पूज्यपाद श्री हरिदास बाबा जी , श्री रंगराय जी , श्री रामकुमार रामायणी जी ,मनसराजहांस श्री विजयानंद जी , श्री हरिहर प्रसाद जी ,बाबा श्री जयरामदास जी के कृपा प्रसाद एवं मानस टीकाओं से प्रस्तुत भाव ।
लंका के रणक्षेत्र मे मेघनाद के शक्ति-प्रहार से श्री लक्ष्मण जी मूर्छित हो गये । लंका के सुषेण वैद्य की आज्ञा से श्री हनुमान द्रोणाचल पर्वत पर से विशल्यकर्णी औषधि (संजीवनी बूटी) लेने चल दिये । वे वहाँ पहुंचकर औषधि को पहचान नहीं पाये और उन्हे पूरे पर्वत को ही ऊखाड कर ले चलना पडा ।
देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥
भावार्थ : भरत जी ने आकाश में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तब मन में अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान तक धनुष को खींचकर बिना फल का एक बाण मारा ।
शंका : हनुमान जी के अवधपुरी के ऊपर से उड़ने का क्या कारण था ? युद्ध के समय हनुमान जी के मन में अपने बल का अभिमान आ गया था । भगवान् कभी अपने भक्त के मन में अभिमान का अंकुर बढ़ने नहीं देते । लक्ष्मण जी जब मूर्छित हुए तब भगवान् श्री राम ने शोकातुर होकर कहा की हनुमान जैसे महाबली के रहते हुए भी तुम (लक्ष्मण ) पर यह आपत्ति आयी ,यदि हमारे भाई भरत यहां होते तो वे अवश्य तुम्हारी रक्षा करते । (हनुमन्नाटक १३ । ११ )
भरत बाहुबल की प्रशंसा सुनकर हुनमान जी के चित्त में भरत जी के बल की परीक्षा का भाव उठा । अतएव सर्वज्ञ , सर्वउरवासी प्रभु ने उन्हें आज्ञा दी की अवधपुरी का समाचार लेते आना । इस कारण से पर्वत लेकर हनुमान जी अवधपुरी के ऊपर से जाने लगे । भरत की उस समय बहार बैठे थे । दूसरी शंका :भरत जी रात्रि में बहार क्यों बैठे थे ? इसका उत्तर हनुमन्नाटक ग्रन्थ से स्पष्ट होती है । जिस समय हनुमान जी संजीवनी बूटी लाने हिमालय पर गए थे ,उसी रात्रि श्री सुमित्रा माता ने एक स्वप्न देखा की उनकी सारी बायीं भुजा को सर्प निगल रहा है । वह स्वप्न देखकर डर से उठ बैठी । उन्होंने यह स्वप्न कौसल्या जी को सुनाया और कौसल्या जी ने पुरोहित महर्षि वसिष्ठ जी को ।
श्री वसिष्ठ जी ने धनुर्बाण धारण कराके भरत जी को बिठाकर घृत के होम के द्वारा शांति करायी । तगर और फूलोंसमेत चंदन , कमल , कमलनाल , कपूर ,खस और बहुत – से घीसे भरे हुए नारियल से पुराहुति दे रहे थे, उस समय बड़े वेग से जलती हुई अग्नि की तरह दीप्तिमान् पर्वत को लिए वहाँ हनुमान जी मौजूद हो गए । भरत जी को शंका हुई की दुःस्वप्न का मूल यही न हो । कोई निशिचर होगा ,वह पर्वत अवधपुरी पर डालने न आया हो । परंतु अभी अनुमानमात्र था । धोखे से कोई और न मर जाए इसीलिए बिना फिर का बाण मारा ।
मारना नहीं था ,केवल शिथिल करके गिरा देना था । जैसे रामचंद्र जी ने विश्वामित्र यज्ञ के समय मारीच को बिना फर का बाण मार था जिससे विघ्न शांत हो ,उसे बल मालुम हो जाये और उसके प्राण भी बचे रहे । होम समय हिंसा करना शास्त्रवर्जित है परंतु सात्विक यज्ञ रात्रि में नहीं होता ,अतः बाण मारने में दोष नहीं है ।
परेउ मुरुछि महि लागत सायक।
सुमिरत राम राम रघुनायक ।।
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए।
कपि समीप अति आतुर आए ।।
भावार्थ : बाण लगते ही हनुमान्जी ‘राम, राम, रघुनायक’ का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रिय वचन (रामनाम) सुनकर भरतजी उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान्जी के पास आए ।
शंका : हनुमान जी गिरे तो पर्वत कहा गया ? इसका उत्तर गीतावली में गोस्वामी जी ने दिया है – जब भरत के बाण से हनुमान जी पृथ्वीपर गिर पड़े ,तब पवनदेव ने पर्वत को अदृश्यरूप से आकाश में रोक रखा । दूसरे एक महात्मा जी का भाव है – भरत जी ने यह सोचकर की पर्वत लेकर अवधपर डालने के लिए कोई निशिचर आ रहा है, ऐसा बाण चलाया कि हनुमान जी को उसने मूर्छित कर दिया और पर्वत को भी आकाश में ही रोक लिया ,गिरने न दिया ।
बिकल बिलोकि कीस उर लावा।
जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥
मुख मलीन मन भए दुखारी।
कहत बचन भरि लोचन बारी॥
भावार्थ : हनुमान्जी को व्याकुल देखकर उन्होंने हृदय से लगा लिया । बहुत तरह से जगाया(मुखपर जल की छींटे देना ,औषधि सुँघाना इत्यादि ) पर वे जागते न थे! तब भरतजी का मुख उदास हो गया। वे मन में बड़े दुःखी हुए और नेत्रों में जल भरकर ये वचन बोले ।
जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा ।
तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा ।।
जौं मोरें मन बच अरु काया ।
प्रीति राम पद कमल अमाया ।।
भावार्थ : जिस विधाता ने मुझे श्री राम से विमुख किया, उसी ने फिर यह भयानक दुःख भी दिया। यदि मन, वचन और शरीर से श्री रामजी के चरणकमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो ।
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला।
जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा।
कहि जय जयति कोसलाधीसा॥
भावार्थ : यदि श्री रघुनाथजी मुझ पर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए। यह वचन सुनते ही कपिराज हनुमान् जी – कोसलपति श्री रामचंद्रजी की जय हो, जय हो – कहते हुए उठ बैठे ।
संतो का भाव है – हनुमान जी बाण से मूर्छित न हुए थे ,वे केवल भरत की भक्ति की परीक्षा – हेतु मूर्छित बन गए थे । जब भरत जी को मन-कर्म – वचन से श्रीराम का भक्त जाना तब उठ बैठे । नहीं तो मूर्छित अवस्था में सुनते कैसे ? अन्य संतो का भाव है की हनुमान जी मूर्छित हुए थे , अनेक उपाय करने पर भी उनकी मूर्छा दूर नहीं हुई तब भरत जी ने रामपद प्रेम का आश्रयण किया , भरत जी की रामपद – प्रीति के बल से हनुमान जी जगे ।
हनुमन्नाटक १३ ।२६ में लिखा है की हनुमान जी पूर्ण रूप से मूर्छित नहीं हुए थे , उनके कोई पुरूषार्थ न रह गया था । हनुमान जी शिथिल हो गए थे पर बोलते ,सुनते थे । उसी स्वस्थ में उन्होंने भरत जी को लक्ष्मण – मेघनाद युद्ध प्रसंग सुनाया था । तत्पश्चात् श्री वसिष्ठ जी ने हनुमान जी द्वारा लाये द्रोणगिरि पर्वत से औषधि ( संजीवनी बूटी ) लेकर उनकी मूर्छा दूर की ।
लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदय समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥
भावार्थ : भरतजी ने वानर (हनुमान जी) को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंद तथा प्रेम के आँसुओं का) जल भर आया। रघुकुलतिलक श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके भरतजी के हृदय में प्रीति समाती न थी ।
तात कुसल कहु सुखनिधान की।
सहित अनुज अरु मातु जानकी॥
लकपि सब चरित समास बखाने।
भए दुखी मन महुँ पछिताने॥
भावार्थ : (भरतजी बोले-) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान श्री रामजी की कुशल कहो। वानर (हनुमान जी) ने संक्षेप में सब कथा कही। सुनकर भरतजी दुःखी हुए और मन में पछताने लगे ।
अहह दैव मैं कत जग जायउँ।
प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा।
पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥
भावार्थ : हा दैव! मैं जगत् में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मन में धीरज धरकर बलवीर भरतजी हनुमान्जी से बोले ।
संतो के भाव : कुअवसर शब्द गोस्वामी जी ने प्रयोग क्यों किया ? उत्तर है की भारत जी सोचने लगे – लक्ष्मण जी रणभूमि पर घायल पड़े है , हनुमान जी जिनको औषध लेकर जाना है वे यहां है , इन्हें शीघ्र श्रीराम के पास पहुंचा दूं । यदि मै शोक में पड गया तो सब शोक करने लगेंगे , समय भी ख़राब होगा और औषध समय पर न पहुँचने से लक्ष्मण जी के प्राण जा सकते है । यह समय शोक करने का नहीं है अपितु कर्तव्य करने का है ।
तात गहरु होइहि तोहि जाता।
काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढु मम सायक सैल समेता।
पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥
भावार्थ : हे तात! तुमको जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड़ जाएगा। (अतः) तुम पर्वत सहित मेरे बाण पर चढ़ जाओ, मैं तुमको वहाँ भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम श्री रामजी है ।
संतो के भाव : भरत जी कह रहे है की आप पर्वत सहित हमारे बाण पर चढ़ जाओ । सुबह होने पर औषधि काम न देगी । हनुमान जी की गति यद्यपि वायु के सामान है ,परंतु वे थोड़े श्रमित है और बाद में लंका जाकर युद्ध भी करना है । इससे यह भी ज्ञान होता है की श्री भरत जी के बाण की गति हनुमान जी जितनी या उससे भी तेज है । भरत की के बाण में अद्भुत शक्ति है । महाभारत में भीम गर्वहारण का प्रसंग देखा जाये तो भीम हनुमान जी की पूँछ को तिलमात्र भी हिला नहीं पाया । यहाँ भरत जी का बाण पूरे हनुमान जी के शरीर को पर्वत सहित उठाकर प्रातःकाल से पहले सरकार के चरणों में पहुंचा देगा ।
श्री रामभक्त पर बाण चलकर हमसे अपराध हुआ है , इस बहाने हमसे कुछ सेवा हो जाए अतः बाण पर चढ़ जाने कहा । यहां भरत जी ने श्री रामचंद्र जी को कृपा / दया के सागर कहा है । भाव की हमपर कृपा की , हनुमान जी को हमारे पास भेजकर अपना समाचार दिया , हृदय में हरिचर्चा सुनकर शीतलता हुई ।
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना।
मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी।
बंदि चरन कह कपि कर जोरी॥
भावार्थ : भरतजी की यह बात सुनकर (एक बार तो) हनुमान्जी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा? (किन्तु) फिर श्री रामचंद्रजी के प्रभाव का विचार करके वे भरतजी के चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले ।
संतो के भाव : हनुमान जी ने सोचा की हमारा इतना विशाल बलवान शरीर है ऊपर से साथ में यह पर्वत भी है । भरत जी का एक छोटा सा बाण इतना भार कैसे उठाएगा । फिर मन में सोचने लगे की भरत जी मन -वचन -कर्म से श्री राम के भक्त है , अभी कुछ देर पहले हमें उनके एक बाण ने मूर्छित कर दिया था । श्री राम के भक्त के लिए कुछ भी असंभव नहीं ।
दूसरा भाव ऐसा की जब समुद्र लांघकर लंका में गए तब हनुमान जी को अभिमान न हुआ था , वहाँ हनुमान जी ने कहा था – ये सब तो श्री रघुनाथ जी का प्रताप है , इसमें मेरी कोई प्रभुताई नहीं है । परंतु आज अभिमान हुआ । हनुमान जी ने सोचा की आज श्रीराम ने भरत जी जैसे संत के द्वारा मेरा अभिमान छुडा दिया । इस कारण से यहां श्री हनुमान जी ने हाथ जोड़कर भारत जी के चरणों की वंदना की ।
तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥
भावार्थ : हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपका प्रताप ( एवं आपका प्रताप और प्रभु को ) हृदय में रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आज्ञा पाकर और भरतजी के चरणों की वंदना करके हनुमान्जी चले ।
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥
भावार्थ : भरतजी के बाहुबल, शील , गुण और अपार प्रभुपद प्रेम की बारंबार मनमे सराहना करते हुए पवनकुमार श्री हनुमान्जी चले जा रहे हैं ।
जैसे श्री कृष्ण ने ज्ञानी प्रियभक्त उद्धव जी को गोपियों के पास प्रेमकी दीक्षा करने की लिए भेजा ,स्वयं कुछ नहीं समझाया ।
भगवान् को जब किसी को प्रेम का पाठ पढ़ाना होता है , ज्ञान अभिमान से रहित करना होता है तो वे उसे आचार्यो / संतो के चरणों में भेजते है । कभी किसी संत में भी किंचित् अभिमान आ जाये तो उसे भी दूसरे संतो का संग करने ही जाना पड़ता है । यहां श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी को प्रेम की पराकाष्ठा प्राप्त करने के लिए प्रेरणा करके श्री अयोध्या जी भेजा है ।
श्री महर्षि वसिष्ठ और भरत संवाद । महर्षि वशिष्ठ द्वारा श्री सरयू माहात्म्य वर्णन :
जिस समय श्री हनुमान भरत मिलन हुआ और हनुमान जी को पर्वत सहित भरत जी ने बाण पर बिठाकर श्रीराम के पास लंका में पहुंच दिया उसी दिन की बात है । ब्रह्मवेला मे श्री भरत जी सरयू स्नानकर राजगुरु महर्षि वसिष्ठ के आश्रम मे नित्य की भाँति पहुँच गये । रघुकुल के नरेशोद्वारा प्रस्थापित की गयी परम्परा के अनुसार नियमित यज्ञ मे भाग लिया । पूर्णाहुति के पश्चात महर्षि अपने आसनपर विराजमान हो गये । श्री भरत भी उनके पास उठकर बैठ गये । रात्रि को घटी समस्त घटना से गुरुदेव को अवगत कराते हुए उन्होने दिया कि किस प्रकार मारुति द्रोणखण्ड लेकर आकाशमार्ग से जा रहे थे । लक्ष्मण वीरघातिनी शक्ति के कारण मूर्छित थे । जानकी जी का हरण और लंका के युद्धभूमि की समस्त कथा उन्होने गुरुदेव को सुना दी ।
गुरूदेव शिव शिव कहते हुए कुछ क्षण मौन रहकर बोले, वत्स ! तुमने मारुतिपर बाण प्रहारकर लक्ष्मण के प्राण बचा लिये । भरत को महर्षि की बाद सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ । भरत बोले – गुरुदेव ! मैने लक्ष्मण के प्राण बचा लिये, मैं तो ग्लानि मे गला जा रहा हू कि मैंने प्रभुके प्रिय भक्त हनुमान जी पर प्रहार करके जो पाप किया, उसका प्रायश्चित्त क्या है ? यही जानने की इच्छा इस समय मेरे हृदय मे है और आप कहने है की मैंने हनुमान पर बाण चलाकर लक्ष्मण जी के प्राण बचा लिए ?
महर्षि ने कहा – भरत ! यदि तुम मारुति को उनके पातक के अपराध के लिये दण्डित नहीं करते तो वे उसके महाभार से दबकर नंदीग्राम को लांघ ही नही पाते । इस बात को सुनकर भरत कहते है – गुरूदेव ! मारुति ने ऐसा कौन सा घोर अपराध कर दिया था कि जिसके कारण वह नंदीग्राम को लांघ नही पाते ?
महर्षि बोले – सृष्टि के आरंभिक क्षणो मे समस्त सरिताओं , सिन्धु और ब्रह्मपुत्र जैसे नदों से भी प्रथम भारतवर्ष की पवित्र देवभूमिपर सर्वप्रथम पधारने वाली सरवरराज मान (मानसरोवर) – की ज्येष्ठ दुहिता (पुत्री ) भगवती सरयू को प्रणाम किये बिना, उसे लांघने का प्रयत्न कर रहे थे । भरत ने कहा – किंतु गुरूदेव ! क्षमा करें, सम्भव है कि मारुति देवी सरयू के महत्त्व से परिचित न हो अथवा लक्ष्मण को जिस कठिन परिस्थिति में छोडकर आये थे उन्हे बचाने के लिये वे शीघ्रतासे सूर्योदय से पूर्व पहुंचना चाहते हो ।
महर्षि ने कहा – नहीं नहीं, वत्स ! मारुति सरयू के महत्त्व से परिचित न हों, यह हो ही नही सकता । वे सूर्यदेव के शिष्य , त्रिभुवन के भूगोल खगोल से पूर्णत: परिचित है । उनके पाण्डित्यपर प्रश्नचिह्न अंकित करने की चेष्टा मत करो । रही चर्चा शीघ्रता की, तो वह होनी ही चाहिये थी किंतु जब वे कालनेमि की गुरुमंत्र लीला मे उलझ सकते हैं, द्रोणगिरि के रक्षक एक एक देव की वैदिक मंत्रो से स्तुति कर सकते हैं, औषधि के विषय में विचार करने की अपेक्षा से पूर्ण शैलखण्ड (पर्वत) ले चलने का युक्तियुक्त विचार का सकते है तो फिर भगवती सरयू को प्रणाम करने का विचार क्यो नही आया ?
भरत जी ने कहा – किंतु गुरुदेव ! मैं तो फिर भी यही कह सकता हूं कि मारुति के मन मे भगवती सरयू की अवहेलना करने का रंचमात्र भी विचार नही था । महर्षि बोले – यह सत्य है, यदि होता तो जैसा में पहले ही कह चुका हूँ कि वे तुम्हारे बाण से आहत होकर नंदीग्राम की धरती से उठ ही नही पाते, अपितु इसके साथ ही वे समस्त देवताओं से प्राप्त दुर्लभ वरदानों के फल से भी वंचित हो जाते । भरत आश्चार्य में पड़कर महर्षि की ओर देखने लगे । महर्षि आगे बोले – मारुति भगवान् आशुतोष शिव के अंशावतार है । पुुत्रेष्टि यज्ञ से प्राप्त क्षीर के जिस अंश से तुम्हारी उत्पत्ति है, उसी के एक अंश से मारुति का भी प्रादुर्भाव हुआ है ।
पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसादरूप चरु को जब महाराज दशरथ अपनी तीनो रानियो को यथायोग्य वितरित का रहे थे, तब तुम्हारी माता देवी कैकेयी के हाथ से उसका एक अंश छलककर ज्यो ही गिरने को हुआ, त्यों ही भगवान् श्री शंकर के आदेश से पवनदेव ने एक सुन्दर पक्षी के वेष मे उसे ग्रहणकर, सूर्य आराधना में तत्पर अंजना की अंजुली में गिरा दिया । उसे अंजना ने भी दिव्य प्रसाद मानकर ग्रहण कर लिया । वे सगर्भा हुई, मारुति का जन्म हुआ । इसी कारण पवनदेव का वात्सल्य उन्हें प्राप्त है । वे शंकरसुवन अर्थात भगवान् श्री शंकर के अवतार, केसरीनंदन अर्थात् वानरराज कसरी के औरस पुत्र और देवी अंजनी के कुक्षि के रत्न है ।
लौकिक लीला मे पालने में झूलते – झूलते ही उन्होने भूख का प्रदर्शन करते हुए सूर्यदेव को पटल दोलक (छोंका) -पर रखा हुआ पिष्टक (पेड़ा) मानकर और उसी समय राहु को उन्हे सुतकग्रस्त करने के लिये जाते हुए देखकर उसे अपना प्रतिद्वन्दी मानकर सूर्यसहित मुंह में रख लिया । देवराज इन्द्र ने दोनो की मुक्ति के लिये अपने अमोघ वज्र का प्रहार किया । जो केवल उनकी हनु ( ठोडी ) ही कुछ बाँकी कर पाया । इसी कारण आंजनेय हनुमान नाम से प्रसिद्ध है । हाँ , वज्र प्रहार के कारण वे मूर्छित होकर धरतीपर गिर पडे । यह देखकर पवन देव ने क्रुद्ध होकर अपनी गति स्तम्भित का दी । विश्व के प्राणोपर संकट देखकर इन्द्र वरुण अग्नि आदि देवो ने ही नहीं बल्कि ब्रह्मा विष्णु महेश ने भी प्रकट होकर उन्हे ब्रह्मपाश सुदर्शन त्रिशूल वज्र जल अग्नि आदिके प्रकोप से अभय रहने के दुर्लभातिदुर्लभ वर प्रदान किये ।
भगवती सरयू की जान बूझकर अवहेलना करनेपर वे सभी क्षणमात्र में प्रभावहीन हो जाते । उन्होने जिस स्थितिमें अपराध किया, उसी स्थिति मे तुमने बाण का प्रयोग उन राघवप्रियपर किया । जैसे वे रोगयुक्त हुए वैसे ही रोगमुक्त हो गये । यह युक्तियुक्त समझकर अपने चित्त को ग्लानिमुक्त करो । उनके द्वारा प्रदान की गयी संजीवनी तो लक्ष्मण की मूर्छा निवृत्ति निश्चित रूप से हो गयी होगी परंतु तुम्हारे द्वारा जो संजीवनी तुम्हारे बन्धुओं को मिली होगी, उसने उनमे न केवल अलौकिक ऊर्जा का ही संचार कर दिया होगा बल्कि निरन्तर करती ही रहेगी ।
भरत बोले – मुझ आकिंचन के द्वारा संजीवनी प्रदान की गयी, यह आप क्या कह रहे है? महर्षि बोले – भरत तुम मद मुक्त हो, निश्छल सरल हो । तुम्हारे मन वचन कर्म ।इ विरोध क्या विरोधाभास का भी अभाव है । सुनो, जब मारुति ने तुम्हारे बाण से आहत होकर गिरने की चर्चा राम से की होगी तो राम का विश्वा स और दृढ हो गया होगा कि मेरी अयोध्या पूर्णत: सुरक्षित है । हनुमान जैसा बलबीर भी उसे अर्धरात्रि के घोर अन्धकार में भी लांघ नही पाया तो फिर अन्य की तो बात ही क्या ? युद्धभूमि मे संघर्षरत गम्भीर से गम्भीर वीर को भी परिवार की चिन्ता तरल कर देती है । यद्यपि राम लक्ष्मणके चित्त को कठिन से कठिन परिस्थिति भी विचलित नहीं का सकती किंतु तुमने उन्हे सुस्थिरता प्रदानकर अपनी भूमिका का सटीक निर्वाह कर दिया ।
विचारो, बिना विचारे मारुति और तुमने क्या क्या नहीं कर डाला । यदि विचारपूवंक कहें तो तुम और मारुति क्या नहीं का सकते । अस्तु कुछ ठहरकर महर्षि पुन: बोले, प्रिय भरत ! भगवती सरयू के एक और अलौकिक महत्त्व का रहस्य आज तुम्हारे समक्ष प्रकट कर रहा हूं । बताओ, अयोध्या का श्मशान क्षेत्र गोप्रतार (नाम है) ही क्यों निश्चित किया गया ? भरत ने कहा – गुरुदेव कृपा करके आप ही कहे । महर्षि बोले – प्रयाग तीर्थराज है । सूर्यपुत्री यमुना जी और गंगा जी का वहाँ संगम है । उसे पवित्र मानकर अनेको घोर पातकी वहाँ स्नान करने आते है । तीर्थराज अपने प्रभाव से उन्हे पातकमुक्त करते करते स्वयं मलिन तन, विगलित वदन हो जाते है । उनके अंग अंग में दाह उत्पन्न हो जाता है ।
उनसे मुक्त होने के लिये वे सरयू में जहाँ स्नान करके प्रफुल्ल मन बदन हो जाते हैं, वह अन्तशैया महाश्मशान गोप्रतार तीर्थ है । वहाँ जिसके शवका दहन हो जाता है, वह नित्य श्री भगवद्धाम में निवास करने का निर्विवाद अधिकारी बन जाता है । इस माहात्म्य को सुनकर भरत जी बोले – गुरुदेव ! आपके शब्द सुनकर मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भगवती सरयू के महत्त्व को संसार के समक्ष प्रतिपादित करने के लिये और साथ ही प्रभु के इस सामान्य से सेवक के बाणको सम्मान देनेके लिये स्वयं आशुतोष शंकर ने ही यह लीला रची । प्रिय भरत ! यही सत्य है । देव ! इस भरत भी यही आशीर्वाद दीजिये कि उसे भी अन्त मे सरयू अम्बिका के अंक में स्थित गोप्रतार की प्राप्ति हो । भरत गुरुदेव की वन्दना करते हुए नंदीग्राम की ओर अग्रसर हो गये ।
श्री सरयू जी का शास्त्रो में माहात्म्य :
श्री ब्रम्हदेव जब सृष्टि की रचना कर रहे थे उससे पहले उन्होंनेने भगवान श्री नारायण की तपस्या की थी और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर नारायण ने उन्हें दर्शन दिया ।श्री ब्रह्मदेव की तपस्या से नारायण इतने प्रसन्न हो गए थे कि उनकी आंखों से करुणा जल निकल पडा । ब्रह्मा जी ने उस पवित्र जल को अपने हाथो में लेकर हिमालय के मानसरोवर पर स्थापित किया था। इस कारण से सरयू को नेत्रजा भी कहा जाता है । महाराज रघु की प्रार्थना पर महर्षि वशिष्ठ ने तपस्या करके ब्रह्मदेव को प्रसन्न किया । उन्होंने सरयू जी को ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को पृथ्वी पर अवतरित कराने का वरदान माँगा ।
महर्षि वशिष्ठ की कठोर तपस्या के बाद ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा के दिन सरयू पृथ्वी अवतरित हुई थी। इस कारण से इसका नाम वाशिष्ठी भी पड़ा। वाल्मीकी रामायण के अनुसार ब्रह्मदेव ने अपने मनोयोग से हिमालय के रमणीय क्षेत्र में एक सरोवर का निर्माण किया । जिस सरोवर का नाम मानस-सर (मानसरोवर ) पड़ा। सर से निकलने के कारण इसका नाम सरयू पड़ा । सरयू जी मानसरोवर की पुत्री है , बहुत से महात्मा सरयू जी को महर्षि वसिष्ठ जी की पुत्री भी मानते है परंतु यह बात अधिकतर मान्य नही है ।
श्री राम और भरत संवाद , हनुमान जी द्वारा श्री भरत के प्रभु प्रेम और संतत्व का परिचय देना :
एक बार प्रभु श्री राम ने उक्त घटना के सन्दर्भ मे भैया भरत को कहा था – हे भरत ! तुम्हारी भुजा की क्षमता घन्य है । तुम्हारे बिना फल के बाण से हनुमान जी जैरो योद्धा पृथ्वीपर गिर पड़े, जिसे परास्त करने की क्षमता ब्रह्माण्ड के किसी योद्धा मे नहीं है । यह सुनकर भरत जी व्यथित होकर प्रभु के श्री चरणों को पकडकर कहने लगे- प्रभो ! उस घटना की स्मृति मे मुझे ग्लानि, हीनभावना तथा लज्जा आती है । चित्रकूट में आपने न तो अयोध्या लौटने का मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और न ही वैन में मुझे साथ रहने की अनुमति दी । अयोध्या में हनुमान जी के मूर्छित होनेपर वह रहस्य नहीं रहा कि आपने मेरा परित्याग क्यों किया ? आपने अपना छोटा भाई बनाकर मेरे ऊपर अपार करुणा की है, किंतु मेरी करनी रावण तथा मेघनाद की तरह है ।
सुनकर प्रभु श्रीराम चौंके और बोले – भरत ! तुम कैसी बाते करते हो ? मेघनाद और रावण से तुम्हारी क्या तुलना ? श्री भरत जी कहने लगे- प्रभो ! मेरा कहना उचित ही है । मेघनाद ने भाई लक्ष्मण जी को शक्तिपात से मूर्छित किया था और मैंने भी लक्ष्मणके प्राणो की रक्षा करने के लिये औषधि ले जानेवाले हनुमान जी को मूर्छित किया । मै मेघनाद से भी अधिक अपराधी हूँ । रावण ने कालनेमि राक्षस भेजकर औषधि ले जानेवाले हनुमान जी का रास्ता रोकने की चेष्टा की थी, जिससे औषधि विलम्ब से पहुंचे । उसी प्रकार मैने भी हनुमान जी को बाण मारकर, उन्हे गिराकर विलंभ पहुँचाया । प्रभो! आपने मेरा परित्यागकर ठीक पहचाना । पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरिमानस मे भरत जी के ये ही उद्वगार प्रकट किये –
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा । ताते नाथ संग नहिं लीन्हा । (रामचरितमानस ७ ।१ । ४ )
श्री भरत जी के ऐसे उद्गार सुनकर प्रभु श्रीराम हनुमान जी से पूछने लगे- हनुमन्त ! भैया भरत ऐसा क्यों कह रहे है ? क्या कहना चाहते है ? श्री हनुमान जी प्रभु के श्री चरणो को पकडकर कहने लगे – भगवन् ! भैया भरत सन्त है, इनकी सन्त प्रकृति है और आपके परम भक्त हैं । मैं तो यही कहूँगा कि इनके सभी कार्य आपसे बढकर है ,अधिक महान है । जैसे –
१ – प्रभो ! आपके बाण बडे चमत्कारी है, दिव्य है तथा अमोघ है, परंतु भरत जी के पास ऐसे दो बाण है जो आपके पास भी नहीं है । भरत जी में दिव्य दृष्टि थी कि उन्होने मेरे मन मे आनेवाला भ्रम तथा अभिमान जानकर उनपर अपने एक बाण से प्रहार किया था ।
२ -भैया लक्ष्मण जी की मूर्छा दूर करने के लिए लंका से वैद्य आया, द्रोणाचल से औषधि आयी । जब मैं अयोध्या मे मूर्छित होकर गिर पडा, तब भरत जी ने अयोध्या से वैद्य बुलाकर मेरी मूच्छी दूर नहीं करायी । उन्होने तो स्वयं दो ही क्षणमें मेरी मूच्छएँ दूर का दी । उन्होने कहा था-यदि मन, वचन और शरीर से प्रभु के श्री चरणो में मेरा निष्कपट प्रेम हो, उनकी मेरे ऊपर कृपा हो तो यह वानर श्रम तथा शूल से रहित होजाय । प्रभो ! आपकी भक्ति के प्रति भरत जी का इतना अधिक विश्वास था कि उनके वचनो को सुनकर मेरी मूर्छा दूर हो गयी, मैं जागकर बैठ गया ।
३ -श्री भरत जी ने मुझ से कहा था – तुम पर्वतसहित मेरे बाणपर चढ़ जाओ, मैं तुम्हे कृपाधाम प्रभु श्री रामके पास पहुंचा दूँ। प्रभो ! मुझें तो भार उठाने का कार्य दिया गया था, परंतु आपकी कृपा से मेरा भार उठाने मुझें ऐसे सन्त-भक्त भरत जी मिले।
४ -प्रभो! आपके पास अग्नि, जल, पहाड आदि बरसानेवाले तथा सिर काटनेवाले बाण हैँल । भरत जी के बाण-जैसा, जो ईश्वर के पास पहुँचाता – मिलाता है , आपके पास भी नहीं है । उनका एक बाण अभिमान मिटानेवाला तथा दूसरा ईश्वर से मिलानेवाला है ।
५ – प्रभो ! यह सत्य है कि आपके बाण लगने से राक्षस आपमें विलीन हो गये । आपका बाण आपसे मिलाता तो है, परंतु मरने के बाद । भरत जी का बाण जीते जी आपसे मिलाता है ।
६ -आपने माता कैकेयी से प्राप्त चौदह वर्षका वनवास तपस्वी बनकर बिताया था, जबकि आपके भक्त भरत जी ने सभी सुख सुविधाएँ त्यागकर अयोध्या से बाहर नन्दग्राम मे पर्णकुटी बनाकर पूरे चौदह वर्ष तपस्वी जीवन बिताया । वन में संसार – भोगो के आकर्षण से उदासीन बने रहना सरल है परंतु महल , संसार – भोगो के बीचो बिच रहते हुए उनसे उदासीन होना अत्यंत कठिन है ।
श्री भरत जी के प्रति श्री हनुमान जी के भावमय प्रेमोद्गार सुनकर प्रभु श्रीराम अति प्रसन्न हुए और कहने लगे -हनुमंत ! तुम्हारा कहना यथार्थ है । भरत जी के समान कोई पवित्र और उत्तम भाई संसार में नहीं है ।
सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना ।।
(रामचरितमानस २ । २३२ । ४ )
पिता चक्रवर्ती महाराज दशरथ के हम दोनों भाई उनकी दो आँखे थी – मोरें भरतु रामु दुइ आँखी (रामचरितमानस २ । ३१ । ६) । गुरूदेव बता रहे थे कि चित्रकूट यात्रा में उनके आश्रम मे भैया भरत को मिलनेवाले जो भी भील ,किरात आदि वनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, सन्यासीऔर विरक्त हमारे कुशलपूर्वक देखने के समाचार कहते उनको वे हमारे समान ही प्रिय मानते –
जे जन कहहिं कुसल हम देखे । ते प्रिय राम लखन सम लेखे ।। (रामचरितमानस २ । २२४। ७ )
चित्रकूट यात्रा में मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज जी के आश्रम मे आये भरत को उन्होने कहा था कि उन्हे हमारे दर्शन के फल का महान फल संत भरत जी के दर्शन के रूप मिला ।
तेहि फलु कर फल दरस तुम्हारा ।
(रामचरितमानस २।२१० ।५)
कौसल्या माता उन्हें सदैव कुलका दिपक जानती थी, महाराज ने उनसे बारम्बार यही कहा था – जानउँ सदा भरत कुलदीपा । बार बार मोहि कहेउ महिपा ।। (रामकजरितमनस २ । २८३ । ५)
श्री हनुमान जी को कही गयी भ्रातृ-स्नेह की वाणी सुनकर भरत जी प्रभु के श्रीचरण पकडकर उनके मुख की ओर देखने लगे । प्रभु ने उन्हे उठाकर हृदय से लगाया-भैया भरत ! यह कोई स्तुति नहीं, अपितु सत्य है । अयोध्या के लोगो के मनमे दुर्गुण मेरे रहतें हुए आ गये थे, मन्थरा की लोभवृत्ति नहीं मिटी, माता कैकेैयी की बुद्धि मे मलिनता आयी तथा महाराज दशरथ के मनमे काम आया । भरत ! तुम्हारी कृपा होते हो समस्त अयोध्यावा सी मेरे पास चित्रकूट पहुँचे गये । उस समय मैंने जो कहा था, वह शाश्वत सत्य है । भरत ! तुम्हारा नामस्मरण करते ही सब पाप- प्रपंच और समस्त अमंगलो के समूह मिट जायेंगे तथा इस लोक में सुन्दर यश तथा परलोक मे सुख प्राप्त होगा ।
मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार ।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार ।। (रामचरितमानस २ । २६३ )