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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Friday, July 11, 2014

शरणागति सरल अनपायनी शब्द का अर्थ है- शरणागति


शरणागति सरल अनपायनी शब्द का अर्थ है- शरणागति

महान तपस्वी, योगी, देवों के देव भगवान शिव भी झोली फैलाकर मांग रहे हैं, हे मेरे श्रीरंग! अर्थात श्री के साथ रमण करने वाले नारायण, मुझे यह भीख दे दीजिए।

भगवान बोले, क्या दे दूं?

तपस्वी बने शिव बोले, आपके चरणों की सदा अनुपायन करता रहूँ। अर्थात आपके चरणों की शरणागति कभी न छूटे।

ऐसी ही शरणागति की महिमा है देवता भी इससे अछूते नहीं हैं। फिर मानव जो नरकगामी है, वह इस संसार में, मृत्यु लोक में शरणागति के बिना एक पल भी कैसे जी सकते हैं, यदि हमें सोचना चाहिए, समझना चाहिए।

शरणागत ऐसा शब्द है कि जब आदमी थक जाए तो शरणागति स्वीकार कर ले। उपनिषदों में भगवान को शरणागत वत्सल लिखा गया है। शरणागति वत्सल का स्वभाव है कि वे शरण में आए हुए से उतना ही प्यार करते हैं, उतना ही पालन- पोषण करते हैं, जितना माँ- बाप अपनी संतान से करते हैं।

हेतु रहित अनुराग राम पद, दिनदिन अरु अधिकाई!

हे प्रभु, आपके चरणों की शरण मेरी न छूट जाए। यह मेरी बनी रहे। बाकी मुझे कुछ दे न दे, इससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। नानक देव जी ने यही कहा, 'नारायण उट नानक बस गही।' यह निरंकारी नानक नहीं रहा। अब नानक दासानुदास हो गया है- नानक दासण कर दाता। हे परमात्मा अब तेरी शरण ले ली है। तेरा दर पकड़ लिया है। तेरे दर का पानी ढोऊँगा, तेरे दर का पँखा झलूंगा। बोले, दे दे सोई- सोई खावाँ। देना हो तो टुकड़ा दे देना, नहीं तो भूखा ही रह जाऊँगा। मरूंगा तो तेरे दर पर ही मरूँगा। पर कुछ कर के मरूँगा। तेरी सेवा करते करते मरूँगा, तब हमें कोई दुख नहीं होगा।

हर सन्त ने, हर सन्त की वाणी ने हर धर्मग्रन्थ ने शरणगति का ही सहारा लिया:

काहु को बल तप है, काहु को बल आचार।

व्यास भरोसे कुंअर के, सोये टाँग पसार।


व्यास कहते हैं, मुझे तो तेरा भरोसा है। मैं तो तेरी शरणागत हूँ। औरों से मुझे क्या मतलब? अब मुझे किस बात की फिक्र है। शरणागति हो जाने के बाद में विद्या, बल, बाहुबल की जरूरत ही नहीं रहती- काहु को बल तप है, काहु को बल आचार- मेरा बल तो तपस्या है, तुम ही मेरे इष्ट हो।

शरणागति का प्रसंग वेदों में आया, स्मृतियों में आया, पुराणों में आया, मीमांसा में आया। तब तक दुखी वह रहे, जब तक भगवान का प्रतिपादन तर्क- वितर्क से करते रहे। और जब शरणागति की महिमा समझ ली तो बिलकुल शान्त हो गए, जैसे दूधके ऊपर पानी के छींटे देने से झाग बैठ जाती है। तमाम सन्तों को शांति तभी मिली, जब उन्होंने शरणागति ली स्वयं उसे अपना कर।

अगर आप को सांसारिक, सामाजिक, भौतिक और मानसिक चिन्ताएँ मिटानी हों तो एक महौषधि है- शरणागति। इस औषधि का प्रयोग कर लें। फिर दुख होंगे ही नहीं। इससे परेशानियां आएंगी ही नहीं। यह मेरा अपना अनुभव सिद्ध प्रयोग है। मैं केवल ग्रन्थों में पढ़ कर नहीं कह रहा, यह अपने जीवन का अनुभव प्रयोग है।

जहाँ तक हमें आत्म बल था हम जंगलों में लंगोटी लगा कर रहे, शरीर बल था तेज बल था। हम कहते थे कि जो हम करेंगे सो होगा। उस बल को भी करके देख लिया। आज कल की सोच है कि बिना नशे- पत्ते के सत्संग नहीं होता। हमने वो भी कर के देख लिया। शायद इन्हीं से हमारा परमात्मा का व्यापार बढ़ जाए। पर उस से तो हमारा व्यापार घट गया। पता नहीं लोगों का कैसे बढ़ता है। मान लेने का काम ही शरणागति है। वह मान लें कि हे भगवान! तू मेरा है और मैं तेरा हूँ। इसमें क्या खर्च हो गया जी, बताइए!
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥

(गीताः ७/१३)

प्रकृति के इन तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥

(गीताः ७/१४)

यह तीनों दिव्य गुणों से युक्त मेरी माया को पार कर पाना असंभव है, परन्तु जो मनुष्य मेरे शरणागत हो जाते हैं, वह मेरी इस माया को आसानी से पार कर जाते हैं।

मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य और एक ही लक्ष्य होता है, वह भगवान की अनन्य-भक्ति प्राप्त करना है। अनन्य-भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर कभी न समाप्त होने वाले आनन्द को प्राप्त हो जाता है। यहाँ सभी सांसारिक संबंध स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। हमारे पास किसी प्रकार की शक्ति है, धन-सम्पदा है, शारीरिक बल है, किसी प्रकार का पद है, बुद्धि की योग्यता है तो उसी को सभी चाहते है न कि हमको चाहते है। हम भी संसार से किसी न किसी प्रकार की विद्या, धन, योग्यता, कला आदि ही चाहते हैं, संसार को नहीं चाहते हैं।

इन बातों से सिद्ध होता है संसार में हमारा कोई नहीं है, सभी किसी न किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये ही हम से जुड़े हुए है। सभी एक दूसरे से अपना ही मतलब सिद्ध करना चाहते हैं। जीवात्मा रूपी हम, संसार रूपी माया से अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हैं और माया रूपी संसार हम से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं।

भ्रम के कारण हम समझते हैं कि हम माया को भोग रहें है जबकि माया जन्म-जन्मान्तर से हमारा भोग कर रही है।

वास्तव में संसार को हमारे से जो अपेक्षा है, वही संसार हमारे से चाहता है। हमें अपनी शक्ति को पहचान कर संसार से किसी प्रकार की अपेक्षा न रखते हुए अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही संसार की इच्छा को पूरी करनी चाहिए। इस प्रकार से कार्य करने से ही जीवात्मा रूपी हम कर्म बंधन से मुक्त हो सकतें हैं। सामर्थ्य से अधिक सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करने से हम पुन: कर्म बंधन में बंध जाते हैं। हमें कर्म बंधन से मुक्त होने के लिये ही कर्म करना होता है, कर्म बंधन से मुक्त होना ही मोक्ष है। मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त होने पर ही जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर परम-लक्ष्य स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

जब तक संसार को हम अपना समझते रहेंगे और संसार से किसी भी प्रकार की आशा रखेंगे, तब तक परम-लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है। जब तक अपना सुख, आदर, सम्मान चाहते रहेंगे तब तक परमात्मा को अपना कभी नहीं समझ सकेंगे। परमात्मा की कितनी भी बातें कर लें, सुन भी लें, पढ़ भी लें लेकिन जब तक सुख की चाहत बनी रहेगी तब तक भगवान में मन नहीं लग पायेगा।

हम परमात्मा से परमात्मा को नहीं चाहते है, हम परमात्मा से संसारिक सुख, सांसारिक मान, सांसारिक सम्पदा चाहते हैं।

जब तक हमारे अन्दर परमात्मा से परमात्मा को ही पाने की चाहत नहीं होगी तब तक परमात्मा को कैसे प्राप्त हो सकेंगे? संसारिक सभी रिश्ते तो स्वार्थ के रिश्ते हैं, हमारी जितनी सामर्थ्य हो सके उतना ही सांसारिक रिश्तों को निभाने का प्रयत्न करना चाहिये। हमें अपनी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार ही संसार की सेवा करनी चाहिये, स्वयं के सुख-सुविधा की अपेक्षा संसार से नही करनी चाहिये।

परमात्मा में हमारा मन तभी लग पायेगा जब तक हम यह नहीं समझ लेंगे कि संसार में न तो हमारा कभी कोई था, न ही कभी कोई हमारा होगा और न ही कोई हमारा है। केवल भगवान ही हमारे थे, भगवान ही हमारे हैं और भगवान ही हमारे रहेंगे। इस संसार में कोई हमारा हो भी नहीं सकता है जो हमें चिर स्थाई सुख-सुविधा और प्रसन्नता दे सके। संसार में तो सभी सुख-सुविधा के भूखे हैं, मान के भूखे हैं, संपत्ति के भूखे हैं तो वह हमारे को सुख-सुविधा, मान-सम्मान, धन-संपदा कैसे दे सकते हैं?

किसी कवि ने लिखा है........

दाता एक राम, भीखारी सारी दुनियाँ।
राम एक देवता, पुजारी सारी दुनियाँ॥



संसार में तो हर कोई भिखारी हैं। इस संसार में तो हर एक भिखारी हर दूसरे भीखारी से भीख ही तो माँग रहा है लेकिन भ्रम के कारण स्वयं को दाता समझता है। जब कि दाता तो केवल परमात्मा ही है। हम जहाँ भी जाते है, वहाँ अपना स्वार्थ और अपनी सुख-सुविधा ही देखते हैं। अपने मान की अपेक्षा रखते हैं, अपना स्वागत चाहते हैं, अपनी तारीफ सुनना चाहते है। यह सब हमें संसार से मिलता तो है यह सब क्षणिक मात्रा में लेकिन धोखा अधिक मिलता है। हमें दूसरों को सुख और प्रेम देना चाहिये परन्तु लेने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये।

मनुष्य के लिये दूसरों की सेवा करना और भगवान को निरन्तर याद करना यह दो कर्म मुख्य है। यदि जो मनुष्य यह दो कर्म नहीं करता हैं तो वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं होता है, बल्कि ऎसा मनुष्य पशु-पक्षीयों के समान ही होता है। जब हम किसी भी व्यक्ति से आदर-सम्मान चाहते हैं उससे हमें सम्मान नही मिलता है तो हमें कष्ट का अनुभव होता है तब हम कहते हैं वह व्यक्ति अच्छा नहीं है। यह किसी को जानने की कसौटी नहीं है। बिना किसी मतलब के हर किसी का आदर-सम्मान तो भगवान और भगवान के भक्त महात्मा लोग ही किया करते है। जब तक हमारे अन्दर आदर-सत्कार पाने की इच्छा है, तब तक यह बात हम समझ नहीं सकते हैं।

संत कबीर दास जी कहते हैं..........

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।

जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय॥



जब तक हम अपने मतलब की बात सोचते रहेंगे तब तक यही दिखलाई देगा कि भगवान ने हमारे को दुःख दे दिया, भगवान ने हमारे साथ यह कर दिया, संत-महात्मा ने यह कर दिया ऎसा उन्हे नहीं करना चाहिये। जब कि वास्तव में दोष हमारा स्वयं का ही है, संसार की वस्तु ही चाहते है। यदि परमात्मा को ही चाहेंगे तो सांसारिक सुख की इच्छा नहीं रहेगी।

जिस दिन परमात्मा को पाने की इच्छा जाग्रत हो जायेगी उसी दिन से संसार से कुछ भी पाने की इच्छा समाप्त हो जायेगी। जब हमें संसार से मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और स्वयं की तारीफ अच्छी न लगे तब समझना चाहिये कि परमात्मा को पाने की इच्छा उत्पन्न हुई है। जब हम परमात्मा को चाहते हैं तब हमें अपमान, दुःख और किसी भी प्रकार की प्रतिकूलता में भी प्रसन्नता और आनंद का अनुभव होता है।

यह बात कुछ ऐसी है..... हमारी समझ में आये या न आये लेकिन महात्माओं से सुना है, जब कभी बीमार पड़ गये और कोई पानी पिलाने वाला न हो तो भी आनंद मिलता है। यदि कोई हमारी सेवा करता है तो वह भी अच्छा नहीं लगता है। यह बात हर किसी की समझ में नहीं आयेगी लेकिन सत्य है। जो जगदीश का प्रेमी होता है उसको जगत के सुख अच्छे नहीं लगते हैं और जिसे सांसारिक सुख अच्छे लगते हैं तो उसको परमात्मा से प्रेम कैसे हो सकता है? इस ज्ञान को ग्रहण करने की शक्ति व्यक्ति के विवेक जाग्रत होने पर ही मिल सकती है।

श्री राम चरित मानस में तुलसी दास जी कहते हैं.........

बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।

सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥



सत्संग के बिना मनुष्य का विवेक जाग्रत नहीं होता और सत्संग श्री राम जी की कृपा के बिना नहीं मिलता है। संतों की संगति आनंद और कल्याण का मुख्य मार्ग है, संतों की संगति ही परम-सिद्धि का फल है और सभी साधन तो फूल के समान है।

भगवान की कृपा निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर कर्म करने से प्राप्त होती है। इसलिये मनुष्य को संसार में भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिये ही कर्म करना चाहिये। मनुष्य का संसार में विश्वास पतन का कारण होता है, और ईश्वर में विश्वास शाश्वत-सुख और परम-शान्ति का कारण होता है। हम किसी का कहना मानें यह हमारे वश की बात है, कोई हमारा कहना मानें यह हमारे वश की बात नहीं होती है। इसी प्रकार किसी को सुख देना हमारे हाथ में होता है परन्तु किसी से सुख पाना हमारे हाथ में नहीं होता है। जो हमारे हाथ की बात है, उसे करना ही स्वयं का उद्धार का कारण होती है, और जो हमारे हाथ की बात नहीं है उसे करना स्वयं के पतन का कारण होती है।

यदि हमें परमात्मा की तरफ चलना है तो हमें सांसारिक सुख अच्छे नहीं लगने चाहिए। जब हम पिछले कदम को छोड़ते हैं तभी हम आगे चल पाते हैं, जैसे-जैसे हम पिछले कदमों को छोड़ते जाते हैं उतने ही आगे बढ़ते चले जाते हैं। इस प्रकार से आगे बढ़ते रहने से एक दिन मंज़िल पर पहुँच ही जायेंगे। यदि हम पिछले कदम को छोड़ेंगे नहीं तो आगे नही बढ़ सकते हैं इसी प्रकार हम सांसारिक सुख को छोड़ने की इच्छा करेंगे तभी परमात्मा का आनन्द प्राप्त कर पायेंगे। दो नावों में सवार होकर नहीं चला जा सकता है। एक संसार रूपी भौतिक नाव है, दूसरी परमात्मा रूपी आध्यात्मिक नाव है। जब तक संसार रूपी नाव से नहीं उतरोगे तब तक परमात्मा रूपी नाव पर सवार कैसे हो सकते हैं?

जब संसार के लोग हमारा आदर करते है तो हमें समझना चाहिये कि हमारे ऊपर भगवान की कृपा है। वह हमारा आदर नहीं कर रहें हैं वह तो भगवान का आदर कर रहें होते हैं। जिस प्रकार किसी पद पर आसीन व्यक्ति को कोई सलाम करता है तो वह सलाम उस व्यक्ति के लिये न होकर उस पद के लिये होता है। हमारा आदर तो केवल भगवान ही कर सकते है।

संसार में जब तक किसी व्यक्ति का स्वार्थ नहीं होता है तब तक वह किसी का भी आदर नहीं कर सकता है। आज तक का इतिहास उठाकर देख लो इस संसार से कभी कोई तृप्त नही हुआ है। जो वस्तु जिसके पास अधिक है उसको उसकी उतनी ही अधिक ज़रुरत रहती है। जिसके पास धन अधिक है, उसको और अधिक धन पाने की इच्छा होती है। जिस निर्धन व्यक्ति के पास रुपये नहीं है उसको पचास, सौ रुपये मिल जायेगें तो समझेगा कि बहुत मिल गया लेकिन जो जितना धनवान व्यक्ति होता है उसकी भूख उस निर्धन व्यक्ति से अधिक होती है।

संसार में हमें सुख-सम्पत्ति का त्याग नहीं करना है, परन्तु सुख-सम्पत्ति को पाने की इच्छा का त्याग करना चाहिये।

यह इच्छा ही तो हमारे पतन का कारण बनती आयी है। ज्ञान के द्वारा ही संसार का त्याग हो सकता है और सम्पूर्ण विश्वास के साथ ही परमात्मा से प्रेम हो सकता है। जिनसे भी हमारा संसारिक संबन्ध है उन सभी का हमारे ऊपर पूर्व जन्मों का कर्जा है, उन सभी का कर्जा चुकाने के लिये ही तो यह शरीर मिला है। कर्जा तो हम चुकता करते हैं लेकिन साथ ही नया कर्जा हम फिर से चढ़ा लेते हैं। जब तक हम कर्जदार रहेंगे तो मुक्त कैसे हो सकते हैं। यह तभी संभव हो सकेगा जब कि हम इस संसार से नया कर्जा नहीं लेंगे। संसार तो केवल हमसे वस्तु ही चाहता है, हमारे को कोई नहीं चाहता है।

हम सभी के ऊपर मुख्य रूप से दो प्रकार का ही कर्जा है, एक शरीर जो प्रकृति का कर्जा है, दूसरा आत्मा जो परमात्मा का कर्जा है।

इसलिये हमें संसार से किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा का त्याग कर देना चाहिये और शरीर सहित जो कुछ भी सांसारिक वस्तु हमारे पास है उसे सहज मन-भाव से संसार को ही सोंपना देनी चाहिये। हम स्वयं आत्मा स्वरूप परमात्मा के अंश हैं इसलिये स्वयं को सहज मन-भाव से परमात्मा को सोंप चाहिये यानि भगवान के प्रति मन से, वाणी से और कर्म से पूर्ण समर्पण कर देना चाहिये।

यही मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है। यही मानव जीवन की परमसिद्धि है। यही वास्तविक मुक्ति है। यह मुक्ति शरीर रहते हुए ही प्राप्त होती है। इसलिये यह मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

शरणागतवत्सल परमेश्वर
"अर्जुन की शरणागति"

संत महात्माओं और महापुरुषों का कथन हँ कि " भगवान की कुपा पर अटूट भरोसा रखना ही 'शरणागति' है" ! आध्यात्मिक आख्यानों में "शरणागति" के अनेकानेक उदहारण मिलेंगे ,पर इस संदर्भ में हम् यहाँ पर आपको महाभारत की एक कथा सुना रहे हैं :

महाभारत के युद्ध में एक दिन, दुष्ट दुर्योधन के कटाक्षों से आहत होकर, आजीवन कुरुवंश की रक्षा हेतु वचनबद्ध पितामह भीष्म ने प्रतिज्ञा कर ली कि अगले दिन के युद्ध में वह या तो अर्जुन को मार देंगे या स्वयम हताहत होंगे ! भीष्म की इस प्रतिज्ञा ने श्रीकृष्ण को विचलित कर दिया और उनकी आँखों की नींद गायब हो गयी ! उनके प्रिय सखा अर्जुन और उसके चारों भाईयों के लिए यह अति संकट का काल था ! श्रीकृष्ण को चिंता हुई ! तत्काल ही अश्वों के सेवा की व्यवस्था कर के पार्थसारथी कृष्ण मध्यरात्रि में ही पांडवों के शिविर में पहुंच गए !

श्रीकृष्ण सोच रहे थे कि भीष्म प्रतिज्ञा सुन कर पांडू शिविर में कोहराम मचा होगा , विचार विमर्श व गहन चिंतन हो रहा होगा कि कैसे इस संकट से निपटा जाये ! लेकिन श्रीकृष्ण को पांडु शिविर में वैसा कुछ भी नहीं दिखा ! सब निश्चिन्त हो , दिन की थकावट मिटाते हुए , गहरी नींद में सो रहे थे ! कैसे सम्भव है यह शांति ? श्रीकृष्ण चक्कर में पड़ गए !

कौतूहलवश श्री कृष्ण ने सर्वप्रथम अपने प्रियतम सखा अर्जुन को जगाया ! अर्जुन घबरा कर उठ बैठा और इस सोच में पड़ गया कि , इतनी रात को श्रीकृष्ण यहाँ क्यों आये होंगे ? अर्जुन के बिन बोले ही कृष्ण उसका मनोभाव जान गए , और बोले "पार्थ क्या तूने पितामह की वह प्रतिज्ञा नहीं सुनी ,वह कल तक तुम को समाप्त करने की योजना बना चुके हैं ! पर तुझे तो जैसे उनकी प्रतिज्ञा से कुछ लेना देना ही नहीं है ! तुझे कोई चिंता नहीं कोई भय नहीं कोई घबराहट नहीं, तू निश्चिन्त होकर खर्राटे भर रहा है ! देख मै कितनी चिंता कर रहा हूँ पार्थ ! मैं तुझसे कल के युद्ध की योजना जानने आया हूँ !"

अर्जुन ठहांका मार कर हंसते हुए बोला ," मेरी योजना ? मैं कौन हूँ योजना बनाने वाला ?"

कृष्ण ने कुछ क्रोधित होकर उत्तर दिया ," भीष्म प्रतिज्ञा के प्रत्युत्तर में अपनी कल की योजना, पार्थ ! तू नहीं तो और कौन निर्धारित करेगा कल की रण नीति ?"

अर्जुन ने सहज भाव से कहा कि " बहुत भुलक्कड़ हो गए हो तुम कृष्ण ! अपनी कही बात ही भूल गए , तुम्हे याद नहीं, तुमने ही तो उस दिन मुझसे कहा था

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज !

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच :!


भावार्थ :

तज धर्म सारे एक मेरी ही शरण को प्राप्त हो !

मैं मुक्त पापों से करूँगा तू न चिंता व्याप्त हो !!

(श्री हरि गीता )


अर्जुन ने मुस्कुराते हुए कृष्ण से कहा " जब मेरे लिए चिंता करने वाला तथा मेरा योगक्षेम करने वाला मेरा बाल सखा कृष्ण हर घडी मेरे अंग संग है तब मुझे काहे की चिंता ? और फिर तुमने मुझसे खुद ही कहा है :

अय पार्थ न कर फ़िक्र न कर दिल में जरा सोच

श्री कृष्ण के होते हुए क्या फ़िक्र है क्या सोच

अल्ताफे इलाही पे भरोसा करअय अर्जुन

इकरामें कृष्ण देख , न कर मर्दे खुदा सोच

इक वख्त मुकर्रर है हरिक काम का अय पार्थ

बेकार तेरी फ़िक्र है बेकार तेरी सोच

कोई क्युंकरे फ़िक्र खुदअपनी बता तूही

जब मालिके आलम करे है सब्की फिक्रोसोच


शरणागति सरल और अंतिम उपाय

-अनंत श्री विभूषित इंद्रप्रस्थ एवं हरियाणा पीठाधीश्वर श्रीमद् जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी श्री पुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज

न विद्या येषां श्रीर्न शरणमपीषन्न च गुणा:
परित्यक्ता लोकैरपि विज्रनयुक्ता: श्रुतिजडा:।
शरण्यं यं ते अपि प्रसृतगुणमाश्रित्य सुजना
विमुक्तास्तं वन्दे यदुपतिमहं कृष्णममलम्।।

जिनके पास विद्या, धन, सहारा, गुण नहीं है, न जिनको वेद-शास्त्रों का ही ज्ञान है और जिनको लोगों ने पापी समझकर त्याग दिया हो, ऐसे प्राणी भी प्रभु की शरणागति से संत बन जाते हैं। ऐसे यदुपति भगवान श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।
भगवान की कृपा पाने के लिए यूं तो मनीषियों ने अनेकानेक उपाय कहे हैं, लेकिन जिससे कोई भी उपाय नहीं हो पाता हो वह शरणागति के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है। अन्य उपायों में भी अंत में शरणागति ही होती है लेकिन मार्ग थोड़ा कठिन हो जाता है। किंकर्त्तव्यूविमूढ़ अर्जुन को देखकर स्वयं भगवान ने गीता में कहा है कि अब तू मेरी शरण हो जा, मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। अर्जुन ने भी करिष्ये वचनं तव कहकर इसको स्वीकार किया और युद्ध भी किया।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।66।।

सम्पूर्ण धर्मो को त्याग कर एक मेरी शरण में आ। मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा।
संपूर्ण गीता का निचोड़ गीता के अध्याय 18 में है और इस अध्याय का मर्म श्लोक संख्या 66 में है। यहां गौर करने लायक बात है कि भगवान इस श्लोक में सभी धर्मो के त्याग की बात कह रहे हैं, उसका वास्तविक अर्थ क्या है, वह कौन से धर्म हैं जिनके त्याग की बात स्वयं धर्माधिकारी कर रहे हैं। जो कुरुक्षेत्र के मैदान में धर्म की रक्षार्थ ही सारथी बनने के लिए तैयार हो गए, वह अर्जुन को धर्मों को छोड़ने का संदेश क्यों दे रहे हैं।
वास्तव में भगवान् जब अर्जुन से कह रहे हैं कि सर्वधर्मान्परित्यज्य-यानि क्या करने लायक है और क्या करने लायक नहीं है, क्या करना है क्या नहीं करना है आदि को छोड़ दे। इन्हीं उपायों को भगवान ने धर्म कहा है कि अब तू सभी उपायों को छोड़ दे और मामेकं शरणं- यानि एक मेरी शरण में आ जा। केवल मेरी शरण। संपूर्ण शरणागति। जिसके बाद यह सोचना न पड़े कि क्या करने से क्या होगा। कहीं ऐसा हो गया तो कहीं वैसा हो गया तो। इन सबसे मुक्त होना ही शरणागति है।
भगवान स्वयं संदेश दे रहे हैं कि यदि भक्त उनके शरणागत हो जाएगा तो योगक्षेमं वहाम्यहम् यानि बाकी के तेरा क्या करना है, सुख दुख में तुझे कैसे रखना है आदि सब कुछ मैं ही करता हूं। शरणागत भक्त को स्वयं के लिये कुछ भी करना बाकी नहीं बचता है। सबकुछ परमात्मा ही करेंगे। जैसे एक पतिव्रता स्त्री को स्वयं के लिए कुछ भी सोचना शेष नहीं रहता है। वह सबकुछ अपने पति के लिए ही करती है। बाकी के सभी कार्य उसका पति ही करता है। ऐसे ही परमात्मा जो हम आत्माओं का पति है। हमें केवल उसके शरणागत होना है बाकी के सभी कुशलक्षेम परमात्मा स्वयं ही देखेंगे। वह स्त्री अपने गोत्र को भी अपने पति के गोत्र में लीन कर देती है। पति के परिवार को अपना मानकर उनकी सेवा सुश्रुषा करती है और पति भी उसकी हर जरूरत का ध्यान स्वयं ही रखता है, उसी प्रकार आत्मा पति भगवान भी अपने भक्त की शरणागति देखकर उसपर अपनी कृपाएं बरसाते हैं।
वैकुंठवासी स्वामी जी महाराज ने भक्तों से कहा कि मैंने तुम्हें नामदान दिया, समझो अपना गोत्र ही दे दिया। अब तुम पूरी तरह से मेरे हुए। कोई अंतर ही शेष नहीं रहा। नामदान की प्रक्रिया में अंत में शरणागति होती है। यानि सबकुछ तुम्हारी शरण। जिसके बाद सभी प्रकार के संशय का निदान हो जाना चाहिए। शिष्य को चाहिए कि अब वह उसी मार्ग पर चले, जिस पर गुरु कहे।
भगवान कृष्ण ने भी अर्जुन को गीता का गूढ़ ज्ञान तब देना शुरु किया जब अर्जुन ने उन्हें अपना गुरु मान लिया। अर्जुन ने कहा कि शिष्यस्तेहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्। (गीता 2/7) मैं आपको अपना गुरु मानता हूं, इसलिए मेरा मार्गदर्शन करो। इसके बाद भगवान ने अर्जुन को गूढ़ ज्ञान सरल तरीके से कहना शुरु किया। स्पष्ट है कि शरणागत भक्त जब अपने आपको भगवान के चरणों में समर्पित कर देता है तो वह निश्चिन्त, निर्भय, नि:शोक और नि:शंक हो जाता है।
लेकिन यह ध्यान रखने की बात है कि भगवान अर्जुन को माध्यम बनाकर संसार को संदेश दे रहे हैं। कुछ लोग इस श्लोक में आए धर्म शब्द को कर्म बता रहे हैं। लेकिन हम ऐसा नहीं मानते हैं। भगवान किसी को कर्महीन कैसे बना सकते हैं। भगवान ने कर्म को लगातार करने के लिए संदेश दिया है। उन्होंने कभी भी कर्म यानि कर्त्तव्य को छोड़ने के लिए नहीं कहा है। उन्होंने गीता के तीसरे अध्याय के चौथे श्लोक में कहा है-
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य पुरुषोश्रुते। न च सóयसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।। यानि किसी भी व्यक्ति को कर्मो को किए बिना निष्कर्मता की प्राप्ति और न ही कर्मो को त्यागने से सिद्धि ही प्राप्त हो सकती है।
इसको भगवान ने फिर पांचवें श्लोक में कहा है कि -
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजर्गुण:।। यानि कोई भी व्यक्ति किसी भी अस्था में कर्म किये बिना नहीं रह सकता, वह प्रकृति जनित गुणों द्वारा कर्म करने के लिए विवश है।
इसी प्रकार छठे श्लोक में फिर कहा है कि -
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।। यानि जो व्यक्ति केवल बाहर से कर्मो को त्यागने की बात कहकर भीतर से षियों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी है। वरन्-कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते यानि जो मन-इन्द्रियों को श में करके कर्तव्य-कर्म करता है ह श्रेष्ठ है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान कर्म करने के लिए मना नहीं कर रहे हैं। वह कर्म करने पर जोर दे रहे हैं बल्कि कर्म को मानव का प्रकृतिजन्य स्वभाव बता रहे हैं। ऐसा स्वभाव जिससे बचा नहीं जा सकता है। जिससे बचना भी नहीं चाहिए बल्कि ऐसा कर्म करें जिसमें इन्द्रियों के विषयों को काबू में रखा जाए। लेकिन ऐसे व्यक्ति को मिथ्याचारी बता रहे हैं जो लोगों से तो कहता है कि उसने कर्म यानि विषय त्याग दिए हैं लेकिन अंदर ही अंदर वह विषयों का ही चिंतन करता रहता है। भगवान ने कहा है कि कर्म बंधन में बांधते हैं लेकिन इस डर से कर्म से पीछे नहीं हट सकते हैं। तो करना क्या है, बड़ा प्रश्न है।
भगवान स्वयं भी मान रहे हैं कि मानव किंकत्तव्र्यविमूढ़ हो जाता है। ऐसे में वह भटक जाता है क्योंकि वह भगवान की माया में फंस जाता है। भगवान ने स्वयं ही अपनी माया को महादुस्तर कहा है। वह सातवें अध्याय के 13वें श्लोक में कह रहे हैं-
त्रिभिर्गुणमयैर्भौरेभि: र्समिदं जगत्। मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥ यानि प्रकृति के तीनों गुणों से पैदा हुए भाव जी को मोह में फंसा देते हैं, इस कारण से वह मुझ परमअनिाशी को जान नहीं पाता है। क्योंकि दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया- मेरी माया बड़ी दुस्तर है। उससे पार पाना बड़ा मुश्किल है।
अब बात आती है कि, इससे यानि माया से, प्रकृतिजन्य दोषों से बचने का उपाय क्या है। हम कर्म भी करते रहें और माया से भी बचे रहें, इसका उपाय क्या है। हम ऐसा क्या करें कि हमारी जीवन की डोर भी चलती रहे और भगवान से भी डोर बंधी रहे। इसका उपाय भी भगवान ही दे रहे हैं। वह कहते हैं मामे ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते- यानि जो जीव मेरी शरणागति ले लेते हैं, ह मेरी माया को सरलता से पार कर लेते हैं। और मुक्त हो जाते हैं।
वास्तव में देवों को भी दुर्लभ मनुष्य तन इसी मुक्ति के साधन रूप में हमें मिला है। यह जीवन भगवान की अनन्य-भक्ति को प्राप्त करने के लिए ही मिला है। इस अनन्य-भक्ति को प्राप्त करने वाले मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर अनन्त आनन्द को प्राप्त होते हैं। वह परमात्मा की शरणागति द्वारा सांसारिक संबंधों पर विजय पाकर मुक्ति पथ को गमन करते हैं।
तो जो तन साधन रूप में मिला है उससे कर्म कैसे दूर रह सकते हैं। कर्म करने अवश्य हैं लेकिन उनमें रत नहीं रहना है। कर्म करने अवश्य हैं लेकिन उनमें संग्रह करने का भाव नहीं रखना है। कर्म करना अवश्य है लेकिन उसके साथ कोई ऐसा कार्य नहीं करना है जिससे परमात्मा के नाम के साथ कुछ भी नकारात्मक जुड़े।
संसार की सुख-सम्पत्ति का त्याग नहीं करना है, सुख-सम्पत्ति पाने की इच्छा का त्याग करना है, उनके संग्रह का मन नहीं रमाना है। इसके लिए अनेक प्रकार के उपाय, उद्योग नहीं करने हैं। इसी को भगवान कह रहे हैं सर्वधर्मानपरित्यज्य। वह किसी कर्म से आपको च्युत नहीं कर रहे हैं बल्कि मोह से दूर कर रहे हैं। वह शरणागति का ज्ञान दे रहे हैं। जिसको पाने के बाद किसी उपाय की संभावना भी समाप्त हो जाती है क्योंकि उसके बाद तो सभी उपाय परमात्मा ही करेंगे।
ऐसा विचार बनने के बाद हम अपने शरीर आदि सभी सांसारिक पदार्थो को परमात्मा के ही अर्पण कर जीवन जीते हैं। ऐसे व्यक्ति सहज मन से परमात्मा के प्रति मने, वचन व कर्म से शरणागत होते हैं। जिनकी मुक्ति में कुछ भी संशय शेष नहीं रहता है क्योंकि परमात्मा स्वयं ही उनके योगक्षेम और मुक्ति की गारंटी ले रहे हैं।
शरणागत भक्त के अंतस से सभी प्रकार की दुर्भावनाएं, वासनाएं समाप्त हो जाती हैं और वह इस मानव शरीर का सदुपयोग करता है। यह सदुपयोग क्या है। देवताओं को भी दुर्लभ मानव तन हमें क्यों मिला है कभी सोचा है। वह 84 लाख योनियों में भटकने से बचने के लिए मिला है। भटकने से बचने के बाद क्या करेंगे। भगवान की अनन्य भक्ति प्राप्त होगी। वह प्राणी इस शरीर को मृत्युलोक में छोड़कर सभी सुख और दुखों से मुक्त होकर और कभी जन्म न लेने के लिए भगवान के आनन्दधाम में उनके श्रीचरणों में स्थान प्राप्त करेगा।
लेकिन ऐसा तभी होगा जब जीव शरणागति को प्राप्त करेगा। केवल शरणागत भक्त को ही अपनी शक्ति, धन-सम्पदा, शारीरिक बल, पद, बुद्धि, विद्या, कला आदि का अहंकार नहीं होता है। शरणागत भक्त को पता है कि यहां संसार सागर में जो गैरशरणागत जीव अपनी मतलब सिद्धि में लगे हैं, वह संसार रूपी माया से अपना मतलब प्राप्त करने में लगे हैं, माया को ही ठगने में रत हैं और बदले में माया उन्हें ठगने में लगी है। दोनों एक दूसरे को ठगने में लगे हैं। जबकि दोनों का पति परमात्मा यह देखकर बिल्कुल भी प्रसन्न नहीं है।
मायापति खुद ही कह रहे हैं कि मेरी माया बड़ी दुस्तर है, जो बड़ों बड़ों को अपने जाल में फंसा लेती है। इस जाल में फंसकर ही जीव अपनी जरूरत से अधिक सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति में जुट जाता है और अनेकानेक प्रकार के कर्म बंधनों में बंध जाता है। इन कर्म बंधनों से मुक्त होने के लिए ही शरणागति चरम उपाय है। इस शरणागति को पाने वाले जीव ही कर्मो से जुड़े पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं से मुक्त होगा। और अपने लक्ष्य यानि परमात्मा के धाम का अधिकारी होगा।
कहा भी गया है -दाता एक राम, भीखारी सारी दुनिया। राम एक देता, पुजारी सारी दुनिया॥ तो भगवान से मांगने में क्या बुराई है।
भगवान से मांगने में शर्माने की जरूरत नहीं है। जरूरत इसकी है कि हहम अपने लक्ष्य पर टिके रहें। यह लक्ष्य क्या है। जन्म मरण से मुक्त होकर परमात्मा की प्राप्ति। कैसे होगी।
तुलसीदास जी कहते हैं बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई। सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥ यानि सत्संग के बिना मनुष्य का विवेक जाग्रत नहीं होता और यह सत्संग श्री राम जी की कृपा के बिना नहीं मिलता है। संतों की संगति आनंद और कल्याण का मुख्य मार्ग है, संतों की संगति ही परम-सिद्धि का फल है।
भगवान के वचन को याद करो। उन्होंने कहा कि तू केवल मेरी शरणागति ले ले, मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा और तेरे योग क्षेम का भी ख्याल मैं ही रखूंगा। तू सभी उपायों को छोड़ दे। मामनुस्मर युद्ध च यानि मेरा ध्यान करते हुए संसार सागर के कर्म कर। बाकी मैं देखूंगा। जब आप शरणागत हो जाओगे तो आपके लक्ष्य, सतसंग, भजन, संगति, मुक्ति, भुक्ति आदि सब परमात्मा स्वयं ही करेंगे।

भक्ति-भावना व प्रभु-शरणागति

प्रभु-चरणों में प्रीति की बात ही न्यारी है। व्यक्तित्व में कुछ भी अपने लिए नही रहता। सत्ता के किसी अंग पर अपना अधिकार नहीं। हम प्रभु के ऐसे हो जाते हैं, मानों उन्हें बिक गये। मानों किसी ने हमें उनकी भेंट चढा दिया। हम पूर्ण समर्पित हो जाते हैं। सिवा प्रभु के और उनके प्रेम के, उनकी भक्ति और चिंतन के, उनके स्मरण के और कोई शब्द, कोई ध्वनि, कोई हलचल, कुछ भी, न सुनाई देता, न दिखाई। रोम-रोम उन्हें ही रटता हैं उन्हीं की धुन में डूबा रहता है, प्रेम में विकल रहता है, उनके दर्शन की अभिलाषा, उनके आगमन की प्रतिक्षा, उनके प्रति प्रेम प्रकट करने की कल्पना- बस यही जीवन रह जाता है। उनके दर्शन और मिलन के चाव को छोड़ कर, इस आशा को तज कर, वहां दूसरा ऐसा कुछ नही रहता जो प्राणों को देह के साथ अटकाये रखने में समर्थ हो। इसी एक मिलन की आशा पर जीवन चलता है, प्राण टिके रहते हैं। धन्य है यह प्रेम, धन्य हैं ये प्रेमी। दोनों का नाता, दोनों की स्थिति अद्भुत हैं । दोनों एक दूसरे में निवास करते हैं। प्रभु प्रेम वर्णनातीत है। वहां देह और गेह का भान केवल उतना मात्र रहता है, जितना जीवन रखने के लिए अनिवार्य होता है। बाकी सब प्रेम, प्रेम।

प्रभु-शरणागति

हे मानव! प्रभु के स्वर्णिम पुष्प! सच्चे सुख को, आत्मा के आनंद को अपने अंदर हृदय की गहराई में खोज! वहां प्राप्त कर। अनंतता में प्रवेश का द्वार तेरा हृदय है। तत्पश्चात् दूसरों में, जगत में अनुभव करना संभव होगा। बाह्य सत्ता के पीछे हट कर भीतर पैठ। मन के उस पार जा । इंद्रियों से ऊपर उठ प्रकृति से अपने आपको पृथक कर। शांत-चित्त, एकाग्र मन होकर बैठ। पूर्ण निष्क्रिय, पूर्ण नीरव हो जा। कल्पना और संकल्प महान शक्तियां हैं। इनका प्रयोग कर। तुझे पथ मिलेगा, प्रकाश दिखायी देगा। धैयपूर्वक नियमित रूप से अभ्यास कर । चित्त की पूर्ण नीरवता से पहले प्रार्थना कर। प्रभु चरणों में सिर झुका, उन्हें प्रेम डोरी से बांध, अनन्य भक्त बन, विनयी हो, शिशु की भांति हृदय खोल! सब कुछ कह दे । हृदय-पुस्तिका का हर पृष्ठ उनके सम्मुख उघाड़। अपनी असमर्थता, अपनी अक्षमता उनसे कह, कुछ भी उनसे मत छिपा। तेरे गुण, तेरा स्वभाव, तेरा चरित्र वे जानते हैं। तेरे से भी कहीं अच्छी तरह से जानते हैं। प्रभु तेरे जीवन स्वामी हैं। उनके सम्मुख कभी झिझकना नही, हिचकिचाना नही। सीधे सरल भाव में शिशुवत सब परम पिता के पावन चरणों में अर्पित कर दे। अच्छा या बुरा, जैसा भी तु है उन्हें पूर्ण रूपेण निवेदित हो। तेरे ऊपर कृपा बरसेगी। सौभाग्य उदय होगा, भविष्य उज्ज्वल होगा। तू उनकी कृपा का पात्र बनेगा। वे तेरा संपूर्ण दायित्व अपने ऊपर ले लेंगे। शरण प्रदान करेंगे। तेरा जन्म और जीवन प्रभु के लिए होने से तू अपने आपको, प्रभु के प्रियजनों में पायेगा। प्रभु तेरे होंगे, तू प्रभु का होगा, उनके यंत्र के रूप में जगत में कार्य करेगा । तेरी आत्मा तुझे आशीष प्रदान करेगी। तेरे जीवन में उसका आशीर्वाद फलेगां जीवन नैया की पतवार प्रभु स्वयं संभालेंगे, दिशा भी वे ही चुनेंगे, गंतव्य दिखाएंगे, मार्ग प्रशस्त करेंगे। तेरे जीवन रथ का सारथ्य प्रभु स्वयं करेंगे और यह उनके लिए अति प्रसन्नता का विषय हुआ करता है। जिसे तेरे जैसे विरले, सरल-सीधे, समर्पित शिशु ही प्राप्त करते हैं।
शरणागति-श्री हनुमान ऐसे भक्त

श्री हनुमान ऐसे भक्त के रूप में भी पूजनीय है, जिनकी भक्ति सर्वश्रेष्ठ, विलक्षण और अतुलनीय है। जिससे वह भक्त शिरोमणि भी पुकारे जाते हैं। हालांकि युग-युगान्तर से धर्मशास्त्रों में अनेक भक्त और उनकी ईश भक्ति के अनेक रूपों की अपार महिमा बताई गई है। किंतु श्री हनुमान की रामभक्ति की एक खासियत उनको श्रेष्ठ व सर्वोपरि बनाती है। वह है - शरणागति। शरणागति यानी शरण में चले जाना। हालांकि शरणागति भी अलग-अलग रूपों में देखी जाती है। कमजोरी, भय या स्वार्थ से सबल का आसरा क्षणिक लाभ दे सकता है, किंतु लंबे वक्त के लिए नकारात्मक नतीजे भी देने वाला भी होता है। किंतु यश और सफलता के लिए गुण, शक्ति संपन्न होने पर भी निर्भयता के साथ अपनाई शरणागति ही सार्थक होती है। यह शरण देने वाले और शरणागत दोनों को ही बलवान और सुखी करती है। शक्तिधर श्रीराम और बल, बुद्धि, विद्या संपन्न श्री हनुमान के भक्त और भगवान के गठजोड़ में भी शरणागति का ऐसा ही आदर्श छुपा है। जिसका संबंध श्री हनुमान द्वारा राम की शरणागति से है, जो व्यावहारिक जीवन में लक्ष्य प्राप्ति का एक बेहतरीन सूत्र सिखाता है। असल में शरणागति के पीछे समर्पण और निष्ठा के भाव अहम होते हंै। जिससे किया गया हर कार्य स्वार्थसिद्धि या हित की भावना से परे होता है। यहीं नहीं इससे कर्तव्य में अहं का भाव यानी मैं या मेरा का विचार नदारद हो जाता है। नतीजतन दोषरहित बुद्धि व विचार पूरी ऊर्जा के साथ कर्म करने में सहायक बनकर असंभव लक्ष्य को भी पाने की राह आसान कर देते हैं। श्री हनुमान लीला इस बात का प्रमाण भी है। बस, द्वेष-ईर्ष्या, स्वार्थ से परे, अहंकार रहित, समर्पित, सच्चा व निष्ठावान बनाने वाला शरणागति का यही एक सूत्र अगर परिवार हो या कार्यक्षेत्र, में अपने कर्तव्यों और दायित्वों को पूरा करने के लिये कर्म में उतार लें तो जीवन से जुड़े किसी भी मकसद को जल्द पूरा करना संभव हो जाएगा। अधिक सरल शब्दों में कहें तो श्री हनुमान की भांति हर काम लक्ष्य पर ध्यान टिकाकर, डूबकर और मन लगाकर हो।

द्वेैताद्वेैत वेदान्त सिद्धान्त
द्वेैताद्वेैत वेदान्त संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य के रुप में श्रीमत् निम्बार्काचार्य माने जाते है। आचार्य के निम्बादित्य एवं नियमानन्द नाम सुने जाते है। श्रीमत् निम्बार्काचार्य के द्वारा विरचित ब्रह्मसूत्रभाष्य का नाम है। वेदान्तपारिजात सौरभ। इनका सिद्धान्त द्वेैताद्वेैत और भेदाभेद कहलाता है। वेदान्तपारिजातसौरभ अत्यन्त संक्षिप्त ग्रन्थ है। किन्तु आचार्यके शिष्य श्रीनिवासाचार्य रचित भाष्य वेदान्तकौस्तुभ अधिक विस्तृत है। इन दोनों को मिला कर हम इस दर्शन संप्रदाय के दार्शनिक सिद्धान्तों का एक पूरा चित्र पाते है।
श्रीनिम्बार्काचार्य प्रवर्तित संप्रदाय एक वैष्णव सम्प्रदाय है। श्रीकृष्ण एवं श्रीराधा इस संप्रदाय के उपास्य हैं। रागानुगा भक्ति इस संप्रदाय का साधन है।
निम्बार्क के द्वारा प्रवर्तित संप्रदाय के कई नाम हैं, जैसे सन सम्प्रदाय, सनक संप्रदाय, चतु:-सन संप्रदाय या हंस संप्रदाय। परंपरा मे कहा जाता है। कि ब्रह्मा के मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार इस संप्रदाय के मूल आचार्य हैं। स्वयं श्रीभगवान् ने हंस का रुप लेकर उन चार ॠषियों को तत्त्व का उपदेश किया था-- इस लिए इस संप्रदाय को हंस संप्रदाय भी कहते हैं। हंस रुप लेकर पृथ्वी पर अवतीर्ण भगवान् नारायण से श्रीनिम्बार्काचार्य तक गुरुपरंपरा विष्णुयामल तन्त्र में इस प्रकार वर्णित है --
नारायणमुखाम्बुजान्मन्त्रस्त्वष्टादशक्षर:।
आविर्भूत: कुमारैस्तु गृहीत्वा नारदाय वै ।।
उपदिष्ट: स्वशिष्याय निम्बार्काय च तेन तु।
एवं परम्पराप्राप्तो मन्त्रस्त्वष्टादशाक्षर:।।

अर्थात् हंस रुपी नारायण के शिष्य सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार, उनके शिष्य हैं देवर्षि नारद एवं नारद के शिष्य श्रीनिम्बार्काचार्य। इसके अतिरिक्त श्री निम्बार्काचार्य की गुरुपरंपरा, भविष्य, पद्म, वामन आदि पुराणों में वर्णित है।
स्वयं श्रीनिम्बार्क, ब्रह्मसूत्र १म अध्याय ३य पाद के ८वें सूत्र के भाष्य में अपनी गुरुपरंपरा के संबंध में कहते है
परमाचार्यै: श्रीकुमारैरस्मद्गुरवे श्रीमन्नारदाय उपदिष्टो भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य इति।।
खेद का विषय यह है कि हम ऐतिहासिक दृष्टि से निम्बार्काचार्य के आविर्भावकाल, जन्मस्थान आदि के विषय में अधिक नहीं जानते हैं। आचार्य के अनुगामी उन्हें बहु प्राचीन मानते हैं। किन्तु रामकृष्ण भण्डारकर, राजेन्द्रलाल मित्र, डॉ० रमा चौधरी आदि विद्वान एवं विदुषी उन्हें रामानुज, म एवं वल्लभाचार्य के बाद अवतीर्ण मानते हैं। विपरीत पक्ष में जॉर्ज ग्रियरसन एवं मोनियर विलियम्स का कहना है कि वैष्नव सम्प्रदायों में निम्बार्क संप्रदाय ही प्राचीनतम है। प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० अमरप्रसाद भट्टाचार्य का मत है।कि श्री निम्बार्काचार्य एवं उनके साक्षात् शिष्य श्री निवासाचार्य बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के बाद एवं अद्वेैताचार्य भगवान् शंकराचार्य के पूर्व आविर्भूत हुए थे। उस हिसाब से उनका आविर्भाव ईस्वी ६वीं एवं ७वीं सदी के बीच होना चाहिए। संप्रदाय के अनुसार श्रीनिम्बार्काचार्य भगवान् विष्णु के सुदर्शन चक्र के अवतार थे। उनकी माता की नाम जयन्ती और पिता का नाम अरुण ॠषि था। उनके जन्मस्थान के संबंध में भी मतभेद है। वेदान्तरत्नमञ्जूषा के अनुसार आचार्य का जन्म आन्ध्र या तैलिंग देश में गोदावरी नदी के तट पर सुर्दशनआश्रम या अरुणआश्रम में हुआ। आचार्यचरित ग्रन्थ के अनुसार आचार्य का जन्म यमुना नदी के किनारे वृन्दावन में हुआ। औदुम्बरसंहिता कहती है कि उनका जन्म गोवर्धन के निकट निम्बग्राम में हुआ था।
सुनिश्विाचत प्रणाम के अभाव से हम निश्विाचतरुप से हम कुछ कह नहीं सकते। किन्तु आन्ध्र प्रदेश में उनका जनम हुआ यही मत अधिक जाँचता है संप्रदाय के अनुसार उनका जन्म कार्तिक पूर्णिमा में हुआ था।
अब हम श्रीमत् निम्बार्काचार्य के द्वारा प्रवर्तित मूल सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे। इस चर्चा का आधार है -- आचार्य का संक्षिप्त ब्रह्मसूत्र भाष्य वेदान्त-पारिजात सौरभ एवं उनके शिष्य श्रीनिवासाचार्य का विस्तृत भाष्य वेदान्त कौस्तुभ।
ब्रह्मसूत्र की व्याख्यापरंपरा में निम्बार्क सम्प्रदाय के सिद्धान्त को द्वेैताद्वेैत कहते हैं यह सिद्धान्त एक प्रकार का भेदाभादवाद ही है।
इस सिद्धान्त के अनुसार षडङ्गवेद एवं धर्ममीमांसा यानी पूर्वमीमांसा के अध्ययन के उपरान्त, गुरुभक्त, वैराग्यवान्, भगवत्कृपाकाङ्क्षी मुमुक्षु वेदान्त श्रवण के अधिकारी होते हैं (द्रष्टव्य ब्रह्मसूत्र १-१-१ पर भाष्य)।
निम्बार्क के सिद्धान्त अनेक विषयों पर रामानुज के सिद्धान्तों से मिलते जुलते हैं। निम्बार्क मत त्रित्ववादी है। इन की तत्त्व-समीक्षा में ब्रह्म, चित् एवं अचित् इन तीन तत्त्वों का चर्चा आती है।
ब्रह्म
निम्बार्क के सिद्धान्त में ब्रह्म कृष्ण नाम से उल्लिखित होते हैं। इस मत में ब्रह्म सजातीय एवं विजातीय भेद से रहित होने पर भी स्वगत भेदवान् है -- अर्थात् जीव जगत् उसका स्वगत भेद है। इसीलिए ब्रह्म निर्विशेष नहीं है बल्कि सविशेष है, वह निर्गुण नहीं बल्कि सगुण है। वह भीषण एवं मधुर दोनों गुणों का आकर या आधार है। सर्वशक्तिमत्त्व, शासकत्व आदि उसके भीषणगुण हैं और सौन्दर्य, आनन्द, करुणा आदि उसके मधुर गुण हैं। ब्रह्म निष्क्रिय अर्थात् क्रियाहीन नहीं है -- क्योंकि वह जगत् का स्त्रष्टा, पालक एवं संहारक है। वह जगत् का निमित्त कारण एवं उपादान कारण भी है -- इसलिए सारा जीव जगत् उसीका परिणाम है। इन सभी सिद्धान्तों में निम्बार्क मत रामानुज मत के अनुरुप है।
चित का अर्थ है चेतन पदार्थ अर्थात जीव। जीव के ये स्वरुप बताये गये हैं -- जीव ज्ञानस्वरुप एवं ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता, अणुपरिणाम, संख्या में अनेक, अनन्त, एवं प्रकार भेद से बद्ध मुक्त दोनों हो सकते हैं।
निम्बार्क के मतानुसार अचित् या जड़ तीन प्रकार के होते हैं- प्राकृत, अप्राकृत, एवं काल। प्रकृति से महदादि क्रम से संसार की सृष्टि होती है। प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण महदादि उनसे उत्पन्न दृश्यमान संसार प्राकृत कहलाता है। अचित् में अप्राकृत एक प्रकार शुद्धतत्त्व है -- यह अप्राकृत अचित्, ब्रह्म तथा मुक्तात्माओं के दिव्य शरीरों के और ब्रह्मलोक में पाये जाने वाले द्रव्यों के उपादान कारण है। काल अचित् होने पर भी अंशविहीन एवं विभु अर्थात् सर्वव्यापी अपरिणामी है अर्थात् उसका विभाग नहीं किया जा सकता एवं वह अपरिणामी एवं अविनाशी है। यहाँ तक निम्बार्क एवं रामानुज मत में विशेष भिन्नता नहीं है।
अब प्रश्न उठता है ब्रह्म के साथ जीव समुदाय का क्या संबंध है और यहीं उक्त दोनों सम्प्रदायों में मतभेद होता है। निम्बार्क के अनुसार ब्रह्म एवं जीवजगत् स्वरुप में भिन्नाभिन्न हैं। बात कुछ कठिन सी लगी। भिन्नाभिन्न का अर्थ है भिन्न भी है अभिन्न भी। ब्रह्म कारण है तो जीवजगत् है कार्य, ब्रह्म शक्तिमान, जीवजगत् शक्ति, ब्रह्म अंशी तो जीव जगत् अंशमात्र है। अब कार्य एवं कारण, शक्तिमान एवं शक्ति, अंशी एवं अंश परस्पर अभिन्न भी है- भिन्न भी। एक उदाहरण यह है मृत्पिण्ड अर्थात मिट्टी से एक घट बना हुआ है। मिट्टी कारण है और घट कार्य। घट मिट्टी का बना हुआ है। इसलिए उपादन की दृष्टि से दोनों अभिन्न है- एक ही है। किन्तु धट का एक भिन्न स्वरुप है-- जो मिट्टी में नहीं है। घट लाओ कहने पर कोई मिट्टी नहीं लाता। अत: धट एवं मिट्टी स्वरुप से परस्पर भिन्न भी है अभिन्न भी। ये दोनों धर्म से भी भिन्नाभिन्न हैं मिट्टी के धट की एक विशिष्ट आकृति है जो उसका धर्म है -- उसका कार्य है पानी लाना। मिट्टी का न तो वह धर्म या आकृति है और न वह कार्य। फिर भी दोनों अभिन्न भी है क्योंकि मिट्टी का जो धर्म हैं- वह दोनों में भी विद्यमान है। मिट्टी एक ही पदार्थ होने से घट से अभिन्न तो हुआ किन्तु उससे धट के अतिरिक्त द्रव्य भी बनता है अत: वह धट से भिन्न भी है । इसी प्रकार ब्रह्म एवं जीवजगत् स्वरुप से एवं धर्म सें भिन्नाभिन्न हैं। ब्रह्म कारण है और जीव एवं जगत् उसी का कार्य है। अत: कार्यकारण रुप में, स्वरुप में ब्रह्म एवं जीवजगत् अभिन्न है। फिर भी ब्रह्म का ब्रह्मत्व, जीव का जीवत्व एवं जगत् का जगत्त्व परस्पर भिन्न हैं -- एक नहीं है। ब्रह्म तो ब्रह्म ही है वह जीव या जगत् नहीं है।
उसी प्रकार ब्रह्म एवं जीवजगत् धर्म से भी भिन्न एवं अभिन्न हैं। जीव एवं जगत् ब्रह्म की तरह सत्य एवं नित्य हैं। जीव ब्रह्म की तरह चेतन एवं आनन्दमय है। किन्तु ब्रह्म के सभी गुण जीव या जगत् में नहीं है। जीव सृष्टिकर्ता नहीं होते, उसमें विभुत्व अर्थात् सर्वव्यापित्व या अविनाशित्व नहीं है। जीवों के अनेक गुण जैसे अनुत्व (क्षुद्रत्व), सकाम कर्म, फलभोग और जगत् के जड़त्व ब्रह्म में नहीं होते। अत: ब्रह्म एवं जीव-जगत् परस्पर भिन्न भी हैं।
अत: इस दर्शन के अनुसार भेद एवं अभेद, भिन्नता एवं अभिन्नता, समान रुप से सत्य, नित्य, स्वाभाविक एवं अविरुद्ध है। इसीलिए निम्बार्क के सिद्धान्त को स्वाभाविक भेदाभेदवाद कहा जाता है। रामानुज के विशिष्टाद्वेैत से इस सिद्धान्त का अन्तर यह है कि रामानुज के अनुसार भेद एवं अभेद दोनों के सत्य होने के बावजूद भी दोनों सामानरुप से सत्य नहीं है- - भेद की अपेक्षा अभेद ही अधिक सत्य है। जीवजगत् ब्रह्म से धर्मत: भिन्न होने पर भी स्वरुपत: अभिन्न है।
मुक्ति या मोक्ष
निम्बार्क के सिद्धान्त के अनुसार मुक्ति या मोक्ष के दो अङ्ग हैं - - ब्रह्मस्वरुप लाभ एवं आत्मस्वरुप लाभ। मुमुक्षु अर्थात् मुक्ति पाने की इच्छा रखने वाले, जब अपनी साधना से अधिकारी बनते हैं तो ब्रह्म की कृपा से उनके प्रारब्ध कर्म को छोड़ कर अन्यान्य सभी कर्मों के फल नि:शेष रुप से नष्ट हो जाते हैं- - मानों जल जाते हैं। प्रारब्ध कर्म के फल नष्ट नहीं होते हैं,उनके फलस्वरुप जब तक शरीर रहता है मुमुक्षु को संसार में ही रहना पड़ता है। शरीरपात होने के उपरान्त वह देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक पहुँचते हैं एवं ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं अत: निम्बार्क जीवन्मुक्ति स्वीकार नहीं करते हैं। यहाँ ब्रह्मस्वरुप लाभ का अर्थ यह नहीं है कि ब्रह्म के साथ एक या अभिन्न हो जाना, बल्कि ब्रह्मसायुज्य लाभ अर्थात् स्वरुपत: एवं धर्मत: ब्रह्म के सदृश, ब्रह्म जैसा होना है। दूसरी बात यह कि जीव आत्मस्वरुप को भी प्राप्त करता है। मुक्ति में ही जीवत्व का संपूर्ण विकास होता है। मुक्ति में जीव आत्मस्वरुप का विनाश नहीं होता है बल्कि उसके यथार्थ स्वरुप का एवं गुणों का चरम उत्कर्ष होता है। मुक्ति की अवस्था में जीव के अपने स्वरुप एवं धर्म के सम्पूर्ण विकास होते हैं इसलिए वह ब्रह्म के तुल्य होते हैं स्वयं ब्रह्म नहीं।
छन्दोग्य श्रुति कहती है कि धर्मत: आत्मा क्षुधा, तृष्णा, जरा, शोक और पाप से रहित एवं सत्यकाम एवं सत्यसंकल्प होती है। निम्बार्क के अनुसार मुक्ति की अवस्था में ही आत्मा को ही इन गुणों की उपलब्धि होती है, सामान्य अवस्था में नहीं। मुक्ति के पूर्व की स्थिति में जीव के ज्ञातृत्व, कर्तृव्य एवं भोक्तृत्व तो रहते हैं किन्तु बड़े ही सीमितरुप से रहते हैं शरीर एवं मन की शक्ति अल्प होने के कारण ज्ञान रहते हुए भी जीव अल्पज्ञ एवं भ्रान्त होता है, कर्ता होने पर भी सत्यसंकल्प एवं कामाचार (जो भी इच्छा हो करें) नहीं होता और भोक्ता होने पर भी संपूर्णतया आनन्दमय नहीं हो सकता है। किन्तु मुक्ति की अवस्था में जीव ब्रह्म ही की तरह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् एवं आनन्दमय होता है। ब्रह्म ही की तरह शुद्ध चेतन स्वरुप एवं कल्याण गुणों से युक्त होता है। ब्रह्म से मात्र भेद इतना ही रहता है कि वह ब्रह्म की तरह विभु अर्थात् सर्वयापी नहीं होता एवं सृष्टि की शक्ति नहीं रखता। मुक्त जीव भी अणु, सृष्टिशक्ति हीन एवं ब्रह्म के अधीन रहता हैं।
साधना
साधनापक्ष में निम्बार्क निष्काम कर्म पर बहुत अधिक महत्त्व देतें हैं बिना किसी कामना से शास्र के अनुसार वर्णाश्रम धर्म के ठीक ठीक पालन से चित्त की शुद्धि होती है एवं चित्त-शुद्धि ज्ञान की उत्पत्ति का कारण बनती है। निम्बार्क चार साधनों का उल्लेख करते हैं, वे हैं ज्ञान, भक्ति और ध्यान प्रपत्ति एवं गुरुपसत्ति। १. ब्रह्मज्ञान तथा आत्मज्ञान, मुक्ति का उपाय है। ज्ञान के लिए संन्यास लेना अनिवार्य नहीं है, सदाचारी गृहस्थ भी ज्ञानलाभ कर सकता है। २. ज्ञान की तरह ध्यान भी साक्षात् रुप से मोक्ष का उपाय है गंभीर भगवत्प्रीति ही भक्ति है। भक्ति दो प्रकार की है- - परा एवं अपरा। भक्ति के सिद्धान्त में निम्बार्क एवं रामानुज में अधिक मतभेद नहीं है। रामानुज की भक्ति श्रद्धामूलक है अर्थात् ऐश्वर्यप्रधान और निम्बार्क की भक्ति प्रीतिमूलक है अर्थात् माधुर्यप्रधान है। ज्ञानमूलक भक्ति परा एवं कर्ममूलक भक्ति अपरा कहलाती है। ३. ब्रह्म के प्रति संपूर्ण आत्मसमपंण को प्रपत्ति कहते हैं। ४. गुरु के प्रति आत्म समपंण को गुरुपसत्ति कहते हैं। अगर मुमुक्षु गुरु के प्रति आत्मसमपंण करते हैं तो गुरु ही शिष्य को ब्रह्म के पास के पहुँचाते हैं। गुरुपसत्ति साक्षात् रुपसे मुक्ति का उपाय है। ज्ञान एवं ध्यान के लिए उच्चवर्ण के साधक ही अधिकारी हैं किन्तु प्रपत्ति एवं गुरुपसत्ति के लिए सभी वर्ण अधिकारी हैं।
धर्मतत्त्व
निम्बार्क संप्रदाय का धर्मतत्त्व - - ब्रह्म एवं जीव, उपास्य एवं उपासक के भेद या भिन्नता पर ही आधारित है। यह उपास्य-उपासक संबंध नित्य है, क्योंकि जीव मुक्त होने पर भी ब्रह्म से भिन्न एवं ब्रह्म के उपासक रहता है। इस संप्रदाय के अनुसार श्रीकृष्ण एवं श्रीराधाकृष्ण उपास्य हैं। निम्बार्क का मत रामानुज मत की तरह उतना दर्शनमूलक एवं विचारबहुल नहीं है। यह मतवाद अधिकार धर्ममूलक एवं भावुकता प्रधान है - यद्यपि इसमें दार्शनिक चर्चा की कमी नहीं है।
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥