादोंका गायन करती हैं! एक-एक पल बड़े दुःख से किसी प्रकार  व्यतीत करती हैं और इतनी बेसुध रहती हैं कि रात बीत गयी, दिन बीत गया, इन बातोंका उन्हें  पतातक नहीं चलता! आँसुओंकी धारा बहती रहती है, समझानेसे, सान्त्वना देनेसे उनकी पीड़ा और भी बढ़ जाती है!

उद्धव जिस समय उनके पास पहुँचे उस समय वे मूर्छित थी! उद्धवने उन्हें जाकर देखा तो वे गदगद हो गये, भक्तिसे उनकी गरदन झुख गयी, सारे शरीरमें रोमांच हो आया! वे श्रद्धाके साथ स्तुति करने लगे! उन्होंने कहा - 'देवी! मैं तुम्हारे चरणकमलोंकि वंदना करता हूँ!

तुम्हारी कीर्तिसे ही सारा संसार भरा हुआ है! तुम भगवान् श्रीकृष्णकी नित्य प्रिया आह्लादिनी शक्ति हो! वे जब जहाँ जिस रूपमें रहते हैं तब तहाँ वैसा ही रूप धारण करके तुम भी उनके साथ रहती हो! जब वे महाविष्णु हैं तब तुम महालक्ष्मी हो!जब वे सदाशिव हैं तब तुम आद्याशक्ति हो! जब वे ब्रम्हा हैं तब तुम सरस्वती हों! जब वे राम हैं तब तुम सीता हो और तो क्या कहूँ; माता! तुम उनसे अभिन्न हो! जैसे गन्ध और पृथ्वी, जल और रस, रूप और तेज, स्पर्श और वायु, शब्द और आकाश पृथक-पृथक नहीं हैं, एक ही हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण तुमसे पृथक नहीं है! ज्ञान और विद्या, ब्रह्मा और चेतनता, भगवान् और उनकी लीला  जैसे एक हैं वैसे ही तुम भी श्रीकृष्णसे एक हो, वे गोलोकेश्वर हैं तो तुम गोलोकेश्वरी हो! देवी! यह मूर्छा त्यागो, होशमें आओ, मुझे दर्शन देकर मेरा कल्याण करो!

उद्धवकी प्राथना सुनकर 'श्रीकृष्ण -श्रीकृष्ण' कहती हुई राधा होशमें आयीं! उन्होंने आँखें खोलकर धीरेसे पूछा - 'श्रीकृष्णके समान शरीर और वेशभूषावाले तुम कौन हो? तुम कहाँसे आये हो? क्या श्रीकृष्णने तुम्हें भेजा हैं? अवश्य उन्होंने ही तुम्हें भेजा है! अच्छा बताओ, वे यहाँ कब आवेंगे? मैं उन्हें कब देखूँगी? क्या उनके कमल-से कोमल शरीरमें मैं फिर भी चन्दन लगा सकूँगी? उद्धवने अपना नाम-धाम बताकर आनेका कारण बताया! राधिका कहने लगीं -'उद्धव! वहि यमुना है! वही शीतल मंद सुगन्ध वायु है! वही वृन्दावन है और वही कोयलोंकी कुहक है! वही चन्दनचर्चित शय्या है और वही साज-सामग्री है! परन्तु मेरे प्राणनाथ कहाँ है? इस दासीसे कौनसा अपराध बन गया! अवश्य ही मुझसे अपराध हुआ होगा! हा कृष्ण, हा रमानाथ, प्राणवल्लभ! तुम कहाँ हो?' इतना कहकर राधा फिर मूर्छित हो गयीं!

उद्धवने उन्हें होशमें लानेकी चेष्टा की! सखियोंने बहुत -से उपचार किये पर राधाको चेतना न हुई! उद्धवने  कहा -'माता! मैं तुम्हें बड़ा ही सुभ सवांद सुना रह हूँ ! अब तुम्हारे विरहका अंत हो गया! श्रीकृष्ण तुम्हारे पास आवेंगे! तुम शीघ्र ही उनके दर्शन पाओगी! वे तुम्हें प्रसन्न करनेके लिये नाना-प्रकारकी क्रीडाएँ करेंगे! 'श्रीकृष्ण आयेंगे' यह सुनकर राधा उठ बैठी! क्या वे सचमुच आयेंगे? हाँ, अवश्य आयेंगे! राधाने उद्धवका बड़ा ही सत्कार किया!

अनेकों प्रकारके दान देकर उद्धवको भोजनपान कराकर उन्हें वर दिया कि 'तुम्हें सब सिद्धियाँ मिल जायँ, तुम भगवान् के दास बने रहो और तुम्हें उनकी पराभक्ति प्राप्त हो! उद्धव! तुम उनके पार्षद और श्रेष्ट पार्षद होओ!

जब उद्धव विदा होनेके लिये श्रीराधासे अनुमति लेनेको आये तब श्रीराधाने कहा - 'उद्धव! हम अबला हैं! हमारे हृदयका हाल कौन जान सकता है? मुझे भूलना मत, मैं विरहसे कातर हो रही हूँ! मेरे लिये घर और वनमें अब कोई भेद नहीं रह गया है! पशु और मनुष्य एक-से जान पड़ते हैं! जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्तिमें कोई अंतर नहीं दीख पड़ता! चंद्रमा-सूर्यका उदय, रात और दिनका होना -जाना मुझे मालूम नहीं है! मुझे अपनी ही सुधि नहीं रहती! श्रीकृष्णके आनेकी बात, उनकी लीला सुनकर, गाकर कुछ क्षणोंके लिये सचेतन हो जाती हूँ! मुझे चारों और श्रीकृष्ण -ही -कृष्ण दीखते हैं, मैं निरंतर मुरली-ध्वनि ही सुनती हूँ! मुझे किसीका भय नहीं हैं! किसीकी लज्जा नही है! कुलकी परवाह नहीं है! मैं उन्हींको जानती हूँ! उन्हींको भजति हूँ! ब्रह्मा, शंकर और विष्णु जिनकी चरणधूलि पानेके लिये उत्सुक रहते हैं उन्हें पाकर मैं उनसे बिछुड़ गयी! मेरा कितना दुर्भाग्य है, कोई मेरा हृदय चीरकर देख ले! उनके अतिरिक्त इसमें और कुछ नहीं है! उद्धव! क्या अब उनके साथ क्रीडा करनेका-प्रेम सौभाग्य मुझे नहीं प्राप्त होगा? क्या अब वृन्दावनके कुंजोंमें अपने हाथोंसे मालती, माधवी, चम्पा और गुलाबके फूलोंकी  माला गूँथकर उन्हें नहीं पहनाऊँगी? अब वे वसंतऋतूकी मधुर राजनियाँ, जिनमें राधा और माधव विहरते थे, पुनः न आयेंगे? ' राधा पुनः मूर्छित हो गयीं!

सखियोंके और उद्धवके जगानेपर राधा पुनः होशमें आयीं और कहने लगीं -'उद्धव! इस शोक -सागरसे मुझे बचाओ! मुझे समझाने -बुझानेसे कोई लाभ नहीं होगा! उनकी बातें याद करके मेरा मन चंचल हो रहा है! विरहिनीकी वेदना विरहिनी ही जान सकती है! सीताको  कुछ-कुछ इसका अनुभव हुआ था!

मैं किससे कहूँ, मेरी मानसिक पिडाका किसे विश्वास होगा? मेरे-जैसी अभागिनी, मेरे- जैसी दुखिनी स्त्री न हुई और न होनेकी सम्भावना है! मैं कल्पवृक्षको पाकर भी ठगी गयी! दैवने मुझे ठग लिया! उन्हें देखकर मेरा जीवन सफल हो गया था, मेरा हृदय और आँखें स्निग्ध हो गयी थीं! उनके नामकी मधुर ध्वनि सुनकर मेरे प्राण पुलकित हो उठते हैं! उनकी मधुस्मृतिसे आत्मा तर हो जाती है! मैंने उनके कर-कमलोंका स्पर्श अनुभव किया है! मैं उनकी छत्रछायामें रही हूँ! मैं क्या पाकर उन्हें भूल सकती हूँ? ऐसी कोई वास्तु नहीं, ऐसा कोई ज्ञान नहीं, ऐसा कोई शास्त्र नहीं, ऐसा कोई संत नहीं तथा ऐसा कोई देवता नहीं जिससे मैं श्रीकृष्णको भूल सकूँ! स्थितिकी गति संभव है परन्तु जहाँ बिना मार्गके ही चलना है, उसे गति कैसे कह सकते हैं? यह शून्यकी सेज है!' राधिका रोने लगीं, उद्धव रोने लगे, गोपियाँ रोने लगीं, वहाँके पशु-पक्षी, वृक्ष-लताएँ और जड़-चेतन सब-के-सब रोने लगे! करुणाका, प्रेमका अनन्त समुद्र उमड़ पड़ा!

उद्धव बहुत दिनोंतक व्रजमें रहे थे! वे राधासे अनेकों प्रसन्न करते और प्रेमका रहस्यज्ञान प्राप्त करते, ग्वालोंके साथ वनोंमें घूमते, नन्द-यशोदाके साथ श्रीकृष्णलीलाका कीर्तन और श्रवण करते, गौओंके साथ खेलते, वृक्षोंका आलिंगन करते और लताओंको देखते ही रह जाते! उनका रोम - रोम प्रेममय हो गया, वे ग्वाले हो गये! पता नहीं परन्तु पता है भी की उनका हृदय गोपिभावमाय हो गया! वे वन-वनमें गाते हुए विचरने लगे! उनके हृदयसे यह संगीत निकलने लगा- ' केवल गोपियोंका जन्म ही सार्थक है! यही वास्तवमें श्रीकृष्णकी अपनी हो सकी हैं! ब्राह्मण होनेसे क्या हुआ, जब श्रीकृष्णमें प्रेम नहीं! बड़े-बड़े मुनि जिसकी लालसा करते रहते हैं, वह इन गोपियोंको प्राप्त हो गया! कहाँ ये वनमें रहनेवाली गाँवकी गवाँर ग्वालिनें और कहाँ श्रीकृष्णमें इनका अनन्त प्रेम! परन्तु इससे क्या हुआ, जानें या न जानें, ज्ञान हो या न हो, श्रीकृष्णसे प्रेम होना चाहिये! अनजानमें भी अमृत पि लिया जाय तो लाभ होता ही है! बिना जाने भी  श्रीकृष्णसे प्रेम हो जाय तो वे अपनाते ही हैं! देवपत्नियोंको, इन्दिरा लक्ष्मीको जो प्रसाद नहीं प्राप्त हुआ वह इन गोपियोंको प्राप्त हुआ है! ये श्रीकृष्णके शरीरका स्पर्श प्राप्त करके कृतार्थ हो गयी हैं! मैं अब वृन्दावनमें ही रहू! मनुष्य न सही, पशु-पक्षी ही सही, वृक्ष ही सही और नहीं तो एक तिनका ही सही! इनके चरणोंकी धूलि तो प्राप्त होगी न!

आह! श्रुतियाँ जिनके चरण-चिह्नोंकी खोजमें ही लगी हैं, ये गोपियाँ उन्हें पाकर, उनसे एक होकर उनके प्रेममें तन्मय हो गयी हैं! क्यों न हो, स्वजन और  आर्यपथका त्याग करके श्रीकृष्णके चरणोंको अपना लेना आसन थोडें ही है! लक्ष्मी जिनकी अर्चना करती हैं, आप्तकाम आत्माराम जिनका ध्यान करते हैं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमल अपने हृदयपर रखकर इन्होंने हृदयकी जलन शांत कि है! मैं तो इनकी चरणधूलिका भी अधिकारी नहीं हूँ! मैं चरणधूलिकी ही वंदना करता हूँ!' उद्धव उनकी चरणधूलिमें लोटने लगते! दो दिनके लिए आये थे, महीनों बीत गए!

मथुरा जानेके दिन उद्धवके सिरपर  हाथ रखकर राधाने आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो! तुम्हारा सर्वदा कल्याण हो! भगवान् से तुम्हें परमज्ञान प्राप्त हो और तुम सर्वदा भगवान् के परम प्रेमपात्र रहो! सर्वश्रेष्ट कर्म उन्हें प्रसन्न करनेवाला कर्म है! सर्वश्रेष्ट जीवन उन्हें समर्पित जीवन है! उसी व्रत, ज्ञान और तपस्याकी सफलता है जो उनके उद्देश्यसे है! उद्धव! वही पराप्तर परीपूर्णतम ब्रह्मा हैं! श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं, ज्योतिः स्वरुप हैं! तुम उन्हीं परमान्दस्वरुप नन्दनंदन की सेवा करो! सारे उपदेशोंकी सफलता इसीमें है! उद्धवको ऐसा अनुभव हुआ, मानों मैंने सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया! वे अपना वस्त्र गलेमें बाँधकर राधाके चरणोंसे लिपट गये! शरीर पुलकित, आँखोंमें आँसू और राधाके वियोग्से कातर होकर जोर-जोरसे रोना! बस यही उद्धवकी दशा थी, वे वहाँसे जाना ही नहीं चाहते थे! गोपियोंने बहुत समझाया, राधाने श्रीकृष्णके लिये बाँसुरी और बहुत-से उपहार दिये तथा कहा कि जाकर तुम यही प्रयत्न करना कि श्रीकृष्ण यहाँ आवें, मैं उन्हें देख सकूँ! राधाकी अनुमति प्राप्त करके उद्धव नन्दबाबाके पास गये!

नंदबाबाने, ग्वालबालोंने उद्धवसे कहा - 'उद्धव! अब तो तुम जा ही रहे हो! श्रीकृष्णको हमारी याद दिलाना! यह मक्खन, यह दही और ये वस्तुएँ उन्हें देना! यह बलरामको देना, यह उग्रसेनको देना और यह वासुदेवको देना! हम और कुछ  नहीं चाहते, केवल यही चाहते हैं की हमारी वृत्तियाँ श्रीकृष्णके चरण -कमलोंमें लगी रहें! हमारी वाणीसे उन्हींके मंगलमय मधुरतम नामोंका उच्चारण होता रहे और शरीर उन्हींकी सेवामें लगा रहे! हमें मोक्षकी आकांक्षा नहीं, कर्मके अनुसार हमारा शरीर चाहे जहाँ कहीं रहे, हमारे शुभ आचरण और दान का यही फल हो की श्रीकृष्णके चरणोंमें हमारा अहैतुक प्रेम बना रहे!

उद्धव मथुरा लौट आये! जानेके समय वे माथुरोंके वेशमें गए थे और लौटनेके समय ग्वालोंके वेशमें आये! उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा -- 'श्रीकृष्ण! तुम बड़े निष्ठुर हो! तुम्हारी करुणा, तुम्हारी रसिकता सब कहनेभरकी है! मैंने व्रजमें जाकर तुम्हारा निष्ठुर रूप देखा है, जो तुम्हारे आश्रित हैं, जिन्होंने तुम्हें आत्मसमर्पण कर दिया हैं, उन्हें इस प्रकार कुएँमें डाल रहे हो, भला, यह कौन-सा धर्म हैं? छोडो मथुरा, अब चलो वृन्दावन! वहीं रहो और अपने प्रेमियोंको सुखी करो! औरोंकी संगती छोड़ दो, प्रेमका नाम बदनाम मत करो!' उद्धव श्रीकृष्णके सामने रोने लगे, वृन्दावन चलनेके लिए हठ करने लगे! उनकी हिचकी बँध गयी, एक-एक करके सभी बाते कह गए!

श्रीकृष्णकी आँखोंमें भी आँसू आये बिना न रहे! वे प्रेमविष्ट हो गए उनकी सुध- बुध जाती रही! उस समय उनका सच्चा स्वरुप प्रकट हो गया और उद्धवने देखा की श्रीकृष्णका रोम-रोम गोपिकामय हैं! जब श्रीकृष्ण सावधान हुए तब उन्होंने उद्धव से कहा -- प्यारे उद्धव! यह सब तो लीला है! हम और गोपियाँ अलग-अलग नहीं है! जैसे मुझमें वे हैं, वैसे ही उनमें मैं हूँ! प्रेमियोंके आदर्शके लिये यह संयोग और वियोगकी लीला की जाती है!' उद्धवका समाधान हो गया! उन्होंने सबके भेजे उपहार दे दिए और श्रीकृष्णके पास रहकर वे प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करने लगे!

मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम्।
ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः ।।१।।

सुद्धान्तः करण पुरुष आकाशके समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ परमात्माको ही समस्त प्राणियों और अपने हृदयमें स्थित देखे।।१।।

इति सर्वानी भूतानि मद्भावेन महाद्युते ।
सभाजयन् मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रीतः ।।२।।
ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येर्के स्फुलिंगके।
अक्रुरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः ।।३।।

निर्मलबुद्धि उद्धवजी! जो साधक केवल इस ज्ञानदृष्टिका आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थोंमें मेरा दर्शन करता है और इन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मणभक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूरमें समानदृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये।।२-३।।

नारेष्वभिक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोचिरात् ।
स्पर्धासूयातिरस्काराः साहंकारा वियन्ति हि।।४।।

जब निरंतर सभी नर-नारियोंमें मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दीनोंमें साधकके चित्तसे स्पर्द्धा (होड़), ईर्ष्या, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं।।४।।

विसृज्य स्म्यामानान् स्वान् दृशं व्रीडां च दैहिकिम्।
प्रणमेद् दण्डवद् भुमावाश्वचाण्डालगोखरम् ।।५।।

अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; 'मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है' ऐसी देहदृष्टिको और लोक-लज्जाको छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर साष्टांग दंडवत् -प्रणाम करे ।।५।।

यावत् सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोपजायते ।
तावदेवमुपासीत वाड्.मनः कायवृत्तिभिः ।।६।।

जबतक समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना - भगवद्भावना न होने लगे, तबतक इस प्रकारसे मन, वाणी और शरीरके सभी संकल्पों और कर्मोंद्वारा मेरी उपासना करता रहे।।६।।

सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्यया त्ममनिषया ।
परिपश्यन्नुपरमेत् सर्वता मुक्तसंशय : ।।७।।

उद्धवजी! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि - ब्रह्माबुद्धिका अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दीनोंमें उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्मास्वरुप दिखने लगता है। ऐसी दृष्टि हो जानेपर सरे संशय -संदेह अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कही मेरा साक्षात्कार करके संसारदृष्टिसे उपराम हो जाता है।।७।।

अयं हि सर्वकल्पनां सध्रीचिनो मतो मम ।
मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः ।।८।।

मेरी प्राप्तिके जितने साधन हैं, उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ट साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें मन, वाणी और शरीरकी समस्त वृत्तियोंसे मेरी भावना की जाय ।।८।।

न ह्यांगोपक्रमे ध्वन्सो मद्धर्मस्योवाण्वपि ।
मया व्य्वसितः सम्यड्.निर्गुणत्वादनाशीषः ।।९।।

उद्धवजी! यह मेरा अपना भागवतधर्म है; इसको एक बार आरम्भ कर देनेके बाद फिर किसी प्रकारकी विघ्न -बाधासे इसमें रत्तीभर भी अंतर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वंय मैंने ही इसे निर्गुण होनेके कारण सर्वोत्तम निशचय किया है।।९।।

यो यो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत् ।
तदायासो निरर्थः स्याद् भायादेरिव सत्तम ।।१०।।

भागवतधर्ममें किसी प्रकार की त्रुटी पड़नी तो दूर रही - यदि इस धर्मका साधन भय-शोक आदिके अवसरपर होनेवाली भावना और रोने-पीटने, भागने-जैसा निरर्थक कर्म भी निष्कामभावसे मुझे समर्पित कर दे तो वे भी मेरी प्रसन्नताके कारण धर्म बन जाते हैं ।।
१०।।

एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनिषा च मनीषिणाम् ।
यत् सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ।।११।।

विवेकियोंके विवेक और चतुरोंकी चतुराईकी  पराकाष्ठा इसीमें है की वे इस विनाशी और असत्य शरीरके द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्वको प्राप्त कर लें।।११।।

१ - भगवान् एक ही हैं। वे ही निर्गुण -निराकार, सगुण-निराकार और सगुण -साकार हैं। लीलाभेदसे उन एकके ही अनेक नाम, रूप तथा उपासनाके भेद हैं। जगतके सारे मनुष्य उन एक ही भगवान् की विभिन्न प्रकारसे उपासना करते हैं, ऐसा समझे।
२ - मनुष्य -जीवनका एकमात्र साध्य या लक्ष्य मोक्ष, भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेमकी प्राप्ति ही है, यह दृढ़ निश्चय करके प्रत्येक विचार तथा कार्य इसी लक्ष्यको ध्यानमें रखकर इसीकी सिद्धिके लिए करे।
३ - शरीर तथा नाम आत्मा नहीं है। अतः शरीर तथा नाममें 'अहं' भाव न रखकर यह निश्चय रखे की मैं विनाशी शरीर नहीं, नित्य आत्मा हूँ। उत्पत्ति, विनाश, परिवर्तन शरीर तथा नामके होते हैं -- आत्माके कभी नहीं।
४ - भगवान् का साकार-सगुण स्वरुप सत्य नित्य सच्चिदानन्दमय है। उसके रूप, गुण, लीला सभी भगवत्स्वरूप हैं। वह मायाकी वस्तु नही है। न वह उत्पत्ति -विनाशशील कोई प्राकृतिक वस्तु है।
५ - किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, मतसे द्वेष न करे; किसीकी निंदा न करे। आवश्यकतानुसार सबका आदर करे। अच्छी बात सभीसे ग्रहण करे; पर अपने धर्म तथा इष्टदेवपर अटल, अनन्य श्रद्धा रखकर उसीका सेवन करे।
 

Friday, July 19, 2013

गुरु पूर्णिमा आषाढ़, शुक्ल पक्ष, 2070 विक्रम सम्वत, सोमवार, 22 जुलाई 2013



शिव हमारे गुरु हम शिव के शिष्य
तुम त्रिभुवन गुरु वेद बखाना

समस्त चिंताओं से मुक्ति एवं समग्र मनोकामनाओ की पूर्ति के लिए देवाधिदेव महादेव का कृपा पात्र बन जाना अति सरल एवं फलदायी है| यदि शिव को हम गुरु मान ले तो साधना आसान हो चलती है| इष्ट कोई भी हो गुरु यदि शिव हो तो इष्ट की प्राप्ति हो ही जाती है| गुरुदेव बृहस्पति , दैत्यगुरु शुक्राचार्य सहित तमाम देवी देवताओ ने प्रथम गुरु, आदिगुरु, जगतगुरु इत्यादि नामो से विभूषित शिव को गुरु बनाया और पूज्यनीय बने| शिव तब भी भाव से गुरु बने और अब भी भाव से प्राव्य है| त्रिकालदर्शी शिव जैसगुरु होने पर जीवन को जानने, पहचाहने, और सिखने की अपार संभावनाए स्वागत को तैयार रहती है| दैत्यगुरु शुक्राचार्य सहित तमाम देवी देवताओ ने प्रथम गुरु, आदिगुरु, जगतगुरु इत्यादि नामो से विभूषित शिव को गुरु बनाया और पूज्यनीय बने| शिव तब भी भाव से गुरु बने और अब भी भाव से प्राव्य है| त्रिकालदर्शी शिव जैसगुरु होने पर जीवन को जानने, पहचाहने, और सिखने की अपार संभावनाए स्वागत को तैयार रहती है| ' वन्दे विद्यातीर्थ महेश्वरम ' .... विद्या के तीर्थ महेश्वर को प्रणाम है|

यहाँ विचार उठता है कि संसार में इतने सारे प्रत्यछ गुरुओ कि उपस्थिति के बावजूद अदृश्य शिव को गुरु क्यों बनाया जाए | गुरु ऐसा हो जिसपर कभी कोई संचय न पनपे | आज के परिवेश में यह कठिन लगाने लगा है, सो शिव जैसा निर्मल व् सछम गुरु बनाना ही सम्पूर्ण सजगता है | इससे बन्धनों से मुक्त साधना और सिद्धि कि राह मिलती है| जो सांसारिक और अध्यात्मिक दोनों तरह कि उपलब्धिया दे सकने में सछम है |

बनाना बहुत आसान है| आप मन में उन्हें गुरु माने और शिष्यता के भाव उन्हें समर्पित करे | इसके लिए आप इन पंक्तियों को दोहराह सकते है ' हे महेश्वर आप मेरे गुरु है मैं आपका शिष्य हु, मुझ शिष्य पर दया करे '| शिष्यता के भाव को बार - बार दोहराने से आपका मन मस्तिक और आभा मंडल इनके अनुरूप हो जायेगा | फिर तो परम सत्ता शिव कि ओर से आपकी शिष्यता स्वीकार कर लिए जाने का जवाब आ ही जायेगा | जिसका आपको स्पष्ट अनुभव होगा | उसके बाद आप समग्र अंतरिछ सामराज्य को घोषणा कर के सूचित कर दे कि "मैं शिव का शिष्य हु शिव मेरे गुरु है " यह घोषणा आप किसी शिव शिष्य से भी करा सकते है | शिव के शिष्य होने पर आप खुद को धन्य महसूस करे | इससे आत्मविश्वाश स्थापित होगा और शिव के प्रति समर्पण बढ़ेगा |

वैसे तो शिव को गुरु बनाने के लिए किसी व्यक्ति से ज्ञानार्जन कि अनिवार्यता नहीं होती है फिर भी प्रारम्भिक जिज्ञाशाओ के चलते किसी शिव शिष्य से शिव चर्चा कर लेना उचित होता है | शिव शिष्यता को सिध्धियो तक ले जाने के लिए प्रतिदिन कम से कम ५ मिनट शिष्यता भाव शिव को अर्पित करे और उसके पश्चात् गुरु शिव को नम: शिवाय का जाप करते हुए ५ मिनट तक नमन करके आर्शीवाद प्राप्त करे | सुविधानुसार ऐसा दिन में कई बार किया जा सकता है | इसी दौरान आप शिव गुरु के समछ अपने प्रश्न रख सकते है, आपतक उनका जवाब अवश्य पहुचेगा | लोग से शिव चर्चा करके अपने अनुभव बताना न भूले | शिव गुरु की यह साधना आप कभी भी कही भी कर सकते है | इसे किसी भी जाति, धर्म, देश,समुदाय के लोग अपनाकर तन-मन-धन की चिन्ताओ से मुक्त होकर समग्र संतुष्ठी प्राप्त कर सकते है

शम्भवे गुरुवे नम

शिव ईश्वर का रूप हैं। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं।

शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूरत दोनों रूपों में की जाती है | भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है ।भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।

शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं। ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि।

पूजन

शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प, प्रसाद मे भान्ग अति प्रिय हैं। एवम इनकी पूजा के लिये दूध,दही,घी,शकर,शहद इन पांच अमृत जिसे पन्चामृत कहा जाता है! पूजन में इनका उपयोग करें। एवम पन्चामृत से स्नान करायें इसके बाद इत्र चढ़ा कर जनेऊ पहनायें! अन्त मे भांग का प्रसाद चढाए ! शिव का त्रिशूल और डमरू की ध्वनि मंगल, गुरु से संबद्ध हैं। चंद्रमा उनके मस्तक पर विराजमान होकर अपनी कांति से अनंताकाश में जटाधारी महामृत्युंजय को प्रसन्न रखता है तो बुधादि ग्रह समभाव में सहायक बनते हैं। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है।

द्वादश ज्योतिर्लिंग

सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन श्री शैलम देवस्थानम उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर परली में वैद्यनाथ मन्दिर, देवघर डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमाशंकर सेतुबंध पर श्री रामेश्वर दारुकावन में श्रीनागेश्वर मंदिर, द्वारका वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर हिमालय पर केदारखंड(उत्तराखण्ड) में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर।

जो मनुष्य पवित्र ह्रदय से इन ज्योतिर्लिंगों का ध्यान करता है उसकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है |

भगवान शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है

रूद्र -               रूद्र से अभिप्राय जो दुखों का निर्माण व नाश करता है।

पशुपतिनाथ - भगवान शिव को पशुपति इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह पशु पक्षियों व जीवआत्माओं के स्वामी हैं

अर्धनारीश्वर - शिव और शक्ति के मिलन से अर्धनारीश्वर नाम प्रचलित हुआ।

महादेव -        महादेव का अर्थ है महान ईश्वरीय शक्ति।

भोला -          भोले का अर्थ है कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वाला। यह विश्वास किया जाता है कि भगवान शंकर आसानी से किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं।

लिंगम -        पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है।

नटराज -      नटराज को नृत्य का देवता मानते है क्योंकि भगवान शिव तांडव नृत्य के प्रेमी हैं।शान्ति नगर स्थित शिवशक्ति दुर्गा मंदिर के पं. सोहनानंद जी महाराज ने बताया कि शिवरात्रि को रात्रि में चार बार हर तीन घंटे बाद रुद्राभिषेक किया जाता है। इससे जातक का कालसर्प दोष व सभी गृहदोष दूर हो जाते हैं।

शम्भवे गुरुवे नम

गुरु गीता एक हिन्दू ग्रंथ है। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। वास्तव में यह स्कन्द पुराण का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं।

गुरु गीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। इसमें भगवान शंकर गुरु क्या है, उसका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं।

वह सद्गुरु कौन हो सकता है उसकी कैसी महिमा है। इसका वर्णन इस गुरुगीता में पूर्णता से हुआ है। शिष्य की योग्यता, उसकी मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी पूर्ण रूपेण दर्शाया गया है। ऐसे ही गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता है वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है जो उसकी अन्तिम गति है। यही उसका गन्तव्य है जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका स्वरूप है जिसे वह प्राप्त कर लेता है।

गुरु की महिमा

(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचन से)

वास्तव मेँ गुरु की महिमा का पूरा वर्णन कोई कर सकता ही नहीँ । गुरु की महिमा भगवान से भी अधिक है । इसलिये शास्त्रोँ मेँ गुरु की बहुत महिमा आयी है । परंतु वह महिमा सच्चाई की है, दम्भ-पाखण्ड की नहीँ । आजकल दम्भ-पाखण्ड बहुत हो गया है और बढ़ता ही जा रहा है । कौन अच्छा है और कौन बुरा-इसका जल्दी पता लगता नहीँ । जो बुराई बुराई के रुप मेँ आती है, उसको मिटाना सुगम होता है । परंतु जो बुराई अच्छाई के रुप मेँ आती है, उसको मिटाना बड़ा कठिन होता है । सीताजी के सामने रावण, राजा प्रतापभानु के सामने कपट मुनि और हनुमान जी के सामने कालनेमि आये तो वे उनको पहचान नहीँ सके, उनके फेरे मेँ आ गये; क्योँकि उनका स्वाँग साधुओँ का था । आजकल भी शिष्योँ की अपने गुरु के प्रति जैसी श्रद्धा देखने मेँ आती है, वैसा गुरु स्वयं होता नहीँ । इसलिये सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका कहते थे कि आजकल के गुरुओँ मेँ हमारी श्रद्धा नहीँ होती, प्रत्युत उनके चेलोँ मेँ श्रद्धा होती है ! कारण कि चेलोँ मेँ अपने गुरु के प्रति जो श्रद्धा है, वह आदरणीय है ।

शास्त्रोँ मेँ आयी गुरु-महिमा ठीक होते हुए भी वर्तमान मेँ प्रचार के योग्य नहीँ है । कारण कि आजकल दम्भी-पाखण्डी लोग गुरु-महिमा के सहारे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैँ । इसमेँ कलियुग भी सहायक है; क्योँकि कलियुग अधर्मका मित्र है- 'कलिनाधर्ममित्रेण' (पद्मपुराण, उत्तर॰ 193 । 31) । वास्तव मेँ गुरु-महिमा प्रचार करने के लिये नहीँ है, प्रत्युत धारण करने के लिये है । कोई गुरु खुद ही गुरु-महिमा की बातेँ कहता है, गुरु-महिमा की पुस्तकोँ का प्रचार करता है तो इससे सिद्ध होता है कि उसके मन मेँ गुरु बनने की इच्छा है । जिसके भीतर गुरु बनने की इच्छा होती है, उससे दूसरोँ का भला नहीँ हो सकता । इसलिये मैँ गुरु का निषेध नहीँ करता हूँ, प्रत्युत पाखण्ड का निषेध करता हूँ । गुरु का निषेध तो कोई कर सकता ही नहीँ ।

गुरु की महिमा वास्तवमेँ शिष्य की दृष्टि से है, गुरुकी दृष्टि से नहीँ । एक गुरु की दृष्टि होती है, एक शिष्य की दृष्टि होती है और एक तीसरे आदमी की दृष्टि होती है । गुरु की दृष्टि यह होती है कि मैँने कुछ नहीँ किया, प्रत्युत जो स्वतः-स्वाभाविक वास्तविक तत्त्व है, उसकी तरफ शिष्य की दृष्टि करा दी । तात्पर्य हुआ कि मैँने उसी के स्वरुप का उसी को बोध कराया है, अपने पास से उसको कुछ दिया ही नहीँ । चेले की दृष्टि यह होती है कि गुरु ने मेरे को सब कुछ दे दिया । जो कुछ हुआ है, सब गुरु की कृपा से ही हुआ है । तीसरे आदमी की दृष्टि यह होती है कि शिष्य की श्रद्धा से ही उसको तत्त्वबोध हुआ है ।

असली महिमा उस गुरु की है, जिसने गोविन्द से मिला दिया है । जो गोविन्द से तो मिलाता नहीँ, कोरी बातेँ ही करता है, वह गुरु नहीँ होता । ऐसे गुरु की महिमा नकली और केवल दूसरोँ को ठगने के लिये होती है !

- ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी

गुरु की महिमा

गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। ‘व्यास’ का शाब्दिक संपादक, वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, 18 पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। ‘‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’’ अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुत्व है। आगम-निगम-पुराण का निरंतर संपादन ही व्यास रूपी सद्गुरु शिष्य को परमपिता परमात्मा से साक्षात्कार का माध्यम है। जिससे मिलती है सारूप्य मुक्ति। तभी कहा गया- ‘‘सा विद्या या विमुक्तये।’’ आज विश्वस्तर पर जितनी भी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, उनका मूल कारण है गुरु-शिष्य परंपरा का टूटना। श्रद्धावाल्लभते ज्ञानम्। आज गुरु-शिष्य में भक्ति का अभाव गुरु का धर्म ‘‘शिष्य को लूटना, येन केन प्रकारेण धनार्जन है’’ क्योंकि धर्मभीरुता का लाभ उठाते हुए धनतृष्णा कालनेमि गुरुओं को गुरुता से पतित करता है। यही कारण है कि विद्या का लक्ष्य ‘मोक्ष’ न होकर धनार्जन है। ऐसे में श्रद्धा का अभाव स्वाभाविक है। अन्ततः अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचारादि कदाचार बढ़ा। व्यासत्व यानी गुरुत्व अर्थात् संपादकत्व का उत्थान परमावश्यक है।

व्रत और विधान

इस दिन (गुरु पूजा के दिन) प्रात:काल स्नान पूजा आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर उत्तम और शुद्ध वस्त्र धारण कर गुरु के पास जाना चाहिए। गुरु को ऊंचे सुसज्जित आसन पर बैठाकर पुष्पमाला पहनानी चाहिए। इसके बाद वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर तथा धन भेंट करना चाहिए। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक पूजन करने से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। गुरु के आशीर्वाद से ही विद्यार्थी को विद्या आती है। उसके हृदय का अज्ञानता का अन्धकार दूर होता है। गुरु का आशीर्वाद ही प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी, ज्ञानवर्धक और मंगल करने वाला होता है। संसार की संपूर्ण विद्याएं गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती हैं और गुरु के आशीर्वाद से ही दी हुई विद्या सिद्ध और सफल होती है। गुरु पूर्णिमा पर व्यासजी द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन करके उनके उपदेशों पर आचरण करना चाहिए। इस दिन केवल गुरु (शिक्षक) ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।
इस पर्व को श्रद्धापूर्वक मनाना चाहिए, अंधविश्वासों के आधार पर नहीं। गुरु पूजन का मन्त्र है-

‘गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:।’

गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।

क्या करें गुरु पूर्णिमा के दिन
मानसी गंगा पर स्नान करते श्रद्धालु, गोवर्धन, मथुरा प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्र धारण करके तैयार हो जाएं। घर के किसी पवित्र स्थान पर पटिए पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर 12-12 रेखाएं बनाकर व्यास-पीठ बनाना चाहिए। फिर हमें ‘गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये’ मंत्र से पूजा का संकल्प लेना चाहिए। तत्पश्चात दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ना चाहिए। फिर व्यासजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम, मंत्र से पूजा का आवाहन करना चाहिए। अब अपने गुरु अथवा उनके चित्र की पूजा करके उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देना चाहिए।

आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मानने का क्या राज़ है? धर्म जीवन को देखने का काव्यात्मक ढंग है। सारा धर्म एक महाकाव्य है। अगर यह तुम्हें खयाल में आए, तो आषाढ़ की पूर्णिमा बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी। अन्यथा आषाढ़ में पूर्णिमा दिखाई भी न पड़ेगी। बादल घिरे होंगे, आकाश खुला न होगा। और भी प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों नहीं चुन लिया? लेकिन चुनने वालों का कोई खयाल है, कोई इशारा है।
वह यह है कि गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से। शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है।

गुरु का महत्व


गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है –

गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।

जों बिरंचि संकर सम होई।।

भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं –

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।

अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।

किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है? अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं। भौतिकवाद में भी गुरू की आवश्यकता होती है।

सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।

तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।

सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।

मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेनाअज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं।

किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि

यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान,

शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।

गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।

गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।

सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।

आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन को यही संदेश दिया था –

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच: ।। (गीता 18/66)

अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है। ऐसे परम गुरु को ही गुरु बनाना चाहिए।