Thursday, March 14, 2013

BHARAT KE BHAGWAN WALLPAPER

 
।।श्रीहरि।।
नम्र निवेदन
प्रायः प्रत्येक साधक के भीतर यह जिज्ञासा रहती है कि तत्त्वज्ञान क्या है ? तत्त्वज्ञान सुगमता से कैसे हो सकता है ? आदि। इस जिज्ञासाकी पूर्ति करने के लिये प्रस्तुत पुस्तक साधकों के लिये बड़े कामकी है। इसमें जो बातें आयी हैं, वे केवल सीखने-सिखाने की, सुनने-सुनाने की नहीं हैं, प्रत्युत अनुभव करने की हैं।
तत्त्वज्ञान का सहज उपाय
हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं हैयह बात यदि समझ में आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ! इसमें समय लगने की बात नहीं है। समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है। जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे
संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।
दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ। इसमें मैंप्रकृति का अंश है और हूँपरमात्मा का अंश है। मैंजड़ है और हूँचेतन है। मैंआधेय है और हूँआधार है। मैंप्रकाश्य है और हूँप्रकाशक है। मैंपरिवर्तनशील है और हूँअपरिवर्तनशील है। मैंअनित्य है और हूँनित्य है। मैंविकारी है और हूँनिर्विकार है। मैंऔर हूँको मिला लियायही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है। मैंऔर हूँको अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि मैंको साथ मिलाने से ही हूँकहा जाता है। अगर मैंको साथ न मिलायें तो हूँनहीं रहेगा, प्रत्युत हैरहेगा। वह हैही अपना स्वरूप है।
एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि मैं बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि मैं दादा हूँ’, बहन के सामने कहता है कि मैं भाई हूँ’, पत्नी से के सामने कहता है कि मैं पति हूं’, भानजे के सामने कहता है कि मैं मामा हूँ’, मामा के सामने कहता है कि मैं भानजा हूँआदि-आदि। तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, पर हूँसबमें एक है। मैंतो बदला है, पर हूँनहीं बदला। वह मैंबाप के सामने बेटा हो जाता, बेटे के सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है। अगर उससे पूछें कि तू कौन हैतो उसको खुद का पता नहीं है ! यदि मैंकी खोज करें तो मैंमिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी। कारण कि वास्तव में सत्ता हैकी ही है, ‘मैंकी सत्ता है ही नहीं।
बेटे की अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा हैइस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं। स्वयं का नाम तो निरपेक्ष हैहै। वह है’ ‘मैंको जाननेवाला है। मैंजाननेवाला नहीं है और जो जाननेवाला है, वह मैंनहीं है। मैंज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और हैज्ञाता (जाननेवाला) है। मैंएकदेशीय है और उसको जानने वाला हैसर्वदेशीय है। मैंसे सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैंकी सत्ता नहीं है। सत्ता हैकी ही है। परिवर्तन मैंमें होता है, ‘हैमें नहीं। हूँभी वास्तव में हैका ही अंश है। मैंपनको पकड़ने से ही वह अंश है। अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह अंश (हूँ’) नहीं है, प्रत्युत है’ (सत्ता मात्र है) मैंअहंता और मेरा बाप, मेरा बेटाआदि ममता है। अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
यही ब्राह्मी स्थितिहै। इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् हैमें स्थिति का अनुभव होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीर को मैंमेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता।
मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर हैइस प्रकार वस्तुओं में तो फर्क है, पर हैमें कोई फर्क नहीं है। ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँइस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है। अनेक शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक है। बालक, जवान और वृद्धये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओं में सत्ता एक है। कुमारी, विवाहिता और विधवाये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधिये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है। अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता। ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्धइन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवाले में कोई फर्क नहीं पड़ता।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।

हे पार्थ ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई सम्मोहित नहीं होता। इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
यदि जाननेवाला भी बदल जाय तो इन पाँचों की गणना कौन करेगा ? एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तन का ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तन का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। सबका इदंता से भान होता है, पर अपने स्वरूप का इदंता से भान कभी किसी को नहीं होता सबके अभाव का ज्ञान होता है, पर अपने अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। तात्पर्य है कि है’ (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है। भूल यह होती है कि हम संसार है’—इस प्रकार नहींमें हैका आरोप कर लेते हैं। नहींमें हैका आरोप करने से ही नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और हैकी तरफ दृष्टि नहीं जाती। वास्तव में है में संसार’—इस प्रकार नहींमें हैका अनुभव करना चाहिये। नहींमें हैका अनुभव करने से नहींनहीं रहेगा और हैरह जायगा।
भगवान् कहते हैं।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत्का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है।
एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि में अपनी जो परिच्छिन्न सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, एकदेशीयता) को लेकर ही दीखती है। जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपने को एक देश, काल आदि में देखता है। अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदि में परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत अपरिच्छिन्न सत्तामात्र रहती है।

वास्तव में अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है। सांसारिक पदार्थों की जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है। सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है। इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है।

अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है। इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं। अहम् ज्ञानी में होता है, ज्ञान में नहीं। अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है।  उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है। कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयं से ही स्वयं का ज्ञान होता है। वास्तव में ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है। अज्ञान मिटाने को ही तत्त्वज्ञान का होना कह देते हैं











































।।श्रीहरि।।
JAI GURU DEV

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